नूतन लाल साहू

 जीवन में प्रेम ही सार है


बड़े खुश नसीब होते हैं वो

जिनके अहसासो को महसूस करता है कोई

जैसे हमने पाई दुनिया

आओ उससे कुछ बेहतर करे

जल रहा था जिस अग्नि में

जन्म से लेकर निरंतर

पल भर में ही बुझा दी

बूंद आंसू की गिराकर उसने

बड़े खुश नसीब होते हैं वो

जिनके अहसासो को महसूस करता है कोई

जग में कहां कहां न फिरा

दिमाक दिल टटोलते टटोलते

ऐसा कोई इंसान नहीं मिला

जो उम्मीद छोड़कर जिया

कौन कहता है कि स्वप्नों को

न आने दें हृदय में

देखते सब मनुष्य है इन्हे

अपनी उमर में अपने हिसाब से

पर इस बात का है हर्ष कि

बड़े खुश नसीब होते हैं वो

जिनके अहसासो को महसूस करता है कोई

समय दुहराता नहीं यह

स्नेह का उपहार

परहित किसी की प्रतिज्ञा हो तो

सुधामयी बन जाती हैं

जीवन में प्रेम अजर,प्रेम अमर है

मत भूलो ढाई अक्षर के प्रेम को

बड़े खुश नसीब होते हैं वो

जिनके अहसासो को महसूस करता है कोई

नूतन लाल साहू

विनय साग़र जायसवाल

गंगा मय्या पर कुछ दोहे--


गंगा की पावन कथा ,गाते हैं हम आप ।

इसकी पावनता हरे ,कितनों के संताप।।



कितना अनुपम दे गये ,धरती को उपहार ।

भागीरथ ने कर दिया ,हम सब पर उपकार ।।


गंगा माँ पर क्यों नहीं ,हो हमको अभिमान ।

इसके आँचल में छिपा ,जीवन का वरदान ।।


उसको ही दूषित किया ,और दिये संताप ।

जिस माँ के आशीष से, पले बढ़े हम आप ।।


गंगा को मैला किया ,गया कलेजा काँप ।

हम सबकी करतूत पर ,माँ रोती चुपचाप ।।


गंगा निर्मल स्वच्छ हो ,बढ़े राष्ट्र का मान।

साग़र इस कल्याण हित,तेज करो अभियान ।।


🖋विनय साग़र जायसवाल

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *गीत*

      भूख बड़ी या कोरोना

नहीं बहस का मुद्दा है यह,

भूख बड़ी या कोरोना।

छोटा कौन बड़ा है इसमें-

दोनों में रोना-रोना।।


कोरोना की मार भयानक,

संयम से ही रहना है।

भूख निगोड़ी बहुत सताए,

इससे भी तो बचना है।

करें सभी मिल यत्न अनूठा-

अब तज कर रोना-धोना।।


करें कर्म सब अपना-अपना,

थोड़ा दूर-दूर रहकर।

दूरी-संयम हैं निदान बस,

इसका नियमन हो डटकर।

भागे भूख,भगे कोरोना-

नहीं ज़िंदगी को खोना।।


हँसी-खुशी,मिल-जुल कर दोनों,

को ही हमें मिटाना है।

साफ-सफाई,भोजन सादा,

का नियमन अपनाना है।

नए सिरे से नई व्यवस्था-

के हैं बीज अभी बोना।।


कोरोना तो जाएगा ही,

किंतु भूख रह जानी है।

सदा परिश्रम करते रहना,

सचमुच यही कहानी है।

सदा जागते रहना जीवन-

मरण-निमंत्रण है सोना।।

        नहीं बहस का मुद्दा है यह,

         भूख बड़ी या कोरोना।।

                   ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।प्रभु में विश्वास रखो।।जीवन*

