सुनीता असीम

किसी का घर बसाना चाहिए था।


मुहब्बत से सजाना चाहिए था।


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खफ़ा होकर नहीं रिश्तों को तोड़ो।


कि जैसे हो निभाना चाहिए था।


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दिलों को जीतना ही इक कला है।


उसे कैसे लुभाना चाहिए था।


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बहुत ही रूठते थे तुम सदा ही।


मनाने का बहाना चाहिए था।


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 जरूरत के समय तुम सोचते ये।


 तुम्हें ही पहले आना चाहिए था।


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बिना ही बात हो गुस्सा दिखाते।


समझ तुमको ये आना चाहिए था।


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बढ़ाकर प्रेम की पींगें सुनीता।


नहीं ऐसे सताना चाहिए था।


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सुनीता असीम


डॉ० रामबली मिश्र

हाय मेरे प्राण प्रिय


 


हृदय में रहना सदा हे प्राण प्रिय।


आज तुझे बुला रहा है यह हृदय।।


 


हृदय में आकर रहो हे अतुल निधि।


प्राण की रक्षा करो हे प्राण प्रिय।।


 


जल्द आओ देर अस्वीकार अब।


पिघल जाओ शीघ्र अति आ जा हृदय।।


 


मुस्कराते गीत गाते निकल पड़।


वास कर मेरे हृदय में प्राण प्रिय।।


 


निकल पड़ जंजीर को तुम तोड़कर।


मोहमाया छोड़कर आओ हृदय।।


 


दुश्मनों की मत करो चिंता कभी।


है बुलाता प्रेम से मेरा हृदय।।


 


हृदय कोमल भाव मीठा मधुर ध्वनि।


मत कभी इंकारना हे प्राण प्रिय।।


 


प्रेम विह्वल स्नेह आकुल प्रीतिकर ।


यह हृदय आवाज देता आ हृदय।।


 


हाय मेरे प्राण प्रिय आराध्य तुम।


विलखते को शान्ति दे हे प्राण प्रिय।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ० रामबली मिश्र

बिके अगर तो.....


 


बिके अगर तो दास बनोगे।


क्रयकर्त्ता के पास रहोगे।।


 


क्रयकर्त्ता ही तेरा मालिक।


बिक कर मत बनना नाबालिक।।


 


बेच रहे क्यों तन-मन अपना।


मंत्र गुलामी का क्या जपना?


 


घुसखोर है मूर्ख अभागा।


पड़त टूट मांस पर कागा।।


 


गलत ढंग से अर्थ कमाना।


मतलब गड्ढे में गिर जाना।।


 


अर्थ हेतु मत हाथ बढ़ाओ।


नैतिकता का पाठ पढ़ाओ।।


 


बेचो मत अपने आतम को।


नहीं बुलाओ प्रेत-आतम को।।


 


गलती मत कर बेच स्वयं को।


पराधीन मत करो स्वयं को।।


 


श्रम का धन सबसे उत्तम है।


सदा परिश्रम सर्वोत्तम है।।


 


मर्यादा का पालन करना।


सम्मानित स्थिति में रहना।।


 


सीना ताने चलते रहना।


नहीं किसी के ताने सुनना।।


 


क्रय-विक्रय से नाता तोड़ो।


दिव्य शान से रिश्ता जोड़ो।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


आचार्य गोपाल जी

प्रभात प्रथम रश्मि, अब लगी छिटकने । 


तरु टहनी पर बैठ विहंग, लगी चहकने ।


खिलने लगी उपवन में कलियां, सारा जग है लगा महकने ।


देख छटा अनुपम प्रकृति की ,तन मन मेरा लगा बहकने ।


 


✍️आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला बरबीघा वाले


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-8


 


लीला-भूमि अहै ई कृष्ना।


क्रोध रहै न रहै इहँ तृष्ना।।


    अति पबित्र बृंदाबन-धामा।


    भव-भय मिटै भजत यहि नामा।।


सभ जन प्रेमी-मीत समाना।


मिलि-जुलि रहैं छाँड़ि अभिमाना।।


   बृंदाबन-दरसन करि ब्रह्मा।


   किसुन जानि परब्रह्म सुधर्मा।।


लखे किसुन घूमहिं चहुँ-ओरा।


जे अनंत लइ गोपन्ह छोरा।।


    दधि अरु भात कौर लइ हाथे।


    खोजहिं बछरू गोपन्ह साथे।।


ग्यान किसुन कै परम अगाधा।


इत-उत भटकहिं तदपि अबाधा।।


    गोप-सखा सँग लीला करहीं।


महिमा नाथ न जाय बरनहीं।।


    ब्रह्मा तजि निज बाहन हंसा।


    महि पे कूदि परे तहँ सहसा।।


चारिउ मुकुट नवाय प्रनामा।


करन लगे पद-पंकज-स्यामा।


      नैनन अश्रु बहन तब लागा।


      ब्रह्मा-मन महँ बहु अनुरागा।।


करि-करि सुधि प्रभु-महिमा पुनि-पुनि।


गिरहिं-उठहिं सिर पीटहिं धुनि-धुनि।।


    पुनि ब्रह्मा गिरि प्रभु के चरना।


     रह बड़ देर न जाये बरना।।


दोहा-धीरे-धीरे पुनः उठि, पोंछे नैनन नीर।


      कीन्ह सीष अवनत तुरत,लखतहिं प्रभू अधीर।।


     ब्रह्मा कर जोरे उभय,कंपित तन-अरु गात।


     अति बिनम्र एकाग्र भइ, गदगद कह निज बात।।


                    डॉ0 हरि नाथ मिश्र।


                     9919446372


 


पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-14


 


