विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल--


हादसा आज टल गया फिर से

खोटा सिक्का जो चल गया फिर से


दिल ने की थी शराब से तौबा

देख बोतल  मचल गया फिर से


तेरा आशिक़ तेरे इशारे पर 

देख घुटनों के बल गया फिर से


जानता था मैं उसकी फ़ितरत को 

बात अपनी बदल गया फिर से 


इस करिश्मे से महवे-हैरत हूँ 

बुझता दीपक जो  जल गया फिर से


इतना उस्ताद है वो बातों में

राख चेहरे पे मल  गया फिर से 


आ गयी याद कैकयी होगी

रथ का पहिया निकल गया फिर से


मशवरे दिल के मान कर *साग़र*

वक़्त अपना संभल गया फिर से 


विनय साग़र जायसवाल


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *नववर्ष*(दोहा)

स्वागत है नववर्ष का,खुला हर्ष का द्वार।

नवल चेतना से मिले,दिव्य ज्ञान - भंडार।।


बने यही नववर्ष ही,जग में प्रगति-प्रतीक।

कोरोना के रोग की,औषधि मिले सटीक।।


कला-ज्ञान-साहित्य का,होगा सतत विकास।

विमल-शुद्ध नभ-वायु का,बने जगत आवास।।


सुख-सुविधा-सम्पन्न कृषि,होंगे तुष्ट किसान।

भारत अपना  देश  ही , होगा  श्रेष्ठ - महान ।।


सरित-प्रपात-तड़ाग सब,देंगे निर्मल नीर।

निर्मल पर्यावरण से,जाती जन की पीर।।


देगा यह नववर्ष भी,जन-जन को संदेश।

मानवता ही धर्म है,जानें रंक-नरेश ।।

               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                   9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *मधुरालय*

                *सुरभित आसव मधुरालय का*5

प्रकृति सुंदरी बन-ठन थिरके,

जब प्याले की  हाला  में।

मतवाला हो  पीने वाला-

लगती मधु पगलाई  है।।

         लगे चेतना विगत पिये जो,

         भूले  सारे  दुक्खों  को।

          सुख-सागर में डूबे उसको-

            प्यारी ही तनहाई  है।।

भूला-खोया-सोया-सोया,

पुनि जब हो  चैतन्य वही।

करता यादें सुखद  पलों की-

जिनसे सब बन  आई है।।

        नहीं सरल-साधारण आसव,

         मधुर प्रेम-रस-घोल यही।

         है त्रिदेव का वास ये मिश्रण-

         इसमें मंत्र समाई  है ।।

एक बार यदि लग जा चस्का,

बार-बार मन उधर  खिंचे।

मिले स्वाद वा मिले न फिर भी-

सुरभि सभी को भाई  है।।

        शीतल-मंद-सुगंध पवन सम,

         ही जैसे  हैं  गुण  इसमें।

          गुण से गुण का गुणा करें यदि-

          सुरभि अमल वह  पाई है।।

जंक लगे कल-पुर्जे तन के,

जब भी ढीले पड़ते  हैं।

राही ने तब जा मधुरालय-

बिगड़ी बात  बनाई  है।।

         विकल-खिन्न-बेचैन मना जब,

         करता संगति साक़ी  की।

         एक घूँट तब साक़ी  देकर-

         करता दुक्ख विदाई  है।।

मन-रुग्णालय,तन-रुग्णालय,

मधुरालय है रुचिर  निलय।

तुष्टि-दायिनी औषधि इसकी-

ही भव-ताप-मिटाई  है।।

         देवों ने भी आसव पी कर,

        पा ली यहाँ अमरता  को।

         जरा-मृत्यु से नहीं भयातुर-

         जीवन-अवधि बढ़ाई  है।।

अमित-कलश सुर-जग का अद्भुत,

मधुरालय सुखदाई है।

जीवन में माधुर्य भरा  है-

कभी न आई-जाई  है।।

       परम दिव्य,स्वादिष्ट,मधुर यह,

       मधुरालय का आसव  है।

       इसी हेतु तो सुर-असुरों  की-

       हुई प्रसिद्ध  लड़ाई  है।।

विष को गले लगा शिव शंकर,

अमृत-कलश बचाया है।

ऐसा कर के महादेव ने-

अद्भुत रीति निभाई है।।

       मधुरालय का साक़ी आला,

       प्रेम-पाग-रस  देता है।

      वह त्रिताप से पीड़ित मन सँग-

       करता  सदा  मिताई  है।।

                    © डॉ0हरि नाथ मिश्र

                      9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 आदि-अंत तक    (तिकोनिया छंद)


