डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 दिनांकः ०८.०१.२०२१

दिवसः शुक्रवार

विधाः गीत

विषयः राजीव

शीर्षकः राजीव


फूलों    का  सरताज  कमल    यह,

सरसिज      सुन्दर     चंद्रहार    है।

पंकिल    पंकज  मुख सरोज  सम,

पद्मासन     राजीव      नयन     हैं।


पुण्डरीकाक्ष     पुण्डरीक   सरसि,

प्रजापति    जगत     पद्मनाभ   हैं।

कमलनयन   प्रभु   जगन्नाथ   हरि,

अरविन्द   मनोहर    चारु चरण हैं।


श्वेत   वसन तनु   शुभ्र  कमल दल,

वाग्वादिनी        श्वेताम्बुज        है।

सलिल   सरोवर    सुष्मित सरोज,

शारंग   हाथ   हरि    लक्ष्मीश्वर  है। 


गजराज।   मोक्ष  कारण   सरोज,

हरिभक्त      शक्ति  नीलकमल है।

राजीवनयन   सियराम       युगल,

चारु    वदन   सिय  चन्द्रकमल है।  


ललित कलित कमलासन कमला,

कली कुसुमित सुरभि नवला     है।

मधु  माधव   मधुकान्त    मनोहर,

मान सरोवर     श्वेत    कमल    है। 


पद्म      पुरा       पद्मासन    पद्मा,   

शरदाम्भोज       वदनाम्बुज      है।

पद्मनाभ    विधिलेख    ब्रह्म   प्रिय,

चतुर्वेदज्ञा       ज्ञान       अम्ब   है।


भव्य     मनोहर    राजीव   कुसुम,

चारु    रूप      बहुरंग   कमल  है।

रस पराग    गुंज   मकरन्द   मधुप,

ऋतुराज    मुदित  लखि सरोज है।


प्रियतम  सजनी    उपहार    मधुर,

अनुराग   हृदय    चारु   कमल  है।

अभिनंदन नित स्वागतार्थ  अतिथि,

मृदुल   खिला  राजीव   कुसुम  है। 


अपनापन    नित    राजीव    पुष्प,

शुभ     वर्धापन   मंगलमय       है।

अरुणाभ  खिला  चहुँ  दिशा  गन्ध,

देवों    के  शिर   चिर   शोभित   है।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

रचनाः मौलिक (स्वरचित)

नई दिल्ली

डॉ० रामबली मिश्र

 अनुशासन चालीसा


जय जय जय जय जय अनुशासन।

हो तेरा केवल अभिवादन।।

पूजे तुझको सारी दुनिया।

उर में लेकर पावन मनिया।।


हो तेरा ही नाम जगत में।

तेरा वंदन नित्य स्वगत में।।

तेरा हो नियमित गुणगायन।

तुझसे हो दिल में मनसायन।।


रहो तुम्हीं बैठे अधरों पर।

हो प्रभाव तेरा वधिरों पर।।

तुम बैठे मन में मुस्काओ।

नियमित सुंदर गेह सजाओ।।


अनुशासन में सारा जग हो।

नियमविरुद्ध नहीं कोई हो।।

सभी करें विश्वास सभी में।

देखें ईश्वर को नियमों में।।


अनुशासन ही सदाचार हो।

सबके प्रति सम्मान-प्यार हो।।

सतत सहज सत्कार भाव हो।

सबके ऊपर  मधु प्रभाव हो।।


करें सभी नियमों का पालन।

प्रिय नियमों का हो संचालन।।

सभी करें सम्मान नियम का।

परिचय दें सब अति संयम का।।


रहें सभी जन सदा नियंत्रित।

जीवन हो अतिशय मर्यादित।।

जीवन शैली रहे प्रतिष्ठित।

मन के सारे भाव संगठित।।


शिष्ट आचरण उर में जागे।

दुष्ट कामना मन से भागे।।

सुंदर कृत्यों का आलय हो।

अनुशासन का देवालय हो।।


नारा लगे शुभद शासन का।

शुभ्र प्रशासन के आवन का।।

अनुशासन हो धर्म समाना।

नहीं करे कोई मनमाना।।


सबका जीवन अनुशासित हो।

सहज प्रकाशित आशान्वित हो।।

निर्मल धवल दिव्य उज्ज्वल हो।

मन में सौम्य विचार प्रबल हो।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801



सत्ता का लोभ       (दोहे)


सत्ता पाने के लिये,मानव बहुत बेचैन।

इसकी खातिर मनुज नित, अति चिंतित दिन-रैन।।


तिकड़मबाजी नित करत, चलता सारी चाल।

सत्ता पाने के लिये, रहता, सदा बेहाल।।


सत्ताधारी का करत, सत्ताहीन विरोध।

सत्ता पाने के लिये, करता सारे शोध।।


सत्ता पा कर मनुज खुद, को समझत भगवान।

सत्ता से सामान्य जन, बन जाता धनवान।।


सत्ता में मद है भरा, जिसको पी भरपूर।

हो मदांध नित घूमता, सत्ताधारी क्रूर।।


सत्ता-लोभ सता रहा, हर मानव को आज।

चाह रहा बनना मनुज, दैत्यराज यमराज।।


मानव बनने का नहीं, रह जाता कुछ अर्थ।

सत्ता बिन सब कुछ लगत, फीका-फीका व्यर्थ।।


सत्ता की कुर्सी पकड़, चिपका सत्तावान।

खूनी पर्व मना रहा, सत्ता का शैतान।।


मायावी सत्ता प्रबल, करती बहुत  अनर्थ।

फिसले कभी न हाथ से, इसी तथ्य का अर्थ।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801