यहि जग मोर प्रभू कै आवन।


भवहिं सुनहु सठ तुमहिं सिखावन।।


     तुम्ह सम सहस भूप नहिं तोरा।


      तोरे सो प्रभु धनुष कठोरा।।


त्रिसिरा अरु खर-दूषन मारे।


मायामृग मारिचिहिं तारे।।


     तुम्हरो करतब मैं भल जानूँ।


     लरे सहस्र बाहु सँग मानूँ।।


मोर प्रभू बाली-बध कीन्हा।


मारि क ताहि परम गति दीन्हा।।


     कपि-सुभाव खाऊँ फल मीठा।


      भूखि परे सुनु मैं नहिं डीठा।।


तरु उखारि मारउँ जे मारा।


यहि मा कछु नहिं दोषु हमारा।।


    मैं मारा बस तिनहिं पछारी।


    की जे मोरे सँग तकरारी।।।


लाजु न मोहिं कि बाँधे मोहीं।


प्रभु कै काजु लाजु कस होहीं।।


    सुनहु कहहुँ मैं निज कर जोरे।


    सुमिरउ राम-नाम प्रभु तोरे।।


तव पुरुखन-प्रताप जग जानै।


अति पबित्र कुल तव सभ मानै।।


    तजि मन-भरम-दंभ-अभिमाना।


    रामहिं-राम भजहु धरि ध्याना।।


सोरठा-राम खरहिं अति नेह,भूलि तासु अवगुन सकल।


           नहिं कोऊ सँग भेह, जे प्रभु कै सुमिरन करै।।


                           डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


राजेंद्र रायपुरी

 चुनावी चकल्लस


 


धड़कन सबकी बढ़ गई,


               मतगणना है आज।


होंगे ऑ॑सू नैन किस,


           किसके सिर पर ताज।


 


चैनल पर जो दिख रहे, 


               भैया एक्जिट पोल।


लगे सुशासन का हुआ,


              अबकी डिब्बा गोल।


 


आना है हमने सुना, 


              फिर से जंगल राज।


चरवाहे की नौकरी, 


                 देंगें अब युवराज।


 


जनता को तो चाहिए,


                  केवल लालीपाप।


सपने दिखा-दिखा उसे, 


                वोट लीजिए आप।


 


          ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

प्रसन्नता


 


प्रसन्नता वह औषधि है


जो हर मर्ज को ठीक कर सकती हैं


सबसे अधिक खास बात यह है कि


वो मिलती भी अपने अंदर है


इस जीवन के सस्पेंस को


कोई समझ नहीं पा रहा है


पता नही कब किस समय 


क्या घटना हो जायेगा


मन का सोचा अगर ना हुआ


तो काहे को रोता है


मनुष्य के हाथ में कुछ भी नहीं है


प्रभु जी जो चाहता है वहीं होता है


प्रसन्नता वह औषधि है


जो हर मर्ज को ठीक कर सकती हैं


आत्म हत्या कर रहे हैं निश दिन


किसी भी उम्र में मानव


फिर किस मुंह से हम कह रहे हैं


सब प्राणियों में श्रेष्ठ है मानव


खो गया कुछ तेरा धन तो


तू हो गया बहुत उदास


जब आया संसार में


क्या था तेरे पास


जब खुद कुदरत गिर पड़ी


बन कर हम पर गाज


तब प्रसन्नता है औषधि


बस तू हिम्मत न हार


प्रसन्नता वह औषधि है


जो हर मर्ज को ठीक कर सकती हैं


सबसे अधिक खास बात यह है कि


वो मिलती भी अपने ही अंदर है


नूतन लाल साहू


डॉ०रामबली मिश्र

हवा और आदमी


 


आदमी यदि हवा हो गया तो गया।


आदमी की हवा उड़ गयी तो गया ।।


 


आदमी अरु पवन में बहुत फर्क है।


एक पृथ्वी बना इक गगन हो गया।।


 


एक दुनिया में रहकर बिताता समय।


एक आकाश में उड़ मगन हो गया।।


 


घिर गया आदमी वंधनों में बहुत।


किन्तु पावन पवन है सजन हो गया।।


 


चल रहा है पवन छूता सबको यहाँ।


आदमी छू दिया तो गजब हो गया।।


 


स्पर्श करती हवा अंग-प्रत्यंग को।


आदमी सट गया तो बुरा हो गया।।


 


मत करो आदमी का पवन से तुलन ।


आदमी मर गया तो पवन हो गया।।


 


 देख अंदर हवा और बाहर हवा।


बीच का आदमी भी हवा हो गया।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--


 


मीरो-ग़ालिब की तरह नाम हमारा होता


शेरगोई को अगर और निखारा होता


 


तीरगी देख के इक दीप तो बारा होता


नाम दुनिया की निगाहों में तुम्हारा होता


 


देख हर रुख को सफ़ीना जो उतारा होता


नाख़ुदा फिर न तुझे हमने पुकारा होता


 


वक़्त की नब्ज़ को पहचान सफ़र गर करते


दूर हमसे नहीं तूफाँ में किनारा होता


 


फ़िक्र हमको जो नहीं होती तुम्हारी हमदम 


फिर न इल्ज़ाम कोई हमको गवारा होता 


 


हम ज़माने में उजालों को लिए फिरते रहे


*हमने ख़ुद को भी सलीक़े से संवारा होता*


 


वक़्त के सामने मजबूर नज़र आते हम


हमको बच्चों ने दिया जो न सहारा होता


 


इस ज़माने में भले लोग बहुत हैं अब भी 


वर्ना दुनिया का हसीं कैसे नज़ारा होता 


 


शुक्रिया लौट के *साग़र* जो चले आये तुम


बिन तुम्हारे कहाँ फिर अपना गुज़ारा होता


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


डॉ. राम कुमार झा निकुंज

दिनांकः ०८.११.२०२०


छंदः मात्रिक


दिवसः दोहा


विषयः महल 


शीर्षकः महल शान्ति का हो चमन


 


तरुणाई आशा महल , आज विश्व आधार।


नव ऊर्जा निर्माण का , नव विकास उपहार।।१।।


 


