डॉ०रामबली मिश्र

*तुझे देखकर*


 


तुझे देखकर प्रेम हो गया।


अपने में ही स्वयं खो गया।।


 


ऐसा कैसे हो जाता है?


मन दीवाना बन जाता है।।


 


आँख देखती मन मुस्काता।


दिल में गहन प्रेम छा जाता।।


 


पगलाया मन प्रेम ढूढ़ता।


तुझसे मिलने की उत्सुकता।।


 


बिन देखे बेचैनी बढ़ती।


मिलने की अति इच्छा जगती।।


 


प्रेम छिपा है सदा दृष्टि में।


दृष्टि समायी प्रेम वृष्टि में।।


 


प्रेम वॄष्टि को दृश्य चाहिये।


तुझसा पावन स्पृश्य चाहिये।।


 


स्पृश्य वही जिसका दिल पावन।


सौम्य सुघर शालीन सुहावन।।


 


किससे कहाँ प्रेम हो जाये?


किसको कहाँ कौन पा जाये??


 


प्रेम जगेगा किसे देखकर?


मन भागेगा कहाँ जा किधर??


 


नहीं पता कुछ भी चलता है।


टिक जाता मन तब लगता है।।


 


किसी भीड़ में प्रेम वहाँ है।


नजर जाय गड़ जहाँ वहाँ है।।


 


यह नजरों खेल-कूद है।


महा सिंधुमय अमी बूँद है।।


 


यह अमृत की पावन सरिता।


कवि की यह अति मोहक कविता।।


 


कविता में बस तुम रहते हो।


तुम लिखते बोला करते हो।।


 


प्रेमरूपमय कवि भावों को।


देते ऊर्जा धो घावों को।।


 


दृश्य परम प्रिय मधुराकारा।


सहज सुधानन प्रेम पिटारा।।


 


इसीलिए तुम प्राण बने हो।


रामवाण परित्राण बने हो।।


 


तुझे हृदय में रखकर जपता।


तेरा माला सदा फेरता।।


 


तुम्हीं सुघर हो राह परम प्रिय।


रचना बनकर सतत बहो हिय।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा अतुल्य

सपने 


6.11.2020


 


नैनो ने सपने सजाए हैं


प्रियतम मेरे घर आए हैं


ऐ चाँद तुझे क्या मैं देखूं 


मेरा चाँद मेरे सँग मुस्काए हैं ।


 


जब सँग चले मेरे साजन 


बिच्छीये पायल झंकाएँ हैं ।


 


माथे की बिंदिया डोल रही


बेला खिल गजरा महकाए है ।


 


पलकें मेरी झुक जाती है 


जब रात-रानी खिल जाए हैं ।


 


साजन क्या कहूँ दिल की 


लब मेरे खुल थरथराएँ हैं ।


 


तू साँस साँस में बसता है 


अब धड़कन ये बताए है ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


सुनीता असीम

दूध से वो तो जले बैठे हैं।


जिल्लते दुनिया लिए बैठे हैं।


*******


कह नहीं पाए लबों से जो भी।


 वो नज़र से ही कहे बैठे हैं।


*******


ख्वाब ही लगती रहीं जो खुशियां।


उन सभी को भी जिए बैठे हैं।


*******


जाम से इक दूर रहते थे जो।


आज नजरे मय पिए बैठे हैं।


********


 बात मन की जान लेते थे जो।


अनकहे से अनसुने बैठे हैं।


*******


बस हलाहल ही पिया जिसने वो।


गोद में उसको लिए बैठे हैं।  


********


कृष्ण की माया नहीं जो जानें।


मुख खुला जैसे ठगे बैठे हैं।


********


जब सुनीता नाम उनका लेती।


वो तभी से जागते बैठे हैं।


********


सुनीता असीम 


६/११/२०२०


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*दोहे*


सभी सुहागन नारियाँ, रख कर व्रत-उपवास।


अपने पति-परिवार की,चाहें सतत विकास।।


 


शुचि मन पूजा जो करे,उसका हो कल्याण।


ऋषि-मुनि सारे संत सँग,कहते वेद-पुराण।।


 


जीवन को उत्सव समझ,कभी न समझो भार।


रहो सदा इस भाव से, होगा हर्ष अपार।।


 


कहते हैं उपवास से,रहता स्वस्थ शरीर।


प्रभु-वंदन से सुख मिले,चंचल मन हो थीर।।


 


कुल-परिवार-परंपरा,और विमल संस्कार।


 शुचि चरित्र निर्मित करें,मन में हो न विकार।।


 


स्वच्छ सोच,निर्मल चरित,और भाव उपकार।


जिसका ऐसा आचरण,उसका हो सत्कार।।


              डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                9919446372


डॉ० रामबली मिश्र

*मेरे मन की*


 


मेरे प्यारा मोहक सपना


सपने में सुंदर सा अपना


अपने में हो अपने मन की


अपने मन में हो दिव्य कामना।


 


सदा कामना साथ नित्य हो


सहज सलोनी सुघर स्तुत्य हो


स्तुति में बैठे उत्तम प्रतिमा


प्रतिमा भावुक सरल दिव्य हो।


 


दिव्य भावना देवालय हो


सत-कल्याणी शिव-आलय हो


अलाय में हो शुभ्र दीवानी


इच्छाओं का विद्यालय हो।


 


विद्यालय में प्रीति-वस्तु हो


प्रीति-वस्तु ही विषय-वस्तु हो


विषय-वस्तु में निर्मल गंगा


गंगा का संदेश अस्तु हो।


 


सपने में साकार खड़ी हो


मूर्ति स्वयं की सहज पड़ी हो


दिखे मूर्ति में मेरा आतम


दिव्य आत्म में प्रीतिगुणी हो।


 


गुण में मादक मधुर गंध हो


खुशबू से मन प्रेम-अंध हो


अंधेपन में हो पागलपन


पागलपन में सरस छंद हो।


 


महा छंद की बने श्रृंखला


फूलों जैसी कविता सबला


कविता से रस बहता जाये


हो प्रवाह में मधु-ध्वनि चपला।


 


लगे चपलता मधुर सुहानी


 बोले सदा प्रीति की वानी


वाणी से कोमल भावों की


दिखती जाये दिव्य रवानी।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*दोहे*


सभी सुहागन नारियाँ, रख कर व्रत-उपवास।


अपने पति-परिवार का,चाहें सतत विकास।।


 


शुचि मन पूजा जो करे,उसका हो कल्याण।


ऋषि-मुनि सारे संत सँग,कहते वेद-पुराण।।


 