रामचरणरज….  (चौपाई)


रामचरणरज का अनुरागी।

तीन लोक में अति बड़भागी।।

अति विशाल हिम गहन समंदर।

महा पुरुष अति पावन सुंदर।।


रामचरणरज में रघुनंदन।

करो सदा उनका नित वंदन।।

ले रज अपने शीश चढ़ाओ।

नियमित कृपा राम की पाओ।।


राम समान नहीं कोई है।

यह दुनिया फिर भी सोयी है।।

राम चरित्र विशाल अनंता।

आजीवन गावत हर संता।।


अति उदारवादी रघुनायक।

भक्तजनों के सदा सहायक।।

उच्चादर्श परम वैरागी।

धर्मपरायण जनानुरागी।।


समदर्शी निःस्वार्थी रघुबर।

धर्मपाणिनि  ज्ञान धुरंधर।।

इच्छारहित उदासमना हैं।

अनुपम लोकातीत जना हैं।।


रामचन्द्र को जो भजता है।

उसको शिव का पद मिलता है।।

धन्य वही मानव इस जग में।

ध्यानावस्थित जो प्रभु पग में।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 षष्टम चरण (श्रीरामचरितबखान)-36

देखि राम-सर छन महँ मारे।

सुभट निसाचर कोटि सँघारे।।

     क्रोधित कुंभकरन तब होइके।

     लेइ खंड गिरि निज कर कसि के।।

फेकन लगा जहाँ कपि-जूथा।

लरत रहा जहँ कपिन्ह बरूथा।।

      आवत लखि सबेग गिरि-खंडा।

      काटहिं तिन्ह सर राम प्रचंडा।।

बहु कराल सर पुनि प्रभु छाँड़े।

निकसहिं जे तनु तासु पिछाड़े।।

     अगनित सर मुख तासु समाए।

      जस घन माँहि न तड़ित लखाए।।

रुधिर तासु करिया तन ऐसे।

रुधिर-सरित कज्जर गिरि जैसे।।

     होंकड़त-गरजत चलै निसाचर।

     भागत फिरहिं डेराइ क बानर।।

जस हुँडार लखि भागहिं भेंड़ी।

देखि ताहि भागै कपि-श्रेड़ी।।

    हे सरनागत-रच्छक रघुबर।

    कहत फिरैं ते चलत बरोबर।।

सुनतै राम लेइ धनु-सायक।

पहुँचे तब तहँ रघुकुल-नायक।।

     सत सर कीन्ह राम संधाना।

      तिसु तन घुसे तुरत सभ बाना।।

होइ बिकल भागै कुम्भकरना।

महि-गिरि करन लगे सभ हिलना।।

     गिरि तब एक उपारि निसाचर।

     फेंकन चला राम-सिर ऊपर।।

तुरत राम कीन्ह संधाना।

काटि क तासु भुजा निज बाना।।

      बाएँ हाथ धारि गिरि-खंडा।

      दनुजै किया प्रहार प्रचंडा।।

तिसु भुज अपि प्रभु काटि तुरंता।

कीन्हा ताहि अभुज भगवंता।।

दोहा-कुंभकरन बिनु भुज लगै, मंदराचल बिनु पूँछ।

         बिटपहीन गिरि सोह नहिं, बिपिन न पुष्पहिं गूँछ।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

