गीत (16/16)
जब-जब दर्पण में छवि देखूँ,
मेरा रूप लुभाए मुझको।
यौवन मेरा प्रेमी बनकर-
हर-पल ही तरसाए मुझको।।
बलि-बलि जाऊँ अपनी छवि लख,
जैसे देवी सुंदरता की।
रति की छवि भी फीकी लगती,
छवि आकर्षक कोमलता की।
कैसे तुम्हें बताऊँ आली-
मेरी छवि ललचाए मुझको।।
हर पल ही तरसाए मुझको।।
बिंदिया मेरी चंदा जैसी,
बाल श्याम घन घुघराले हैं।
बिंबा-फल इव होंठ लाल हैं,
कपोल गुलाबी निराले हैं।
मेरे नैन सुशोभित काजल-
यौवन-कथा सुनाए मुझको।।
हर पल ही तरसाए मुझको।।
पग की पायल छन-छन बजती,
तन-मन की सुधि हर लेती है।
अद्भुत-शुचि संगीत सुना कर,
प्रेम-भाव मन भर देती है।
कहता है अंतर्मन मेरा-
साजन अभी बुलाए मुझको।।
हर पल ही तरसाए मुझको।।
इतराऊँ-इठलाऊँ रह-रह,
अपना रूप नशीला लखकर।
देखूँ बार-बार दर्पण में,
रूप-भंगिमा बदल-बदल कर।
आने वाला जो पतझर है-
कैसे नहीं सुझाए मुझको??
हर पल ही तरसाए मुझको।
जो देखे बस वही बताए,
दर्पण की तो बात निराली।
आज देख लो जैसी तुम हो,
कल भी लखना सुन मतवाली।
दर्पण वही,वही तुम होगी-
विधिवत राज लखाए मुझको।।
हर पल ही तरसाए मुझको।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372