सुनीता असीम

मैं बेअदबी निहायत कर रही हूँ।


मुहब्बत में अदावत कर रही हूँ।


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किया जिसने मेरा दिल दूर मुझसे।


मैं उससे ही मुहब्बत कर रही हूँ।


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कहीं का भी मुझे जिसने न छोड़ा।


उसी की क्यूं वकालत कर रही हूँ।


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मेरा केवल रहा है वो है जैसा।


बुरा क्या जो जियारत कर रही हूँ ।


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मुझे दिल में रखे जो प्यार से बस।


समझ भगवन इबादत कर रही हूं।


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मैं उनका भक्त भगवन वो हैं मेरे।


उन्हें अपनी हकीकत कर रही हूँ।


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झुका सजदे में सर उनके सुनीता।


मैं कान्हा की ही चाहत कर रही हूँ। 


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सुनीता असीम


18/11/2020


डॉ०रामबली मिश्र

*कल्पनालोक की उड़ान*


      *(चौपाई ग़ज़ल)*


 


जीवन आह, बहुत मस्ताना ।


बना परिंदा गगन दीवाना।


 


है उड़ान कितना मनभावन।


इच्छा से सबकुछ बन जाना।।


 


कभी थिरकना यमुना कूले।


कभी-कभी गंगा तट जाना।।


 


कभी समाना सिंधु लहर में।


कभी निकल कर बाहर आना।।


 


जब चाहो कदंब पर बौठे।


गीत श्याम के मधुर सुनाना।।


 


उड़ना कभी बाग के ऊपर।


कभी किसी घर में घुस जाना।।


 


सकल जगत का मालिक बनकर।


चाहो जहाँ वहीं उड़ जाना।।


 


 सारी इच्छा पूरी करते।


सहज विचरते चलते जाना।।


 


प्रेम लोक की अगर चाह है।


प्रेम काव्य कौशल दिखलाना।।


 


चलते जाना प्रेम पंथ पर।


प्रेम गीत को लिखते जाना।।


 


गाते रहना मधुर गीत को।


सबको वश में करते जाना।।


 


ऐसा गाना गाना वन्दे।


छापा अमिट छोड़ते जाना।।


 


कभी मनुज बन कभी परिंदा।


जैसी इच्छा बनते जाना।।


 


बन स्वतंत्रता का प्रतीक जिमि।


जीवन का आनंद मनाना।।


 


नहीं कल्पना लोक दूर है।


यह अंतस का जगत सुहाना।।


 


मन चिंतन में सृष्टि व्योम है।


खुद से खुद को सहज सजाना।।


 


राजकुमार बने खुद उड़ कर।


स्वयं स्वयंबर दिव्य रचाना।।


 


पूरी सृष्टि करस्थ अवस्थित।


इच्छाओं का जश्न मनाना।।


 


देवदूत बन इस जगती का।


सतत स्नेह की अलख जगाना।।


 


सबके अंतःपुर में जा कर।


प्रेम दिवाली रोज मनाना।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ बीके शर्मा

"चल साकी"


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पग-पायल झनकार लिए आ


नयनों में कटार लिए आ


भला बुरा यह कहती दुनिया 


पल दो पल तू प्यार लिए आ


 


रोना-गाना तो दुनिया में


यूं ही चलता रहता है


लगता आंगन छोटा मुझको 


तू सारा संसार लिए आ


 


आने वाला जग जाता यहां


जाने वाला सो जाता


तेरा मेरा संबंध यहां है 


सांसों के दो तारे लिए आ


 


एक दूजे का हाथ थाम कर


एक दूजे की बात मानकर 


"चल साकी" इस जगती से


चलने को रफ्तार लिए आ


 


 डॉ बीके शर्मा


 उच्चैन भरतपुर( राजस्थान)


9828863402


डॉ०रामबली मिश्र

*प्रेम -पात्र*


 