                            9919446372



षष्टम चरण(श्रीरामचरितबखान)-37

बिचलित भे देखइ रघुनाथहिं।

जनु भछि लेइ त्रिलोकै साथहिं।।

     करत चिघाड़ बाइ मुहँ धाए।

      लखि अस रूप सुरन्ह घबराए।।

निरखि राम सभ सुरन्ह भयातुर।

छोड़े तीर नाथ रन चातुर ।।

     राच्छस-मुहँ तीरन्ह भरि डारे।

     तदपि न पाए ताहि पछारे।।

लगै तीर मुहँ भरा पिसाचन।

जिमि ससरीर सरन्ह सरासन।।

      तीब्र बान सकोप प्रभु मारे।

      सिरहि बिलग धड़ धरा पसारे।।

जाइ गिरा सिर दसमुख आगे।

देखि ताहि सभ भागन लागे।।

      पुनि धड़ तासु कीन्ह दुइ भागा।

        नाथ-कृपा भुइँ परा अभागा।।

कपिन्ह दबावत भुइँ धड़ परहीं।

जिमि दुइ गिरि नभ तें इहँ गिरहीं।।

      नाचत सुरन्ह सुमन बहु बरसहिं।

       स्तुति करत-करत बहु हरषहिं।।

तेहि अवसर मुनि नारद आए।

प्रभु-गुणगान करत तहँ धाए।।

      बधउ नाथ रावन यहि लागे।

       कहत बचन अस पुनि नभ भागे।।

छंद-रन-भूमि महँ प्रभु राम लखि,

                 ऋषि-मुनि-सरन्ह सभ हर्षहीं।

           कटि साजि निषंग,कर गहि धनुष,

                  रन-भूमि महँ अस लागहीं।

           जनु बीर रस ससरीर तहँ,

                   रन-भूमि महँ बिराजहीं।

           श्रम-बूँद मुखमंडल बिराजै,

                    लोचन कमल इव सोहहीं।

            कपि-रीछ पाछे सैन्य-बल,

                    कछु रुधिर-कन तन मोहहीं।।

                                    डॉ0हरि नाथ मिश्र

                                       9919446372

किसी तरह से हम किसानों को, नई पहचान तो दो । सर्द रात है आन्दोलित हैं, घर जाने की वजह तो दो।। रचना - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

 कविता - "किसान आन्दोलन"

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किसी तरह से हम किसानों को,  नई  पहचान  तो  दो ।

सर्द  रात  है  आन्दोलित  हैं, घर  जाने  की   वजह  तो  दो।।


कितने  लेख  लिखे  जा  रहे,

हम  पर  अखबारों  में  रोज।

हम   सड़क   पर  सो  रहे  हैं,

बच्चे    रोये   हैं    हर    रोज।

नहीं   सहारा   कोई   है   तो, पथ  सुलभ  कर    दो।

सर्द  रात   है  आन्दोलित  हैं, घर  जाने  की   वजह  तो  दो।।


अखबारों में खबर छापने को,

दौड़े  हैं  पत्रकार   हर   रोज।

उर  के  भावों  को  देखे  बिन,

खबर   छापे   हैं    हर   रोज।

मसला हल नहीं हो सकता तो, बीच का पथ बनवा तो दो।

सर्द  रात  है  आन्दोलित  हैं, घर  जाने  की   वजह  तो  दो।।


जानें  कितने  कवि  रचना करके,

गीत     सुनायें       हर      रोज ।

मेरे   दु:ख   को  बांट - बांट   के,

अपना    सम्मान   बढ़ायें   रोज।

सम्मानों  को छोड़  सभी जन, दारूण दु:ख कम करवा तो दो।

सर्द  रात  है  आन्दोलित  हैं, घर  जाने  की   वजह  तो  दो।।


मेरे     उगाये    अन्न    को,

सभी  खाते  हैं  हर  रोज।

राजनीति   की   चालों   से,

हम सब घायल हैं हर रोज।

नहीं   चाहिए  सोना - चांदी, दो  वक्त  खाने  तो दो।

सर्द  रात  है  आन्दोलित  हैं, घर  जाने  की   वजह  तो  दो।।


पत्रकार,    कवि,    सोशल     वालों

मूक  समाज  को  नई   दिशा  दे  दो।

नहीं       चाहिए         राज़    -   पाट,

जिसे   चाहिए    उसको   ही   दे   दो।

किसी तरह से हम किसानों को,  नई  पहचान  तो  दो ।

सर्द  रात  है  आन्दोलित  हैं, घर  जाने  की   वजह  तो  दो।।

   - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल



डॉ० रामबली मिश्र

 छिपता नहीं है प्यार


छिपता नहीं है प्यार,

दीवाना मन कहता है।

मिलता नहीं है प्यार,

जमाना यह कहता है।

चलो करो इतबार,

स्वयं पर वन्दे।

मिलेगा इक दिन प्यार,

दीवाना दिल कहता है।

बनकर रहो स्वतंत्र,

छाया देना अति शीतल।

मिल जायेगा प्यार,

यह मेरा मन कहता है।

राग-द्वेष के पार,

उतर कर चलना सीखो।

देना सीखो प्यार,

बस यही प्यार  कहता है।

मिल जायेगा प्यार,

दीवाना दिल कहता है।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

कह रहे दिल की जुबानी एक स्वप्न रह गया - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

   ग़ज़ल

कह रहे दिल की जुबानी एक स्वप्न रह गया।

देख  दरिया  का  किनारा  डूबने से रह गया।।


था हमें विश्वास जिस पर हार पहले वह गयी।

बस हमारे पास थी वह और स्वप्न धर गयी।।


मोतियों को अर्णव  में  ढूंढने  निकले थे जब।

तेरे छलावे से तमन्नाओं का स्वप्न रह गया।।


नजदीक रहकर भी बनी हैं दूरियां तुझसे सनम।

तूं  समर्पित  है  मुझी में  ये स्वप्न सारा रह गया।।


बाकी हैं चंद लम्हें रूक तो जाओ तुम अभी।

ग़मों के फ़रात पार करने का स्वप्न रह गया।।


जिस्म लेकर साथ तूंने रूख किया बंधनों में।

बिसरा दिया दिल नूरानी और स्वप्न रह गया।।


तूंने मुखौटों में छुपाये भोली शक्लो सूरत यहां।

निशा ने खोल दी राज़ सारी और स्वप्न रह गया।

      दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल




मधु शंखधर स्वतंत्र

 *मधु के मधुमय मुक्तक*

🌷🌷🌷🌷🌷🌷

*06/01/2021*

🌹🌹 *हिन्दी*🌹🌹

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◆ हिन्दी भाषा का करो, हिय से सब सम्मान।

