राजेंद्र रायपुरी

 आग ही समझो जवानी 


 


कौन कहता है ये पानी।


  आग ही समझो जवानी।


    भस्म कर सकती सभी कुछ,


       मन अगर इसने है ठानी।


 


पत्थरों को तोड़ दे ये।


  रुख़ हवा का मोड़ दे ये।


     रोक दे बर्षा का पानी।


      मन अगर ठाने जवानी


 


तोड़ लाए नभ के तारे।


  निज़ भुजाओं के सहारे।


    छेद कर दे आसमां में,


      लिख नई दे इक कहानी।


 


कौन कहता है ये पानी।


      आग ही समझो जवानी।


 


फूल ही हाथों न समझो।


  हाथ में तलवार भी है।


    प्यार दिल में है अगर तो,


      साथ में ललकार भी है।


 


सह नहीं सकती कभी भी,


  सच कहूॅ॑ ये बदजुबानी।


    कौन कहता है ये पानी।


      आग ही समझो जवानी।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

एक सुझाव


 


मित्रता और रिश्तेदारी


सम्मान की नहीं,भाव की भूखी होती हैं


लगाव दिमाक से नहीं


दिल से होना चाहिए


प्रभु जी ने झप्पर फाड़ कर दिया है


यश धन तुझे अपार


फिर भी अगर तू रोता है


तो तुझको है धिक्कार


दोष देखना गैर के


बंद कीजिए आप


मित्र और रिश्तेदार होता है


कुछ पल का मेहमान


मित्रता और रिश्तेदारी


सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है


क्यों आया है इस संसार में


कौन बतायेगा मोय


इस रहस्य को आज तक


समझ सका न कोय


करे क्यों नहीं शुक्रिया


प्रभु जी का हम दिन रात


सब प्राणियों में श्रेष्ठ


बनाया है इंसान


फिर भी मित्रता और रिश्तेदारी


निभाने में क्यों करता है संकोच


बचपन यौवन कट गये


खड़ा बुढ़ापा द्वार


अब तो बाकी रह गये


जीवन के दिन चार


मित्रता और रिश्तेदारी


सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है


लगाव दिमाक से नहीं


दिल से होना चाहिए


नूतन लाल साहू


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-12


 


पुनि-पुनि सीष नवा हनुमाना।


कहा चाहुँ मैं पानी-दाना।।


    अब जदि मैं तव आयसु पाऊँ।


     तोरि-तोरि फल भरि हिक खाऊँ।।


सुनहु तात इहँ बहु रखवारा।


सकै न कोऊ इनहिं पछारा।।


     मातु खाउँ मैं फल चुनि मीठा।


     कहि नहिं सकत मोंहि कोउ डीठा।


मारि-पछारि सभें हनुमाना।


खाए रुचिकर फल बहु नाना।।


     सभ उखारि फेंकैं तरु उत-इत।


     करहिं उपद्रव उपबन समुचित।।


रावन पास जाइ इक दूता।


कह प्रभु बानर एक अनूपा।।


     बन असोक उजारि तरु फ़ेंकहि।


      खाइ-खाइ फल सबहिं गुरेजहि।।


जे केहु बीर गवा तिसु आगे।


मारि-गिराइ तुरत फिर भागे।।


      उद्भट बीर दसानन भेजा।


       मारि तिनहिं कपि पुनः गरेजा।।


भेजा निज सुत अच्छ कुमारा।


ताहि संग बहु भट्ट अपारा।।


     देखि तिनहिं उखारि इक बिटपा।


      फेंका कपि अच्छय गिर तड़पा।।


मारि गिरायेसि अछय कुमारा।


रपटत सबहिं कीन्ह निपटारा।।


    मेघनाद कहँ तहँ पुनि पठवा।


    कह मारउ नहिं लावहु बँधवा।।


देखन मैं चाहूँ तेहि कपि के।


केकर दूतइ आवा बनि के।।


    इंद्रजीत सुनि बध निज भ्राता।


    होइ बिकल क्रोधित तहँ जाता।।


लखि जोधा आवत बलवाना।


तरु गहि कटकटाइ हनुमाना।।


    कीन्ह बिरथ लंकेस-कुमारा।


    मारि मुष्टिका भटन्ह पछारा।।


दोहा-मेघनाद नहिं सहि सका, हनुमत मुष्टि-प्रहार।


        मूर्छित हो तब गिर परा, तहँ भुइँ होइ निढार।।


                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


 


 


 तेरहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


बरस-काल एक जब बीता।


ब्रह्मा आए ब्रजहिं अभीता।।


 लखतै सभ गोपिन्ह अरु बछरू।


खात-पियत रह उछरू-उछरू।।


    भए अचम्भित भरमि अपारा।


     लखहिं सबहिं वै बरम्बारा।।


किसुन कै माया समुझि न पावैं।


पुनि-पुनि निज माया सुधि लावैं।।


     असली-नकली-भेद न समुझहिं।


      निज करनी सुधि कइ-कइ सकुचहिं।।


जदपि अजन्मा ब्रह्मा आहीं।


किसुनहिं माया महँ भरमाहीं।।


     भरी निसा-तम कुहरा नाईं।


     जोति जुगुनु नहिं दिवा लखाईं।।


वैसै छुद्र पुरुष कै माया।


कबहुँ न महापुरुष भरमाया।।


    तेहि अवसर तब ब्रह्मा लखऊ।


बछरू-गोप कृष्न-छबि धरऊ।।


   सबहिं के सबहिं पितम्बरधारी।


   सजलइ जलद स्याम बनवारी।।


चक्रइ-संख,गदा अरु पद्मा।


होइ चतुर्भुज बिधिहिं सुधर्मा।।


    सिर पै मुकुट,कान महँ कुंडल।


    पहिनि हार बनमाला भल-भल।।


बछस्थल पै रेखा सुबरन।


बाजूबंद बाहँ अरु कंगन।।


   चरन कड़ा,नूपुर बड़ सोहै।


    कमर-करधनी मुनरी मोहै।।


नख-सिख कोमल अंगहिं सबहीं।


तुलसी माला धारन रहहीं।।


     चितवन तिनहिं नैन रतनारे।


     मधु मुस्कान अधर दुइ धारे।।


दोहा-लखि के ब्रह्मा दूसरइ,अचरज ब्रह्मा होय।


        नाचत-गावत अपर जे,पूजहिं देवहिं सोय।।


       अणिमा-महिमा तें घिरे,बिद्या-माया-सिद्ध।


        महा तत्व चौबीस लइ, ब्रह्मा दूजा बिद्ध।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


सुनीता असीम

कन्हैया इस तरह तुमने मेरा जीवन संवारा है।


सफीने को मेरे जैसे मिला कोई किनारा है।


*****


जिसे पूजन नहीं भाए नहीं अर्चन करे तेरा।


दिया है वक्त ने उसको पलट उत्तर करारा है।


*****


अगर लौ लग गई तुमसे नज़ारा हर हमें भाए।


तुम्हारी इक अदा पे हमने तन मन धन भी वारा है।


*****


अंधेरे हों घने कितने जला है प्रेम का दीपक।


उसी की रोशनी में तो तुम्हें हमने निहारा है।


*****


अगर है चोर माखन का वो तोड़े मोह की गगरी।


सरस वो श्याम राधा का गुणों का भी पिटारा है।


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सुनीता असीम


७/११/२०२०


सुनीता असीम

बेगानों से यारी तक करवा रक्खी है।


प्यार मुहब्बत की खुशबू फैला रक्खी है।


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खोटा काम नहीं करते हम फिर भी रब ने।


तकदीर बुरी ही अपनी लिखवा रक्खी है।


********


अच्छी बात नहीं दुनिया से यारी करना।


थाम हथेली पर हमने दुनिया रक्खी है। 


********


चार दिनों का मेला होता जग में रहना।


एक दुकाँ जिसमें हमने लगवा रक्खी है।


*******


लगती दुनिया आज पराई हमको सारी।


रंग सियारों सी चाहे रंगवा रक्खी है।


*******


सुनीता असीम


६/११/२०२०


डॉ. रामबली मिश्र

*प्रशंसा*


 


कितनी करूँ प्रशंसा तेरी


खुशबू सी है प्रीति घनेरी


बहक गया मेरा पागल मन


सदा लगाता तेरी फेरी ।


 


मीठा भाव बने तुम आये


हँसते-हँसते दिल में छाये


धीरे-धीरे कदम बढ़ाते


तुम आये अतिशय मन भाये।


 


ईश्वर ने तुझको भेजा है


मेरे लिये तुझे खोजा है


है दयालु कितना परमेश्वर


दे सुंदर सलाह भेजा है।


 


मनमोहक अंदाज सहज है


मधुर चाल में दिव्य गरज है


मस्ताना व्यक्तिव अनोखा


लगता अति मादक अचरज है।


 


