विनय साग़र जयसवाल

ग़ज़ल----


 


अता मुझे भी उजाले की इक नज़र कर दे


तू अपनी चाँद सी सूरत ज़रा इधर कर दे


 


किसी को याद मैं आता रहूँ ज़माने तक


मेरी हयात मुझे इतना मोतबर कर दे


 


सुना है मैंने कि आहों में आग होती है


मेरे ख़ुदा मेरी आहों को बेअसर कर दे


 


वो जब मिला है तो ग़ैरों की बात ले बैठा


कोई तो शाम वो इक मेरे नाम पर कर दे


 


उसी घड़ी की है जुस्तजू तो बरसों से


जो उनको मेरी मुहब्बत का हमसफ़र कर दे


 


मेरे सिवा भी मेरे घर में कोई रहता है


कहीं नज़र न मेरे दिल को यह ख़बर कर दे


 


तमाम उम्र रहे तू ही मेरी आँखों में


तू इस यक़ीन को कुछ इतना पुर असर कर दे


 


तमाम शहर में जाये कहीं भी तू साग़र


तू मेरे घर को मगर अपनी रहगुज़र कर दे


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


हयात-जीवन


मोतबर--विश्वास के योग्य


बहर-मुफायलुन-फयलातुन-मुफायलुन-फेलुन


डॉ०रामबली मिश्र

*मत पूछो तुम हाल...*


 


मत पूछो जी हाल प्रेम का।


           यह जख्मी है।।


 


बात न करना कभी प्रेम की।


          यह जख्मी है।।


 


रोता रहता सतत अहर्निश।


          बहु जख्मी है।।


 


दर-दर की यह ठोकर खाया।


           अति जख्मी है।।


 


दुत्कारा यह गया बहुत है।


          यह जख्मी है।।


 


किसने इसे नहीं मारा है।


          अति जख्मी है।।


 


ललकारा यह गया बहुत है।


          नित जख्मी है।।


 


दुनिया के लोगों ने मारा।


          बहु जख्मी है।।


 


काम न करती मरहम-पट्टी।


          अति जख्मी है।।


 


इसको अब मत छेड़ कभी भी।


          बहु जख्मी है।।


 


इसे अकेला छोड़ चले जा।


अति प्रसन्न भोला जख्मी है।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-23


 


रावन सुनि मंदोदरि-बचना।


बिहँसि कहा घमंड सनि रसना।।


     जासु नाम सुनि काँपै सबहीं।


      पत्नी तासु डरै कस भवहीं।।


नारी-हिय संसय बहु रहहीं।


सुभ कारजु महँ अपि ते डरहीं।।


      जदि बानर-सेना इहँ अवहीं।


       तिनहीं खाइ निसाचर लरहीं।।


अस कहि चला सभा दसकंधर।


उलटी बुद्धि बिपति जब सिर पर।।


     सिंधु पार करि सेना आई।


     सचिवन्ह कहा बताउ उपाई।।


सभ हँसि टारि दीन्ह अस बाता।


चुप तुम्ह साधि रहउ हे त्राता।।


     जुद्ध सुरासुर बिनु श्रम जीते।


      बानर हों मुरई किन्ह खेते ।।


सचिव-बैद अरु गुरु नहिं नीका।


जे नहिं देहिं सलाह स्टीका ।।


     नीति कहै इन्हकर प्रिय बचना।


      घातक होय जदपि मधु रसना।।


मनहिं समुझि तहँ आइ बिभीषन।


माथ नाइ रावन के चरनन ।।


      आयसु लेइ बैठि निज आसन।


       कह सुनु हे मम भ्रात दसानन।।


जौं चाहसि निज कुल-कल्याना।


सुभगति-सुजसु-सुबुद्धि-खजाना।।


     लखहु न अब तुम्ह ई परनारी।


      जस लखि चंद चौथु अघ भारी।।


अंड-पिंड-स्वेतज-स्थावर।


बिधि जग-निर्मित प्रकृति चराचर।।


     सभ महँ सूक्ष्म रूप प्रभु ब्यापैं।


      होइ अदृस्य जीव-बपु थापैं।।


सुनहु भ्रात,राम भुवनेस्वर।


अज-अनादि,अजित-अखिलेस्वर।।


      ब्यापक राम सकल जग माहीं।


       ब्रह्म अभेदहिं जानउ ताहीं।।


मनुज सरीर धारि प्रभु रामा।


दुष्ट-दलन करिहैं हितकामा।।


दोहा-काम-क्रोध,मद-लोभ तजि,भजहु राम हे भ्रात।


        रच्छक गो-सुर-बेद प्रभु, रच्छक धरमहिं तात।।


                          डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                            9919446372


