डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 दिनांकः २०.१२.२०२०

दिवसः रविवार

विषयः मानव की अभिलाषा

विधाः कविता(गीत)

शीर्षकः मानव की अभिलाषा


मानव  की   जिजीविषा अनंत पथ,

केवल   जीवन  उड़ान  न   समझो।

नित अटल निडर निर्बाध लक्ष्य पथ,

ख़ुशियाँ  ज़न्नत   निर्माणक समझो।


उन्मुक्त   इबादत    आतुर    लेखन,

हर कीमत मन अभिलाषित समझो।

बन   धीर     वीर  योद्धा  रनिवासर,

साहस   अविरत   यायावर  समझो। 


संकल्प हृदय लेकर  पथ  अविचल,

आँधी   तूफान   उफ़ान  समझ लो। 

साम  दाम   भेद  नीति    दण्ड   से,

अविरत  पूरण अभिलाषी  समझो।


नव यौवन नव जोश प्रगति कर्म पथ, 

ऊर्जावान  नित मिहनतकश समझो। 

विश्वास लबालब मन   कार्य  सफल,

काबिल    स्वयंभू    मानक  समझो। 


मानव जिजीविषा नित  सागर  सम,

संघर्ष     जटिल  संवाहक   समझो। 

बाधक   हों   खाई  चट्टान    विषम,

प्रतिकार  सचेतक   जाग्रत  समझो।


उन्माद  चाह   अतिघातक   जीवन,

नव द्वेष घृणा शत्रु    सृजन  समझो।

रत  रोग शोक   क्रोधानल   हिंसक,

पर जिजीविषा   अभिलाषा समझो। 


सुखद शान्ति   चैन  आनंद   सकल,

बस अभिलाष तिमिर धुमिल समझो।

कहँ   मानवता   मूल्यक   नीति धर्म,

शैतान     दनुज   परिवर्तन   समझो।  


अब   ईमान   धर्म   परमार्थ   रहित,

कर्तव्यहीन  मनुज लालच    समझो। 

स्वराष्ट्र   मान मुहब्बत  क्या मतलब,     

बस  अभिलाष वृद्धि जीवन समझो। 


हाय हाय   सदा  धन  सत्ता  अर्जन,

विश्वास स्वयं इतर   खोता  समझो।

कर्ता    हर्ता   पालक   ख़ुद   ईश्वर,

मानव  ख़ुद  पातक हन्ता   समझो। 



मानव   की  जिजीविषा  सुरसा सम,

जीवन्त  मौत , पर  अन्त  न समझो।

खो   मति   विवेक  समरसता  रिश्ते,

बस अपयश अशान्ति नायक समझो


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" 

रचनाः मौलिक (स्वरचित)

नई दिल्ली

डॉ० रामबली मिश्र

मन मस्त है

मन मस्त है,

अरि त्रस्त है।

ग्रह पस्त है।।


मन मौन है,

तन बौन है।

धन कौन है??


मन प्यारा,

अति दुलारा।

जगत पारा।।


मन अति सरस,

न करो बहस।

खुद पर तरस।।


मन रसीला,

सुखद लीला।

बहु छवीला।।


मन निरखता,

नहिं विचलता।

मौन चलता।।


आत्मतोष,

अति संतोष।

बहु मदहोश।।


कहता नहीं,

करता सही।

चलता मही।।


ज्ञान सुंदर,

ध्यान रघुवर।

शान प्रियतर।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

निशा अतुल्य

 ये दुनिया कितनी नश्वर है 

20.12.2020


ये दुनिया कितनी नश्वर है 

समझ कर भी नासमझ है ।

मंजिल के लिए भटके हरपल

राहों की न कोई खबर हैं ।


साथ चले थे जो राही 

कब राहों में बिछड़ें कैसे

कहाँ खबर थी दिल को ये

कि दुनिया इतनी नश्वर है ।


सब साथ छोड़ चले जाते हैं 

बस धर्म कर्म ही सँग रहे 

शाश्वत तो बस प्रभु नाम

जिसके दम पर सब जीते हैं ।


कोई माने या न माने

वो कलाकार बड़ा उम्दा है 

कठपुतली हमें बना करके

वो नश्वर दुनिया में नचाता है ।


यूँ बीच राह में छूट जाए 

जब कोई अपना प्रियवर

ये दुनिया कितनी नश्वर है 

तब पता हमें चल पाता हैं ।


करो सत्य धारण मन से 

और राग द्वेष का त्याग करो

लोभ मोह तज कर मन से 

तुम नश्वरता से उठ ऊपर देखो ।


सकल संसार तुम्हारा है 

जो जीवन तुमने पाया है 

रहो कर्तव्य निष्ठ सदा बनकर

मन को फर्क नहीं पड़ता है 

कि ये दुनिया कितनी नश्वर है ।


स्वरचित

निशा अतुल्य

डॉ० रामबली मिश्र

 *नजरें चुरा कर ...(ग़ज़ल)*


नजरें चुरा कर चले जा रहे हो।

मुझको पता है कहाँ जा रहे हो।।


अब तक वफा की दुहाई थे देते।

हुआ क्या जो अब बेवफा हो रहे हो।


मंजिल मिलेगी नहीं यह समझ लो।

मंजिल की खातिर दफा हो रहे हो।।


मंजिल बदलने का मतलब दुःखद है।

मंजिल बदलकर बुरा कर रहे हो।।


करो जो लगे तुमको अच्छा सुहाना।

दुखा दिल किसी का ये क्या कर रहे हो??