*में आस रखो।।*


मत ढूंढता घूम तू प्रभु को बस

पूजा श्लोक स्तुति में।

मिलेगा ईश्वर तुझको प्रेम स्नेह

और   सहानुभूति में।।

झूठ की रफ्तार तेज   पर  सच

ही जाता मंजिल को।

भगवान रचा बसा है  दर्द  और

संवेदना अनुभूति में।।


संसार में   कोई  भी कर्म  व्यर्थ

नहीं      जाता       है।

व्यक्ति   वांछित फल  जरूर ही

यहाँ      पाता        है।।

निस्वार्थ निष्काम सेवा से प्राप्त

होती मानसिक संतुष्टि।

सच्चा वास्तविक आनंद मनुष्य

को   तभी   आता   है।।


यह जिंदगी रोज़ ही कुछ अजब

खेल    दिखाती    है।

कभी दुःखों के पास और  कभी

दूर      कराती      है।।

पर जो आस्था रखते  प्रभु    पर

और विश्वास खुद में।

जिंदगी हर दिन उन्हें कुछ   नया

अच्छा   सिखाती है।।


*रचयिता।।एस के कपूर श्री हंस

*बरेली।।*

मोब।।।           9897071046

                      8218685464

डॉ० रामबली मिश्र

 सफलता मिलती है (चौपाई ग़ज़ल)



दृढ़ भावों के सिंधु में, बहते रहो  स्वतंत्र।

चाहे कोई कुछ कहे, हो न कभी परतंत्र।।


दृढ़ इच्छा सर्वोच्च का, नित करना सम्मान।

अपने पावन लक्ष्य पर, रखना हर पल ध्यान।।


यह सारा संसार मिल, भल डाले अवरोध।

डट कर करो मुकाबला, नष्ट करो प्रतिरोध।।


चूमा करती सफलता, यदि मन में उत्साह।

श्रम साधन रचता सदा, उद्देश्यों की राह।।


नैतिकता के पंथ चल, पाओ अपना लक्ष्य।

लक्ष्य समर्पित कर्म-श्रम, सदा स्तुत्य अरु सत्य।।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

अभय सक्सेना

 भारत की पावन धरती पर

मां को अवतरित कराया था।


मां गंगा को अपने तप से

भागीरथी ने कैसे मनाया था।

भारत की पावन धरती पर

मां को अवतरित कराया था।।


मां गंगा की अविरल धारा

छल -छल कल- कल करती थी।

उनके वेग की प्रचंड धारा से

पृथ्वी थर- थर डरती थी।।


बाबा भोले का ध्यान लगा

प्रथ्वी विनती यह करती थी।

रोके प्रचंड तेज माता का

अपने विनाश से डरती थी।।


गंगा की प्रचंड धारा को

अपनी जटाओं से थामा था।

गंगोत्री से उद्गम करा कर

प्रथ्वी का मान बढ़ाया था।।


गंगा मैया के स्पर्श मात्र से

श्राप से उद्धार कराया था।

मां गंगा की अमृतधारा से

पितरों को पार लगाया था।।


मां गंगा की निर्मल धारा

भारत में जहां भी बहती हैं।

वहां की धरती को पाप मुक्त वो

अमृतधारा से करती हैं।।


हम सबकी मां पापनाशिनी

सभी पापों का नाश करो।

भागीरथी की तरह ही हम पर 

मां हमेशा कल्याण करो।।


कर विनती अभय यह कहते

मैया हम पर कल्याण करो।

करी मैली गंगा जो हमने

उस पाप को भी मां माफ करो।।

************************************

अभय सक्सेना एडवोकेट

 48/ 268 ,सराय लाठी माहौल,

 जनरल गंज ,कानपुर नगर।

मो नं : 9838015019 , 8840184088.

