काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार अरविंद श्रीवास्तव

अरविंद श्रीवास्तव 

2-साहित्यिक उपनाम-अरविंद की असीम 

3-साहित्य सेवा-हिंदी व अंग्रेजी में लिखित व संपादन पुस्तकें, गाईड्स, सीरीज, ग्रामर बुक्स व प्रकाशन हिंदी पत्रिकाएँ 103 के पास, बच्चों के लिए विद्यालय के लिए कई नाटकों का लेखन। 

4-पत्रिकाओं का उद्धरण -5 मासिक, अर्धवार्षिक, वार्षिक पत्रिकाएँ 

5-प्रदर्शन-डाॅक्यूमेंट्री फिल्म 'बिटिया रानी' में महत्वपूर्ण भूमिका, कई नाटकों में विद्यालय स्तर पर प्रदर्शन 

6-आकाशवाणी के तीन केंद्रों से o संबद्धता-कहानी वाचन, आलेख वाचन, काव्य पाठ 

7-वीडियो संस्करणों-आज का वातावरण, प्रेम के रंग (काव्य पाठ) -इंदौर और मुंबई से निर्गत 

8- * सम्मान-विदेश में * (मास्को रूस, काठमांडू और म्यान्मार बर्मा में) 7 सम्मान 

 * देश में-लोकसभा अध्यक्ष श्री * * ओमकृष्ण बिरला जी द्वारा 'साहित्य श्री' सम्मान सहित 100 से अधिक * सम्मान।

 * महत्वपूर्ण दायित्व- अध्यक्ष-एकल अभियान परिषद जिला-दतिया, अभिभावक-संस्कार भारती जिला-दतिया, संयोजक-मगस द्रम जिला, * 

& लगभग 7 अन्य साहित्यिक व समाज सेवा से संबंधित संस्थाओं में राज्य व जिला स्तरीय शीर्ष पदभार।

विशेष-जून 2018 में * मास्को में * 2 पुस्तकों का विमोचन, जनवरी 2020 में 3 पुस्तकों का विमोचन * रंगून * (बर्मा) में सम्पन्न।

संपर्क -150 छोटे बाजार दतिया (म • प्र •) 475661

मोबा 94257 26907

क्रम 1

 (नवगीत- अज्ञानता)

भूख से पेट खाली होना

 कौन-किसकी मानता है

 फिर उसे उपदेश देते हैं 

यह मह अज्ञानता है।

                  झूठा को भरोसा था      

                   चैन की Hereat लेगी

                    बायडे थर्को मिले थे 

                   एक दुनिया भी रहती है 

                   । बंधी हुई साद ही मिली 

                संताप दिल से झांकता है।

                

तिकड़मी थे जो जहाँ में 

बहुत आगे बढ़ गया 

वैभव मिला, अधिकार मिला 

कई सीढ़ियां बे चढ गई 

 आजकल हर आदमी

 यह बात को भी जानता है।

                 जीवन कैसे कटे      

                  दुख- दर्द से दुखिया भरा 

                  न्याय- दौलत चंद के हाथ

                 आम इंसा है डरा

                 नीति क्या है, रीति क्या है       

                 कौन यह सब मानता है 

    डॉ। अरविंद श्रीवास्तवअसीम दतिया 

क्रमांक -2

 * -मेरा शहर - (* नवगीत)

 मेरा शहर रात-दिन जीता 

कल के बारे में - तनाव 

कहीं हो रहा है शोर-शराबा                                  

कुछ दिखा रहा है

             अलग-अलग कपड़ों में शोभित

             धर्मों के अनुयायी 

           शांति, दया, की भाषा जिनको 

             कभी भई नहीं    

             अंधकार के गुप्त समर्थक      

            जनता पर बड़ा प्रभाव है। 

राजनीति के धार -पेच

 हमने कभी समझ नहीं पाया 

 छत दीवालों पर बैठी 

पर मन ही मन इतराए

दरवाजे का घर आंगन से 

   क्यों बदल गया।

           भीड़ कहर बन कर टूटी

            हिंसा का तांडव है 

           निरस्त कर दिया गया है                         

          यह 'असीम' अनुभव है

         बंद पुलिस वालों ने आकर        

         वहाँ पड़ना।

         मेरा शहर •••••••


 * डॉ। अरविंद श्रीवास्तव 'असीम' * 

दतिया (मध्य प्रदेश) 