जीवन को उत्सव समझ,कभी न समझो भार।


रहो सदा इस भाव से, होगा हर्ष अपार।।


 


कहते हैं उपवास से,रहता स्वस्थ शरीर।


प्रभु-वंदन से सुख मिले,चंचल मन हो थीर।।


 


कुल-परिवार-परंपरा,और विमल संस्कार।


 शुचि चरित्र निर्मित करें,मन में हो न विकार।।


 


स्वच्छ सोच,निर्मल चरित,और भाव उपकार।


जिसका ऐसा आचरण,उसका हो सत्कार।।


              डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                9919446372


सुषमा दीक्षित शुक्ला

ऐ! जिंदगी


 


ऐ!जिंदगी तेरे लिए हमने बहुत हैं दुःख सिंये।


ऐ!आशिकी तेरे लिए आँख ने आँसू पिये ।


 


बे मुरब्बत जिंदगी तू रूठती मुझसे रही ।


बेरहम ये जख़्म सारे दिन ब दिन तूने दिये ।


 


दिल तड़पता रात दिन रूह है जोगन बनी ।


बेबफा ये दर्द सारे झेलकर फिर भी जिये ।


 


मोहब्बत में नही है फ़र्क जीने और मरने का ।


बेखता ये सज़ा पाकर जिंदगी तुझको जिये ।


 


हजारों ख्वाहिशें हो चुकीं हैं अब तो दफ़न ।


याद में तेरी सनम जहरे समंदर पी लिए ।


 


शमा बनकर ,सुष्,पिघल ढलती रही ।


फ़क़त रात ओ दिन जले दिल के दिये ।


 


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


आचार्य गोपाल जी

ख़ुदा ख़ुद को कहता है,


ख़ुद के वज़ूद का पता नहीं।


दवा दर्दे दिल की चाहता है,


दिल से छोड़ा कोई खता नहीं ।


खुद खोजनी पड़ती है मंजिल,


कोई भी रास्ता देता बता नहीं ।


आजाद अकेला रहकर कोई,


प्रेम सबसे सकता जता नहीं ।


 


 🌹🙏🌹सुप्रभात🌹🙏🌹


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5


जब रह रात पाँच-छः सेषा।


कालहिं बरस एक अवसेषा।।


    बन मा लइ बछरू तब गयऊ।


    किसुन भ्रात बलदाऊ संघऊ।।


सिखर गोबरधन पै सभ गाई।


हरी घास चरि रहीं अघाई।।


     लखीं चरत निज बछरुन नीचे।


     उछरत-कूदत भरत कुलीचे।।


बछरुन-नेह बिबस भइ धाईं।


रोके रुक न कुमारग आईं।।


    चाटि-चाटि निज बछरुन-देहा।


    लगीं पियावन दूध सनेहा।।


नहिं जब रोकि सके सभ गाईं।


गोप कुपित भइ मनहिं लगाईं।।


    पर जब निज-निज बालक देखा।


    बढ़ा हृदय अनुराग बिसेखा।।


तजि के कोप लगाए उरहीं।


निज-निज लइकन तुरतै सबहीं।।


    पुनि सभ गए छाँड़ि निज धामा।


     भरि-भरि नैन अश्रु अभिरामा।।


भयो भ्रमित भ्राता बलदाऊ।


अस कस भयो कि जान न पाऊ।।


     कारन कवन कि सभ भे वैसै।


     मम अरु कृष्न प्रेम रह जैसै।।


जनु ई अहहि देव कै माया।


अथवा असुर-मनुज-भरमाया।।


    अस बिचार बलदाऊ कीन्हा।


    पर पुनि दिब्य दृष्टि प्रभु चीन्हा।।


माया ई सभ केहु कै नाहीं।


सभ महँ केवल कृष्न लखाहीं।।


दोहा-बता मोंहि अब तुम्ह किसुन, अस काहें तुम्ह कीन्ह।


        तब बलरामहिं किसुन सभ,ब्रह्म-भेद कहि दीन्ह।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र।


                         9919446372


 


 


*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-10


 


सेवक राम जानि तब सीता।


दृगन अश्रु भरि कहीं अभीता।।


     तुम्ह हनुमत जलयान समाना।


     डूबत बिरह-सिंधु मम प्राना।।


कस बताउ लछिमन लघु भ्राता।


कुसल-छेमु रामहिं कहु ताता।।


     प्रभु त होंहिं सेवक सुखदाई।


    पर मोंहि काहें अस बिसराई।।


कहहु,कबहुँ सुधि मोरी करहीं।


हृदय मोर कब सीतल भवहीं।।


    रुधित कंठ आँसू भरि लोचन।


    लगहिं न सिय जनु कष्ट-बिमोचन।।


बिरहाकुल लखि सिय हनुमाना।


होइ बिनम्र मृदु बचन बखाना।।


     कहा,नाथ लछिमन दोउ भाई।


     सकुसल-दुखी जानु तुम्ह माई।।


तुम्हतें दुगुन प्रेम प्रभु करही।


अस प्रभु कस तुमहीं बिसरहहीं।।


     नाथ-सनेस सुनहु धरि धीरा।


      तुम्ह बिनु प्रभु-चित परम अधीरा।


कछु अब प्रभुहिं लगै नहिं नीका।


जे कछु चटक लगै सभ फीका।।


     नव-दल कोपल अनल समाना।


     रबि-ससि-किरन बिधहिं जस बाना।


जलद-नीर जनु खौलत तेला।


त्रिबिध पवन अपि खेलै खेला।।


      तव मम प्रेम प्रिये को समुझै।


      केतें कहहुँ बिरह जे बूझै।।


सुनि सनेस प्रभु सीता माता।


भें हरषित हिय,पुलकित गाता।।


    कह हनुमंत सुनहु हे माई।


    नाथ हमार परम सुखदाई।।


सोरठा-सुनहु जानकी मातु,निसिचर सबहिं पतंग सम।


          भले करहिं सभ घातु,जरहिं तुरत प्रभु-सर-अनल।।


                          डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


राजेंद्र रायपुरी

😄😄* एक षष्टपदी *😄😄


मापनी- २१२२-२१२२-२१२२-२१२२


 


साठ पर है एक शिक्षक क्या मैं जाऊॅ॑ पाठशाला।


बात झूठी है नहीं यह कह रहा जो आज लाला। 


भेड़-बकरी से भरे हैं एक कमरे बाल सारे।


क्या पढ़ेंगे इस तरह हम सोचते बच्चे हमारे।


हाल ये ही हर जगह है हो भला कैसे पढ़ाई।


साल सत्तर में चले हम कोस देखो बस अढ़ाई।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

