डॉ0 निर्मला शर्मा

 मंहगाई का ज़ोर


जहाँ देखो वहाँ सुनाई देता है 

इतराती  

मंहगाई का शोर

बाज़ार में नित बढ़ती हैं कीमतें

चलता है न हमारा कोई ज़ोर

खाद्यान्न ,कपड़े ,मकान या

दैनिक उपभोग की हो वस्तुएँ

टैक्स 

तो बढ़ता जाता है नित

पर कम न होती कभी कीमतें

गरीब की झोली में केवल

सन्तोष ही क्यों ? 

आबाद है

धनाढ़्य वर्ग तो विपुल

 सम्पत्ति में भी नासाज़ है

मंहगाई ने तोड़ दी है कमर

उछलता है पैसा

 न छोड़ी कसर

अब तो त्योहार भी हुए फीके

 मगर

उत्साह कभी न होगा कम

हम भारतीय खुशियाँ ढूढ़ें

हरदम

छोटी छोटी बातों से ही

जीवन रूपी किताबों से ही

डटकर सामना कर पाते हैं

मंहगाई को आखिर 

हरा ही जाते हैं


डॉ0 निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

नूतन लाल साहू

वक्त सभी को मिलता है
जिंदगी बदलने के लिए
जिंदगी दोबारा नहीं मिलती
वक्त बदलने के लिए
समझ न पाया कोई भी
तकदीरो का राज
वक्त बहुत मूल्यवान है
वक्त ही है पहलवान
वक्त को सांसारिक वासनाओं में
व्यर्थ की कल्पनाओं में
जग की सब तृष्णाओ में
क्यों व्यर्थ खो रहे हो
जग की ममता को छोड़
भगवान से नाता जोड़
तेरा जिंदगी बदल जायेगा
वक्त सभी को मिलता है
जिंदगी बदलने के लिए
जिंदगी दोबारा नहीं मिलती
वक्त बदलने के लिए
जिस जिस ने वक्त से प्यार किया
श्रृद्धा से मालामाल हुआ
मिलती है बड़े भाग्य से
सुर दुर्लभ मानुष तन
वक्त के ज्ञान में जो शक्ति है
वो ही जिंदगी के दर्पण को साफ करती हैं
जीवन की डोर को अब
तुम कर दो प्रभु के हवाले
इस भवसागर में केवल
प्रभु शरण ही सुखदाई
वक्त सभी को मिलता है
जिंदगी बदलने के लिए
जिंदगी दोबारा नहीं मिलती
वक्त बदलने के लिए
नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण (श्रीरामचरितबखान)-4

