एस के कपूर श्री हंस

 *।।क्यों मुझको पसंद है संस्था*

*काव्य रंगोली।।*

*((काव्य रंगोली लखीमपुर )पटल व संस्था*

*की विशिष्टता पर आधारित*

*मेरी रचना।)*


रंग रंग बिखरे हैँ   साहित्य

के     जहाँ    पर।

नित प्रतिदिन    नव सृजन

होता    वहाँ   पर।।

सुविख्यात काव्य   रंगोली

संस्था कहलाती वो।

रचनाकारों  का      सम्मान

होता    यहाँ     पर।।


जिला स्थान  छोटा ही सही

दिल बहुत बड़ा है।

हर पदाधिकारी  स्वागत को

आतुर      खड़ा है।।

हर उत्सव पटल    मनाता है

हर्षोल्लास        से।

कविता रंग   यहाँ हर  किसी

पर    चढ़ा       है।।


व्यवस्था  व  अनुशासन यहाँ

के प्रमुख   मापदंड हैं।

सहयोग व  सहभागिता  यहाँ

के मुख्य  मानदंड   हैँ।।

सीखने और सीखाने का क्रम

रहता यहाँ निरंतर जारी।

प्रतियोगिता  आयोजन संस्था

के मुख्य    मेरुदंड   है।।


भांति भांति के  रंग   मिलकर

बन गई है काव्य रंगोली।

प्रत्येक सिद्ध साहित्यकार की

यह तो    है   हमजोली।।

कविता लेख कहानी   हैं तरह

तरह        के           रंग।

आज उत्तर भारत की हर जुबाँ

की बन गई ये मुँहबोली।।


*रचयिता।।एस के कपूर 'श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।।           9897071046