मोबाईल 94 257 26 907

क्रम ३

* जाने कितना अच्छा लगेगा * 

जा रहा है कितनी देर लगेगा 

उत्तर पाने में 

मुझको अपना भला लगा दिया

 गूंगा बन जाना।

             उगते सूरज के स्वागत में        

              हाथ जोड़ सब खड़े हो गए      

              अंधकार से लड़ने वाला     

               जुगनू दिखते डेरे हुए     

              चाटुकारिता भरी हुई क्यों      

              कोयल के हर गाने में।

 खुद जिंको समझा जग में 

वे स्वारथ के मित्र से मिले 

जिनको अपने लहू से सींचा 

उनकी हाल ही में विडियोग्रफी हुई 

दर्द सदा सह गया 

संबंध मानते हैं।

             न्यायिक कमजोर हुआ है     

             हर मजलूम सिसकता है          

            लूट -मार का दौर चल रहा     

           न्याय की दिखी विवशता है 

            निरपराध को बंद किया क्यों

            रात- रात भर थाने में।

 कुर्सी उनको मिली 

रखा ना जनता से नाता

 सेवा का दायित्व निभाना 

नहीं उन्हें आता 

कुचल दिया अरमानों को क्यों 

इस बेजार जमाने में।

 डॉ अरविंद श्रीवास्तव 'असीम '

150 छोटा बाजार दतिया

 मोबाइल 9425726907

क्रमांक 4

 *कविता (खुशी)* 

मैंने अनवरत श्रम किया

 कठिन जीवन जिया।

  वांछित सफलता पाई 

पर वह नहीं मिल पाई ।

जीवन में नाम कमाया

 पर्याप्त सम्मान पाया ।

फिर भी जिसकी तलाश 

वह नहीं मिल पाई ।

यह बात समझ नहीं आई ।

पर एक दिन 

जब एक गिरते को उठाया 

बीमार को अस्पताल पहुंचाया ।

एक रोते हुए को हंसाया 

भूले -भटके को रास्ता दिखाया।

 एक भूखे को भोजन कराया

 प्यासे को पानी पिलाया ।

तो वह मुझे 

अनायास मिल गई

 मेरे सूने मन- आंगन

 में उतर गई। 

जिसकी मुझे तलाश थी

वह खुशी मांगने से नहीं  

बांटने से मिलती है 

वह पाने में नहीं, 

देने में ही मिलती है।

 डॉ। अरविंद श्रीवास्तव 'असीम' 

150 छोटे बाजार दतिया (मध्य प्रदेश) 475661 

मोबाइल 9425726907

क्रम 5

 * कविता --- देश प्रेम * 

 देश- प्रेम के प्रवल भाव से

 मन के सुंदर सुमन विहँसते।

 गंध गंध अनुपम होती है

 बलिदानों के पेज महकते।

            उग्रवाद, आतंक फैल गया है

            देश प्रेम ही इसका हल है।

           देशभक्ति से बढ़कर लुक

           दुनिया में ना कोई ताकत है।

 सीमाओं की रक्षा करना

 इसी भावना का नट है।

और वतन पर मरना-मिटना

  इसी भावना का द्योतक है।

            देश प्रेम की भावना नहीं 

            वह प्राणी केवल पत्थर है।

            कौन कहेगा थेरो मैन         

            वह तो पशु से भी बदतर है।

 देश प्रेम के सरस भाव को 

अब 'असीम' हम सब स्वीकार करते हैं। 

सत्य, धर्म के अनुशीलन 

देशभक्ति को और निखारें।

    * डॉ। अरविंद श्रीवास्तव 'असीम' *       

         150 छोटे बाजार दतिया      

         (मध्यप्रदेश) 475661 

        मोबाइल 9425726907

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 दोहे-(घड़ी-माहात्म्य)

घड़ी नियंत्रित ही रखे,दिनचर्या के काम।

कभी नहीं थकती घड़ी,चले बिना विश्राम।।


खाएँ-पीएँ समय से,जगें समय से लोग।

करें कर्म सब समय से,यही रचे संयोग।।


उदय-अस्त रवि-चंद्र का,सब जाने संसार।

अपनी यात्रा से घड़ी,करती समय-प्रसार।।


खेत-खान-खलिहान हों,दफ़्तर छोट-महान।

समय-सूचिका घड़ी यह,सबका रखती ध्यान।।


अतुल यंत्र यह समय का,पल-पल रखे हिसाब।

कहीं नहीं खोजे मिले, ऐसी गणित-किताब।।


यह प्रणम्य-नमनीय है,रखे काल निज हाथ।

मानव को कर सजग यह,देती उसका साथ।।

            © डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 *बुरा मत समझ...*

     *(ग़ज़ल)*


बुरा मत समझ प्रेम को दुनियावालों।

नाजुक अमर तत्व को नित सँभालो।।


स्वयं ईश रूपी इसे जान लेना।

करो प्रेम-पूजा इसे बस बचा लो।।


नैसर्गिक परम प्रिय सबल संपदा यह।

महा शक्ति को नित सजा  दुनियावालों।।


महा औषधी यह बीमारों का हमदम।

सुरक्षित रखो इसको हरदम बुला लो।।


कोमल बहुत यह कली है

चमन की।

इसको सजाओ सँवारो बचा लो।।


हृदय पक्ष इसका बहुत कोमलांगी।

नरमी कलाई को दिल से लगा लो।।


नफरत न करना यह आशिक पगल है।

इसे आशियाना दे प्रति पल बसा लो।।


जुबां प्रेम की मीठी होती बहुत है।

चखो स्वाद इसका हृदय में समा लो।।


दुश्मन बहुत  प्रेम  के भेड़िया हैं।

बचा प्रेम को नित्य माथे लगा लो।।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

