*संघर्ष*
पत्थर लुढ़क-लुढ़क के भगवान बनता है,
शैतान खा के ठोकर,इंसान बनता है।
करके मदद यतीमों की निःस्वार्थ भाव
इंसान अपने मुल्क़ की पहचान बनता है।।
होती हिना है सुर्ख़,पत्थर-प्रहार से,
धीरज न खोवे सैनिक,सीमा की हार से।
अपने वतन की माटी पर,प्राण कर निछावर-
बलिदान की मिसाल वो, जवान बनता है।।
माता समान माटी, माटी समान माता,
परम पुनीत ऐसा संयोग रच विधाता।
जीवन में हर किसी को,मोकाम यह दिया है-
कर के नमन जिन्हें वो,महान बनता है।।
लेना अगर सबाब, तुमको ख़ुदा का है,
उजियार कर दो मार्ग जो,तम की घटा का है।
भटके पथिक को रौशनी,दिखाते रहो सदा-
करने वाला ऐसा ही निशान बनता है।।
वादा किसी को करके,मुकरना न चाहिए,
पद उच्च कोई पा के,बदलना न चाहिए।
धन-शक्ति के घमण्ड में,औक़ात जो भूला-
इंसान वो समझ लो,हैवान बनता है।। महिमा कभी भी सिंधु की,घटते नहीं देखा,
घमण्ड को समर्थ में,बढ़ते नहीं देखा।
देखा नहीं सज्जन को कभी,कड़ुवे वचन कहते-
नायाब इस ख़याल से ही,ईमान बनता है।।
जल पे लक़ीर खींचना, संभव नहीं यारों,
पश्चिम उगे ये भास्कर,संभव नहीं यारों।
आना अगर है रात को तो आ के रहेगी-
निश्चित प्रभात होने का,विधान बनता है।।
ऐसे ही ज़िंदगी की गाड़ी को हाँकना,
चलते रहो बराबर,पीछे न झाँकना।
दीये की लौ समक्ष,तूफ़ान भी झुकता-
तूफ़ान भी दीये का,क़द्रदान बनता है।।
पत्थर लुढ़क-लुढ़क के भगवान बनता है।।
©डॉ. हरि नाथ मिश्र
9919446372