नखरे-नजाकत दिखाकर बहुत ही।

निगाहें छिपा अब चले जा रहे हो।।


गलती इधर से हुई क्या बता दो?

वफा को बेईज्जत किये जा रहे हो।।


मासूम का क्यों तुम बनते हो कातिल।

निहत्थे की हत्या किये जा रहे हो।।


कोमल कली को मसल कर जमीं पर।

बेरहमी से फेंके चले जा रहे हो।।


मुस्कराती कली आज मूर्छित पड़ी है।

तुम मुस्कराये चले जा रहे हो।।


 एहसान तेरा भुलाना कठिन है।

दिल को रुला कर चले जा रहे हो।।


रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

रवि रश्मि 'अनुभूति

ज़िंदगी अधूरी है  

*******************

कदम - दर - कदम बढ़ते रहे आगे बढ़ना ज़रूरी है .....

पाँव के छालों को देख सोचा मंज़िल की अभी दूरी है .....


अरमानों की सदा सजाते ही रहे कई डोलियाँ हम तो 

पीछे मुड़ अभी तो कमी देखी ढेरी तो अभी घूरी है .....


सपने जो देखते ही रहे मिले तो पूर्णता पाने के 

क्या करें पूरे करें कैसे ज़ख़्म मिले अभी मजबूरी है .....


काँटों भरी राहों पर तुम भी तो निकल ही गये बहुत दूर    

दर्द - ए - दिल भी बढ़ता गया कि ज़िंदगी तुम बिन अधूरी है .....


सुबकते - सिसकते गये हम सुख पाने की ही ख़ातिर अब तक 

किया बर्बाद अपना यही हुस्न रहा जो अब तक नूरी है .....


झेले हैं हमने कितने ही झंझावात संघर्षों में ही 

करती जो न्याय अपनी किस्मत का कौन - सी यहाँ जूरी है .....


कौन - सा किया हासिल बेतहाशा वैभव तभी खटते रहे  

अभी तो ज़िंदगी अधूरी पल्ले पड़ी सिर्फ़ मज़दूरी है .....


अंतिम यह पड़ाव थके पाँव मिलन की ख़्वाहिश रही अब तो 

मिलें रहें एक साथ अब तो यह ज़िंदगी होती पूरी है .....


ये चाहतें , ये ख़्वाहिशें, ये अरमां भले रहे कसक भरे  

सच तो यही है कि ज़िंदगी में सबसे बड़ा सब्र सबूरी है .....

