डॉ0हरि नाथ मिश्र

बाल-गीत


चुन्नू-मुन्नू दौड़े आओ,


बैठ धूप में मौज उड़ाओ।


सूरज बाबा देख उगे हैं,


लख के उल्लू इन्हें भगे हैं।।


 


चंदा मामा भागे मिलने,


मामी के सँग बातें करने।


तारे दीपक रात जलाएँ,


नाचें-गाएँ मौज मनाएँ।।


 


अब आई है दिन की बारी,


धूप खिली है प्यारी-प्यारी।


देखो मम्मी तुम्हें पुकारे,


रंग-विरंगे ले गुब्बारे ।।


 


बगल बाग में बंदर कूदें,


खेल-खेल में आँखें मूँदें।


इनसे बचकर रहना बच्चे,


बंदर कभी न मन के सच्चे।।


 


खेल-कूद कर खाना खाना,


खाना खा कर पढ़ने जाना।


पढ़-लिख कर तुम साहब बनना,


बन साहब जन-सेवा करना।।


 


सदा सत्य की राह पकड़ना,


कभी किसी से नहीं झगड़ना।


रहो देखते ऊँचे सपने,


सच्चे सपने होते अपने ।।


        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


            9919446372


एस के कपूर श्री हंस

*रचना शीर्षक।।*


*वही आता है जीत कर जो खुद*


*पर एतबार करता है।।*


 


खुशियों को ढूंढने वाले धूल


में भी ढूंढ लेते हैं।


ढूंढने वाले तो काँटों के बीच


फूल को ढूंढ लेते हैं।।


दर्द को भी बनाने वाले बना


लेते हैं जैसे कोई दवा।


ढूंढने वाले तो खुशियों को


शूल में भी ढूंढ लेते हैं।।


 


फूल बन कर बस मुस्कराना


सीख लो जिंदगानी में।


दर्दो गम में भी मत रुको तुम


इस मुश्किल रवानी में।।


हार को भी स्वीकार करो तुम


इक जीत की तरह।


यही तो फलसफा छिपा इस


जीवन की कहानी में।।


 


जीतता तो वो ही जो कोशिश


हज़ार करता है।


वो हार जाता जो शिकायत


बार बार करता है।।


हार भी बदल जाती है जीत में


हमारे हौंसलों से।


वहजीतकर जरूरआता जो खुद


पर एतबार करता है।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर " श्री हंस*"


*बरेली।।*


मोब।। 9897071046


                       8218685464


नूतन लाल साहू

विधाता की कैसी यह लीला


 


कौन हूं मैं और कहां से आया


किसने सारी सृष्टि रचाया


जीवन भर यह भरम, मिट न पाया


विधाता की कैसी यह लीला है


चौबीस तत्वों से संसार बना हैं


षट विकार वाला यह जग हैं


इस नाटक को सत्य समझकर


मानव अपना रूप भुलाया


विधाता की कैसी यह लीला है


यह संसार फूल सेमर सा


सुंदर देख लुभायों


चाखन लाग्यो रूई उड़ गई


हाथ कुछ नहीं आयो


विधाता की कैसी यह लीला है


मुझे अपना जीवन बनाना न आया


रूठे हरि को मनाना न आया


भटकती रही दुनिया वालों के दर पर


रही पाप ढोती मै,सारी उमर भर


विधाता की कैसी यह लीला है


फूलों सा हंसना नहीं सीखा


भंवरो सा नहीं सीखा गुनगुनाना


सूरज की किरणों से नहीं सीखा


जगना और जगाना


विधाता की कैसी यह लीला है


सत्यवादी राजा हरिशचंद्र जैसे दानी


काशी में बिक गये दोनों प्राणी


जिसे भरना पड़ा नीच घर पानी


विधाता की कैसी यह लीला है


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

😌 लेख विधाता, टरे न टारे 😌


 


जीवन भर संघर्ष किया है।


  घूॅ॑ट ज़हर का सदा पिया है।


    किसको दोष कहो दें भाई।


      किस्मत ही है ऐसी पाई।


 


कर्म किया फल हाथ न आया।


  जाने कैसे प्रभु की माया।


    खोदा कूप बहुत ही गहरा, 


      पानी लेकिन बूंद न पाया।


 