नूतन लाल साहू

 सलाह


जहां आदर नहीं, वहां जाना मत

जो सुनता नहीं,उसे समझाना मत

जो पचता नहीं,उसे खाना मत और

जो सत्य पर भी रूठे,उसे मनाना मत

तीन लोक में तुम्हारा वास

काहे को फिरत उदास

यदि सुनता नहीं तेरा कोई तो

जबरदस्ती सुनाना भी है पाप

अपना रूप पहचान रे मन

यही तो दर्शन है भगवान का

जैसे कस्तूरी बसे मृग के माही

फिर भी बन बन ढूंढे,सुंघे जाही

जहां आदर नहीं, वहां जाना मत

भेद भरम अगर रहें न कोई

तो दुःख सुख जग में न ब्यापे

ब्रम्ह ही ब्रम्ह हर जगह समाया

ब्रम्ह ही ब्रम्ह में तू गोता लगा ले

दुनिया का मेला है,रंगो से भरा

भीड़ में कहीं खो न जाना

ज्ञान के निर्मल जल से

भवसागर पार हो जायेगा

जो सुनता नहीं,उसे समझाना मत

ऋतु आयेगी,ऋतु जायेगी

जीवन में भक्ति की धारा,बारह मास हो

प्रभु जी के चरण में, सिर झुका रहें हर घड़ी

जब तक एक भी स्वांस हो

जहां आदर नहीं, वहां जाना मत

जो सुनता नहीं,उसे समझाना मत

जो पचता नहीं,उसे खाना मत और

जो सत्य पर भी रूठे,उसे मनाना मत

नूतन लाल साहू

राजेंद्र रायपुरी

 😊 ख़ुद को थोड़ा और उछालो 😊


अंबर  को   छूने  के  सपने, 

  अपने  मन  में  पालो  भाई।

    तभी सुनो तुम पा सकते हो,

      तारों से भी  अधिक ऊॅ॑चाई।


ख़्वाब  नहीं  जो  ऊॅ॑चे  होंगे, 

  कैसे   ऊॅ॑चा   उठ   पाओगे।

    कीट- पतंगे  धरती  के  तुम, 

      सच मानो  बन रह जाओगे।


बड़े   इरादे   वाले    ही   तो,

  इस जग में कुछ कर पाए हैं।

    अपनी  नहीं  संग  में सबकी, 

      पीर   वही  तो   हर  पाए  हैं।


सोचो  यदि  हनुमान  न  होते,

   बैठे  कपि  सागर   तट  रोते।

    सागर   पार   न   कोई  जाता,

      सभी   हाथ   प्राणों   से   धोते।


बचपन  में  ही  अंजनि  लाला,

   बड़े-बड़े   सपने    था    पाला।

    तभी  बना  पाया  था   बालक, 

      सूरज  को  जा  गगन निवाला।


ऐसे    बहुत    लोग    हैं   भाई, 

  जिनने    ऊॅ॑चे     सपने    पाले।

    लगता  था  जो  काम  असंभव,

      उनने   वो   संभव   कर   डाले।


तुम   भी   सपने    ऊॅ॑चे   पालो, 

  काम  न  संभव  वो  कर  डालो।

    नहीं    कूप - मंडूप    बनो   तुम, 

      ख़ुद   को   थोड़ा  और  उछालो।


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-10

पुनि उठि प्रात तुरत रघुराई।

सचिवहिं तें निज बाति बताई।।

    जामवंत तब कह नत माथा।

    सकल उपाय तु जानउ नाथा।।

बुद्धि-प्रताप तुमहिं आगारा।

कर उपाय निज मति अनुसारा।।

    भेजब हम अंगद कहँ तहवाँ।

     लंका नगर दनुज रह जहवाँ।।

तव बिचार आहै बड़ नीका।

अंगद-गमन अतीव सटीका।।

      बल-बुधि-तेजहिं नामी अंगद।

       जाहु तुरत तुम्ह रावन-संसद।।

जाइ तहाँ करु हितकर काजा।

बल-बुधि बूते करि कछु छा जा।।

    प्रभु-आग्या लइ छूई चरना।

    उठि अंगद कह नहिं कछु करना।।

करिहैं स्वयं राम रघुराई।

राम-कृपा मैं आदर पाई।।

    बंदि मनहिंमन प्रभु-प्रभुताई।

     बालि-तनय निकसा तहँ धाई।।

पहुँचि लंक रावन-सुत पाई।

खेल-खेल मा भई लराई।।

     अंगद लातन्ह-घूसन्ह पीटा।

      मारि-मारि तेहिं बहुत घसीटा।।

बध नरेस-सुत देखि निसाचर।

भागहिं इत-उत बिकल बराबर।।

      कहहिं सुनो पुनि आवा बानर।

       गवा रहा जे लंक जराकर ।।

डरि-डरि तब सभ दिए बताई।

जहँ रह रावन-सभा सुहाई।।

सोरठा-सभा मध्य लंकेस, अंगद सुमिरत प्रभु-चरन।

            कीन्हा तुरत प्रबेस, केहरि इव चितवत सबहिं।।

                           डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                             9919446372

