एस के कपूर "श्री हंस"

*प्रेम ईश्वर का रूप है।।*


*हाइकु।।*


 


1


निस्वार्थ प्रेम


प्रभु की सौगात है


दिल से प्रेम


2


प्रेम संस्कार


अनमोल देन है


प्रेम संसार


3


प्रेम का द्वार


स्वर्ग यहीं पर है


प्यार ही प्यार


4


प्रेम का सुख


अमूल्य धरोहर


भुला दे दुःख


5


प्रेम स्वीकृति


सुख शांति का पत्र


अमूल्य निधि


6


सात्विक प्रेम


अमूल्य उपहार


हार्दिक प्रेम


7


प्रेम आधार


प्रेम जब दिव्य हो


हो ये सौ बार


8


प्रेम संपदा


दुख होता है विदा


प्रभु भी फिदा


9


प्रेमानुभूति


सुखद अहसास


ये अनुभूति


10


प्रेम का रंग


जब चढ़ जाता है


बदले ढंग


11


प्रेम है भक्ति


प्रेम है सागर सा


प्रेम है शक्ति


12


प्रेम का वास


सब ही क्लेश कटें


प्रेम निवास


13


प्रेम बर्ताव


उत्तम शिष्टाचार


न देता घाव


14


प्रेम का धर्म


बदल देता यह


जीवन कर्म


15


प्रेम पवित्र


निर्मित करता है


प्रेम चरित्र


16


प्रेम सरस


आनंद ही देता है


प्रेम का रस


 


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।।*


मोब।। 9897071046


                      8218685464


डॉ0निर्मला शर्मा

मानवीय घड़ी सी माँ


 


मानवीय घड़ी सी माँ!


 अपने कर्तव्य पर अडिग माँ!


भोर के धुंधलके से ही 


शुरू होती है जिसकी दिनचर्या


जो चलती है


 रात की चादर समेटे 


चाँद के अलसाये सायों के साथ


भूख प्यास न जाने !


उसे सताती भी है या नहीं


 वह तो 


संतान को पेटभर खाते देख ही


 तृप्त हो जाती है 


उसकी जिव्हा का 


न कोई स्वाद है 


और जीवन का अपना 


कोई रंग नहीं 


रिश्तों की बगिया को सजाती


 हर अहसास को दबाती


 केवल मातृत्व के 


आभूषण से सजी


 जीवनदायिनी माँ 


सर्दी हो या गर्मी 


बारिश हो या बसन्त 


कोई ऋतु उसे न डिगाती


 चलता है उसका 


उपक्रम अनवरत 


बदले में कुछ भी न चाहती 


परिवार रहे उसका सलामत


 हर पल यही दुआ माँगती 


भागती, दौड़ती ,घबराती 


अविराम काम करती 


नटखट संग खेले कभी 


घर के काम निपटाती


 कभी चेहरे पर अपने 


न कोई शिकन लाती 


मानवीय घड़ी सी अड़ी 


सदैव अपने काम समय से निपटाती


माँ!!


 


डॉ0निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


अतुल पाठक "धैर्य" हाथरस

करवाचौथ विशेष कविता


शीर्षक-कशिश महताब जैसी


-----------------------------------


कशिश तेरी महताब जैसी, 


महताब में नज़र तू आने लगी।


 


इश्क और मुश्क तुझसे दीवाना तेरा,


दिल की गली प्यार की इक कली लगाने लगी।


 


संग तू है तो और कोई नहीं मेरी हमराज़~ए~तमन्ना,


तेरे होने से वीरान दिल में रोशनाई आने लगी।


 


लाज़मी है चाँद का गुमाँ टूटना,


आखिर मेरी चाँद के आगे उसकी चमक फीकी पड़ने लगी।


 


जब से दो जिस्मों में एक जान बसने लगी,


प्यार की दुनिया आबाद होने लगी।


@उत्तर प्रदेश)


करवा चौथ कर्क चतुर्थी पर रचना 04-11-2020


करवा चौथ


पति स्वस्थ चिरायु रहे अतः भूखी प्यासी रहती नारी।


कार्तिक की बदी चतुर्थी को गणपति पूजन करती नारी।।


पति पीड़ित हो बीमार भले निर्धन हो दीन हीन कितना,


पति पर सर्वस्व लुटा देती बलिहारी भारत की नारी।।


 


 


 


कार्तिक बदी चतुर्थी करवा क पर्व आया।


अर्धांगिनी ने मेरी पानी पिया न खाया।


पति की सलामती को करती कठिन तपस्या,


नारी महान है ये बेदो ने भी बताया।


 


चपला हो चंचला हो शादी के बाद नारी।


शादी के बाद सादी हो जाती है कुआंरी।


पुरुषों की क्या बताये होती अजब कहानी।


पत्नी के साथ खोये बातें लिए पुरानी।


 


पत्नी में खोजते है वह जीन्स वाली प्रीती।


कैसा दिमाग शातिर यह आदमी की रीती।


पत्नी बहन हैं माता परिवार की सृजेता।


हम जीत करके हारे वह हर कदम विजेता।


 


पश्चिम की सभ्यता को घर मे नही बसाना।


पूरी न मिल सके तो आधे ही पेट खाना।


पत्नी सुलक्षणा हो काली कुटिल कुरूपा।


एकल पतिव्रता पर बलिहार लाख रुपा।।


 


संकष्ट गणेश चतुर्थी करवा चौथ पर समस्त भारतीय नारियां अखण्ड सौभाग्यवती हो।यही प्रार्थना है भगवान गजानन से~


 


जिनने व्रत करवा चौथ रखा,जीवन भर मांगे लाल रहे।


झुर्री बिहीन हो गाल सुर्ख, घुटनो तँक लम्बे बाल रहे।


जीवन में हर सुख सुविधा हो,पति की भी आयु लंबी हो


हर नारी को मातृत्व मिले,सबकी गोदी में लाल रहे।।


================== प्रियतम की लम्बी उमर हेतु,अति भूख,प्यास सहती नारी| 


चन्द्रोदय दर्शन पूजनकार, सौभाग्य शालिनी हो नारी ||


तपसी शालीन न तुम जैसा, सबला,सफला हो कर्मठ हो | 


दिख रही धर्मता धीरज की प्रति मूर्ति बनी प्रमुदित नारी||


                                                                      -आशुकवि नीरज अवस्थी 9919256950


===============


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर '

परिचय-



मूलनाम : गंगा प्रसाद शर्मा


जन्म की तारीख :01-11-1962(सरकारी अभिलेख में)


जन्मस्थान : समशेर नगर


पारिवारिक परिचय:


माता -श्रीमती कमला देवी


पिता -स्व.शिव नारायण शर्मा


पत्नी-श्रीमती गायत्री शर्मा


संतान: पुत्री-आरती शर्मा, पुत्र:अनुराग शर्मा ,अभिषेक शर्मा 


शिक्षा-एम.ए.एम.एड.नेट(यू.जी.सी.फेलोशिप प्राप्त),पीएच.डी.