देवनागरी लिपि बनी, सहज व्यवस्थित जान।

अक्षर से ही शब्द है, शब्द व्यवस्थित वाक्य,

हिन्दी मर्यादित रही, माने सकल जहान।।


◆ हिन्दी का उद्भव हुआ, मातु संस्कृत मूल।

सत्य सनातन धर्म है,  शोभित सुंदर फूल।

वाणी में अति सरल है,  व्याकरणिक संज्ञान,

तिरस्कार जब मातु का, फूल मिले तब धूल।।


हिन्दी भाषा ने दिया, बहु विस्तृत  साहित्य।

कथा कहानी महाकाव्य ही,  भाषा का आदित्य।

भाषा का रस छंद से, सजा धजा है रूप,

अलंकार शोभा बना, अक्षर करते नृत्य।


हिन्दी का सम्मान हो,  जीवन का यह मंत्र।

नये सुधारों से सजा, व्याकरणिक यह तंत्र।

हिन्दी को अपनाओ सब, स्वयं बढ़ाओ मान।

निज भाषा ही देश की,  उन्नति का है मंत्र।।

*मधु शंखधर स्वतंत्र*

*प्रयागराज*

विनय सागर जयसवाल

 ग़ज़ल--


अब भी रंग-ए-हयात बाक़ी है

हुस्न की इल्तिफ़ात बाक़ी है 


आ गये वो ग़रीबख़ाने तक 

उनमें पहले सी बात बाक़ी है


चंद लम्हे अभी ठहर जाओ

और थोड़ी सी रात बाक़ी है


तोड़ सकता नहीं वो दिल मेरा

उसमें इतनी सिफ़ात बाक़ी है


हाँ यक़ी है मिलेंगे हम दोनों 

पार करना फ़रात बाक़ी है 


डर नहीं है हमें अंधेरों का

रौनक़-ए-कायनात बाक़ी 


सारे मोहरे सजा लिए हमने 

उनपे होने को मात बाक़ी है


यह ख़ुशी का पयाम है *साग़र*

बस गमों की वफ़ात  बाक़ी है 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

हयात-जीवन ,ज़िंदगी

इल्तिफ़ात-कृपा ,दया ,अनुग्रह

सिफ़ात-विशेषता ,गुण ,

फ़रात-नदी का नाम 

कायनात-दुनिया 

पयाम-संदेश

डॉ० रामबली मिश्र

 शिक्षा-दीक्षा शून्य      ( दोहे)


शिक्षा-दीक्षा शून्य में,दीख रहा हैवान।

मूर्खों जैसा बोलता, नीच अधम शैतान।।


संस्कार के नाम पर, दिखता रेगिस्तान।

करता ऐसा काम है, जैसे नीचिस्तान।।


चोरकट नम्बर एक का, है चरित्र से हीन।

अहंकार है देह का, शिष्टाचार विहीन।।


विद्वानों को देखकर, गाली देत अशिष्ट।

कहता अपने आप को, परम कुलीन विशिष्ट।।


भैंसा जैसा घूमता, मारत मुँह चहुँओर।

ईर्ष्या करता सन्त से, पकड़ घृणा की डोर।।


कुत्तों जैसा भूँकता, करत निरर्थक बात।

क्या पायें क्या लूट लें, यही सोच दिन-रात।।


मन में रहता पाप है, प्रति क्षण कुटिल विचार।

बने हुये हैं मूल्य बस, अनाचार व्यभिचार।।


सत्संगति से है घृणा, है कुसंग से प्रीति।

कुत्सित भावों से लदा, करता सदा अनीति।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *दोहे*

समय-समय का फेर है,राजा बनते रंक।

कभी पिलाए अमिय-रस,मारे यह फिर डंक।।


सीमा-रेखा पार जा,अपने सैनिक वीर।

धूल चटा कर शत्रु को,सदा विजय दें धीर।।


केवल जन-जागृति सदा,रचे नवल इतिहास।

राष्ट्र-सुरक्षा के लिए,जगे आत्म-विश्वास।।


जब आती है शीत-ऋतु,घर-घर जले अलाव।

इसे ताप कर सब करें,अपना ठंड बचाव।।


पड़ती है जब बर्फ़ तो,जा पहाड़ पर लोग।

हर्षित हो क्रीड़ा करें,बर्फ़ हरे सब रोग ।।

             

धरती का जो देव है,कहते उसे किसान।

अन्न उगा कर दे वही, करके कर्म महान।।


राजनीति की सोच शुचि,रहे देश का प्राण।

जन-जन का उत्थान हो,यही करे कल्याण।।

                 ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                    9919 44 63 72

सुनीता असीम

 मेरे बंजर से दिल को आज तू आबाद रहने दे।

सुरक्षा को गुलों की एक तो  सय्याद रहने दे।

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कोई करता नमस्ते है सलामी दे रहा कोई।