                      8218685464

राजेंद्र रायपुरी

 😊    एक भजन    😊


आरती श्री  राम जी की,

आरती घनश्याम जी की,

आइए मिलकर करें।

आरती श्री राम की-----।


दीनबंधू     वो    दयालू,  

पाप, सब  की  ही  हरें। 

आरती श्री राम जी की, 

आरती घनश्याम जी की। 

आइए मिलकर करें। 

आरती श्री राम जी की --------।


हैं जगत के जो खेवइया।

पार  करते  हैं जो नइया।

हैं   सहारे   वो  सभी  के,

जो चराते  वन में गईया।

आइए गोपाल को उस,

ध्यान  मन अपने   धरें।


आरती श्री राम जी की,

आरती घनश्याम जी की,

आइए मिलकर करें।

आरती श्री राम जी- -------।


पापियों को जिनने मारा।

भार   धरती  का उतारा।

श्राप ऋषि से मुक्त करके,

था  अहिल्या  को  उबारा।

आइए  उन  राम  जी का,

मिल सभी वंदन करें।


आरती  श्रीराम  जी  की,

आरती घनश्याम जी की,

आइए मिलकर करें।

आरती श्रीराम जी की -----।


        ।। राजेंद्र रायपुरी।।

कालिका प्रसाद सेमवाल

 *शारदे वन्दना*

**************

माँ शारदे मेरी यही कामना,

ध्यान में डूब कर तेरे गीत गाता रहूं,

कण्ठ से फूट जाये मधुर रागनी,

गीत गंगा में गोते लगाता रहूं।


स्वर लहर में रहे भीगते रहे मन,

शारदा माँ भजन में लगन चाहिए,

मिट जाये जगत के सारे तम

हंस वाहिनी शुभे सर्वत्र  चाहिए 


शब्द के कुछ सुमन तुम्हें अर्पित,

बस चरण में शरण माँ दीजिए,

हर हृदय चले कुछ सुवासित यहां,

छन्द में ताल लय नव सृजन चाहिए।


कल्पना के क्षितिज नये बिम्ब हो,

चित्र जिनसे नये नित सजाया रहूं।

अपनी कृपा माँ बरसाती रहो,

मैं गीत नित तुम्हारे गाता रहूं।

*********************

कालिका प्रसाद सेमवाल

डॉ0 हरि नाथ मिश्र।

 *जीवनोपयोगी दोहे*

सुनो,सफल जीवन वही, जिसमें हो उपकार।

शुद्ध आचरण,सोच शुचि,संतों का सत्कार।।


रहो निरंकुश मत कभी,रख अनुशासन-ध्यान।

अनुशासित जीवन करे, जग में तुम्हें महान।।


निर्जन वन में संत सब,रहें सदा निर्भीक।

ईश्वर का गुणगान कर,लेते सुफल सटीक।।


चंदन सम शीतल रहो, करो कभी मत क्रोध।

क्रोध पाप का मूल है,जीवन-गति-अवरोध।।


प्रभु के वंदन से खुले,तम-अज्ञान-कपाट।

आत्म-तुष्टि अति शीघ्र तब,दे भव-खाईं पाट।।


क्रंदन-नंदन जगत में,हैं जीवन के खेल।

सृष्टि विधाता ने रची,उसको दे यह मेल।।

           © डॉ0हरि नाथ मिश्र।

               9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-13

स्वामि-भक्त बड़ बानर जाती।

मालिक-हित नाचै बहु भाँती।।

     मैं गुन-ग्राही बालि कुमारा।

     सहहुँ तुम्हारै बचन कुठारा।।

मैं जानउ तुम्हरो गुन रावन।

बान्हि न सकउ तुमहिं कपि लावन।।

     लंका जारि हता सुत तोरा।

     करि ना सक्यो अहित तुम्ह थोरा।।

यहिं तें हो डिढ़ाइ मैं आई।

कहुँ न लाजि-रोष तोहिं भाई।।

     तुमहिं भछउ निज पितुहीं बंदर।

     अस कहि तुरत हँसा दसकंधर।।

तुम्हरो बालि-मिताई जानी।

कीन्हा नहिं तव बध अभिमानी।।

     कित रावन बताउ जग माहीं।

      मैं जानउँ जे सुनु अब आहीं।।

एक त बँधा रहा घुड़साला।

जे जीतन बलि गयउ पताला।।

    खेलत सिसुहिं रहे जेहिं पीटत।

     बलि कै दया ल भागा छूटत।।

दूजा रहा सहस भुज पाई।

जानि जंतु बिचित्र घर लाई।।

    पाइ पुलस्ति ऋषिहिं कै दाया।

     मुक्ति सहस भुज तें तब पाया।।

रावन एक बताउँ सकुचाई।

बालि-काँखि महँ देखा भाई।।

    कवन होहु तुम्ह मोहिं बतावउ।

    छाँड़ि क्रोध व खीझ,जतावउ।।

सुनु कपि मैं रावन बलवाना।

मम भुज-बल कैलासहिं जाना।।

    मोर भगति जानहिं महदेवा।

     निज सिर-सुमन चढ़ा जे देवा।।

अवगत मम बल भल दिगपाला।

चुभहुँ तिनहिं उर धँसि जिमि भाला।।

    टूटे मूली इव तिन्ह दंता।

     भिरत देरि नहिं भगे तुरंता।।

मम डोलत महि हीलत ऐसे।

डगमग नाव चढ़त गज जैसे।।

     तू ललकारै इहवाँ आई।

      लागत काल तोर बउराई।।

दोहा-कहेसि मोहिं तुम्ह अति लघू,औरु सिखावत मोंहि।

         तुम्ह सम जग नहिं दुष्ट-सठ, बुद्धि-ग्यान नहिं तोहिं।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

