एस के कपूर श्री हंस

*सुंदर व्यक्तित्व जीवन जीवन की अनमोल धरोहर।। नकारात्मक से सकारात्मक बनने की ओर।।* 


*(हाइकु)*


*(क) क्रोध से बचें।*


1


क्रोध अंधा है


अहम का बंदा है


बचो गंदा है


2


अहम क्रोध


कई हैं रिश्तेदार


न आत्मबोध


3


लम्हों की खता


मत क्रोध करना


सदियों सजा


4


ये भाई चारा


ये क्रोध है हत्यारा


प्रेम दुत्कारा


5


ये क्रोधी व्यक्ति


स्वास्थ्य सदा खराब


न बने हस्ती


6


क्रोध का धब्बा


बचके रहना है


ए मेरे अब्बा


7


ये अहंकार 


जाते हैं यश धन


ओ एतबार


8


जब शराब


लत लगती यह


काम खराब


*(ख) रिश्तों को संभाल कर रखें।*


9


नज़र फेर


वक्त वक्त की बात


ये रिश्ते ढेर


10


दिल हो साफ


रिश्ते टिकते तभी


गलती माफ


11


दोस्त का घर


कभी दूर नहीं ये


मिलन कर


12


मदद करें


जबानी जमा खर्च


ये रिश्ते हरें


13


मिलते रहें


रिश्तों बात जरूरी


निभते रहें


14


मित्र से आस


दोस्ती का खाद पानी


यह विश्वास


15


मन ईमान


गर साफ है तेरा


रिश्ते तमाम


16


मेरा तुम्हारा


रिश्ता चलेगा तभी


बने सहारा


17


दूर या पास


फर्क नहीं रिश्तों में


बात ये खास


*(ग) अहम खराब है।*


18


जरा तिनका


काँटों जैसा चुभता


मन इनका


19


कोई बात हो


टोका टाकी ज्यादा ना


दिन रात हो


20


कोई न आँच


खुद पाक साफ तो


दूजे को जाँच


21


खुद बचाव


बहुत खूब करें


यह दबाव


22


दोषारोपण


दक्ष इस काम में


होते निपुण


23


तर्क वितर्क


काटते उसको हैं


तर्क कुतर्क


24


रहे न भला


गलती ढूंढते हैं


शिकवा गिला


25


बुद्धि विवेक


तभी होते हैं पूर्ण


यही है नेक


26


जल्द आहत


तुरंत आग लगे


हो फजीहत


*रचयिता।एस के कपूर*


*"श्री हंस"।बरेली।*


मो 9897071046


       8218685464


 


*VJTM 965019 IN*


*एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली*


*सदस्य कोड संख्या*


नूतन लाल साहू

एक सुझाव


 


जिंदगी में सारा झगड़ा


ख्वाहिशों का है


ना तो किसी को गम चाहिए


और ना ही किसी को कम चाहिए


सच कहता हूं तू थक जायेगा


विश्व को विनती सुनाते सुनाते


चाह किसका है तुझे जो


तड़पता रहता हैं निरंतर


सुख संपत्ति की ख्वाहिश तुझे


सब ओर से घेरे हुए हैं


सब कुछ प्रभु पर छोड़ दें


चिंता तेरे पास नहीं आयेगा


जिंदगी में सारा झगड़ा


ख्वाहिशों का है


ना तो किसी को गम चाहिए


और ना ही किसी को कम चाहिए


विश्व तो उस पर जरूर हंसेगा


जो सत्कर्म भूला,खूब भटका


पंथ जीवन का चुनौती


दे रहा है हर कदम पर


आखिरी मंजिल तो भवसागर पार जाना है


जो दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है कहीं भी


आत्मविश्वास बढ़ा,ख्वाहिशें घटा


वह करेगा धैर्य संचित


प्रकृति का मंगल शकुन पथ


तेरा इंतज़ार कर रहा है


शक्तियां अपनी न जांची तूने


तू तो ईश्वर का अंश है


जिंदगी में सारा झगड़ा


ख्वाहिशों का है


ना तो किसी को गम चाहिए


और ना ही किसी को कम चाहिए


नूतन लाल साहू


निशा अतुल्य

छंद प्रबोधनी एकादशी


ढ़ेर सारी शुभकामनाएं 


25.11.2020


 