आदि-अंत तक,

जीवनभर तक।

जी भर तबतक।।


जन्म-मृत्यु तक,

सकल समय तक।

मन हो जबतक।।


स्वस्थ रहोगे,

काम करोगे।

सुखी बनोगे।।


बन उदाहरण।,

प्रिय उच्चारण।

शुभ्र आचरण।।


आजीवन कर,

श्रम से रचकर।

दिनकर बनकर।।


कर्म करोगे,

धर्म बनोगे।

मर्म रचोगे।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

एस के कपूर श्री हंस

।कंही तेरी कहानी अनकही न*

*रह जाये।।*


देख लेना    कहीं  अनकही तेरी

अपनी   कहानी न रहे।

रुकी सी बीते      जिन्दगी     में 

कोई   रवानी न    रहे।।

जमीन और   भाग्य  जो   बोया

वही    निकलता    है।

अपने स्वार्थ के   आगे    किसी

और पे मेहरबानी न रहे।।


दुखा कर दिल किसी का  कभी

कोई सुख पा नहीं सकता।

कपट विद्या से किसी  का कभी

दुःख भी जा नहीं सकता।।

पाप का घड़ा भरकर  एक दिन 

फूटता          जरूर     है।

बो कर बीज  बबूल   के   कभी

आम कोई ला नहीं सकता।।


कल की चिंता   मत कर तू जरा

आज  को भी संवार    ले।

मत डूबा रहे स्वार्थ में कि समय

परोपकार में भी गुजार ले।।

अपने कर्मों का निरंतरआकलन

तुम हमेशा     करते रहो।

प्रभु ने भेजा धरती पर तो  जरा

जीवन का कर्ज उतार ले।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब।।             9897071046