दिल में तेरे प्रेम समुंदर


आँखों में प्यारे मुरलीधर


थिरक रहे हो मुस्काते तुम


अधरों पर है काम धुरंधर।


 


अति प्रिय अति सुखकर हितकारी


प्रीति देहमय हृदय विहारी


तुम्हीं त्रिवेणी ब्रह्म सिंधुमय


प्रेम अथाह समग्र मुरारी।


 


अब दो नहीं एक को जानें


एक रूप को ही पहचानें


दोनों मिलकर सदा बहेंगे


छेड़ेंगे मिल प्रेम तराने।


 


डॉ. रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा अतुल्य

नित छंद 12 मात्रिक :-


चार चरण छंद है प्रति चार अथवा दो दो चरण तुकांत अनिवार्य पदांत 111 या 1 2 


 


 


शीश धरूँ, कृष्ण चरण।


नाम तेरा दुख हरण


तुम संग लागी लगन 


तुम बने राधा सजन ।


 


हो जाऊं प्रेम मगन


नाचूँ ले प्रेम अगन


साँवरा मेरा सनम


हो मिलन बस इस जनम ।


 


सांस गई दहक दहक


फिरती हूँ महक महक 


बातें हो चहक चहक


चलती हूँ बहक बहक ।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

रोटी


करतीं हैं बाध्य सबको केवल ये रोटियाँ,


घर-बार छुड़ा देतीं केवल ये रोटियाँ।


उद्योग-काम-धंधा कुछ करने के लिए-


करतीं सदा मजबूर केवल ये रोटियाँ।।


 


घर-बार छोड़कर ही जाते विदेश हैं,


सीता-सुरेश-सरला, नितिन-दिनेश हैं।


खटते हैं रात-दिन बस,पेट की ख़ातिर-


अपना वतन छुड़ातीं, केवल ये रोटियाँ।।


 


 है जाता कोई चीन, कोई जापान को,


कोई गया ब्रिटेन तो कोई ईरान को।


हर देश के वासी की,पसंद अमेरिका-


करतीं अलग उन्हें ,केवल ये रोटियाँ।।


 


दुर्भाग्य से जब फैलती है कोई बीमारी,


कोहराम मचाती है,पुरजोर महामारी।


होता शुरू है तब,घनघोर पलायन-


जिसकी हैं जिम्मेदार केवल ये रोटियाँ।।


 


देंखें तो हर शहर-नगर व गाँव में,


है खेलती सियासत हर ठाँव-ठाँव में।


आरोप-प्रत्यारोप का होता गज़ब ये दौर-


अंदर हैं सूत्रधार केवल ये रोटियाँ।।


 


जब भाग-दौड़ करके,है लौटता श्रमिक,


पथ पर भटक-भटक कर आ जाता है पथिक।


तो उसके ठंडे चूल्हों को,दे-दे के गर्मियाँ-


झुलसातीं निज बदन को केवल ये रोटियाँ।।


 


श्रम का सही सबूत होतीं हैं रोटियाँ,


इंसान का वजूद भी होतीं हैं रोटियाँ।


बेकार है ये जीवन यदि पास में न रोटी-


करतीं हैं धन्य जीवन, केवल ये रोटियाँ।।


              © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल


 


सोच न इसमें क्या पाना क्या खोना क्या


प्यार के आगे होता चाँदी सोना क्या 


 


 मेरी ग़ज़लें उसने महफ़िल में गाईं


इससे बढ़कर और ख़ुशी का होना क्या 


 


प्यार में दी है जो उसने सौगात हमें


उन ज़ख़्मों को मरहम से अब धोना क्या 


 


यह नश्शा है इश्क़ का इसका तोड़ नहीं


इसको उतारे कोई जादू-टोना क्या


 


ढूँढ ले साथी तू भी कोई और यहाँ


धोखेबाज़ों के धोखों का रोना क्या


 


गमलों की फ़रमाइश है जब नागफनी


फूलों के बीजों को घर-घर बोना क्या 


 


 *साग़र* ग़ज़लें सुनकर आँसू बह निकलें 


आखिर इन में इतना दर्द समोना क्या 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


6/11/2020


डॉ०रामबली मिश्र

मेरा प्यारा मीत


 


मेरा प्यारा मीत ही,जीवन का है सार।


यह जीवन का अर्थ है, दे कर खुशी अपार।।


 


मीत मिला तो जिंदगी, हो जायेगी पार।


बिना मीत के जिंदगी, लगती बहु बेकार।।


 