प्रिय प्रेम पिलाता हूँ,


      नाराज नहीं होना।


मन के मधु भावों को,


     प्रिय मत ठुकरा देना।


 प्रेम दीवाना आज,


     इसको सहला देना।


उठ रही तरंगें हैं,


       इनको फुसला देना।


पी लेना प्रेमांजुलि,


       निर्वाध पिला देना।


हृदसागर में उफान,


      उर में बैठा लेना।


प्रेमपात्र अब भर लो,


       रिक्त न रहने देना ।


आँखों की पलकों में,


        प्रिय ज्वार समा लेना।


बन जा गंगा सागर,


         द्वंद्व मिटा देना।


भेद रहित सब कुछ हो,


            इंसान बना देना।


सीने से प्रिय मन को,


            बेरोक लगा लेना।


हे प्रेमपात्र दिलवर!


             विश्राम मना लेना।


 मुर्झायी आँखों को,


              रसपान करा देना।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुनीता असीम

चांद फिर धरती पे उतरा ख्वाब में।


प्रेम का अमृत चखा था ख्वाब में।


*******


प्यार के बदले मिलेगा प्यार ही।


ज़िन्दगी के ख़ार सहना ख़्बाव में।


*******


वस्ल के प्यासे हुए वो मुझ बिना।


श्याम का मुझसे ये कहना ख्वाब में।


********


बस करीबी भा गई उनकी मुझे।


हार बाहों का था पहना ख्वाब में।


********


टकटकी उनको लगा थी देखती।


चाँद को भी दूर रक्खा ख्वाब में।


*******


सुनीता असीम


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(16/16)


कहे बहन की प्रीति सदा ही,


भइया रीति चलाते रहना।


परम विमल रिश्ता यह जग में-


इसको सतत निभाते रहना।।


 


यह संबंध बहन-भाई का,


है कृष्ण-द्रौपदी के जैसा।


किया हरण जब चीर दुशासन,


पाया न किसी ने फल वैसा।


पड़े आबरू जब संकट में-


तुम इतिहास बनाते रहना।।


       इसको सतत निभाते रहना।।


 


यम-यमुना प्रिय भाई-बहना,


का रिश्ता शुचि-पौराणिक है।


भ्रात-बहन का रिश्ता इनका,


अति प्राचीन प्रामाणिक है।।


यम की भाँति सुनो हे भइया-


 घर पर तुम भी आते रहना।।


        इसको सतत निभाते रहना।।


 


 


ऐसे बहुत प्रमाण मिलेंगे,


भाई-बहनों के रिश्तों के।


किए त्याग हैं अद्भुत भाई,


त्याग हों जैसे फरिश्तों के।


मान सनातन कर्ज इसी को-


भइया सदा चुकाते रहना।।


       इसको सतत निभाते रहना।।


 


यदा-कदा जब त्यौहारों पर,


 नहीं मिलन जब हो पाता है।


अचरज नहीं सुनो हे भइया,


ऐसा अक्सर हो जाता है।


फिर भी कहती बहना तुमसे-


नूतन स्वप्न सजाते रहना।।


      इसको सतत निभाते रहना।।


 


बड़े भाग्य से रिश्ते मिलते,


जीवन में भाई-बहनों के।


भ्रात-बहन ही परिवारों के,


हैं अनुपम हिस्से गहनों के।


यदि गहने की कड़ी विखंडित-


भइया तुम्हीं बनाते रहना।।


      परम विमल रिश्ता यह जग में-


       इसको सतत निभाते रहना।।


                © डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                    991944637


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--


 


जीने को जी रहे हैं ये माना तेरे बग़ैर


यह ग़म भी पड़ रहा है उठाना तेरे बग़ैर


 


बच्चों की ज़िद पे घर में दिये भी जला लिये


त्यौहार हर पड़ा है मनाना तेरे बग़ैर


 


हर चीज़ घर की आज है बिखरी हुई पड़ी


मुमकिन नहीं है तन्हा सजाना तेरे बग़ैर


 


यह हम ही जानते हैं कहें भी तो क्या कहें


मुश्किल है कितना घर को चलाना तेरे बग़ैर


 


अब दिल की दौलतों का बताओ तो क्या करें 


बेकार हो गया है खज़ाना तेरे बग़ैर


 


सुनता नहीं है कोई भी अब अपनी दास्ताँ


बेरंग हो गया है फ़साना तेरे बग़ैर


 


तुम साथ थे तो रौनक़ें रहती थीं हर तरफ़


साग़र हुआ है सूना ज़माना तेरे बग़ैर


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


बरेली उ.प्र.