                      8218685464


*।।नारी,प्रभु का उपहार।*

*पत्नी माँ बहन बेटी,त्याग* 

*अपरम्पार।।*

*।।विधा।।हाइकु।।*

1

है रचयिता

सृष्टि रचनाकार

मूर्ति ममता

2

पालनहार

है बच्चों की शिक्षक

देवे  आहार

3

आँगन पुष्प

बच्चों पे जान फिदा

न होये रुष्ट

4

ठंडी बयार

त्याग के लिए सदा

रहे तैयार

5

शक्ति स्वरूपा

परिवार संसार

ममता रूपा

6

त्याग की भाषा

माँ बेटी परिभाषा

न अभिलाषा

7

प्रेम का प्याला

घर आये संकट

बने वो ज्वाला

8

प्रेम गागर

जगत जननी है

भक्ति सागर

9

नारी अव्यक्त

ब्रह्मांड समाहित

ऐसी सशक्त

10

है अहसास

नारी बहुत खास

है आसपास

11

नारी प्रकाश

अंधेरा    दूर करे

सृष्टि सारांश

12

रूप अनेक

माँ बेटी पत्नी बने

प्रभु सी नेक

13

मूरत लज़्ज़ा

त्याग का मूल्य नहीं

सृष्टि की सज़्ज़ा

14

नारी पावन

घर का आँगन ही

मन भावन

15

माँ का आँचल

बहुत सुखदायी

भुलाये छल

16

नारी नरम 

सुन कर सबकी

न हो गरम

17

शर्म गहना

चाहे माँ पत्नी बेटी

या हो बहना

18

आज की नारी

सारे कार्य करे वो

यात्रा है जारी

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।           9897071046

                     8218685464

डॉ0 निर्मला शर्मा

 राम नाम

 राम नाम मन में बसा

राम बसा हर ओर

हनुमत सा कोई भक्त नहीं 

ढूँढे से भी और 

कलियुग के इस दौर में 

राम ही पार लगाय 

जपो राम का नाम तुम 

यही है एक उपाय 

मानवता और धर्म का 

पालन करो सदैव

चलो धर्म के मार्ग पर 

विपदा रहे न एक

प्राणी मात्र हर जीव में 

केवल राम समाय 

हनुमत हरि सेवा करें 

हिय में राम रमाय।


डॉ0 निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-32

हनुमत देखि तुरत प्रभु धाए।

भेंटि ताहि निज गरे लगाए।।

      तहँ तुरतै तब बैद सुसेना।

      औषधि उचित लखन कहँ दीना।।

उठा लखन प्रभु गरहिं लगावा।

सुखदायक प्रभु बहु सुख पावा।।

     भे बिषाद-मुक्त सभ बानर।

     अंगद-जामवंत गुन-आगर।।

तब हनुमान सुसेन उठावा।

लाइ रहे जहँ वहिं पहुँचावा।।

    सुनि रावन लछिमन-कुसलाई।

      भवा बिकल बहु-बहु पछिताई।।

कुंभकरन पहँ गवा दसानन।

अति लाघव अरु आनन-फानन।।

      ताहि जगा सभ कथा सुनावा।

       भयो समर कस सकल बतावा।।

बानर-भालू भारी-भारी।

सभ मिलि के मम निसिचर मारी।।

      देवान्तक अरु दुर्मुख बीरा।

      मारे कपिन्ह अकम्पन धीरा।

बचि नहिं सका नरन्तक भ्राता।

मारे सबहिं महोदर ताता।।

सोरठा-सुनु रावन मम भ्रात,होंहि न अब कल्यान तव।

            कुंभकरन कह तात, काहें कीन्हा सिय-हरन।।

                           डॉ0हरि नाथ मिश्र

                             9919446372

एस के कपूर श्री हंस

।।कष्टों से प्राप्त अनुभव जीवन

*की सर्वश्रेष्ठ पाठशाला है।।*


जब जिद  को ठान  लेते    तो

तूफान भी   हार जाते हैं।

मुश्किलों के बादल विश्वास के

सामने ठहर नहीं पाते हैं।।

अटूट  आस्था और आशा   का

पौधा कभी मुरझाता नहीं।

काम ऐसे   करते     कि     जन

जीवन में सुधार   लाते हैं।।


जीवन की    पाठशाला      में 

सीखते हैं      हर मंत्र।

जन जीवन   की       सेवा   में

लगाते हैं       हर यंत्र।।

संघर्ष की   सीढ़ियों    को चढ़

कर पहुंचते वो ऊपर।

बुद्धि,    विवेक,      साहस  से

साधते  हैं   हर   तंत्र।।


आत्म ज्ञान , आत्म बल से  ही

व्यक्ति सफल होता है।

आत्म  विश्वास से  हर समस्या

का    हल      होता  है।।

कष्ट  और विपत्ति देते हैं व्यक्ति

को शिक्षा और सामर्थ्य।

दुःखों में    मिला   अनुभव   भी

सिद्ध  सुफल   होता है।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"* 

*बरेली।।*

मोब।।           9897071046

                    8218685464


*।।कोशिश करो*

*तो जा सकते हो शून्य से*

*शिखर पर।।*


अपने   तरकश  कभी तुम

हार का तीर   मत   रखना।

बिक  जाये  जो     सीने में

ऐसा जमीर  मत     रखना।।

जमीन पर रहो पर   उड़ान

भरो तुम    आसमान   की।

मन हो साफ तुम्हारा  जुबां

पे झूठी तकरीर मत रखना।।


अतीत का   पछतावा नहीं

आगे   की    सुध  लीजिए।

सुख में खुशी  दुःख  में भी

गमों कोआप जरा पीजिए।।

जान लीजिए    कि चिन्ता

से भविष्य संवरता नहीं है।

कल को संवारना  तो बस

आज से  कोशिश कीजिए।।


गर हार भी   गये  तो    भी 

आगे आप    बढ़ सकते हैं।

गिर कर   उठ कर     फिर

जाकर आप अड़ सकते हैं।।

चाहो तो   शून्य से  शिखर

पर जा    सकते   हैं  आप।

मत हारो   हौंसला   तो हर

ऊंचाईआप चढ़ सकते हैं।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"

*बरेली।।*

मोब।।।          9897071046

                     8218685464

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल--


समझ रहा हूँ इश्क़ अब हुआ ये कामयाब है 

मेरी नज़र के सामने जो मेरा माहताब है

हुस्ने मतला----

बशर बशर ये कह रहा वो  हुस्ने -लाजवाब है 

जो मेरा इंतिख़ाब है जो मेरा इंतिख़ाब है


ज़मीन आसमाँ लगे सभी हैं आज झूमने 

तेरी निगाहे मस्त ने पिलाई  क्या  शराब है


तुझे तो मन की आँख से मैं देखता हूँ हर घड़ी 

मेरी नज़र के सामने फ़िज़ूल यह हिजाब है


छुपा सकेगी किस तरह  तू  मुझसे अपने  प्यार को

तेरी नज़र तो जानेमन खुली हुई किताब है 


 बढाऊँ कैसे बात को मैं उनसे अपने प्यार की 

हज़ार ख़त के बाद भी मिला न इक  जवाब है 


तुम्हें क़सम है प्यार की चले भी आइये सनम

बिना तुम्हारे ज़िन्दगी तो लग रही  अज़ाब है 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

2/1/2021

इंतिख़ाब -पसंद ,चयन 

हिजाब--परदा ,लाज ,शर्म

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *गीत*(16/14)

प्रेम-सिंधु ने लिया हिलोरें,

याद पिया की आती है।

मन में उठा उबाल दरस का-

नहीं चंद्रिका भाती है।।


चमन सभी वीराने लगते,

यद्यपि फूल महकते हैं।

उड़ते पंछी लगें न प्यारे,

यद्यपि सभी चहकते हैं।

कल-कल बहती सरिता-धारा-

सिंधु-मिलन को जाती है।।

     याद पिया की आती है।।


जब-जब बहे पवन पुरुवाई,

अंग-अंग मेरा टूटे।

रूठ गए हैं साजन मेरे,

लगे,कर्म मेरे फूटे।

कब सवँरेगी क़िस्मत मेरी-

रह-रह बात सताती है??