दुःख का साथी मीत ही , भर देता है घाव।


साझा करता सहज सब, देता शीतल छाँव।।


 


बड़ा मीत से कुछ नहीं, मीत महान अतुल्य।


संभव नहीं है आँकना, कभी मीत का मूल्य।।


 


मीत मधुर मादक सरल, यह अमृतमय गेह।


अमृत कलश समान है, इसका सारा देह।।


 


रोम-रोम में रस भरा, वाणी में मधु-स्नेह।


बौना लगता स्वर्ग भी,बड़ा मीत-मन-गेह।।


 


ईश्वर जैसे मीत का, करना नित सम्मान।


तुलना करके मीत का,मत करना अपमान।।


 


एक मीत पर्याप्त है, यह सुंदर पतवार।


भर देता है प्रेम से, जीवन का भंडार।।


 


मीत मिले तो आप सा, आप प्रेम साकार।


आप -मीत से जिंदगी, की नौका है पार।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


राजेंद्र रायपुरी

चुनावी जंग 


 


छिड़ी है चुनावी जंग।


शब्दों के तीर,


छोड़ रहे हैं,


रथी-महारथी।


यही बनेंगे,


हमारे देश के कर्णधार,


सुनकर,


आती है हॅ॑सी।


 


बिन पेंदी के लोटे,


कर्म जिनके खोटे,


माननीय कहलाऍ॑गे।


आज छू रहे हैं पाॅ॑व,


कल को पेट पर,


लात जमाऍ॑गे।


 


ध्येय एक है,


अर्जुन जैसा।


उसे दिखती थी,


मछली की ऑ॑ख,


इन्हें केवल,


कुर्सी और पैसा।


 


जनसेवा के नाम पर,


ये गिद्ध,


निकालने को आतुर हैं,


भारत माता की ऑ॑ख।


नोच डालेंगे,


ये अंग-अंग।


छिड़ी है चुनावी जंग।


 


।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

आत्मविश्वास


 


मुश्किलों से कह दो


उलझा न करें हमसे


हमे भी हर हाल में


जीने का हुनर आता है


तू गढ्ढा है सड़क का


काहे को इतराता है


पर्वत तक तो यहां पर


राहें रोक नहीं पाता है


मुश्किलों से कह दो


उलझा न करें हमसे


हिम्मत को मत हारना


करता रह तदबीर


आखिर बदल ही जायेगी


इक दिन ये तक़दीर


आज,अभी और इसी क्षण


जीते हैं जो लोग


उसको भूत भविष्य का


नहीं लगेगा रोग


मुश्किलों से कह दो


उलझा न करें हमसे


मन का सोचा न हुआ


तो काहे को रोय


तेरे हाथ में कुछ नहीं


प्रभु जी चाहे सो होय


सब्र बिना ये जिंदगी


जैसे तन हो बिन प्राण


जो ज्यादा जल्दी करें


होता है बहुत नुकसान


मुश्किलों से कह दो


उलझा न करें हमसे


हमे भी हर हाल में


जीने का हुनर आता है


नूतन लाल साहू


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-11


 


जानत नहिं प्रभु पता-ठेकाना।


यहिं तें भवा नहीं इहँ आना।।


   नहिं मैं सकहुँ तुमहिं लइ जाई।


    बिनु प्रभु-आयसु नहिं करि पाई।।


माते करहु न कछु मन रोसू।


यहि मा कछुक नहीं प्रभु-दोसू।।


     अइहैं इहाँ अवसि रघुबीरा।


      तुमहिं ले जइहैं धरु हिय धीरा।


संग कपिन्ह लइ अइहैं स्वामी।


बधिहैं खलु रावन खल-कामी।।


     तुमहिं छुड़ा लइ जइहैं माई।


     रहहु मगन मन-चित मुसुकाई।।


सीता-मन संसय तब भयऊ।


बड़-बड़ भट रावन दल रहऊ।।


    होके तब बिराट हनुमंता।


    दइ भरोस सिय बल-भगवंता।।


लघु पुनि रूप पवन-सुत भवहीं।


प्रभु कै कृपा पंगु गिरि चढ़हीं।।


    सुनि कपि-बचन तुष्ट भइँ सीता।


    दइ असीष बल-बुद्धि बिनीता।।


प्रिय जन जानि राम कै कपि के।


अजर-अमर भव कह सिय डट के।।


दोहा-तुरत कहेउ तब पवन-सुत,हरषित मन-चित गातु।


       दीन्ह असीष मों सीय अब,अचल भगति कै मातु।।


                   डॉ0 हरि नाथ मिश्र।


                     9919446372


डॉ०रामबली मिश्र

*तुझे देखकर*


 


तुझे देखकर प्रेम हो गया।


अपने में ही स्वयं खो गया।।


 


ऐसा कैसे हो जाता है?