 


प्रबोधनी एकादशी ,पाप करम नाशनी


उठे देव जान कर सब,मंगलम मनाइए।


 


व्रत रखे निरआहार,कष्ट करें सब पार


विष्णु प्रिया संग रहे,आशीष पा जाइए।


 


मन में सदा है हुलसी,विष्णु प्रिय है तुलसी


विष्णु सँग तुलसी जी का,विवाह करवाइए।


 


सोए देव उठाइए,विष्णु हरि मनाइए


बैकुंठ धाम पाइए,भव से तर जाइए।


 


स्वरचित 


निशा"अतुल्य"


डॉ0हरि नाथ मिश्र

व्यथा(दोहे)


कथा व्यथा की क्या कहें,व्यथा देय बड़ पीर।


सह ले जो तन-मन-व्यथा,पुरुष वही है धीर।।


 


प्रेमी-हिय भटके सदा,प्रिया न दे जब साथ।


व्यथा लिए निज हृदय में,मलता रहता हाथ।।


 


बिन औषधि तन भी सहे, पीड़ादायी रोग।


व्यथा शीघ्र उसकी कटे, पा औषधि संयोग।।


 


कवि की व्यथा विचित्र है,व्यथा कवित-आधार।


अद्भुत यह संबंध है,पीड़ा कवि-शृंगार ।।


 


व्यथा-व्यथित-मन स्रोत है,उच्च कल्पना-द्वार।


कविता जिससे आ जगत,दे औरों को प्यार।।


 


इसी व्यथा के हेतु ही,जग पूजे भगवान।


धन्य,व्यथा तुम हो प्रबल,देती सबको ज्ञान।।


 


व्यथा छुपाए है खुशी,समझो हे इंसान।


जो समझे इस मर्म को,उसका हो कल्यान।।


         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


             9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*त्रिपदी*


जिसका तन-मन निर्मल रहता,


मिलती उसको सदा सफलता।


सुखी वही जीवन भर रहता।।


 


बल-विद्या-धन-पौरुष अपना,


करें पूर्ण सदा ही सपना।


कभी घमंड न इनपर करना।।


 


मानव-जीवन सबसे सुंदर,


यदि है पावन भी अभ्यंतर।


मिलता सुख है तभी निरंतर।।


 


देश-भक्ति का भाव न जिसमें,


पत्थर दिल रहता है उसमें।


 देश-प्रेम भी होए सबमें ।।


 


निज माटी का तिलक लगाओ,


तिलक लगाकर अति सुख पाओ।


मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाओ।।


 


अपनी धरती,अपना अंबर,


वन-पर्वत,शुचि सरित-समुंदर।


संस्कृति रुचिरा बाहर-अंदर।।


 


सदा बड़ों का आदर करना,


स्नेह-भाव छोटों से रखना।


रहे यही जीवन का सपना।।


             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र।


                 9919446372


डॉ० रामबली मिश्र

*गुनगुनी धूप*


 


गुनगुनी धूप मन को लुभाने लगीं।


अब प्रिया की मधुर याद आने लगी।


है सुहाना ये मौसम बहुत ही रसिक।


रस की वर्षा हृदय में रसाने लगी।


धूप ठंडक की कितनी सहज मस्त है।


अब मधुर कामना मन में आने लगी।


बिन प्रिया मन उदासी से भरपूर है।


अग्नि विछुड़न की मन को जलाने लगी।


 


गुनगुनी धूप सुखदा भले ही लगे।


पर विरह वेदना अब सताने लगी।


सर्द की धूप चाहे भले हो सुखद।


भावना आशियाना हटाने लगी।


 


रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुषमा दीक्षित शुक्ला

गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी।


 फिर से पीहर में गोरी लजाने लगी ।


अब सुहानी लगे सर्द की दुपहरी।


 मौसमी मयकशी है ये जादू भरी।


 ठंडी ठंडी हवा दिल चुराने लगी।


 गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी।


पायल ने छेड़े हैं रून झुन तराने ।


दर्पण से दुल्हन लगी है लजाने ।


याद उसको पिया की सताने लगी ।


गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी ।


 सर्द का मीठा मीठा सुहाना समा।


फूल भौंरें हुए हैं सभी खुशनुमा।


 रुत मोहब्बत की फिर से है छाने लगी ।


गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी ।


फूलों पे यौवन है फसलों में सरगम ।


 भंवरों का गुंजन है मधुबन में संगम ।


 प्यार के रंग तितली सजाने लगी।


 गुनगुनी धूप अब मन को भाने लगी ।


है कहीं पर प्रणय तो कहीं है प्रतीक्षा ।


कहीं दर्द बिरहन का लेती परीक्षा।


 कहीं गीत कोयल सुनाने लगी।


 गुनगुनी धूप फिर से है भाने लगी।


 फिर से पीहर में गोरी लजाने लगी ।


सुषमा दीक्षित शुक्ला


डॉ0हरि नाथ मिश्र

व्यथा(दोहे)


कथा व्यथा की क्या कहें,व्यथा देय बड़ पीर।


सह ले जो तन-मन-व्यथा,पुरुष वही है धीर।।


 


प्रेमी-हिय भटके सदा,प्रिया न दे जब साथ।


व्यथा लिए निज हृदय में,मलता रहता हाथ।।


 


बिन औषधि तन भी सहे, कष्टप्रदायी रोग।


व्यथा शीघ्र उसकी कटे, पा औषधि संयोग।।


 


कवि की व्यथा विचित्र है,व्यथा कवित-आधार।


अद्भुत यह संबंध है,पीड़ा कवि-शृंगार ।।


 


व्यथा-व्यथित-मन स्रोत है,उच्च कल्पना-द्वार।


कविता जिससे आ जगत,दे औरों को प्यार।।


 


इसी व्यथा के हेतु ही,जग पूजे भगवान।


धन्य,व्यथा तुम हो प्रबल,देती सबको ज्ञान।।


 


व्यथा छुपाए है खुशी,समझो हे इंसान।


जो समझे इस मर्म को,उसका हो कल्यान।।


         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


             9919446372


सुनीता असीम

खुद से बातें करता होगा।


ठंडी आहें भरता होगा।


*****


बीत गया जो वक्त गुजरके।


मन उनमें ही रमता होगा।


*****


काटे कटते न विरहा के पल।


दिल उसका भी दुखता होगा।


*****


भूल गई सजनी उसको अब।


सोच गगन को तकता होगा।


*****


साथ बिताए लम्हे सुख के।


कैसे उनको भूला होगा।


*****


दर्द चुभोए कांटे कितने।


भीतर भीतर दुखता होगा।


*****


मनकी ज्वाला बढ़ती जाती।


तन भी उसमें जलता होगा।


*****


सुनीता असीम


सारिका विजयवर्गीय वीणा

आज ही के दिन देखो , शुभ ये विवाह हुआ , 


लिखी हुई वेदों में ये , विष्णुप्रिया कहानी।


 


 


प्रबोधिनी एकादशी, देव उठ कहते हैं ,


शालिग्राम प्रिय जानो,तुलसी महारानी।


 


व्रत कीजिए जी आप , कार्तिक ग्यारस का , 


 तुलसी विवाह कर , बनिये बड़ा दानी।


 


तुलसी मैया की करो, तुम सदा सेवा-पूजा,


कहती हैं सदियों से, गाथा ये दादी- नानी।


 


स्वरचित


सारिका विजयवर्गीय "वीणा"


नागपुर( महाराष्ट्र)


राजेंद्र रायपुरी

😊😊 करो मत ढिलाई 😊😊


 


करो मत ढिलाई, नहीं है दवाई।


कोरोना कहें लौट आया है भाई।


 


रहो दूर सबसे, न पंजे लड़ाओ,


भले हो हितैषी,गले मत लगाओ।


इसे ही अभी है समझना दवाई।


दवाई को आने में है देर भाई।


 


कही बात मानो,करो मत ढिठाई,


कोरोना कहें लौट आया है भाई।


 