कालिका प्रसाद सेमवाल

 *हे मां वीणा धारणी वरदे*

********************

हे मां वीणा धारणी वरदे

योग्य पुत्र बन सकूं

ऐसा मुझे वरदान दे

वाणी में मधुरता दे

जीवन में सबका हित करु

ऐसा मुझे संस्कार दे।


हे मां वीणा धारणी वरदे

दृष्टि में पवित्रता दे

चित्त में सुचिता भर

आहार में सात्विकता देना

स्नेह में शुद्धता देना

जीवन में सत्यता देना।


हे मां वीणा धारणी वरदे

कर्म में सत्कर्म देना

व्यक्तित्व में रमणीकता देना

बुद्धि में दिव्यता देना

कला में निपुणता देना

सम्बन्धो में निर्लिप्तता देना।

******************

कालिका प्रसाद सेमवाल

मानस सदन अपर बाजार

रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


*हे मां वीणा धारणी वरदे*

********************

हे मां वीणा धारणी वरदे

योग्य पुत्र बन सकूं

ऐसा मुझे वरदान दे

वाणी में मधुरता दे

जीवन में सबका हित करु

ऐसा मुझे संस्कार दे।


हे मां वीणा धारणी वरदे

दृष्टि में पवित्रता दे

चित्त में सुचिता भर

आहार में सात्विकता देना

स्नेह में शुद्धता देना

जीवन में सत्यता देना।


हे मां वीणा धारणी वरदे

कर्म में सत्कर्म देना

व्यक्तित्व में रमणीकता देना

बुद्धि में दिव्यता देना

कला में निपुणता देना

सम्बन्धो में निर्लिप्तता देना।

*****************

कालिका प्रसाद सेमवाल

मानस सदन अपर बाजार

रुद्रप्रयाग उत्तराखंड



डॉ० रामबली मिश्र

 *हकीकत (ग़ज़ल)*


जमीनी हकीकत बयां कर रहा हूँ।

समझो नहीं कुछ नया कह रहा हूँ।।


तुम्हारा चलन कितना सुंदर ग़ज़ल है।

सजन के लिये मैं ग़ज़ल लिख रहा हूँ।।


सुहाना ये मौसम प्रकृति मृदु लुभानी।

सहज भाव में मैं सजल लिख रहा हूँ।।


अच्छे दीवाने मधुर भाष निर्मल।

सजन के लिये इक भजन लिख रहा हूँ।।


सुंदर सलोने परम प्रीति ज्ञानी।

गोरे वदन पर नमन लिख रहा हूँ।।


आँखें हैं प्यासी तड़पता हृदय है।

मादक स्वरों में शरण लिख रहा हूँ।।


देखा है जब से पुकारा है मन से ।

भावों में बह कर वरण लिख रहा हूँ।।


प्रिय का मिलन कैसे होगा असंभव?