मन दीवाना बन जाता है।।


 


आँख देखती मन मुस्काता।


दिल में गहन प्रेम छा जाता।।


 


पगलाया मन प्रेम ढूढ़ता।


तुझसे मिलने की उत्सुकता।।


 


बिन देखे बेचैनी बढ़ती।


मिलने की अति इच्छा जगती।।


 


प्रेम छिपा है सदा दृष्टि में।


दृष्टि समायी प्रेम वृष्टि में।।


 


प्रेम वॄष्टि को दृश्य चाहिये।


तुझसा पावन स्पृश्य चाहिये।।


 


स्पृश्य वही जिसका दिल पावन।


सौम्य सुघर शालीन सुहावन।।


 


किससे कहाँ प्रेम हो जाये?


किसको कहाँ कौन पा जाये??


 


प्रेम जगेगा किसे देखकर?


मन भागेगा कहाँ जा किधर??


 


नहीं पता कुछ भी चलता है।


टिक जाता मन तब लगता है।।


 


किसी भीड़ में प्रेम वहाँ है।


नजर जाय गड़ जहाँ वहाँ है।।


 


यह नजरों खेल-कूद है।


महा सिंधुमय अमी बूँद है।।


 


यह अमृत की पावन सरिता।


कवि की यह अति मोहक कविता।।


 


कविता में बस तुम रहते हो।


तुम लिखते बोला करते हो।।


 


प्रेमरूपमय कवि भावों को।


देते ऊर्जा धो घावों को।।


 


दृश्य परम प्रिय मधुराकारा।


सहज सुधानन प्रेम पिटारा।।


 


इसीलिए तुम प्राण बने हो।


रामवाण परित्राण बने हो।।


 


तुझे हृदय में रखकर जपता।


तेरा माला सदा फेरता।।


 


तुम्हीं सुघर हो राह परम प्रिय।


रचना बनकर सतत बहो हिय।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा अतुल्य

सपने 


6.11.2020


 


नैनो ने सपने सजाए हैं


प्रियतम मेरे घर आए हैं


ऐ चाँद तुझे क्या मैं देखूं 


मेरा चाँद मेरे सँग मुस्काए हैं ।


 


जब सँग चले मेरे साजन 


बिच्छीये पायल झंकाएँ हैं ।


 


माथे की बिंदिया डोल रही


बेला खिल गजरा महकाए है ।


 


पलकें मेरी झुक जाती है 


जब रात-रानी खिल जाए हैं ।


 


साजन क्या कहूँ दिल की 


लब मेरे खुल थरथराएँ हैं ।


 


तू साँस साँस में बसता है 


अब धड़कन ये बताए है ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


सुनीता असीम

दूध से वो तो जले बैठे हैं।


जिल्लते दुनिया लिए बैठे हैं।


*******


कह नहीं पाए लबों से जो भी।


 वो नज़र से ही कहे बैठे हैं।


*******


ख्वाब ही लगती रहीं जो खुशियां।


उन सभी को भी जिए बैठे हैं।


*******


जाम से इक दूर रहते थे जो।


आज नजरे मय पिए बैठे हैं।


********


 बात मन की जान लेते थे जो।


अनकहे से अनसुने बैठे हैं।


*******


बस हलाहल ही पिया जिसने वो।


गोद में उसको लिए बैठे हैं।  


********


कृष्ण की माया नहीं जो जानें।


मुख खुला जैसे ठगे बैठे हैं।


********


जब सुनीता नाम उनका लेती।


वो तभी से जागते बैठे हैं।


********


सुनीता असीम 


६/११/२०२०


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*दोहे*


सभी सुहागन नारियाँ, रख कर व्रत-उपवास।


अपने पति-परिवार की,चाहें सतत विकास।।


 


शुचि मन पूजा जो करे,उसका हो कल्याण।


ऋषि-मुनि सारे संत सँग,कहते वेद-पुराण।।


 


जीवन को उत्सव समझ,कभी न समझो भार।


रहो सदा इस भाव से, होगा हर्ष अपार।।


 


कहते हैं उपवास से,रहता स्वस्थ शरीर।


प्रभु-वंदन से सुख मिले,चंचल मन हो थीर।।


 