नूतन लाल साहू

 लाचारी


कौन सा विश्वास मुझको

खींचता जाता है निरंतर

आखिरी मंजिल नहीं होती

कहीं भी दृष्टिगोचर

एक भी संदेश आशा का

जीवन में नहीं मिला

यह कैसी लाचारी है

मिल गया मांगा बहुत कुछ

पर कहां संतोष मन में

दोष दुनिया का नहीं हैं

यदि कहीं है तो,दोष मन में

दुनिया अपनी,जीवन अपना

यह सत्य नहीं,केवल है मन सपना

यह कैसी लाचारी है

कौन तपस्या करके कोकिल

इतना सुमधुर सुर पाया

पर ऐसी क्या घटना हुई

काली कर डाली काया

यह कैसी लाचारी है

देख कहीं कोई तरू सूखा

द्रवित हुई होंगी मन में

हरे नहीं होते तरु सुखे

नियम प्रकृति का युग चिर से

जिस निश्चय से अर्धरात्रि में

गौतम निकले थे घर से

यह कैसी लाचारी है

हर पल में तेरा स्वर बदला

पल में बदली तेरी सोच

यह बुरा है या है अच्छा

व्यर्थ सोच,इस पर दिन बिताना

असंभव लगा तो,छोड़ वह पथ

दुसरे पथ पर पग बढ़ाना

यह कैसी लाचारी है

नूतन लाल साहू

सुनीता असीम

 हुआ जो साथ मेरे हादसा था।

वो जीवन का मेरे फ़लसफ़ा था।

*********

खोई थी नींद आँखों से कहीं पर।

औ दिल का चैन भी तो लापता था।

********

तेरे दरबार  पर  नज़रें   लगी थीं।

कहां पट तब तलक तेरा खुला था।

********

मगर दीदार  भी था फक्त मुश्किल।

तेरी यादों का केवल सिलसिला था।

*******

लगी थी प्यास सूखे कंठ में   तब।

न कोई ताल था पर जल मिला था।

*******

भरोसा हो गया तेरी महर पर।

कृपा तेरी मिली तन भीगता था।

*******

बरसते आंख से आंसू न रुकते।

कोई था पुण्य जो ऐसे फला था।

*******

रज़ा उनकी न इसमें कैसे माने।

उन्हीं की ओर मन ये भागता था।

*******

सखी है कृष्ण की अब तो सुनीता।

रहा अन्तिम ये उसका फैसला था।

*******

सुनीता असीम

डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

 *तुम हो....(ग़ज़ल)*


तुम हो मेरा प्रेम समंदर।

मैं हूँ प्यासा प्रेम धुरंधर।।


तुम वादल बन छा जाओ अब।

तृप्त करो प्रिय सहज बरस कर।।


तन-मन-उर अति दग्ध दीखते।

प्रेमसिंधु बन आ मेरे घर।।


तेरी बूँदों का मैं लोभी।

लोभ दूर कर सतत तृप्त कर।।


अधरों पर सागर की लहरें।

लहरों से ही आलिंगन कर।।


कजरारी आँखों को मोड़ो।

खुश कर दो आँखों में भर कर  ।।


प्रेम तरंग उच्च वक्षस्थल।

दो वक्षों का मधुर भाव स्वर।।


प्रेम दिवस ही पर्व बने नित।

खुश हो दुनिया सहज प्रेम कर।।


बने पूर्णिमा प्रेम पूर्णिमा।

सदा पूर्णिमा हो जीवन भर।।


अंग-अंग से प्रेम बहे नित।

आओ प्यारे प्रेम किया कर  ।।


प्रेम विरत होना मत प्रियतम।

बनकर एकाकार प्रेम कर ।।


रहे समाया सिंधु बूँद में।

प्रेम सिंधु अब आ शीतल कर।।


तन-मन-उर को सोख स्वयं में।

आत्मतोष दे सकल प्रेम भर।।


कातर मन के तुम शरणालय।

इसको आश्रय दान दिया कर।।


अपने उर के प्रेम सिंधु में।

डुबो-डुबो कर प्यार किया कर।।


डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-11

समाचार अंगद कै आवन।

पाइ बुलावा निज पहँ रावन।।

    अंगद जाइ लखा तहँ रावन।

    जनु कज्जल गिरि बैठा आसन।।

रावन-भुज जनु बिटप समाना।

रोम लता इव उग मनमाना।।

      श्रृंग राज सिर जनु कोउ पसुकर।

      नैन-नाक-मुहँ कजहीं कंदर ।।

लखि अंगद सभ उठे सभासद।

बिकल भवा रावन बिनु आपद।।

     होहु कवन तुम्ह केकर बंदर।

      कारन कवन कि आयो अंदर।।

बालि-तनय अंगद मम नामा।

आयउँ इहाँ तोर हित कामा।।

    मम पितु सँग तव जानि मिताई।

    मैं आवा इहँ रावन भाई।।

कह रावन तब कछु सकुचाई।

तव पितु सँग मम रही मिताई।।

     तुम्ह सम पूत होय कुल-घालक।

      कस न मरे तुम्ह गर्भहिं बालक।।

बाली-तनय राम कर दूता।

हवै बाति ई बड़ अद्भूता।।

     मोंहि बताउ बालि-कुसलाई।

     कह अंगद सुनु रावन भाई।।

दस दिन बाद तुमहिं तहँ जाई।

पूछउ मम पितु वहिं कुसलाई।।

     राम-बिरोध होत जग कैसा।

      सखा तुम्हार बतैहैं ऐसा ।।

जाके हृदय बसहिं प्रभु रामा।

सुनु सठ ताहि भेदि केहि कामा।।

     कथमपि होंहुँ न मैं कुल-घालक।

      तुम्ह अपि होहु न निज कुल-पालक।।

कोउ नहिं अंध-बधिर जग माहीं।

कहि न सकत जस कह तुम्ह आहीं।।

     तव दस कंठ ब्यर्थ बिस नैना।

     लाजि न तुमहिं उचारत बैना।।

ब्रह्मा-संकर,सुर-मुनि सबहीं।

चहहिं राम-पंकज-पद सेवहीं।।

     तासु दूत मैं अंगद  होंई।

     तुम्ह पाई प्रभु-निंदक सोई।।

दोहा-बालि-तनय कै बचन अस,सुनि के कह लंकेस।

          नीतिहिं-धरम बिचारि मैं, सहहुँ कठोर सँदेस।।

                       डॉ0हरि नाथ मिश्र

                        9919446372

राजेंद्र रायपुरी

 😌 हठधर्मिता किसानों की 😌


हठधर्मी होते नहीं, 

                  माने  आप किसान।

ये तो हैं वो लोग जो, 

                  औरों   के  यजमान।


इनका मकसद एक है, 

                बढ़   पाए   मत  देश।

जो विकास को रोक दे,

                   लाऍ॑    वही   नरेश।


जो किसान वो कर रहा, 

             निज़   खेतों   में   काम।

ये किसान के नाम पर,

                लफड़े   करें   तमाम।


साथी इनके हैं वही, 

                  जिन्हें न कोई काम।

लगा रहे नित आग वो,

                करने    नींद    हराम।


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 दोहे(दीपक)