प्यासा मन,तन भी है प्यासा।


  पूरी हुई नहीं अभिलाषा।


    किए प्रयास ख़ास बहुतेरे,


      हाथ लगी तो महज निराशा।


 


अश्रु भरे हैं नैन हमारे।


  लेख विधाता टरे न टारे।


    जीवन व्यर्थ हुआ सच मानो,


      अब भी गर्दिश में है तारे।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-32


तब सुक-दूत कहेसि दसकंधर।


नाथ क्रोध तजि भजहु निरंतर।।


     राम-नाम-महिमा बड़ भारी।


     रामहिं भजै त होय सुखारी।।


त्यागि सत्रुता अरु अभिमाना।


करउ जुगत कोउ सिय लौटाना।।


     सुनि अस बचन क्रुद्ध तब रावन।


      मारा लात सुकहिं तहँ धावन।।


तब सुक-दूत राम पहँ गयऊ।


करि प्रनाम राम सन कहऊ।।


     रामहिं तासु कीन्ह कल्याना।


     अगस्ति-साप तें मुक्ती पाना।।


तजि राच्छस पुनि सुक मुनि रूपा।


गे निज आश्रम ऋषी स्वरूपा।।


    लखि तब राम सिंधु-जड़ताई।


    क्रोधित हो तुरतै रघुराई।।


बासर तीन गयउ अब बीता।


मानै नहिं यह मूर्ख अभीता।।


     लछिमन लाउ देहु धनु-बाना।


      सोखब दुष्ट अग्नि-संधाना।।


बंजर-भूमि पौध नहिं उगहीं।


माया-रत-मन ग्यान न लहहीं।।


    लोभी-मन बिराग नहिं भावै।


     नहिं कामिहिं हरि-कथा सुहावै।।


भल सुभाव नहिं भावै क्रोधी।


मूरख मीतहिं सदा बिरोधी।।


    केला फरै नहीं बिनु काटे।


     नवै न नीच कबहुँ बिनु डाँटे।।


     अस कहि राम कीन्ह संधाना।


      अंतर जलधि पयोनिधि पाना।।


बहुत बिकल जल-चर सभ भयऊ।


मछरी-मगर-साँप जे रहऊ ।।


दोहा-देखि बिकल सभ जलचरन्ह,बिप्रहिं-रूप पयोधि।


         कनक-थार महँ मनि लई, किया तुरत अनुरोध।।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


रवि रश्मि अनुभूति

सही - सही माँ राह दिखाती , 


      पूजी जाती माँ।


माँ का हर पल सम्मान करो , 


     देखे हर पल माँ ।।


 


माँ का देवी का दर्जा है , 


      करते हम पूजा । 


 


माँ की ममता है वट वृक्ष - सी ,   


      माँ ही सरमाया ।।


सारे संकट माँ हरती है , 


      माँ शीतल छाया ।।


 


निस्वार्थ भाव सेवा करती , 


     माँ बड़ी पुजारी ।


सब दुख हरने वाली माँ है , 


      माँ बड़ा दुलारी ।। 


 


संबल बन बच्चों का वह तो , 


      संस्कार सिखाती ।


निराशा से गिरते देख माँ, 


      उम्मीद बन जाती ।।


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


      मुंबई ( महाराष्ट्र ) ।


कालिका प्रसाद सेमवाल

*मां सरस्वती सद्गुण से भर दो*


********************


विद्या वाणी की देवी मां सरस्वती


मुझ पर मां तुम उपकार करो,


बनूं परोपकारी व करुं मानव सेवा,


मेरे अन्दर ऐसा विश्वास भरो,


और जीवन में उत्साह भर दो।


 


मां जला दो ज्ञान का दीपक, 


अवगुणों को खत्म कर दो,


करुणा से हृदय को भर दो,


चुन चुन कर सद् गुण के मोती


 मां मेरी झोली में तुम भर दो ।


 


मां लेखनी में धार दे दो,


और वाणी में मधुरता दो,


भाव सरस अभिव्यक्ति हो,


 जीवन में रस भर दो मां,


मां सरस्वती सद्गुण से भर दो।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड।


डॉ० रामकुमार

शीर्षकः आस्तीन के साँप 


 


आस्तीन के साँप बहुतेरे,


पलते हैं राष्ट्र परिवेश में। 


सत्ता भोग मुक्त मदमाते,


विद्रोही घातक बन देश में। 


 