एस के कपूर श्री हंस

*रचना शीर्षक।।*


*वरिष्ठ नागरिक समाज को*


*मिली अनमोल सौगात है।।*


 


वरिष्ठ नागरिक होने का 


एक अलग आनन्द है।


नहीं कोई भी लगता अब


समय का पाबन्द है।।


खुद की मर्जी और खुद


का आदेश अब है चलता।


दफ्तर और ट्रैफिक की


किट किट भी अब बन्द है।।


 


दुआयें और आशीर्वाद देना


अब तो रोज़ का काम है।


सबसेआदर सम्मान इसलंबे


अनुभव का ईनाम है।।


नाती पोतों का भरपूर प्यार


पाने का यही है सही वक्त।


बच्चों को सिखाने को भी


मिला दादा दादी नाम है।।


 


जल्दी उठने और काम में 


जुटने कीआपाधापी नहीं है।


समाज सेवा को भी कम


समय की जवाबी नहीं है।।


रूठे टूटे रिश्तों को जोड़ने


के लिए हैअब वक्त ही वक्त।


दुनियाभर में वरिष्ठ नागरिक


जैसी कोई भी नवाबी नहीं है।।


 


कुल मिलाकर साठ साल के


बाद इक नई शुरुआत है।


पूरी उम्र गुजारने बाद मिली


ये एक अनमोल सौगात है।।


जिम्मेदारी निभाने के बाद जा


कर मिला यहआराम का वक्त।


वृद्धावस्था बुढ़ापा नहीं छूटी


रुचियाँ पूरी करने की बात है।।


 


साठ पर नहीं सत्तरअस्सी नब्बे


तक हमको जाना है।


सीखना भी बहुत कुछ जो


अभी तक हमें अनजाना है।।


जान लो वृद्धावस्था है जीवन


का सबसे स्वर्णिम काल।


जीता है वह शान से जिसने भी


उत्तम स्वास्थ्य मंत्र को माना है।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।।*


मोब।।।। 9897071046


                     8218685464


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-20


 


चहहिं उठावन प्रभु भगवाना।


उठहिं न प्रेम-मगन हनुमाना।।


      लखि हनु-सीष राम-पंकज कर।


       प्रमुदित बहु भे गौरीसंकर ।।


पुनि उठाइ हनुमत प्रभु रामहिं।


हरषित हिय तिन्ह गरे लगावहिं।।


      कहु केहि बिधि तुम्ह पहुँचे लंका।


      लंक जराइ पीटे तहँ डंका ।।


तब हनुमत प्रसन्न मन-बदना।


होइ बिनीत कहे अस बचना।।


      सिंधु लाँघि जाइ वहि पारा।


      कपि-सुभाउ तरु-बागि उजारा।।


मों जे मारा तिनहिं मैं मारा।


दनुजन्ह मारि क लंका जारा।।


     जे कछु कीन्हा नाथ मैं तहवाँ।


      पाइ कृपा तोर प्रभु इहवाँ ।।


प्रभु-प्रताप जब रूई धारै।


बड़वानल बिनु संसय जारै।।


    देहु नाथ भगती अनपायनी।


     एवमस्तु कह प्रभू नरायनी।


राम-सुभाउ जगत जे जानहिं।


औरहु देव नहीं ते मानहिं।।


      जय-जय-जय कृपालु रघुनंदन।


      करन लगे मिलि सभ कपि बंदन।।


तब सुग्रीवहिं लखि रघुराई।


कहा चलउ अब लंका धाई।।


     अब न बिलंबु करउ कपिराजा।


      चलउ लंक लइ कपी-समाजा।


लखि अस कौतुक सभ सुर-देवहिं।


नभ तें सभें सुमन बहु बरसहिं ।।


सोरठा-आए भालू-कीस, धाइ क धाइ समूह महँ।


           तिनहिं बुलाइ कपीस,कह अब चलहु तुरत सभें।।


                          डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                           9919446372