सुख की राह


 


लोगों ने समझाया


वक्त बदलता है


और वक्त ने समझाया


लोग भी बदलते हैं


बीते और भविष्य पर


मत दीजिए ध्यान


वर्तमान में ही लाइये


अपने होठो पर मुस्कान


यही है सुख की राह


कल क्या होगा यह राज


कौन सका है जान


वर्तमान का ही कीजिए


छककर अमृत पान


अंधे तक को ईश्वर


दिखलाता है राह


उसकी कृपा हुई तो


आह भी हो गई वाह


यही है सुख की राह


जिस दिन से आपके व्यवहार में


मिला साथ का ज्ञान


तब तुमको दिख जायेगा


पत्थर में भगवान


झेल लिया जिस शख्स ने


पीड़ा का संघर्ष


एक दिन उसके सामने


नमन करेगा हर्ष


यही है सुख की राह


बिना कर्म के भाग्य की


रेखा बदल न पाय


इसका प्रभु के पास भी


कोई नहीं उपाय


सांसे हमारी सीमित


मृत्यु खड़ी है द्वार


वह पैसा तो व्यर्थ है


जिसे न खर्च किया, न दिया दान


यही है सुख की राह


नूतन लाल साहू


एस के कपूर "श्री हंस"

*रचना शीर्षक।।*


*सफल जीवन का तंत्र।।आपका*


*संकल्प मंत्र।।*


 


मिट्टी का पुर्जा चलते चलते


यह रुक जायेगा।


मत नाज़ कर इस तन पर इक


दिन झुक जायेगा।।


व्यक्ति चला जाता और बस


बात रह जाती है।


बस कर्म अच्छे कर कि एक


दिन चुक जायेगा।।


 


व्यक्तित्वऊँचा बनायो कि सुनने


को सब तैयार रहें।


आकर्षण हो ऐसा शख्सियत में


कि सब वफादार रहें।।


जब बढ़ो आगे तो कारवाँ पीछे


चल निकले।


मानने को बात तुम्हारी तैयार


सारा संसार रहे।।


 


दुआयें सबकी लेते रहो दुआयें


सबको देते रहो।


अपने परायों का भी आशीर्वाद


तुम लेते रहो।।


ना जाने कब जिन्दगी की वह


आखिरी शाम आ जाये।


सब हैं हमारे अपने बस यही इक


बात कहते रहो।।


 


पराजय तब होती जब आप हार


को मान लेते हैं।


जय तो निश्चित जब बात कोई 


आप ठान लेते हैं।।


गिर जायो पर फिर खड़े होने में  


ही छिपी है जीत ।


दुष्कर भी सम्भव जब चुनौती का


फरमान खुद को देते हैं।।


 


*रचयिता।।। एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।।*


मोब।।।। 9897071046


                       8218685464


 


*विषय/विधा।।मुक्तक।।*


*शीर्षक,,,नारी, शक्ति ,भक्ति, ममता का प्रतीक*


*,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,*


*रचयिता,,,एस के कपूर "श्री हंस"*


*पता,,,,,, 06 , पुष्कर एनक्लेव*,


*टेलीफोन टावर के सामने*,


*स्टेडियम रोड, बरेली 243005*


*मोब ,,,,,,9897071046*


*,,,,,,,,8218685464*


*विधा,,,,,,,,,मुक्तक माला*


 


*1,,,,,,,,,*


माँ का आशीर्वाद जैसे कोई


खजाना होता है।


मंजिल की जीत का जैसे


पैमाना होता है।।


माँ की गोद मानो कोई


वरदान है जैसे।


चरणों में उसके प्रभु का


ठिकाना होता है।।


*2,,,,,,,,,,,,,,,*


अहसासों का अहसास मानो


बहुत खास है माँ।


दूर होकर भी लगता कि बस


आस पास है माँ।।


बहुत खुश नसीब होते हैं जो


पाते माँ का आशीर्वाद।


हारते को भी जीता दे वह


अटूट विश्वास है माँ।।


*।।।।।3।।।*


अच्छा व्यवहार बेटीयों से


निशानी अच्छे इंसान की।


इनसे घर की बढ़ती शोभा जैसे


उतरी परियाँ आसमान की।।


बेटी को भी दें आप बेटे जैसा


घर में प्यार और सम्मान।


जान लीजिए बेटियों के जरिये


ही आती रहमते भगवान की।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*


मोब।।।।9897071046।।।।।।।


8218685464।।।।।।।।।।।।।।


*,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,*


एस के कपूर "श्री हंस"

*प्रेम ईश्वर का रूप है।।*


*हाइकु।।*


 


1


निस्वार्थ प्रेम


प्रभु की सौगात है


दिल से प्रेम


2


प्रेम संस्कार


अनमोल देन है


प्रेम संसार


3


प्रेम का द्वार


स्वर्ग यहीं पर है


प्यार ही प्यार


4


प्रेम का सुख


अमूल्य धरोहर


भुला दे दुःख


5


प्रेम स्वीकृति


सुख शांति का पत्र


अमूल्य निधि


6


सात्विक प्रेम


अमूल्य उपहार


हार्दिक प्रेम


7


प्रेम आधार


प्रेम जब दिव्य हो


हो ये सौ बार


8


प्रेम संपदा


दुख होता है विदा


प्रभु भी फिदा


9


प्रेमानुभूति


सुखद अहसास


ये अनुभूति


10


प्रेम का रंग


जब चढ़ जाता है


बदले ढंग


11


प्रेम है भक्ति


प्रेम है सागर सा


प्रेम है शक्ति


12


प्रेम का वास


सब ही क्लेश कटें


प्रेम निवास


13


प्रेम बर्ताव


उत्तम शिष्टाचार


न देता घाव


14


प्रेम का धर्म


बदल देता यह


जीवन कर्म


15


प्रेम पवित्र


निर्मित करता है


प्रेम चरित्र


16


प्रेम सरस


आनंद ही देता है


प्रेम का रस


 


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।।*


मोब।। 9897071046


                      8218685464


डॉ0निर्मला शर्मा

मानवीय घड़ी सी माँ


 


मानवीय घड़ी सी माँ!


 अपने कर्तव्य पर अडिग माँ!


भोर के धुंधलके से ही 


शुरू होती है जिसकी दिनचर्या


जो चलती है


 रात की चादर समेटे 


चाँद के अलसाये सायों के साथ


भूख प्यास न जाने !


