माँ
*माँ*
देती है जन्म माँ ही,तुमको भी और हमको,
कर लो सफल ये जीवन,छू-छू के उस चरण को।।
सह-सह के लाख विपदा,माँ ने तुम्हे है पाला,
गीले में खुद को रख कर,पोषा है निज ललन को।।
त्रिदेव को सुलाया,पलने पे माँ की ममता,
सीता को माँ है माना,शत-शत नमन लखन को।।
माता विधायिका है,है रक्षिका व पालिका,
झुकता रहे ये मस्तक,उसके ही नित नमन को।।
निर्मित है होती संस्कृति,माँ के ही संस्कारों से,
उनपर करो ही अर्पण,नित प्रेम के सुमन को।।
माँ ही तो होती लक्ष्मी,दुर्गा-सरस्वती भी।
हो प्रेम-वारि अर्पित,जीवन के इस चमन को।।
चिंतन व धर्म-कर्म की,है केंद्र-बिंदु माँ ही,
होने न व्यर्थ देना,उस ज्ञान-कोष-धन को।
माता से श्रेष्ठ होता,कोई नहीं जगत में,
रखना सदा सुरक्षित,शिक्षा-प्रथम-सदन को।।
© डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
चौपाइयाँ
मिल-जुल कर सब रहना भाई।
इसमें रहती सदा भलाई।।
सुख-दुख में सहभागी रहना।
मानव-जीवन का है गहना।।
जीवन को जिसने समझा है।
कभी नहीं भ्रम में उलझा है।।
मानवता ही धर्म एक है।
निर्बल-सेवा कर्म नेक है।।
बिन छल-कपट हृदय है जिसका।
हर जन प्रिय रहता है उसका ।।
होता है सम्मान उसी का।
करे न जो अपमान किसी का।।
सुंदर सोच सदा हितकारी।
देव तुल्य जग में उपकारी।।
हितकर कर्म नाम-यश देता।
कर्म आसुरी सब ले लेता ।।
प्रेम-धर्म है धर्म अनूठा।
करे मुदित जो हिय है रूठा।।
करें कर्म हम नैतिकता का।
छाँड़ि लोभ जग भौतिकता का।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372