डॉ. राम कुमार झा निकुंज

  मधुरभाष जीवन नशा


नशा     सदा  नव  सीख का , नशा   सदा  परमार्थ।

मधुर  भाष    जीवन   नशा , नशा   कर्म     धर्मार्थ।।१।।


नशा  नार्य   सम्मान   हो , नशा   भक्ति   नित  देश।

समरसता    मन   नशा  हो , प्रीति    नशा  उपवेश।।२।।


मातु   पिता  सेवन   नशा , नशा    भक्ति   आचार्य।

त्याग  शील   गुण की नशा , नशा सत्य   अनिवार्य।।३।।


सदाचार    जीवन   नशा  , नैतिक   जीवन    मूल्य।

दान   मान   परहित    नशा , मानव   धर्म   अतुल्य।।४।।


सर्वोत्तम  मानव   जनम , स्वार्थ नशा   तज   लोक।

प्रकृति चारु   सुरभित करो , तजो नशा मन  शोक।।५।।


करो    नशा  अरुणाभ  जग , नशा प्रगति मुस्कान।

बाँटो   खुशियों    की    नशा , सदभावन   सम्मान।।६।।


तजो   चाह  सत्ता  नशा , झूठ    कपट   पद  मोह।

पान   नशा    कल्याण जग , कीर्ति शिखर आरोह।।७।।


क्रोध   लोभ  मानस   घृणा , हत्या  रत    दुष्काम।

समझो   ये   घातक  नशा , बनी   मौत   अविराम।।८।।


साधु   समागम  कर  नशा , विनय नशा  कर पान।

निशिवासर    सेवा  वतन , नशा    करो   भगवान।।९।।


नशा    पान   माँ  भारती ,  गाओ     भारत   गान।

रमो  ज्ञान   मधुशाल  में ,  शौर्य   वीर  यश   मान।।१०।।


वीर    धीर   गंभीरता , वसुधा    मुदित   किसान।

नव शोधन   उन्नति    वतन ,  मधुशाला    विज्ञान।।११।।


तम्बाकू    गाज़ा   चरस ,  द्रग  अफ़ीम  ये    रोग।

शाराबी     कामी।   नशा ,  समझ   मूल    दुर्योग।।१२।। 


जीवन है  दुर्लभ जगत ,  प्रीति  नशा   मन  घोल।

जी लो तन मन धन वतन,कीर्ति फलक अनमोल।।१३।।


हमराही  जन मन   वतन , मधुरिम  बने  निकुंज।

नशा समादर प्रीति जग ,   गाएँ   समरस    गुंज।।१४।।


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा ''निकुंज"

रचनाः मौलिक (स्वरचित)