भाषाज्ञान-हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,उर्दू,फ़ारसी(आंशिक रूप से )


प्रकाशित कृतियाँ : 'सप्तपदी' और 'समय की शिला पर' के सहयोगी दोहाकार( संभावित प्रकाशन वर्ष1995-96),मेरी सोई हुई संवेदना (कविता संग्रह ,1998),हर जवाँ योजना परधान के हरम में(गज़ल संग्रह,1999),दारा हुआ आकाश (दोहा संग्रह ,1999),अफसर का कुत्ता,पुलिसिया व्यायाम(दोनों व्यंग्य संग्रह,2003-04), आधुनिक भारत के बहुरंगी दृश्य(2005, भारतीय आई.ए.एस.अधिकारियों के द्वारा लिखित निबंधों का संपादित संकलन),स्त्रीलिंग शब्द माला(2005,शब्दकोश),व्यावहारिक शब्दकोश (2005,अरबी-फ़ारसी के बहु-प्रचलित शब्दों का कोश),An introductory Hindi Reader (2006,specially prepared for non hindi speaking Indian and foreigners), दलित साहित्य का स्वरूप विकास और प्रवृत्तियाँ (2012,रमणिका फाउंडेशन के लिए)


सम्मान व पुरस्कार :साहित्य शिरोमणि सम्मान (1999,साहित्य-कला परिषद,जालौन, उ॰प्र॰),तुलसी सम्मान (2005,सूकरखेत, उ॰प्र॰),विश्व हिंदी सम्मान 2014


भाखा एवं इंदु संचेतना पत्रिकाओं का संपादन।


संपर्क का पता :


वर्तमान -ई-504,शृंगाल होम्स,पंचमुखी हनुमान के सामने,वी आई पी रोड,अलथाण, सूरत -395017


स्थाई-समशेर नगर, बहादुर गंज ,जनपद-सीतापुर (उ॰प्र॰)


टेलीफोन/मोबाइल नम्बर :8000691717


ई-मेल-dr.gunshekhar@gmail.com 


--------------


कविता -1


पहाड़  उदास है


 


--------------


 


जब से 


 


काट लिए गए हैं 


 


चोरी-चोरी 


 


उसके हाथ-पाँव


 


चीड़ और देवदार


 


पहाड़ 


 


बहुत डरा-डरा रहता है 


 


लुप्त हो गया है 


 


उसके भीतर का 


 


गीत-संगीत 


 


उड़  गए हैं उसके 


 


रागों के सारे पक्षी 


 


उदास-उदास रहता है 


 


इन दिनों


 


किसको दिखाए कि 


 


हो गया है 


 


पूरा अपंग अचल


 


कि अब नहीं 


 


सहा जाता कुल्हाड़ी  के 


 


हल्के से वार का भी दर्द 


 


सुबह-सुबह 


 


जैसे ही नींद टूटती है 


 


ओस से नहाई 


 


देह से 


 


कनेर के फूल-सा 


 


पीला-पीला चेहरा लिए 


 


अपने नेत्रों के 


 


निर्झर से 


 


चढ़ाने लगता है जल 


 


सूर्य देवता को


 


बीच-बीच में उभरे


 


पत्थरों के अधरों के 


 


मध्य के विवरों से 


 


फूटते मंत्रोच्चारों के साथ 


 


करता रहता है प्रार्थनाएँ  


 


मनु की संतानों की 


 


सद्बुद्धि के लिए 


 


कि अब और न हों हम


 


अक्षम 


 


और न हों 


 


निरुपाय.


 


कविता -2


 


साहित्य पढ़ने के पहले 


 


-----------------------------


 


यह क्या है कि 


 


जहां देखा पढ़ने लगे 


 


जिस-तिस की कविता-कहानी 


 


जिस-तिस के उपन्यास 


 


दलितों का साहित्य 


 


जिन्हें छूने में घिनाते थे 


 


हमारे प्रतापी पूर्वज 


 


सच पूछो तो 


 


यह समय


 


साहित्य पढ़ने का है ही नहीं 


 


जाति -धर्म पढ़ो 


 


राजनीतिक दल पढ़ो 


 


खास करके उस नेता को पढ़ो 


 


जिससे भला होना है 


 


और चुल्ल नहीं ही मानती है तो 


 


किसी का साहित्य 


 


पढ़ने के पहले


 


उसका धर्म पढ़ो 


 


धर्म के बाद जाति


 


जाति  के बाद कुल 


 


कुल के बाद गोत्र 


 


तब पढ़ो उसे 


 


जैसे मैं पढ़ता हूँ 


 


केवल ब्राह्मणों का साहित्य 


 


उसमें भी 


 


अपने प्रदेश के 


 


कान्यकुब्जों का  


 


वह इसलिए कि


 


बाबा तुलसी दास कह गए हैं 


 


"पूजिय बिप्र सकल गुन हीना। "


 


कविता -3


 


धान की पौध लड़कियाँ 


 


-------:::::------:::::--------


 


जड़ से 


 


उखाड़ ली जाती हैं 


 


मूठी बनाकर 


 


फेंक दी जाती हैं


 


कीचड़ में 


 


फिर रोप दी जाती हैं 


 


किसी दूसरे खेत की 


 


अपरिचित माटी में 


 


कभी-कभार 


 


कुछ पलों के लिए 


 


मुरझा भले जाती हैं 


 


फिर आनन-फानन में 


 


तनकर खड़ी भी हो जाती हैं 


 


अपने आप मुटाती हैं 


 


लहलहाती हैं 


 


धनधान्य से भर देती हैं घर 


 


ऐसे जीवट वाली होती हैं ये


 


धान की पौध लड़कियां!