कुल-परिवार-परंपरा,और विमल संस्कार।


 शुचि चरित्र निर्मित करें,मन में हो न विकार।।


 


स्वच्छ सोच,निर्मल चरित,और भाव उपकार।


जिसका ऐसा आचरण,उसका हो सत्कार।।


              डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                9919446372


डॉ० रामबली मिश्र

*मेरे मन की*


 


मेरे प्यारा मोहक सपना


सपने में सुंदर सा अपना


अपने में हो अपने मन की


अपने मन में हो दिव्य कामना।


 


सदा कामना साथ नित्य हो


सहज सलोनी सुघर स्तुत्य हो


स्तुति में बैठे उत्तम प्रतिमा


प्रतिमा भावुक सरल दिव्य हो।


 


दिव्य भावना देवालय हो


सत-कल्याणी शिव-आलय हो


अलाय में हो शुभ्र दीवानी


इच्छाओं का विद्यालय हो।


 


विद्यालय में प्रीति-वस्तु हो


प्रीति-वस्तु ही विषय-वस्तु हो


विषय-वस्तु में निर्मल गंगा


गंगा का संदेश अस्तु हो।


 


सपने में साकार खड़ी हो


मूर्ति स्वयं की सहज पड़ी हो


दिखे मूर्ति में मेरा आतम


दिव्य आत्म में प्रीतिगुणी हो।


 


गुण में मादक मधुर गंध हो


खुशबू से मन प्रेम-अंध हो


अंधेपन में हो पागलपन


पागलपन में सरस छंद हो।


 


महा छंद की बने श्रृंखला


फूलों जैसी कविता सबला


कविता से रस बहता जाये


हो प्रवाह में मधु-ध्वनि चपला।


 


लगे चपलता मधुर सुहानी


 बोले सदा प्रीति की वानी


वाणी से कोमल भावों की


दिखती जाये दिव्य रवानी।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*दोहे*


सभी सुहागन नारियाँ, रख कर व्रत-उपवास।


अपने पति-परिवार का,चाहें सतत विकास।।


 


शुचि मन पूजा जो करे,उसका हो कल्याण।


ऋषि-मुनि सारे संत सँग,कहते वेद-पुराण।।


 


जीवन को उत्सव समझ,कभी न समझो भार।


रहो सदा इस भाव से, होगा हर्ष अपार।।


 


कहते हैं उपवास से,रहता स्वस्थ शरीर।


प्रभु-वंदन से सुख मिले,चंचल मन हो थीर।।


 


कुल-परिवार-परंपरा,और विमल संस्कार।


 शुचि चरित्र निर्मित करें,मन में हो न विकार।।


 


स्वच्छ सोच,निर्मल चरित,और भाव उपकार।


जिसका ऐसा आचरण,उसका हो सत्कार।।


              डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                9919446372


सुषमा दीक्षित शुक्ला

ऐ! जिंदगी


 


ऐ!जिंदगी तेरे लिए हमने बहुत हैं दुःख सिंये।


ऐ!आशिकी तेरे लिए आँख ने आँसू पिये ।


 


बे मुरब्बत जिंदगी तू रूठती मुझसे रही ।


बेरहम ये जख़्म सारे दिन ब दिन तूने दिये ।


 


दिल तड़पता रात दिन रूह है जोगन बनी ।


बेबफा ये दर्द सारे झेलकर फिर भी जिये ।


 


मोहब्बत में नही है फ़र्क जीने और मरने का ।


बेखता ये सज़ा पाकर जिंदगी तुझको जिये ।


 


हजारों ख्वाहिशें हो चुकीं हैं अब तो दफ़न ।


याद में तेरी सनम जहरे समंदर पी लिए ।


 


शमा बनकर ,सुष्,पिघल ढलती रही ।


फ़क़त रात ओ दिन जले दिल के दिये ।


 


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला


आचार्य गोपाल जी

ख़ुदा ख़ुद को कहता है,


ख़ुद के वज़ूद का पता नहीं।


दवा दर्दे दिल की चाहता है,


दिल से छोड़ा कोई खता नहीं ।


खुद खोजनी पड़ती है मंजिल,


कोई भी रास्ता देता बता नहीं ।


आजाद अकेला रहकर कोई,


प्रेम सबसे सकता जता नहीं ।


 