ख़ोद रहे वे ख़ुद वजू़द को,


कुलघातक शत्रु खलवेष में।


भूले भक्ति स्वराष्ट्र प्रेम को,


गलहार चीनी नापाक में।  


 


राष्ट्र गात्र को नोच रहे वे,


सदा खल कामी मदहोश में।


नफ़रत द्वेष आग फैलाते,  


मौत जहर खेल आगोश में।


 


लहुलूहान स्वयं ज़मीर वे, 


लालच प्रपंच और द्वेष में।


वतन विरोधी बद ज़ुबान वे,


बेचा ईमान अरमान में।


 


ध्वजा राष्ट्र अपमान करे वे,


नापाकी चीन सम्मान में।


शर्माते जय हिन्द कथन में,


गद्दारी वतन अपमान में। 


 


देश विरोधी चालें चलते,


मदद माँगते चीन पाक में।


बने आस्तीन के भुजंग वे,


उफ़नाते फुफ़कारी देश में। 


 


हँसी उड़ाते हर शहीद के,


जो बलिदान राष्ट्र सम्मान में।


रनिवासर सीमान्त डँटे जो,


बने भारत रक्षक आन में। 


 


नारी के सम्मान तौलते,


दे मज़हबी रंग समाज में।


झूठ फ़रेबी धर्म बदल वे,


फँसी बेटी प्रेमी जाल में।


 


जहाँ आस्तीन का साँप पले,


समझो विनाश उस देश में।


कुचलो फन उस देश द्रोह के,


तभी प्रगति सुख शान्ति वतन में।


 


शुष्क घाव नासूर बने वे,


फ़ैल दहशत द्रोही वेश में।


शत्रु हो विध्वंश समूल वे,


खुशी समरसता हो भारत में।


 


रचनाः मौलिक ( स्वरचित)


डॉ० रामकुमार निकुंज


सुनीता असीम

बोहोत हुई कान्हा अब मनमानी है।


अपने दिल की तुझको टीस दिखानी है।


*****


दिल में मेरे बंशी बजती तेरी हरदम।


कह दे तेरी मेरी ये प्रीत पुरानी है।


*****


माना मैंने मनमोहक चितवन तेरी।


छलती मेरे जी को और सुहानी है।


*****


तैयार करो खुद को सांवरिया मेरे।


डोली मेरी तुमको सिर्फ उठानी हो


*****


लब पर तेरे मुस्कान अनोखी देखी।


उससे ही तो मन में जोत जगानी है।


******


सुनीता असीम


डॉ०रामबली मिश्र

*उत्कृष्ट सृजन*


 


अति उत्कृष्ट सृजन तब होता।


 मन निर्मल सुंदर जब होता।।


 


 


मन में पाप भरा यदि होगा।


कभी न मधुरिम शव्द बहेगा।।


 


टेढ़ा-मेढ़ा भले सृजन हो।


पर केवट का प्रेम वचन हो।।


 


अगर इरादा सुंदर नीका।


दीपक होगा गो के घी का।।


 


पावन उर में शुभ रचना है।


निकलत सतत अमी वचना है।।


 


अति उत्कृष्ट सृजन ही जीवन।


बिना सृजन जड़वत है तन-मन।।


 


रचो धाम नित शरणार्थी को।


गढ़ते रहना विद्यार्थी को।।


 


सृजनकार बन रच जगती को।


दो साहित्य सतत धरती को।।


 


हो कटिवद्ध रचो मानव को।


ले लाठी मारो दानव को।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ०रामबली मिश्र

*दिल में...*


 


दिल में आ कर लौट न जाना।


करना मत तुम कभी बहाना।।


 


मृतक बनाकर कभी न जाना।


जहर पिलाकर भाग न जाना।।


 


तन-मन-उर खेलवाड़ नहीं हैं।


किन्तु बिना तुम प्राण नहीं है।।


 


कोमल दिल भावुक अति मधुमय।


इसका नर्म भाव प्रिय शिवमय।।


 


जगत हितैषी शुभवादी है ।


मधुर वचन अमृतवादी है।।


 


जख्मी इसे कभी मत करना।


क्रूर वचन इसको मत कहना।।


 


कटु वाणी सुन मर जायेगा।


नक्कारों से डर जायेगा।।


 