राजेंद्र रायपुरी

एक गीत 


 


दिल ये चमन है मेरा,आना कभी घूमने।


 


आना कभी घूमने,इसको कभी चूमने।


दिल ये चमन है मेरा,आना कभी घूमने।


 


नाजों से पाला इसे, 


                 इसका पता है किसे।


पत्थर न जाने कोई, 


                मिर्ची न इस पर घिसे।


 


खूशबू से है ये भरा, आना कभी घूमने।


दिल ये चमन है मेरा,आना कभी घूमने।


 


सबको सुहाता है ये,


                 सबको लुभाता है ये।


ख़्वाबों का जो झूलना, 


                उसमें झुलाता है ये।


 


मन का है ये मोहना,आना कभी घूमने।


दिल ये चमन है मेरा,आना कभी घूमने।


 


मत दूर से देखना, 


                    मत घूर के देखना।


खिलतीं हैं कलियाॅ॑ यहाॅ॑,


                   पत्थर नहीं फेंकना।


 


दर्पण से है ये घिरा, आना कभी घूमने।


दिल ये चमन है मेरा,आना कभी घूमने।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 निर्मला शर्मा

मैं कवि हूँ


 


आदिकाल से ही


अपने मन के भावों को


सहजता से प्रकट करता


कल्पना लोक मैं


विचरण करता


यथार्थ और आदर्श


 से जूझता


मैं कवि हूँ


कहते हैं सभी


जहाँ न पहुँचे रवि


वहाँ पहुँचे कवि


वहाँ भी मैं


पहुँचा हूँ


मैं कवि हूँ


नायिका के हृदय मैं


कभी प्रेम जगाता


कभी पीड़ा बन जाता


अल्हड़ सी बाला


सा खिलखिलाकर


कभी हँसता सा


माँ की आँखों में


वात्सल्य बन तैरता


कलम से स्याही


कागज़ पर बिखराता


मैं कवि हूँ


गाँवों में, गलियों में


फूलों में कलियों में


गोरी की कलाई में


बागों की अमराई में


पायल की छन छन में


कंगना की खन खन में


खुशियों के हर पल में


स्वयं को समाता


मैं कवि हूँ


 


डॉ0निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


नूतन लाल साहू

उम्मीद


 


मंजिल पाने की उम्मीद


कभी मत छोड़िए


क्योंकि सूरज डूबने के पश्चात ही


सबेरा होता है


जैसा मनोहर मेरा देश है


वैसा ही मधुर संदेश है


तूफान वर्षा बाढ़ संकट में


विश्वास ही आशा दायिनी होता है


मंजिल पाने की उम्मीद


कभी मत छोड़िए


कठिन तपस्या करके कोयल


इतना सुमधुर सुर पाया


उत्साह और उमंग के संचार से


युग युग का आलस भागा


मंजिल पाने की उम्मीद


कभी मत छोड़िए


दैव दैव तो आलसी पुकारे


प्रश्न उठा करता है मन में


बड़े भाग्य मानुष तन पाया


कैसे तुने जीवन में


मंजिल पाने की उम्मीद


कभी मत छोड़िए


देख कहीं कोई तरू सूखा


द्रवित हुई होगी मन में


एक दिवस इस तरू के ऊपर


हरियाली लहराती रही होगी


इस उत्तर से आई होगी निश्चित


शांति नहीं तेरे मन में


याद करो तुम उस पल को


अर्द्ध रात्रि में गौतम निकले थे घर से


मंजिल पाने की उम्मीद


कभी मत छोड़िए


क्योंकि सूरज डूबने के पश्चात ही


सबेरा होता है


नूतन लाल साहू


प्रिया चारण

मणिकर्णिका की महागाथा


 


लक्ष्मीबाई नाम था जिसका ,


महाकाली का अवतार था जिसका,


शस्त्र विद्या में सरस्वती का वरदान था


मातृ भूमि पर न्योछावर होना, अभिमान था जिसका ।


 