अस सुनि दसकंधर घबराना।

उठि कह तनि तुम्ह मोंहि बताना।

     का बाँधे ऊ उदधि-नदीसा।

     संपति सिंधुहिं,जलधि बरीसा।।

बनहिं-पयोधि,तोय-निधि बाँधा।

मोंहि बताउ नीर-निधि साधा।।

      तब खिसियान बिहँसि गृह गयऊ।

      भय भुलाइ जनु कछु नहिं भयऊ।।

बाँधि पयोधि राम इहँ आयो।

सुनि मंदोदरि चित घबरायो।।

      रावन-कर गहि ला निज गेहू।

       कहा नाथ रखु रामहिं नेहू।।

कीजै नाथ बयरु तिन्ह लोंगा।

बल-बुधि-तेज रहै जब जोगा।

       उदितै चंद्र खदोत न सोहै।

        रबि-प्रकास महँ ससि नहिं मोहै।।

स्वामी तुम्ह खद्योत समाना।

दिनकर-तेज राम भगवाना।।

       मधु-कैटभ रघुबीर सँहारे।

       हिरनकसिपु-हिरनाछहिं मारे।।

बामन-रूप धारि रघुबीरा।

बाँध्यो नाथ बलिहिं रनधीरा।।

    सहसबाहु प्रभु रामहिं मारे।

    परसुराम बनि धरनि पधारे।।

सो प्रभु हरन धरनि कै भारा।

आयो जगत लेइ अवतारा।।

     तेहिं सँग नाथ बिरोध न कीजै।

      हठ परिहरि तिन्ह सीता दीजै।।

काल-करम-जिव राम के हाथहिं।

तिसु बिरोध तुम्ह सोह न नाथहिं।।

      तजि निज क्रोध सौंपि सुत राजहिं।

       करउ गमन-बन भजु तहँ रामहिं।।

दोहा-संत बचन अस कहत अहँ, सुनहु नाथ धरि ध्यान।

        चौथेपन नृप जाइ बन,लहहिं परम सुख ग्यान ।।

                    डॉ0हरि नाथ मिश्र

                     9919446372

राजेंद्र रायपुरी

 🤣🤣   बहती गंगा   🤣🤣


बहती गंगा में सभी, 

                      लोग धो रहे हाथ।

मंशा दूजी पर कहें,

                 हम किसान के साथ।

हम किसान के साथ,

                  खड़े हैं वो दिलवाने।

जो है उनकी माॅ॑ग,

               मगर क्या ये रब जाने।

अपना तो है काम, 

                  करें जो मैया कहती।

धो लेते हम हाथ,

                 जहाॅ॑ भी गंगा बहती।


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।

डॉ0 निर्मला शर्मा

 निशा

निशा 

देती निमंत्रण

चराचर स्वीकार करता

दिवस के पहले प्रहर से

कर परिश्रम

रात्रि में विश्राम करता

सन्ध्या समय

मिल तारों से

शशि को साथ लेकर

करती विहार

प्रतिदिन रवि से

विदा लेकर

चिर शांति की

अनुचरी

वह शांत यामा

सुख स्वप्नों की

सहचरी

शशि की वामा

करती हृदय को

शांत थमता

शोर और व्यवधान

बिखरती 

चाँदनी की उजास

चकोर और चकोरी

की आस

निशा देती निमन्त्रण

कवि को मौन

सा आमंत्रण

मदमाती सी

कहे मन की बात

उतारो कागज़ पर

कविराज

निज हृदय

के हालात

सुकुमारी सी मैं

 निशा 

निश दिन करूँ में

सबके जीवन पर

राज


डॉ0निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

डॉ० रामबली मिश्र

 *प्रेम चालीसा*

*दोहा:*


प्रेम तत्व प्रिय अमर है, इस असार संसार।

पढ़े प्रेम का पाठ जो,उसका नौका पार।।


*चौपाई:*


प्रेम वचन में अमृत रस है।

सत चित मधु आनंद सरस है।।


प्रेम पंथ अति मादक सरिता।

भाव प्रधान सुफल शुभ कविता।।


प्रेमचक्षु में करुणालय है।

प्रेम- हृदय में देवालय है।।


प्रेम परस्पर परंपरा है।

प्रेम सिंधु अतिशय गहरा है।।


प्रेम बसा है आदि अंत तक।

फैला चारोंओर गगन तक।।


सकल सृष्टि प्रिय प्रेममयी है।

सार्वभौमिकी देवमयी है।।


प्रेम दीवाना द्वारे आया।

खुशबू से आँगन महकाया।।


दीवाने की अदा निराली।

आँखे जैसी रस की प्याली।।


प्याली में मतवाल भावना।

भावों में रसधार कामना।।


देख कामना हर्षित होना।

तान तोड़ आकर्षित होना।।


आकर्षण में प्रीति छिपी हो।

हृदय प्रेम की नीति छिपी हो।।


नीति चलाओ बन जादूगर।

प्रेम पिलाओ साकी बनकर।।


साकी बनकर खुशियाँ बाँटो।

उत्साहित हो जीवन काटो।।


जीवन में हो प्रेम समर्पण।

जग को दो नित जीवन अर्पण।।


अर्पित कर बन स्नेहिल मानव।

मानवता में दिखे न दानव।।


दानवता को मार मनुज बन।

प्रेम हेतु अर्पित कर तन-मन।।


तन-मन से प्रिय को नित चूमो।

प्रेम दीवाना को ले घूमो।।


बनो घुमंतू बन मस्ताना।

प्रेम-जीव को नित सहलाना।।


सहला-सहला रस बरसाओ।

प्रेमी को रस नित्य पिलाओ।


सीखो पीना और पिलाना।

पी कर नाच बना मस्ताना।।