नया जोश कर्तव्य रत , स्वप्न महल अरमान।


युवाशक्ति निर्मातृ जग , राष्ट्र शक्ति सम्मान।।२।। 


 


सकल सुखद धन सम्पदा , महल सदा पर्याय।


अधिकारी ऐय्याश का , दलित दीन अन्याय।।३।।


 


भारत हो ऐसा महल , सब हों एक समान।


जाति धर्म सब भूल कर, खिले सुखद मुस्कान।।४।।


 


धन वैभव खुशियाँ सुखद,कुसुमित मुख मुस्कान।


दीन धनी निर्भेद हो , पूर्ण महल अरमान।।५।।


 


क्या महत्त्व अट्टालिका , राजमहल प्रासाद।


भूख प्यास छत बिन वसन ,जीवन बस अवसाद।।६।।


 


सतरंगी अरुणिम प्रभा , खिले महल परिवेश।


प्रीति रीति सद्भाव रस , मानवीय संदेश।।७।।


 


महल शान्ति का हो चमन , भातृभाव सहयोग।


सदाचार पथ हो सकल , क्षमा दया संयोग।।८।।


 


मति विवेक मन मंत्र हो , कर्म शक्ति हो यंत्र।


हवनकुण्ड दुर्भाव जल , महल शुद्ध गणतंत्र।९।।


 


कवि निकुंज अभिलाष मन ,भारत हो अभिराम।


चारु प्रकृति सुरभित महल,शौर्य सुयश सुखधाम।।१०।।


 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7


नहिं कोउ सत्ता प्रभू समाना।


महिमा प्रभुहिं न जाइ बखाना।।


    परे त्रिकालहिं नाथ प्रभावा।


    भूत-भविष्य न आज सतावा।।


लगहिं प्रकासित स्वयं प्रकासा।


जीव न अवनिहिं,जीव अकासा।।


     नहिं जड़ता,नहिं चेतन भावा।


     एकरसहिं रह तिनहिं सुभावा।।


सकल उपनिषद तत्वहिं ग्याना।


तिनहिं अनंत सार नहिं जाना।।


   सबके सब पर ब्रह्महिं रूपा।


   परम आत्मा कृष्न अनूपा।


रहै चराचर जासु प्रकासा।


सतत प्रकासित अवनि-अकासा।।


    अस लखि ब्रह्मा भए अचंभित।


    परम छुब्ध-स्तब्ध-ससंकित।।


जस कठपुतरी रह निस्प्राना।


ब्रह्मा भे समच्छ भगवाना।।


    तासु प्रभाव-तेज सभ बुझिगे।


    किसुनहिं लीला तुरत समुझिगे।।


सुनहु परिच्छित प्रभु भगवाना।


परे सकल तर्क जग माना।।


    स्वयं प्रकासानंदइ रूपा।।


    मायातीतइ नाथ अनूपा।।


कृष्न हटाए जब सभ माया।


बाह्य ग्यान तब ब्रह्मा आया।।


    मानउ ब्रह्मा जीवन पाए।


    भे सचेत सभ परा लखाए।।


निज सरीर अरु जगतहि देखा।


बृंदाबन सभ दिसा निरेखा।।


दोहा-बृंदाबन कै भूइँ पै, रहै प्रकृति कै बास।


        पात-पुष्प-फल-तरु बिबिध,बिबिधइ जीव-निवास।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


 


*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-13


पुनि उठि किया बहुत सी माया।


केहु बिधि कपि कहँ जीत न पाया।।


     अंत ब्रह्म-सर साधा कपि पै।


    रखि के लाजु ब्रह्म-सर तेहिं पै।।


तुरत पवन-सुत मुर्छित भयऊ।


इंद्रजीत कपि बाँधेसु तहँऊ।।


    नाग-पास कपि बँधा जानि के।


    ब्रह्मा-गरिमा-मान मानि के।।


जेहि प्रभु भजत मिलै सुख-रंजन।


तिसु प्रभु-काजु करेसि कपि-बंधन।।


     नागहिं पास बाँधि हनुमाना।


      मेघनाद तब किया पयाना।


बहु निसिचर तब भागे-भागे।


सभा-मध्य कपि देखन लागे।।


     तब देखा कपि रावन-महिमा।


     अतुल-अकथ दसमुख कै गरिमा।।


देखा देवन्ह सभ दिग्पाला।


नाना बीर-भट्ट-महिपाला।।


     ठाढ़ि रहे निज-निज कर जोरे।


     अवनत सीष लाजु मुहँ बोरे।।


बैठि रहे तहँ हनुमत बीरा।


निडर-असंक धरे हिय धीरा।।


    सिंह निसंक सियार मँझारा।


    रह तहँ कपि लंकेस-दुवारा।।


बहु-बहु भाँति निरादर कीन्हा।


कपिहिं हास कर बदला लीन्हा।।


     पुनि सुधि निज सुत-बध कै कइके।


     कह सठ तुम्ह जानेउ नहिं हमके।।


होहु कवन तुम्ह मोंहि बतावउ।


केहिं बल पे बन मोर उजारेउ।।


     केहि अपराध बधेउ सभ निसिचर।


     अच्छहिं बधेउ कहहु केहिं बल पर।।


सुनु नरेस,बल नाथ हमारो।


अमित-अभेद-बिदित जग सारो।।


     पाइ जासु बल माया रचही।


     अखिल बिस्व जहँ हम-तुम्ह रहही।।


जाके बल सुनु सकल त्रिदेवहिं।


सभें रखहिं,प्रान हरि लेवहिं।।


दोहा-सुनु मूरख तुम्ह लंकपति,सुरन्ह काजु प्रभु मोर।


       आवहिं यहि जग बिबिध तन,दलन दुष्ट घनघोर।।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ0 निर्मला शर्मा