नई दिल्ली

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-1

करउँ प्रनाम राम भगवाना।

जोगेस्वर बल सिंह समाना।।

      ग्यानगम्य-गुन-निधि-देवेस्वर।

       निर्बिकार-अजित-अखिलेस्वर।।

रघुबर मायातीत-बिरागी।

भगत-बछल अरु सिव-अनुरागी।।

      खल-बधरत प्रभु राम गोसाईं।

      छल-प्रपंच प्रभु मनहिं न भाईं।।

बंदउ सदा जोरि दोउ पानी।

सिव संकर सँग उमा भवानी।।

     आभा चंद्र संख की नाई।

     संकर-बदन सबहिं जग भाई।।

कासीपति अरु कलिमल नासी।

सिवहिं कल्प कैलास निवासी।।

     गंगा सिर उर ब्याल कराला।

      सोहै चंद्र ललाट बिसाला।।

दोहा-करै बंदना जगत जे,रामहिं-सिवहिं समान।

         होवै तिसु जन यहि जनम, मंगल अरु कल्यान।।

                      डॉ0हरि नाथ मिश्र

                        9919446372

राजेंद्र रायपुरी

 😊😊  एक युगल गान  😊😊

आजा प्रियतमा। 

आजा,आजा प्रियतमा।

मैं कब से तेरी राह निहारूॅ॑,

आजा प्रियतमा।

आजा, आजा प्रियतमा।


आजा साजना।

आजा, आजा साजना।

मैं अपना सब कुछ तुझ पर वारूॅ॑,

आजा साजना।

आजा,आजा साजना।


तुझ बिन दिल की बगिया सूनी।

धड़कन  लगती  दिल  की दूनी।

हर   पल   तेरी    याद   सताए।

तुझ बिन मन को कुछ ना भाए।


आजा प्रियतमा।

 आजा,आजा प्रियतमा।


तुझ बिन कटती हैं ना रातें।

करूॅ॑ प्रेम  की  किससे बातें।

इक पल लागे इक युग जैसे।

काटूॅ॑    रतियाॅ॑    जैसे - तैसे।


आजा साजना।

आजा,आजा साजना।


होता  पंछी  तो  उड़ आता।

बैठ विरह यह गीत न गाता।

मजबूरी है क्या बतलाऊॅ॑।

चाहूॅ॑ पर  मैं आ  ना पाऊॅ॑।


आजा प्रियतमा।

आजा,आजा प्रियतमा।


पास सजन मैं आऊॅ॑ कैसे। 

दुनिया को समझाऊॅ॑ कैसे।

शूल बिछाती पग-पग पर ये।

शूल    हटाऊॅ॑    इतने   कैसे।


आजा साजना।

आजा,आजा साजना।


कब  से   तेरी   राह   निहारूॅ॑।

मैं अपना सब कुछ तुझ पर वारूॅ॑।

आजा प्रियतमा।

आजा,आजा प्रियतमा।

आजा साजना।

आजा,आजा साजना।


          ।। राजेंद्र रायपुरी।।

नूतन लाल साहू

 मेरा एक सुझाव


आपका व्यवहार व स्वभाव ही

आपका भविष्य तय करता है

आता है सबके जीवन में शुभ समय

फिर भी इंसान क्यों रोता है

संयम और विश्वास से ही

एक न एक दिन चमत्कार जरूर होता है

समय आयेगा समय पर

इसको निश्चित जान

समय से पहले किसी का

पूरा नहीं हुआ अरमान

आपका व्यवहार व स्वभाव ही

आपका भविष्य तय करता है

समझ न पाया कोई भी

अपने तकदीरों का राज

दौलत,ताकत,दोस्ती,लोकप्रियता,प्यार

सब मिलता है कर्म अनुसार

अगर कुछ ग़लत भी हो जाये

तो खो मत देना विश्वास

इसे हरि इच्छा समझकर

कर लेना सहज ही स्वीकार

आपका व्यवहार व स्वभाव ही

आपका भविष्य तय करता है

देव देव तो आलसी पुकारे

इंसान खुद अपने हाथ से

खींचता है अपना भाग्य की लकीर

जो कोशिश पे कोशिश करता है

उसे ही साथ देता है,परमपिता परमेश्वर

पराया का दर्द,इस कलयुग में

समझ सका है कौन

अगर मुस्कुराना सीख लिया तो

आंसू भी हो जायेगा मौन

आपका व्यवहार व स्वभाव ही

आपका भविष्य तय करता है

नूतन लाल साहू

डा.नीलम

 रवि आगमन

रजत शिखर पर

बिछी स्वर्णिम रज

कहीं श्यामल पार्स्व

सज रहे

पूरब से धीरे-धीरे

रवि ,रथ पर चढ़ कर

आ रहा

कपासी चादर तले

प्रकृति अंगड़ाई

लेने लगी

छोडृ कर 

नीड़ में नन्हें छोने

परिंदे कलरव करते

अनजाने आकाश

छूने निकल पड़े

पियूष मोतियों से

सज्जित कलिकाएं

भी मुस्काने लगीं

भीगी-भीगी सी धरा

दौड़-भाग कर

कर्म में रत् होने लगी।


        डा.नीलम

सुनीता असीम

 आज नायाब होके देखते हैं।

जमजमे आब होके देखते हैं।

******

कुछ असर प्यार का न हो तुझपे।

हम ही बेताब होके देखते हैं।

******

इस तरह डाल लो नज़र हमपे।

आज सुर्खाब होके देखते हैं।

******

मित्र पर करते हो कृपा कान्हा।

तेरा अहबाब होके देखते हैं।

******

ओस से फर्क तो नहीं तुझको।

हम ही सैलाब होके देखते हैं।

******

सुनीता असीम

विनय साग़र जायसवाल

 एक मतला एक शेर

ज़िन्दगानी इस कदर नाकाम हो कर रह गयी

हर ख़ुशी अंदेशा-ऐ-अंजाम हो कर रह गयी 


जाते जाते देख लेते उनके चेहरे की शिकन

हाय यह भी आरज़ू नाकाम हो कर रह गयी 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

सुषमा दीक्षित शुक्ला

 मोहब्बत की लौ थी जलाई गई। 

जो दीवानगी तक निभायी गई ।


वफ़ा ए मोहब्बत में हद से गुजरना।

इबादत के माफिक अदायी गयी।


कभी रात दिन तेरी राहों का तकना।

  न यादें कभी वो भुलाई गई।


 दरख्तों के साए में छुप छुप के मिलना ।

वो रूहों में रूहें समायी गई।


 मोहब्बत भरे उन तुम्हारे खतों से।

 थी चुप चुप के रातें बिताई गई ।


कभी बाग में मेरे गेसू सजाना ।

थी रस्में मोहब्बत जताई गयी।


 बड़ी होती मुश्किल ये राहे मोहब्बत ।

मगर सुष ये दिल से सजाई गई।


सुषमा दीक्षित शुक्ला

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 गीत (16/16)