मस्ती लूटो और लुटाओ।

भर अंकों में रसिक बनाओ।।


रसिया के माथे का चंदन।

देख निहारो कर अभिनंदन।।


अभिनंदन कर संग घुमाओ।

प्रियतम का प्रियतम बन जाओ।।


प्रियतम में अति मादकता है।

कीर्तिमान प्रिय मधुमयता है।।


मधुमयता से भरा दीवाना।

पूर्ण ब्रह्म सा अति मस्ताना।।


मस्तानी शैली अति कोमल।

सौम्य सुधा सम अतिशय निर्मल।।


निर्मलता में प्रेम भक्ति है।

द्वार खड़ी दीवान-शक्ति है।।


दीवाना ही घर आया है।

बन लयकार तुझे गाया है।।


हर व्यंजन में स्वर बन जाओ।

लिख-लिख पाती वाक्य बनाओ।।


चिट्ठी लिखकर प्रेम जताओ।

अपने मन का मीत बनाओ।।


नाचो बैठ मीत के उर में।

सतत मीत के अंतःपुर में।।


अंतःपुर में बैठ थिरकना।

कदम-कदम पर सहज फिसलना।।


मन में यही कल्पना करना।

एक मात्र प्रेम ही गहना।।


जो यह गहना नहीं पहनता।

वह कुरूप बन जग में रहता।।


इस जग में अभिशप्त वही है।

जो सात्विक-अनुरक्त नहीं है।।


जहाँ घृणा का है भण्डारण।

दानवता का तहँ पारायण।।


मित्रों!मानवता श्रेयष्कर।

बनो प्रेम स्नेह प्रिय सुंदर।।


जो करता है प्रीति जगत से।

करता घृणा सदा नफरत से।।


जो करता है प्रेम सभी से।

जुड़ जाता है सकल विश्व से।।


जो पढ़ता है यह चालीसा।

उस पर खुश शिव उमा गणेशा।।


*दोहा:*


प्रेम-प्रीति अरु स्नेह से, सारे जग को सींच।

प्रीति रीति की नीति से, सारे जग को खींच।।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

कालिका प्रसाद सेमवाल

 *फिर याद तुम्हारी आई है*

*********************

गुनगुनी धूप जब निकली

मौसम सुहावना हो गया,

ठंडक का अहसास  भी

अब   कम  होने   लगा,

फिजाँ का रंग ही बदल गया

फिर याद तुम्हारी आई है।


आसमान में इन्द्र  धनुष 

गिरी बूँ गगन  से   जब,

उठी लपटें  अगन से तब

मौसम बदलने लगा तब,

जैसे घटा में शंक बज रहे हो

फिर याद तुम्हारी आई है।


फिर उड़ी जुल्फें घनेरी

फिर घिरी बदरी अँधेरी,

फिर मौसम में रंग छा गये

देखो प्रकृति का नाजारा,

इस बदले बदले  रुप क़ो,

इस   सुहानी   घंडी में

फिर याद तुम्हारी आई है।


पेडों के झुरमुठ के बीच

जीवन का परम आनन्द है,

ऐसा सुहावना मौसम में

मदहोश  होने  के  लिए,

पल भर में आराम यहां है

 फिर याद तुम्हारी आई  है।

*********************

कालिका प्रसाद सेमवाल

मानस सदन अपर बाजार

रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

एस के कपूर श्री हंस

 *रचना शीर्षक।।*

*इंसानियत साथ रखना हमेशा*

*इस जीवन के सफर में।।*


यह जीवन की चक्की यूँ ही

चलती रहती है।

सुख दुःख के पाटों में

मचलती रहती है।।

जो आशा और विश्वास की

लौ रखता जलाकर।

जिन्दगी हर दिन उसकी

संवरती रहती है।।


जीवन को मानो जैसे इक

खुशियों का त्यौहार है।

लाता एक साथ सुख दुःख

कई हज़ार है।।

केवल एक बात याद रखना

अपने इस जीवन में।

तेरी सबसे बड़ी पूँजी तेरा

अपना व्यवहार है।।


बीते कल का अफसोस सदा

मत करते रहना।

जो है आज का दिन वही

तेरा असली गहना।।

आने वाले कल की चिंता 

नहीं जरूरी है।

सोचो बस आज के बारे में

यही सबका कहना।।


इंसानियत सदा साथ रखना

इस सफर आम में।

यही काम आयेगी तेरे हर

किसी मुकाम में।।

जीवन इक प्रतिध्वनि वही

आता है लौट कर।

करता जो चालाकी उसका

अंत रहता नुकसान में।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब।। 9897071046

                     8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *किसान और राजनीति*

सियासी दाँव-पेंच,झूठ-फरेब से

दूर रहता है सीधा-सादा,भोला-भाला

अपना किसान।

जान नहीं पाता है कि

फँस जाता है वह एक ऐसे

जाल में जो शायद रहता है

ठीक चक्रव्यूह जैसा-

फँस कर मरना होता है-

जिसमें अभिमन्यु को

निश्चित रूप से।

लगता है बन गया है आज भी

सियासी-स्वार्थी दुर्योधनों का

एक घातक चक्रव्यूह-

फँसना है जिसमें निश्चित रूप से

एक भोले-भाले-अबोध अभिमन्यु को।

ये सियासी बिचौलिए-आढ़तिये-पिचाली,

स्वार्थी दुर्योधन-

फैला दिए हैं अपना मारू फंदा।

है अभी वक्त,सँभल जाओ-

ऐ आज के अभिमन्यु!