 


कविता -4


 


कोरोना काल की भूख 


 


-------------------------


 


कभी लिखूँगा कविता


 


मज़दूरों की भूख पर कि


 


कितनी बड़ी थी इनकी भूख


 


पेट भरने के लाख प्रयास के बावज़ूद


 


नहीं भरे इनके पेट


 


हज़ारों संस्थाओं,भामाशाहों के खज़ाने 


 


हो गए खाली पर 


 


इनकी भूख नहीं मिटी तो नहीं मिटी 


 


बढ़ती रही बढ़ती रही रोज़ दर रोज़


 


'हाथ भर की लौकी के नौ हाथ के बिया' की तरह


 


आखिर कितना खाएंगे ये 


 


टीवी पर रोज़ घोषणाएँ हो रही हैं 


 


बताया जा रहा है 


 


इनको कितना दे दिया गया है


 


पहले ही 


 


फिर भी इनका पेट है कि भरता ही नहीं


 


कभी लिखूंगा ज़रूर इनकी ये कारस्तानियां


 


ऊँट जैसे भरे ले रहे हैं


 


अनाप-शनाप


 


इस कोरोना काल में 


 


आखिर कितना चाहिए इन्हें


 


अरे कोई तो रोको 


 


कोई तो समझाओ


 


कहो और कब तक चलोगे


 


हफ्तों से चले ही जा रहे हो लगातार


 


आखिर और कितना चलोगे पैदल?


 


ज़गह-ज़गह 


 


दोनों हाथ पसार लंगर का ले रहे हो मज़ा 


 


अरे रुको तनिक शर्म करो


 


और कितना खाओगे यार!


 


 


 


कविता -5


 


न बाबा न ! 


 


--------------


 


मरने के पहले 


 


किसान ने चातक की तरह


 


स्वाति को टेरते हुए पूछा


 


'बरसेगा?'


 


बोला ,


 


'न कभी न '


 


छाती फटी  ज़मीन  से पूछा ,


 


'तू प्यासी जी पाएगी इक बरस ?' 


 


बोली,


 


'नहीं'


 


पत्नी से,बच्चों से 


 


पूछा ,


 


'बिना खाए रह लोगे 


 


कुछ दिन '


 


बोले,


 


'नहीं बाबा नहीं'


 


बैंक से पूछा, 


 


'कर्ज़ माफ़ होगा ?'


 


बैंक बोली ,'उद्योगपति हो'


 


किसान बोला,  


 


'नहीं' 


 


ज़वाब में बैंक ने दाएँ-बाएँ गर्दन हिलाई ,


 


' तब तो ....... नहीं.. कभी नहीं '


 


मरने के पहले 


 


कहाँ-कहाँ नहीं गया 


 


किस-किस के सामने  नहीं जोड़े हाथ 


 


किस- किस से नहीं गिड़गिड़ाया 


 


कोई तो बोलो 'हाँ' 


 


पर,


 


कोई  कहाँ बोला 'हाँ'


 


और फिरअंत में 


 


अपनी  ज़िंदगी से ही एक बार फिर पूछा-


 


'कभी अपने भी अच्छे दिन आएँगे?'


 


तू क्या कहती है रे! 


 


जी लें कुछ दिन ?'


 


वह  बोली,


 


'न बाबा न !'


@गुणशेखर


शरद पूर्णिमा


शरद पूर्णिमा के चन्दा से जन जन को अमरत्व मिले।


मेरी आर्य संस्कृति को भी बचा खुचा अस्तित्व मिले।


धवल खुशी से शांति भरा हम तुम सब ही का जीवन हो,


धरती के हर दम्पति को सुखमय ममता मातृत्व मिले।।


आशुकवि नीरज अवस्थी 9919256950


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

साहित्यकार का परिचय


-----------------------------------


 


(1)नाम----


 


(2)पिता- श्री नंदकिशोर जी खरे


 


(3)माता- श्रीमती शकुंतला खरे


 


(4)वर्तमान पता---आज़ाद वार्ड-चौक, मंडला(मप्र)-481661


 


(5) स्थायी पता---ग्राम -प्राणपुर(चन्देरी),ज़िला-अशोकनगर, मप्र---473446


 


(6)फोन--9425484382(कॉल व व्हॉट्सएप) 


 


 (7)जन्म- 25-09-1961


 स्थान- ग्राम प्राणपुर(चन्देरी) ,ज़िला-गुना (तत्कालीन/अब-अशोकनगर,मप्र-473446


 


(8) शिक्षा-एम.ए(इतिहास)(मेरिट होल्डर),एल- एल.बी,पी-एच.डी.(इतिहास) 


 


(9)व्यवसाय----शासकीय सेवा,  


प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष इतिहास


कार्यालय----शासकीय जे.एम.सी.महिला महीविद्यालय,मंडला(म.प्र.)


(10)प्रकाशित रचनाएं व गतिविधियां --


*चार दशकों नें देश के पांच सौ से अधिक प्रकाशनों व विशेषांकों में दस हज़ार से अधिक रचनाएं प्रकाशित 


*गद्य- पद्य में कुल 17 कृतियां प्रकाशित। 


*प्रसारण-----रेडियो(38 बार),भोपाल दूरदर्शन (6बार),ज़ी-स्माइल,ज़ी टी.वी.,स्टार टी.वी., ई.टी.वी.,सब-टी.वी.,साधना चैनल से प्रसारण ।


*संपादन---9 कृतियों व 8 पत्रिकाओं/विशेषांकों का सम्पादन ।


*विशेष---सुपरिचित मंचीय हास्य- व्यंग्य कवि, संयोजक,संचालक,मोटीवेटर,शोध- निदेशक,विषय विशेषज्ञ,रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के इतिहास विभाग के अध्ययन मंडल के तीसरी बार व शासकीय पी.जी.ओटोनॉमस कॉलेज अध्ययन मंडल(इतिहास) के सदस्य ।   


एम.ए.इतिहास की पुस्तकों का लेखन


125 से अधिक कृतियों में प्राक्कथन/ भूमिका का लेखन ।


250 से अधिक कृतियों की समीक्षा का लेखन


राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में150 से अधिक शोध पत्रों की प्रस्तुति


सम्मेलनों/ समारोहों में 300 से अधिक व्याख्यान 


250 से अधिक कवि सम्मेलन ।


450से अधिक कार्यक्रमों का संचालन ।


सम्मान/अलंकरण/ प्रशस्ति पत्र------देश के लगभग सभी राज्यों में 600 से अधिक सारस्वत सम्मान/ अवार्ड/ अभिनंदन ।


सर्वप्रमुख अवार्ड--- म.प्र.साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय अवार्ड(निबंध )।


आजाद वार्ड,मंडला,मप्र-9425484382


 


 


माँ


====


माँ जीवन की हर खुशी,माँ जीवन का गीत। 


माँ है तो सब कुछ सुखद,माँ है तो संगीत।। 


         


माँ है मीठी भावना,माँ पावन अहसास। 


माँ से ही विश्वास है,माँ से ही है आस।। 


 


वसुधा-सी करुणामयी,माँ दृढ़ ज्यों आकाश। 


माँ शुभ का करती सृजन,करे अमंगल नाश।। 


 


माँ बिन रोता आज है,होकर 'शरद'अनाथ। 


सिर पर से तो उठ गया,आशीषों का हाथ।। 


       ----प्रो शरद नारायण खरे


          ===============


 


