विनय साग़र जायसवाल

इस दौरे-कशाकश में कैसी ये सियासत है 


हंसों के कबीलों पर बगुलों की निज़ामत है


 


यह सोच के ही चुनना सिरमौर हवेली का 


इस घर की तिजोरी में हम सब की अमानत है


 


यह कह के गये पुरखे नस्लों से विरासत में


लम्हों की हिफ़ाज़त ही सदियों की हिफ़ाज़त है


 


यह देख के मुंसिफ़ ने सर पीट लिया अपना


चूहों की वकालत से बिल्ली की जमानत है


 


रखना ऐ वतन वालों सरहद पे निगाहों को 


हम ख़ुद ही सलामत हैं गर मुल्क सलामत है


 


कुछ हादसे ही ऐसे गुज़रे हैं ज़माने में


हर शख़्स की आँखों में जो आज भी दहशत है


 


इस दौर के मुजरिम भी आखिर हैं हमीं *साग़र* 


या आग धुआँ दहशत सब किस की बदौलत है


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


एस के कपूर श्री हंस

नहीं हौंसला गँवाया तो


जान लो जीत पक्की है।।


 


मुक़द्दर मेहनत से बनता,


कोई ख्वाब नहीं है।


जान लो कि बिना कर्म के,


कोई कामयाब नहीं है।।


किस्मत उंगलियों को,


खूब पहचानती हैं।


मेहनत वो कर सकती जिस,


का कोई हिसाब नहीं है।।


 


वक़्त हँसाता और वक़्त ही,


रुलाता भी है।


वक़्त ही हमको बहुत कुछ,


सिखाता भी है।।


जो जानता वक़्त की कीमत,


वही पाता है मंज़िल।


वरना कभी भी वो सफल, 


हो पाता नहीं है।।


 


आँखों में चमक और चेहरे,


पर हमेशा नूर रखो।


अपने भीतर आत्म विश्वास,


तुम जरूर रखो।।


चेहरे पर मत आने दो कभी,


तुम हार की शिकन।


जीत पक्की है तुम्हारी बस,


हताशा तुम दूर रखो।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर श्री हंस


*बरेली।।*


मोब।।। 9897071046


                      8218685464


राजेंद्र रायपुरी

 सबसे बड़ा सवाल 


 


मार रहे रावण सुनो,


                   तुम तो सालों साल।


फिर क्यों कद उसका बढ़े,


                सबसे बड़ा सवाल।


 


हर दिन रावण बढ़ रहे,


                 आखिर क्या है बात।


ध्यान इधर दो आप भी, 


                विनय यही है तात।


 


रावण हरण किया भले,


                   किया न अत्याचार।


रावण अब के रेप कर, 


                    नारी को दें मार।


 


उचित कहाॅ॑ तक यह कहो,


                 करके तनिक विचार।


नारी कब तक पुरुष का, 


                     झेले अत्याचार।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-1


 


कौशल्या-पुत्रम श्रीरामचंद्रम रघुवरम,


त्रिशिरादिशत्रु-नाशकम-श्रीदशरथ-सुतम।


श्यामलांगम ब्रह्मशंकरपूजितं सर्वप्रियम,


पाणौ चापसायकम दाशरथिम सीतापतिम।


कृपालुरामम दयालुरामम श्रीरामम नमाम्यहम।।


 