      याद पिया की आती है।।


कागा बैठ मुँडेरी बोले,

गोरी, मत घबराओ तुम।

झील-पार हैं पिया तुम्हारे,

चाहो तो जा पाओ तुम।

कोयल भी कुछ ऐसी बातें-

गाकर रोज सुनाती है।।

     याद पिया की आती है।।


कैसे जाऊँ झील-पार मैं,

मुझको कोई बतलाए?

लाख दुआ मैं दूँगी उसको,

खोया साजन वो पाए।

लकड़ी-निर्मित नाव जगत में-

 पार छोड़ मन भाती है।।

      याद पिया की आती है।।


आती हूँ मैं पार झील के,

बैठ नाव तिर पानी को।

मिलकर तुमसे करूँगी प्रियतम-

पूरी शेष कहानी को।

रूठा सजन मनाकर सजनी-

पुनि जीवन-सुख पाती है।।

       याद पिया की आती है।।

                  ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 अंतिम इच्छा    (दोहे)


अंतिम इच्छा है यही, मिले यही परिवार।

यही मिलें माता-पिता, यही मिले घर-द्वार।।


यही मिलें भाई-बहन, मिले यही ससुराल।

यही मिले पत्नी सहज, बने मधुर रखवाल।।


मिले मुझे बेटा यही, मिले पौत्र दो रत्न।

पुत्रवधू शीतल मिले,बिना किये कुछ यत्न।।


यही गाँव मुझको मिले, यह अति सुंदर धाम।

इसी ग्राम में बैठकर, जपूँ सदा हरि नाम।।


माँ सरस्वती नित करें,मेरे उर में वास।

लिखता रहूँ सुलेख मैं, रहकर माँ के पास।।


रामेश्वर की शरण में, बैठ जपूँ शिवराम।

महामंत्र की गूँज से, मिले मुझे विश्राम।।


सन्त समागम हो सदा, युगल-बीहारी साथ।

नागा बाबा की कृपा ,से मैं बनूँ सनाथ।।


डीहबाबा छाया तले, रहूँ सदा मैं बैठ।

आध्यात्मिक परिक्षेत्र में, होय नित्य घुसपैठ।।


अंतिम इच्छा बलवती, हो आध्यात्मिक राग।

बाँधे सारे लोक को , मेरे मन का ताग।।


मेरे मन के दोष का, शमन करें भगवान।

मैं कबीर बनकर चलूँ, मिले राम का ज्ञान।।


महापुरुष आदर्श हों, जागे धार्मिक भाव।

ममता करुणा प्रेम का, हो मन में सद्भाव।।


मानवता के शिखर पर, करूँ बैठकर खेल।

अंतिम चाहत है यही, रखूँ सभी से मेल।।


मेरे पावन हृदय में, बसे सकल संसार।

ऐसा मुझे प्रतीत हो, सारा जग परिवार।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *बाल-गीत* 

  बंदर-भालू नाच दिखाते,

सोनू-मोनू गाना गाते।

ढोल बजाता गदहा आया-

हाथी ने भी झाँझ बजाया।।


फुदक-फुदक गौरैया आई,

तितली उसको देख पराई।

भौंरा भन-भन करता आया-

सुनकर मिट्ठू गाना गाया।।


म्यांऊँ करती बिल्ली मौसी,

आकर खाए हलुवा-लपसी।

उसे देखकर भगी गिलहरी-

तुरत पेड़ पर चढ़कर ठहरी।।


काँव-काँव कर कौआ आया,

रोटी लेकर तुरत पराया।

पास बैठ कर गुड़िया रानी-

मम्मी से आ कही कहानी।।


लेकर दही-जलेबी मम्मी,

कही सुनो हे प्यारी पम्मी।

छोड़ो खेल-तमाशा तुम अब-

खाओ दही-जलेबी अब सब।।


गुड्डू को भी तुरत बुलाओ,

अब मत ज्यादा शोर मचाओ।

खाकर करो पढ़ाई बच्चों।

 होगी तभी भलाई बच्चों।।

          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

               9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 एक बार मेरा कहा मान लीजिये


बुला रहा है दोस्त कोई जान लीजिये।

एक बार मेरा कहा मान लीजिये।।


वफा निभाने में बहुत माहिर है वह मनुज।

इंसान इक महान को पहचान लीजिये।।


वादा निभाता हर समय बेरोक-टोक के।

दृढ़प्रतिज्ञ दोस्त को स्वीकार कीजिये।।


प्रेम का प्रारूप वह मानव महान है।

आँखे घुमाकर एकबार देख लीजिये।।


प्रेम प्राणिमात्र से  करता सदा से है।

दोस्त के पैगाम को मुकाम दीजिये।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801


तुझको मेरा प्यार बुलाता  (सजल)