 


 


उजियारे का गीत


----------------------


अँधियारे से लड़कर हमको,उजियारे को गढ़ना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


           पीड़ा,ग़म है,व्यथा-वेदना,


             दर्द नित्य मुस्काता


            जो सच्चा है,जो अच्छा है,


             वह अब नित दुख पाता


 


किंचित भी ना शेष कलुषता,शुचिता को अब वरना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


           झूठ,कपट,चालों का मौसम,


          अंतर्मन अकुलाता


          हुआ आज बेदर्द ज़माना,


            अश्रु नयन में आता


 


जीवन बने सुवासित सबका,पुष्प सा हमको खिलना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


              कुछ तुम सुधरो,कुछ हम सुधरें,


               नव आगत मुस्काए


               सब विकार,दुर्गुण मिट जाएं,


             अपनापन छा जाए


 


औरों की पीड़ा हरने को,ख़ुद दीपक बन जलना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


                     --


 


उजियारे का गीत


----------------------


अँधियारे से लड़कर हमको,उजियारे को गढ़ना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


           पीड़ा,ग़म है,व्यथा-वेदना,


             दर्द नित्य मुस्काता


            जो सच्चा है,जो अच्छा है,


             वह अब नित दुख पाता


 


किंचित भी ना शेष कलुषता,शुचिता को अब वरना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


           झूठ,कपट,चालों का मौसम,


          अंतर्मन अकुलाता


          हुआ आज बेदर्द ज़माना,


            अश्रु नयन में आता


 


जीवन बने सुवासित सबका,पुष्प सा हमको खिलना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


              कुछ तुम सुधरो,कुछ हम सुधरें,


               नव आगत मुस्काए


               सब विकार,दुर्गुण मिट जाएं,


             अपनापन छा जाए


 


औरों की पीड़ा हरने को,ख़ुद दीपक बन जलना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


                     --


 


 


गीतिका


-----------


आशाओं के दीप जलाने का यह अवसर है, 


अब तो प्रिय मुस्कान खिलाने का यह अवसर है ।


 


वक्त़ रहा प्रतिकूल सदा ही, पर हो ना मायूस, 


अब उजड़ा संसार बसाने का यह अवसर है ।


 


व्देष, बैर,कटुता ने बांटा भाई-भाई को,


वैमनस्य-दीवार ढहाने का यह अवसर  है ।


 


लेकर हाथ चलें हाथों में,मिलें क़दम क़दम से, 


चैन-अमन का गांव बसाने का यह अवसर है ।


 


पीर,दर्द,ग़म और व्यथाओं का है यह आलम,


मानव-मन को आज सजाने का यह अवसर है ।


 


महके मानवता का घरअब,अपनापन बिखरे,


 


नेह,प्रेम के भाव निभाने का यह अवसर है ।


 


बहुत हो चुका तंद्रा तोड़ो,उठो 'शरद'अब सारे,


अब तो हमको कुछ कर दिखला


 


 पीड़ा का गीत


-----------------------


उजियारे को तरस रहा हूं,अँधियारे हरसाते हैं !


अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!


 


अपने सब अब दूर हो रहे,


हर इक पथ पर भटक रहा


कोई भी अब नहीं है यहां,


स्वारथ में जन अटक रहा


 


सच है बहरा,छल-फरेब है,झूठे बढ़ते जाते हैं !


अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!


 


नकली खुशियां,नकली मातम,


हर कोई सौदागर है


गुणा-भाग के समीकरण हैं,


झीनाझपटी घर-घर है


 


जीवन तो अभिशाप बन गया,


मायूसी से नाते हैं !


अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!


 


रंगत उड़ी-उड़ी मौसम की,


अवसादों ने घेरा है


हम की जगह आज 'मैं ' 'मैं ' है,


ये तेरा वो मेरा है


 


फूलों ने सब खुशबू खोई,पतझड़ घिर-घिर आते हैं !


अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!


 


        -.


 


 


 


माता का देवत्व


----------------------


माता सच में धैर्य है,लिये त्याग का सार !


प्रेम-नेह का दीप ले, हर लेती अँधियार !!


 


पीड़ा,ग़म में भी रखे,अधरों पर मुस्कान !


इसीलिये तो मातु है,आन,बान औ' शान !!


 


माता तो है श्रेष्ठ नित ,हैं ऊँचे आयाम !


इसीलिये उसको "शरद", बारम्बार प्रणाम !!


 


नारी ने नर को जना,इसीलिये वह ख़ास !


माता  पर भगवान भी,करता है विश्वास !!


 


माता से ही धर्म हैं,माता से अध्यात्म !


माता से ही देव हैं,माता से परमात्म !!


 


माता से उपवन सजे,माता है सिंगार !


माता गुण की खान है,माता है उपकार !!


 


माती शोभा विश्व की,माता है आलोक !


माता से ही हर्ष है,बिन नारी है शोक !!


 


माता फर्ज़ों से सजी,माता सचमुच वीर !


साहस,कर्मठता लिये,माता हरदम धीर !!


 


जननी की हो धूप या,भगिनी की हो छांव !


नारी ने हर रूप में,महकाया है गांव !!


 


माता की हो वंदना,निशिदिन स्तुति गान !


माता के


डॉ. रामबली मिश्र

दिव्य यार


 


दिव्य यार का प्यार चाहिये।


मुखड़े का दीदार चाहिये।।


 


बसे यार मेरे आँगन में।


थिरके मेरे मन-उपवन में।।


 


दिल में बैठे गाना गाये।


मौसम सुखद सुहाना लाये।।


 


छेड़े तान सदा मनभावन।


हो झंकृत तन-मन शोभायन।।


 


यार!तुम्हीं हो नाथ हमारा।


सिर्फ चाहिये साथ तुम्हारा।।


 


आओ गाओ नाचो हँसकर।


थिरक-थिरक कर मचल-मचल कर।।


 


मेरा यार बहुत मस्ताना।


उस पर पूरा जग दीवाना।।


 


सभी माँगते दुआ मिलन की।


कुछ करते हैं बात जलन की।।


 


यार बना है स्वाभिमान से।


यारी करता सदा मान से।।


 


परम प्रतिष्ठित दिव्य विभूती ।


 पावन बहुत यार करतूती।।


 


यार सभी का नहीं यार है।


भाग्य शिरोमणि शुभ विचार है।।


 


भाग्यशालियों का यह संगी ।


अति उत्साहित सहज उमंगी।।


 


मेरा यार बहुत शीतल है।


भाग्यमान का यह भू-तल है।।


 


इसको केवल प्यार चाहिये।


मानव का विस्तार चाहिये।।


 