बिना मास्क मानो,न जाना कहीं भी। 


बिना हाथ धोए, न खाना कहीं भी।


न बाहर, हमें घर में ज्यादा है रहना।


भलाई इसी में, सभी का है कहना।


 


न माना, लुटाया वो अपनी कमाई। 


कोरोना कहें लौट आया है भाई।


 


हमें भीड़ में अब भी जाना नहीं है। 


अगर है कोरोना छुपाना नहीं है।


न बच्चे को बाहर, हमें ले है जाना।


न बच्चे को बाहर, हमें है खिलाना।


 


पढ़ो ध्यान से, जो है अर्ज़ी लगाई। कोरोना कहें लौट आया है भाई।


 


करो मत ढिलाई, नहीं है दवाई।


कोरोना कहें लौट आया है भाई।


 


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

ज्ञान की बातें


 


आंसू न होते तो


आंखे इतनी खूबसूरत न होती


दर्द न होता तो


खुशी की कीमत न होती


अगर मिल जाता सब कुछ केवल चाहने से


तो दुनिया में ऊपर वाले की जरूरत न होती


चुन चुन लकड़ी महल बनाया


और कहता है तू घर मेरा है


ना घर तेरा है ना घर मेरा है


चिड़िया करत रैन बसेरा है


जब तक पंछी बोल रहा है


तब तक सब राह देखें तेरा


प्राण पखेरु उड़ जाने पर


तुझे कौन कहेगा मेरा


आंसू न होते तो


आंखे इतनी खूबसूरत न होती


दर्द न होता तो


खुशी की कीमत न होती


अगर मिल जाता सब कुछ केवल चाहने से


तो दुनिया में ऊपर वाले की जरूरत न होती


क्या हुआ तू वेदों को पढ़ा


भेंद तो कुछ जाना नहीं


आत्मा की मरम जाने बिना


ज्ञानी तो कोई कहलाता नहीं


जानबूझकर अनजान बनता है


जैसे सदा जिंदा रहेगा


प्रभु भक्ति बिना किश्ती तेरी


भवसागर पार जायेगा नहीं


आंसू न होते तो


आंखे इतनी खूबसूरत न होती


दर्द न होता तो


खुशी की कीमत न होती


अगर मिल जाता सब कुछ केवल चाहने से


तो दुनिया में ऊपर वाले की जरूरत न होती


नूतन लाल साहू


डॉ0 निर्मला शर्मा

" देवोत्थानी एकादशी "


 


क्षीर सिंधु में हरि विराजे


शेषनाग की शैया साजे


चरण दबाती बैठी माता


श्रीहरि माँ लक्ष्मी संग राजे


देवोत्थानी एकादशी पर जागे


जन् जन् के मन में है विराजे


शुभ कार्यों का हुआ है प्रारम्भ


चार मास बाद देव हैं जागे


कार्तिक मास की एकादशी यह


तुलसी विवाह की शुभ घड़ी यह


शालिग्राम तुलसी संग कर परिणय


आज के दिन ही धाम पधारे।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


एस के कपूर श्री हंस

*विषय।।बेटी।।*


*।।रचना शीर्षक।।*


*आज की बेटियाँ।।आसमाँ*


*में है उड़ने की तैयारी।।*


 


कौन सा काम जो आज की


बेटी नहीं कर पाई है।


बेटियां तो आज आसमान 


से सितारे तोड़ लाई हैं।।


बेटियों को चाहियेआज उड़ने


को यह सारा पूरा जहान।


धन्य हैं वह माता पिता


जिन्होंने बेटी जाई है।।


 


नारी ही तो इस सम्पूर्ण


सृष्टि की रचनाकार है।


नारी आज सबला दुष्टों के


लिये भी बन गई हाहाकार है।।


अनाचारऔर दुष्कर्म के प्रति


आजऔरत ने उठाई आवाज़।


बाँधकर साफा माथे परआज


बनी रण चंडी की ललकार है।।


 


वही समाज राष्ट्र उन्नत बनता


जो बेटी का सम्मान करता है।


बेटी शिक्षा बेटी सुरक्षा का


जो अभियान भरता है।।


ईश्वर रूपा ममता स्वरुपा


त्याग की प्रतिमूर्ति है नारी।


वो संसार स्वर्ग बन जाता जो


बेटी का नाम महान धरता है।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"


*बरेली।।*


मोब ।। 9897071046


                     8218685464


भुवन बिष्ट

**वंदना**


मानवता का दीप जले, 


      प्रभु ऐसा देना वरदान। 


प्रेम भाव का हो उजियारा, 


      नित नित करता मैं गुणगान।। 


प्रभु ऐसा देना वरदान। ..........