उसे सताती भी है या नहीं


 वह तो 


संतान को पेटभर खाते देख ही


 तृप्त हो जाती है 


उसकी जिव्हा का 


न कोई स्वाद है 


और जीवन का अपना 


कोई रंग नहीं 


रिश्तों की बगिया को सजाती


 हर अहसास को दबाती


 केवल मातृत्व के 


आभूषण से सजी


 जीवनदायिनी माँ 


सर्दी हो या गर्मी 


बारिश हो या बसन्त 


कोई ऋतु उसे न डिगाती


 चलता है उसका 


उपक्रम अनवरत 


बदले में कुछ भी न चाहती 


परिवार रहे उसका सलामत


 हर पल यही दुआ माँगती 


भागती, दौड़ती ,घबराती 


अविराम काम करती 


नटखट संग खेले कभी 


घर के काम निपटाती


 कभी चेहरे पर अपने 


न कोई शिकन लाती 


मानवीय घड़ी सी अड़ी 


सदैव अपने काम समय से निपटाती


माँ!!


 


डॉ0निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


अतुल पाठक "धैर्य" हाथरस

करवाचौथ विशेष कविता


शीर्षक-कशिश महताब जैसी


-----------------------------------


कशिश तेरी महताब जैसी, 


महताब में नज़र तू आने लगी।


 


इश्क और मुश्क तुझसे दीवाना तेरा,


दिल की गली प्यार की इक कली लगाने लगी।


 


संग तू है तो और कोई नहीं मेरी हमराज़~ए~तमन्ना,


तेरे होने से वीरान दिल में रोशनाई आने लगी।


 


लाज़मी है चाँद का गुमाँ टूटना,


आखिर मेरी चाँद के आगे उसकी चमक फीकी पड़ने लगी।


 


जब से दो जिस्मों में एक जान बसने लगी,


प्यार की दुनिया आबाद होने लगी।


@उत्तर प्रदेश)


करवा चौथ कर्क चतुर्थी पर रचना 04-11-2020


करवा चौथ


पति स्वस्थ चिरायु रहे अतः भूखी प्यासी रहती नारी।


कार्तिक की बदी चतुर्थी को गणपति पूजन करती नारी।।


पति पीड़ित हो बीमार भले निर्धन हो दीन हीन कितना,


पति पर सर्वस्व लुटा देती बलिहारी भारत की नारी।।


 


 


 


कार्तिक बदी चतुर्थी करवा क पर्व आया।


अर्धांगिनी ने मेरी पानी पिया न खाया।


पति की सलामती को करती कठिन तपस्या,


नारी महान है ये बेदो ने भी बताया।


 


चपला हो चंचला हो शादी के बाद नारी।


शादी के बाद सादी हो जाती है कुआंरी।


पुरुषों की क्या बताये होती अजब कहानी।


पत्नी के साथ खोये बातें लिए पुरानी।


 


पत्नी में खोजते है वह जीन्स वाली प्रीती।


कैसा दिमाग शातिर यह आदमी की रीती।


पत्नी बहन हैं माता परिवार की सृजेता।


हम जीत करके हारे वह हर कदम विजेता।


 


पश्चिम की सभ्यता को घर मे नही बसाना।


पूरी न मिल सके तो आधे ही पेट खाना।


पत्नी सुलक्षणा हो काली कुटिल कुरूपा।


एकल पतिव्रता पर बलिहार लाख रुपा।।


 


संकष्ट गणेश चतुर्थी करवा चौथ पर समस्त भारतीय नारियां अखण्ड सौभाग्यवती हो।यही प्रार्थना है भगवान गजानन से~


 


जिनने व्रत करवा चौथ रखा,जीवन भर मांगे लाल रहे।


झुर्री बिहीन हो गाल सुर्ख, घुटनो तँक लम्बे बाल रहे।


जीवन में हर सुख सुविधा हो,पति की भी आयु लंबी हो


हर नारी को मातृत्व मिले,सबकी गोदी में लाल रहे।।


================== प्रियतम की लम्बी उमर हेतु,अति भूख,प्यास सहती नारी| 


चन्द्रोदय दर्शन पूजनकार, सौभाग्य शालिनी हो नारी ||


तपसी शालीन न तुम जैसा, सबला,सफला हो कर्मठ हो | 


दिख रही धर्मता धीरज की प्रति मूर्ति बनी प्रमुदित नारी||


                                                                      -आशुकवि नीरज अवस्थी 9919256950


===============


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा 'गुणशेखर '

परिचय-



मूलनाम : गंगा प्रसाद शर्मा


जन्म की तारीख :01-11-1962(सरकारी अभिलेख में)


जन्मस्थान : समशेर नगर


पारिवारिक परिचय:


माता -श्रीमती कमला देवी


पिता -स्व.शिव नारायण शर्मा


पत्नी-श्रीमती गायत्री शर्मा


संतान: पुत्री-आरती शर्मा, पुत्र:अनुराग शर्मा ,अभिषेक शर्मा 


शिक्षा-एम.ए.एम.एड.नेट(यू.जी.सी.फेलोशिप प्राप्त),पीएच.डी.


भाषाज्ञान-हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,उर्दू,फ़ारसी(आंशिक रूप से )


प्रकाशित कृतियाँ : 'सप्तपदी' और 'समय की शिला पर' के सहयोगी दोहाकार( संभावित प्रकाशन वर्ष1995-96),मेरी सोई हुई संवेदना (कविता संग्रह ,1998),हर जवाँ योजना परधान के हरम में(गज़ल संग्रह,1999),दारा हुआ आकाश (दोहा संग्रह ,1999),अफसर का कुत्ता,पुलिसिया व्यायाम(दोनों व्यंग्य संग्रह,2003-04), आधुनिक भारत के बहुरंगी दृश्य(2005, भारतीय आई.ए.एस.अधिकारियों के द्वारा लिखित निबंधों का संपादित संकलन),स्त्रीलिंग शब्द माला(2005,शब्दकोश),व्यावहारिक शब्दकोश (2005,अरबी-फ़ारसी के बहु-प्रचलित शब्दों का कोश),An introductory Hindi Reader (2006,specially prepared for non hindi speaking Indian and foreigners), दलित साहित्य का स्वरूप विकास और प्रवृत्तियाँ (2012,रमणिका फाउंडेशन के लिए)


सम्मान व पुरस्कार :साहित्य शिरोमणि सम्मान (1999,साहित्य-कला परिषद,जालौन, उ॰प्र॰),तुलसी सम्मान (2005,सूकरखेत, उ॰प्र॰),विश्व हिंदी सम्मान 2014