नूतन लाल साहू

डगमगाना नहीं


 


रहे हिंसा से दूर


प्रेम से भरपूर


मानव ही तो इंसान है


स्वीकारे एक धर्म,मनुष्य धर्म


हमारे मन चंगा


तो कठौती में गंगा


आत्म विश्वास को अपने


बनाये रखना है


रहे हिंसा से दूर


प्रेम से भरपूर


उस पार का भय भी तुझे


कुछ भी नहीं सता पायेगा


उस तरफ के लोक से भी


तेरा नाता जुड़ जायेगा


रहे हिंसा से दूर


प्रेम से भरपूर


पंथ जीवन का चुनौती


दे रहा है हर कदम पर


आखिरी मंजिल नहीं होती


कहीं भी दृष्टिगोचर


आत्मविश्वास ही पहुचायेगा,लक्ष्य तक


रहे हिंसा से दूर


प्रेम से भरपूर


मिल गया,मांगा जो बहुत कुछ


पर कहां संतोष मन में


दोष दुनिया का नहीं है


यदि कहीं है तो,दोष मन में


जब तक जीवन काल हमारा


बस तब तक रहेगा हर नाता


रहे हिंसा से दूर


प्रेम से भरपूर


मानव ही तो इंसान है


स्वीकारे एक धर्म, मनुष्य धर्म


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

 ताज, काॅ॑टों का 


 


आया फिर से ताज सिर, 


                   लेकिन नहीं उछाह।


रहा न अब वो दबदबा,


                  बहुत कठिन है राह।


बहुत कठिन है राह,


                 सुशासन पर है भारी।


दो-दो वो तलवार,


                   एक नर दूजी नारी।


बैठे खाए खार, 


               जिन्होंने ताज न पाया।


काॅ॑टों का ही ताज,


                सुशासन हाथों आया।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सीमा शुक्ला अयोध्या

बना रहे हर भाई बहना के मन प्रेम अपार।


याद दिलाने पावन रिश्ता आया यह त्योहार।


   बहन सजाती परिमल माथे


   भाई के निज हाथो से।


   सबसे पावन बंधन होता,


   यह हर रिश्ते नातों से।


भाई रक्षा करें बहन बस यह मांगे उपहार।


याद दिलाने पावन रिश्ता आया यह त्योहार।


    करती बहना नित्य कामना


    भैया बस खुशहाल रहें।


    रहें मधुर मुस्कान अधर पर


    तेज चमकता भाल रहे।


तन मन पुलकित रहे हमेशा सुखद रहे परिवार।


याद दिलाने पावन रिश्ता आया यह त्योहार।


     आज कहूं मैं हर भाई से।


     तुम सचमुच भाई बन जाओ।


     भले बहन हो और किसी की


     प्रण लो उसकी लाज बचाओ।


हर भाई से आज निवेदन बहन न हो लाचार।


याद दिलाने पावन रिश्ता आया यह त्योहार।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*प्रेम बहुत रंगीन*


 *(चौपाई ग़ज़ल)*


 


प्रेम बहुत रंगीन रसीला।


सतरंगी यह मधुर नशीला।।


 


अंग-अंग में मादकता है।


अतिशय मोहक बहुत छवीला।।


 


इसे समझ पाना दुष्कर है।


क्षण-क्षण बदलत रंग रसीला।।


 


पोर-पोर में रस-वारिद है।


टपकत रहता सदा छवीला।।


 


स्पर्श करो जिस किसी अंश को।


विद्युत तड़कत अति चमकीला।।


 


इसे नहीं खेलवाड़ समझ प्रिय।


खेल खिलाड़ी यह अलबेला।।


 


प्रेम प्रेम से सहज प्रेमरत।


ब्रह्मरूपमय मधुर-नुकीला।।


 


सारा जग इसकी मुट्ठी में।


इसके कर में सारी लीला।।


 


यह आधारशिला सृष्टी का।


प्रेम बिना नहिं जगत-कबीला।।


 