 


राग द्वेष की बहे न धारा, 


       हिंसा मुक्त हो जगत हमारा।


सारे जग में भारत अपना, 


       सदा बने यह सबसे प्यारा ।।


पावन धरा में हो खुशहाली, 


        बने सदा यह देश महान।।


प्रभु ऐसा देना वरदान। ........


 


हो न कोई अपराध कभी, 


         वाणी में हो पावनता। 


ऊँच नीच की हो न भावना, 


         जग में फैले मानवता।। 


एक दूजे का हम करें, 


         सदा सदा ही अब सम्मान।।


प्रभु ऐसा देना वरदान। .......   


             ......भुवन बिष्ट 


            रानीखेत(अल्मोडा़)उत्तराखण्ड


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--


 


सूरज सबको बाँट रहा है , किरणो की मुस्कान


कौन है जिसने बंद किये हैं, सारे रौशनदान 


 


आज सवेरे चिड़यों ने भी, गीत ख़ुशी के गाये 


तोड़ गया फिर एक शिकारी ,अपना तीर कमान


 


हमने गीत सदा गाये हैं, सत्य अहिंसा प्यार के 


देख के हमको हो जाता है,दुश्मन भी हैरान


 


भूल भी जाओ अब तो भाई, बरगद की चौपाल


अपने अपने अहम में गुम है,अब तो हर इंसान


 


देख के हैरत होती है इंसानों की मजबूरी 


दो रोटी की खातिर क्या क्या,करता है इंसान


 


मैं मुफ़लिस हूँ जेब है खाली ,मँहगा है बाज़ार 


कैसे अब त्यौहार मनाऊँ ,मुश्किल में है जान


 


आज दुशासन दुर्योधन कर्ण तुम्हारी खैर नहीं


अर्जुन ने अब तान लिया है ,अपना तीर कमान


 


सोच रहा हूँ चेहरे की हर सिलवट को धो डालूँ


बच्चों को अब होने लगी है सुख-दुख की पहचान


 