अतिशय भावुक यार परम शुचि।


सुंदर भाव-शव्द में ही रुचि।।


 


भोला-भाला शीघ्र दयाला।


देता यार खुशी का प्याला।।


 


परम वर्णनातीत प्रशंसा।


करे यार पूरी अभिलाषा।।


 


यही यार से सदा याचना।


पूरी करे यार कामना।।


 


कई जन्म का यह वियोग है।


वर्तमान का यह सुयोग है।।


 


साथ निभाना यार जानता।


जिसे जानता उसे चाहता।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

कविता


कविता नहीं मात्र कल्पना,


भाव गहन गहराई है।


भाव-सिंधु में कवि-मन डूबे-


यह मोती उतिराई है।।


 


जीवन का हर रंग घुला जब,


मिला ढंग हर सुख-दुख का।


सुबह-शाम पंछी का कलरव,


बना गान जब कवि-मुख का।


बहे जो अक्षर-सरिता बन कर-


वही सत्य कविताई है।।


 


गगन में उड़ता देख परिंदा,


कवि-मन उसे पकड़ लेता।


खिले फूल को देख चमन में,


झट-पट उसे जकड़ लेता।


भूखे बालक की पीड़ा में-


कविता जगह बनाई है।।


 


अवनि दहकती है ज्वाला से,


जब-जब अत्याचारों की।


अबला की जब अस्मत लुटती।


कुत्सित सोच-विचारों की।


बन कटार तब प्रखर लेखनी-


कविता-धार बहाई है।।


 


जब भी दुश्मन वार किया है,


सीमा के रखवालों पर।


वीर राष्ट्र के सैनिक अपने,


देश-भक्त मतवालों पर।


क्रांति-भाव का बन कवित्त यह-


विजयी बिगुल बजाई है।।


 


कवि-उर की यह भाव बहुलता,


यह उड़ान मन-भावन है।


सर्दी-गर्मी हर मौसम में,


यह तो फागुन-सावन है।


कविता की ही बोली-भाषा-


भाषा की प्रभुताई है।।


   भाव-सिंधु में कवि-मन डूबे,


    यह मोती उतिराई है।।


           © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


              9919446372


डॉ. रामबली मिश्र

मुझको मन का मीत चाहिये।


सुंदर सरल विनीत चाहिये।।


 


मीठी सी आवाज चाहिये।


मधुर रसिक अंदाज चाहिये।।


 


सुंदर-सुंदर बोल चाहिये।


भावुक उर अनमोल चाहिये।।


 


अधरों पर मुस्कान चाहिये।


पावन भाव उड़ान चाहिये।।


 


रस की वर्षा हो जिह्वा से।


मिलें परस्पर आब-हवा से।।


 


मुझको पावन प्रीति चाहिये।


बरसाने की रीति चाहिये ।।


 


गावों का संगीत चाहिये।


सावन का शिव गीत चाहिये।।


 


आँखों का संवाद चाहिये।


नजरें प्रिय आजाद चाहिये।।


 


 हों वासंतिक सुघर बयारें।


जीवन वीते मीत सहारे।।


 


निद्रा भागे होय जागरण।


बसे हृदय में प्रिय उच्चारण।।


 


प्रिय पाठों का परायण हो।


जलता जाये नित रावण हो।।


 


सीधा-सादा मीत चाहिये।


बहुत सहज निर्भीक चाहिये।।


 


दिल का सच्चा-साफ चाहिये।


प्रियतम मधु इंसाफ चाहिये।।


 


जोड़ी पक्की रहे निरन्तर।


लगे देखने में अति सुंदर।।


 


भरी हुई अति मादकता हो।


प्रिय भावों की व्यापकता हो।।


 


मेरा मीत दिव्य मानव हो।


शिष्ट सौम्य सुजन अनुभव हो।।


 


नजर लगे मत कभी मीत को।


देवों का आशीष मीत को।।


 


मेरा प्यारा चयन अनोखा।


नहीं लेश मात्र का धोखा।।


 


मेरे प्यारे प्रियतम आओ।


चिर निद्रा को आज जगाओ।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा अतुल्य

मन का दर्पण चेहरा तेरा


रूप सलोना दिखलाता है 


करे कर्म जब अच्छे तू 


तेरा चेहरा खिल जाता है ।


 


कर्म आईना जीवन का हैं


जो छवि हमारी बनाते हैं 


अच्छे कर्म जग में रह जाते


जो याद सबको दिलातें हैं ।


 


देख सूरत को आईने में 


मत रूप पे अपने रीझ इतना


रंग रूप ढल जायेगा जब


बुरा लगेगा तब ये कांच का आएना ।


 


आँखों का दर्पण सुन्दर है 


मन के भाव दिखाता है 


चेहरा तेरा सुन्दर आईना


जो तेरी याद दिलाता है ।


 


निर्मल मन और सत्य भावना


लेकर अपने संग चलो 


सबसे सुंदर स्वयं हो आईना


बात सदा ये ध्यान धरो ।


 


स्वरचित


निशा अतुल्य


नूतन लाल साहू

एक सुखद जीवन की परिकल्पना


 


मस्तिष्क में सत्यता


होठो पर प्रसन्नता


हृदय में पवित्रता जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


राग द्वेष की त्याग


मन में संतोष


हर पल आत्मविश्वास जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


दुनिया बड़ी खराब


जीवन एक सराय


जिंदगी का दिन, दो चार


विधि का है अटल विधान ये ज्ञान जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


दुनिया तो चारो युगों में वही


सुख दुःख तो मेहमान


ईश्वर कर्मो का फल देता हैं ये ज्ञान जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


यश धन वैभव के पीछे नहीं भाग


जो बीता तो ठीक था,यह जान


हरि इच्छा में छिपा है मानव कल्याण


इस सच्चाई की ज्ञान जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


रब पर पूरी आस्था


मन हो संतुलित


शक संशय न पाल


पाप घृणा के योग्य है,ये ज्ञान जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


नूतन लाल साहू


डॉ. रामबली मिश्र

युग्म व्यवस्था का महत्व


 


1-दुःख बिन सुख की नहीं महत्ता।


    बिना हवा हिलता नहिं पत्ता।।


 


2-हानि डराती लाभ लुभाता।


    डर सबको संयमित बनाता।।


 


3-मृत्यु सुनिश्चित से क्या डरना।


    जीवन को नित उन्नत करना।।


 


4-लाभ सिखाता बचो हानि से।


    सत्व बताता बचो ग्लानि से।।


 


5-समझो अहं स्वयं रावण है।


     अहं मुक्त श्री रामायण है।।


 