इसे भूल पाना मुश्किल है।


यह अनंत आकाश अकेला।।


 


इसके प्रति जो गलत सोचता।


वही दरिंदा दुष्ट गुरिल्ला।।


 


यह अति पावन देवालय है।


यही दिव्य रस सहज रसीला।।


 


यही देहधारी प्रिय मानव।


आत्म रूप अति सुहृद सुरीला।।


 


टपकत बूँद-बूँद यह प्रति पल।


महा रसायन मधुमय पीला।।


 


इसे ठोस-द्रव-वायु समझना।


बहु रूपी बहु मान कटीला।।


 


इसकी आँखों में जादू है।


लेता खींच सहज रंगीला।।


 


केवल इसकी पूजा करना।


पीताम्बर यह शांत प्रमीला।।


 


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 निर्मला शर्मा

भाई दूज


 


भाई बहन का प्यार


लेकर आया त्योहार


रिश्तों की बंधी है डोर


अगाध प्रेम नहीं कोई छोर


भाई दूज का दिन पावन


सदियों से चला ये चलन


यम से करने प्राणों की रक्षा


बहन करती भाई की सुरक्षा


सजा थाली लगा टीका उसको


दीर्घायु के लिए करती व्रत वो


करता है संकल्प भाई खुश होकर


बहन की रक्षा करूँगा वचन देकर


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


निशा अतुल्य

भैया दूज 


 


चाँद से मेरे भाई प्यारे


तन मन उन पर करूँ बलिहारे  


भले दूर रहते वो मुझसे 


एक पुकार पर जान वो भी वारे ।


 


रहे शतायु मेरे भाई दुलारे


मात पिता के आंखों के तारे


भाभियाँ चाँदनी सम है दमके


भतीजी भतीजे चमके ज्यों तारे ।


 


आज यम द्वितीया महापर्व पर 


सज गए हर आँगन और द्वारे


सभी बहने कर रही इंतजार 


आएंगें कब भाई हमारे प्यारे ।


 


साल का ये दिन है सुहाना


पंच दिवस महापर्व मनाना


यम दीप जला शुरू किया जो


पांचवा दीप भैया दूज का जलाना।


 


ईश्वर से मैं करूँ प्रार्थना


स्वास्थ्य,सुख,शांति रहे खजाना


चाहे जैसा सुख दुख आए


मेरे भाइयों पर प्रभुकृपा रखना ।


 


स्वरचित


निशा अतुल्य


संदीप कुमार बिश्नोई

जय माँ शारदे


मत्तगयंद सवैया छंद


 


प्रेम समान जलाकर दीपक , मानव ये तम द्वैष भगाओ। 


 


हो हृद पावन ये नर का अब , आप सुधा रस पान कराओ। 


 


ज्यों फुनगा उर प्रीत करे शुचि , वो नर को नित ज्ञान बताओ। 


 


पर्व प्रकाश पुनीत बना यह , प्रीत प्रसून सदा महकाओ। 


 