भाखा एवं इंदु संचेतना पत्रिकाओं का संपादन।


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कविता -1


पहाड़  उदास है


 


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जब से 


 


काट लिए गए हैं 


 


चोरी-चोरी 


 


उसके हाथ-पाँव


 


चीड़ और देवदार


 


पहाड़ 


 


बहुत डरा-डरा रहता है 


 


लुप्त हो गया है 


 


उसके भीतर का 


 


गीत-संगीत 


 


उड़  गए हैं उसके 


 


रागों के सारे पक्षी 


 


उदास-उदास रहता है 


 


इन दिनों


 


किसको दिखाए कि 


 


हो गया है 


 


पूरा अपंग अचल


 


कि अब नहीं 


 


सहा जाता कुल्हाड़ी  के 


 


हल्के से वार का भी दर्द 


 


सुबह-सुबह 


 


जैसे ही नींद टूटती है 


 


ओस से नहाई 


 


देह से 


 


कनेर के फूल-सा 


 


पीला-पीला चेहरा लिए 


 


अपने नेत्रों के 


 


निर्झर से 


 


चढ़ाने लगता है जल 


 


सूर्य देवता को


 


बीच-बीच में उभरे


 


पत्थरों के अधरों के 


 


मध्य के विवरों से 


 


फूटते मंत्रोच्चारों के साथ 


 


करता रहता है प्रार्थनाएँ  


 


मनु की संतानों की 


 


सद्बुद्धि के लिए 


 


कि अब और न हों हम


 


अक्षम 


 


और न हों 


 


निरुपाय.


 


कविता -2


 


साहित्य पढ़ने के पहले 


 


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यह क्या है कि 


 


जहां देखा पढ़ने लगे 


 


जिस-तिस की कविता-कहानी 


 


जिस-तिस के उपन्यास 


 


दलितों का साहित्य 


 


जिन्हें छूने में घिनाते थे 


 


हमारे प्रतापी पूर्वज 


 


सच पूछो तो 


 


यह समय


 


साहित्य पढ़ने का है ही नहीं 


 


जाति -धर्म पढ़ो 


 


राजनीतिक दल पढ़ो 


 


खास करके उस नेता को पढ़ो 


 


जिससे भला होना है 


 


और चुल्ल नहीं ही मानती है तो 


 


किसी का साहित्य 


 


पढ़ने के पहले


 


उसका धर्म पढ़ो 


 


धर्म के बाद जाति


 


जाति  के बाद कुल 


 


कुल के बाद गोत्र 


 


तब पढ़ो उसे 


 


जैसे मैं पढ़ता हूँ 


 


केवल ब्राह्मणों का साहित्य 


 


उसमें भी 


 


अपने प्रदेश के 


 


कान्यकुब्जों का  


 


वह इसलिए कि


 


बाबा तुलसी दास कह गए हैं 


 


"पूजिय बिप्र सकल गुन हीना। "


 


कविता -3


 


धान की पौध लड़कियाँ 


 


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जड़ से 


 


उखाड़ ली जाती हैं 


 


मूठी बनाकर 


 


फेंक दी जाती हैं


 


कीचड़ में 


 


फिर रोप दी जाती हैं 


 


किसी दूसरे खेत की 


 


अपरिचित माटी में 


 


कभी-कभार 


 


कुछ पलों के लिए 


 


मुरझा भले जाती हैं 


 


फिर आनन-फानन में 


 


तनकर खड़ी भी हो जाती हैं 


 


अपने आप मुटाती हैं 


 


लहलहाती हैं 


 


धनधान्य से भर देती हैं घर 


 


ऐसे जीवट वाली होती हैं ये


 


धान की पौध लड़कियां!


 


कविता -4


 


कोरोना काल की भूख 


 


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कभी लिखूँगा कविता


 


मज़दूरों की भूख पर कि


 


कितनी बड़ी थी इनकी भूख


 


पेट भरने के लाख प्रयास के बावज़ूद


 


नहीं भरे इनके पेट


 


हज़ारों संस्थाओं,भामाशाहों के खज़ाने 


 


हो गए खाली पर 


 


इनकी भूख नहीं मिटी तो नहीं मिटी 


 


बढ़ती रही बढ़ती रही रोज़ दर रोज़


 


'हाथ भर की लौकी के नौ हाथ के बिया' की तरह


 


आखिर कितना खाएंगे ये 


 


टीवी पर रोज़ घोषणाएँ हो रही हैं 


 


बताया जा रहा है 


 


इनको कितना दे दिया गया है


 


पहले ही 


 


फिर भी इनका पेट है कि भरता ही नहीं


 


कभी लिखूंगा ज़रूर इनकी ये कारस्तानियां


 


ऊँट जैसे भरे ले रहे हैं


 


अनाप-शनाप


 


इस कोरोना काल में 


 


आखिर कितना चाहिए इन्हें


 


अरे कोई तो रोको 


 


कोई तो समझाओ


 


कहो और कब तक चलोगे


 


हफ्तों से चले ही जा रहे हो लगातार


 


आखिर और कितना चलोगे पैदल?


 


ज़गह-ज़गह 


 


दोनों हाथ पसार लंगर का ले रहे हो मज़ा 


 


अरे रुको तनिक शर्म करो


 


और कितना खाओगे यार!


 


 


 


कविता -5


 


न बाबा न ! 


 


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मरने के पहले 


 


किसान ने चातक की तरह


 


स्वाति को टेरते हुए पूछा


 


'बरसेगा?'


 


बोला ,


 


'न कभी न '


 


छाती फटी  ज़मीन  से पूछा ,


 


'तू प्यासी जी पाएगी इक बरस ?' 


 


बोली,


 


'नहीं'


 


पत्नी से,बच्चों से 


 


पूछा ,


 


'बिना खाए रह लोगे 


 


कुछ दिन '


 


बोले,


 


'नहीं बाबा नहीं'


 


बैंक से पूछा, 


 


'कर्ज़ माफ़ होगा ?'


 


बैंक बोली ,'उद्योगपति हो'


 


किसान बोला,  


 


'नहीं' 


 


ज़वाब में बैंक ने दाएँ-बाएँ गर्दन हिलाई ,


 


' तब तो ....... नहीं.. कभी नहीं '


 


मरने के पहले 


 


कहाँ-कहाँ नहीं गया 


 


किस-किस के सामने  नहीं जोड़े हाथ 


 


किस- किस से नहीं गिड़गिड़ाया 


 


कोई तो बोलो 'हाँ' 


 


पर,


 


कोई  कहाँ बोला 'हाँ'


 


और फिरअंत में 


 


अपनी  ज़िंदगी से ही एक बार फिर पूछा-


 


'कभी अपने भी अच्छे दिन आएँगे?'