6-गंदा जल ही संकेतक है।


   पुनः शुद्धता हेतु सूचक है ।


 


7-अपराधी जब होते दण्डित ।


    सज्जन होते महिमामण्डित।।


 


8-दुष्टों से सब बच कर रहते।


   संतों को सब उर में रखते।।


 


9-युग्मों का संसार निराला।


    एक विषैला इक मधु प्याला।।


 


10-विष औषधि है,अमृत पोषक।


    युग्म महत्वपूर्ण विश्लेषक ।।


 


11-युग्मों से तुलना होती है।


    शुचिता की रक्षा होती है।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


 


 


युग्म व्यवस्था का महत्व


 


1-दुःख बिन सुख की नहीं महत्ता।


    बिना हवा हिलता नहिं पत्ता।।


 


2-हानि डराती लाभ लुभाता।


    डर सबको संयमित बनाता।।


 


3-मृत्यु सुनिश्चित से क्या डरना।


    जीवन को नित उन्नत करना।।


 


4-लाभ सिखाता बचो हानि से।


    सत्व बताता बचो ग्लानि से।।


 


5-समझो अहं स्वयं रावण है।


     अहं मुक्त श्री रामायण है।।


 


6-गंदा जल ही संकेतक है।


   पुनः शुद्धता हेतु सूचक है ।


 


7-अपराधी जब होते दण्डित ।


    सज्जन होते महिमामण्डित।।


 


8-दुष्टों से सब बच कर रहते।


   संतों को सब उर में रखते।।


 


9-युग्मों का संसार निराला।


    एक विषैला इक मधु प्याला।।


 


10-विष औषधि है,अमृत पोषक।


    युग्म महत्वपूर्ण विश्लेषक ।।


 


11-युग्मों से तुलना होती है।


    शुचिता की रक्षा होती है।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


विनय साग़र जायसवाल

इस दौरे-कशाकश में कैसी ये सियासत है 


हंसों के कबीलों पर बगुलों की निज़ामत है


 


यह सोच के ही चुनना सिरमौर हवेली का 


इस घर की तिजोरी में हम सब की अमानत है


 


यह कह के गये पुरखे नस्लों से विरासत में


लम्हों की हिफ़ाज़त ही सदियों की हिफ़ाज़त है


 


यह देख के मुंसिफ़ ने सर पीट लिया अपना


चूहों की वकालत से बिल्ली की जमानत है


 


रखना ऐ वतन वालों सरहद पे निगाहों को 


हम ख़ुद ही सलामत हैं गर मुल्क सलामत है


 


कुछ हादसे ही ऐसे गुज़रे हैं ज़माने में


हर शख़्स की आँखों में जो आज भी दहशत है


 


इस दौर के मुजरिम भी आखिर हैं हमीं *साग़र* 


या आग धुआँ दहशत सब किस की बदौलत है


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


एस के कपूर श्री हंस

नहीं हौंसला गँवाया तो


जान लो जीत पक्की है।।


 


मुक़द्दर मेहनत से बनता,


कोई ख्वाब नहीं है।


जान लो कि बिना कर्म के,


कोई कामयाब नहीं है।।


किस्मत उंगलियों को,


खूब पहचानती हैं।


मेहनत वो कर सकती जिस,


का कोई हिसाब नहीं है।।


 


वक़्त हँसाता और वक़्त ही,


रुलाता भी है।


वक़्त ही हमको बहुत कुछ,


सिखाता भी है।।


जो जानता वक़्त की कीमत,


वही पाता है मंज़िल।


वरना कभी भी वो सफल, 


हो पाता नहीं है।।


 


आँखों में चमक और चेहरे,


पर हमेशा नूर रखो।


अपने भीतर आत्म विश्वास,


तुम जरूर रखो।।


चेहरे पर मत आने दो कभी,


तुम हार की शिकन।


जीत पक्की है तुम्हारी बस,


हताशा तुम दूर रखो।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर श्री हंस


*बरेली।।*


मोब।।। 9897071046


                      8218685464


राजेंद्र रायपुरी

 सबसे बड़ा सवाल 


 


मार रहे रावण सुनो,


                   तुम तो सालों साल।


फिर क्यों कद उसका बढ़े,


                सबसे बड़ा सवाल।


 


हर दिन रावण बढ़ रहे,


                 आखिर क्या है बात।


ध्यान इधर दो आप भी, 


                विनय यही है तात।


 


रावण हरण किया भले,


                   किया न अत्याचार।


रावण अब के रेप कर, 


                    नारी को दें मार।


 


उचित कहाॅ॑ तक यह कहो,


                 करके तनिक विचार।


नारी कब तक पुरुष का, 


                     झेले अत्याचार।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-1


 


कौशल्या-पुत्रम श्रीरामचंद्रम रघुवरम,


त्रिशिरादिशत्रु-नाशकम-श्रीदशरथ-सुतम।


श्यामलांगम ब्रह्मशंकरपूजितं सर्वप्रियम,


पाणौ चापसायकम दाशरथिम सीतापतिम।


कृपालुरामम दयालुरामम श्रीरामम नमाम्यहम।।


 


नमाम्यहम पवनतनयम हनुमंतम रामप्रियम,


अतुलितबलधामम स्वर्णाभबदनम कपीश्वरम।


रावणसैन्यबलघातकम मारुतिनंदनम महाकपीम,


ज्ञानिनामश्रेष्ठम गुणज्ञाननिधिम हनुमतबलवंतम।।


सत्य कहहुँ मैं हे प्रभु रामा।


करहु नाथ मम हिय बिश्रामा।।


    देहु मोंहि निज भगति निरभरा।


    चाहहुँ नहिं मैं अरु कछु अपरा।।


करहु दूर दुरगुन मम मन तें।


भागहिं काम-क्रोध यहि तन तें।।


     जामवंत कै सुनि अस बचना।


     कह हनुमंत धीर तुम्ह रखना।।


जोहत रहहु तुमहिं सभ भाई।


कंद-मूल-फल खाई-खाई।


     जब तक मैं इहँ लौटि न आऊँ।


      सीय खोज करि तुमहिं बताऊँ।।


तब हनुमंत नवा सिर अपुना।


सीय खोज कै लइ के सपना।।


     रामहिं भाव अपुन हिय रखि के।


     तुरतै चले कपिन्ह सभ लखि के।।


जलधि-तीर देखा इक परबत।


राम सुमिरि तहँ चढ़िगे हनुमत।।


     सहि न सकैं गिरि बल बलवंता।


     चढ़हिं जबहिं तेहिं पे हनुमंता।


कौतुक बस उछरैं हनुमाना।


तुरतै गिरि पाताल समाना।।


    राम क बान अमोघय नाईं।


    उछरि चलैं हनुमान गोसाईं।


सोरठा-थकित जानि हनुमान,आ बिचार नृप सिंधु-मन।


           कह धरि कै तुम्ह ध्यान,जाहु मैंनाकु अबहिं तहँ।।


                          डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


 