मस्ती में अंतःकरण लिख रहा हूँ।।


पढ़ता हूँ पोथी मैं लिखता हूँ गाथा।

बड़े प्रेम से छू चरण लिख रहा हूँ।।


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल---


आज़र से अपने रहते हो तुम जो खफ़ा-खफ़ा 

ऐसा न हो तराश ले वो बुत नया-नया


तूने उसी को तोड़ा ये क्या हो गया तुझे

जिस बतकदे में रहता था तू ही छिपा-छिपा


मैं जुस्तजू में उनकी जो पहुँचा चमन-चमन

गुंचे बुझे-बुझे से थे हर गुल लुटा-लुटा


सदियों किसी के ग़म में जले इस तरह से हम

जैसे हो इक दरख़्त सुलगता हरा-हरा


दिल में किसी सनम की मुहब्बत लिये हुए

काटी तमाम उम्र ही कहते ख़ुदा-ख़ुदा


हर शख़्स को है एक ही मंज़िल की जुस्तजू 

वाइज़ बताये रास्ते फिर क्यों जुदा-जुदा


*साग़र* यक़ीं न करते नजूमी की बात पर

तक़दीर का लिखा जो न होता मिटा-मिटा


🖋विनय साग़र जायसवाल

आज़र-मूर्तिकार ,शिल्पी ,

संगतराश

नूतन लाल साहू

 जिज्ञासा


देर से बनो लेकिन कुछ बनो

लोग वक्त के साथ

खैरियत नहीं हैसियत पुछते है

सब योनि सब भोग मिलेंगे

मानुष तन दोबारा नहीं मिलेंगे

हरि का गुण निशदिन नहीं गाया

नाम धरा तेरा इंसान

बात करे तो उल्टा बोले

छोड़ दें मान गुमान

देर से बनो लेकिन कुछ बनो

लोग वक्त के साथ

खैरियत नहीं हैसियत पुछते है

यह संसार कांटे की बाड़ी

उलझ पुलज मर जाना है

कबहू न संत शरण में आया

बूंद पड़े घुल जाना है

ये दुनिया है चार दिनों की

रिश्ते नाते है सब मतलब की

जग में पहचान ऐसा बना ले

जैसे गौतम गांधी ने बनाया

देर से बनो लेकिन कुछ बनो

लोग वक्त के साथ

खैरियत नहीं हैसियत पुछते है

आत्म ज्ञान बिना नर भटकत है

क्या मथुरा क्या काशी

पानी बीच में मीन प्यासी

मोहे सुन सुन आवे हांसी

अरे मन तू किस पै भूला है

बता दें कौन तेरा है

जग में पहचान ऐसा बना ले

जैसे भक्त प्रहलाद ने बनाया

देर से बनो लेकिन कुछ बनो

लोग वक्त के साथ

खैरियत नहीं हैसियत पुछते है

नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-9

तब सभ गे झुकाइ निज माथा।

होइ बिनीत लंकपति नाथा।।

     पर नहिं चैन मँदोदरि मन महँ।

      सोचै बिकल घुमरि सो जहँ-तहँ।।

नयनन नीर दोउ कर जोरे।

कहा नाथ बड़ चिंता मोरे।।

     तजहु राम सँग निज रिपुताई।

     देइ सीय तिन्ह करउ मिताई।।

राम अहहिं सुनु बिस्वस्वरूपा।

सकल लोक प्रभु-रूप अनूपा।।

     कह अस बेद, करउ बिस्वासा।

     होई मुक्ति रखहु तुम्ह आसा।।

चरन पताल, ब्रह्म प्रभु-सीसा।

भृकुटि काल,रबि सम जगदीसा।।

       अस्विन कुमारइ राम-नासिका।

        दस दिसि अहहीं श्रवन-तंत्रिका।।

कारे जलद राम कर केसा।

रात्रि-दिवस प्रभु-पलक निमेसा।।

     पवनइ स्वांस,निगम प्रभु-बानी।

      सुनहु नाथ अस बेद बखानी।।

लोभ अधर,जमराजहि दंता।

माया हँसी व बाहु दिगंता।।

     प्रभु-मुख अनल,बरुन प्रभु-जिह्वा।

     रचना-पालन-नास अपुर्वा।।

अठरह अगनित बनजहिं रोमा।

अस्थि नाथ सभ पर्बत-खोमा।।

     प्रभु-तन-नस सरिता महि अहहीं।

     सिंधु उदर नरकेंद्रिय अधहीं।।

ब्रह्मा बुधि, अभिमानहिं संकर।

चित्त बिष्नु,मन चंद्र मयंकर।।

      अस प्रभु राम चराचर बासा।

      मनुज-रूप जग करहिं निवासा।।

अस रामहिं सँग करउ मिताई।

तजि रिपुता अहिवात बचाई।

     श्रवन लगहिं तव बचन सुहाने।

      कह रावन मम चितहिं अघाने।।

निसि बीती अस करत बिनोदा।

गया सभा पुनि रावन मोदा।।

दोहा-सुधा न बरसहिं कबहुँ घन, लागै फर नहिं बेंत।

         खरहिं पढ़ावउ बेद बरु,वाको हृदय न चेत।।

                           डॉ0हरि नाथ मिश्र

                            9919446372

कालिका प्रसाद सेमवाल

 सरस्वती वंदना

**************

जयति जय जय वीणा वादिनी

कमल आसन पर तू विराजे

शुभ्र वस्त्र से मां तू साजे

शीश नमन करता हूँ तेरे आगे।


सबको विद्या बुद्धि का दान दे

ना रहे मां कोई भी अज्ञानी

सभी राग द्वेष से दूर हो

जयति जय वीणा वादिनी।


अज्ञानता और भ्रमित मन में

भरो ज्ञान की संचेतना

भव बंधनो के जाल से

तार दो मां श्वेताम्बरा।


प्रार्थना तेरे चरणों में मेरी

स्वीकार कर दो मेरी वंदना

मन वचन और कर्मणा से

मां मैं नित करु तेरी वंदना

*********************

कालिका प्रसाद सेमवाल

रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।अपने किरदार को जियें बहुत*

*ही शिद्दत से जिंदगी में।।*


आओ करें  दुनिया में     कुछ 

काम  हम      ऐसा।

दुनिया चाहे     बनना    फिर  

हम    ही     जैसा।।

किरदार को जियें   जिंदगी में

ऐसी   शिद्दत     से।

जाने से पहले  बनाये  अपना 

नाम कुछ हम वैसा।।



विश्वास झलके   हमारे     हर

किरदार            में।

कुछ कर गुजरने  का   यकीन

हो चाल    ढाल में।।

जान लो हमारे  शरीर  का हर

अंग   बोलता     है।

इनकी मौन भाषा  बोले हमारे

हर     सरोकार में।।


अरमान रखो कि    आसमां से

बात        करनी     है।

हो कैसी   भी    चुनौती    हमें

लड़ाई   लड़नी    है।।

हो इरादा    मजबूत  तकलीफ

तो महसूस नहीं होती।

अपने हर     किरदार में बस ये

बात   धरनी      है।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"