*साग़र* फूलों की ख़ुशबू के , चरचे दिल में रखिये


घेर लिये हैं कागज़ वाले फूलो ने गुलदान


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


फेलुन×7


डॉ0हरि नाथ मिश्र

*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-29


केहि बिधि उदधि पार सब जाई।


कह रघिनाथ बतावउ भाई।।


     सागर भरा बिबिध जल जीवहिं।


     गिरि सम उच्च उरमिं तट भेवहिं।।


प्रभु तव सायक बहु गुन आगर।


सोखि सकत छन कोटिक सागर।


    तदपि नीति कै अह अस कहना।


    सिंधु-बिनय श्रेष्ठ अह करना।।


जलधि होय तव कुल-गुरु नाथा।


तासु बिनय झुकाइ निज माथा।


      पार होंहिं सभ सिंधु अपारा।


      कह लंकापति प्रकटि बिचारा।।


तब प्रभु कह मत तोर सटीका।


पर लागै नहिं लछिमन ठीका।।


     लछिमन कह नहिं दैव भरोसा।


      अबहिं तुष्ट कब करिहैं रोषा।।


निज महिमा-बल सोखहु सागर।


नाघहिं गिरि पंगुहिं तुम्ह पाकर।।


     दैव-दैव जग कायर-बचना।।


      अस नहिं सोहै प्रभु तव रसना।।


राम कहे सुनु लछिमन भाई।


होहि उहइ जे तव मन भाई।।


      जाइ प्रनाम कीन्ह प्रभु सागर।


      बैठे तटहिं चटाइ बिछाकर।।


पठए रहा दूत तब रावन।


जब तहँ रहा बिभीषन-आवन।


     कपट रूप कपि धरि सभ उहवाँ।


      खूब बखानहिं प्रभु-गुन तहवाँ।।


तब पहिचानि तिनहिं कपि सबहीं।


लाए बान्हि कपीसहिं पहहीं ।।


     कह सुग्रीवा काटहु काना।


     काटि नासिका इनहिं पठाना।।


अस सुनि कहे दूत रिपु मिलकर।


करहु कृपा राम प्रभु हमपर।।


     तब तहँ धाइ क पहुँचे लछिमन।


     बिहँसि छुड़ाइ कहे अस तिन्हसन।।


जाइ कहउ रावन कुल-घाती।


मोर सनेस देहु इह पाती।।


     सीय भेजि तुरतै इहँ आवै।


      नहिं त तासु प्रान अब जावै।


दोहा-अस सनेस लइ दूत सभ,किन्ह लखनहीं प्रनाम।


        पहुँचे रावन-लंक महँ,बरनत प्रभु-गुन नाम।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


डॉ०रामबली मिश्र

*नशीला*


प्रेम इतना नशीला पता था नहीं।


प्रेम कितना नशीला पता था नहीं??


प्रेम को देख बेहोश हो गिर पड़ा।


हम पड़े हैं कहाँ कुछ पता ही नहीं।


देख कर यह दशा प्रेम भावुक हुआ।


बोला, अब तुम स्वयं को जलाना नहीं।


आओ पकड़ो भुजायें रहो पास में।


दिल पर रख हाथ खुद को बुझाना नहीं।


हम बसे हैं तुम्हारे हृदय में सदा।


अपने मन को मलिन तुम बनाना नहीं।


जो कमी हो कहो पूरी होगी सहज।


अपने दिल को कभी तुम सुलाना नहीं।


जिंदादिल बनकर रहना सदा सीख लो।


अपने दिल को कभी तुम सताना नहीं।


प्रेम को देखकर खुश रहो सर्वदा।


दुःख के आँसू कभी तुम बहाना नहीं।


प्रेम निर्भय निराकार ओंकार है।


हाड़-मज्जा के मंजर पर जाना नहीं।


प्रेम यमदूत होता नहीं है कभी।


प्रेम को देख नजरें चुराना नहीं।


 


प्रेम है स्वच्छ पावन सदा पीरहर।


प्रेम को देखकर धैर्य खोना नहीं ।


भाग्य से प्रेम मिलता जगत में समझ।


प्रेम पाया अगर चाहिये कुछ नहीं।


प्रेम पर्याप्त है जिंदगी के लिये।


प्रेम से है बड़ा जग में कुछ भी नहीं।


 


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0हरि नाथ मिश्र

गीत(16/16)


जब भी कविता लिखने बैठूँ,


लिख जाता है नाम तुम्हारा।


इसी तरह नित पहुँचा करता,


तुझ तक प्रिये प्रणाम हमारा।।


     लिख जाता है नाम तुम्हारा।।


 


अक्षर-अक्षर वास तुम्हारा,


घुली हुई हो तुम साँसों में।


रोम-रोम में रची-बसी तुम,


सदा ही रहती विश्वासों में।


जब डूबे मन भाव-सिंधु में-


मसि बनकर तुम बनी सहारा।।


    लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


 


हवा बहे ले महक तुम्हारी,


कलियाँ खिलतीं वन-उपवन में।


तेरी ले सौगंध भ्रमर भी,


रहता रस पीता गुलशन में।


हाव-भाव सब हमें बताती-


बहती सरिता-चंचल धारा।।


    लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


 


तेरा प्रेमी कवि-हृदयी है,


पंछी में भी तुमको पाता।


चंचल लोचन हर हिरनी का,


इसी लिए तो उसको भाता।


चंदा की शीतल किरणें भी-


भेद बतातीं तेरा सारा।।


     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


 


तुम्हीं छंद हो सुर-लय तुमहीं,


तुम्हीं हो कविता का आधार।


जहाँ लेखनी मेरी भटके,


तुम्हीं हो करती सदा सुधार।


संकेतों की भाषा तुमहीं-


भाव-सिंधु का प्रबल किनारा।।


     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


   