नहीं भूलकर इसे सताना।


अपना मधुकर मीत बनाना।।


 


कर सकते हो तो है अच्छा।


लेना मत तुम कभी परीक्षा।।


 


प्रियवर हो तो साथ निभाओ।


दिलवर बनकर दिल में आओ।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


सुषमा दीक्षित शुक्ला

गंगा मइया लोक गीत


दिनांक 28,11,20


 


अमृत है तेरा निर्मल जल


 हे! पावन गंगा मइया ।


 हम सब तेरे बालक हैं


 तुम हमरी गंगा मइया।


 मां सब के पाप मिटा दो 


हे! पापनाशिनी मइया ।


 अब सारे क्लेश मिटा दो


 हे! पतित पावनी मइया ।


 भागीरथ के तप बल से


 तुम आई धरणि पर मइया।


 शिवशंकर के जटा जूट से 


 प्रगट हुई थी मइया ।


 हे !जान्हवी हे! मोक्षदायिनी 


अब पार लगा दो नइया।


सगरसुतों को तारण वाली


 भव पार लगा दो मइया ।


इस धरती पर खुशहाली 


 तुमसे ही गंगे मइया।


 आंचल तेरे जीना मरना 


  हम सबका होवे मइया।


 मां शरण तुम्हारी आयी 


हे! मुक्तिदायिनी मइया ।


हम सब तेरे बालक हैं 


तुम हमरी गंगा मइया।


 


सुषमा दीक्षित शुक्ला लखनऊ


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*ग़ज़ल*


        *ग़ज़ल*


एक भी गम न दिल से लगाया करो,


तुम हमेशा ही यूँ, मुस्कुराया करो।।


 


रात की तीरगी जब सताने लगे,


प्यारे चंदा को अपने बुलाया करो।।


 


प्यार छुपता नहीं जानते हैं सभी,


प्यार की बातों को मत छुपाया करो।।


 


तिश्नगी प्यार की जब सताने लगे,


नीर काली घटा से बहाया करो।।


 


ज़हनो-दिल तक पहुँचती है यह रोशनी,


प्यार की ज्योति हरदम जलाया करो।।


 


ज़िंदगी का सफ़र यूँ सुहाना रहे,


साथ में रह के वादा निभाया करो।।


 


अस्ल में मुस्कुराना ही है ज़िंदगी,


मुस्कुरा कर हमें भी जिलाया करो।।


 


ज़रा हँस के जी लें सभी कुछ ही पल,


दास्ताँ कोई ऐसी सुनाया करो ।।


                ©डॉ. हरि नाथ मिश्र


                    9919446372


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण(श्रीरामचरितबखान)-31


 


भालू-मरकट सब बलवाना।


तिन्ह पे कृपा राम भगवाना।।


     सकत जीति सभ कोटिक रावन।


     जदपि सेन तव नाथ भयावन।।


राम-तेज-बल-बुद्धि-खजाना।


करि नहिं सकहिं सेष अपि नाना।।


     एकहि राम-बान सत-सागर।


     सोखि करै जस राम उजागर।।


करिहउँ पार केहि बिधि ताता।


पूछे राम बिभीषन भ्राता।।


       सुनत बिचार बिभीषन रामा।


       सिंधु क बिनय कीन्ह बलधामा।।


सुनि तब बिहँसि कहा दससीषा।


यहि तें ले सहाय रिपु कीसा।।


       सिंधु-कृपा माँगै रिपु मोरा।


        करु न बखान सुनब नहिं छोरा।।


रिपु-बल-थाह मिला सभ हमका।


जीति न सकै तपस हम सबका।।


     सुनि अस मूढ़ बचन रावन कै।


      दूत दीन्ह तेहिं पत्र लखन कै।।


दोहा-पत्र लिखा सुनु रावनहि,देहु सीय लौटाय।


        नहिं त नास तव कुल सहित,जदपि त्रिदेव सहाय।।


        पढ़ि अस लेख दसाननय,क्रोधित मन लइ आस।


         कह,चाहै महि लेटि के,मूरख छुवन अकास।।


                        डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


डॉ०रामबली मिश्र

*सुखद संवाद (तिकोनिया छंद)*


 


सुंदर बनकर,


मोहक कहकर।


हाथ जोड़कर।।


 