*बरेली।।।।*

मोब।।            9897071046

                     8218685464

डॉ० रामबली मिश्र

 *आप अगर होते..*

   *(ग़ज़ल)*


आप अगर होते तो रमता।

रमण काल में सब कुछ कहता।


देर नहीं करता  मैं थोड़ी।

रहता सारा भेद उगलता।।


दिल में छिपे तथ्य सारे हैं।

सबको कह कर हल्का बनता।।


तुम अप्राप्य हो यह जग जाहिर।

 पर निकाल कर सब कुछ रखता।।


 भगवन से मिलना संभव है।

नहीं असंभव संभव बनता।।


पर कल्पन में तुम्हीं रमे है।

लिये कल्पना लोक विचरता।।


मत आओ पर बनो कल्पना।

लिये कल्पना सदा थिरकता।।


नहीं कल्पना से बाहर हो।

संग कल्पना नित्य विहरता।।


दृढ़ संकल्पित रहे कल्पना।

इच्छा पूरी करता रहता।।


मैं वनवासी इश्क धाम का।

जंगल जंगल घूमा करता।।


मन में रहो हृदय में उतरो।

इस प्रकल्प को स्थापित करता ।।


बहुत कल्पनालोक लुभावन।

प्राक्कल्पना पर चढ़ चलता।।


अनुमानों से हाथ मिलाकर।

सदा असंभव संभव करता।।


सकल सृष्टि को मुट्ठी में रख।

प्रेम-मेघ बन घुमड़ा करता।।


निश्चिन्तित हो शांत पथिक सा।

सबके उर में छाया रहता।।


आप कल्पना दृश्य मनोहर।

दृश्य देखता हर्षित रहता।।


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 त्रिपदियाँ

भोली सूरत पे मत जाना,

इसका कोई नहीं ठिकाना।

मालिक,इससे सदा बचाना।।

----------------------------------

कलियों में आते  तरुणाई,

भौरों ने गुंजन-धुन गाई।

मधु-रस चख कर लें अँगड़ाई।।

------------------------------------

दुर्जन की संगति मत करना,

तुमको कष्ट भले हो सहना।

सुनो,नीति का है यह कहना।।

--------------------------------------

संत-समागम सुख अति देता,

मूल्य नहीं बदले में लेता।

संत-समागम सुबुधि-प्रणेता।।

---------------------------------------

सुंदर सोच,कर्म नित शुभकर,

ऐसी प्रकृति सदा हो हितकर।

टिका विश्व शुचि चिंतन बल पर।।

-----------------------------------------

राजनीति का खेल निराला,

आज शत्रु कल मीत हो आला।

पड़े न गठबंधन से पाला ।।

        © डॉ0 हरि नाथ मिश्र

            9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 *प्यार आपका..(चौपाई)*


प्यार आपका दिव्य प्रसादा।

 सहज  शांतिपूर्णअपवादा।।


दिल करुणा का गहरा सागर।

दयापूर्ण भाव का नागर।।


परम प्रसन्न वदन मनमोहक।

वाणी में अमृत रस बोधक।।


नयनों में प्रेमाश्रु समाया।

बात-बात में रस बरसाया।।


अधरों पर है प्रेम कहानी।

सहज भावना की रसखानी।।


मन में उत्तम भाव उमंगा।

वचन-लहर में दिखतीं गंगा।।


अति श्रद्धेय सदा कल्याणी।

दिव्य ज्ञानमय अमृत वाणी।।


सबके उर में बैठे गाते।

मानवता का पाठ पढ़ाते।।


बने हिलोरे मार रहे हो।

प्रेम गीत को सुना रहे हो।।


अति महनीय महंत महाशय।

अति सुंदर वाक्यों के आशय।।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801



*कैसे मैं...*

*(सजल)*


कैसे मैं खुद को समझाऊँ?

विरह गीत कैसे मैं गाऊँ??


टीस बहुत है मेरे मन में।

कैसे मैं जग को अपनाऊँ??


कदम-कदम पर मिले थपेड़े।

कैसे मैं खुद को बहलाऊँ??


धोखा खाता चला आ रहा।

क्या इसका डंका पिटवाऊँ??


खत्म हो गई सारी क्षमता।

कैसे मन को आज मनाऊँ??


नफरत ने कुचला है मुझको।

कैसे पावन प्रीति निभाऊं??


दल-दल में फँस गये पाँव हैं।

बतला कैसे पैर चलाऊँ??


तोड़ चुके विश्वास बहुत से।

फिर कैसे विश्वास जमाऊँ??


ईर्ष्या -द्वेष भरा है सब में।

कैसे जीवन पर्व मनाऊँ??