(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-21

सुनि मंदोदरि-बचन कुठारा।

होत प्रात पुनि सभा पधारा।।

    रावन बैठा तुरत सिंहासन।

     भूलि त्रासु सगर्व निज आसन।।

राम कहे सुनु बालि-कुमारा।

कस फेंके किरीट रिपु चारा।।

     हे अंगद मोंहि मरम बतावउ।

     किन्ह अइसन कस अबहिं जतावउ।।

अंगद कह प्रभु राम गोसाईं।

मुकुट न हों तुम्ह जानउ साईं।।

    धरमहिं-नीति-चरण ई चारा।

    करम करहिं नृप जे बिधि सारा।।

साम-दाम-अरु दंड-बिभेदा।

नृप-गुन चार कहहिं अस बेदा।।

     रावन दुष्ट हीन गुन चारी।

      प्रभु-पद-सरन लिए सुबिचारी।।

अस सुनि बिहँसि उठे रघुराई।

पुनि अंगद सभ बात बताई।।

    नाथ सुबिग्य-प्रनत-सुखकारी।

     रावन मुकुटहिं चरन पधारी।।

पाके समाचार रघुराई।

सचिवहिं सबहीं निकट बुलाई।।

     कहा लंक महँ चारि दुवारा।

     सोचहु कइसे लागहि पारा।।

तब कपीस-बिभीषन-जमवंता।

मन महँ सुमिरि राम भगवंता।

    दृढ़-प्रतिग्य चारि कपि-सेना।

     सेनापती बना तिन्ह देना।।

किए पयान लंक की ताईं।

करत नाद केहरि की नाईं।।

     प्रभु-चरनन झुकाइ सिर चलहीं।

    निज कर गहि गिरि-खंडन्ह धवहीं।।

जय-जय करत कोसलाधीसा।

लछिमन सँग जमवंत-कपीसा।

      प्रभु-महिमा-बल लेइ असंका।

     गरजत-तरजत चलहिं निसंका।।

घिर चहुँ-दिसि जिमि कज्जर बादर।

भेरि जावत मुखन्ह बराबर।

      जदपि अभेद्य दुर्ग बहु लंका।

       तदपि चलहिं सभ पीटत डंका।।

दोहा-आवत लखि कपि-रीछ-दल,मचा कोलाहल लंक।

        अस सुनि तब रावन अभी,बिहँसा होइ निसंक।।

                     डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

राजेंद्र रायपुरी

 😊😊 सैर, सुबह-सुबह की 😄😄


सुबह-सुबह की सैर से,

                      आलस होती दूर। 

और मिले सच मानिए, 

                       उर्जा भी भरपूर।


आलस अपना छोड़कर,

                   सुबह करें नित सैर।

नहीं जरूरत वैद्य की,

                    स्वस्थ   रहेंगे   पैर।


सुबह-सुबह की सैर ही,

                     रखती हमें निरोग।

एक नहीं यह बात तो, 

                   कहते   सारे   लोग।


पड़े रहें जो खाट पर,

                   जाऍ॑  सुबह  न सैर।

दुश्मन वे निज़ स्वास्थ्य के,

                    और  न  कोई  गैर।


हवा सुबह की मानिए,

                   ऊर्जा   से   भरपूर।

सेवन इसका कीजिए, 

                     रोग    रहेंगे    दूर।


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।

डॉ0 निर्मला शर्मा

 अंतर्यामी परमात्मा


सृष्टि के प्रत्येक कण में, व्याप्त है परमात्मा

झाँके मानव निज मन में, आत्मा ही परमात्मा

परमशक्ति, सर्वव्यापी प्रभु ,सबका पालनहार

जीवन नैया पार करे,सबका तारनहार

प्रह्लाद की श्रद्धा भक्ति से, खम्बे से प्रभु प्रकट हुए

कष्ट निवारे भक्तों के, संसार से सारे दुख हरे

वो अविनाशी घट घट वासी, परमपिता परमेश्वर हरि

हो जावे जब कृपा तिहारी, जीवन की तृष्णा हर मिटी

हे अभ्यन्तर दयनिधान माया मोह में मैं अनजाना

भ्रमित हुआ नित भूला जप तप, जीवन हुआ वीराना

ढली रात सम जीवन ढलता, जब ये भेद मैं जाना

प्रभु चरणों से नेह लगा कर, जीवन मरम को जाना


डॉ0 निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

पेट न होता तो किसी से भेंट न होता - दयानन्द त्रिपाठी दया

 "पेट न होता तो किसी से भेंट न होता"


कैसी  तेरी  माया  प्रभु  है, 

तुने भी क्या  खेल  रचाई।

नहीं है भरता पेट दिया जो, 

लाख जतन करते हैं धाई।।


कैसी   तूंने    पेट    बनाई, 

हर दिन खाली हो जाता है।

लाख   करो   उपाय   मगर

अर्णव में सब समा जाता है।।


हर दिन पेट की ख़ातिर सब,

गलत  कार्य  भी   करते  हैं।

तेरी  पूजा  करने  के  हेतुक

तेरे घर को भी लूटा करते हैं।।


प्राणी ही प्राणी का दुश्मन,

पेट की ख़ातिर बन जाता है।

मंदिर मस्जिद का झगड़ा ले

आपस में ही लड़ जाता है।।


तेरी  बनाई   धरा   के  प्राणी

सबने  अपने  रूप  हैं  बदले।

तूं भी तो कुछ बदल दे माधव

नया स्वरूप दे पेट के बदले।।


जितना सत्य है नवजीवन का,

उतना सत्य है मृत्यु का आना।

पेट की ख़ातिर छल-प्रपंच कर

भूख पेट, उर का लगे मिटाना।।


तेरी बनाई धरा पर सब, 

होते हैं अपडेट यहां पर।

तूं भी कुछ अपग्रेड तो कर दे,

पेट हटा अब लेट न कर।।


बिकल   धरा   का   प्राणी   है   प्रभु,

पेट-सेट के चक्कर में ही है सब होता।

अब  तक  जो  मेरे   मगज़  में  आया,

पेट न होता तो किसी से भेंट न होता।।



                -दयानन्द त्रिपाठी दया

उषा जैन कोलकाता

 नाम-  उषा जैन कोलकाता

पिता का नाम-  स्वर्गीय जय नारायण अग्रवाल

माता का नाम -  स्वर्गीय पार्वती देवी अग्रवाल

 पति का नाम - मोहन लाल जैन


जन्मतिथि 12/11/1965


स्थाई पता

नाम    Usha jain

पता  12b balram dey street near  

Jorasanko post office

Kolkata 700006


पत्राचार पता   उपरोक्त


मो0 नम्बर-9330213661 /8240672341

 