दीपक माटी का बना,करे जगत उजियार।

 छोटा तन धारे करे,दूर यही अँधियार ।।


तेल और बाती उभय,हैं दीपक के प्राण।

जैसे जीव-शरीर को,प्राण दे रहा त्राण।।


प्रेम-मगन हो शलभ भी,दीप-शिखा को देख।

उड़ कर उसमें जल मरे,ग़ज़ब विधाता-लेख।।


शलभ जलाकर स्वयं को,गले लगाए दीप।

अमर प्रेम-संदेश दे,सबको रंक-महीप।।


नन्हें दीये में निहित,अद्भुत शक्ति अपार।

प्रेम-तत्व जो गूढ़ अति,का यह करे प्रसार।।


जब बाहर तूफ़ान हो,घर में जलता दीप।

शोभनीय लगता बहुत,जैसे मोती सीप।।


इसकी महिमा क्या कहें,रचे प्रेम का खेल।

दीपक-बाती-तेल का,होता अद्भुत मेल।।

        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

            9919446372

कालिका प्रसाद सेमवाल

 हे मां मनीषिणी हमें ज्ञान दे 

*******************

हे मां मनीषिणी 

हमें विचार का अभिदान दो,

मां हम योग्य पुत्र बन सकें

हमें ज्ञान दो मां।


हे मां मनीषिणी

हमें स्वाभिमान का मान दो,

चित्त में शुचिता भरो

मां बुद्धि में विवेक दो।


हे मां मनीषिणी

कर्म में सत्कर्म दो,

हृदय में दया दो मां

वाणी में मिठास दो मां।


हे मां मनीषिणी

देवी तू प्रज्ञामयी है

सभी को सुमति दो मां

मैं बार बार तुम्हें प्रणाम कर रहा हूं।।

********************

कालिका प्रसाद सेमवाल

मानस सदन अपर बाजार

रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

डॉ0 रामबली मिश्र

 धन्यवाद

धन्यवाद का वह अधिकारी ।

जिसका हिय पावन अविकारी।।


जो मानव है परहितकारी।

उसको समझो धर्माचारी।।


वही धन्यवाद पाता है।

जो दुखभागी बन जाता है।।


वही धन्यवाद का भागी।

जो मानवता का अनुरागी।।


धन्यवाद उसको मिलता है।

जो सबका साथी बनता है।।


परमारथ का  जो रक्षक है।

धन्यवाद का वह शिक्षक है।।


धन्यवाद का पात्र वही है।

जिसका गन्दा भाव नहीं है।।


धन्यवाद उसको ही देना।

जिसका उत्तम भाव सलोना।।


पुण्य कर्म को  जो करता है।

धन्यवाद उसको मिलता है।।


डॉ0 रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सजल*

मात्रा-भार-16

यदि अच्छा संसाधन होता,

सुखमय सबका जीवन होता।।


भले न जल भी नीरद देता,

जीवन सबका सावन होता।।


झगड़े भी तो कभी न होते,

 यदि स्वभाव मनभावन होता।।


कुदरत की यदि पूजा होती,

मौसम सदा सुहावन होता।।


रहता यदि देवत्व मनुज में,

कभी न आवन-जावन होता।।


नहीं क्रोध की ज्वाला जलती,

मन यदि शीतल चंदन होता।।


सरित प्रेम की यदि जग बहती,

जग में कभी न क्रंदन होता ।।

          © डॉ0 हरि नाथ मिश्र

             9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 *सुनो सुनाऊँ. .*

    *(ग़जल)*


सुनो सुनाऊँ एक कहानी।

होती सबसे मस्त जवानी।।


जो चाहत हो पूरी कर लो।

सबसे सुंदर सुखद जवानी।।


यही अवस्था अति बड़ भागी।

लिखती अपनी अमर कहानी।।


अमृत जैसी यह स्थिति है।

गाती मादक गीत जुबानी।।


मौखिक मन की यह भाषा है।

कहती बातें सदा सुहानी।।


परम सुहाना यह जीवन है।

अति कौतूहलपूर्ण रवानी।।


रचत जवानी परिभाषा है।

अति विशिष्ट भावुक अभिमानी।।


भावुकता में बोल विशिष्टा।

श्रमसाध्या जिंदगी सयानी।।


बहुत सयानी अरु मनमानी।

सदा जवानी लिखत कहानी।।


कुछ भी नहीं असंभव इस में।

सब कुछ संभव चाहत प्राणी।।


स्त्री हो या पुरुष वचन हो।

दिखत जवानी में जिंदगानी।।


प्रेम पंथ की बनी पथिक यह।

दिव्य जवानी अति मस्तानी। 


यह सशक्त हथियार सभी का।

सदा जवानी महा भवानी।।


क्रियाशील यह करती सबको।

शक्तिसिंधुमय सृष्टि प्रदानी।।


नहीं किसी से कुछ भी याचन।

महादायिनी नित्य जवानी।।


रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801


*तुझे देखता हूँ तो..(ग़ज़ल)*


तुझे देखता हूँ तो लगता यही है।

सपनों के स्वर्णिम महल में  तू ही है ।।


तू ही रात रानी दीवानी जवानी।

कहती कहनी जुबानी तू ही है।।



बनी जिंदगानी रवानी सयानी।

 सुहानी बयानी सुजानीतू ही है।।


कहाँ से तू आया है यह तो बता दे?