 


तू क्या कहती है रे! 


 


जी लें कुछ दिन ?'


 


वह  बोली,


 


'न बाबा न !'


@गुणशेखर


शरद पूर्णिमा


शरद पूर्णिमा के चन्दा से जन जन को अमरत्व मिले।


मेरी आर्य संस्कृति को भी बचा खुचा अस्तित्व मिले।


धवल खुशी से शांति भरा हम तुम सब ही का जीवन हो,


धरती के हर दम्पति को सुखमय ममता मातृत्व मिले।।


आशुकवि नीरज अवस्थी 9919256950


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

साहित्यकार का परिचय


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(1)नाम----


 


(2)पिता- श्री नंदकिशोर जी खरे


 


(3)माता- श्रीमती शकुंतला खरे


 


(4)वर्तमान पता---आज़ाद वार्ड-चौक, मंडला(मप्र)-481661


 


(5) स्थायी पता---ग्राम -प्राणपुर(चन्देरी),ज़िला-अशोकनगर, मप्र---473446


 


(6)फोन--9425484382(कॉल व व्हॉट्सएप) 


 


 (7)जन्म- 25-09-1961


 स्थान- ग्राम प्राणपुर(चन्देरी) ,ज़िला-गुना (तत्कालीन/अब-अशोकनगर,मप्र-473446


 


(8) शिक्षा-एम.ए(इतिहास)(मेरिट होल्डर),एल- एल.बी,पी-एच.डी.(इतिहास) 


 


(9)व्यवसाय----शासकीय सेवा,  


प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष इतिहास


कार्यालय----शासकीय जे.एम.सी.महिला महीविद्यालय,मंडला(म.प्र.)


(10)प्रकाशित रचनाएं व गतिविधियां --


*चार दशकों नें देश के पांच सौ से अधिक प्रकाशनों व विशेषांकों में दस हज़ार से अधिक रचनाएं प्रकाशित 


*गद्य- पद्य में कुल 17 कृतियां प्रकाशित। 


*प्रसारण-----रेडियो(38 बार),भोपाल दूरदर्शन (6बार),ज़ी-स्माइल,ज़ी टी.वी.,स्टार टी.वी., ई.टी.वी.,सब-टी.वी.,साधना चैनल से प्रसारण ।


*संपादन---9 कृतियों व 8 पत्रिकाओं/विशेषांकों का सम्पादन ।


*विशेष---सुपरिचित मंचीय हास्य- व्यंग्य कवि, संयोजक,संचालक,मोटीवेटर,शोध- निदेशक,विषय विशेषज्ञ,रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के इतिहास विभाग के अध्ययन मंडल के तीसरी बार व शासकीय पी.जी.ओटोनॉमस कॉलेज अध्ययन मंडल(इतिहास) के सदस्य ।   


एम.ए.इतिहास की पुस्तकों का लेखन


125 से अधिक कृतियों में प्राक्कथन/ भूमिका का लेखन ।


250 से अधिक कृतियों की समीक्षा का लेखन


राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में150 से अधिक शोध पत्रों की प्रस्तुति


सम्मेलनों/ समारोहों में 300 से अधिक व्याख्यान 


250 से अधिक कवि सम्मेलन ।


450से अधिक कार्यक्रमों का संचालन ।


सम्मान/अलंकरण/ प्रशस्ति पत्र------देश के लगभग सभी राज्यों में 600 से अधिक सारस्वत सम्मान/ अवार्ड/ अभिनंदन ।


सर्वप्रमुख अवार्ड--- म.प्र.साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय अवार्ड(निबंध )।


आजाद वार्ड,मंडला,मप्र-9425484382


 


 


माँ


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माँ जीवन की हर खुशी,माँ जीवन का गीत। 


माँ है तो सब कुछ सुखद,माँ है तो संगीत।। 


         


माँ है मीठी भावना,माँ पावन अहसास। 


माँ से ही विश्वास है,माँ से ही है आस।। 


 


वसुधा-सी करुणामयी,माँ दृढ़ ज्यों आकाश। 


माँ शुभ का करती सृजन,करे अमंगल नाश।। 


 


माँ बिन रोता आज है,होकर 'शरद'अनाथ। 


सिर पर से तो उठ गया,आशीषों का हाथ।। 


       ----प्रो शरद नारायण खरे


          ===============


 


 


 


उजियारे का गीत


----------------------


अँधियारे से लड़कर हमको,उजियारे को गढ़ना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


           पीड़ा,ग़म है,व्यथा-वेदना,


             दर्द नित्य मुस्काता


            जो सच्चा है,जो अच्छा है,


             वह अब नित दुख पाता


 


किंचित भी ना शेष कलुषता,शुचिता को अब वरना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


           झूठ,कपट,चालों का मौसम,


          अंतर्मन अकुलाता


          हुआ आज बेदर्द ज़माना,


            अश्रु नयन में आता


 


जीवन बने सुवासित सबका,पुष्प सा हमको खिलना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


              कुछ तुम सुधरो,कुछ हम सुधरें,


               नव आगत मुस्काए


               सब विकार,दुर्गुण मिट जाएं,


             अपनापन छा जाए


 


औरों की पीड़ा हरने को,ख़ुद दीपक बन जलना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


                     --


 


उजियारे का गीत


----------------------


अँधियारे से लड़कर हमको,उजियारे को गढ़ना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


           पीड़ा,ग़म है,व्यथा-वेदना,


             दर्द नित्य मुस्काता


            जो सच्चा है,जो अच्छा है,


             वह अब नित दुख पाता


 


किंचित भी ना शेष कलुषता,शुचिता को अब वरना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


           झूठ,कपट,चालों का मौसम,


          अंतर्मन अकुलाता


          हुआ आज बेदर्द ज़माना,


            अश्रु नयन में आता


 


जीवन बने सुवासित सबका,पुष्प सा हमको खिलना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


              कुछ तुम सुधरो,कुछ हम सुधरें,


               नव आगत मुस्काए


               सब विकार,दुर्गुण मिट जाएं,


             अपनापन छा जाए


 


औरों की पीड़ा हरने को,ख़ुद दीपक बन जलना होगा !


डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!