जब-जब दर्पण में छवि देखूँ,

मेरा रूप लुभाए मुझको।

यौवन मेरा प्रेमी बनकर-

हर-पल ही तरसाए मुझको।।


बलि-बलि जाऊँ अपनी छवि लख,

जैसे देवी सुंदरता की।

रति की छवि भी फीकी लगती,

छवि आकर्षक कोमलता की।

कैसे तुम्हें बताऊँ आली-

मेरी छवि ललचाए मुझको।।

  हर पल ही तरसाए मुझको।।


बिंदिया मेरी चंदा जैसी,

बाल श्याम घन घुघराले हैं।

बिंबा-फल इव होंठ लाल हैं,

कपोल गुलाबी निराले हैं।

मेरे नैन सुशोभित काजल-

यौवन-कथा सुनाए मुझको।।

     हर पल ही तरसाए मुझको।।


पग की पायल छन-छन बजती,

तन-मन की सुधि हर लेती है।

अद्भुत-शुचि संगीत सुना कर,

प्रेम-भाव मन भर देती है।

कहता है अंतर्मन मेरा-

साजन अभी बुलाए मुझको।।

   हर पल ही तरसाए मुझको।।


इतराऊँ-इठलाऊँ रह-रह,

अपना रूप नशीला लखकर।

देखूँ बार-बार दर्पण में,

रूप-भंगिमा बदल-बदल कर।

आने वाला जो पतझर है-

कैसे नहीं सुझाए मुझको??

     हर पल ही तरसाए मुझको।


जो देखे बस वही बताए,

दर्पण की तो बात निराली।

आज देख लो जैसी तुम हो,

कल भी लखना सुन मतवाली।

दर्पण वही,वही तुम होगी-

विधिवत राज लखाए मुझको।।

    हर पल ही तरसाए मुझको।।

            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                9919446372

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल

समाँ यूँ ख़ुशनुमा होने लगा है 

अंदेशा प्यार का होने लगा है


निगाहें इस क़दर वो मदभरी हैं

मिलाते ही  नशा होने लगा है 


वो आये जब से मेरी ज़िन्दगी में

ज़माना ही खफ़ा होने लगा है 


दिखाओ इतने भी नखरे न जानम 

मज़ा भी बेमज़ा होने लगा है 


कभी सोचो तो इस जानिब भी कोई

ज़माना क्या से क्या होने लगा है


जो तुम आने लगे हो रोज़ साग़र

चमन दिल का हरा होने लगा है


विनय साग़र जायसवाल

डॉ० रामबली मिश्र

*जो भी लिखता..*


 


कुछ भी लिखता तुम लिख जाते।


हर अक्षर में तुम दिख जाते।।


 


सोच-समझकर शव्द बनाता।


सारे शव्द तुम्हीं बन जाते।।


 


पतझड़ के पत्तों पर लिखता।


तुम किसलय बनकर उग आते।


वाक्य बनाता रच-रचकर मैं।


सब वाक्यों में तुम आ जाते।


 


लिखने को जब कलम उठाता।


स्याही बनकर तुम आ जाते।।


 


पृष्ठ पलटता जब लिखने को।


हर पन्ने पर तुम छा जाते।।


 


महक रहे हो मृदुल भाव बन।


अनचाहे कविता बन जाते।।


 


ऐसा क्यों है समझ न पाता।


बिन जाने तुम प्रिय बन जाते।।


 


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

सजल(14/14)


कैसा आज ज़माना है,


पापी-अघी बचाना है।।


 


 धन को लूट गरीब का,


भरना निजी खज़ाना है।।


 


चंदन-तिलक लगा माथे,


अत्याचार मचाना है।।


 


राजनीति को दूषित कर,


अपना काम बनाना है।।


 


लोक-लाज का बंधन तज,


नंगा नाच नचाना है।।


 


घृणा-भाव कर संचारित,


निज सिक्का चमकाना का।।


 


लेकिन, फिर से सुनो मीत,


नया ज़माना लाना है।।


 