नमाम्यहम पवनतनयम हनुमंतम रामप्रियम,


अतुलितबलधामम स्वर्णाभबदनम कपीश्वरम।


रावणसैन्यबलघातकम मारुतिनंदनम महाकपीम,


ज्ञानिनामश्रेष्ठम गुणज्ञाननिधिम हनुमतबलवंतम।।


सत्य कहहुँ मैं हे प्रभु रामा।


करहु नाथ मम हिय बिश्रामा।।


    देहु मोंहि निज भगति निरभरा।


    चाहहुँ नहिं मैं अरु कछु अपरा।।


करहु दूर दुरगुन मम मन तें।


भागहिं काम-क्रोध यहि तन तें।।


     जामवंत कै सुनि अस बचना।


     कह हनुमंत धीर तुम्ह रखना।।


जोहत रहहु तुमहिं सभ भाई।


कंद-मूल-फल खाई-खाई।


     जब तक मैं इहँ लौटि न आऊँ।


      सीय खोज करि तुमहिं बताऊँ।।


तब हनुमंत नवा सिर अपुना।


सीय खोज कै लइ के सपना।।


     रामहिं भाव अपुन हिय रखि के।


     तुरतै चले कपिन्ह सभ लखि के।।


जलधि-तीर देखा इक परबत।


राम सुमिरि तहँ चढ़िगे हनुमत।।


     सहि न सकैं गिरि बल बलवंता।


     चढ़हिं जबहिं तेहिं पे हनुमंता।


कौतुक बस उछरैं हनुमाना।


तुरतै गिरि पाताल समाना।।


    राम क बान अमोघय नाईं।


    उछरि चलैं हनुमान गोसाईं।


सोरठा-थकित जानि हनुमान,आ बिचार नृप सिंधु-मन।


           कह धरि कै तुम्ह ध्यान,जाहु मैंनाकु अबहिं तहँ।।


                          डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


 


***********************************


बारहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


बहु-बहु नदी-कछारन जाहीं।


उछरहिं मेंढक इव जल माहीं।।


   जल मा लखि परिछाईं अपुनी।


   कछुक हँसहिं करि निज प्रतिध्वनी।।


संतहिं-ग्यानिहिं ब्रह्मानंदा।


स्वयम कृष्न तेहिं देंय अनंदा।।


  सेवहिं भगतहिं दास की नाईं।


इहाँ-उहाँ तिहुँ लोकहिं जाईं।।


रत जे बिषय-मोह अरु माया।


बाल-रूप प्रभु तिनहिं लखाया।।


    अहहिं पुन्य आतम सभ ग्वाला।


    खेलहिं जे संगहिं नंदलाला।।


जनम-जनम ऋषि-मुनि तप करहीं।


पर नहिं चरन-धूरि प्रभु पवहीं।।


     धारि क वहि प्रभु बालक रूपा।


      ग्वाल-बाल सँग खेलहिं भूपा।।


रह इक दयित अघासुर नामा।


पापी-दुष्ट कपट कै धामा।।


    रह ऊ भ्रात बकासुर-पुतना।


     तहँ रह अवा कंस लइ सुचना।।


आवा तहाँ जलन उर धारे।


अवसर पाइ सबहिं जन मारे।।


     करि बिचार अस निज मन माहीं।


     अजगर रूप धारि मग ढाहीं।।


जोजन एक परबताकारा।


धारि रूप अस मगहिं पसारा।।


    निज मुहँ फारि रहा मग लेटल।


    निगलै वहिं जे रहल लपेटल।।


एक होंठ तिसु रहा अवनि पै।


दूजा फैलल रहा गगन पै।।


     जबड़ा गिरि-कंदर की नाईं।


     दाढ़ी परबत-सिखर लखाईं।


जीभइ लाल राज-पथ दिखही।


साँस तासु आँधी जनु बहही।।


      लोचन दावानलइ समाना।


      दह-दह दहकैं जनु बरि जाना।।


सोरठा-अजगर देखि अनूप,कौतुक होवै सबहिं मन।


           अघासुरै कै रूप,निरखहिं सभ बालक चकित।।


                               डॉ0हरि नाथ मिश्र


                                9919446372


डॉ0 निर्मला शर्मा

लो हो गया रावण दहन


 