आओ मैं इक बात बताता।

तुझको मेरा प्यार बुलाता।।


विछड़ गये हो रहा में इक दिन।

मुझको मेरा प्यार सताता।।


कैसा यह संयोग दुःखद था।

मिला मिलन को धता बताता।।


किस्मत का है खेल अनूठा।

नहीं भाग्य में जो चल जाता।।


कितना है बलवान समय यह।

अपना बल-पौरुष दिखलाता।।


किस्मत में थी दुसह वेदना।

फिर कैसे नित रास रचाता।।


राह पूछते चल आना तुम।

तुझको मेरा प्यार बुलाता।।


अर्थ प्यार का अद्वितीय प्रिय।

मुझको तेरा प्यार सताता।।


दृढ़ विश्वास हृदय में बैठा।

श्रद्धा से सब कुछ मिल जाता।।


यहीं सोचकर जप करता हूँ।

ध्यानी-योगी सब पा जाता।।


मन से मिलन सहज संभव है।

निराकार तन भी मिल जाता।।


निराकार में सगुण तत्व भी।

सारा भेद-भाव मिट जाता।।


निहित सोच में सुख-विलास है।

पावन चिंतन मेल कराता।।


मिलना तय है नहिं कुछ शंका।

यही भाव हर्षित कर जाता।।


छिपा हर्ष में प्रिय का मिलना।

प्रमुदित मन में प्रिय बस जाता।।


मन में जो है साथ वही है।

मन से प्यार दिव्य मिल जाता।।


मन से प्यार करो अब वन्दे।

मन में छिपा प्यार दिख जाता।।


मन को परिधि क्षितिज का जानो।

मन से "प्यार" नाम मिल जाता।।


किसी बात की मत चिंता कर।

तप करने से प्रिय मिल जाता।।


तपते रहना सीख लिया जो।

वह सर्वोत्तम प्रियवर पाता।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

सुनीता असीम

 बनी ज़िन्दगी आज जंजाल है।

किए जा रही सिर्फ बेहाल है

*****

समय भी बदलता चला जा रहा।

कि इसकी बदलती रही चाल है।

*****

सभी का हुआ हाल ऐसा बुरा।

ये जानें कई ले गया साल है।

*****

नहीं आर्थिक हाल अच्छा रहा।

खजाना हुआ अपना बदहाल है।

*****

ये मकड़ी सरीखा करोना हुआ।

जिधर देखिए इसका ही जाल है।

*****

सुनीता असीम

नूतन लाल साहू

 कटु सत्य बातें


करम की गठरी लाद के

जग में फिरे इंसान

जैसा करे वैसा भरे

विधि का यही विधान

कर्म करे किस्मत बने

जीवन का ये मर्म

प्राणी तेरे भाग्य में

तेरा अपना कर्म।

चुन चुन लकड़ी महल बनाया

मुरख कहे घर मेरा

ना घर तेरा ना घर मेरा

चिड़िया रैन बसेरा

जब तक पंछी बोल रहा है

सब राह देंखे तेरा

प्राण पखेरु उड़ जाने पर

कौन कहेगा मेरा

लख चौरासी भोगकर,मुश्किल से

मानुष देह पाया है

यह संसार कांटे की बाड़ी

उलझ पुलज मर जाना है

क्या लेकर तू आया जगत में

क्या लेकर तू जा जावेगा

तेरे संग क्या जायेगा

जिसे कहता तू मेरा है

चांद सा तेरा बदन यह

ख़ाक में मिल जायेगा

करम की गठरी लाद के

जग में फिरे इंसान

जैसा करे वैसा भरे

विधि का यही विधान

कर्म करे किस्मत बने

जीवन का ये मर्म

प्राणी तेरे भाग्य में

तेरा अपना कर्म


नूतन लाल साहू


समय


समय बहरा है

किसी की नहीं सुनता

लेकिन वह अंधा नहीं हैं

देखता सबको है

समय न तो कभी बिकता है

और न ही समय कभी रुकता है

समय किसी के बाप का

होता नहीं हैं, गुलाम

समय आयेगा,समय पर

इसको निश्चित जान

समय से पहले किसी को भी

नहीं मिला सम्मान

उस इंसान का जीना भी क्या

जिसमें ज्ञान की ज्योति नहीं हैं

समय अगर मेहरबान हुआ तो

राम रतन धन पा जायेगा

समय बहरा है

किसी की नहीं सुनता

लेकिन वह अंधा नहीं हैं

देखता सबको है

चार दिन की चांदनी

फिर अंधेरी रात

समय का सदुपयोग नहीं किया तो

फिर पाछै पछतायेगा

दौलत,ताकत,दोस्ती,लोकप्रियता,प्यार

समय अगर अनुकूल नहीं

तो सब कुछ है बेकार

कल करे सो,आज कर

आज करे सो अब

पल में परलय होत है

बहुरी करेगा कब

समय का गणित,जीवन भर

समझ नहीं सका,इंसान

समय बहरा है

किसी की नहीं सुनता

लेकिन वह अंधा नहीं हैं