नूतन सोच-मशाल जला,


कुत्सित तिमिर भगाना है।।


        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


            9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र

बाल-गीत


चुन्नू-मुन्नू दौड़े आओ,


बैठ धूप में मौज उड़ाओ।


सूरज बाबा देख उगे हैं,


लख के उल्लू इन्हें भगे हैं।।


 


चंदा मामा भागे मिलने,


मामी के सँग बातें करने।


तारे दीपक रात जलाएँ,


नाचें-गाएँ मौज मनाएँ।।


 


अब आई है दिन की बारी,


धूप खिली है प्यारी-प्यारी।


देखो मम्मी तुम्हें पुकारे,


रंग-विरंगे ले गुब्बारे ।।


 


बगल बाग में बंदर कूदें,


खेल-खेल में आँखें मूँदें।


इनसे बचकर रहना बच्चे,


बंदर कभी न मन के सच्चे।।


 


खेल-कूद कर खाना खाना,


खाना खा कर पढ़ने जाना।


पढ़-लिख कर तुम साहब बनना,


बन साहब जन-सेवा करना।।


 


सदा सत्य की राह पकड़ना,


कभी किसी से नहीं झगड़ना।


रहो देखते ऊँचे सपने,


सच्चे सपने होते अपने ।।


        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


            9919446372


एस के कपूर श्री हंस

*रचना शीर्षक।।*


*वही आता है जीत कर जो खुद*


*पर एतबार करता है।।*


 


खुशियों को ढूंढने वाले धूल


में भी ढूंढ लेते हैं।


ढूंढने वाले तो काँटों के बीच


फूल को ढूंढ लेते हैं।।


दर्द को भी बनाने वाले बना


लेते हैं जैसे कोई दवा।


ढूंढने वाले तो खुशियों को


शूल में भी ढूंढ लेते हैं।।


 


फूल बन कर बस मुस्कराना


सीख लो जिंदगानी में।


दर्दो गम में भी मत रुको तुम


इस मुश्किल रवानी में।।


हार को भी स्वीकार करो तुम


इक जीत की तरह।


यही तो फलसफा छिपा इस


जीवन की कहानी में।।


 


जीतता तो वो ही जो कोशिश


हज़ार करता है।


वो हार जाता जो शिकायत


बार बार करता है।।


हार भी बदल जाती है जीत में


हमारे हौंसलों से।


वहजीतकर जरूरआता जो खुद


पर एतबार करता है।।


 


*रचयिता।।एस के कपूर " श्री हंस*"


*बरेली।।*


मोब।। 9897071046


                       8218685464


नूतन लाल साहू

विधाता की कैसी यह लीला


 


कौन हूं मैं और कहां से आया


किसने सारी सृष्टि रचाया


जीवन भर यह भरम, मिट न पाया


विधाता की कैसी यह लीला है


चौबीस तत्वों से संसार बना हैं


षट विकार वाला यह जग हैं


इस नाटक को सत्य समझकर


मानव अपना रूप भुलाया


विधाता की कैसी यह लीला है


यह संसार फूल सेमर सा


सुंदर देख लुभायों


चाखन लाग्यो रूई उड़ गई


हाथ कुछ नहीं आयो


विधाता की कैसी यह लीला है


मुझे अपना जीवन बनाना न आया


रूठे हरि को मनाना न आया


भटकती रही दुनिया वालों के दर पर


रही पाप ढोती मै,सारी उमर भर


विधाता की कैसी यह लीला है


फूलों सा हंसना नहीं सीखा


भंवरो सा नहीं सीखा गुनगुनाना


सूरज की किरणों से नहीं सीखा


जगना और जगाना


विधाता की कैसी यह लीला है


सत्यवादी राजा हरिशचंद्र जैसे दानी


काशी में बिक गये दोनों प्राणी


जिसे भरना पड़ा नीच घर पानी


विधाता की कैसी यह लीला है


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

😌 लेख विधाता, टरे न टारे 😌


 


जीवन भर संघर्ष किया है।


  घूॅ॑ट ज़हर का सदा पिया है।


    किसको दोष कहो दें भाई।


      किस्मत ही है ऐसी पाई।


 


कर्म किया फल हाथ न आया।


  जाने कैसे प्रभु की माया।


    खोदा कूप बहुत ही गहरा, 


      पानी लेकिन बूंद न पाया।


 