सुप्रभात


नव प्रभात आयो हुई भोर


चली यामिनी आँचल छोड़


नीलगगन में हुई है हलचल


तारे चले गगन को छोड़


शीतल चाँद की शीतलता से


सिहर उठी प्यारी सी भोर


नूतन गीत गूँजते नभ में


चले भास्कर आसन छोड़


सप्त अश्व दौड़े जब रथ में


छोड़ें स्वर्णधूलि सब ओर


प्रथम किरण पड़े वसुधा पर 


फैले उजियारा सब ओर


चाँदी की उजली जाली सी


फैली है चादर चहुँ ओर


कलरव कुंजन आरती वन्दन


स्वर लहरियाँ बिखरी हर ओर


प्रातः वन्दन करूँ नाथ मैं


स्वीकारो नमन प्रभु मोर।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


राजेंद्र रायपुरी

 एक गीत 


 


रातरानी मैं सजन,


               मकरंद तुम भरपूर हो।


है मिलन की यामिनी ये,


             क्यों कहो तुम दूर हो।


 


बात कोई और है, 


              या तुम नशे में चूर हो।


है मिलन की यामिनी ये,


              क्यों कहो तुम दूर हो।


 


राह तकती मैं खड़ी हूॅ॑,


           तुम सजन आए नहीं।


भूल मुझसे कुछ हुई,


          या व्यस्त साजन हो कहीं।


 


आ भी जाओ मत सताओ,


          चाॅ॑द मैं तुम नूर हो।


है मिलन की यामिनी ये,


          क्यों कहो तुम दूर हो।


 


मन है व्याकुल हो कहाॅ॑ तुम, 


        कुछ समझ आता नहीं।


कर लिया श्रृंगार लेकिन,


          कुछ मुझे भाता नहीं।


 


भाए कैसे तुम ही मेरी,


          माॅ॑ग का सिंदूर हो। 


है मिलन की यामिनी ये,


        क्यों कहो तुम दूर हो।


 


सेज सूनी अब तलक है,


           साजना ये बिन तुम्हारे।


फूल भी कुम्हला गए सब,


           साजना सच बिन तुम्हारे।


 


सेज ये बगिया सजन तुम,


            रौनकें भरपूर हो।


है मिलन की यामिनी ये, 


           क्यों कहो तुम दूर हो।


 


रातरानी मैं सजन,


            मकरंद तुम भरपूर हो।


है मिलन की यामिनी ये,


            क्यों कहो तुम दूर हो।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

शिक्षा प्रद बातें


 


जो इंसान अपनी गलतियों के लिए


खुद से लड़ता है


उसे दुनिया में कोई भी नहीं हरा सकता


मां शारदा जिसे देती हैं


ज्ञान रूपी कृपा प्रसाद


तो उसे छु भी नहीं पाता है


सांसारिक और शारीरिक अवसाद


जो होना था वह हो चुका


बीते घटना और दुखों से मिलता है ज्ञान


हरि इच्छा में छिपा हुआ है


मानव जाति का कल्याण


ज्योतिष को भी मालूम नहीं होता है


जब खुद की तकदीर


वह किस तरह बदल पायेगा


तेरा भाग्य लकीर


जो अपनी गलतियों के लिए


खुद से लड़ता है


उसे दुनिया में कोई भी नहीं हरा सकता


जो इंसान दुसरो के बारे में हमेशा


बुरा सोचता है


उसका भला कभी नहीं हो सकता


भले ही वह शुरू में हंसता है


मगर बाद में वह जरूर रोता है


जो इंसान परम पिता परमेश्वर पर


रखता है पूरी आस्था


उसके लिए हर क्षण होता है


दुःख सुख एक समान


बिन पेंदी के लोटा जैसा मत लुढ़क


स्थिर रह इंसान


हरि इच्छा ही बलवान है


इसे कटु सत्य जान


जो अपनी गलतियों के लिए


खुद से लड़ता है


उसे दुनिया में कोई भी नहीं हरा सकता


नूतन लाल साहू


एस के कपूर श्री हंस

*रचना शीर्षक।।*


*तब जाकर एक आदमी अच्छा*


*इंसान बनता है।।*


 


दिल में अरमान और मन में 


जो भावनायें जनता है।


पराये दर्द से भी मन उसका


उतना ही खनकता है।।


जब परस्पर सहयोग की 


ही नियत होती है दिल से।


तब जाकर कोई एक आदमी


 अच्छा इन्सान बनता है।।


 


जब वह सृष्टि का आदि और


अंत समझ जान लेता है।


जब अनंत प्रेम की परिभाषा


को भी पहचान लेता है।।


जब परम पुनीत प्रीत अथाह       


सागर में जाता है वो खो।


तब ही प्रभु उसको अपना


भक्त इंसान मान लेता है।।


 


जब किसी के हाथ से किसी 


का कायाकल्प कमाल होता है।


जब किसी की परेशानी में भी


खुद को दुःख मलाल होता है।।


जब आदमी की आँखें किसी


और के दर्द में होती हैं नम।


वही बनता इंसान मन में जिसके


ऐसा प्रेम और दुलार होता है।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।।*


मोब।।। 9897071046


                      8218685464


 


*रचना शीर्षक।।*


*तेरी सोच ही तेरी जीत का*


*औजार है।।*


 


कामयाबी का जनून तो फिर


मुश्किलों की क्या औकात है।


मंजिल होती दूर नहीं बस


हौंसलों की ही बात है।।


"काफी अकेला" नहीं सोच


हो "अकेला ही काफी" हूँ।


सकारात्मक दृष्टिकोण ही


एक अनमोल सौगात है।।


 


जमीं से आसमां तक तुम्हारा


चमकता नाम हो।


कुछ इस तरह से तुम्हारा


नायाब काम हो।।


समाज देश राष्ट्र के नाम


में लगाओ चार चांद।


तुमसे रोशन अपने शहर


की इक पहचान हो।।


 