प्रेम स्वयंवर,


गलबहियाँ कर।


बोलो सुंदर।।


 


हँसकर मिलकर,


साथ चलाकर।


बाँह पकड़कर।।


 


हाथ मिलाकर,


साथ निभाकर।


घर पर जा कर।।


 


मीठी वाणी,


जनकल्याणी।


उत्तम प्राणी।।


 


उर हो पावन,


शुभ मनभावन।


सुंदर भावन।।


 


प्रेम किया कर,


सहज निरन्तर।


शुचि अभ्यंतर।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


राजेंद्र रायपुरी

*सार छंद पर कुछ राज्यों की तस्वीर*


 


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*बिहार*


    छतन्नपकैया- छन्नपकैया, 


                     नेताजी बेचारे।


    बैठ न पाए पल भर कुर्सी,


                    निज़ कर्मों के मारे।


 


    छन्नपकैया-छन्नपकैया, 


                    चैन कहाॅ॑ है भाई।


    पड़े जेल में फिर भी करते,


                    नेताजी अगुवाई।


 


*छत्तीसगढ़*


    छन्नपकैया-छन्नपकैया,


                 इनका हर दिन रोना।


    थाली हमनें माॅ॑गी थी पर,


                  मिला देख लो दोना।


 


*पश्चिम बंगाल*


    छन्नपकैया-छन्नपकैया, 


                     दीदी हैं बौराई।


    मोटा भाई ने वोटों में, 


                   जब से सेंध लगाई।


 


*जम्मू-कश्मीर*


    छन्नपकैया-छन्नपकैया, 


                   देखो - देखो भाई।


    चूहे-बिल्ली एक हो गए,


                 छिन जब गई मलाई।


 


*उत्तर प्रदेश*


    छन्नपकैया-छन्नपकैया,


                   लिखने नई कहानी।


    भिड़े हुए हैं नाम बदलने


                     लेकर दाना-पानी।


 


*मध्य प्रदेश*


    छन्नपकैया-छन्नपकैया,


                   आए फिर से मामा।


    कंप्यूटर को तोड़-फोड़ कर, 


                   खड़ा किया हंगामा।


 


*महाराष्ट्र*


    छन्नपकैया-छन्नपकैया,


                कर-कर ताता-थइया।


    नाच रहे हैं सखा कृष्ण के,


                    कहतीं जैसे मइया। 


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


नूतन लाल साहू

इत्तेफाक


 


सजग नयन से तूने देखा


रवि का रथ चढ़कर आना


धीमी संध्या की गति देखी


तूने अपने इसी नयनों से


झूम झूम बल खाती हंवा


खेलती हैं हर डाल से


यह शून्य से होकर प्रकट हुआ


पर महज इत्तेफाक नहीं है


कौन तपस्या करके कोकिल


इतना सुमधुर सुर पाया


पर ऐसा क्या घटित हुआ


काली कर डाली काया


निशदिन मधुर संदेश देती


यह खेलती हर डाल से


उठता है प्रश्न बार बार


पर महज इत्तेफाक नहीं है


जिस निश्चय से अर्द्ध रात्रि में


गौतम निकले थे घर से


देख उन्होंने कोई तरु सूखा


द्रवित हुई होगी मन में


दिन कितने राते भी कितनी


बीती होगी चिंतन में


घोर तपस्या करके उन्होंने


लीन किया होगा मन को


ऋषियों की पावन वाणी


गूंजी होगी कण कण में


उठता है प्रश्न बार बार


पर महज इत्तेफाक नहीं है


नूतन लाल साहू


डॉ0 निर्मला शर्मा

गिरवी है ईमान


 


भ्रष्टाचार की 


बनी नगरिया


देखूँ मैं हैरान


 


आज पतित


मानव का देखो


गिरवी है ईमान


 


सतरंगी दुनिया


की चाहत मैं


गलत करे वो काम


 


कम आमदनी


रोडा बनती


गली निकाले जान


 


रिश्वत का


इंतजाम करे वो


अपनी जरूरत मान


 


सागर से


लोटा भरने की


बात करे वो आम


 


बहुमूल्य 


दामों वाला वो


बेचे दिन ईमान


 


लालच मैं अंधा


होकर वह करता


कुमति के काम


 


खोदे गड्ढा औरों


को पर गिरता


औंधे मुँह आप।


 