ईमेल usha12b13@gmail.com


शैक्षिक योग्यता  -  Metric

रुचि कविता लिखना खाना बनाना भ्रमण करना सामाजिक कार्य में भाग लेना

भाषा ज्ञान - हिंदी बंगाली हरियाणवी अंग्रेजी गुजराती

पदनाम -   गृहिणी

प्रकाशित रचनाएं

सांझा संकलन अभ्युदय द्वारा प्रकाशित पुस्तक प्रतिबिंबित जीवन में

8 कविताएं प्रकाशित


*हस्ताक्षर*

 Usha jain


काव्य रंगोली आज का सम्मानित रचनाकार कॉलम हेतु







1.  रिश्ते और एहसास

रिश्ते तो मीठी चासनी कि चास हैं

 रूह से जुड़े हुए अनछुए एहसास है

दिल से दिल के तार हो जुड़े हुए

प्यार में फर्क नहीं पड़ता चाहे दूर या पास है

 अलग-अलग फूलों का गुलिस्ता अलग-अलग फूलों से निकली सुवास है


 हर वक्त यकीन दिलाने के लिए क्यों शब्दों का इजहार  हो

 क्या वह काफी नहीं कि आंखों  मे छलकता प्यार हो


 बूढ़ी होती उम्र में बूढ़े होते अल्बमो से

 ढूंढ रहे हैं कुछ रिश्ते धुंधली सी तस्वीरों से

 हाथ और आंखों से छू  उन चेहरों को टटोलते

उनसे जुड़ी हर बात को यादों में  खंगोलते


उनसे मिलने की ललक हर वक्त क्यों रहने लगी

 क्यों आंखें उनके चेहरे को हर चेहरों में ढूंढने लगी

 पर वरदान बन के आई है नई टेक्नोलॉजी उनके लिए

 जो तरस रहे थे एक झलक अपनों की देखने के लिए

 आज उनके हाथ में हैउनके अपनो की तस्वीरें

 चेहरा देखकर कर सकते हैं उनसे अपने मन की  तकरीरे 

  स्वरचित उषा जैन कोलकाता






2. सच्चा सुख

सुख की अदम्य चाह में तुम

क्यू  अपना आज तमाम करते हो 

सुख तो तुम्हारे अंदर है 

क्यों उसे बाहर तलाश करते हो

सुख तो है मरुस्थल की  मरीचिका 

एक छलावे से  छले  जाओगे 

एक प्यास अगर बुझ भी भी गई

 और भी प्यासे  तुम खुद को  पाओगे


ता उम्र मशक्कत करते  ही रहे 

सुख का साजो समान पाने में

भागते दौड़ते रहे तुम हरदम

 महंगी गाड़ी बंगले का सुख जुटाने में

दो पल सुकून का न पाया  कभी

मारे मारे फिरते रहे जमाने मे


आखिर  हासिल तो तुमने कर ही लिया

अपनी जिंदगी के सुनहरे पल खोकर

पहुंच गए  जिंदगी के उस पड़ाव में तुम

उम्र बीत गई इनके सुख  को भोग पाने की 

सच्चे सुख को गिरवी रख दिया तुमने

 झूठे सुख को उधार लेने मे

 खो गए सारे अरमान और ख्वाब तेरे 

जो तुमने  देखे थे किसी जमाने में

 तन में घर कर गए हैं मर्ज कितने

हाफ जाते हो कुछ दूर चलने में 

 सामने रखे हो तेरे  ढेरों पकवान 

पर उबला खाना है तेरी नियति मे

 अपनी नींदे सुकून से ले जो सको 

आश्रित तुम  दवा पर होते हो

बीत गई उम्र बहार की तेरी 

रात दिन मशक्कत  ही करते हुए

 बेमज़ा हो रही जिंदगी अब तो

खाली तन-मन का भार ढोने में


याद करो अपने गुजरे हुए लम्हों को

छोटी-छोटी बातों में खुशियाँ पाते थे

करके मेहनत जो लौटते थे तुम घर 

रोटी दाल में ही कितना  सुख पाते थे

फिर जो लगती थी दोस्तों की जमघट

सबके दिल खोल ठहाके लगते थे

वही तो सच्चे सुख थे  तेरे जीवन के

 भूल नहीं पाते क्यों उन पल वो जीवन के

फिर वही तरसना है गुजरे  हुए लम्हों की

  स्वरचित उषा जैन कोलकाता







3. अगले दिन

 दुनिया से जो लोग हमेशा को  चले जाते हैं

कुछ नहीं ले जाते हैं सब  छोड़ यही  चले जाते है  


अपना जोड़ा हुआ सामान और असबाब

 वो कपड़े वो ऐनक उनका वो साजो सामान

 अगले  ही दिन  वो  सब कबाड़ में   गिने जाते है


 वो पुरानी सी तस्वीरें कुछ पुराने से खत 

जिनको संजो के रखा था अलमारी में अब तक 

होकर लावारिस से वो रद्दी में बदल जाते हैं 


वो बड़ा सा गलीचा वो एक पुराना हारमोनियम सजती थी दोस्तों की महफिल गूंजती थी सरगम  पुरानी चीजों की बिक्री की कतार में नजर आते हैं


वो जो आंगन में रहती थी सदा एक चारपाई

जिसमें गर्मी की रातें और जाड़े की धूप गुनगुनाई

निकृष्ट वस्तुओं से  घर के बाहर निकाले  जाते है

घर के चौबारे में जो होती थी गोष्टीया अक्सर

अब वह चौबारा भी बेजार नजर आता है


छोड़ जाते हैं हैं विरासत में वो खट्टी मीठी यादें 

जिसको चाह कर भी लोग जहन से निकाल नहीं पाते

सिर्फ रह जाएंगी उनकी बातें और कहानी किस्से

जिनको लोग अक्सर अफसानो में बयां करते हैं

 स्वरचित उषा जैन कोलकाता



4. सत्ता और कुर्सी

सत्ता के गलियारे में कुर्सी का है खेल

कुर्सी को पाने की खातिर रचते नित नया खेल

 सत्ता ही सब कुछ है इनकी जीवनदायिनी है 

सत्ता ही तो माई बाप है सत्ता ही जीवनसंगिनी है झूठे वादे करते है कितना प्रपंच ये करते है 

खरीद फरोख्त की वस्तुओं जैसे चंद् रूपए में बिकते है 

 बेपेंदी के लोटे  जैसे लुढ़कते  ही चले जाते हैं

 इधर-उधर यह होते ही रहते सगे किसी के न होते हैं 

रुख हवा का  देखकर फिर यह अपनी चालें चलते हैं शर्म हया जमीर बेचकर कभी नहीं पछताते हैं 

भोली भाली जनता को ये सब्जबाग दिखाते है

अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से  लोगों को बहलाते हैं


 पंच वर्ष का बांध मंसूबा लोगों के घरों में जाते हैं हाथ जोड़ विनती करते और कितने स्वांग रचाते है

स्पर्श यदि उनका हो जाये तो घृणा से भर जाते है

बैठ आज उन्हीं के झोपढ़े मे उनकी रोटी खाते है

अंक लगाते उनके बच्चों को प्यार से उन्हें दुलारते है झूठे आश्वासन देते  हो और लल्लो चप्पो करते हैं