बस कभी हार मत मानना


सामने हार भी जान कर।


जीत भी चल कर आयेगी


तुम्हें विजेता मान कर।।


मन के हारे हार और मन


के जीते होती जीत है।


बस मत खोना उम्मीद को


विश्वास को प्रणाम कर।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर " श्री हंस*"


*बरेली।।*


मोब।। 9897071046


                      8218685464


डॉ०रामबली मिश्र

बनकर तेरा


 


बनकर तेरा सदा रहेंगे,


          अपनी बाहों में रहने दो।


 


तुझको ही केवल देखेंगे,


          अपने अंकों में बहने दो।


 


साथ निभाने का वादा है,


          बनकर मीत साथ रहने दो।


तेरे मुखड़े की मुस्कानों,


          के जादू को नित लखने दो।


 


प्यार भरी तेरी नजरों से,


          नजर मिलाकर अब चलने दो।


 


पलकों की छाया के नीचे,


          कुछ विश्राम सहज करने दो।


 


 थके हुये मन को आश्रय दे,


          थोड़ा सा शीतल होने दो।


 


हृदय दग्ध है विषमय जग से,


          कुछ तो रस इसमें भरने दो।


 


भ्रमित बुद्धि में समझ नहीं है,


          इसको समझदार बनने दो।


 


हे प्रिय!मत ठुकरा निरीह को,


          गले लगा इसको जीने दो।


 


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


 


*आत्मोत्थान*


 


स्व से पर की ओर बढ़, कर अपना उत्थान।


खुद के आत्म स्वरूप को,जान और पहचान।।


 


देह भाव से हो विरत, आत्म भाव को खोज।


देही रहता देह में, जैसे जलज-सरोज।।


 


बनो कमल के फूल सा, स्पृहा भाव से मुक्त।


कर लो अपनी बुद्धि को, आतम से संयुक्त।।


 


नीर-क्षीर के भेद को, पढ़ते रहना नित्य।


इसी भेद को जान कर,बन जाओगे स्तुत्य।।


 


इसी हंस की वृत्ति से, रहो ज्ञान के पास।


इसी ज्ञान से ध्यान कर, बन आत्मा का खास।।


 


आत्म ज्ञान सर्वोच्च से, कर अपना उद्धार।


मन को सर्व समेट कर, पहुँच आत्म के द्वार।।


 


द्वार खड़े देखा करो, आत्मा रूप प्रकाश।


इस प्रकाश से ही करो,अपना दिव्य विकास।।


 


दैवी ऊर्जा स्रोत से, आत्म देश भरपूर।


आत्म निवासी बन सदा, रहो देह से दूर।।


 


सदा देह से दूर हो, बन जा जनक विदेह।


सहज बनाओ आत्म को, अपना मोहक गेह।।


 


आत्म निवासी बन थिरक,झूम-झूम कर नाच।


सतत झूठ से पृथक हो, तपो साँच की आँच।।


 


सच्चा मानव ही सदा, करता सबसे स्नेह।


दिखलाता है विश्व को,अपना अनुपम गेह।।


 


पा कर उत्तम ज्ञान को, मोहित सब संसार।


सब प्रकाश में डूब कर, करते आत्मोद्धार।।


 


आत्मोन्नयन बिना नहीं , होना है कल्याण।


आत्मा के संज्ञान से, कर अपना निर्माण।।


 


मनसा वाचा कर्मणा, रहो आत्म में लीन।


आत्मोत्थान करो सतत,रहकर आत्माधीन ।।


 


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


निशा अतुल्य

जगदीश्वर 


9.11.2020


 


 


अर्धनारीश्वर हे योगेश्वर 


करूँ प्रणाम बारम्बार


दे दो हमको ज्ञान की ज्योति


हरो सकल अंधकार ।


 


प्रेम रोग लगाया पहले 


दिया कर्म योग का ज्ञान


विरह अगन होती है क्या 


हुआ सहज ही भान ।


 


राधा राधा जो भी पुकारे


तुम दौड़ आते हो


बिगड़े काम प्रभु मेरे 


तुम ही बनाते हो ।


 


पूजन अर्चन कुछ न जानू


साँसों में तुम हो


कान्हा कान्हा रटती रहती


भव तारण तुम हो ।


 


स्वरचित


निशा अतुल्य


डॉ० रामबली मिश्र

प्रेम एक संकल्प हो


 


लो संकल्प प्रेम करने का।


प्रेम पंथ पर नित चलने का।।


 


प्रेम बने जीवन की नैया।


यह साधन आगे बढ़ने का।।


 


जीवन का आदर्श बने यह।


मन में रख इस पर चलने का।।


 


सबके प्रति आकर्षित होना।


आकर्षण पैदा करने का।।


 


दिल को अपने अमित बनाओ।


सोच अनंत गगन बनने का।।


 


सकल चराचर की बस्ती उर।


बनो व्रती प्रेमी बनने का।।


 


तामस मन का परित्याग कर।


सोचो पावन मन बनने का।।


 


अपने को ही सदा निखारो।


सोचो शिव प्रियतम बनने का।।


 


देख किसी को खुश हो जाना।


मन चाहे दिल में रखने का।।


 


भोग-इंद्रियों का नियमन हो।


बन प्रतिज्ञ प्रेम करने का।।


 


नरक कुंड के द्वार बंद हों।


सोचो खुद स्वर्गिक बनने का।।


 


प्रेम यज्ञ में मन की आहुति।


कामेच्छाओं को जलने का।।


 


जीवन प्रेम एक हो जाये।


सीखो मंत्र प्रेम करने का।।


 


दृश्यमान हो सिर्फ प्रेम ही।


कर अभ्यास मंत्र जपने का।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुनीता असीम