ढाल ,कटार और तलवार


 से जो खेलती आई,


युद्धभूमि जिसका आँगन बतलाई,


बाँध शिशु को पीठ पर ,


स्त्री वीरता अमर दिखलाई ,


थी वह रानी लक्ष्मीबाई।


 


झाँसी की वो रानी थी,


स्त्री रूप में मर्दानी थी,


क्या लिखूं उस शक्ति पर,


वो अमर ज्वाला अभिमानी थी।


 


बेचारी स्त्री से बहादुर बनाया,


वीरांगना ने वीरता का पाठ पढ़ाया ।


शक्ति तुम्हारी तुम पहचानो ,


मर्यादा के बाद मर्दानी कहलाओ।


 


संदेश है ! हर स्त्री को आवाज़ उठाओ


हर स्त्री को रानी लक्ष्मीबाई बनाओ।


 


 


प्रिया चारण


 उदयपुर राजस्थान


अर्चना पाठक निरंतर

3-वीरंगना लक्ष्मी बाई


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वीरांगना लक्ष्मीबाई की बचपन से सुनी कहानी थी ।


अंग्रेजों के सीने में अब तक पड़ी अमिट निशानी थी ।


 


        सुंदर और मध्यम कद काठी की छवि निराली थी।


        आँच न आए देश पर वह क्रोध की लाली थी ।


 


अंग्रेजों के षड्यंत्र को पहले उसने भाँपी थी।


 हर क्रांतिकारी से मदद की गहराई उसने नापी थी ।


 


        अपनी झाँसी मेैं न दूँगी कह कर एक हुंकार भरा।


         पेंशन पर गुजर न करूँगी सम्मान का चिंघाड़ भरा ।


 


उनकी एक झलक पाने को अंग्रेज भी बेताब रहे ।


भाव भंगिमा विद्वता पूर्ण नैन नक्श सुंदर रहे ।


 


        न गोरी थी न काली एक सलोना रूप था।


        स्वर्ण बालियाँ, श्वेत वसन और न कोई आभूषण था।


 


 लैंग की तारीफों का सादगी पूर्वक जवाब दिया।


 मदद करें आप गरीबों का शिष्टता का पुल बाँध दिया।


 


        लक्ष्मीबाई को भारतीय राजाओं से लड़ना पड़ा।


        अंग्रेज तो गैर थे अपनों से भी भिड़ना पड़ा।


 


 हिम्मती महिला पुरुषों को युद्ध के लिए तैयार किया ।


 पूरे जोश व ताकत से सात दिनों तक युद्ध किया।


 


        कमजोर होता देख दामोदर को पीठ पर बाँध लिया।


        छोटी सैन्य टुकड़ी संग झाँसी से बाहर निकल लिया।


 


 कह गये फिरंगी सर ह्यू रोज विद्रोहियों में बात कम थी ।


 लक्ष्मीबाई बहादुर नेतृत्व कुशल बागियों बीच वही मर्द थी।


 


अर्चना पाठक 'निरंतर'


दयानन्द त्रिपाठी दया

अंतर्राष्ट्रीय_पुरूष_दिवस_की_हार्दिक_शुभकामनाएं.....


 


कर्तव्यों की दृढ़ता से, संघर्ष सदा ही करता है।


दायित्वों को पूरा करने को, कष्टों को भी सहता है।।


 


त्यागतत्व को लिये सदा, अपनों की इच्छा पूरा करता है।


अपनी इच्छाओं का दमन कर, हर पल हंसता रहता है।।


 


मातृभूमि के लिए सदा, सबकुछ न्यौछावर करता है।


देश-धर्म कर्तव्य-कर्म की, बलिवेदी पर चढ़ता है।।


 


निरपेक्ष भाव से परिजन का, दु:ख हर लेने को फिरता है।


प्राप्त्याशा को छोड़ सदा, सब देने को तत्पर रहता है।।


 


मन मनसा को मार सदा, विलक्षण लिये फिरता है।


संतति में सहभागिता से, वंश बढ़ाया करता है।।


 


गुण और दोष के समन्वय को ले, हंस सरस सा बनता है।


घुट-घुट कर भी पुरूष सदा, जीवन पथ पर चलता है।।


 