हो तुम अब भी स्वतंत्र।

कहीं भी जाओ।

जा सकते हो-पूरे देश में।

पा सकते हो इच्छित फल पूर्ण रूप से-

अपने श्रम का-

अपने पसीने का-बेहिचक।

डर है-कहीं,

सियासी-विध्वंसक आँधी में

उजड़-बिखर न जाय-

तुम्हारा यह महकता-

प्यारा चमन।

तुम्हारा भोलापन-हो सकता है-

तुम्हें ही न निगल जाय।

आओ, लौट आओ।

चमन तुम्हारा बुलाता है

     तुम्हें।

            °© डॉ0हरि नाथ मिश्र

                  9919446372

राजेंद्र रायपुरी

 प्रस्तुत है लावणी छंद पर एक मुक्तक- 

😄😄😄😄😄😄😄😄😄


खोल दिया है मदिरालय सब,   

                कुछ लोगों को काम मिले।

पीकर प्याला कोरोना में,

                    लोगों को आराम मिले।

पड़ा ख़जाना खाली कब से,

                       राजकाज कैसे होगा, 

भरे ख़जाना सदा इसी से,

                   मुॅ॑ह माॅ॑गा जो दाम मिले।


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।

कालिका प्रसाद सेमवाल

 *हे माँ शारदे तेरा गुणगान करुं*

★★★★★★★★★★

{ }मां शारदे मैं तेरी नित वंदना करुं,

मां अनेकता में एकता का विश्वास भर।


{ }वीणा के झंकार ऐसी भर दे,

विद्या के दान से झोली मेरी भर दे।


{ }दीन दुखियों की सेवा सदा करुं,

दृढता से कर्तव्य का पालन करुं।


{ }सुख समृद्धि व संस्कृति से भर दे,

प्रेम सबसे करुं छोटा या बड़ा हो।


{ }मां मगल मन मेरा कर दो,

हे मां ज्ञान की ज्योति से भर दो।


{ }उर में आकर बसो स्वप्न साकार कर दो,

हे मां शारदे मुझे ज्ञान दीजिये।


{ }तेरी कृपा मुझ पर हमेशा रहे,

चरणों में बैठ कर नित तेरी. वंदना करता रहूं।

★★★★★★★★★★

कालिका प्रसाद सेमवाल

मानस सदन अपर बाजार

रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण (श्रीरामचरितबखान)-3

छिड़कि गंग-जल पा परमेस्वर।

जाको मिलहिं दरस रामेस्वर।।

     राम-सेतु जे दरसन करहीं।

      बिनु श्रम ते भव-सिंधुहिं तिरहीं।।

निपुन नील-नल सेतु बनावहिं।

डूबत पाथर ऊपर आवहिं।।

   नहिं ई हवै बंधु-चतुराई।

   नहिं ई होय कपिन्ह निपुनाई।।

प्रभु-प्रताप कै महिमा भारी।

बना सेतु अस सिंधु मँझारी ।।

     सुदृढ़ सेतु बिलोकि रघुराई।

     हरषित हों पुनि-पुनि तहँ जाई।

गर्जत-तर्जत मरकट बृंदा।

चलहिं मुदित सँग दसरथनंदा।।

    चलत सेतु पे लखि रघुनंदन।

     करैं बिबिध जलचर जनु बंदन।।

निरखहिं सभ प्रभु अपलक लोचन।

टरहिं न टारे संकट-मोचन ।।

     तजि निज बैर निहारहिं रूपा।

      ताकहिं हरषित राम-स्वरूपा।

सेतु-बंध पै भीर अपारा।

करैं कपिन्ह बहु नभ-पथ पारा।।

     कछु चढ़ि के पीठहिं जलचरहीं।

     पार होंहि बहु राम- कृपाहीं।।

पार सिंधु उतरे रघुबीरा।

सेना सहित कृपालु सधीरा।।

    डेरा डारि कहे रघुराई।

     कपिन्ह जाहु खाहु फल धाई।

आग्या पा धाए कपि-भालू।

अस तब कीन्हे राम कृपालू।

     ऋतु बिपरीत फरे तरु-बिटपा।

      मधुर-मधुर फर तरु-सिख लिपटा।।

होय मुदित कपि-भालू खावहिं।

तोरि सिखा तरु लंक पठावहिं।

      इहँ-तहँ देखि निसाचर जबहीं।

       नाच नचावहिं तिन्ह मिलि सबहीं।।

नाकहिं-कान काटि तिन्ह भेजहिं।

करि गुन-गान राम सभ गरजहिं।।

दोहा-बान्हि सिंधु लइ भालु-कपि, राम इहाँ अब आहिं।