प्यासा मन,तन भी है प्यासा।


  पूरी हुई नहीं अभिलाषा।


    किए प्रयास ख़ास बहुतेरे,


      हाथ लगी तो महज निराशा।


 


अश्रु भरे हैं नैन हमारे।


  लेख विधाता टरे न टारे।


    जीवन व्यर्थ हुआ सच मानो,


      अब भी गर्दिश में है तारे।


 


            ।। राजेंद्र रायपुरी।।


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*पंचम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-32


तब सुक-दूत कहेसि दसकंधर।


नाथ क्रोध तजि भजहु निरंतर।।


     राम-नाम-महिमा बड़ भारी।


     रामहिं भजै त होय सुखारी।।


त्यागि सत्रुता अरु अभिमाना।


करउ जुगत कोउ सिय लौटाना।।


     सुनि अस बचन क्रुद्ध तब रावन।


      मारा लात सुकहिं तहँ धावन।।


तब सुक-दूत राम पहँ गयऊ।


करि प्रनाम राम सन कहऊ।।


     रामहिं तासु कीन्ह कल्याना।


     अगस्ति-साप तें मुक्ती पाना।।


तजि राच्छस पुनि सुक मुनि रूपा।


गे निज आश्रम ऋषी स्वरूपा।।


    लखि तब राम सिंधु-जड़ताई।


    क्रोधित हो तुरतै रघुराई।।


बासर तीन गयउ अब बीता।


मानै नहिं यह मूर्ख अभीता।।


     लछिमन लाउ देहु धनु-बाना।


      सोखब दुष्ट अग्नि-संधाना।।


बंजर-भूमि पौध नहिं उगहीं।


माया-रत-मन ग्यान न लहहीं।।


    लोभी-मन बिराग नहिं भावै।


     नहिं कामिहिं हरि-कथा सुहावै।।


भल सुभाव नहिं भावै क्रोधी।


मूरख मीतहिं सदा बिरोधी।।


    केला फरै नहीं बिनु काटे।


     नवै न नीच कबहुँ बिनु डाँटे।।


     अस कहि राम कीन्ह संधाना।


      अंतर जलधि पयोनिधि पाना।।


बहुत बिकल जल-चर सभ भयऊ।


मछरी-मगर-साँप जे रहऊ ।।


दोहा-देखि बिकल सभ जलचरन्ह,बिप्रहिं-रूप पयोधि।


         कनक-थार महँ मनि लई, किया तुरत अनुरोध।।


                     डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


रवि रश्मि अनुभूति

सही - सही माँ राह दिखाती , 


      पूजी जाती माँ।


माँ का हर पल सम्मान करो , 


     देखे हर पल माँ ।।


 


माँ का देवी का दर्जा है , 


      करते हम पूजा । 


 


माँ की ममता है वट वृक्ष - सी ,   


      माँ ही सरमाया ।।


सारे संकट माँ हरती है , 


      माँ शीतल छाया ।।


 


निस्वार्थ भाव सेवा करती , 


     माँ बड़ी पुजारी ।


सब दुख हरने वाली माँ है , 


      माँ बड़ा दुलारी ।। 


 


संबल बन बच्चों का वह तो , 


      संस्कार सिखाती ।


निराशा से गिरते देख माँ, 


      उम्मीद बन जाती ।।


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


      मुंबई ( महाराष्ट्र ) ।


कालिका प्रसाद सेमवाल

*मां सरस्वती सद्गुण से भर दो*


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विद्या वाणी की देवी मां सरस्वती


मुझ पर मां तुम उपकार करो,


बनूं परोपकारी व करुं मानव सेवा,


मेरे अन्दर ऐसा विश्वास भरो,


और जीवन में उत्साह भर दो।


 


मां जला दो ज्ञान का दीपक, 


अवगुणों को खत्म कर दो,


करुणा से हृदय को भर दो,


चुन चुन कर सद् गुण के मोती


 मां मेरी झोली में तुम भर दो ।


 


मां लेखनी में धार दे दो,


और वाणी में मधुरता दो,


भाव सरस अभिव्यक्ति हो,


 जीवन में रस भर दो मां,


मां सरस्वती सद्गुण से भर दो।


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कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड।


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