दया कहे हे! जग वालों, नर का भी नारी सा सम्मान करो।


एक दूसरे के पूरक हैं, शाश्वत सम्प्रभुता का गुणगान करो।।



दयानन्द_त्रिपाठी_दया


डॉ0निर्मला शर्मा

भाई बहन का प्यार


भाई बहन का प्यार


नटखट सा वह अनुराग


बचपन की सुंदर यादों मैं


बसा है वह संसार


रूठना- मनाना,


 खेलना- कूदना


छीनना- झपटना 


और संग लड़ना


किताबों से होती थी


 तेरी मेरी वो यारी


पढ़ते थे जब संग 


भूल जाते दुनिया सारी


यादों मैं अब भी


समाहित है बातें


ममता का आँचल


वो चूल्हे की रोटी


पंचामृत सी लगती थी


बाजरे की रोटी


घर का आँगन


बना था गुलज़ार


गूँजती थी किलकारियाँ


तो आती थी बहार


भाई मेरा प्यारा


हृदय का दुलारा


जीवन के कालखण्ड का


सुखद अहसास प्यारा


बन्धन बहन भाई का


पवित्र सबसे न्यारा


लगाऊँ मैं टीका


करूँ तेरा स्वागत


भाई दूज के दिन


मिली अनुपम सौगात


व्यस्त जीवन से


समय निकाल


भाई आया चलकर


अपनी बहन के द्वार


बना रहे हमेशा


ये भाई बहन का प्यार


संसार में बड़ा ही निराला है


ये भाई बहन का अनुराग


 


डॉ0निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-22


लंका महँ सभ रहहिं ससंकित।


करि सुधि कपि बहु होंहिं अचंभित।


    अस बलवान दूत अह जाकर।


     कइसन होई तेजहिं ताकर।।


अस सभ कहहिं जाइ क निसिचरी।


भरि जल नयन भवन मँदोदरी।।


      बिकल होइ मंदोदरि रानी।


      पति कै चरन धरी दोउ पानी।।


कही नाथ मानउ मम कहना।


उचित नहीं रामहिं सँग लड़ना।।


      जासु दूत सुधि करि इहँ नारी।


      श्रवहीँ गरभ जिनहिं ते धारी।।


तासु नारि जनु सक्ति-स्वरूपा।


बिनु बिलंबु तेहि भेजहु भूपा।।


     सीय करी बिनास कुल-बंसज।


      करहि सीत-ऋतु जस कुल पंकज।।


राम-बिरोध नाथ नहिं नीका।


ब्यर्थ लगहिं तुम्ह अपजस-टीका।।


     राम-बिरोध बिरोधय नीती।


     करहिं न कोऊ तव परतीती।।


नारि चोराइ कबहुँ नहिं जोधा।


कहलाए जग पुरुष-पुरोधा ।।


दोहा-सुनहु नाथ इह मम बचन,धारि हियहिं महँ ध्यान।


         लगहिं निसाचर दादुरइ, अहि समान प्रभु-बान।।


                               डॉ0 हरि नाथ मिश्र


                                9919446372


राजेंद्र रायपुरी

😊😊 एक वंदना 😊😊


 


वंदना तेरी करूॅ॑ प्रभु, 


           दीन पर कुछ ध्यान दे।


माॅ॑गता मैं धन न दौलत,


              हे दयानिधि ज्ञान दे।


ज्ञान दे प्रभु पा जिसे मैं,


              राह अपनी पा सकूॅ॑।


है नदी जीवन अगर तो,


              पार उसके जा सकूॅ॑।


 


दीनबंधू तू दयालु, 


                 दीन द्वारे है खड़ा।


है नहीं कोई सहारा,


                मैं शरण तेरी पड़ा।


जो विनय तुझसे किया है,


                  तू उसे संज्ञान ले।


और मागूॅ॑ कुछ नहीं प्रभु,


               तू मुझे बस ज्ञान दे।


 


          ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 निर्मला शर्मा

जय हनुमान


करूँ वन्दना दयानिधान


मंगलकारी श्री हनुमान


कलियुग का साया गहराया


अत्याचार ने पैर फैलाया


अन्यायी करे गर्व अभिमान


करो कृपा हे कृपानिधान


नाम तिहारा जपूँ गुँसाई


तुम्हरे बिन है कौन सहाई


सुख तो रवि किरणों सा बिखरे


दुख मन ही मन ले लूँ सगरे


पार मै पाऊँ इस जग मै प्रभु


बनो जो मेरे तारणहार


जय बजरंग बली महाराज


तारो मोहे बनाओ सब काज


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


नूतन लाल साहू

जो करना है आज कर


 