         नाक-कान बिनु कहत सभ, धावहिं रावन पाहिं।।

                        डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

नूतन लाल साहू

 ज्ञान की बातें


देने के लिए दान

लेने के लिए ज्ञान और

त्यागने के लिए अभिमान

सबसे सर्वश्रेष्ठ है

वर्तमान को साथ लेकर

बीते समय से कुछ सीख

नहीं होगी पछतावा

भविष्य होगी स्वर्णिम

कर्ण दान के लिए जाना जाता हैं

गुरु द्रोणाचार्य ज्ञान के लिए जाना जाता है

ऋषि दधीचि त्याग के लिए जाना जाता हैं

बंदा इस संसार में,चाहे कोई हंसे या कोई जले

मनुष्य अपना लक्ष्य खुद निर्धारित करता है

देने के लिए दान

लेने के लिए ज्ञान और

त्यागने के लिए अभिमान

सबसे सर्वश्रेष्ठ है

जितना भी भाग्य में मिला

सहर्ष कर उसको स्वीकार

प्रभु जी को कह दे शुक्रिया

वो है जगत का पालनहार

प्रारब्धों का योगफल और

कई जन्मों के कर्म फल से हमें जो मिला है

वो चाहे कांटे की राह हो

या हो गुलाब के फूल

हमे अपने कर्म से ही

बदलना है भाग्य लकीर

देने के लिए दान

लेने के लिए ज्ञान और

त्यागने के लिए अभिमान

सबसे सर्वश्रेष्ठ है

नूतन लाल साहू

डॉ०रामबली मिश्र

 *द्वारे आया*


प्रेम दीवाना द्वारे आया।

खुशबू से आँगन महकाया।।


दीवाने की अदा निराली।

आँखे जैसी रस की प्याली।।


प्याली में मतवाल भावना।

भावों में रसधार कामना।।


देख कामना हर्षित होना।

तान तोड़ आकर्षित होना।।


आकर्षण में प्रीति छिपी हो।

हृदय प्रेम की नीति छिपी हो।।


नीति चलाओ बन जादूगर।

प्रेम पिलाओ साकी बनकर।।


साकी बनकर खुशियाँ बाँटो।

उत्साहित हो जीवन काटो।।


जीवन में हो प्रेम समर्पण।

जग को दो नित जीवन अर्पण।।


अर्पित कर बन स्नेहिल मानव।

मानवता में दिखे न दानव।।


दानवता को मार मनुज बन।

प्रेम हेतु अर्पित कर तन-मन।।


तन-मन से प्रिय को नित चूमो।

प्रेम दीवाना को ले घूमो।।


बनो घुमंतू बन मस्ताना।

प्रेम-जीव को नित सहलाना।।


सहला-सहला रस बरसाओ।

प्रेमी को रस नित्य पिलाओ।


सीखो पीना और पिलाना।

पी कर नाच बना मस्ताना।।


मस्ती लूटो और लुटाओ।

भर अंकों में रसिक बनाओ।।


रसिया के माथे का चंदन।

देख निहारो कर अभिनंदन।।


अभिनंदन कर संग घुमाओ।

प्रियतम का प्रियतम बन जाओ।।


प्रियतम में अति मादकता है।

कीर्तिमान प्रिय मधुमयता है।।


मधुमयता से भरा दीवाना।

पूर्ण ब्रह्म सा अति मस्ताना।।


मस्तानी शैली अति कोमल।

सौम्य सुधा सम अतिशय निर्मल।।


निर्मलता में प्रेम भक्ति है।

द्वार खड़ी दीवान-शक्ति है।।


दीवाना ही घर आया है।

बन लयकार तुझे गाया है।।


हर व्यंजन में स्वर बन जाओ।

लिख-लिख पाती वाक्य बनाओ।।


चिट्ठी लिखकर प्रेम जताओ।

अपने मन का मीत बनाओ।।


नाचो बैठ मीत के उर में।

सतत मीत के अंतःपुर में।।


अंतःपुर में बैठ थिरकना।

कदम-कदम पर सहज फिसलना।।


मन में यही कल्पना करना।

एक मात्र प्रेम ही गहना।।


जो यह गहना नहीं पहनता।

वह कुरूप बन जग में रहता।।


इस जग में अभिशप्त वही है।

जो सात्विक-अनुरक्त नहीं है।।


जहाँ घृणा का है भण्डारण।

दानवता का तहँ पारायण।।


मित्रों!मानवता श्रेयष्कर।

बनो प्रेम स्नेह प्रिय सुंदर।।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 भावोद्गार(गीत)