वोटो की गिनती के लालच मे ये  नराधम हो जाते है

धर्म का झण्डा हाथ में लेकर  ये देश में  सांप्रदायिक  दंगेभड़काते है

सत्ता पर काबिज होते ही  ये स्वयंभू  बन जाते है 

नए-नए कर कानून बनाकर कोष ये अपना भरते हैं

खून पसीना जनता बहाती ऐश यह नेता करते हैं 

दो वक्त की रोटी के लिए जनता कितनी मशक्कत करती है  

 उनकी  थाली के स्वाद को महंगाई लीले जाती है


 इन नेताओं का हर दौरा विदेश यात्रा का होता है अपने देश के गांवों में इनका कभी पदार्पण  नहीं होता है 

इनके पैसों की भूख कभी खत्म नहीं  हो पाती है देश का सौदा करने में भी इनकी आत्मा नहीं शर्माती है

बाशिंदे  तो भारत के हैं  पर महिमा  दूसरे  देश की करते हैं

   स्वरचित उषा जैन कोलकाता






5. आज का जीवन

जीवन की इस आपाधापी में जाने  क्या- पीछे छूट गया 

कहीं ह्रदय के तार जुड़े तो कहीं पर ये  दिल टूट गया 

भागते दौड़ते लोगों में अपने पराए खो गए

कैसे ढूंढे उनमें अपनों को सब बेगाने हो गए


घुटन बढ़ रही शाम ओ सहर  दिल अब कुंठित हो रहा 

चहुं दिशाओं में  स्वार्थ का जहर ही  सर्वत्र फैल रहा 

हाहाकार हो रहा ह्रदय में  अतंस मन व्यथित हो रहा

 परिवेश  यहां का देख देख कर कर आसमान भी रो रहा


रोटी के दो टुकड़ों की खातिर  मासूम बचपन  सिसक रहा 

पढ़ने लिखने की उमर  मे काम के बोझ से दब रहा

क्या कोई मसीहा आसमान से इनके लिए भी आएगा

 इनके नन्हे बचपन को इनका हक  दिलवाएगा


नन्ही नन्ही कोमल कलियों को हवस का दानव कुचल रहा 

भेड़ की खाल पहन के भेड़िया हर गांव शहर में घूम रहा

 इन वहशी हत्यारों को कोई ऐसी सजा दिलाएगा

 चौराहे पर सबके सामने सूली पर लटकायेगा

 हश्र देखकर इनका ऐसा रूह कांप उठे औरों की

  फिर से गूंजे गांव शहर में खिलखिलाहट बहन बेटियों की

 फिर कोई रावण छू न पाए दामन कभी किसी सीता का का 

फिर ना खिचनी पड़े  किसी लक्ष्मण को फिर से कोई लक्ष्मण रेखा

                स्वरचित उषा जैन


एस के कपूर श्री हंस

*।।रचना शीर्षक।।* *।।हर कदम जीवन में हमें कुछ* *सीख मिलती है।।* तलवार से हम जीत सकते किसी एक तकरार को। पर किरदार से जीत सकते सारे ही संसार को।। सही डगर पकड़ो मंजिल को पाने के लिए। जीवन में समस्त पा सकते बनायें व्यवहार को।। छोटी सी जिन्दगी तूफान क्यों बहुत है। रहो जरा शान्त चित कि काम बहुत है।। मैं से तुम,तुम से हम, यही है मन्त्र असली। कोशिश करो पर जो मिला इंतिज़ाम बहुत है।। सराहना से प्रेरणाआलोचना से सीख मिलती है। मानव सेवा,प्रभुआराधना से कृपा भीख मिलती है।। संघर्ष में गर दर्द है तो शक्ति भी आती इसी से। कर्म से ही जीवन में कोई जागीर मिलती है।। *रचयिता।।एस के कपूर" श्री हंस"* *बरेली।।।।।* मोब।। 9897071046 8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-19 अंगद-चरन न उठ केहु भाँती। भागहिं सिर लटकाय कुजाती।। जस नहिं तजहिं नेम-ब्रत संता। महि नहिं तजै चरन कपि-कंता।। भागे जब सभ लाजि क मारा। रावन उठि अंगद ललकारा।। झट उठि पकरा अंगद-चरना। अंगद कह मम पद नहिं धरना।। गहहु चरन जाइ रघुनाथा। प्रभुहिं जाइ टेकउ निज माथा।। रामासीष उबारहिं तोहीं। नहिं त तोर कल्यान न होंहीं।। सुनतै अस तब रावन ठिठुका। गरुड़हिं देखि ब्यालु जिमि दुबका।। तेजहीन रावन अस भयऊ। दिवस-प्रकास चंद्र जस रहऊ।। सिर झुकाय बैठा निज आसन। जनु गवाँइ संपति-सिंहासन ।। राम-बिरोधी चैन न पावहिं। बिकल होइ के इत-उत धावहिं।। रचना बिस्व राम प्रभु करहीं। प्रभु-इच्छा बिनास जग भवहीं।। तासु दूत-करनी कस टरई। प्रभु-महिमा कपि-चरन न हटई।। चलत सकोप अंगद कह रावन। रन महँ मारब तोहिं पछारन।। सुनि रावन बहु भवा उदासू। अंगद-बचनहिं सुनत निरासू।। होइ अचंभित निसिचर लखहीं। रिपु-मद रौंद के अंगद चलही।। दोहा-अंगद जा तब राम-पद,पकरा पुलकित गात। रौंद के रिपु कै सकल मद,सजल नयन हर्षात।। डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