***********************************


बारहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-2


बहु-बहु नदी-कछारन जाहीं।


उछरहिं मेंढक इव जल माहीं।।


   जल मा लखि परिछाईं अपुनी।


   कछुक हँसहिं करि निज प्रतिध्वनी।।


संतहिं-ग्यानिहिं ब्रह्मानंदा।


स्वयम कृष्न तेहिं देंय अनंदा।।


  सेवहिं भगतहिं दास की नाईं।


इहाँ-उहाँ तिहुँ लोकहिं जाईं।।


रत जे बिषय-मोह अरु माया।


बाल-रूप प्रभु तिनहिं लखाया।।


    अहहिं पुन्य आतम सभ ग्वाला।


    खेलहिं जे संगहिं नंदलाला।।


जनम-जनम ऋषि-मुनि तप करहीं।


पर नहिं चरन-धूरि प्रभु पवहीं।।


     धारि क वहि प्रभु बालक रूपा।


      ग्वाल-बाल सँग खेलहिं भूपा।।


रह इक दयित अघासुर नामा।


पापी-दुष्ट कपट कै धामा।।


    रह ऊ भ्रात बकासुर-पुतना।


     तहँ रह अवा कंस लइ सुचना।।


आवा तहाँ जलन उर धारे।


अवसर पाइ सबहिं जन मारे।।


     करि बिचार अस निज मन माहीं।


     अजगर रूप धारि मग ढाहीं।।


जोजन एक परबताकारा।


धारि रूप अस मगहिं पसारा।।


    निज मुहँ फारि रहा मग लेटल।


    निगलै वहिं जे रहल लपेटल।।


एक होंठ तिसु रहा अवनि पै।


दूजा फैलल रहा गगन पै।।


     जबड़ा गिरि-कंदर की नाईं।


     दाढ़ी परबत-सिखर लखाईं।


जीभइ लाल राज-पथ दिखही।


साँस तासु आँधी जनु बहही।।


      लोचन दावानलइ समाना।


      दह-दह दहकैं जनु बरि जाना।।


सोरठा-अजगर देखि अनूप,कौतुक होवै सबहिं मन।


           अघासुरै कै रूप,निरखहिं सभ बालक चकित।।


                               डॉ0हरि नाथ मिश्र


                                9919446372


डॉ0 निर्मला शर्मा

लो हो गया रावण दहन


 


साल 


दर साल


बुराई के प्रतीक 


रावण का पुतला


 बड़ा


-बड़ा और


भी बड़ा होता


जा रहा है।


समाज


 भी तामसिक


वृत्ति के बोझ तले


दबता जा रहा है।


जला 


कर पुतला


बुराई का सोचते


हैं हम यूँ


बुराई


मिट गई


संसार से खुशियाँ


खोजते हैं ज्यों


बढ़ा


है कद


अगर रावण का


तो दहला है


कलेजा


हर क्षण


व्यथित होती वैदेही


का।


कलियुग में


अब न कोई


राम जन्मे हैं



होगा अंत


रावण का।


अगर


रावण जलाना है


तो मन के


द्वार सब खोलो


जला


दो तामसिक


वृत्ति करो तृष्णा


का मन मे दमन


जागृत


होगी अगर


 आत्मा मिटेगा हर


कलुष मन का।


जलेगा


धूँ-धूँ


कर रावण


हो जाएगा उसका


संसार से गमन।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


आचार्य गोपाल जी

हे मां आदिशक्ति हम पर कृपा कर दीजिए, 


हम सब है तेरे ही बालक अपनी शरण में लीजिए,


हे मातृ ममतामई हम पर उपकार ये कर दीजिए,


रोग शोक संताप हर कर निश्चिंत हमें कर दीजिए, 


राग द्वेष को दूर कर प्रेम अंतर भर दीजिए ,


दूर कर बाधा विघ्नों को निस्कंट पथ दीजिए,


नवरात्रि में नव रूप धरकर नूतन हमें कर दीजिए,


हे मातु ममतामयी मुझ मूरख मतिमंद को ज्ञान चक्षु दीजिए,


हे प्रथम दिवस की शैलपुत्री अडिग मुझे कर दीजिए,


ब्रह्मचर्य भाव मन में मेरे ब्रह्मचारिणी भर दीजिए,


 हे चंद्रघंटा चंचला चरित्र निर्मल कर दीजिए,


कुष्मांडा कुमार्ग से हटाकर अपने शरण में लीजिए,


हे स्कंदमाता कात्यायनी हम पर कृपा कर दीजिए,


नाश करके काल का कालरात्रि कंचन हमें कर दीजिए,


हे महागौरी सिद्धिदात्री सर्व सिद्धि हमें भी दीजिए,


आजाद अकेला आया शरण कुछ तो दया कर दीजिए,


 


आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला बरबीघा वाले


अभय सक्सेना

दशहरा


*******


अभय सक्सेना एडवोकेट


 


दमन कर दशानन 


का राम ने,


       पापी और अत्याचारी


       को मिटाया था।


शीश विहीन करके


फिर राम ने,


        रावण को मिट्टी


        में मिलाया था।


हरा लंकेश को


फिर राम ने,


        दंभ उसका चुटकियों


        में मिटाया था।


रामराज्य की स्थापना


कर राम ने ,


        फिर विभीषण को


        लंकेश बनाया था।


       *************************


अभय सक्सेना एडवोकेट


४८/२६८, सराय लाठी मोहाल,


जनरल गंज,कानपुर नगर।


मो.९८३८०१५०१९,


८८४०१८४०८८.


२५/१०/२०


 डा. नीलम

*रावण के सवाल*


 


मैं तो अपनी सभी बुराई


मुख पर लेकर जीता था


मन का हर भाव मेरे 


चेहरे पर लक्षित होता था


 


दसआनन मेरे दस बुराई के


प्रतीक थे


पर नाभि में मेरे प्राण अमृत


कुंभ में थे


 


कोई हिना दे कोई भी कुकर्म मेरा ,जो मैने जन संग किया


शिव का परम भक्त फिर कैसे कामी हो सकता था


 


भाई था ,बहन की रक्षा का वादा हर बार करता था


फिर बहन के अपमान को 


क्यों कर सहन करता मैं


 


सीता का अपहरण मात्र 


अहसास कराना भर था


नारी अस्मत से खिलवाड़


करना नहीं मेरा मकसद था


 


अन्याय का प्रतीक मुझे बना


सबने मेरा दहन किया


पर राम ने कब लंका में मेरा दहन किया?