देखता सबको है


नूतन लाल साहू



डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*((श्रीरामचरितबखान)-33

जासु दूत हनुमान समाना।

सिव-बिरंचि सेवहिं सुर नाना।।

    अस प्रभु राम न नर साधारन।

     कीन्हा तासु बिरोध अकारन।।

नारद मोंहि तें कह इक बारा।

धरि नर-रूपहिं बिष्नु पधारा।।

     अब मैं जाइ राम के पाहीं।

      लेब दरस-सुख प्रभु रहँ जाहीं।।

नीलकमल इव सुंदर लोचन।

स्यामल बदन त्रितापु बिमोचन।।

    देहु भ्रात अब तुम्ह अकवारा।

   कोटिक मय-घट,महिष अपारा।।

लरि रन मरि तारब निज जीवन।

राम-कृपा नित मिलहिं अकिंचन।।

      महिष खाइ करि मदिरा-पाना।

      चला कुंभ जिमि गज बउराना।।

चलहि अकेलइ होंकड़त मग मा।

गरजन करत बज्र जनु छन मा।।

     देखत ताहि बिभीषन आवा।

      करि प्रनाम निज नाम बतावा।।

कुंभइकरन उठाइ बिभीषन।

कह तुम्ह भ्रात मोर कुलभूसन।।

     बड़े भागि तुम्ह प्रभु-पद पायउ।

      कारन कवन तु अबहिं बतावउ।।

सुनहु तात रावन इक बारा।

लात मारि के मोंहि निकारा।।

     रहे सिखावत जब हम नीती।

     कर न नाथ तुम्ह कोउ अनीती।।

जाउ देहु तुम्ह सिय रघुबीरा।

करिहैं कृपा नाथ रनधीरा।।

     भवा कुपित सुनि बचन हमारो।

     खींचि लात कसि मम उर मारो।।

दोहा-सुनहु बिभीषन रावनै,भवा काल बस मूढ़।

         धन्य-धन्य तव जनम सुनु,राम-भगति आरूढ़।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।हर लफ्ज़ तेरा बन जाये मशाल*

*कलम से अपने वह फरमान लिखना।।*


जो मन  को  खुश  कर   सके

हमेशा   वह  सकून   लिखना।

जो गिरा सके दीवार भेदभाव 

की   वह    कानून   लिखना।।

मुरझाए न कभी  किसी चेहरे

की   रोशनी    और     रौनक।

कलम से  अपनी हमेशा  ऐसा

जज्बा जोशो  जनून  लिखना।।


पहले इंसान बनना और  फिर

आगे तुम    कलमकार  बनना।

अपने से छोटे और बड़ों दोनों

के लिए तुम सरोकार   बनना।।

बस लिखना  ही काफी  नहीं

शुरुआतअपने आचरण से हो।

जो सिल   सके   हर टूटे रिश्ते 

की तुरपाई वो दस्तकार बनना।।


दृढ़ता,करुणा,ज्ञान, निर्णय,हर

गुण लिखना   अपने लेखन में।

बुद्धि,विवेक,दूजों को  समझने

का सुर दिखनाअपने लेखन में।।

कभी अहंकार , प्रतिशोध, ईर्ष्या

आने नहीं पाये तेरी शब्दावली में।

कदापि झूठ के  हाथों  सच  मत

बिकना     अपने    लेखन     में।।


हर कदम पर मिटे   बुराई  कुछ

ऐसा तुम     व्याख्यान  लिखना।

शब्द बने मशाल  तुम्हारे   कुछ

ऐसा तुम    फरमान     लिखना।।

लफ़्ज़ों में   तुम्हारे   हो   ताकत

सारी     तस्वीर     बदलने   की।

जो नहीं कह   पाया हर आदमी

दिल के तुम वहअरमान लिखना।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब                9897071046

                      8218685464

निशा अतुल्य

 बालगीत

28.12.2020



चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।

नौनिहाल कुछ बन कर निकले 

ऐसी मिल कर अलख जगाए ।

चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।।


नन्हे बालक स्वस्थ रहें सदा 

नए नए आयाम बनाए ।

स्वस्थ राह पर इन्हें चलाए 

इनको हम ही योग सिखाएं ।

चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।।


घर घर फिर उजियारा होगा 

शिक्षा का जब सूर्य उगेगा ।

बेटी बेटा बनगे अफसर 

मिल कर हम प्रण दोहराएं ।

चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।।


रोग शोक मुक्त रहे जीवन

अध्यात्म की राह चले सब ।

सभ्यता संस्कृति हमारी 

नव पीढ़ी को हम समझाए ।

चलो चले हम राह बनाए 

शिक्षा का एक दीप जलाए ।।


स्वरचित

निशा"अतुल्य"