सुनो, साजन चलो कहीं और,

छोड़ इस नगरी को।

यहाँ बसते हैं आदमखोर-

छोड़ इस नगरी को।


जिसको देखो रहे गड़ाए,

अपनी नज़रों को मुझ पे।

भूखी-गंदी उनकी नज़रें,

मारें झपट्टा भी मुझपे।

 ये करते न इज़्जत पे गौर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।।


धन के लोभी,पद के लोभी,

ये लोभी हैं दौलत के।

नारी की गरिमा से खेलें,

ये लोभी हैं शोहरत के।

नहीं इनका ठिकाना न ठौर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।।


इनसे बचकर अब है रहना,

ये हैं भ्रष्ट विचारों के।

 घुन हैं लगे सोच में इनकी,

ये भंडार विकारों के।

हो न रातों में इनकी भोर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।


भोले तुम हो,मैं भी भोली,

यह नगरी मक्कारों की।

कपट-दंभ, छल-छद्म की नगरी,

यह नगरी नक्कालों की।

ये हैं नगरी-निवासी चोर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को।।


उड़ें पखेरू मस्त गगन में,

बहे पवन शीतल-शीतल।

प्रकृति पसारे बाँह खड़ी है,

लिए हृदय अपना निर्मल।

करे स्वागत वह भाव-विभोर-

सुनो, साजन चलो कहीं और-छोड़ इस नगरी को,

यहाँ बसते हैं आदमखोर-छोड़ इस नगरी को।।

          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

               9919446372

निशा अतुल्य

 भर हुई अब चिड़िया चहकी

लालिमा चहुँ ओर भी फैली।

हुई धरा है देखो कुसमित

झूम झूम पवन रही बहकी ।।


मेघा घिर घिर आये ऐसे

प्यास बुझाए धरती जैसे ।

उठा पँख मयूरा है नाचे

कोयलिया कुहके है ऐसे ।।

हुई धरा है देखो कुसमित ।

झूम झूम पवन रही बहकी ।।


पीर पराई वो क्या जाने 

जिसने कभी परहित न माने।

सूखी भू जब भी अकुलाई

सँग स्वयं के त्रासदी लाई ।।

भू होए कुसमित अब कैसे

झूम झूम पवन बहे कैसे ।।


चलो करें उपाय मिलकर हम

संरक्षण हो जल तलाब सब ।

वायु बहे प्रदूषण ना हो 

स्वच्छ निर्मल पर्यावरण हो ।।

होगी फिर धरा भी कुसमित

झूम झूम बहेगी पवन फिर ।।


भोर हुई अब चिड़िया चहकी

लालिमा चहुँ ओर ही फैली ।

हुई धरा है देखो कुसमित

झूम झूम पवन रही बहकी ।।


स्वरचित

निशा अतुल्य

डा. नीलम

 *चित्राभिव्यक्ति*


यहाॅ भी ढूंढते

आ गए

पूछने मुझसे

कि किस तरह

रहता हूं मैं

एकांत में

शहर की गहमागहमी

से दूर

जंगली जानवरों 

के बीच निर्भिक


मैं तो रहा मगन 

अपने आप में ही

खुदाई नेमत की

खूबसूरत वादियों में

थे शजर,शावक,श्वान

हमदम मेरे

हरियाली से हर्षित

मन सदा रहा

देकर स्वत्व सर्वस्व

खुशहाल कैसे रहते हैं

सीखा मैंनें

सच जंगल तो शहरों में

दिखाई देता है

ईंसानी चोलों में

जानवर की रुह

बसती है ।


        डा. नीलम

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*जीवन में ही छिपी जीत की*

*तजवीज़ है।।*


मत खेलो जीवन से तुम कि

ये बड़ी   अनमोल   चीज है।

सितारों से आगे   जा  सको

बताती ये  वह  तजवीज़  है।।

बस अपने   आप से   कभी

भी मत         हारना     तुम।

जीत कर    ही  आयो   तुम

जिन्दगी वह   तावीज     है।।


कोशिश करो कभी बिखरो

तो    कभी   संवर  जायोगे।

होता यही है   कभी डूबोगे