 


मेरी अंतिम स्वास निकले


उससे पहले !


भ्राता लखन को मुझसे ही सीख लेने भेजा था


 


बार- बार हर बार मुझे तुम जलाते आए हो


पर अपने अंदर के राक्षस


को कब कहाँ मार पाए हो


 


तुम में रावण बसता है


कैसे कह दूं


मुझसा ग्यान-ध्यान कहाँ तुममें बतला दो तुम


 


भक्ति,शक्ति और नीति 


तीनों ही गुण थे मुझमें


तुम में कौनसा गुण है


बतलादो मुझको तुम


 


मेरी वाटिका में तो सुरक्षित सीता रही


अपहरण किया अवश्य था 


मगर नार पराई सम्मानित रही


 


अहम् अहंकार और हवस में


तुम झुलसते रहते हो


हो अगन तेज तो माँ ,बहन


बेटी को भी सरेआम शिकार बनाते हो


 


फिर किस हक से बतलादो


तुम मुझको जलाते हो


अपने भीतर की हवस को


क्यों नहीं जलाते हो।


 


       डा. नीलम


डॉ. रामबली मिश्र

रावण रावण मत कहो, रावण कारण राम।


रावण यदि होता नहीं, होते कभी न राम।।


 


अंधकार यदि हो नहीं, क्या प्रकाश का अर्थ।


अंधकार ही दे रहा, है प्रकाश को अर्थ।।


 


युग्मों की इस सृष्टि में, बहुत बड़ा है योग।


श्याम करत है श्वेत काबहुत अधिक सहयोग।।


 


रावण से ही राम का, इस दुनिया में नाम।


रावण यदि होता नहीं , होते कहाँ के राम।।


 


दुष्ट अगर होते नहीं, कौन पूजता संत।


सन्तों की पहचान तब, जब दुष्टों का अंत।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुषमा दीक्षित शुक्ला

हे!राम


 


हे!राम तुम्हारी धरती पर,


अब सत्य पराजित होता है ।


 


चहुँ ओर दिखे अन्याय यहाँ,


नित ,रावण, पूजित होता है ।


 


तुमने तो कुटूम्ब की खातिर ,


राज्य त्याग वनवास लिया ।


 


भ्रातृ धर्म ,पति धर्म निभाया ,


पापी रावण का नाश किया ।


 


विजय सत्य की होती है ,


यह ही सन्देश तुम्हारा है ।


 


हे!पुरुषोत्तम तुम फिर जन्मो ,


जन जन ने तुम्हें पुकारा है ।


 


हे ! राम तुम्हारी धरती पर ,


अब पाप कपट फिर छाया है।


 


सब त्राहिमाम हैं बोल उठे ,


जब दिखा दुःखों का साया है।


 


हे! राम दया दृग खोलो प्रभु,


अब फिर से सब संताप हरो ।


 


है भोली जनता बिलख रही ,


हे! पुरुषोत्तम अब माफ़ करो ।


 


जब रावण, खर ,दूषण मारे,


तो इन दुष्टों की क्या क्षमता।


 


अतुलित बलशाली राम प्रभू,


तुमसे दैत्यों की क्या समता।


 


हे! प्रभू बचा लो सृष्टि को ,


यह ही फरियाद हमारी है ।


 


हे! पुरुषोत्तम तुम फिर प्रकटो


ये दुनिया तुम्हें पुकारी है ।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दिव्य दशहरा पर्व यह,रामचंद्र-उपहार।


दनुज-दलन कर राम ने,किया बहुत उपकार।।


 


रावण-कुल का नाश कर,किए पाप का अंत।


अघ-बोझिल इस धरा का,हरे भार भगवंत ।।


 


सदा सत्य की है विजय,किए प्रमाणित राम।


मद-घमंड-छल-छद्म से,बने न कोई काम ।।


 


अभिमानी रावण मरा,जला पाप का लोक।


भक्तों को प्रभु त्राण दे,दिए वास परलोक।।


 


सत्य-धर्म के हेतु प्रभु,लिए मनुज-अवतार।


मर्यादा की सीख दे, जग को लिए उबार।।


 


कपट-झूठ,छल-छद्म पर,मिली विजय अनुकूल।


इसी दिवस शुभ पर्व पर,मरा काल प्रतिकूल।।


 


राम-नाम शुभ मंत्र है,जपो सदा दिन-रात।


रहो मनाते पर्व यह,बन जाएगी बात।।


          © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


              9919446372


डॉ.राम कुमार झा निकुंज

 हो विजया मानव जगत


 


सकल मनोरथ पूर्ण हो , सिद्धदातृ मन पूज।


सुख वैभव मुस्कान मुख , खुशियाँ न हो दूज।।१।।


 


सिद्धिदातृ जगदम्बिके , माँ हैं करुणागार।


मिटे समागत आपदा , जीवन हो उद्धार।।२।।


 


सिंह वाहिनी खड्गिनी , महिमा अपरम्पार। 


माँ दुर्गा नवरूप में , शक्ति प्रीति अवतार।।३।।


 


खल मद दानव घातिनी , करे भक्त कल्याण।


कर धर्म शान्ति स्थापना , सब पापों से त्राण।।४।।


 


श्रद्धा मन पूजन करे , माँ गौरी अविराम।


रिद्धि सिद्धि अभिलाष जो , पूरा हो सत्काम।।५।।


 


विजय मिले सद्मार्ग में , करे मनसि माँ भक्ति।


लक्ष्मी वाणी साथ में , माँ दुर्गा दे शक्ति।।६।।


 


जन सेवा परमार्थ मन , भक्ति प्रेम हो देश।


सिद्धिदातृ अरुणिम कृपा , प्रीति अमन संदेश।।७।।


 


हो विजया मानव जगत,समरस नैतिक मूल्य।


मानवीय संवेदना , जीवन कीर्ति अतुल्य।।८।।


 


कलुषित मन रावण जले , हो नारी सम्मान।


धर्म त्याग आचार जग , वसुधा बन्धु समान।।९।।


 


बरसे लक्ष्मी की कृपा , सरस्वती वरदान।


माँ काली नवशक्ति दे , देशभक्ति सम्मान।।१०।।


 


पुष्पित हो फिर से निकुंज , प्रकृति मातु आनन्द।


चहुँदिशि हो युवजन प्रगति,सुरभित मन मकरन्द।।११।।


 


विजयादशमी सिद्धि दे , मिटे त्रिविध संताप।


हर दुर्गा कात्यायनी , कोरोना अभिशाप।।१२।।


 


डॉ.राम कुमार झा निकुंज


नई दिल्ली


Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...