मेरे  जुड़ते हुए हाथों को अब बेदाद रहने दे।

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खिली पहले कली दिल की मगर मुरझा गई जल्दी।

मेरे  ऊसर  हुए  दिल  को  नहीं     बर्बाद  रहने दे।

******

तुझे पूजूं तुझे मानूं मेरे मोहन मैं मरने तक।

मिलन तेरा मेरा हो जाय ये फरियाद रहने दे।

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दुखों से पार पाकर हो सुनीता से मिलन तेरा।

तो जख्मों को हवा दे और भी  नाशाद़ रहने दे।

******

सुनीता असीम

नूतन लाल साहू

 भक्तिन माता राजिम की जय


हे मां राजिम, हे मां कर्मा

बन जा मेरा सहारा

डगमगा रही हैं,मेरी नैय्या

नहीं है कोई खेवैया

हे मां राजिम, हे मां कर्मा

बन जा मेरा सहारा

तू ही दुर्गा,तू ही काली

तू ही खप्पर वाली है मां

तेरी महिमा न्यारी है मां

तू ही है,जगत जननी

हे मां राजिम, हे मां कर्मा

बन जा मेरा सहारा

भूल गया था,सांसारिक सुख लोभ में

न्यौछावर है,मस्तक तेरे चरणों में

हे मईया, लागौ तोर पईया

बन जा मेरा सहारा

हे मां राजिम, हे मां कर्मा

बन जा मेरा सहारा

मै तेरा लाल हूं, मां

तू मुझे भूल न जाना

कैसा भी हू,तेरा ही संतान हूं

अपनी आंचल में छुपा लेना

हे मां राजिम, हे मां कर्मा

बन जा मेरा सहारा

फिर से तुझे पुकारा हूं, मां

अवतार लेकर,आ जा

भूला हूं मैं,भटका हूं मैं

मेरा कोई नहीं हैं जहान में

अपने जीवन की डोर मईया

कर दी,तेरे हवाले

हे मां राजिम, हे मां कर्मा

बन जा मेरा सहारा

डगमगा रही है,मेरी नैय्या

नहीं है कोई खेवैया


नूतन लाल साहू


सब्र ही श्रेष्ठ है


जो लोग सब्र करते हैं

या तो वो जीत जाते हैं

या सीख जाते है

माया के नशे में,अपना जीवन न गंवाये

बिना ज्ञान हर कोई,धोखा ही खाया

सब्र,ज्ञान का इक ऐसा अमृत धारा है

उससे बेहतर न कहीं देखा है

और न ही कहीं पाया है

जो लोग सब्र करते हैं

या तो वो जीत जाते हैं

या सीख जाते हैं

दाता तो तेरा,प्रभु श्री राम जी है

फिर क्यों तुझे,दुनिया का डर है

जीवन की डोर,अब तो कर दो

प्रभु जी के हवाले

झूठा है, ये संसार

झूठा सब माया जाल है

प्रभु जी का शरण ही सार है

बाकी सब जंजाल है

सत ज्ञान बिना,नर भटकत है

क्या मथुरा,क्या काशी

जो लोग सब्र करते हैं

या तो वो जीत जाते हैं

या सीख जाते हैं

खुद ही खुद को पहचानो

तुम हो ईश्वर का अंश

उलझी हुई हैं,तेरी जिंदगी

सब्र करो,सज जायेगा

मझधार में हो,जब तेरी नैय्या

सब्र ही पतवार बन जायेगा

जो लोग सब्र करते हैं

या तो वो जीत जाते हैं

या सीख जाते हैं


नूतन लाल साहू

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।। जब जायो तो दुनिया में आपकी*

*कोई निशानी रह जाये।।*


जायो दुनिया से ऐसे किआपकी

कोई निशानी रह जाये।

यहाँ कहने सुननी   को  आपकी

कोई कहानी रह जाये।।

जीवन में   कुछ   बनना    है  तो

कभी हार मत मानना।

ऐसे हों कर्म आपके  कि  दुनिया

में कद्रदानी रह जाये।।


कठनाईयां आती  तो  आत्मबल

का   उपहार   देती   हैं।

आंतरिक   क्षमता  और  साथ में

अनमोल सुधार देती हैं।।

सदैव समय से   जीतने  की नहीं

सीखने की कोशिश करें।

करें अपना कर्म तो   प्रभु   शक्ति

भाग्य का उपकार देती है।।


यही कोशिश हो हमेशा कि काम

के लिए दीवानी बनी रहे।

अच्छे विचारों   के   साथ  जीवन 

की यह   रवानी बनी रहे।।

मत निराश होनाअंधेरे से कि भोर

जरूर   ही      होती   है।

एक हीआस्था बसे मन में कि प्रभु

की मेहरबानी बनी  रहे।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*'"