कालिका प्रसाद सोमवाल

*हे माँ शारदे कृपा करो* ******************** माँ हमें अज्ञानता से तार दो तेरे द्वार पर आकर माँ खड़ा हूं, तेरे चरणों में आज पड़ा हुआ हूं ज्ञान का उपकार दे माँ, जन मानस को प्रकाश दे माँ हे शारदे माँ ,कृपा करो। हृदय वीणा को हमारी नित नवल झंकार दे दो माँ, तू मनुजता को इस धरा पर चिर संबल आधार दे माँ, प्रार्थना का हमें अधिकार दे हे माँ शारदे कृपा करो। हे दयामयि माँ शारदे तू हमें निज प्यार‌ दे माँ, तिमिर का तू नाश करती ज्ञान का दीपक जलाकर, हमें पुण्य पथ प्रशस्त करता दे हे माँ शारदे कृपा करो।। ******************** कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड

नूतन लाल साहू

बाल मजदूरी, छीनती बचपना हम दो हमारे दो शासन का हैं सुझाव पर यह कैसी लाचारी बढ़ रही है संख्या,अनाप शनाप करे गुजारा किस तरह नहीं कमाई खाश आज यहां तो कल वहां किये बहुत से काम पंद्रह दिवस जला बस चूल्हा मेहनत हुई महीने की मजबूरी ने दिखा दी बच्चों को मजदूरी की राह बाल मजदूरी छीनती बचपना इक्कीसवीं सदी में है,यह कैसी विडंबना सेहत बने,पढ़ाई हो ताकि आगे नहीं कठिनाई हो मिले संतुलित आहार,खूब स्वस्थ रहें पढ़े लिखे,प्रसन्न मस्त रहें सूखी जीवन की जब तैयारी है तब बच्चों के सीने में गम ही गम हैं आंख नम करके सितम ढा रहा है जाने क्यों तुम,समझ न पा रहा है झांक कर देख तो, बच्चों के मन मंदिर को उसके अंदर भी इक विधाता है सोचो अगर दुनियां में कानून न होता बोलो फिर क्या होता बाल मजदूरी, छीनती बचपना इक्कीसवीं सदी में है,यह कैसी विडंबना नूतन लाल साहू

डा. राम कुमार झा निकुंज

दिनांकः १८.१२.२०२० दिवसः शुक्रवार विधाः गीत शीर्षकः 👰सँजोए सजन मन❤️ अज़ब खूबसूरत , नज़ाकत तुम्हारी। नशीली इबादत , मुख मुस्कान तेरी। कजरारी आँखें , मधुशाला सुरीली। लहराती जुल्फें , बनी एक पहेली। गालें गुलाबी , गज़ब सी ये लाली। चंचल वदन चारु , लटकी कानबाली। दिली प्रीति मन में,नटखटी तू लजायी। मुहब्बत नशा ये , ख़ुद मुखरा सजायी। संजोए सजन मन , बयां करती जवानी। कयामत ख़ुदा की , मदमाती रवानी। अनोखी परी तू , निराली दीवानी। कयामत ख़ुदा की , मदमाती रवानी। खिलो जिंदगी में,महकती कमलिनी सी। निशि की नशा बन, हँसती चाँदनी सी। पूजा तू अर्चन , चाहत जिंदगी की। रुख़्सार गुल्फ़ाम ,चाहत प्रिय मिलन की। कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक (स्वरचित) नई दिल्ली

डा. राम कुमार झा निकुंज

दिनांकः १९.१२.२०२० दिवसः शुक्रवार विधाः गीत शीर्षकः दर्दिल ए दास्तां दर्द की इन गहराईयों में , हैं दफ़न कितने ही जख़्म मेरे। है अहसास झेले सितमों कहर, बस ज़नाज़ा साथ होंगे दफ़न मेरे। थे लुटाए ख़ुद आसियाँ अपने, गुज़रे इम्तिहां बेवक्त सारे। सहकर ज़िल्लतें अपनों के ज़ख्म, दूर सभी बदनसीबी जब खड़े। किसको कहूँ अपनी जिंदगी में, पहले पराये वे आज अपने। लालच में दोस्त बन रचते फ़िजां, गढ़ मंजिलें ख़ुद सुनहरे सपने। किसे दर्दिल सुनाऊँ दास्तां ये, शर्मसार दिली इन्सान मेरे। खड़े न्याय अन्याय बन सारथी, उपहास बस अहसास जिंदगी के। हैं असहज दिए दर्द अपनों के, विषैले बन कँटीले दिल चुभते। दुर्दान्ती ढाहते विश्वास निज, स्वार्थी ईमान ख़ुद वे भींदते। कितनी ही कालिमा हो दर्द के, हो ज़मीर ईमान ख़ुद पास मेरे। सत्पथ संघर्षरत रह नित अटल, अमर यश परमार्थ जीवन्त सपने। आदत विद्वेष की घायल करेंगे, साहसी धीरता आहत सहेंगे। तिरोहित होगें सब तार दिल के, राही दिलदार बन सुदृढ़ बढ़ेंगे। त्रासदी व वेदना हर टीस ये, आत्मनिर्भर संबलित सुपथ बढ़ेंगे। पहचान हों अपने पराये स्वतः, सुखद खुशियों के फूलें खिलेंगे। अहसास दिलों में हैं शिकवे, हर नासूर ज़ख्म दिल दफ़न किए। कुछ कर्तव्य वतन अनुभूति हृदय, खुश रहे खली बस,हर जहर पिए। कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक (स्वरचित) नई दिल्ली