मैं जिसे तलाश कर रहा हूँ।


उसकी याद में संवर रहा हूँ।


*********


राह ख़ार से भरी हुई हैं।


जिनसे आज मैं गुज़र रहा हूँ।


*********


 जो मिली हैं रोक रास्ते में।


उनको पार कर निखर रहा हूँ।


*********


हिज़्र का खयाल ही है काफी।


बस जुदाई से ही डर रहा हूँ।


**********


कर्म मैंने तो नहीं किए जो।


आज कर्ज उनका भर रहा हूँ।


**********


सुनीता असीम


आचार्य गोपाल जी

ज्योति


 


ज्योति चाहे ज्योति से मिलने, बिन ज्योति जग सुन ।


ज्योति से ही सारा संसार है, रे मन तुम भी ज्योति ढूंढ ।


 


 हे परम प्रभु तेरी ज्योति से, ये सारा जग जगमग है ।


चहू ओर पसरी प्रकाश तुम्हीं से, तुम से ही जग चकमक है ।


 


 हे ईश्वर! तुम्हें इस जग में, प्रज्वलित प्रकाश करना होगा ।


अज्ञान तिमिर को दूर भगा कर, नूतन प्रभा बिखेरना होगा ।


 


✍️ आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला बरबीघा वाले


रमेश कटारिया पारस 

डॉ.


पिता का नाम -श्री जेठानन्द कटारिया 


जन्म -6जून 1951मुजफ्फर नगर 


कर्मस्थली -भिण्ड एवं ग्वालियर 


लेखन विधा -गीत ग़ज़ल , दोहा , हाइकु , क्षणिका , कुंडलिया , कहानी लघुकथा , व्यंग , आदि सभी विषयों मेंं लेखन विशेष विधा ग़ज़ल , ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की परम्परा के शायर 


 


स्वयं की दस पुस्तकें प्रकाशित , लगभग 35संकलनों का सम्पादन 


देशभर मेंं तीन सौ से अधिक सम्मान , एवं कई उपाधियाँ , विद्यावाचस्पति , विद्यावारिधि , विद्या साग़र आदि अनेक मंचो से कविता पाठ , एक दर्जन के क़रीब साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन जिसमें देशभर के साहित्यकरों की भागीदारी 


स्थाई पता -डॉ रमेश कटारिया पारस 30,कटारिया कुञ्ज गंगा विहार महल गाँव ग्वालियर म .प्र .474002


मों9329478477यही watsepp और फ़ेसबुक नम्बर है 


 


email rameshkatariyaparas@gmail.com


 


 


गीत 


 


युगों युगों सारी दुनियाँ जिसको गाये 


गीत प्रेम के मैं ऐसे लिख जाऊँगा 


साँझ ढले तुम देखोगे आकाश में उन तारों के बीच कहीं दिख जाऊँगा 


 


मैं सूरज का वंशज हूँ किरणें बिखराता रहता हूँ 


सबके मन की सुनता हूँ और अपनें मन की सुनाता हूँ 


प्यार के दो मीठे बोलो पर बिना मोल बिक जाऊँगा 


 


साँझ ढले तुम देखोगे आकाश में उन तारों के बीच कहीं दिख जाऊँगा 


 


मैं उसका अनुयाई हूँ जो तूफानों से टकराये 


ऊंचे ऊंचे पर्वत उसका रस्ता रोक नहीं पाऐ 


 


मैं भी अपना सीना तानें वहीं कहीं डट जाऊँगा 


 


साँझ ढले तुम देखोगे आकाश में उन तारों के बीच कहीं दिख जाऊँगा 


 


नौनिहालों तुम आओ तुमको तो आगे जानां है 


तारों से आगे तुमको इक सुंदर जहाँ बनाना है 


 


मैं क्यूँ रोड़ा बनूँ तुम्हारा रस्ते से हट जाऊँगा 


 


साँझ ढले तुम देखोगे आकाश में उन तारों के बीच कहीं दिख जाऊँगा 


 


शीतलता का नाम चंद्रमां ताप को सूरज कहते हैं 


सुख दुःख धूप छाँव की तरहा हरदम चलते रहते हैं 


 


चलता हूँ तो जिंदा हूँ मैं रुक गया तो मैं मिट जाऊँगा 


 


साँझ ढले तुम देखोगे आकाश में उन तारों के बीच कहीं दिख जाऊँगा 


 


सच की राह पे चलनें वाले हरदम चलते रहते हैं 


चाहे जैसी शीत लहर हो हरदम जलते रहते हैं 


 


मैं इक नया सितारा बनकर अंबर पर झुक जाऊँगा 


 


युगों युगों सारी दुनियाँ जिसको गाये 


गीत प्रेम के ऐसे मैं लिख जाऊँगा 


 


साँझ ढले तुम देखोगे आकाश में उन तारों के बीच कहीं दिख जाऊँगा 


 


रामचंद्र जी की कथा का वर्णन 


 


 सीतापति दशरथ के पुत्र कौशल्या जी के जाये हैं 


हम भक्तो को पार लगानें 


मनुज रूप में आये हैं 


 


दानवों का संहार किया 


गुरु वशिष्ठ जी के मन को भाये हैं 


 


जनकपुरी में धनुष तोड़ कर 


सीताजी को वर लाये हैं 


 


भरत लक्ष्मण शत्रुघ्न जैसे भाइयों का साथ मिला 


 


हनुमान सुग्रीव जटायु और विभीषण से हाथ मिला 


 


अपनें पिता का वचन निभानें 


भरत को राजपाठ दे आये हैं 


 


रघुकुल की रीत निभानें की ख़ातिर 


बन बन में भटकाये हैं 


 


 


सोने की रावण की लंका दानवों से जीत कर लाये हैं 


 


शबरी अहिल्या बाली और केवट का उद्धार किया 


 


रावण के भाईयों और पुत्रों का संहार किया  


 


लंका पुरी से सीताजी को ससम्मान साथ ले आये हैं 


 