*बरेली।।*

मोब।।।          9897071046

                     8218685464


*।।रचना शीर्षक।।*

*।।तन उजला मन मैला,यह*

*कैसी गलत सफाई है।।*


तन उजला मन   मैला यह

कैसी      करी   सफाई  है।

काहे इतनी कलुष भावना

पानी में   आग    लगाई है।।

मैं   को   त्यागो  चलो बस

मिल कर  हम   की   ओर।

हर दिल   को   जीतने की 

बस यही एक     दवाई  है।।


अपने कर्मों का नित  प्रति

दिन स्वाकलन  करते रहो।

सद्भावना के  साथ  थोड़ा

झुककर सदा   चलते रहो।।

स्वादऔर विवाद  दोनों से

बच   कर चलो  जीवन में।

स्वास्थ्य और   संबंधों की

नींव भी  सदा भरते   रहो।।


जियो ऐसे कि जीवन  एक

यादगार किस्सा बन जाये।

जिन्दगी सबके साथ मिला

कोई एक हिस्सा बन जाये।।

साथ  सबके सहकार और

मिल कर सरोकार   में रहो।

कंही जीवन घसीटता और

रिसता घिस्सा न बन जाये।।


रिश्तों में बनाकर रखो जरा

अपनापन जिक्र  करते रहो।

हर किसी की चाह  की  हो

सके फिक्र भी   करते  रहो।।

रिश्तें  निभाना बनाने से भी

ज्यादा है    मुश्किल   काम।

ना रखो मन में छुपाकर बुरा

लगे तो तर्क भी   करते  रहो।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"

*बरेली।।।*

मोब।।।          9897071046

                     8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-35

कुंभकरन जानि तेहिं पकरा।

पुनि पद पकरि भूइँ पे पसरा।।

     तब कपीस उठि तेहिं पुनि मारा।

     जय-जय रामहिं बचन उचारा।।

प्रभुहिं निकट सभ जाइ बतावहिं।

जदपि कृपानिधान सभ जानहिं।।

     कुंभकरन बिनु कान व नासा।

      बहु क्रोधित अरु बिकल उदासा।।

भछन लगा कोटिन्ह कपि-भालू।

अजगर लीलै जथा सृगालू ।।

     कोटिन्ह रपटि मीजि भुइँ फेंकहि।

     कोटिक भागहिं जिनहिं चपेटहि।।

बहु-बहु निकसि कान-मुहँ-नासा।

भागहिं इत-उत होइ हतासा।।

     भागहिं इधर-उधर कपि कंपित।

      तितर-बितर सभ होंहि ससंकित।।

सुनहु बिभीषन-अंगद सबहीं।

करहु वही जइसन हम कहहीं।

     कह बोलाइ सबहिं प्रभु रामा।

     लखन-कपिस-हनुमत बलधामा।।

कपि-सेना तुम्ह सबहिं सम्हारो।

मिलहिं जे निसिचर तिनहिं पछारो।।

     कुंभकरन हम मारब जाई।

      करहु न चिंता तुम्ह सभ भाई।।

अस कहि राम धनुष सारंगा।

सायक सहित तुणीरहि संगा।।

      करनइ जुद्ध चले रघुराई।

      प्रभु कै कृपा बरनि नहिं जाई।।

सुनि टंकार सरंग क रिपु-दल।

इत-उत भागे करतै हलचल।।

      सत-प्रतिग्य प्रभु कृपा-निधाना।

       छाँड़े एक लाख तहँ बाना ।।

काल-ब्याल सपंख सर चलहीं।

रंड-मुंड कटि-कटि तहँ गिरहीं।।

      घुमरि-घुमरि भय-मुर्छित सुभटा।

       गिरहिं-उठहिं फिर चलहिं अटपटा।।

सत-सत खंडन्ह भव केहु-केहू।

भुइँ पे परा पसरि यहिं तेहू ।।

       गरजन करत राम-सर बरसहिं।

        घन प्रचंड जनु नभ तें गरजहिं।।

दोहा-प्रभु-सर तें कटि रंड बहु,भागहिं होइ बिमुंड।

         काटि-काटि पुनि आवहीं, बान निषंग प्रचंड।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

                            9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *प्रकृति सुंदरी*(16/14)