तो कभी    उबर    आओगे।।

याद रखो  कि   कर्म  कभी

निष्फल    नहीं     होता  है।

रह जायेगी  कमी  कभी तो

कभी जरूर    सुधर  पयोगे।।


मन में भरा  मैल जीवन को

भी  नरक     बना    देता है।

दृढ़ संकल्प हर जीवन स्वप्न

को  साकार   बना   देता  है।।

हर स्तिथि में जोशऔर होश

का संतुलन है बहुत  जरूरी।

जो लेता विश्वास से काम वो

निश्चय  आकार बना लेता है।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब।।।          9897071046

                     8218685464

अब मरने को जी करता है....

अब मरने को जी करता है....

साथ अगर तेरा मिल जाता, जाने क्या से क्या हो जाता।

देख  रहे  हो हालत मेरी, कैसे बदलें चाहत तेरी।

जीवन की पथरीली राहों पर, चलने से मन डरता है।

अब मरने  को जी करता है।।


ख़ुद्दारी  की  ऐसी  दृष्टि, नफरत की हर ओर से वृष्टि।

शोक हमारा हृदयकुंज है, तमस भरा दिख रहा पुंज है।

निर्धनता-निर्बलता का अपराध बोध पल-पल करता है।

अब मरने को जी करता है।।


नाश नगर में घूम रहा हूं, ख़ुद को खुद में ढ़ूंढ़ रहा हूं।

छल प्रपंच के अमर बेल में, जानें कैसे झूल रहा हूं।

जिंदाशव हू़ं नवजीवन को ढूंढ रहा हूं, छलक अश्रु से सब दिखता है।

अब मरने को जी करता है।।


जीवन के पथ पर चलते, रासरंग से यौवन के उन्माद भरे थे।

ख़ुद के भूलों के अनुभव पर, यूं अधूरी अंधेरी सी रात भरे थे।

सपने हों साकार सभी, स्मृति की चांदनी में सब उभरता है।

अब  मरने  को  जी  करता  है।।

  दयानन्द त्रिपाठी दया

एस के कपूर श्री हंस

 *रचना शीर्षक।।*

*इंसानियत साथ रखना हमेशा*

*इस जीवन के सफर में।।*


यह जीवन की   चक्की यूँ ही

चलती       रहती   है।

सुख दुःख   के     पाटों     में

मचलती    रहती है।।

जो आशा   और  विश्वास की

लौ रखता  जलाकर।

जिन्दगी   हर   दिन    उसकी

संवरती    रहती   है।।


जीवन को   मानो  जैसे   इक

खुशियों का त्यौहार है।

लाता एक साथ   सुख   दुःख

कई    हज़ार     है।।

केवल एक बात   याद  रखना

अपने इस जीवन में।

तेरी सबसे   बड़ी    पूँजी  तेरा

अपना व्यवहार है।।


बीते कल का   अफसोस सदा

मत    करते    रहना।

जो है आज   का   दिन    वही

तेरा असली    गहना।।

आने वाले   कल  की     चिंता 

नहीं       जरूरी     है।

सोचो बस आज     के  बारे में

यही सबका कहना।।


इंसानियत सदा  साथ   रखना

इस सफर आम में।

यही काम     आयेगी   तेरे  हर

किसी   मुकाम  में।।

जीवन इक     प्रतिध्वनि    वही

आता है   लौट कर।

करता जो     चालाकी    उसका

अंत रहता नुकसान में।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब।।            9897071046

                     8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *त्रिपदियाँ*

हो गई है शून्य अब संवेदना भी,

हो गई कुंठित सभी की चेतना भी।

अब न होती मन में कोई वेदना भी।।


क्या हो गया संसार को भगवन तेरे,

लौट जाते हैं सभी भिखारी सवेरे।

डाँट भी खाते जभी लेते हैं फेरे।।


 हो गया अभी इंसान है पाषाण क्यूँ,

हरे इंसान ही इंसान का प्राण क्यूँ?