डा0 रामबली मिश्र

*प्रेम और आँसू (सजल)* प्रेम और आँसू का बहना। दोनों को संयोग समझना।। कोई नहीं बड़ा या छोटा। विधि का इसे विधान जानना।। प्रेम बुलाता है आँसू को। बिन आँसू के प्रेम न करना।। आँसू नहीं अगर आँखों में। होता नहीं प्रेम का बहना।। जिसने प्रेम किया वह रोया। इसको शाश्वत नियम समझना।। आँसू से ही प्रेम पनपता। आँसू लिये संग में चलना।। आँसू है तो दुनिया तेरी। बिन आँसू के सब कुछ सपना।। आँसू बिना प्रेम घातक है। इसे प्रेम का मर्म समझना।। प्रेम हॄदय का शुद्ध विषय है। यह कोमल मधु क्षेत्र परगना।। कोमल मन-उर में शीतलता। हृदय देश से जल का बहना।। प्रेम गंग सागर अति निर्मल।। बनकर आँसू चक्षु से बहना।। चक्षु क्षेत्र गंगा सागर तट। प्रेम-अश्रु की धार समझना।। प्रेम-अश्रु का जहँ अभाव है। उसको दानव देश समझना।। बड़े भाग्य से आँसू बहता। जग की चाह प्रेम का झरना।। झरने से आँसू की बूँदों। का हो नित्य प्रेमवत झरना।। रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी 9838453801 *हुआ प्रेम...* हुआ प्रेम नियमित जरा धीरे-धीरे। बहकता गया मन बहुत धीरे-धीरे।। भरने लगीं कल्पना की उड़ानें। उड़ता गया मैं जरा धीरे-धीरे।। फिसलता रहा पग संभलता रहा भी। पिघलता रहा दिल जरा धीरे-धीरे।। बनकर दीवाना चला तोड़ बंधन। सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ा धीरे-धीरे।। रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी 9838453801

कालिका प्रसाद सोमवाल

*हे मां शारदे कृपा करो* ****************** आरती वीणा पाणी की जयति जय विद्यादानी की, तू ही जमीं तू ही आसमां है आबाद तुझसे सारा जहां है। शीश पर शुभ्र मुकुट धारण क्रीट कुंडल मन को मोहे, मेरे उर में ज्ञान की ज्योति जगा दो मां और सद् बुद्धि का मुझे दान दे दो मां हे मां शारदे लिए हाथ में पुस्तक और माला, तू स्वर की देवी है संगीत की भंडार हो हर शब्द तेरा हर गीत तुझमें है। हे मां वीणा धारणी वरदे हम है अकेले हम है अधूरे, अपनी कृपा से हमें तार दो तू ही जमीं हो तू ही आसमां हो। हे मां शारदे आबाद तुझसे सारा जहां है, हो जाय मुझसे कोई भूल मां मुझ दीन पर दया करना ।। ****************** कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखण्ड

नूतन लाल साहू

आत्मविश्वास क्या लुटेगा जमाना खुशियों को हमारी हम तो खुद अपनी खुशियां दूसरों पर लूटा कर जीते हैं कर्म ही हमारा भाग्य हैं कर्म ही है सबका भगवान समय देखकर कर्म करे तो होगा मानव का कल्याण हर मानव है अर्जुन यहां परम आत्मा है श्री कृष्ण आत्म ज्ञान से ही हल हुआ है मन के सारे प्रश्न क्या लुटेगा जमाना खुशियों को हमारी हम तो खुद अपनी खुशियां दूसरों पर लूटा कर जीते हैं जो बीता सो बीत गया सहले होकर मौन बार बार क्यों भूत को करता है तू याद जो जीते हैं आज में उसके सर पर हैं,खुशियों की ताज जो भी करता है,ईश्वर उसमें रख संतोष उनसे पंगा लिया तो खो बैठोगे होश जब तक मन में अहम है नहीं मिलेंगे भगवान जिसने जाना स्वयं को वहीं है सच्चा इंसान क्या लुटेगा जमाना खुशियों को हमारी हम तो खुद अपनी खुशियां दूसरों पर लूटा कर जीते है नूतन लाल साहू

डॉ० रामबली मिश्र

*चोरों की बस्ती में...(ग़ज़ल)* चोरों की बस्ती में घर ले लिया है। संकट को न्योता स्वयं दे दिया है।। नहीं जानता था ये चोरकट हैं इतने। पसीना बहाकर लहू दे दिया है।। पूछा न समझा कि बस्ती है कैसी? अज्ञानता में ये क्या कर दिया है?? दमड़ी की हड़िया भी लेनी अगर है। मानव ने ठोका ,बजाकर लिया है।। हुई चूक कैसे नहीं कुछ पता है। बिना जाने कैसे ये क्या हो गया है?? पछतावा होता बहुत है समझ कर। पछतावा से किसको क्या मिल गया है?? उड़ी चैन की नींद दिन-रैन जगना। चोरों से बचना कठिन हो गया है।। क्या-क्या करे बंद कमरे के भीतर। बाहर का सब चट-सफा हो गया है।। झाड़ू तक बचती नहीं यदि है बाहर। गैया का गोबर दफा हो गया है।। चोरों की बस्ती का मत पूछ हालत। अपना है उतना ही जो बच गया है।। रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी 9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-18 अंगद सुनि रावन कै बचना। हँसा होय अति हरषित बदना।। पकरउ धाइ कपिन्ह अरु भालू। खावहु तिनहिं न होउ दयालू।। करउ सकल भुइँ कपिन्ह बिहीना। जाइ करउ सेना-बल छीना ।। लाउ पकरि तापसु दोउ भाई। नहिं त होइ अब मोर हँसाई।। कह सकोप तब बालि-कुमारा। सुनहु अधम-खल,बिनू अचारा।। तुम्ह मतिमंद काल-बस भयऊ। डींग न हाकहु बहु कछु कहऊ।। एकर फल तुम्ह पइबो तबहीं। जबहिं चपेटिहैं बानर तुमहीं।। तुम्ह कामी-पथभ्रष्ट-निलज्जा। नर प्रभु कहत न आवै लज्जा।। जदि आयसु पाऊँ रघुनाथा। दाँत तोरि फोरहुँ तव माथा।। राम-बान तरसहिं तव रुधिरा। यहिं तें तुम्ह छोडहुँ कनबहिरा।। सुनि अस तब रावन मुस्काना। कह लबार तुम्ह हो मैं जाना।। तव पितु बालि कबहुँ नहिं कहऊ। जस तुम्ह कह तापसु मिलि अजऊ।। मोंहि कहसु लबार-बातूनी। पटकहुँ अबहिं पकरि तव चूनी।। तब प्रभु राम सुमिरि पद धरऊ। सभा-मध्य अंगद अस कहऊ।। जदि कोउ टारि सकत पद मोरा। तजहुँ सीय मम बचन कठोरा।। छाँड़ि सियहिं यहिं पै मैं फिरहूँ। तुरत पुरी तिहार मैं तजहूँ ।। रावन तब तुरतहिं ललकारा। लइ-लइ नामहिं भटन्ह पुकारा। मेघनाद समेत बलवाना। सके न टारि भटहिं बहु नाना।। दोहा-सके न टारि अंगद-चरन, सुर-रिपु,निसिचर जाति। नहिं उपारि बिषयी सकहिं,मोह-बिटपु केहु भाँति।। डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