संदीप कुमार बिश्नोई


दुतारांवाली अबोहर पंजाब


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत


*किताबों की भाषा*


समझ जिसने ली है किताबों की भाषा,


दरख़्तों की भाषा,परिंदों की भाषा।


वही असली प्रेमी है क़ुदरत का मित्रों-


उसे ज़िंदगी में न होती निराशा।।


                 समझ जिसने ली है........।।


बहुत ही नरम दिल का होता वही है,


नहीं भाव ईर्ष्या का रखता कभी है।


बिना भ्रम समझता वो इंसाँ मुकम्मल-


सरिता-समंदर-पहाड़ों की भाषा।।


              समझ जिसने ली है..........।।


जैसा भी हो, वो है जीता ख़ुशी से,


न शिकवा-शिकायत वो करता किसी से।


ज़िंदगी को ख़ुदा की अमानत समझता-


लिए दिल में रहता वो अनुराग-आशा।।


                 समझ जिसने ली है............।।


खेत-खलिहान,बागों-बगीचों में रहता,


सदा नूर रब का अनूठा है बसता।


यही राज़ जिसने है समझा औ जाना-


मुश्किलों से भी उसको न मिलती हताशा।।


               समझ जिसने ली है...........।।


हरी घास पे पसरीं शबनम की बूँदें


एहसास मख़मल का दें आँख मूँदे।


रवि-रश्मियों में नहायी सुबह तो-


होती प्रकृति की अनोखी परिभाषा।।


             समझ जिसने ली है............।।


हक़ मालिकाना है क़ुदरत का केवल,


बसाना-गवाँना बस अपने ही संबल।


गर हो गया क़ायदे क़ुदरत उलंघन-


ज़िंदगी तरु कटे बिन कुल्हाड़ी-गड़ासा।।


           समझ जिसने ली है..............।।


प्रकृति से परे कुछ नहीं है ये दुनिया,


प्रकृति से ही बनती-बिगड़ती है दुनिया।


नहीं होगा सम्मान विधिवत यदि इसका-


जायगा यक़ीनन थम, ये जीवन-तमाशा।।


      समझ जिसने ली है किताबों की भाषा।।


                      ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-19


मोंतें कहीं चलत सिय माता।


अनुज संग चरनन्ह धइ ताता।।


   कहहु नाथ त्यागे मोंहि काहें।


    बहु अनुराग चरन महँ आहें।।


मानू दोषु एक अह मोरा।


तजि न सके प्रान जब छोरा।।


    नैन बारि अरु स्वांस समीरा।


    बिरह आगि कस जरे सरीरा।।


बरनि न जाय कष्ट सिय माता।


लाउ ताहिं बहु बेग बिधाता।।


     एक-एक पल कलप समाना।


     बीतहिं सिय सुनु कृपानिधाना।।


सुनि कपि-बचन नेत्र जल आवा।


बिकल राम सुनि सीय-कहावा।।


    मन-क्रम-बचन,चरन-अनुरागी।


    तदपि भईं सिय अस दुखभागी।।


सुनु हनुमान तोर उपकारा।


सुर-नर-मुनिन्ह सबहिं तें प्यारा।।


     कस हम होब उरिन सुत तुम्ह तें।


     तुमहिं कहहु उपाय कछु हम तें।।


पुलकित गात अश्रु भरि लोचन।


पुनि-पुनि कह प्रभु कष्ट-बिमोचन।।


दोहा-लखि के प्रभु प्रमुदित मना,हरषित हो हनुमान।


         धाइ परेउ प्रभु-कमल पद, कहत रच्छ भगवान।।


                          डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


एस के कपूर श्री हंस

*भाई बहन का अटूट विश्वास।।*


*भाई दूज।।*


 


*।।।।. 1. ।।।।*


 


भाई बहन के प्रेम स्नेह


का प्रतीक है भाई दूज।


एक तिलक की ताकत का


का यकीन है भाई दूज।।


सदियों से यही विश्वास


चलता चला आया है।


इसी अटूट बंधन की एक


लकीर है भाई दूज।।


 


*।।।।।।। 2 ।।।।।।*


 


भाई बहन काअनमोल रिश्ता


है इस संसार का।


है यह बंधन दिल से निकली


दुयाओं के आकार का।।


भैया दूज बस टीका नहीं है ये


प्रेम विश्वास का निशां।


प्रतीक अनमोल भाई बहन


प्यार के उपहार का।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री*


*हंस"*


*बरेली।।*


दिनाँक।। 16 11 2020


मोब।।।।9897071046।।।।।


8218685464।।।।।।।।।।।।।


 


*भाई दूज की शुभकामनायें।।।।*


 


*एस के कपूर*


एस के कपूर श्री हंस

*रचना शीर्षक।।*


*हमारे दृषिकोण में ही छिपा हमारी*


*सफलता का रहस्य है।।*


 


गुलाब में काँटे नहीं सोचो


कि काँटों में गुलाब है।


यह एक ही मिला जीवन


तो बहुत ही नायाब है।।


उजाले बाँटने से उजाले


कभी कम नहीं होते।


हमारा जीवन ही संघर्ष


लगन जोश और ख्वाब है।।


 