भाव-सिंधु में बनकर नौका,


पार कराती तुम सागर को।


कविता-मुक्ता मुझको देकर,


उजला करती रजनी-घर को।


तेरी छवि दे शब्द सलोने-


चमकें जैसे गगन-सितारा।।


     लिख उठता है नाम तुम्हारा।।


             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                 9919446372


डॉ०रामबली मिश्र

*मिश्रा कविराय की कुण्डलिया*


 


चलो साथ चलते रहो, हो सुंदर संवाद।


लेकर अंतिम श्वांस को, हों सब खत्म विवाद।।


हों सब खत्म विवाद, न मन में हो कुछ शंका।


रहें प्रेम से लोग, बजे अब सुख का डंका।।


 


कह मिश्रा कविराय, मनुजता के वश रह लो।


करते सबसे प्रेम, राह पकड़ इक चल चलो।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--


 


किया उसने कभी नखरा नहीं था


मज़ा यूँ इश्क़ में आता नहीं था 


 


बला का सब्र था आदत में उसकी


शिकायत वो कभी करता नहीं था 


 


लगा मेले में भी यह दिल न आखिर


वहाँ जो दिलरुबा मेरा नहीं था 


 


मैं करता प्यार का इज़हार कैसे


वो इतना पास भी आया नहीं था


 


इसी से मुश्किलें आती थीं हरदम


वो अपनी बात पर रुकता नहीं था


 


गये थे हम उसी में डूबने को


*समुंदर वो मगर गहरा नहीं था*


 


खुले दिल से मिले दोनों ही *साग़र*


किसी का भी वहाँ पहरा नहीं था 


 


🖋️विनय साग़र जायसवाल


23/11/2020


डॉ०रामबली मिश्र

*माँ चरणों में...*


 


मिले चरण रज माँ का केवल।


माँ ही एक मात्र हैं संबल।।


 


कृपदायिनी माँ हैं जिस पर।


खुश रहता सारा जग उस पर।।


 


माँ का आशीर्वाद चाहिये।


जीवन शुभ आजाद चाहिये।।


 


माँ आ जाओ बैठ हंस पर।


दे माँ विद्या का उत्तम वर।।


 


सद्विविवेक दो आत्म ज्ञान दो।


सहनशील संकोच मान दो।।


 


पुस्तक लिखने की शिक्षा दो।


बुद्धिपूर्णता की भिक्षा दो ।।


 


करुणामृत रसपान करा माँ।


गंगा बन जलपान करा माँ।।


 


मन को सात्विक सहज बनाओ।


अपने शिशु को गले लगाओ।।


 


उतरो स्वर्ग लोक से माता।


आनंदी!हे प्रेम विधाता!!


 


प्रेम पंथ का पाठ पढ़ाओ।


श्रीमद्भगवद्गीता गाओ।।


 


कर्म योग का मर्म बताओ।


आत्मतोष की राह दिखाओ।।


 


सत्य-अहिंसा की हो चर्चा।


डालें मानवता का पर्चा।।


 


राग-द्वेष से ऊपर उठकर।


करें सभी से बातें सुंदर।।


 


शीघ्र मोहिनी मंत्र सिखाओ।


सारे जग को मित्र बनाओ।।


 


रहे क्रूरता नहीं जगत में।


सदा मित्रता भाव स्वगत में।।


 


जय जय जय जय जय जय माता।


मातृ अमृता!बन सुखदाता।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


कालिका प्रसाद सेमवाल

*नन्ही चिड़िया*


*************


घास- फूस का नीड़ बनाकर,


मेरे घर में रहती चिड़िया,


दिन में दाना चुगती चिड़िया,


रात में घर आ जाती चिड़िया।


 


घर में रौनक़ लायी चिड़िया,


बहुत प्यारी लगती चिड़िया,


बहुत सबेरे चीं चीं करती,


हम सब को जगाती चिड़िया।


 


 चिड़िया जब खुश हो जाती है,


उसी नीड़ पर अण्डे देती ,


अण्डे से जब बच्चे बनते ,


 पालन पोषण करती चिड़िया।


 