साल 


दर साल


बुराई के प्रतीक 


रावण का पुतला


 बड़ा


-बड़ा और


भी बड़ा होता


जा रहा है।


समाज


 भी तामसिक


वृत्ति के बोझ तले


दबता जा रहा है।


जला 


कर पुतला


बुराई का सोचते


हैं हम यूँ


बुराई


मिट गई


संसार से खुशियाँ


खोजते हैं ज्यों


बढ़ा


है कद


अगर रावण का


तो दहला है


कलेजा


हर क्षण


व्यथित होती वैदेही


का।


कलियुग में


अब न कोई


राम जन्मे हैं



होगा अंत


रावण का।


अगर


रावण जलाना है


तो मन के


द्वार सब खोलो


जला


दो तामसिक


वृत्ति करो तृष्णा


का मन मे दमन


जागृत


होगी अगर


 आत्मा मिटेगा हर


कलुष मन का।


जलेगा


धूँ-धूँ


कर रावण


हो जाएगा उसका


संसार से गमन।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


आचार्य गोपाल जी

हे मां आदिशक्ति हम पर कृपा कर दीजिए, 


हम सब है तेरे ही बालक अपनी शरण में लीजिए,


हे मातृ ममतामई हम पर उपकार ये कर दीजिए,


रोग शोक संताप हर कर निश्चिंत हमें कर दीजिए, 


राग द्वेष को दूर कर प्रेम अंतर भर दीजिए ,


दूर कर बाधा विघ्नों को निस्कंट पथ दीजिए,


नवरात्रि में नव रूप धरकर नूतन हमें कर दीजिए,


हे मातु ममतामयी मुझ मूरख मतिमंद को ज्ञान चक्षु दीजिए,


हे प्रथम दिवस की शैलपुत्री अडिग मुझे कर दीजिए,


ब्रह्मचर्य भाव मन में मेरे ब्रह्मचारिणी भर दीजिए,


 हे चंद्रघंटा चंचला चरित्र निर्मल कर दीजिए,


कुष्मांडा कुमार्ग से हटाकर अपने शरण में लीजिए,


हे स्कंदमाता कात्यायनी हम पर कृपा कर दीजिए,


नाश करके काल का कालरात्रि कंचन हमें कर दीजिए,


हे महागौरी सिद्धिदात्री सर्व सिद्धि हमें भी दीजिए,


आजाद अकेला आया शरण कुछ तो दया कर दीजिए,


 


आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला बरबीघा वाले


अभय सक्सेना

दशहरा


*******


अभय सक्सेना एडवोकेट


 


दमन कर दशानन 


का राम ने,


       पापी और अत्याचारी


       को मिटाया था।


शीश विहीन करके


फिर राम ने,


        रावण को मिट्टी


        में मिलाया था।


हरा लंकेश को


फिर राम ने,


        दंभ उसका चुटकियों


        में मिटाया था।


रामराज्य की स्थापना


कर राम ने ,


        फिर विभीषण को


        लंकेश बनाया था।


       *************************


अभय सक्सेना एडवोकेट


४८/२६८, सराय लाठी मोहाल,


जनरल गंज,कानपुर नगर।


मो.९८३८०१५०१९,


८८४०१८४०८८.


२५/१०/२०


 डा. नीलम

*रावण के सवाल*


 


मैं तो अपनी सभी बुराई


मुख पर लेकर जीता था


मन का हर भाव मेरे 


चेहरे पर लक्षित होता था


 


दसआनन मेरे दस बुराई के


प्रतीक थे


पर नाभि में मेरे प्राण अमृत


कुंभ में थे


 


कोई हिना दे कोई भी कुकर्म मेरा ,जो मैने जन संग किया


शिव का परम भक्त फिर कैसे कामी हो सकता था


 


भाई था ,बहन की रक्षा का वादा हर बार करता था


फिर बहन के अपमान को 


क्यों कर सहन करता मैं


 


सीता का अपहरण मात्र 


अहसास कराना भर था


नारी अस्मत से खिलवाड़


करना नहीं मेरा मकसद था


 


अन्याय का प्रतीक मुझे बना


सबने मेरा दहन किया


पर राम ने कब लंका में मेरा दहन किया?


 


मेरी अंतिम स्वास निकले


उससे पहले !


भ्राता लखन को मुझसे ही सीख लेने भेजा था


 


बार- बार हर बार मुझे तुम जलाते आए हो


पर अपने अंदर के राक्षस


को कब कहाँ मार पाए हो


 


तुम में रावण बसता है


कैसे कह दूं


मुझसा ग्यान-ध्यान कहाँ तुममें बतला दो तुम


 


भक्ति,शक्ति और नीति 


तीनों ही गुण थे मुझमें


तुम में कौनसा गुण है


बतलादो मुझको तुम


 


मेरी वाटिका में तो सुरक्षित सीता रही


अपहरण किया अवश्य था 


मगर नार पराई सम्मानित रही


 


अहम् अहंकार और हवस में


तुम झुलसते रहते हो


हो अगन तेज तो माँ ,बहन


बेटी को भी सरेआम शिकार बनाते हो


 


फिर किस हक से बतलादो


तुम मुझको जलाते हो


अपने भीतर की हवस को


क्यों नहीं जलाते हो।


 


       डा. नीलम


डॉ. रामबली मिश्र

रावण रावण मत कहो, रावण कारण राम।


रावण यदि होता नहीं, होते कभी न राम।।


 