जीवन जो शेष है


बस वही विशेष है


जिसने सब को बदलने की कोशिश की


वो हार गया


जिसने खुद को बदल लिया


वो जीत गया


हिल उठे जिससे समुन्दर


उस बवंडर के झकोरे को


किस तरह इंसान रोके


अच्छा होगा गुनगुना लेे, दो पंक्तियां


वह करेगा धैर्य संचित


जीवन जो शेष है


बस वही विशेष है


विश्वास ही मनुष्य को


खींचता जाता हैं निरंतर


पंथ कटीला है,थकान भी है


मृत्यु प्रतीक्षा में खड़ा है


उत्साह वर्धक,मंगल और शकुन पथ


तुझे ही संवारना है


लक्ष्य पर अपने कर्म के सहारे


निरंतर आगे कदम बढ़ाना है


जीवन जो शेष है


बस वही विशेष है


इस कलियुग में उत्साह वर्धक शब्द


सत्संग में ही सुनेगा


पंथ जीवन का चुनौती


दे रहा है हर कदम पर


जो खूब भूला, जो खूब भटका


विश्व तो उस पर हंसेगा


जीवन जो शेष है


बस वही विशेष है


जिसने सबको बदलने की कोशिश की


वो हार गया


जिसने खुद को बदल लिया


वो जीत गया


नूतन लाल साहू


डॉ० रामबली मिश्र

*प्रथम प्रेम -पत्र*


 


लिखता हूँ तुझे यह खत, जीवन में पहली बार।


अरमान बहुत मन में, न्योछावर मन सौ बार।


नाराज न होना प्रिय, गलती को क्षमा करना।


नादान समझ कर के, प्रिय! माफ इसे करना।


बेकाबू यह मन-अश्व, है नहीं नियंत्रण में।


समझाना इसे कठिन, नहिं बुद्धि निरीक्षण में।


इस मन को पागल जान, इक बार तरस खाना।


दोबारा गलती पर, दण्डित करना मनमाना।


मत क्षमादान देना, नालायक पागल को।


समतलीकरण करना, इस बीहड़ जंगल को।


प्रियवर!स्वीकार करो, इस उरधि निवेदन को।


पढ़कर के देना फाड़,


इंकार न कर वंदन को।


पागल हाथी का मद, चूर अगर चाहो कर दो।


या जैसी चाहत हो, वैसा ही वर दो।


 


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


आचार्य गोपाल जी

🌹🙏🌹सुप्रभात एवं संयत की शुभकामनाएं🌹🙏🌹


 


रवि षष्ठी व्रत है सबसे पावन पवित्र महान,


संयम संयत से रखें ,खरना खना एक शाम,


अर्घ्य अस्ताचल,उदयाचल दें प्रात: औ शाम,


तन निरोग मन पावन, पूरन होंगे सब काम ।


 


✍️आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला बरबीघा वाले


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

माँ


           *माँ*


देती है जन्म माँ ही,तुमको भी और हमको,


कर लो सफल ये जीवन,छू-छू के उस चरण को।।


 


सह-सह के लाख विपदा,माँ ने तुम्हे है पाला,


गीले में खुद को रख कर,पोषा है निज ललन को।।


 


त्रिदेव को सुलाया,पलने पे माँ की ममता,


सीता को माँ है माना,शत-शत नमन लखन को।।


 


माता विधायिका है,है रक्षिका व पालिका,


झुकता रहे ये मस्तक,उसके ही नित नमन को।।


 


निर्मित है होती संस्कृति,माँ के ही संस्कारों से,


उनपर करो ही अर्पण,नित प्रेम के सुमन को।।


 


माँ ही तो होती लक्ष्मी,दुर्गा-सरस्वती भी।


हो प्रेम-वारि अर्पित,जीवन के इस चमन को।।


 


चिंतन व धर्म-कर्म की,है केंद्र-बिंदु माँ ही,


होने न व्यर्थ देना,उस ज्ञान-कोष-धन को।


 


माता से श्रेष्ठ होता,कोई नहीं जगत में,


रखना सदा सुरक्षित,शिक्षा-प्रथम-सदन को।।


                    © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                      9919446372