डॉ० रामबली मिश्र

 माँ सरस्वती वंदना


माँ विद्याधर को प्रणाम कर।

वंदन कर नित अभिनंदन कर।।


वही ज्ञान की सृष्टि विधाता।

उन्हें देख काम जल जाता।।


परम सौम्य शांत मधु वाणी।

माँ को पा खुश सारे प्राणी।।


सद्विवेकिनी बुद्धिदायिनी।

ज्ञानावस्थित महा भवानी।।


बैठी हंस जगत विख्याता।

हंसवाहिनी बहु सुखदाता।।


पुस्तक स्वयं दिव्य निर्झरणी।

अक्षर शव्द सुवाक्य सुवरणी।।


शरद कालमय शरदोत्सव हो।

महा ज्ञानिनी ज्ञानोत्सव हो।।


वक्ता परम मधुर वचनामृत।

सुष्ठ पुष्ट सुगठित रचनामृत।।


शीतल अतिशय पावन रसना।

महा काव्यमय शिव शुभ रचना।।


दिग्दर्शिका आर्य पंथ की।

सहज रचयिता वेद ग्रन्थ की।।


तुम बैठी हो वेदव्यास में।

तुम कबीर में तुलसिदास में।।


तुम्हीं सर्व सर्वत्र विचरती।

ज्ञान -इत्र बन सतत गमकती ।।


हो प्रसन्न वर दे हे माता।

बुद्धि प्रदान करो सुखदाता।।


दोहा-

 सदा प्रेम अरु ज्ञान का, दो माँश्री वरदान।

सुखी रहे सारा जगत,मिटे तिमिर अज्ञान।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

रवि रश्मि अनुभूति

 9920796787****रवि रश्मि 'अनुभूति '


    🙏🙏


  स्वदेश प्रेम         गीत   16 , 16

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देश कई हैं इस धरती पर , मेरा देश सभी से न्यारा .....

इसके लिए सब जान देंगे , मेरा देश सभी से प्यारा .....


सागर प्यारा लहराता है , माँ के पाँव पखारे हर पल 

पावन नदियाँ , पावन गंगा  , मीठा ही होता जिसका जल 

पूरे सपन यहाँ होते है , बहती सदा प्रेम की धारा .....

देश कई हैं इस धरती पर , मेरा देश सभी से न्यारा .....



समता की हम ज्योति लगायें ,भेदभाव तो हम सब भूलें 

मिलजुल कर यहाँ रहें हम सब  , सपनों के नभ को हम छू लें 

भाईचारे की बात करें , बहे प्रेम की ही रसधारा .....

देश कई है इस धरती पर , मेरा देश सभी से प्यारा .....


सब मिल हम त्योहार मनायें , होली रहे या फिर दिवाली 

उसी लीक पर हम चलो चलें , शिक्षा ली सुनो गुरुओं वाली 

एक बनें हम नेक बनें हम , लगता मानवता का नारा .....

देश कई हैं इस धरती पर , मेरा देश सभी से न्यारा .....


ऋषियों - मुनियों का है देश यह , जन्मे यहाँ पर माँ के लाल 

जिनसे हुआ अभी तक सुन लो , ऊँचा सदा भारत का भाल 

हरा भगा दिया दुश्मनों को , कोई कभी सैनिक न हारा .....

देश कई इस धरती पर , मेरा देश सभी से न्यारा .....


इसके लिए हम जान भी देंगे , मेरा देश सभी से प्यारा .....

देश कई इस धरती पर , मेरा देश सबसे न्यारा .....

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(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '

25.12.2020 , 4:42 पीएम पर रचित  ।

मुंबई  ( महाराष्ट्र ) ।

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C.c.

डॉ० रामबली मिश्र

 जाड़े की धूप    (दोहे)


सर्दी की मधुधूप का, लेते जा आनंद।

 पाता यह आनंद रस, अंधा य भी मतिमंद।।


जाड़े की इस धूप को, सुखदा औषधि जान।

कामदेव से भी बड़ा, यह अति ऊर्जावान।।


बंटती यह ऊर्जा सहज, नैसर्गिक निःशुल्क।

दे सकता कोई नहीं, इसका कथमपि शुल्क।।


धूप अगर मिलती नहीं, मर जाता इंसान।

कांप-कांप कर ठंड से, खो देता पहचान।।


जाड़े की यह धूप है, ईश्वर का वरदान।

मानव पाता मुफ्त में, ठंडक में यह दान।।


करे शुक्रिया ईश को, अदा सदा इंसान।

माने इस एहसान को, रखे ईश का मान।।


ईश्वर विरचित दिव्य है, सुंदर सुखद निसर्ग।

छटा निराली प्रकृति में, बसा हुआ है स्वर्ग।।


सकल प्राकृतिक संपदा, है ईश्वर की देन।

करना रक्षा प्रकृति की, यही देन अरु लेन।।


सीख प्रकृति से दान का, शिव पुरुषोत्तम मंत्र।

इस संस्कृति से खुद रचो, बनकर पावन तंत्र।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ. हरि नाथ मिश्र