रच-रच गढ़ा ब्रह्न जिसको तू ही है।।


आया जगत में तू उपदेश देने।

जगत को सजाने की काया तू ही है।।


मुर्दा पड़े हैंजगत के ये प्राणी।

अमृत पिलाने को आया तू ही है।।


बहकना-भटकना कभी भी कहीं मत।

प्रेम रस पिलाने को आया तू ही है।।


रचनाकार: डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801


*देखा लगा जैसे..*

     *(ग़ज़ल)*


देखा लगा जैसे तुम प्रियतमा हो।

परम रूपसी दिव्य सर्वोत्तमा हो।।


लुभाना सा चेहरा मस्तानी सी आँखें।

दीवाना सा अंदाज प्रिय अनुपमा हो।।


भावुक हृदय में श्रृंगारों का तोहफा।

सुंदर सलोनी  अदा शिव उमा हो।।


आँखों में सुरमा लगाये मनोरम।

बहुत शान्त सुंदर सजी शुभ समा हो।।


चमकती थी जैसे तड़ित- चालिका सी।

चहकती दमकती महकती क्षमा हो।।


उपमा लजाती दिखी देख तुझको।

मनोहर छटा सी सदा उत्तमा हो।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

अर्चना द्विवेदी

 अश्क़ सुता के ज़ाहिर करते

नाज़ुक दिल जज़्बात।

लोक प्रथा के कारण बाबुल

दिया अजब सौगात।।


नाजों से पाला पोसा यह,

कहकर मैं हूँ लाल।

तेरी बाहों के झूले में,

बीते सुखमय साल।

गठबंधन अनमोल घड़ी फिर,

रोये क्यों माँ तात??


आकुल मन से खूब निहारा,

फुलवारी घर द्वार।

छूट रहा मेरी यादों का,

अनुपम यह संसार।

जुड़े नेह में दो पावन दिल

लेकर फेरे सात।।


बाप बिचारा किया पराया,

करके कन्यादान।

दोनों कुल का मान बढ़ें यह,

मन में है अरमान।

स्वप्न सजीले संग सुनहरे,

जीवन की शुरुआत।।

              अर्चना द्विवेदी

                 अयोध्या 

                