 🌹🙏🌹सुप्रभात🌹🙏🌹


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5


जब रह रात पाँच-छः सेषा।


कालहिं बरस एक अवसेषा।।


    बन मा लइ बछरू तब गयऊ।


    किसुन भ्रात बलदाऊ संघऊ।।


सिखर गोबरधन पै सभ गाई।


हरी घास चरि रहीं अघाई।।


     लखीं चरत निज बछरुन नीचे।


     उछरत-कूदत भरत कुलीचे।।


बछरुन-नेह बिबस भइ धाईं।


रोके रुक न कुमारग आईं।।


    चाटि-चाटि निज बछरुन-देहा।


    लगीं पियावन दूध सनेहा।।


नहिं जब रोकि सके सभ गाईं।


गोप कुपित भइ मनहिं लगाईं।।


    पर जब निज-निज बालक देखा।


    बढ़ा हृदय अनुराग बिसेखा।।


तजि के कोप लगाए उरहीं।


निज-निज लइकन तुरतै सबहीं।।


    पुनि सभ गए छाँड़ि निज धामा।


     भरि-भरि नैन अश्रु अभिरामा।।


भयो भ्रमित भ्राता बलदाऊ।


अस कस भयो कि जान न पाऊ।।


     कारन कवन कि सभ भे वैसै।


     मम अरु कृष्न प्रेम रह जैसै।।


जनु ई अहहि देव कै माया।


अथवा असुर-मनुज-भरमाया।।


    अस बिचार बलदाऊ कीन्हा।


    पर पुनि दिब्य दृष्टि प्रभु चीन्हा।।


माया ई सभ केहु कै नाहीं।


सभ महँ केवल कृष्न लखाहीं।।


दोहा-बता मोंहि अब तुम्ह किसुन, अस काहें तुम्ह कीन्ह।


        तब बलरामहिं किसुन सभ,ब्रह्म-भेद कहि दीन्ह।।


                         डॉ0 हरि नाथ मिश्र।


                         9919446372


 


 


*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-10


 


सेवक राम जानि तब सीता।


दृगन अश्रु भरि कहीं अभीता।।


     तुम्ह हनुमत जलयान समाना।


     डूबत बिरह-सिंधु मम प्राना।।


कस बताउ लछिमन लघु भ्राता।


कुसल-छेमु रामहिं कहु ताता।।


     प्रभु त होंहिं सेवक सुखदाई।


    पर मोंहि काहें अस बिसराई।।


कहहु,कबहुँ सुधि मोरी करहीं।


हृदय मोर कब सीतल भवहीं।।


    रुधित कंठ आँसू भरि लोचन।


    लगहिं न सिय जनु कष्ट-बिमोचन।।


बिरहाकुल लखि सिय हनुमाना।


होइ बिनम्र मृदु बचन बखाना।।


     कहा,नाथ लछिमन दोउ भाई।


     सकुसल-दुखी जानु तुम्ह माई।।


तुम्हतें दुगुन प्रेम प्रभु करही।


अस प्रभु कस तुमहीं बिसरहहीं।।


     नाथ-सनेस सुनहु धरि धीरा।


      तुम्ह बिनु प्रभु-चित परम अधीरा।


कछु अब प्रभुहिं लगै नहिं नीका।


जे कछु चटक लगै सभ फीका।।


     नव-दल कोपल अनल समाना।


     रबि-ससि-किरन बिधहिं जस बाना।


जलद-नीर जनु खौलत तेला।


त्रिबिध पवन अपि खेलै खेला।।


      तव मम प्रेम प्रिये को समुझै।


      केतें कहहुँ बिरह जे बूझै।।


सुनि सनेस प्रभु सीता माता।


भें हरषित हिय,पुलकित गाता।।


    कह हनुमंत सुनहु हे माई।


    नाथ हमार परम सुखदाई।।


सोरठा-सुनहु जानकी मातु,निसिचर सबहिं पतंग सम।


          भले करहिं सभ घातु,जरहिं तुरत प्रभु-सर-अनल।।


                          डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


राजेंद्र रायपुरी

😄😄* एक षष्टपदी *😄😄


मापनी- २१२२-२१२२-२१२२-२१२२


 


साठ पर है एक शिक्षक क्या मैं जाऊॅ॑ पाठशाला।


बात झूठी है नहीं यह कह रहा जो आज लाला। 


भेड़-बकरी से भरे हैं एक कमरे बाल सारे।


क्या पढ़ेंगे इस तरह हम सोचते बच्चे हमारे।


हाल ये ही हर जगह है हो भला कैसे पढ़ाई।


साल सत्तर में चले हम कोस देखो बस अढ़ाई।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