खिले-खिले फूलों की घाटी,

चित्ताकर्षक-मोहक है।

हिमाच्छादित शैल-श्रृंखला-

देव-लोक की द्योतक है।।


जी कहता जा वहीं बसूँ अब,

तज कर यह माया-नगरी।

माया-नगरी घटक धूलि की,

फूटे कब जा यह गगरी।

चंचल मन को अमर ठौर दे-

नाद-लोक-शुचि ढोलक है।।

   चित्ताकर्षक-मोहक है।।


दे सुगंध वह सदा महँकती,

बिना दाम दे जग महँके।

हिम की शोभा परम अनूठी-

कभी न चंचल मन बहके।

देव-लोक की अनुपम शोभा-

सुंदरता की खोलक है।।

     चित्ताकर्षक-मोहक है।।


आसमान पर छाए बादल,

लगते प्यारे-प्यारे हैं।

करते हैं हिम-कण की वर्षा-

लगते शोभन-न्यारे हैं।

प्रकृति मनोरमा सजी हुई है-

लगे अमिय-रस-घोलक है।।

     चित्ताकर्षक-मोहक है।।


स्वर्ग-लोक आ बसा अवनि पर,

लोचन को सुख देता है।

रुग्ण हृदय का संकट-मोचन,

दाम नहीं कुछ लेता है।

दृश्य कुदरती लगे समूचा-

परम धाम-सुख गोलक है।।

    खिले-खिले फूलों की घाटी-

    चित्ताकर्षक-मोहक है।।

           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

               9919446372

मधु शंखधर स्वतंत्र

 *गीत*

असतो मा सद्गमयः, अन्तर्मन विश्वास।

तमसो मा ज्योतिर्गमय , जीवन आए रास।।


शाश्वत जीवन की डगर, शाश्वत होती भोर।

कर्तव्यों की राह पर, सभी मचाएँ शोर।

सतत कर्म से ही बँधी, जीवन नैया डोर,

कर्म बिना आता नहीं, सुख वैभव यह पास।

असतो मा सद्गमयः........।।


तृण तृण से अतुलित करे, कोष निरंतर कर्म।

माली सींचे बाग को, समझ स्वयम् का धर्म।

ईश्वर की है साधना, सत् कर्मों की आस।

असतो मा सद्गमयः...........।।


कोटि जतन करके यहाँ, हार गया है पाप।

धर्म सदा विजयी रहे, अरु कुकर्म अभिशाप।

नित पूजा वंदन करो, कर्म योग से खास।

असतो मा सद्गमयः...........।।


दिव्य शौर्य आभा सदा, धर्म निहित उन्मूल।

श्री चरणों में धर्म से, सतत खिलाएँ फूल।

शोभित मन के भाव से, मिटे ह्रदय की त्रास।।।

असतो माँ सद्गमयः..........।।


सत्य शिवम् सुंदर बसा, ह्रदय प्रभु श्री राम।

काशी में शिव वास है, राम अयोध्या धाम।

सकल सुमंगल वर मिले, जीवन हो *मधु* रास ।।


असतो मा सद्गमयः......।।

*मधु शंखधर 'स्वतंत्र*

*प्रयागराज*

निशा अतुल्य

 दिनांक --7/1/2021

स्वेच्छिक पांच दोहे 


1 प्रभु चिंतन कर ले मनः,संगत की है

    बात 

   हिय में ईश निवास है ,करना मत 

   आघात।।


2 जीवन दर्शन दे दिया,प्रभु वंदन सब

   सार 

 धीरे धीरे पग बढ़ा,मान कभी मत हार। 


3 धर्म कर्म में मन लगा,होगा बेड़ा पार।

   तय मंजिल मिलना तुम्हें, यदि उर

    शुद्ध विचार ।


4 मन में धैर्य हो सदा,ये जीवन सौगात

   जीवन मानो तब सफल,परहित की

   जब बात ।


5 कान्हा रटता मन सुनो,दर्शन दे दो  

   आज 

  घूमूं बन कर बावरी,पूर्ण करना काज।


स्वरचित 

निशा"अतुल्य"


कविता 

6.1.2021


जीवन दर्शन जिसने समझा 

उसका ही मन शांत रहा

समभाव रख मन में अपने

उसने सारा काम किया ।


मिलें राह में संगी साथी

मिल कर जग में काम किये

बढ़े चले सब संग में अपने

मन में ये मनोभाव रहे ।


बिछड़ें भी है राह में अपने

दर्द दिलों के पार हुए 

दूजों को लगा गले हम

दुख को अपने दूर करें ।


काम आ जाये जीवन अपना

परहित हम सदा कर्म करें 

हो सकता है मानव मनवा

जन्म मरण से पार करे ।


स्वरचित

निशा"अतुल्य"

सुनीता असीम

 आ तुझे मैं प्यार से भरपूर कर दूँ।

इश्क का इक जाम दे मगरूर कर दूँ।

*****

आसरा जीने का तू ही हमनवां है।

क्यूं खुशी कोई तेरी काफूर कर दूँ।

*****

 मैं फिदा तुझ पर हुई हूँ इस तरह से।

दिल करे खुद को तेरा मशकूर कर दूं।

*****

 भूलना अपना नहीं वादा कभी तुम।

वस्ल का अपने कहो दस्तूर कर दूँ।

*****

दर्द से मिलते अगर हो तुम जहां में।

ज़ख़्म को अपने अभी नासूर कर दूँ।

*****

नाम लेना बंद कर दूँ क्यूं भला मैं।

इस तरह से दिल मेरा क्यूँ क्रूर कर दूँ।

*****

हिज़्र में तड़पी सुनीता कह रही ये।

रूह को कैसे जिगर से दूर कर दूं।

*****

सुनीता असीम

७/१/२०२१

डॉ० रामबली मिश्र

 प्रेम मगन हो कर…(चौपाई)