दिन में दाना लाती है चिड़िया,


बच्चों को खिलाती चिड़िया,


 जब वह उडने वाले होते,


अपने साथ उड़ाती चिड़िया।


 


चीं चीं करके जब उड़ते है,


खुशी के गीत गाती है चिड़िया,


दूर गगन में उड़ जाती चिड़िया,


 रात को नीड़ पर आ जाती चिड़िया।।


******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


निशा अतुल्य

सरस्वती काव्यकृतां महीयताम्


 


शिव शंकर भोले भंडारी 


महिमा तेरी है अति प्यारी


सकल जगत को तुम हर्षाते


छवि अलौकिक मन में समाते ।


 


क्षीर-मंथन हुआ सृष्टि का


निकले अद्भुध रत्न संपदा 


गरल निकल जब बाहर आया


त्राहि त्राहि सब ओर मचाया ।


शिव शंकर भोले भंडारी 


महिमा तेरी है अति प्यारी ।


 


हाहाकार मचाया विष जब


सूनी लगती सकल धरा तब


शंकर तो कैलाश विराजे


चले देव दानव तब प्यासे ।


शिव शंकर भोले भंडारी 


महिमा तेरी है अति प्यारी ।


 


रोक लिया प्रभु गरल कंठ जब 


कहलाये प्रभु नीलकंठ तब ।


आशुतोष सिर गंगा मोहे


कंकण नाग हार गल सोहे 


शिव शंकर भोले भंडारी 


महिमा तेरी है अति प्यारी ।


 


माँ गौरी वामांग विराजे


वर मुद्रा धार सृष्टि तारे 


मात पिता पूजन कर गणपति


प्रथम पूज्य वर पाइ सम्मति ।


शिव शंकर भोले भंडारी 


महिमा तेरी है अति प्यारी।


 


जय जय जो एक दंत मनाते


विघ्नहर्ता विघ्न हर जाते


रिद्धि सिद्धि सँग देवा आते


शंकर गौरी पुत्र कहलाते ।


शिव शंकर भोले भंडारी 


महिमा तेरी है अति प्यारी ।


 


स्वरचित


निशा अतुल्य


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(भ्रमर-16/14)


बेमौसम घेरे हैं बादल,


गरजें देखो घहर-घहर।


हवा है बहती सर-सर,सर-सर,


पानी बरसे झर-झर-झर।


छोड़ कली को भागो झट-पट-


मेरे प्यारे मीत भ्रमर!!


 


सुनो मीत हे प्रेम-दिवाने,


ग़फ़लत में मत रहना तुम।


मौसम का है नहीं भरोसा,


कभी सरद तो कभी गरम।


जाओ मग़र लौट फिर आना-


इसकी रखना सदा ख़बर।।


        मेरे प्यारे मीत भ्रमर।।


 


सच्चे प्रेमी खाकर कसमें,


वादे सदा निभाते हैं।


मौसम की वे मार भी सहते,


कभी नहीं घबराते हैं।


भले रहें वे दूर कहीं भी-


रखें प्यार पे भली नज़र।।


मेरे प्यारे मीत भ्रमर ।।


 


सुख-दुख तो हैं आते-जाते,


जीवन की इस यात्रा में।


मिलते फूल कभी तो मिलते,


काँटे थोड़ी मात्रा में।


कभी तो मिलतीं समतल राहें-


ऊभड़-खाभड़ कभी डगर।।


        मेरे प्यारे मीत भ्रमर।।


 


कहाँ चंद्रमा पूनम का है,


कहाँ समुंदर की धारा।


दूर गाँव के वासी दोनों,


अवनि-गगन- मिलन नज़ारा।


अमर प्रेम की अमर कहानी-


है जग में सबसे बढ़कर।।


    मेरे प्यारे मीत भ्रमर।।


 


भ्रमर-कली का प्रेम प्राकृतिक,


कभी नहीं बंधन टूटे।।    


जब तक गंग-जमुन-जलधारा,


रहे साथ बरु जग छूटे।


शारीरिक अलगाव सुनिश्चित-


किंतु प्रेम जग रहे ठहर।।


    मेरे प्यारे मीत भ्रमर।।


              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                  9919446372


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