डॉ0 निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


कालिका प्रसाद सेमवाल

*एक बार तुम फिर से जागो*


★★★★★★★★★★


एक बार तुम फिर से जागो,


प्रेम की गंगा पुनः बहाओ,


दूसरों के लिये रोड़े न बनो,


संवेदनशीलता कहाँ खो गई,


सुन्दरता तेरी कहां छुप गई,


संघर्षशीलता कहां गायब हो गई,


ममता ,स्नेह अब कम दिख रही,


 एक बार तुम फिर से जागो।


 


धैर्य को तुम त्याग न करो,


सहनशीलता कभी न छोड़ना,


सजगता तुम अपनाये रखना,


 व्यवहार में बनावटी पन ना लाना,


क्रोध पर अपना नियन्त्रण रखना,


सबको मित्र बना कर रखना,


अपना जीवन मधुर बनाओ,


एक बार तुम फिर से जागो,


 


कठिनाइयों का मुकाबला करो,


ईर्ष्या का भाव कभी न रखना


सब पर अपना स्नेह बरसाओ,


सबके लिये मंगल गान 


गाओ ,


गरीबो का सहयोग करना,


घंमड को चकमाचूर करो ,


सबके सहयोगी बन कर रहना,


एक बार तुम फिर से जागो,


★★★★★★★★★★


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ०रामबली मिश्र

*मिलन समारोह*


 


सजनी-सजन मिलन जब होगा।


जंगल में मंगल तब होगा।।


 


सजनी संग सजन अति हर्षित।


वदन प्रफुल्लित मन आकर्षित।।


 


सकल मनोरथ पूरे होते।


 लगते नहीं अधूरे गोते।।


 


डूब सिंधु में रस टपकत है।


लहरों से लहरें चिपकत हैं।।


 


भँवर सुहावन अतिशय सुंदर ।


इतराता मन डूब समंदर।।


 


यह वैकुंठ लोक सुखदायी।


अति आनंद धाम प्रियदायी।।


 


सजनी-सजन ब्रह्म का डेरा।


चौतरफा है प्रेम घनेरा।।


 


कितना उत्तम प्रेम घरौंदा।


मिलन परस्पर सहज परिंदा।।


 


आशाओं से बना हुआ है।


आकांक्षा में सना हुआ है।।


 


हृदय मिलन का यह बेला है।


प्रेम तरंगों का मेला है।।


 


स्वर्ग तरसता दृश्य देखकर।


अतिशय पावन दिव्य समझकर।।


 


देखो जंगल का यह दंगल।


यहाँ परस्पर प्रीति सुमंगल।।


 


भावों का यह देवालय है।


प्रेम अनोखा प्रिय आलाय है।।


 


प्रेम मिलन में शिवा-महेशा।


वंदन करते देव गणेशा।।


 


सजनी-सजन प्रतीक समाना।


यह जग-बंधन परम सुहाना।।


 


जो प्रतीक को सदा समझता।


सहज भाव से पार उतरता।।


 


सजन बुलाता नित सजनी को।


दिवा बुलाता प्रिय रजनी को।।


 


यह नैसर्गिक सुखद नियम है।


लिंग भेद से विरत स्वयं है।।


 


यह सिद्धांत अकाट्य महाना।


इसे जानते सिद्ध सुजाना।।


 


नर-नारी की जोड़ी जगती।


पटी हुई है सारी धरती।।


 


बनना है यदि सुंदर उत्तम।


भज नर-नारी बन पुरुषोत्तम।।


 


पुरुषोत्तम नारायण सबमें।


भास रहे हैं सारे जग में।।


 


सजनी-सजन जोड़ अति मधुरिम।


सकल सृष्टिमय अनुपम अप्रतिम।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


कालिका प्रसाद सेमवाल

*हे मां वीणा धारणी वरदे*


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हे मां वीणा धारणी वरदे


कला की देवी इस जीवन को


सुन्दरता से सुखमय कर दो


अपने अशीष की छाया से


मेरा जीवन मंगलमय कर दो।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


सरस सुधाकर शुभ वाणी से


अखिल विश्व को आलोकित कर दो


बुद्धि विवेक ज्ञान प्रकाश सबको देकर


सबका जीवन मंगलमय कर दो।


 