आपका धैर्य और व्यवहार


आपकी पूंजी सब से बड़ी।


आशा और विश्वास काम


आते मुसीबत जब हो खड़ी।।


हर सुबह लेकर आती है


उम्मीद की नई किरण।


आप जीतते हैं तभी कि


आंतरिकशक्ति जब हो लड़ी।।


 


अहसासों के पाँव नहीं होते


पर दिल तक पहुंच जाते हैं।


दुयाओं के असर दरवाजे


नहीं खटखटाते हैं।।


सच्चा प्रेम होता जैसे एक 


अदृश्य डोरी के समान।


हमारे कर्म ही तो भाग्य बन


कर वापिस आते हैं।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर श्री हंस*


*बरेली।।*


मोब।।। 9897071046


                     8218685464


नूतन लाल साहू

रौशनी का त्यौहार


 


नव उमंग नव तरंग


जीवन में हुआ नव प्रवाह


उठी खुशियों की लहर


आ गया रौशनी का त्यौहार


मै तो बस इतना कहता हूं


ऐसा दीप जला लेना


जिसकी लघु ज्वाला से ही


घबरा उठता है तम का सागर


मेरे जीवन की मधुबन में


उठी खुशियों की लहर


आ गया रौशनी का त्यौहार


भुल जा तू अब,पुराना रीति रिवाज


दे गया है कौन सा,वह उपहार


अब कर रहे हैं इशारे


उच्चतम नभ के सितारे


अब अपने मन मंदिर में


आशा की नई किरणे जगा ले


आ गया रौशनी का त्यौहार


आती हैं अंधेरी रात, हर पाक्षिक


दीया जलाना भी कब मना है


परम पिता परमेश्वर की कृपा से


जग मिटता बनता रहता है


मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्री राम जी के स्वागत हेतु


आ गया रौशनी का त्यौहार


अभिनंदन करते हैं हम


अभिवादन करते हैं हम


घनघोर अंधेरी रात में


मिट्टी का दीपक जलाते है लोग


यह सिद्ध करता है मानो


धार्मिक आस्था अभी जीवित है


लगता हैं स्वर्ग का धरती पर हुआ है अवतरण


आ गया रौशनी का त्यौहार


नूतन लाल साहू


डॉ निर्मला शर्मा दौसा

✍️कविता✍️


''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''’'''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''''