 


 


चौपाइयाँ


मिल-जुल कर सब रहना भाई।


इसमें रहती सदा भलाई।।


 


सुख-दुख में सहभागी रहना।


मानव-जीवन का है गहना।।


 


जीवन को जिसने समझा है।


कभी नहीं भ्रम में उलझा है।।


 


मानवता ही धर्म एक है।


निर्बल-सेवा कर्म नेक है।।


 


बिन छल-कपट हृदय है जिसका।


हर जन प्रिय रहता है उसका ।।


 


होता है सम्मान उसी का।


करे न जो अपमान किसी का।।


 


सुंदर सोच सदा हितकारी।


देव तुल्य जग में उपकारी।।


       


हितकर कर्म नाम-यश देता।


कर्म आसुरी सब ले लेता ।।


 


प्रेम-धर्म है धर्म अनूठा।


करे मुदित जो हिय है रूठा।।


 


करें कर्म हम नैतिकता का।


छाँड़ि लोभ जग भौतिकता का।।


        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


            9919446372


सुनीता असीम

देख के दुख औरों के मेरा तो डरता साया।


और महफ़िल जो दिखे फिर तो उछलता साया।


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तेज रफ्तार करोना की दिखी जो उसको।


फिर तो चलने में सड़क पे भी सहमता साया।


********


डोर रिश्तों की उलझती जा रही ऐसे है।


खुद के धागों में खुदी सिर्फ उलझता साया।


********


आस विश्वास है भगवान में उसको जादा।


फूल पूजा के सबेरे मेरा चुनता साया।


*********


हो गई उनकी दिवानी यूं सुनीता अब तो।


कृष्ण के पीछे सदा चलता है उसका साया।


*********


सुनीता असीम


डॉ० रामबली मिश्र

 आयु..


(दोहा)


 


आयु किसी की पूछ मत, यह नश्वर है देह।


क्षणभंगुर इस देह में, आतम का है गेह।।


 


घटती जाती आयु है, मरते जाते लोग।


सर सर सरकत जगत में, रोग-भोग का योग।।


 


जड़वत सारे जगत का, मत पूछो कुछ हाल।


जड़ रोता है रात-दिन, चेतन है खुशहाल।।


 


घटती प्रति पल आयु है, बढ़ती देह मशान।


देह भोगती कर रही, लगातार प्रस्थान।।


 


इसमें क्या है जानना, किसकी क्या है आयु?


आयु अवस्था देह की, संचालक है वायु  


 


प्राणवायु जब निकलती, दैहिक क्रिया समाप्त।


दैहिक अर्जित प्राप्त सब, हो जाते अप्राप्त।।


 


स्वयंसिद्ध सिद्धांत को, मानत नहीं जहान।


नहीं किसी को मृत्यु का, रहत कभी है भान ।।


 


डरता प्राणी मृत्यु से, फिर भी बेपरवाह।


जग जर्जर की अर्जना, हेतु सदा है चाह।।


 


वंदे!पूछो आयु मत,हर प्राणी अल्पायु।


यह खेला है पवन का, भीतर -बाहर वायु।।


 


भीतर से जब निकल कर, बाहर जाती वायु।


समझ इसी को देह की, अंतिमअसली आयु।।


 


भीतर आना जिंदगी, बाहर जाना मौत।


भीतर है तो माँ सदृश, बाहर है तो सौत।।


 


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


 


 


जागृत हो जा,


सत्कृत बन जा।


सबको ले जा।।


 


हृदय न तोड़ो,


सबको जोड़ो।


दिग्भ्रम छोड़ो।।


 


मसला हल कर,


एक समझकर।


आगे बढ़कर।।


 


आधारशिला,


मन उज्ज्वला।


कोई न गिला।।


 


सभी सहोदर,


गाओ सोहर।


बनो मनोहर।।


 


समदर्शी बन,


प्रियदर्शी तन।


शिवदर्शी मन।।


 


रचना करना,


सुंदर लिखना।


मानव बनना।।


 


दुःख हरते रह,


सारे गम सह।


शिव शिव शिव कह।।


 