अंधकार यदि हो नहीं, क्या प्रकाश का अर्थ।


अंधकार ही दे रहा, है प्रकाश को अर्थ।।


 


युग्मों की इस सृष्टि में, बहुत बड़ा है योग।


श्याम करत है श्वेत काबहुत अधिक सहयोग।।


 


रावण से ही राम का, इस दुनिया में नाम।


रावण यदि होता नहीं , होते कहाँ के राम।।


 


दुष्ट अगर होते नहीं, कौन पूजता संत।


सन्तों की पहचान तब, जब दुष्टों का अंत।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुषमा दीक्षित शुक्ला

हे!राम


 


हे!राम तुम्हारी धरती पर,


अब सत्य पराजित होता है ।


 


चहुँ ओर दिखे अन्याय यहाँ,


नित ,रावण, पूजित होता है ।


 


तुमने तो कुटूम्ब की खातिर ,


राज्य त्याग वनवास लिया ।


 


भ्रातृ धर्म ,पति धर्म निभाया ,


पापी रावण का नाश किया ।


 


विजय सत्य की होती है ,


यह ही सन्देश तुम्हारा है ।


 


हे!पुरुषोत्तम तुम फिर जन्मो ,


जन जन ने तुम्हें पुकारा है ।


 


हे ! राम तुम्हारी धरती पर ,


अब पाप कपट फिर छाया है।


 


सब त्राहिमाम हैं बोल उठे ,


जब दिखा दुःखों का साया है।


 


हे! राम दया दृग खोलो प्रभु,


अब फिर से सब संताप हरो ।


 


है भोली जनता बिलख रही ,


हे! पुरुषोत्तम अब माफ़ करो ।


 


जब रावण, खर ,दूषण मारे,


तो इन दुष्टों की क्या क्षमता।


 


अतुलित बलशाली राम प्रभू,


तुमसे दैत्यों की क्या समता।


 


हे! प्रभू बचा लो सृष्टि को ,


यह ही फरियाद हमारी है ।


 


हे! पुरुषोत्तम तुम फिर प्रकटो


ये दुनिया तुम्हें पुकारी है ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दिव्य दशहरा पर्व यह,रामचंद्र-उपहार।


दनुज-दलन कर राम ने,किया बहुत उपकार।।


 


रावण-कुल का नाश कर,किए पाप का अंत।


अघ-बोझिल इस धरा का,हरे भार भगवंत ।।


 


सदा सत्य की है विजय,किए प्रमाणित राम।


मद-घमंड-छल-छद्म से,बने न कोई काम ।।


 


अभिमानी रावण मरा,जला पाप का लोक।


भक्तों को प्रभु त्राण दे,दिए वास परलोक।।


 


सत्य-धर्म के हेतु प्रभु,लिए मनुज-अवतार।


मर्यादा की सीख दे, जग को लिए उबार।।


 


कपट-झूठ,छल-छद्म पर,मिली विजय अनुकूल।


इसी दिवस शुभ पर्व पर,मरा काल प्रतिकूल।।


 


राम-नाम शुभ मंत्र है,जपो सदा दिन-रात।


रहो मनाते पर्व यह,बन जाएगी बात।।


          © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


              9919446372


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

 हो विजया मानव जगत


 


सकल मनोरथ पूर्ण हो , सिद्धदातृ मन पूज।


सुख वैभव मुस्कान मुख , खुशियाँ न हो दूज।।१।।


 


सिद्धिदातृ जगदम्बिके , माँ हैं करुणागार।


मिटे समागत आपदा , जीवन हो उद्धार।।२।।


 


सिंह वाहिनी खड्गिनी , महिमा अपरम्पार। 


माँ दुर्गा नवरूप में , शक्ति प्रीति अवतार।।३।।


 


खल मद दानव घातिनी , करे भक्त कल्याण।


कर धर्म शान्ति स्थापना , सब पापों से त्राण।।४।।


 


श्रद्धा मन पूजन करे , माँ गौरी अविराम।


रिद्धि सिद्धि अभिलाष जो , पूरा हो सत्काम।।५।।


 


विजय मिले सद्मार्ग में , करे मनसि माँ भक्ति।


लक्ष्मी वाणी साथ में , माँ दुर्गा दे शक्ति।।६।।


 