सुख की राह


 


लोगों ने समझाया


वक्त बदलता है


और वक्त ने समझाया


लोग भी बदलते हैं


बीते और भविष्य पर


मत दीजिए ध्यान


वर्तमान में ही लाइये


अपने होठो पर मुस्कान


यही है सुख की राह


कल क्या होगा यह राज


कौन सका है जान


वर्तमान का ही कीजिए


छककर अमृत पान


अंधे तक को ईश्वर


दिखलाता है राह


उसकी कृपा हुई तो


आह भी हो गई वाह


यही है सुख की राह


जिस दिन से आपके व्यवहार में


मिला साथ का ज्ञान


तब तुमको दिख जायेगा


पत्थर में भगवान


झेल लिया जिस शख्स ने


पीड़ा का संघर्ष


एक दिन उसके सामने


नमन करेगा हर्ष


यही है सुख की राह


बिना कर्म के भाग्य की


रेखा बदल न पाय


इसका प्रभु के पास भी


कोई नहीं उपाय


सांसे हमारी सीमित


मृत्यु खड़ी है द्वार


वह पैसा तो व्यर्थ है


जिसे न खर्च किया, न दिया दान


यही है सुख की राह


नूतन लाल साहू


एस के कपूर "श्री हंस"

*रचना शीर्षक।।*


*सफल जीवन का तंत्र।।आपका*


*संकल्प मंत्र।।*


 


मिट्टी का पुर्जा चलते चलते


यह रुक जायेगा।


मत नाज़ कर इस तन पर इक


दिन झुक जायेगा।।


व्यक्ति चला जाता और बस


बात रह जाती है।


बस कर्म अच्छे कर कि एक


दिन चुक जायेगा।।


 


व्यक्तित्वऊँचा बनायो कि सुनने


को सब तैयार रहें।


आकर्षण हो ऐसा शख्सियत में


कि सब वफादार रहें।।


जब बढ़ो आगे तो कारवाँ पीछे


चल निकले।


मानने को बात तुम्हारी तैयार


सारा संसार रहे।।


 


दुआयें सबकी लेते रहो दुआयें


सबको देते रहो।


अपने परायों का भी आशीर्वाद


तुम लेते रहो।।


ना जाने कब जिन्दगी की वह


आखिरी शाम आ जाये।


सब हैं हमारे अपने बस यही इक


बात कहते रहो।।


 


पराजय तब होती जब आप हार


को मान लेते हैं।


जय तो निश्चित जब बात कोई 


आप ठान लेते हैं।।


गिर जायो पर फिर खड़े होने में  


ही छिपी है जीत ।


दुष्कर भी सम्भव जब चुनौती का


फरमान खुद को देते हैं।।


 


*रचयिता।।। एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।।*


मोब।।।। 9897071046


                       8218685464


 


*विषय/विधा।।मुक्तक।।*


*शीर्षक,,,नारी, शक्ति ,भक्ति, ममता का प्रतीक*


*,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,*


*रचयिता,,,एस के कपूर "श्री हंस"*


*पता,,,,,, 06 , पुष्कर एनक्लेव*,


*टेलीफोन टावर के सामने*,


*स्टेडियम रोड, बरेली 243005*


*मोब ,,,,,,9897071046*


*,,,,,,,,8218685464*


*विधा,,,,,,,,,मुक्तक माला*


 


*1,,,,,,,,,*


माँ का आशीर्वाद जैसे कोई


खजाना होता है।


मंजिल की जीत का जैसे


पैमाना होता है।।


माँ की गोद मानो कोई


वरदान है जैसे।


चरणों में उसके प्रभु का


ठिकाना होता है।।


*2,,,,,,,,,,,,,,,*


अहसासों का अहसास मानो


बहुत खास है माँ।


दूर होकर भी लगता कि बस


आस पास है माँ।।


बहुत खुश नसीब होते हैं जो


पाते माँ का आशीर्वाद।


हारते को भी जीता दे वह


अटूट विश्वास है माँ।।


*।।।।।3।।।*


अच्छा व्यवहार बेटीयों से


निशानी अच्छे इंसान की।


इनसे घर की बढ़ती शोभा जैसे


उतरी परियाँ आसमान की।।


बेटी को भी दें आप बेटे जैसा


घर में प्यार और सम्मान।


जान लीजिए बेटियों के जरिये


ही आती रहमते भगवान की।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*


मोब।।।।9897071046।।।।।।।


8218685464।।।।।।।।।।।।।।


*,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,*


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