 


                     --


 


 


गीतिका


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आशाओं के दीप जलाने का यह अवसर है, 


अब तो प्रिय मुस्कान खिलाने का यह अवसर है ।


 


वक्त़ रहा प्रतिकूल सदा ही, पर हो ना मायूस, 


अब उजड़ा संसार बसाने का यह अवसर है ।


 


व्देष, बैर,कटुता ने बांटा भाई-भाई को,


वैमनस्य-दीवार ढहाने का यह अवसर  है ।


 


लेकर हाथ चलें हाथों में,मिलें क़दम क़दम से, 


चैन-अमन का गांव बसाने का यह अवसर है ।


 


पीर,दर्द,ग़म और व्यथाओं का है यह आलम,


मानव-मन को आज सजाने का यह अवसर है ।


 


महके मानवता का घरअब,अपनापन बिखरे,


 


नेह,प्रेम के भाव निभाने का यह अवसर है ।


 


बहुत हो चुका तंद्रा तोड़ो,उठो 'शरद'अब सारे,


अब तो हमको कुछ कर दिखला


 


 पीड़ा का गीत


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उजियारे को तरस रहा हूं,अँधियारे हरसाते हैं !


अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!


 


अपने सब अब दूर हो रहे,


हर इक पथ पर भटक रहा


कोई भी अब नहीं है यहां,


स्वारथ में जन अटक रहा


 


सच है बहरा,छल-फरेब है,झूठे बढ़ते जाते हैं !


अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!


 


नकली खुशियां,नकली मातम,


हर कोई सौदागर है


गुणा-भाग के समीकरण हैं,


झीनाझपटी घर-घर है


 


जीवन तो अभिशाप बन गया,


मायूसी से नाते हैं !


अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!


 


रंगत उड़ी-उड़ी मौसम की,


अवसादों ने घेरा है


हम की जगह आज 'मैं ' 'मैं ' है,


ये तेरा वो मेरा है


 


फूलों ने सब खुशबू खोई,पतझड़ घिर-घिर आते हैं !


अधरों से मुस्कानें गायब,आंसू भर-भर आते हैं !!


 


        -.


 


 


 


माता का देवत्व


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माता सच में धैर्य है,लिये त्याग का सार !


प्रेम-नेह का दीप ले, हर लेती अँधियार !!


 


पीड़ा,ग़म में भी रखे,अधरों पर मुस्कान !


इसीलिये तो मातु है,आन,बान औ' शान !!


 


माता तो है श्रेष्ठ नित ,हैं ऊँचे आयाम !


इसीलिये उसको "शरद", बारम्बार प्रणाम !!


 


नारी ने नर को जना,इसीलिये वह ख़ास !


माता  पर भगवान भी,करता है विश्वास !!


 


माता से ही धर्म हैं,माता से अध्यात्म !


माता से ही देव हैं,माता से परमात्म !!


 


माता से उपवन सजे,माता है सिंगार !


माता गुण की खान है,माता है उपकार !!


 


माती शोभा विश्व की,माता है आलोक !


माता से ही हर्ष है,बिन नारी है शोक !!


 


माता फर्ज़ों से सजी,माता सचमुच वीर !


साहस,कर्मठता लिये,माता हरदम धीर !!


 


जननी की हो धूप या,भगिनी की हो छांव !


नारी ने हर रूप में,महकाया है गांव !!


 


माता की हो वंदना,निशिदिन स्तुति गान !


माता के


डॉ. रामबली मिश्र

दिव्य यार


 


दिव्य यार का प्यार चाहिये।


मुखड़े का दीदार चाहिये।।


 


बसे यार मेरे आँगन में।


थिरके मेरे मन-उपवन में।।


 


दिल में बैठे गाना गाये।


मौसम सुखद सुहाना लाये।।


 


छेड़े तान सदा मनभावन।


हो झंकृत तन-मन शोभायन।।


 


यार!तुम्हीं हो नाथ हमारा।


सिर्फ चाहिये साथ तुम्हारा।।


 


आओ गाओ नाचो हँसकर।


थिरक-थिरक कर मचल-मचल कर।।


 


मेरा यार बहुत मस्ताना।


उस पर पूरा जग दीवाना।।


 


सभी माँगते दुआ मिलन की।


कुछ करते हैं बात जलन की।।


 


यार बना है स्वाभिमान से।


यारी करता सदा मान से।।


 


परम प्रतिष्ठित दिव्य विभूती ।


 पावन बहुत यार करतूती।।


 


यार सभी का नहीं यार है।


भाग्य शिरोमणि शुभ विचार है।।


 


भाग्यशालियों का यह संगी ।


अति उत्साहित सहज उमंगी।।


 


मेरा यार बहुत शीतल है।


भाग्यमान का यह भू-तल है।।


 


इसको केवल प्यार चाहिये।


मानव का विस्तार चाहिये।।


 


अतिशय भावुक यार परम शुचि।


सुंदर भाव-शव्द में ही रुचि।।


 


भोला-भाला शीघ्र दयाला।


देता यार खुशी का प्याला।।


 


परम वर्णनातीत प्रशंसा।


करे यार पूरी अभिलाषा।।


 


यही यार से सदा याचना।


पूरी करे यार कामना।।


 


कई जन्म का यह वियोग है।


वर्तमान का यह सुयोग है।।


 


साथ निभाना यार जानता।


जिसे जानता उसे चाहता।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

कविता


कविता नहीं मात्र कल्पना,


भाव गहन गहराई है।


भाव-सिंधु में कवि-मन डूबे-


यह मोती उतिराई है।।


 


जीवन का हर रंग घुला जब,


मिला ढंग हर सुख-दुख का।


सुबह-शाम पंछी का कलरव,


बना गान जब कवि-मुख का।


बहे जो अक्षर-सरिता बन कर-


वही सत्य कविताई है।।


 


गगन में उड़ता देख परिंदा,


कवि-मन उसे पकड़ लेता।


खिले फूल को देख चमन में,


झट-पट उसे जकड़ लेता।


भूखे बालक की पीड़ा में-


कविता जगह बनाई है।।


 


अवनि दहकती है ज्वाला से,


जब-जब अत्याचारों की।


अबला की जब अस्मत लुटती।


कुत्सित सोच-विचारों की।


बन कटार तब प्रखर लेखनी-


कविता-धार बहाई है।।


 


जब भी दुश्मन वार किया है,


सीमा के रखवालों पर।


वीर राष्ट्र के सैनिक अपने,


देश-भक्त मतवालों पर।


क्रांति-भाव का बन कवित्त यह-


विजयी बिगुल बजाई है।।


 