जन सेवा परमार्थ मन , भक्ति प्रेम हो देश।


सिद्धिदातृ अरुणिम कृपा , प्रीति अमन संदेश।।७।।


 


हो विजया मानव जगत,समरस नैतिक मूल्य।


मानवीय संवेदना , जीवन कीर्ति अतुल्य।।८।।


 


कलुषित मन रावण जले , हो नारी सम्मान।


धर्म त्याग आचार जग , वसुधा बन्धु समान।।९।।


 


बरसे लक्ष्मी की कृपा , सरस्वती वरदान।


माँ काली नवशक्ति दे , देशभक्ति सम्मान।।१०।।


 


पुष्पित हो फिर से निकुंज , प्रकृति मातु आनन्द।


चहुँदिशि हो युवजन प्रगति,सुरभित मन मकरन्द।।११।।


 


विजयादशमी सिद्धि दे , मिटे त्रिविध संताप।


हर दुर्गा कात्यायनी , कोरोना अभिशाप।।१२।।


 


डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

यह ब्रह्मा की सृष्टि निराली,


कितनी प्यारी-प्यारी है।


विविध पुष्प सम विविध जीव से-


सजी अवनि की क्यारी है।।


 


कुछ जल में,कुछ थल में,नभ में,


सबका रूप निराला है।


कोई काला,कोई गोरा,


कोई भूरे वाला है।


बोली-भाषा में है अंतर-


यही सृष्टि बलिहारी है।।


       सजी अवनि की क्यारी है।।


 


उत्तर-दक्षिण,पूरब-पश्चिम,


दिशा प्रत्येक सुगंधित है।


अद्भुत संस्कृति-कला-सृष्टि यह,


जीवन-स्वर-संबंधित है।


ब्रह्मा की यह अनुपम रचना-


उपयोगी-हितकारी है।।


      सजी अवनि की क्यारी है।


 


पर्वत-नदी और वन-उपवन,


बहते झरने झर-झर जो।


पंछी के कलरव अति सुखमय,


बहे पवन भी सर-सर जो।


प्रकृति सृष्टि की शोभा बनकर-


पुनि बनती उपकारी है।।


       सजी अवनि की क्यारी है।।


 


बहती रहे सृष्टि की धारा,


यह प्रयास नित करना है।


इससे हम हैं,हमसे यह है,


यही भाव बस रखना है।


हर प्राणी की रक्षा करना-


यही ध्येय सुखकारी है।।


     सजी अवनि की क्यारी है।


 


ऊपर गगन,समंदर नीचे,


दोनों रँग में एका है।


ममता-समता-प्रेम-परस्पर,


एक सूत्र का ठेका है।


प्रकृति-पुरुष-संयोग-सृष्टि यह-


ब्रह्मा की फुलवारी है।


      सजी अवनि की क्यारी है,


      कितनी प्यारी-प्यारी है।।


            ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                9919446372


अर्चना द्विवेदी

नमो हे!मातु जग जननी,करो उपकार हे!देवी,


भुजाओं में प्रबल बल हो,मिले उपहार हे!देवी।


कभी भी सच नहीं हारे, छलावे,झूट के आगे,


न अंतस में कलुषता हो,रहे बस प्यार हे!देवी।।


 


                    अर्चना द्विवेदी


डॉ. रामबली मिश्र

जानेवाले


 


जानेवाले को जाने दो ,


     नहीं कहो उसको रुकने को।


रोकोगे तो वह ऐंठेगा,


     जाने दोगे तो बैठेगा।


लोगों की है रीति निराली,


      सीधा कर तो उलटा होगा ।


केवल अपना काम करो बस,


     छोड़ दूसरों के चक्कर को।


करने दो जो जैसा करता,


     ठीक करो अपने चक्कर को।


अपने में कौशल आने दो,


     अपनी कमी दूर जाने दो।


अपने को ही नियमित करना,


      पर-निंदा से बच कर रहना।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


मदन मोहन शर्मा सजल

आश्विन विजयादशमी, अहंकार का नाश। 


जीत हुई थी सत्य की, असत्य बांधा पाश।।01।।


 


अभिमानी रावण मरा, अंत हुए दुष्कर्म। 


विजय दिवस मनता रहा, सुधि जन जाने मर्म।।02।। 


 