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-21


आए तहँ बहु कपि अरु भालू।


गरजहिं-तरजहिं बहु बिक़रालू।


     निरखि-निरखि कपि-भालू-सेना।


     कृपा करहिं प्रभु भरि-भरि नैना।


पाइ कृपा-बल प्रभुहिं अपारा।


मनु ते भए परबताकारा ।।


     गिरि सपंख इव जनु धरि देही।


     प्रभु सँग करहिं पयान सनेही।।


भयउ सुखद सगुनइ तेहि काला।


लखि-लखि प्रभु-बल-सैन निराला।।


    बाम अंग सिय फरकन लागा।


    रावन दाहिन परम अभागा।।


नीति कहै जब सुभ कछु भवहीं।


अस सुभ सगुन होत सभ लखहीं।।


     सीय जानि जनु राम-पयाना।


     पावहिं सुभ संकेत सुहाना।।


सेना बानर-भालू चलहीं।


गरजत-तरजत कहि नहिं सकहीं।।


    भालू-कपि-नख होंहिं भयंकर।


    सस्त्र-कर्म तिन्ह करहिं निरंतर।


पादप इव धरि निज-निज काया।


चले गगन-पथ करि जनु माया।।


     केहरि-नाद करहिं मग माहीं।


     डगमग महि निज भार कराहीं।।


चहुँ-दिसि दिग्गज करहिं चिघाड़ा।


उमड़इ सागर, बजइ नगाड़ा।।


     चंचल हो जनु परबत घहरैं।


     महि डोलै,तरु-गृह जनु भहरैं।।


सुर-नर-मुनि अरु किन्नर-देवा।


परम मुदित भे सभ गंधरवा।।


     जनु सहि सकहिं न महि-बल सेषा।


     कच्छप-पीठहिं अहिन्ह-नरेसा।।


खुरचहिं निज दसनन तें मोहित।


लिखहिं बयान राम जनु सोभित।।


दोहा-साथ लेइ कपि-रीछ-बल,सागर-तट प्रभु जाहिं।


       उतरि तहाँ कपि-रीछ सभ,घुमरि-घुमरि फल खाहिं।।


                     डॉ0 हरि नाथ मिश्र।


                      9919446372


एस के कपूर श्री हंस

*सुंदर व्यक्तित्व जीवन जीवन की अनमोल धरोहर।। नकारात्मक से सकारात्मक बनने की ओर।।* 


*(हाइकु)*


1


क्रोध अंधा है


अहम का बंदा है


बचो गंदा है


2


अहम क्रोध


कई हैं रिश्तेदार


न आत्मबोध


3


लम्हों की खता


मत क्रोध करना


सदियों सजा


4


ये भाई चारा


ये क्रोध है हत्यारा


प्रेम दुत्कारा


5


ये क्रोधी व्यक्ति


स्वास्थ्य सदा खराब


न बने हस्ती


6


क्रोध का धब्बा


बचके रहना है


ए मेरे अब्बा


7


ये अहंकार 


जाते हैं यश धन


ओ एतबार


8


जब शराब


लत लगती यह


काम खराब


9


नज़र फेर


वक्त वक्त की बात


ये रिश्ते ढेर


10


दिल हो साफ


रिश्ते टिकते तभी


गलती माफ


11


दोस्त का घर


कभी दूर नहीं ये


मिलन कर


12


मदद करें


जबानी जमा खर्च


ये रिश्ते हरें


13


मिलते रहें


रिश्तों बात जरूरी


निभते रहें


14


मित्र से आस


दोस्ती का खाद पानी


यह विश्वास


15


मन ईमान


गर साफ है तेरा


रिश्ते तमाम


16


मेरा तुम्हारा


रिश्ता चलेगा तभी


बने सहारा


17


दूर या पास


फर्क नहीं रिश्तों में


बात ये खास


18


जरा तिनका


काँटों जैसा चुभता


मन इनका


19


कोई बात हो


टोका टाकी ज्यादा ना


दिन रात हो


20


कोई न आँच


खुद पाक साफ तो


दूजे को जाँच


21


खुद बचाव


बहुत खूब करें


यह दबाव


22


दोषारोपण


दक्ष इस काम में


होते निपुण


23


तर्क वितर्क


काटते उसको हैं


तर्क कुतर्क


24


कोई न भला


गलती ढूंढते हैं


शिकवा गिला


25


बुद्धि विवेक


और सब अपूर्ण


यही हैं नेक


26


जल्द आहत


तुरंत आग लगे


लो फजीहत


*रचयिता।एस के कपूर*


*"श्री हंस"।बरेली।*


मो 9897071046


       8218685464


राजेंद्र रायपुरी

 इंतजार,नये साल का 


 


