विधाता की कैसी यह लीला
कौन हूं मैं और कहां से आया
किसने सारी सृष्टि रचाया
जीवन भर यह भरम, मिट न पाया
विधाता की कैसी यह लीला है
चौबीस तत्वों से संसार बना हैं
षट विकार वाला यह जग हैं
इस नाटक को सत्य समझकर
मानव अपना रूप भुलाया
विधाता की कैसी यह लीला है
यह संसार फूल सेमर सा
सुंदर देख लुभायों
चाखन लाग्यो रूई उड़ गई
हाथ कुछ नहीं आयो
विधाता की कैसी यह लीला है
मुझे अपना जीवन बनाना न आया
रूठे हरि को मनाना न आया
भटकती रही दुनिया वालों के दर पर
रही पाप ढोती मै,सारी उमर भर
विधाता की कैसी यह लीला है
फूलों सा हंसना नहीं सीखा
भंवरो सा नहीं सीखा गुनगुनाना
सूरज की किरणों से नहीं सीखा
जगना और जगाना
विधाता की कैसी यह लीला है
सत्यवादी राजा हरिशचंद्र जैसे दानी
काशी में बिक गये दोनों प्राणी
जिसे भरना पड़ा नीच घर पानी
विधाता की कैसी यह लीला है
नूतन लाल साहू