 *संघर्ष*

पत्थर लुढ़क-लुढ़क के भगवान बनता है,

शैतान खा के ठोकर,इंसान बनता है।

करके मदद यतीमों की निःस्वार्थ भाव 

इंसान अपने मुल्क़ की पहचान बनता है।।

    होती हिना है सुर्ख़,पत्थर-प्रहार से,

    धीरज न खोवे सैनिक,सीमा की हार से।

    अपने वतन की माटी पर,प्राण कर निछावर-

    बलिदान की मिसाल वो, जवान बनता है।।

माता समान माटी, माटी समान माता,

परम पुनीत ऐसा संयोग रच विधाता।

जीवन में हर किसी को,मोकाम यह दिया है-

कर के नमन जिन्हें वो,महान बनता है।।

    लेना अगर सबाब, तुमको ख़ुदा का है,

    उजियार कर दो मार्ग जो,तम की घटा का है।

    भटके पथिक को रौशनी,दिखाते रहो सदा-

    करने वाला ऐसा ही निशान बनता है।।

वादा किसी को करके,मुकरना न चाहिए,

पद उच्च कोई पा के,बदलना न चाहिए।

धन-शक्ति के घमण्ड में,औक़ात जो भूला-


इंसान वो समझ लो,हैवान बनता है।।    महिमा कभी भी सिंधु की,घटते नहीं देखा,

    घमण्ड को समर्थ में,बढ़ते नहीं देखा।

   देखा नहीं सज्जन को कभी,कड़ुवे वचन कहते-

   नायाब इस ख़याल से ही,ईमान बनता है।।

जल पे लक़ीर खींचना, संभव नहीं यारों,

पश्चिम उगे ये भास्कर,संभव नहीं यारों।

आना अगर है रात को तो आ के रहेगी-

निश्चित प्रभात होने का,विधान बनता है।।

    ऐसे ही ज़िंदगी की गाड़ी को हाँकना,

    चलते रहो बराबर,पीछे न झाँकना।

    दीये की लौ समक्ष,तूफ़ान भी झुकता-

    तूफ़ान भी दीये का,क़द्रदान बनता है।।

पत्थर लुढ़क-लुढ़क के भगवान बनता है।।

                   ©डॉ. हरि नाथ मिश्र

                    9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 लोग नहीं क्यों बोलते ?   (दोहे)


लोग नहीं क्यों बोलते, बहुत अहं या दर्प?

मानव हो कर किसलिये ,बन जाते हैं सर्प??


मानव बनना अति कठिन, शैतानी आसान 

मानव बनने के लिए, हों समक्ष भगवान।।


बिन सुंदर आदर्श के, मानव बनता कौन?

पूछ रहा हरिहरपुरी, सारी दुनिया मौन।।


जिसको सत्संगति मिली, वही बना इंसान।

सदा कुसंगति में छिपी,बहुत भयंकर जान।।


मद में चकनाचूर मन, बन जाता शैतान।

करता रहता सहज मन, मानव का सम्मान।।


अपने को सब कुछ समझ, जो करता व्यवहार।

ऐसा दंभी मनुज ही, करता अत्याचार।।


मानव सार्थक है वही, जो करता संवाद।

जिसे प्यार संवाद से, वह शिव सा आजाद।।


हो कर मानव जो नहीं, करत मनुज से प्रीति।

इस नालायक के लिए, कुछ भी नहीं अनीति।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

सुनीता असीम

 नशे में चूर होते जा रहे हैं।

यही दस्तूर होते जा रहे हैं।

*****

कृपा तेरी हुई जिनपर कन्हैया।

वही   पुरनूर   होते  जा रहे हैं।

*****

हमें तो भा रहा है संग तेरा।

ग़मो से दूर होते जा रहे हैं।

*****

ये दुनिया तंज कहती है जो हम पर।

बशर  सब  क्रूर       होते जा रहे हैं।

*****

दिवाना वो हमारा हम हैं उसके।

सितम  बेनूर होते    जा रहे हैं।

*****

डराते थे सुनीता को जो डर भी।

चले   काफूर   होते   जा रहे हैं।

*****

सुनीता असीम

डॉ०रामबली मिश्र

 प्रीति-संगम    (सजल)


सदा प्रीति का संगम होगा।

प्रेम नीति का सरगम होगा।।


धोखे का व्यापार नहीं है।

लगभग दो का जंगम होगा।।


एक दूसरे को पढ़ लेंगे।

दृश्य सुहाना अंगम होगा।।


रट लेंगे हम सहज परस्पर।

एकीकरण शुभांगम होगा।।


नित नव नवल कला से भूषित।

दृश्य निराल विहंगम होगा।।


जग देखेगा सिर्फ एक को।

ऐसा अप्रतिम संगम होगा।।


जग की दृष्टि बदल जायेगी।

श्रव्य मनोहर सरगम होगा।।


यह आदर्श बनेगा पावन।

जल-सरोज का अधिगम होगा।।


डूब-डूब कर थिरक-थिरक कर।

मस्त मनुज मन चमचम होगा।।


पागल द्रष्टा योगी में भी।

दिव्य काम का उद्गम होगा।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

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