मन के भावों को चुनकर


शब्दों की माला मैं पिरोकर


मैं कागज पर कलम की मदद से


 लिखती हूँ सुंदर सी कविता


रसयुक्त, हृदय मैं उतरती


प्रेम बावरी लिखती हूँ


 हृदयस्पर्शी प्रेमनुरागिनी


सुंदर सी कविता


तो कभी ओज से भरी


आक्रोश दिखलाती


 सबल बनाती तटस्थ कविता


कष्ट मैं हो कोई या दुख से भीगा


उन्हें देख रो पड़ती है


मेरी भावों से भरी


मार्मिक सी कविता


खिलखिलाता है कोई तो


अधरों को थिरकाकर


कभी मुस्कुरा देती है


मेरी प्यारी सी कविता


जीवन के विविध रंग


दिखलाती कभी हँसाती


 तो कभी आँखों की कोर 


गीली कर जाती


अनन्ददायिनी कविता


जैसे मन के भाव हों मेरे


वैसी ही बन जाती कविता


कविता ऐसी ,जो भी पढ़ता


 उसकी ही बन जाती कविता


सत्यम, शिवम, सुंदरम की


करे स्थापना मेरी कविता


अप्रतिम, अद्भुत और


कभी कभी तो अनन्यतम


बन जाती कविता


भावों से भरी


सपनों से बुनी,रंगों से सजी


मेरी प्यारी कविता।


                                        डॉ निर्मला शर्मा


                                          दौसा राजस्थान


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गोवर्धन-धारण*


आयसु पाइ इंद्र भगवाना।


छाइ गए ब्रज बादर नाना।


    प्रबल बृष्टि भइ मुसलाधारा।


    तड़ित-तड़क सँग अंधड़ सारा।।


ग्वाल-बाल, पसु-पंछी सबहीं।


काँपि गए जब ठंडक परहीं।।


    धाइ गए तब किसुनहिं सरना।


     निज-निज सिसुन्ह सहित प्रभु-चरना।।


तुरत किसुन गिरिराज गोबरधन।


खेलहिं-खेल उखारे वहिं छन।।


    छतरी नियन उठा कर लीन्हा।


     पुष्प-छत्त जस बालक कीन्हा।।


सात दिवस तक गिरि कर गहि के।


रह ठाढ़े गिरधारी ठहि के ।।


     खाए-पिए बिनू बनवारी।


     रहे करत ब्रज कै रखसारी।।


अस लखि के तब किसुनहिं माया।


बहु-बहु इंद्र चित्त घबराया ।।


    बरजे तुरत सकल मेघन कहँ।


    रहे जे बरसत बहु जल ब्रज महँ।।


छटि गे बादर,थम गइ बूनी।


पवन बेग कै गति भइ सूनी।


    बरसे सुमन देव-गन्धर्वा।


    साध्य-सिद्ध-चारन जे सर्वा।।


कीन्ह स्तुती करि गुन -गाना।


करि-करि किसुनहिं चरित बखाना।।


     लइ दधि-चाउर-जल निज हाथे।


     मंगल-तिलक कीन्ह प्रभु-माथे।।


                   डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                     9919446372


डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी

*राम बाण🏹*


      हर्षित हैं देवों की नगरी,


      सरयू तट में दिया जले।


     तीर्थ पर्व है राम धाम में,


        देव दर्श से पुण्य पले।


 


 धरती के आँचल में बिखरी,


           रोशनी चारों ओर है।


        राम दर्श को पाने देखो,


       व्याकुल हुआ ये भोर है।


      दीप गर्वित हुये हैं खुद से, 


        विपदाओं के काल टले।


        हर्षित है देवों की नगरी, 


       सरयू तट पर दिया जले।


 


         लंबी चौड़ी डींगों नें भी, 


           सारी सीमा तोड़ दिये।


           कोर्ट कचहरी दावों ने, 


             संबंधों से होड़ किये।


           सनातनी मर्यादाओं ने,


     सबका दिल से किया भले।


         हर्षित है देवों की नगरी, 


        सरयू तट पर दिया जले।


 


        कोई संतों की वाणी बन,


        भक्ति भाव को जगा रहे।


        धर्म कर्म के सेवक प्रहरी,


          अंध तमस को हटा रहे।


             दीप जलेंगे धीर धरेंगे,


    प्रिय को प्रियतम हिया मिले।


           हर्षित है देवों की नगरी, 


          सरयू तट पर दिया जले।


                   *डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी*


डॉ0 हरिनाथ मिश्र

*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-18


जामवंत कह नाथ दयालू।


जापर हों रघुनाथ कृपालू।।


     तापर कृपा सभें जन करहीं।


     सुर-नर-मुनि सभ प्रमुदित रहहीं।।


भयो काजु जे रहा असंभव।


बिनु प्रभु-कृपा नहीं कछु संभव।।


     पाइ कृपा प्रभु कै हनुमाना।


      लाए सुधि सीता जग जाना।


बिजयी-बिनयी सभ गुन-आगर।


जनम सुफल कीन्ह कपि-नागर।।


     तुरत नाथ हनुमंत बुलाए।


     हरषित हिय तिन्ह गरे लगाए।।


पूछे कहहु तात केहि भाँती।


रहहिं सीय तहँ बासर-राती।।


    कस सिय करहिं सुरच्छा प्राना।


     होइ अभीत कहहु हनुमाना।।


प्रभु तव नाम सीय रखवारा।


तुम्हरो ध्यान कपाट-पहारा।।


      निज लोचन लगाइ चरनन्ह महँ।


      करहिं सुरच्छा निज सिय रहि तहँ।।


दोहा-चलत तुरत चूड़ामनी, दीन्ह मोंहि सिय मातु।


         कहि के तुमहिं सनेस कछु,लोचन-जल उतिरातु।।


                        डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


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