कवि-उर की यह भाव बहुलता,


यह उड़ान मन-भावन है।


सर्दी-गर्मी हर मौसम में,


यह तो फागुन-सावन है।


कविता की ही बोली-भाषा-


भाषा की प्रभुताई है।।


   भाव-सिंधु में कवि-मन डूबे,


    यह मोती उतिराई है।।


           © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


              9919446372


डॉ. रामबली मिश्र

मुझको मन का मीत चाहिये।


सुंदर सरल विनीत चाहिये।।


 


मीठी सी आवाज चाहिये।


मधुर रसिक अंदाज चाहिये।।


 


सुंदर-सुंदर बोल चाहिये।


भावुक उर अनमोल चाहिये।।


 


अधरों पर मुस्कान चाहिये।


पावन भाव उड़ान चाहिये।।


 


रस की वर्षा हो जिह्वा से।


मिलें परस्पर आब-हवा से।।


 


मुझको पावन प्रीति चाहिये।


बरसाने की रीति चाहिये ।।


 


गावों का संगीत चाहिये।


सावन का शिव गीत चाहिये।।


 


आँखों का संवाद चाहिये।


नजरें प्रिय आजाद चाहिये।।


 


 हों वासंतिक सुघर बयारें।


जीवन वीते मीत सहारे।।


 


निद्रा भागे होय जागरण।


बसे हृदय में प्रिय उच्चारण।।


 


प्रिय पाठों का परायण हो।


जलता जाये नित रावण हो।।


 


सीधा-सादा मीत चाहिये।


बहुत सहज निर्भीक चाहिये।।


 


दिल का सच्चा-साफ चाहिये।


प्रियतम मधु इंसाफ चाहिये।।


 


जोड़ी पक्की रहे निरन्तर।


लगे देखने में अति सुंदर।।


 


भरी हुई अति मादकता हो।


प्रिय भावों की व्यापकता हो।।


 


मेरा मीत दिव्य मानव हो।


शिष्ट सौम्य सुजन अनुभव हो।।


 


नजर लगे मत कभी मीत को।


देवों का आशीष मीत को।।


 


मेरा प्यारा चयन अनोखा।


नहीं लेश मात्र का धोखा।।


 


मेरे प्यारे प्रियतम आओ।


चिर निद्रा को आज जगाओ।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा अतुल्य

मन का दर्पण चेहरा तेरा


रूप सलोना दिखलाता है 


करे कर्म जब अच्छे तू 


तेरा चेहरा खिल जाता है ।


 


कर्म आईना जीवन का हैं


जो छवि हमारी बनाते हैं 


अच्छे कर्म जग में रह जाते


जो याद सबको दिलातें हैं ।


 


देख सूरत को आईने में 


मत रूप पे अपने रीझ इतना


रंग रूप ढल जायेगा जब


बुरा लगेगा तब ये कांच का आएना ।


 


आँखों का दर्पण सुन्दर है 


मन के भाव दिखाता है 


चेहरा तेरा सुन्दर आईना


जो तेरी याद दिलाता है ।


 


निर्मल मन और सत्य भावना


लेकर अपने संग चलो 


सबसे सुंदर स्वयं हो आईना


बात सदा ये ध्यान धरो ।


 


स्वरचित


निशा अतुल्य


नूतन लाल साहू

एक सुखद जीवन की परिकल्पना


 


मस्तिष्क में सत्यता


होठो पर प्रसन्नता


हृदय में पवित्रता जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


राग द्वेष की त्याग


मन में संतोष


हर पल आत्मविश्वास जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


दुनिया बड़ी खराब


जीवन एक सराय


जिंदगी का दिन, दो चार


विधि का है अटल विधान ये ज्ञान जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


दुनिया तो चारो युगों में वही


सुख दुःख तो मेहमान


ईश्वर कर्मो का फल देता हैं ये ज्ञान जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


यश धन वैभव के पीछे नहीं भाग


जो बीता तो ठीक था,यह जान


हरि इच्छा में छिपा है मानव कल्याण


इस सच्चाई की ज्ञान जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


रब पर पूरी आस्था


मन हो संतुलित


शक संशय न पाल


पाप घृणा के योग्य है,ये ज्ञान जरूरी है


यही सुखद जीवन की परिकल्पना है


नूतन लाल साहू


डॉ. रामबली मिश्र

युग्म व्यवस्था का महत्व


 


1-दुःख बिन सुख की नहीं महत्ता।


    बिना हवा हिलता नहिं पत्ता।।


 


2-हानि डराती लाभ लुभाता।


    डर सबको संयमित बनाता।।


 


3-मृत्यु सुनिश्चित से क्या डरना।


    जीवन को नित उन्नत करना।।


 


4-लाभ सिखाता बचो हानि से।


    सत्व बताता बचो ग्लानि से।।


 


5-समझो अहं स्वयं रावण है।


     अहं मुक्त श्री रामायण है।।


 


6-गंदा जल ही संकेतक है।


   पुनः शुद्धता हेतु सूचक है ।


 


7-अपराधी जब होते दण्डित ।


    सज्जन होते महिमामण्डित।।


 


8-दुष्टों से सब बच कर रहते।


   संतों को सब उर में रखते।।


 


9-युग्मों का संसार निराला।


    एक विषैला इक मधु प्याला।।


 


10-विष औषधि है,अमृत पोषक।


    युग्म महत्वपूर्ण विश्लेषक ।।


 


11-युग्मों से तुलना होती है।


    शुचिता की रक्षा होती है।।


 


रचनाकार:डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


 


 


युग्म व्यवस्था का महत्व


 


1-दुःख बिन सुख की नहीं महत्ता।


    बिना हवा हिलता नहिं पत्ता।।


 


2-हानि डराती लाभ लुभाता।


    डर सबको संयमित बनाता।।


 


3-मृत्यु सुनिश्चित से क्या डरना।


    जीवन को नित उन्नत करना।।


 


4-लाभ सिखाता बचो हानि से।


    सत्व बताता बचो ग्लानि से।।


 


5-समझो अहं स्वयं रावण है।


     अहं मुक्त श्री रामायण है।।


 


6-गंदा जल ही संकेतक है।


   पुनः शुद्धता हेतु सूचक है ।


 


7-अपराधी जब होते दण्डित ।


    सज्जन होते महिमामण्डित।।


 


8-दुष्टों से सब बच कर रहते।


   संतों को सब उर में रखते।।


 


9-युग्मों का संसार निराला।


    एक विषैला इक मधु प्याला।।


 


10-विष औषधि है,अमृत पोषक।


    युग्म महत्वपूर्ण विश्लेषक ।।


 


11-युग्मों से तुलना होती है।


    शुचिता की रक्षा होती है।।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


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