लंकापति रावण हुआ। मद में था वह चूर। 


सीता माता हरण कर, इतराया भरपूर।।03।।


 


राम बाण संधान कर, रावण मार गिराय। 


काल बनी दशमी तिथि, विजयादिवस मनाय।।04।।


 


शंकर की सेवा करी, लंकापति लंकेश। 


राम हाथ मारा गया, कपटी असुर विशेष।।05।। 


 


दुष्ट किया सीता हरण, किया कलंकित वंश।


अभिमानी मारा गया, राम किया विध्वंस।।06।।


 


विजयादशमी पर्व है, सत्य पाप पहचान। 


रीत सदा से आ रही, मानव मन में मान।।07।।


 


धूं-धूं कर रावण जले, अहिरावण बलवान।


मेघनाथ का साथ हो, विजयादशमी मान।।08।। 


 


अहंकार जड़ मूल है, करता बुद्धि विनाश।


विजयादशमी सीख है, सत्य सर्वत्र प्रकाश।।09।। 


 


विजयादशमी पर करो, मन संकल्प उचार।


धर्म राह हम सब चलें, त्यागें बुरे विचार।।10।।


★★★★★★★★★★★★


मदन मोहन शर्मा सजल


कोटा 【राजस्थान】


विनय साग़र जायसवाल

मैं इस बात को भूल पाता नहीं


तू वादा कभी भी निभाता नहीं


 


मुहब्बत का इज़हार मैं कर सकूँ


वो नज़दीक इतना भी आता नहीं


 


निगाहों पे तेरा है ऐसा असर 


मुझे और कुछ अब लुभाता नहीं


 


नहीं रूठता वो यही सोचकर


मैं रूठे हुए को मनाता नहीं


 


किसी ग़म से लगता वो दो चार है 


मुझे देखकर मुस्कुराता नहीं


 


ख़फ़ा मुझसे है हाक़िम-ए-वक़्त यूँ


मैं सर उसके आगे झुकाता नहीं


 


गये तन्हा मुझको सभी छोड़कर


मगर तेरा ग़म है कि जाता नहीं


 


ये साग़र मेरी खासियत है कि मैं


धुऐं में सभी कुछ उड़ाता नहीं


 


विनय साग़र जायसवाल


एस के कपूर श्री हंस

आज के नौनिहाल, कल के


कर्ण धार हैं।।


 


गुम सा आज बचपन और


गायब रुनझुन है।


आंगन का खेला और


गायब चुन मून है।।


बच्चे बन गये मानो चाबी


का कोई खिलौना।


बारिश का पानी और गायब


कश्ती की सुन सुन है।।


 


आ गया ऑटोमैटिक का


नया दौर है।


मोबाइल पे उंगलियाँ और


नहीं भाग दौड़ है।।


ऑन लाइन संस्कार और


संस्कृति आते नहीं।


उम्र से पहले बड़े हो रहे


नहीं कोई गौर है।।


 


किधर जा रही परवरिश


जरूरत है देखने की।


कुछ गलत कर सीख रहे


जरूरत है रोकने की।।


गीली मिट्टी उनकीऔर राहें 


हैं फिसलती हुई।


थामना बहुतआवश्यक और


जरूरत है सोचने की।।


 


पहले दिनऔर पहले सबक


से संस्कार जरूरी है।


बचपन में मासूमियत से न


बन जाये दूरी है।।


वक़्त निकल गया तो फिर


हाथ नहीं आयेगा।


बच्चों को समय न दे पायो


ये कैसी मजबूरी है।।


                  


कल पर मत टालो आज का


ही समय सिखाने का।


अच्छा बुरा सही गलत का


भेद उन्हें बताने का।।


आज के नौनिहाल देश के


कर्ण धार हैं बच्चे।


हम सब पर ही भार है देश का


भविष्य बनाने का।।


एस के कपूर श्री हंस


*बरेली।


एस के कपूर श्री हंस

समाज का सुधार भी करें


और खुद को भी सुधारें।


औरों की ही गलती ही नहीं


अंतःकरण को भी निहारें।।


विजय दशमी का यह पर्व


है बुराई पर जीत का।


बस पुतला दहन ही काफी


नहीं भीतर का रावण मारें।।


*2................*


हमारे भीतर छिपा दशानन


उसको भी हमें हराना है।


काट काट कर दसशीश हमें


नामो निशान मिटाना है।।


यही होगा विजयदशमी पर्व


का सच्चा हर्ष उल्ल्हास।


अपने भीतर के रावण पर   


ही हमें विजय को पाना है।।


एस के कपूर श्री हंस।।।।।बरेली।


राजेंद्र रायपुरी

प्रस्तुत है दोहा छंद पर एक मुक्तक--


 