अब तो बस है यही सोचना।

स्वयं स्वयं को शीश नवाऊँ।।


नहीं सोचना कभी अन्यथा।

केवल अपने में खो जाऊँ।।


रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ० रामबली मिश्र

 *बैठो प्रेम मंच पर*    *(चौपाई ग़ज़ल)*


बैठो प्रेम मंच पर आ कर।

सबसे मिलना शीश झुकाकर।।


सबसे कहना बात एक ही।

बनें सभी नित रसिक सुधाकर।।


सबके उर में मंत्र फूँकना।

हों प्रसन्न सब प्रेम बहा कर ।।


मृतक जगत को जिंदा दिल दो।

सबको खुश रख उन्हें जिलाकर ।।


नाखुश करना नहीं किसी को।

खुद खुश होना दिल बहलाकर।।


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

सुनीता असीम

 प्यार के गीत गाके देख लिया।

दिल भी उनपे लुटाके देख लिया।

*****

जिन्दगी भर बुरा कहा जिनको।

उनको अपना बनाके देख लिया।

*****

मानता वो नहीं      मनाने से।

खूब हमने मनाके देख लिया।

*****

दिल्लगी कब तलक सही जाती।

दिल को उनका बनाके देख लिया।

*****

फर्क उनपे पड़ा नहीं कुछ भी।

हमने जी को जलाके देख लिया।

*****

सुनीता असीम

कालिका प्रसाद सेमवाल

 *कुशल शिक्षक*

**************

शिक्षक के लिये सब बच्चे पौध समान,

 रखना है सब बच्चों का ध्यान,

ऐसा करे शिक्षक  अपना आचरण,

बच्चा करे शिक्षक का अनुशरण।


बच्चों का दिल अति कोमल होता है,

जैसा चाहो उन्हे  बना  लो,

बच्चों का दिल कभी भी न टूटे ,

 रखना है शिक्षक को इसका ध्यान।


अपनी गरिमा शिक्षक बनाये ,

फिर बच्चों को कक्षा  शिक्षण कराये,

प्यार- प्रेम और गतिविधि से पढ़ाये,

तभी वह उत्कृष्ट शिक्षक कहलाये।


निर्मल हृदय होता है बच्चों का,

उन्हें योग्य और परिश्रमी बनाओ,

अवगुणों उन में न रहे कोई

शिक्षक उच्च आचरण हमेशा बनाये।


किसमें कैसी कितनी प्रतिभा है,

करनी है शिक्षक को इसकी पहिचान,

सुचिता  का शिक्षक  दीप  जलाए,

तब बच्चों को शिक्षण कराये।


बदल रहा परिवेश देश का,

बदलनी होगी अब अपनी सोच,

है उच्च चरित्र यदि   आपका,

 शिष्य  भी निर्मल बन जाता है।


प्रारंभिक कक्षाओं का शिक्षण,

स्थानीय भाषा में ही कराये,

जो शिक्षक बच्चों का मनोबल बढ़ायें,

वही  योग्य कुशल शिक्षक कहलाये।

******************

कालिका प्रसाद सेमवाल

मानस सदन अपर बाजार

रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

मधु शंखधर स्वतंत्र

 गीत...