शूर्पणखा कुम्भकर्ण मेघनाथ खर दूषण अक्षय भी ना बच पाये हैं 


 


रावण का वध कर के लंका 


विभीषण को सौंप कर आये हैं 


 


ऐसे प्रिय रामचन्द्र जी हमनें अपनें मन में बसाये हैं 


 


संक्षेप में राम कथा कह कर के 


पारस जी हरषाये हैं 


भगवान राम के 


श्रीचरणों में सबने शीश झुकाये हैं 


 


 


 


ग़ज़ल 


 


चरणों का इक दास भी होना मँगता है 


कुछ तो अपने पास भी होना मँगता है 


 


अल्लम गल्लम बहुत भर लिया झोली मेंं 


अब थोड़ा सा ख़ास भी होना मँगता है 


 


काजू और बादाम रखे हैँ प्लेटों मेंं 


हाथों मेंं अब ग्लास भी होना मँगता है 


 


काँपते हाथों से क्या क्या कर पाओगे 


ज़ीवन मेंं कुछ पास भी होँना मँगता है 


 


पतझड़ ही पतझड़ है अपने ज़ीवन मेंं 


ज़ीवन मेंं मधुमास भी होँना मँगता है 


 


मीरा राधा रुकमणि सब आ गईं यहाँ 


व्रन्दावन मेंं रास भी होना मँगता है 


 


 


ऊपर वाला पार लगायेगा तुमको 


इतना तो विश्वास भी होना मँगता है 


 


जिन गुनाहों की सज़ा मिली है तुमको 


उन सब का एहसास भी होना मँगता है 


 


कब तूफ़ान मचेगा अपने ज़ीवन मेंं 


इसका कुछ आभास भी होना मँगता है


 


राम नें फ़िर से जन्म लिया है धरती पर 


अब के फ़िर बनवास भी होना मँगता है 


 


जानें क्या क्या हज़म कर गये नेता जी 


अब तो इक उपवास भी होना मँगता है 


 


कौन किसी को याद रखेगा पारस जी 


अपना इक इतिहास भी होना मँगता है


 


 


 


पहले अपने बारे लिख 


फिर तू चाँद सितारे लिख 


 


नेताओ को भ्रष्टी लिख 


जनता को बेचारे लिख 


 


बहुत लिख लिए गाँधी नेहरू 


अब अन्ना हजारे लिख 


 


आधी रात को उठ कर लिख 


या फिर साँझ सकारे लिख 


 


हर तरफ़ है आग लगी 


सूखे नदिया नारे लिख 


 


बाढ़ आयी तो नदी बह गई 


टूटे हुए किनारे लिख 


 


क्यों तू पतझड़ की सुनता है 


तू तो मस्त नज़ारे लिख 


 


जुल्फें काली काली लिख 


नैनो को कजरारे लिख 


 


आँसू को तू मीठा लिख 


या सागर को खारे लिख


 


 


 


 


दिवाली है 


 


चारो तरफ़ अँधेरा है कहते है लोग दिवाली है 


 


महँगाई बढ़ रही देश में 


लोग यहाँ जी रहे कलेश में 


दुश्मन मिलते दोस्त के भेष में 


बंजर सारे खेत पड़े है 


जख्मों में हरयाली है 


 


कहीँ पे बाढे कहीँ पे सूखा 


देश का हर बच्चा है भूखा 


लोगों का व्यवहार है रूखा 


बच्चो को नहीँ दूध मयस्सर 


ये कैसी खुशहाली है 


 


मयखानों में भीड़ लगी है 


मन्दिर सूने पड़े हुए है 


ये मेरा है वो तेरा है 


सब इसी बात पर अडे हुवे है 


मुझको देश का हर 


मानव लगता आज़ मवाली है 


 


थोड़े से दहेज की खातिर 


सोफा कुर्सी मेज की खातिर 


बी पी एल गोदरेज की खातिर 


आज़ जला दिया जिन्दा जिसको कल कहते थे घरवाली है


 


बहू ले आकर खुश होते है 


लाला ना हो तो रोते है 


 


भ्रूण हत्या करवा देते है 


अगर गर्भ में लाली है 


चारो तरफ़ अँधेरा है कहते है लोग दिवाली है


राजेंद्र रायपुरी

 आग ही समझो जवानी 


 


कौन कहता है ये पानी।


  आग ही समझो जवानी।


    भस्म कर सकती सभी कुछ,


       मन अगर इसने है ठानी।


 


पत्थरों को तोड़ दे ये।


  रुख़ हवा का मोड़ दे ये।


     रोक दे बर्षा का पानी।


      मन अगर ठाने जवानी


 


तोड़ लाए नभ के तारे।


  निज़ भुजाओं के सहारे।


    छेद कर दे आसमां में,


      लिख नई दे इक कहानी।


 


कौन कहता है ये पानी।


      आग ही समझो जवानी।


 


फूल ही हाथों न समझो।


  हाथ में तलवार भी है।


    प्यार दिल में है अगर तो,


      साथ में ललकार भी है।


 


सह नहीं सकती कभी भी,


  सच कहूॅ॑ ये बदजुबानी।


    कौन कहता है ये पानी।


      आग ही समझो जवानी।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

एक सुझाव


 


मित्रता और रिश्तेदारी


सम्मान की नहीं,भाव की भूखी होती हैं


लगाव दिमाक से नहीं


दिल से होना चाहिए


प्रभु जी ने झप्पर फाड़ कर दिया है


यश धन तुझे अपार


फिर भी अगर तू रोता है


तो तुझको है धिक्कार


दोष देखना गैर के


बंद कीजिए आप


मित्र और रिश्तेदार होता है


कुछ पल का मेहमान


मित्रता और रिश्तेदारी


सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है


क्यों आया है इस संसार में


कौन बतायेगा मोय


इस रहस्य को आज तक


समझ सका न कोय


करे क्यों नहीं शुक्रिया


प्रभु जी का हम दिन रात


सब प्राणियों में श्रेष्ठ


बनाया है इंसान


फिर भी मित्रता और रिश्तेदारी


निभाने में क्यों करता है संकोच


बचपन यौवन कट गये


खड़ा बुढ़ापा द्वार


अब तो बाकी रह गये


जीवन के दिन चार


मित्रता और रिश्तेदारी


सम्मान की नहीं, भाव की भूखी होती है


लगाव दिमाक से नहीं


दिल से होना चाहिए


नूतन लाल साहू


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-12


 