आ ही गया चुनाव फिर, बढ़े आप के मोल। 


भैया हम को वोट दें, रहे  सभी  हैं  बोल। 


लेकिन कहना मानिए, होते खत्म चुनाव,


पाॅ॑व पकड़ते जो अभी, हो जाएंगे गोल।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

प्यार का तोहफा


 


बीते बाते सोचकर


मत बन कब्रिस्तान


बीते और भविष्य पर


नहीं दीजिये ध्यान


माता पिता गुरु और


प्रभु के चरणों से कर लो प्यार


प्यार का तोहफा अवश्य मिलेगा


साथ तुम्हारे सदा रहेगा


आशीर्वाद सुबहो शाम


झेल लिया जिस शख्स ने


सांसारिक पीड़ा का संघर्ष


एक दिन उसके सामने


नमन करेगा हर्ष


अनुशासित जीवन से कर लो प्यार


प्यार का तोहफा अवश्य मिलेगा


पता नहीं कब तक चले


मेरी और तेरी श्वास


धोखा दे दे किस समय


इसका क्या विश्वास


नहीं लगाओ किसी से


किसी तरह की आस


आत्मविश्वास और सत्कर्मों से कर लो प्यार


प्यार का तोहफा अवश्य मिलेगा


कलयुग में पैसा ही है खुदा


समय हमे समझाय


बिन पैसे विद्वान को भी


मिले न इक कप चाय


पर,कर्म भाग्य के सत्य से


खींचो बड़ी लकीर


गुरु मंत्र से कर लो प्यार


प्यार का तोहफा अवश्य मिलेगा


नूतन लाल साहू


दयानन्द त्रिपाठी दया

सम्पूर्ण जगत है तुझमें बसता 


मां तूं ही सबकी पालन हार है


तेरे हवन, दीप, नैवेद्य से


मां तरता सकल संसार है।


 


श्वेत तुम्हारी आभा माते


भाती सबको लगती पावन है


श्रीफल से लगता भोग तुम्हारा


हर कष्ट जगत का बृषभ वाहन है।


 


मां सबकी पूर्ण करे मनोरथ सारे


ध्यान धरे जो तेरा ऐसा प्रताप है


सुख-संतान, धन-वैभव से भर देती


महिमा अवर्णनीय हर लेती संताप है।



दयानन्द त्रिपाठी दया


महराजगंज, जनपदवार


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चतुर्थ चरण (श्रीरामचरितबखान)-18


 