सुनीता असीम

 फूल पर भंवरे तो मंडराए बहुत।

कृष्ण का पर छेड़ना भाए बहुत।

******

मानते   उनसे  रहे  थे   दूर  हम।

याद उनकी पर अभी आए बहुत।

******

जिन्दगी भर बेकली सी ही रही।

थे अकेले  और  घबराए  बहुत।

******

जब चले जाने की बारी आ रही।

सोचकर ये आज पछताए बहुत।

******

इक किरण अब आस की है दीखती।

पास कोई  उनके ले   जाए   बहुत। 

******

फासले हों दरम्याँ पर बात हो।

हिज़्र तेरा कृष्ण दहकाए बहुत।

******

आसरा बाहों का अब तो दे जरा।

कष्ट के  पानी तो  भरवाए बहुत।

******

चांदनी सी रात में हम तुम रहें।

दिल मेरा ये सोच शरमाए बहुत।

******

मैं पुकारूं तुम चले आओगे क्या।

मूढ़ मति शंका ये करवाए बहुत।

******

कृष्ण  तुमसे लो सुनीता मिल गई।

और उसमें तुम तो इतराए बहुत।

*****

सुनीता असीम

नूतन लाल साहू

 सादगी


यह दुनिया है गोरख धंधा

भेद समझता है कोई कोई बंदा

लख चौरासी में भरमाया

मुश्किल से यह नर तन पाया

सादा जीवन उच्च विचार

क्यों विषयों में मन को लगाया

सादगी है कुदरती खूबसूरती

पाप कटेंगे क्षण भर में भारी

प्राणी है तू भोला भाला

माया का है खेल निराला

आयेगी जब काल की बारी

खुल जायेगी पोल तुम्हारी

चाहता है जो परम सुख तो

राम रसायन का पी लें घोल

सादगी है कुदरती खूबसूरती

पाप कटेंगे क्षण भर में भारी

तू बोल मीठे वचन तो

सुख उपजत चहुं ओर

वशीकरण एक मंत्र है

तजि दे वचन कठोर

जो खूब अकड़ कर चलते थे

वो आज फिरत है मारे मारे

बिना ज्ञान हर कोई धोखा ही खाया

माया के नशे में अपना जीवन गंवाया

मन में तृप्ति आने लगी तो

बजने लगेगी बधाई

सागर से भी बुझ न पाया

कभी किसी का प्यास

सादगी है कुदरती खूबसूरती

पाप कटेंगे क्षण भर में भारी

नूतन लाल साहू

___________________________

पहचान


जो सुख में साथ दे

वो रिश्ते होते हैं

और जो दुःख में साथ दे

वो फ़रिश्ते होते हैं

बांट ले ज्ञान के हीरे मोती

तेरा वाणी सत्य पावन है

अगर हो गई निज से पहचान

तो बढ़ जायेगी,जीवन की शान

उसका जीवन भी जीवन है क्या

जो सबके लिए ना जिया

उसका मरना भी मरना है क्या

जो जीते जी मृतक समान हैं

इस जीवन का मतलब भी

प्रेम की बोली और परोपकार है

जो सुख में साथ दे

वो रिश्ते होते हैं

और जो दुःख में साथ दे

वो फ़रिश्ते होते हैं

लाख भौतिक सुख हो तो क्या हुआ

अगर ज्ञान की ज्योति नहीं है

ब्रम्ह ज्ञान में बड़ी शक्ति है

ज्ञान सुन ले घड़ी दो घड़ी

प्रेम स्वरूप है हम

ज्ञान स्वरूप है मन

जो अपने आप को जान गया

समझो भवसागर से पार हो गया

जो सुख में साथ दे

वो रिश्ते होते हैं

और जो दुःख में साथ दे

वो फ़रिश्ते होते हैं

नूतन लाल साहू

डॉ0हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-12

त्रिया चोराइ धरम अस कैसा।

नीति व कर्म होय तव ऐसा।।

     रच्छक तोर दूत कै भच्छक।

    कबहुँ न हों भच्छक जन-रच्छक।।

डूबि मरउ चुल्लू भर पानी।

जानउँ मैं सभ तोर कहानी।।

    तू नहिं जानसि भुज-बल मोरा।

     तुम्ह बड़ मूर्ख बालि कै छोरा।।

गगन-तड़ाग-कमल भुज मोरे।

कीन्ह सयन सिवसंकर छोरे।।

    नहिं कोउ जोधा सेन मँझारी।

     जीति सकत मोंहें बल भारी।।

अहहिं राम तव त्रिया बिहीना।

अनुजहिं सहित भवा बल-छीना।।

     जानउँ बल सुग्रीवहिं तोरा।

      बलइ बिभीषन बहुतै थोरा।।

जामवंत मंत्री बल हीना।

तासु आयु ताकर बल छीना।।

      जानहिं सिल्प-कर्म नल-नीला।

       निपुन न होंहिं करन जुधि-लीला।।

हाँ कपि एकहिं सेन मँझारी।

अह बलवान लंक जे जारी।।

     सत्य कहे तुम्ह रावन भाई।

     करै उहहि सुगरिव- सेवकाई।।

अचरज मोंहि होय बड़ भारी।

बानर छोटइ लंका जारी।।

     रिपुता सम-समान कह नीती।

     चाहिअ करन सुनहु जग-रीती।।

तुम्हरो संग राम-रिपुताई।

होगो हानि राम-प्रभुताई।।

दोहा-सुनि अंगद कै अस बचन,दसकंधर कह क्रुद्ध।

         बानर-गुन बस इहइ कर,प्रतिपालक-हित जुद्ध।।

                            डॉ0हरि नाथ मिश्र

                              9919446372

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।जीवन पथ पर मशाल बनो*

*मिसाल बनो।।*


नित नए नए  आयाम जीवन

में     आप  गढ़ते रहें।

कोशिश हो कि सफलता की

सीढ़ी आप चढ़ते रहें।।

एक रोशन   मशाल  बन कर

चमकें             आप।

प्रति दिन इस   अनूठी   यात्रा

पर आप    बढ़ते  रहें।।


हिम्मत और सब्र हो तो     हार

कर भी  संवर सकते   हैं।

बना कर रखें   यकीन  तो  बुरे

वक़्त भी गुज़र सकते हैं।।

बस दिल में आशा का उजाला

बनायें      रखें      आप।

हर पत्थर राह के खुद टूट  कर

बिखर     सकते      हैं।।


वही जीते हैं      जो खोकर भी

मुस्कराते         हैं।

जोश और होश को  सदा  सीने

में    बसाते      हैं।।

व्यवस्था   और    अनुशासन में

रखते   पूरा   विश्वास।

वो हर समस्या   का    समाधान

खोज       लाते       हैं।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब।।            9897071046

                      8218685464



*।।रचना शीर्षक।।*

*।।जीवन का हमारा सफर कदापि*

*निरर्थक ना हो।।*


काँटों में   खिलते   गुलाब    से 

हमें  सीखना     होगा।

चुनौतियों    में   भी   दृढ़   हम

को    दीखना   होगा।।

संकल्प  शक्ति ही    काफी   है

जीवन  संवारने   को।

पाने को    सुख   दुःख    में भी

दर्द को लीलना होगा।।


ओस  की बूंद   सा     होता   है

जीवन    का    सफर।

कभी फूल या धूल में    होता है

जीवन    का    सफर।।

बिखरने के लिए   नहीं    मिला

ये एक  मात्र  अवसर।

संवारने संवरने के लिए होता है

जीवन    का     सफर।।


व्यक्ति की सच्चाईऔर अच्छाई

कभी नहीं व्यर्थ  जाती है।

कर्म की   पूजा  ही   जीवन  में

सच्चा    अर्थ    पाती  है।।

अच्छे के साथ अच्छा और  बुरे

के बुरा  होकर   है  रहता।

यदि आ जाये दुर्भावना तो   यह

जीवन मेंअनर्थ ही लाती है।।


*रचयिता।। एस के कपूर "श्री हंस*"