पुनि-पुनि सीष नवा हनुमाना।


कहा चाहुँ मैं पानी-दाना।।


    अब जदि मैं तव आयसु पाऊँ।


     तोरि-तोरि फल भरि हिक खाऊँ।।


सुनहु तात इहँ बहु रखवारा।


सकै न कोऊ इनहिं पछारा।।


     मातु खाउँ मैं फल चुनि मीठा।


     कहि नहिं सकत मोंहि कोउ डीठा।


मारि-पछारि सभें हनुमाना।


खाए रुचिकर फल बहु नाना।।


     सभ उखारि फेंकैं तरु उत-इत।


     करहिं उपद्रव उपबन समुचित।।


रावन पास जाइ इक दूता।


कह प्रभु बानर एक अनूपा।।


     बन असोक उजारि तरु फ़ेंकहि।


      खाइ-खाइ फल सबहिं गुरेजहि।।


जे केहु बीर गवा तिसु आगे।


मारि-गिराइ तुरत फिर भागे।।


      उद्भट बीर दसानन भेजा।


       मारि तिनहिं कपि पुनः गरेजा।।


भेजा निज सुत अच्छ कुमारा।


ताहि संग बहु भट्ट अपारा।।


     देखि तिनहिं उखारि इक बिटपा।


      फेंका कपि अच्छय गिर तड़पा।।


मारि गिरायेसि अछय कुमारा।


रपटत सबहिं कीन्ह निपटारा।।


    मेघनाद कहँ तहँ पुनि पठवा।


    कह मारउ नहिं लावहु बँधवा।।


देखन मैं चाहूँ तेहि कपि के।


केकर दूतइ आवा बनि के।।


    इंद्रजीत सुनि बध निज भ्राता।


    होइ बिकल क्रोधित तहँ जाता।।


लखि जोधा आवत बलवाना।


तरु गहि कटकटाइ हनुमाना।।


    कीन्ह बिरथ लंकेस-कुमारा।


    मारि मुष्टिका भटन्ह पछारा।।


दोहा-मेघनाद नहिं सहि सका, हनुमत मुष्टि-प्रहार।


        मूर्छित हो तब गिर परा, तहँ भुइँ होइ निढार।।


                       डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


 


 


 तेरहवाँ अध्याय (श्रीकृष्णचरितबखान)-6


 


बरस-काल एक जब बीता।


ब्रह्मा आए ब्रजहिं अभीता।।


 लखतै सभ गोपिन्ह अरु बछरू।


खात-पियत रह उछरू-उछरू।।


    भए अचम्भित भरमि अपारा।


     लखहिं सबहिं वै बरम्बारा।।


किसुन कै माया समुझि न पावैं।


पुनि-पुनि निज माया सुधि लावैं।।


     असली-नकली-भेद न समुझहिं।


      निज करनी सुधि कइ-कइ सकुचहिं।।


जदपि अजन्मा ब्रह्मा आहीं।


किसुनहिं माया महँ भरमाहीं।।


     भरी निसा-तम कुहरा नाईं।


     जोति जुगुनु नहिं दिवा लखाईं।।


वैसै छुद्र पुरुष कै माया।


कबहुँ न महापुरुष भरमाया।।


    तेहि अवसर तब ब्रह्मा लखऊ।


बछरू-गोप कृष्न-छबि धरऊ।।


   सबहिं के सबहिं पितम्बरधारी।


   सजलइ जलद स्याम बनवारी।।


चक्रइ-संख,गदा अरु पद्मा।


होइ चतुर्भुज बिधिहिं सुधर्मा।।


    सिर पै मुकुट,कान महँ कुंडल।


    पहिनि हार बनमाला भल-भल।।


बछस्थल पै रेखा सुबरन।


बाजूबंद बाहँ अरु कंगन।।


   चरन कड़ा,नूपुर बड़ सोहै।


    कमर-करधनी मुनरी मोहै।।


नख-सिख कोमल अंगहिं सबहीं।


तुलसी माला धारन रहहीं।।


     चितवन तिनहिं नैन रतनारे।


     मधु मुस्कान अधर दुइ धारे।।


दोहा-लखि के ब्रह्मा दूसरइ,अचरज ब्रह्मा होय।


        नाचत-गावत अपर जे,पूजहिं देवहिं सोय।।


       अणिमा-महिमा तें घिरे,बिद्या-माया-सिद्ध।


        महा तत्व चौबीस लइ, ब्रह्मा दूजा बिद्ध।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


सुनीता असीम

कन्हैया इस तरह तुमने मेरा जीवन संवारा है।


सफीने को मेरे जैसे मिला कोई किनारा है।


*****


जिसे पूजन नहीं भाए नहीं अर्चन करे तेरा।


दिया है वक्त ने उसको पलट उत्तर करारा है।


*****


अगर लौ लग गई तुमसे नज़ारा हर हमें भाए।


तुम्हारी इक अदा पे हमने तन मन धन भी वारा है।


*****


अंधेरे हों घने कितने जला है प्रेम का दीपक।


उसी की रोशनी में तो तुम्हें हमने निहारा है।


*****


अगर है चोर माखन का वो तोड़े मोह की गगरी।


सरस वो श्याम राधा का गुणों का भी पिटारा है।


*****


सुनीता असीम


७/११/२०२०


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