हे मां वीणा धारणी वरदे


तेरे चरणों में आकर मां


विश्वास का सम्बल मिलता है


जिस पर भी तुम करुणा करती हो


उसका जीवन धन-धान्य हो जाता है।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनीता असीम

काफिया बिन क्या ग़ज़ल का चाहना।


हुस्न बिन जैसे अधूरा चाहना।


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दिल जिगर से प्यार मत करना कभी।


हद में रहकर ही ज़रा सा चाहना।


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बोलकर केवल बुरा दुखता है दिल।


अर्थ इसका है निराशा चाहना।


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इक सितारा भी नहीं हो बाम पर।


इस तरह की रोशनी क्या चाहना।


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प्यार की आदत नहीं है आपकी।


फिर हसीना को भला क्या चाहना।


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सुनीता असीम


डॉ०रामबली मिश्र

तिकोनिया


 


प्रेम करोगे,


नित्य बढ़ोगे।


प्रगति करोगे।।


 


प्रेमी बनना,


खूब थिरकना।


दिल में बहना।।


 


अपलक बनकर,


नजर मिलाकर।


रच-बस जा कर।।


 


बढ़ो अनवरत,


चढ़ो नित सतत।


रुके रहो रत।।


 


बैठो झाँको,


दिल में ताको।


देख प्रिया को।।


 


देखो मिलकर,


बोल सँभलकर।


नत बनठन कर।।


 


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ०रामबली मिश्र

मिश्रा कविराय की कुण्डलिया


 


मित्र बने ऐसा मनुज, जिसके पावन भाव।


मन से निर्मल विमल हो, डाले सुखद प्रभाव।।


डाले सुखद प्रभाव, न मन में हो कुटिलाई।


नेक सहज इंसन, किसी की नहीं बुराई।।


कह मिश्रा कविराय, जो महकता बनकर इत्र।


ऐसे जन को खोज, बनाओ अपना प्रिय मित्र।।


 


:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0हरि नाथ मिश्र

पंचम चरण (श्रीरामचरितबखान)-30


 


लखि दूतन्ह हँसि कह लंकेसा।


देहु मोंहि तिन्हका संदेसा।


   मिले तिनहिं कि आय बरिआई।


    डरे मोर जस सुनतै भाई ।।


का गति दुष्ट बिभीषन अहही।


कालइ तासु अवसि अब अवही।।


    मम तिन्ह मध्य सिंधु-मृदुलाई।


    रच्छहिं तेहिं दोउ तापस भाई।।


सुनहु नाथ अब बचन कठोरा।


समुझहु बहुत कथन जे थोरा।।


     पाइ बिभीषन राम तुरतही।


      कीन्हा तिलक तासु झटपटही।।


जानि हमहिं क नाथ तव दूता।


लंपट-नीच-पिसाचहि-भूता।।


     काटन लगे कान अरु नासा।


     राम-सपथ पे रुका बिनासा।।


बरनि न जाय राम-सेना-बल।


कोटिक गज-बल सजा सेन-दल।।


     कपि असंख्य बाहु-बल भारी।


     बिकट रूप अतिसय भयकारी।।


जे कपि लंक जरायेसि इहवाँ।


अच्छय मारि जरायेसि बगवाँ।।


     अति लघु रूपइ तहवाँ रहई।


      नहिं बिस्वास उहहि कपि अहई।।


मयंद-नील-नल,दधिमुख-अंगद।


द्विविद-केसरी,बिकटस-सठ-गद।।


      जामवंत-निसठहि-बलरासी।


       रामहिं कृपा पाइ बिस्वासी।।


सभ कपि-बल सुग्रीव समाना।


एक नहीं कोटिक तिन्ह जाना।


      सबपे कृपा राम-बल रहई।


       तिनहिं त्रिलोक त्रिनुहिं सम लगई।।


अस मैं सुना नाथ मम श्रवनन्ह।


पदुम अष्ट-दस सनपति कपिनन्ह।।


      ते सभ बिकल जुद्ध के हेतू।


      जोहहिं आयसु कृपा-निकेतू।।


आयसु पाइ तुरत रघुनाथा।


जीतहिं तुमहिं फोरि रिपु-माथा।।


दोहा-कहत रहे मिलि सभ कपी,रावन मारब लात।


         लातन्ह-घूसन्ह मारि के,लाइब सीते मात।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


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