*बरेली।।।*

मोब।।।।          9897071046

                      8218685464

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल--


तीर नज़रों के उन्हें जब से चलाना आ गया 

मेरी जानिब ही उधर से हर निशाना आ गया 


ज़िन्दगी मायूसियों की ज़द में थी खोई हुई

उनकी सोहबत में हमें हँसना हँसाना आ गया 


उनसे मिलते ही हमें होने लगा ऐसा गुमाँ 

वादिये-कशमीर सा मौसम सुहाना आ गया 


 हमने क्या दे दी उन्हें दिल के दरीचे में पनाह

रफ़्ता रफ़्ता उनको नखरे भी दिखाना आ गया 


दिल की साज़िश है या है मासूमियत जाने वही 

हुक़्म पर उनके हमें अब सर झुकाना आ गया


लाख कोशिश की छुपा लूँ प्यार की सौग़ात को 

उफ़ मगर सबके लबों पर यह फ़साना आ गया 


जिसको देखा ग़ैर का निकला नशेमन दोस्तो

हम समझते थे कि अपना आशियाना आ गया


शायरों कवियों को कहना पड़ रहा पढ़िये हमें

देखते ही देखते यह क्या ज़माना आ गया


इश्क़ में किस मोड़ पर लाई है *साग़र* ज़िंदगी 

दर्द सहकर उनकी खातिर मुस्कुराना आ गया 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

कालिका प्रसाद सेमवाल

 *माँ के लिए चिठ्ठी*

*****************

माँ मैं जब तुम्हें चिट्ठी लिखने बैठा,

तुम्हारी मुझे बहुत याद आई।

ऐसा लगा जैसे तुम मुझे पुकार रही हो,

मैं टूटता बिखरता रहा तेरी याद में।

कागज पर गिरे हुए आँसुओं की जगह,

लिख रहा हूँ मैं छोड़-छोड़ कर।


लिखने जब  रात को बैठा ही था मैं,

माँ यह चिट्ठी जब तेरे  नाम से,

अल्फाज बहुत सारे आ गये मेरे सामने,

जगह भी चाहते थे तेरे नाम में।

उलझ सा गया था मैं शब्द जाल में।

मैं टूटता बिखरता.....


मेरी नजरों के सामने खड़े थे,

वो सब कंटीली झाड़ियों के जंगल।

तुम जाती थी रोज लकड़ियों के लिये,

वही तो था ,पेट की आग का संबल ।

लहुलुहान हो जाते थे  तेरे हाथ ,

काँटों की चुभन सेआह भी न  करती।

मैं टूटता बिखरता रहा...


तुम्हारी आँखों में आँसू न आते।

हमेशा चेहरे पर रहता सन्तोष,

बहुत दर्द सहा है जीवन में तुमने,

कभी नहीं रहा जीवन में असंतोष।

आज खो गया हूँ पुरानी यादों में।

मैं टूटता बिखरता....


शुभ वात्सल्य की प्रतिमूर्ति  हो माँ तुम,

कोई  कुछ भी कहे बहुत सह लेती थी।

बचपन में बहुत कहानियाँ सुनाई है ,

नीति की बातें भी कुछ कह देती थी।

तुम मिशाल हो स्वाभिमान की, सच में।

मैं टूटता बिखरता....


भोर होते ही खेतों में चली जाती थी,

साँझ के अन्धेरे में घर आती थी ।

बहुत संघर्ष किया है तुमने जीवन भर,

फिर भी तनिक नहीं  घबराती थी।

तुम पर बहुत गर्व माँ, नत हूँ चरणों में।

मैं टूटता बिखरता.....