देखु सभें मैं भवा सपंखा।


राम-कृपा मोंहि मिली असंखा।।


     पातक सुमिरि नाम प्रभु रामहिं।


     भव-सागर असीम तिर जावहिं।।


तुम्ह सभ प्रभु कै भगत अनूपा।


हिय महँ राखि राम कै रूपा।।


     सुमिरत खोजहु कछू उपाया।


     अवसि सुझा दइहैं रघुराया।।


अस गीधहि कह उड़ा पराई।


कहत बचन अस आस जगाई।।


      जामवंत कह होइ उदासा।


      मैं अब बृद्ध, तरुन-बल-नासा।।


एक बेरि मैं निज तरुनाई।


सुनहु तात निज ध्यान लगाई।।


     दूइ पहर महँ सात पकरमा।


     किए रहे हम राम सुकरमा।।


निज काया बढ़ाइ बामन कै।


बाँधि रहे जब बलि दुसमन कै।।


    अंगद कहा पार मैं जाऊँ।


     पर, संसय की लौटि न पाऊँ।।


जामवंत तब कह समुझाई।


तुम्ह सेनापति तुम्ह कस जाई।।


    सुनहु पवन-सुत तजि संतापा।


     जानउ भुज-बल अपुन प्रतापा।।


तुम्ह सागर बल-बुद्धि-बिबेका।


समरथ करनि करम बहु नेका।।


    मारुति-सुत तुम्ह मारुति नाईं।


    धाइ सकत तुम्ह यहि तरुनाईं।।


तोर जनम प्रभु-कारजु ताईं।


भयउ जगत,तुम्ह ई तन पाईं।।


    अस सुनि हनुमत गिरि आकारा।


    तुरत भए अति बृह्दाकारा ।।


कंचन बदन सुमेरु समाना।


तेजवान-महान हनुमाना।।


    कहे तुरत मैं नाघहुँ सागर।


    करउँ राम-रिपु-नीति उजागर।।


तुरत त्रिकुटि उखारि मैं लाऊँ।


रावन-कुल बिनास करि आऊँ।।


    सिंहनाद करि कह हनुमाना।


    करब काजु तुरतै भगवाना।।


जामवंत अब मोहिं सिखावउ।


कस हम करीं काजु बतलावउ।


     लंक जाइ खोजि सिय माता।


    आवहुँ तुरत लेइ सुधि ताता।।


सेष काजु प्रभु करिहैं खुदहीं।


लीला करिहैं मरकट सँगहीं।।


दोहा-राम बैद्य जग-रोग कै,जे मन अस बिस्वास।


        राम देहिं औषधि तिनहिं,करैं रोग सभ नास।।


        राम करैं मन अति बिमल,धो के दुरगुन-मैल।


        हरन करैं भव-पीर सभ,जौं इहँ दुक्ख भैल।।


प्रभु कै नाम सुमिरि हनुमंता।


कारजु करन सकल भगवंता।।


     आगे बढ़े सीय के खोजन।


     नाँघे सिंधु उग्र सत जोजन।।


            डॉ0 हरि नाथ मिश्र


             9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-1


 


सुनहु परिच्छित कह सुकदेवा।


बन महँ लेवन हेतु कलेवा।।


    नटवर लाल नंद के छोरा।


   लइ सभ गोपहिं होतै भोरा।।


सिंगि बजावत बछरू झुंडहिं।


तजि ब्रज बनहीं चले तुरंतहिं।।


    सिंगी-बँसुरी-बेंतइ लइता।


    बछरू सहस छींक के सहिता।।


गोप-झुंड मग चलहिं उलासा।


उछरत-कूदत हियहिं हुलासा।।


     कोमल पुष्प-गुच्छ सजि-सवँरे।


     कनक-अभूषन पहिरे-पहिरे।।


मोर-पंख अरु गेरुहिं सजि-धजि।


घुँघची-मनी पहिनि सभ छजि-छजि।।


     चलें मनहिं-मन सभ इतराई।


     सँग बलदाऊ किसुन-कन्हाई।।


छींका-बेंत-बाँसुरी लइ के।


इक-दूजे कै फेंकि-लूटि कै।।


     छुपत-लुकत अरु भागत-धावत।


     इक-दूजे कहँ छूवत-गावत ।।


चलै बजाइ केहू तहँ बंसुरी।


कोइल-भ्रमर करत स्वर-लहरी।।


     लखि नभ उड़त खगइ परिछाईं।


      वइसे मगहिं कछुक जन धाईं।।


करहिं नकल कछु हंसहिं-चाली।


चलहिं कछुक मन मुदित निहाली।


     बगुल निकट बैठी कोउ-कोऊ।


     आँखिनि मूनि नकल करि सोऊ।।


लखत मयूरहिं बन महँ नाचत।


नाचै कोऊ तहँ जा गावत ।।


दोहा-करहिं कपी जस तरुन्ह चढ़ि, करैं वइसहीं गोप।


       मुहँ बनाइ उछरहिं-कुदहिं, प्रमुदित मन बिनु कोप।।


                           डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


सुनीता असीम

नशा शराब का सा है ख़ुमार भेजा है।


खिला खिला सा हुआ दिल करार भेजा है।


*******


जिसे गुरू था बताया हमें जमाने ने।


मगर असल में यहां इक लबार भेजा है।


*******


किसी भी रूप में नफ़रत हमें नहीं भातीं।


इसीलिए उन्हें फूलों का हार भेजा है।


*******


वो छा गया है मेरे अब हवास पर ऐसे।


कि रोक मन पे लगाने सवार भेजा है।


****†**


ये चाहती है सुनीता कि ज़िंदगी जी लूँ।


इसीलिए ख़ुदा ने इक विचार भेजा है।


********


सुनीता असीम


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...