*विषय.. ह्रदय*

हृदय से प्रेम होता दृढ़, ह्रदय से ही घृणा पलती।

ह्रदय का भाव सर्वोत्तम, ह्रदय में भावना ढ़लती।


अटल विश्वास भी आकर, कहीं पर डगमगा जाए।

किसी का प्रेम यादों में, नैन में अश्रु भर जाए।

ह्रदय में वेदना ऐसी, गंग की धार ज्यूँ छलती।

ह्रदय का भाव सर्वोत्तम........।।


ह्रदय से जो बने रिश्ता, साथ पल पल निभाता हैं।

कभी जब साथ छूटा तो, ह्रदय भी टूट जाता है।

ह्रदय की बात है अनुपम , पवन के वेग सी चलती।

ह्रदय का भाव सर्वोत्तम......।।


ह्रदय की टूटती ध्वनि से, धारणा झूठ धाती है।

रूकी साँसे मनुज की तो,जिन्दगी रूठ जाती है।

ह्रदय करता है स्पंदन,मृत्यु मधु जीव की टलती।

ह्रदय का भाव सर्वोत्तम.......।।

मधु शंखधर स्वतंत्र

प्रयागराज ✒️

डॉ0 निर्मला शर्मा

 प्रेम का पथ


प्रेम गली अति साँकरी, बड़ा विकट है पंथ

पग-पग पर काँटे मिले, कहते सभी ये संत

राम नेह में भीग कर, कबिरा दुलहिन होय

घट-घट दीखै राम ही, दीखत ही सुधि खोय

मीरा प्रेम की बावरी, साँवरे के रंग राचि

जीवन धन अर्पित किया, मोहन प्रीत ही सांचि

मोह,माया सब त्यागकर, चले प्रेम पथ ओर

परमानन्द मिले तभी, करे प्रेम दम्भ छोड़

श्याम प्रीत उर में बसी, वासुदेव सूत जोय

गोपिन की अँखियों बसे, सूझे न दूजा कोय

परम् ब्रह्म भी प्रेमवश, भूले हैं निज रूप

छछिया भर छाछ के लोभ में, नाचे वो चितचोर

श्याम दिवानी राधिका, भोगै प्रेम की पीर

राधा श्याम का नाम ही, ज्यों गंगा को नीर

प्रेम समर्पण भाव है, प्रेम है जीवन राग

प्रेम बिना सब सून है, प्रेम भरे रस भाव।


डॉ0 निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

डॉ० रामबली मिश्र

 *सुंदर अदा में (गजल)*


सुंदर अदा में मचलते मचलते।

 मचलते ही रहना सदा चलते चलते।।


कभी सीधे हो कर कभी झुक कर चलना।

कभी टेढ़ हो कर मचलते मचलते।।


हाथों में ले कर तिरंगा मचलना।

दिशाओं में नाचो थिरकते थिरकते।।


खुद को भुलाकर कलाएँ दिखाना।

बातें सब करना बहकते बहकते।।


अदाओं से मोहित करो दर्शकों को।

अचरज दिखाना महकते महकते।।


मधुर भाव विह्वल बने दिखते रहना।

रहना हृदय को बदलते बदलते।।


सदा प्यार के बोल से मुग्ध करना।

चलते ही जाना चहकते चहकते।।


यात्रा गगन की करो बन परिंदा।

गगन को उतारो उतरते उतरते।।


मचलते ही जाना महकते ही आना।

गमकते ही रहना प्रिया कहते कहते।।


विखेरो अदायें करो मस्त सबको।

चले जाना जग से सदा हँसते हँसते।।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ०रामबली मिश्र

 *मीत चाहिये (ग़ज़ल)*


इक सुंदर सा मीत चाहिये ।

मुझको मादक प्रीति चाहिये।।


 मन करता संसार बसाना।

केवल तेरा प्यार चाहिये।।


मेरे पास सदा रहना है।

तुझ सा प्यारा यार चाहिये।।


मेरे सपनों की दुनिया में।

तेरा उर-रसधार चाहिये।।


अंकों की ही गणित चलेगी।

तीन मातृका प्यार चाहिये।।


तीन मातृका नयन सजाये।

नजरों पर एतबार चाहिये।।


दो मात्रा के मन का मिलना।

मन से मन का तार चाहिये।।


प्रेम अश्रु को अंजुलि में भर।

भावों का भण्डार चाहिये।।


अंतस्थल के तल पर लेटे।

दंभमुक्त सत्कार चाहिये।।


लगी प्यास को बुझ जाने दो।

प्रीति-नीर बौछार चाहिये।।


अधर चूमकर रस पीने का।

सुंदरतम आचार चाहिये।।


सभी तरह से एकीकृत हो।

मृदुल गुह्य मधु द्वार चाहिये।।


समरस मधुर प्रीति रस बरसे।

मोहक प्रेमोच्चार चाहिये।।


नहीं रहेंगे अंतेवासी।

सिद्ध प्रेम साकार चाहिये।।


गायेंगे नित प्रेम गीत मिल।

दिल का अविष्कार चाहिये।।


विछुड़ेंगे हम नहीं कभी भी।

प्रेमसूत्र का धार चाहिये।।


दीवाना बनकर जीना है।

प्रिय से आँखें चार चाहिये।।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

सुनीता असीम

 मुहब्बत हो गई हो तो उसे पाना जरूरी है।

जहां के सामने भी पेश करवाना जरूरी है।

******

किसी से भूल हो जाय तो माफ़ी मांग ले फौरन।

छिपाने की नहीं है बात बतलाना जरूरी है।

******

चलेगा काल का चक्कर पता तुमको नहीं होगा।

तो पहले कर्म अपने साफ करवाना जरूरी है। 

******

किसी मन्दिर से कम होता नहीं घर और आंगन भी।

तो इसमें प्रेम के पत्थर भी लगवाना जरूरी है।

******

अगर ठोकर लगे उनको तो बच्चों को नहीं डांटो।

उन्हें बस प्यार देकर खूब सहलाना जरूरी है।

******

नहीं भाए सुनीता को नज़ारा दूर से करना।

कि बांके को बुलाकर पास बैठाना जरुरी है।

******

सुनीता असीम

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 त्रिपदियाँ

भोली सूरत पे मत जाना,

इसका कोई नहीं ठिकाना।

मालिक,इससे सदा बचाना।।

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कलियों में आते तरुणाई,

भौरों ने गुंजन-धुन गाई।

मधु-रस चख कर लें अँगड़ाई।।

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दुर्जन की संगति मत करना,

तुमको कष्ट भले हो सहना।

सुनो,नीति का है यह कहना।।

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संत-समागम सुख अति देता,

मूल्य नहीं बदले में लेता।

संत-समागम सुबुधि-प्रणेता।।

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सुंदर सोच,कर्म नित शुभकर,

ऐसी प्रकृति सदा हो हितकर।

टिका विश्व शुचि चिंतन बल पर।।

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राजनीति का खेल निराला,

आज शत्रु कल मीत हो आला।

पड़े न गठबंधन से पाला ।।

        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

            9919446372

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