खोया आज पुरानी यादों में मैं,

तुम्हारा त्याग समर्पण ही पाता हूँ।

जीवन में आये सुख- दुख उलझन भी,

सदा तुमसे ही प्रेरणा पाता हूँ।

तुम्हीं ईश साकार हो माँ जीवन में,

मैं टूटता बिखरता रहा तेरी याद में।

*********************

हे मां वीणा धारणी

***************

हे मां शुभ्र वस्त्रधारिणी,

दिव्य दृष्टि निहारिणी,

 हे मां वीणा धारणी ,

पाती में वीणा धरै,

तू कमल विहारिणी।


पवित्रता की मूर्ति तू,

सद् भाव की प्रवाहिनी,

हे मां सुमति दायनी,

ज्ञान का वरदान दे,

मैं प्रणाम कर रहा हूं।

****************

कालिका प्रसाद सेमवाल

मानस सदन अपर बाजार

रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

मधु शंखधर स्वतंत्र

 *ऐसी पुस्तक*

📚📚📚✒️

मन के भावों से लिख डालूँ जी करता है ऐसी पुस्तक।

जिसमें जीवन सार लिखा हो अर्थ समाए ऐसी पुस्तक।


ना रामायण ना ही गीता,सुख दुख का संसार समाए,

शब्द शब्द हिय को भा जाए, मन हर्षाए ऐसी पुस्तक।।


बस इतिहास नहीं बतलाना वर्तमान की घटनाएँ हो,

सहज दृश्य सबको दिखलाए, सत्य दिखाए ऐसी पुस्तक।।


ना सुर लय ना छंद बद्ध ही, एक विधा नव जिसमें शामिल,

एक सूत्र में देश बाँध दे, शक्ति  समाए ऐसी पुस्तक।


नारी का उत्थान लिखे जो, वीरों का सम्मान लिखे जो।

 विश्व पटल पर सब पढ़ पाए सबको भाए ऐसी पुस्तक।।


मौलिक बातें शब्द बने अरु वाक्य सत्यता से पूरित हो,

सत्य शिवम् सुंदर जिसमेंं हो,

गणपति गाए ऐसी पुस्तक।।


देवभूमि के सकल सार को, सब तक लाए ज्ञान बढ़ाए,

जीवन तृष्णा तृप्त करा *मधु*, ख्याति दिलाए ऐसी पुस्तक।।

*मधु शंखधर स्वतंत्र*

*प्रयागराज*

डॉ0हरि नाथ मिश्र

 *जीवनोपयोगी दोहे*

सुनो,सफल जीवन वही, जिसमें हो उपकार।

शुद्ध आचरण,सोच शुचि,संतों का सत्कार।।


रहो निरंकुश मत कभी,रख अनुशासन-ध्यान।

अनुशासित जीवन करे, जग में तुम्हें महान।।


निर्जन वन में संत सब,रहें सदा निर्भीक।

ईश्वर का गुणगान कर,लेते सुफल सटीक।।


चंदन सम शीतल रहो, करो कभी मत क्रोध।

क्रोध पाप का मूल है,जीवन-गति-अवरोध।।


प्रभु के वंदन से खुले,तम-अज्ञान-कपाट।

आत्म-तुष्टि अति शीघ्र तब,दे भव-खाईं पाट।।


क्रंदन-नंदन जगत में,हैं जीवन के खेल।

सृष्टि विधाता ने रची,उसको दे यह मेल।।

           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र।

               9919446372



नारी-सम्मान

       *भारत की बेटियाँ*

भारत का नाम रौशन,करतीं हैं बेटियाँ,

नित-नित नवीन शोधन,करतीं हैं बेटियाँ।


यद्यपि ये कोमलांगी,होतीं हैं बेटियाँ,

कर लेतीं श्रम कठिन,फिर भी ये बेटियाँ।।


जल में हों,चाहे नभ में,होवें धरा पे वे,

नारी-प्रभा को शोभन,करतीं हैं बेटियाँ।।


वतन की आन-बान थीं,पहले भी बेटियाँ,

झंडे का आज रोहण, करतीं हैं बेटियाँ।।

k

कर्तव्य शासकीय,या हो प्रशासकीय,

सियासती सुयोजन,करतीं हैं बेटियाँ।।


होतीं अक्षुण्ण कोष ये,असीम शक्ति का,

कुरीतियों का रोधन,करतीं हैं बेटियाँ।।


साहस अदम्य इनमें,रहता विवेक है,

संघर्ष का ही भोजन,करतीं हैं बेटियाँ।।


घर में रहें या बाहर,चाहे विदेश में,

शर्मो-हया का लोचन,रहतीं हैं बेटियाँ।।


जीवित हैं मूर्ति त्याग की,अपनी ये बेटियाँ,

नहीं कभी प्रलोभन,करतीं हैं बेटियाँ ।।

     

रिक्शा चला भी लेतीं,भारत की बेटियाँ,

परिवार का प्रबंधन,करतीं हैं बेटियाँ।।

             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                 9919446372

डॉ०रामबली मिश्र

 *प्रेम किया है..*

  ( मात्रा भार 15)

प्रेम किया है मजाक नहीं।

दिल दिया छाना खाक नहीं।।


बोल उठो चपला चंचला।

प्रेम करो सबला शशिकला।।


तड़पाना नहीं कबहूँ सखि ।

हरषाना सदा मम मन रखि।।


प्रति पल बरसत मेरे नैन।

प्रेम वियोगी मैं दिन-रैन।।


मेरे प्यारे देखो आँख।

इससे प्यार रहा है झाँक।।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801


*क्रांति*

*(वीर रस)*


परिवर्तन का अंतिम रूप, संरचना से यह संबंधित।

संरचना में जब बदलाव, आता है तब दृश्य बदलता।

बदला-बदला होता दृश्य, यह अमूलचूल परिवर्तन।

कहलाता है सचमुच क्रांति, मंजर सारा नये रूप में।

प्रगतिशीलता का संदेश, देती रहती क्रांति सर्वदा।

नये-नये उठते हैं भाव, छोड़ पुरानी जीवन शैली।

परंपरा का दिखता लोप, नयी सभ्यता होत अवतरित।

नये-पुराने का संघर्ष, चलता रहता बहुत दिनों तक।

लेत पुरानी अंतिम श्वांस, नवाचार की होत विजय है।

नयी-तकनीकी -अविष्कार, उत्पादन के नये तरीके।

होता बहुत अधिक उत्पाद,नव युग का आरंभ सुनिश्चित ।

होते लगातार संधान, नयी-नवेली उत्पादन विधि।

सुख-वैभव का यह आधार,क्रांति वृक्ष का यह परिचायक।

सब क्षेत्रों में होती क्रांति, शुभ समाज को स्थापित करती ।

शिक्षा- खेती-आर्थिक क्षेत्र, सबमें क्रांति दिखायी देती।।

हरित क्रांति-औद्योगिक क्रांति, श्वेत क्रांति सब नव विधि के फल।

गुणवत्ता की करना खोज, इसी खोज पर क्रांति टिकी है।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...