नये साल के इंतजार में,


                   सब बैठे हैं भाई।


सबकी चाहत कोरोना की,


                  होवे जल्द विदाई।


साल बीस था लेकर आया,


                विपदा सबसे भारी।


जाने कितने लोगों को खा,


                    गई यही बीमारी।


सबको है उम्मीद बिदाई, 


                   कोरोना की होगी।


नये साल में नहीं दिखेंगे,


                    कोरोना के रोगी।


 


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सारिका विजयवर्गीय वीणा

*विधाता छंद *मुक्तक*


 


*भाईदूज की हार्दिक बधाई*


 


लगा कर भाल पर टीका, खिलाऊँगी मिठाई मैं।


बना कर प्रेम का धागा, सजाऊँगी कलाई मैं।


दुआएँ दे रही तुझको,मिले खुशियाँ तुझे सारी-


सजा उर नेह की थाली, लुटाने प्रेम आई मैं।


 


खिले तेरा सदा आँगन, मनाते पर्व हम पावन।


बलाएँ छू न पाएंगी , उतारूँ मैं नज़र दामन।


रमा माता सदा भाई ,कृपा तुम पर लुटाती हो-


यही आशीष दे बहना, मिले यश नाम ले जन-जन।


 


*सारिका विजयवर्गीय "वीणा"*


*नागपुर( महाराष्ट्र)*


नूतन लाल साहू

सुविचार


 


जिनकी भाषा में सभ्यता होती हैं


उनके जीवन में सदैव भव्यता होती हैं


आओ पहचाने और जाने


अपने अंतस के उदगार को


करते हैं मां सरस्वती की पूजा


वंदना,प्रार्थना उसकी कृपा पाने को


मन में राजसी और तामसी गुण


कभी भी तनिक न आने देना


हम जीवन भर विद्यार्थी और शिक्षार्थी रहे


हमे सतोगुणी बना देना


जिनकी भाषा में सभ्यता होती हैं


उनके जीवन में सदैव भव्यता होती हैं


आरंभ हुआ उत्थान मनुष्य का


जब हुआ अक्षर ज्ञान,बनी भाषाएं


रचे गये वेद उपनिषद


दर्शन धर्म मानव का


जो है वंचित,ज्ञान के आदान प्रदान से


उसके जीवन में कैसे आयेगा उजलापन


टकराव,दुराव,अलगाव आने न पावे


ऐसे शब्दों का चयन करना


जिनकी भाषा में सभ्यता होती हैं


उनके जीवन में सदैव भव्यता होती हैं


जो असंयमित वाणी बोलते हैं


वे अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मारते हैं


अविराम,बेलगाम वाणी हमें


पश्चाताप में डूबा जाता हैं


शब्द चयन ऐसा करे


न हो भारत में फिर महाभारत


जिनकी भाषा में सभ्यता होती हैं


उनके जीवन में सदैव भव्यता होती हैं


नूतन लाल साहू


डॉ०रामबली मिश्र

*ग्रंथि खुलेगी*


   *(वीर छंद)*


 


मन को रखना होगा साफ,


               ग्रंथि खुलेगी अंतःपुर की।


भेदभाव का हो जब नाश,


              ग्रन्थि मिटेगी तब अंदर की।


स्व का पर से रहे लगाव,


             करो सफाई नित भीतर की।


गुण को देखो दोष न देख,


           करो प्रशंसा अंतःपुर की।


पढ़ना सदा प्रेम का पाठ,


           देना त्याग घृणा अंदर की।


समझो सबको एक समान,


           जगे मनुजता अंतःपुर की।


व्यापक बनकर जीना सीख,


           उन्नत बने भूमि भीतर की।


मानवता से कर संवाद,


           संवेदना बढ़े अंदर की।


जल-भुन कर मत होना राख


           जगे चेतना अंतःपुर की।


कपट त्यागकर रहना मस्त,


           रहे जिंदगी खुश भीतर की।


सकल दुराग्रह को दो त्याग,


          रखो स्वच्छता अंतःपुर की।


कर विवेक का सदा प्रयोग,


           करो वंदना नित्य जिगर की।


सबको अपना भाई मान,


           करो कल्पना नहीं दिगर की।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


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