नहीं होते दिखे विश्व का कल्याण क्यूँ??


अब तो चलाओ कोई जादू ऐ खुदा,

इस डूबती कश्ती के तुम हो नाखुदा।

नहीं इंसानियत की सोच अब हो जुदा।।


चमन में दोस्ती के फूल खिलते रहें,

दिलों में दोस्ती के भाव पलते रहें।

सब लोग आपस में गले मिलते रहें।।

           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

               9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 *प्रेम के गीत*

और प्रेम गीत कुछ लिखना

मुस्काते ही गाते रहना

चलते रहना प्रेम पंथ पर

हँसते-गाते सब कुछ कहना।।


केवल प्रेम-पत्र बस लिखना

अँगड़ाई ले खूब मचलना

लिख दो सबकुछ मन में जो हो

खूब थिरकना खूब चहकना।


लिखते रहना उछल-कूदकर

सहज उकेरो फुदुक-फुदुक कर

स्याही से रंग देना कागज

लिये लेखनी नाच-नाच कर ।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

निशा अतुल्य

 कविता 

तुम बिन जग सूना

2.12.2020


सुनो 

रुको कुछ मेरी बात सुनो

ये जो प्रेम निशानी है तुम्हारी 

हर पल इसको याद रखना साथी

जाओ कर्मपथ पर तुम 

पर लौट तुम्हें आना होगा ।


मैं जीवन संगनी हूँ तेरी 

इन राहों पर हूँ साथ सदा

ये जीवन पथ की पटरी है

जिस पर हमको है चलना ।


सुख दुख जीवन का मेला है 

जो हरदम साथ ही रहना 

मैं रहूँ इंतजार में तेरी 

तू आने की कोशिश करना ।


मैं रोक नही सकती तुमको 

ये कर्मपथ तुम्हारा है

देश सेवा का लिया जो व्रत

वही तुम्हें निभाना है 

तुम साँसों में बसे हो मेरे 

जीवन भर साथ हमारा है ।


मेरी धड़कन और दिल तेरा 

दिल मेरा धड़कन है तेरी 

मिल कर जुदा न होंगे कभी

ये दोनों को वादा करना ।


साजन तुम जीत कर आना 

मैं प्रतीक्षा रत रहूँगी सदा

तुम बिन जग सूना है मेरा

ये बात तुम्हें है बतलाना ।


तुम खुशियाँ मेरे दामन की

हर खुशी तुमने मुझ पर वारी 

एक खुशी मैं तुमको दूँगी 

अब देखो साजन मेरी बारी ।


स्वरचित 

निशा"अतुल्य"

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल


उसकी बातों में ऐसा जाल रहा

उसमें फँसकर भी मैं निहाल रहा


लाख देखे  हसीन मेले में 

हुस्न उसका ही बेमिसाल रहा


पढ़ ही लेता है वो मेरे ग़म को 

 उसकी आँखों का यह कमाल रहा


जब भी आँसू कहीं गिरे मेरे

देता हरदम मुझे रुमाल रहा 


तीरगी थी रह-ए-सफ़र लेकिन

बन के राहों में वो हिलाल रहा


तोड़ दीं उसने रूढ़ियाँ सारी

उसका किरदार इक मिसाल रहा


उसने देखा नहीं मुझे मुड़कर 

ज़िन्दगी भर यही मलाल रहा


तोड़ वादा वो क्यों गया साग़र

आज भी उलझा यह सवाल रहा 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

हिलाल-चंद्रमा 

सुनीता असीम

 यूं जिगर अपना जलाना ही न था।

पास प्रीतम को बुलाना ही न था।

*****

वो कहेंगे बेवफा हमको अगर।

लाज का घूंघट हटाना ही न था।

*****

कान्हा को मैं रिझाती क्यूं रहूँ।

वो हुआ मेरा दिवाना ही न था।

******

रास्ते में भीड़ थी भारी रही।

ये नया तेरा बहाना ही न था।

******

इस मुहब्बत में मिले धोखे कई।

दिल हजारों से लगाना ही न था।

******

हिज्र देना  है मुझे जो     सांवरे।

नींद से मुझको जगाना ही न था।

******

तिश्नगी बढ़ती चली जाती मेरी।

प्यार की मदिरा पिलाना ही न था।

******

सुनीता असीम

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