एस के कपूर श्री हंस

*।।रचना शीर्षक।।* *।।डूबती नाव यूँ संभाल ली* *मैंने।। बिगड़ी जिन्दगी यूँ संवार* *ली मैंने।।* जिन्दगी कुछ ऐसी चली कि सारे सवाल बदल डाले। फिर वक्त की आंधी ने सारे ही जवाब बदल डाले।। हमनें भी डाल दिया लंगर तूफानों के बीच में। हौसलों ने सारे हमारे बुरे हालात बदल डाले।। जिन्दगी जो शेष थी उसे हमनें विशेष बनाया। निष्क्रियता का जीवन में अवशेष मिटाया।। केवल कर्म की सक्रियता को अपनाया हमनें। घृणा, ईर्ष्या, राग, विद्वेष को हमनें दूर भगाया।। जीवन में फूल ही बस चुने काँटों को निकाल कर। हर संतुलन को तोला हमनें बांटों को निकाल कर।। जिन्दगी को सवाल नहीं जवाब बनाया हमनें। प्रेम बगिया बनाया मन से चांटों को निकाल कर।। चमत्कार से विश्वास नहीं पर विश्वास से चमत्कार करा। झुका कर आसमाँ को भी नतीज़ों का इंतज़ार करा।। धैर्य और परिश्रम से धुंधली तस्वीर में रंग भरा नया। हारी हुईं बाज़ी पर भी हमनें जीत का अख्तियार करा।। *रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*" *बरेली।।।* मोब।। 9897071046 821868 5464

डा. नीलम

*शीत दिवस* भोर कोहरे से ढकी शीत की लरजन लिए दे रही संदेश जागो ढल गई है रात प्रिय क्या हुआ जो सूरज के चूल्हे की आंच मद्धम रही अंधेरी रात तो फिर भी पटल से सरकती रही रात भर ओस बरसात-सी बरसती रही ठिठुरते चमन में कलियां फिर भी महकती रहीं बरफ के देश से बहकर हवाएं आती रहीं भेदकर दीवारें भित्तियों को थर्राती रहीं क्या हुआ गर मौसम में आग नहीं कर कसरत के जिस्म में तो आग रही क्या हुआ जो....... डा. नीलम

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल ग़ैर से तू मिला नहीं होता यह तेरा फ़ैसला नहीं होता साक़िया क्यों तुम्हारी महफ़िल में जाम मुझको अता नहीं होता जाम पीता मैं आज जी भर के सामने पारसा नहीं होता जब भी आती हैं मुश्किलें यारो कोई मुश्किलकुशा नहीं होता उसको शादी कहूँ मुबारक हो मुझसे यह हक़ अदा नहीं होता माँग भरता ख़ुशी ख़ुशी तेरी गर मैं शादीशुदा नहीं होता मेरी तन्हाई में कभी *साग़र* कोई तेरे सिवा नहीं होता 🖋️विनय साग़र जायसवाल 17/12/2020

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

ग़ज़ल धीरे-धीरे हुआ इश्क़ का जब असर धीरे-धीरे। गयी सध ग़ज़ल की बहर धीरे-धीरे।। नहीं काटे कटतीं थीं अब तक जो रातें। लगीं उनकी होने सहर धीरे-धीरे।। गगन में सितारे जो लगते थे धूमिल। गयी ज्योति उनकी निखर धीरे-धीरे।। तकदीर मेरी जो बिगड़ी थी अब-तक। गयी पा उन्हें अब सँवर धीरे-धीरे।। रहा प्यार अब-तक जो गुमनाम मेरा। बनी उसकी अच्छी ख़बर धीरे-धीरे।। बढ़ा इश्क़ का अब असर इस क़दर के। सभी गाँव होंगे,नगर धीरे-धीरे।। मलिन बस्तियों की जो दुर्गति थी होती। जाएगी दशा अब सुधर धीरे-धीरे।। अगर दीप प्यारा यूँ जलता रहेगा। जाएगा ये तूफाँ ठहर धीरे-धीरे।। © डॉ0हरि नाथ मिश्र 9919446372

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...