प्रेम मगन हो कर नाचेंगे।

प्रेमीजन खुद ही आँकेंगे।।

देख-देखकर नृत्य मनोहर।

सब झूमेंगे मानव सुंदर।।


सुंदर मानव वही एक है।

प्रेमातुर जो दिव्य नेक है।।

प्रेम वही है जहाँ सत्य है।

प्रेमहीन दानव असत्य है।।


सत्यार्थी ही प्रेमी बनता।

प्रेम पंथ का परिचय देता।।

प्रेम पंथ पर गंगा बहतीं।

सबका तन-मन चंगा करतीं।।


सकल विश्व संगममय होगा।

सारा जगत सजल जब होगा।।

आँखों में जब करुणा होगी।

मानवता प्रिय तरुणा होगी।।


दिव्य भावमय दुनिया होगी।

प्रेम नाम की मनिया होगी।।

प्रेम मंत्र का जाप चलेगा।

सत्व प्रेम से पाप कटेगा।।


दिल में रसमय सरगम होगा।

प्रेम  गीत का मरहम होगा।।

नाचेंगे हम झूम-झूमकर।

मानवता को चूम-चूमकर।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी



मस्ती में…   (चौपाई(


मस्ती में ही चलते रहना।

द्वंद्व छोड़कर आगे बढ़ना।।

चिंता छोड़ो प्रिय ईश्वर पर।

चलते रहना न्याय पंथ पर।।


मस्ताना अंदाज निराला।

सबका रक्षक ऊपरवाला।

बनो पाठशाला हितकारी।

पाठ पढ़ाओ शिष्टाचारी।।


दंभ कपट को सहज त्यागना।

मिथ्यावादन कभी न करना।।

सच्चाई की राह पकड़ना।

मित-मृदुभाषी बनकर चलना।।


चलना सीखो शीश झुकाकर।

कर प्रणाम नतमस्तक हो कर।।

प्रभु चरणों में न्योछावर कर।

बाँट स्वयं को बन प्रसादघर।।


लूटो नहीं लुटाओ खुद को।

सीखो और सिखाओ सबको।।

प्रेम रसामृत महज पिलाओ।

आनंदी जल में नहलाओ।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801



मजलिस    (चौपाई)


मेरी मजलिस में आना है।

प्रेम गीत तुझको गाना है।।

पैर में घुँघरू बाँधे रहना।

झूम-झूम कर सदा नाचना।।


बीच-बीच में बोला करना।

श्रोता को संबोधित करना।।

प्रेम शव्द पर वार्ता करना।

श्रोत का दुःखहर्त्ता बनना।।


मजलिस की शोभा बन जाना।

नाच-नाच कर रंग जमाना।।

मुस्कानों से मन भर देना।

सबको हराभरा कर देना।।


मजलिस में आकर छा जाना।

प्रेम शव्द का अर्थ बताना।।

देखो सबमें झाँक-झाँक कर।

फैले जलवा मधुर मनोहर।।


हो व्याख्यान प्रेमरसपूरित।

झाँकी में हो प्रेम सुशोभित।।

रस बरसे टपके मधु सब पर।

 दिखे प्रेमश्री हर मस्तक पर।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801


हंसवाहिनी मधुशाला


नीरक्षीर को अलग-थलग, कर देता है मेरा प्याला;

मधुर क्षीर से सराबोर है, मेरी मधुमय प्रिय हाला;

सद्विवेक के चरम शीर्ष पर, खड़ा दीवाना साकी है;

सर्व लोक में सर्व मान्य है, हंसवाहिनी मधुशाला।


मधुर राग सब में भर देने, को आतुर मेरा प्याला.,

कला और संगीत सुधामय, है मेरी मादक हाला;

परम मदनमय प्रिय मनरंजक,मनमोहक मेरा साकी;

जनमानस की बनी रंजनी, हंसवाहिनी मधुशाला।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801


नित्य नयेपन का अहसास

               (वीर रस)


नित्य नयेपन का अहसास,

      लाता रोज मधुर खुशियाँ हैं।

मन में उठता अति उल्लास,

      दिल में छा जाता उमंग है।

अंतस हर्षित अति रोमांच,

      सब कुछ लगता दिव्य नवल नव।

रख सबके प्रति अभिनव भाव,

       दृश्य बदल जायेगा तत्क्षण।

नहीं पुराना किसी को मान,

       रखना भाव सहज नूतन का।

पाते रहना दिव्य प्रसाद,

        जीवन में आनंद मिलेगा।

नहीं पूरानी कोई चीज,

       सबमें खोजो नयी नवेली।

इसी खोज से पहुँचो लोक,

       यही लोक बैकुण्ठ धाम है।

करते रहना सदा प्रयास,

       जीवन पर्व बनेगा निश्चित।

पा जाओगे अंतिम धाम,

       यही नयेपन का रहस्य है।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *दोहे*

समय-समय का फेर है,राजा बनते रंक।

कभी पिलाए अमिय-रस,मारे यह फिर डंक।।


सीमा-रेखा पार जा,अपने सैनिक वीर।

धूल चटा कर शत्रु को,सदा विजय दें धीर।।


केवल जन-जागृति सदा,रचे नवल इतिहास।

राष्ट्र-सुरक्षा के लिए,जगे आत्म-विश्वास।।


जब आती है शीत-ऋतु,घर-घर जले अलाव।

इसे ताप कर सब करें,अपना ठंड बचाव।।


पड़ती है जब बर्फ़ तो,जा पहाड़ पर लोग।

हर्षित हो क्रीड़ा करें,बर्फ़ हरे सब रोग ।।

             

धरती का जो देव है,कहते उसे किसान।

अन्न उगा कर दे वही, करके कर्म महान।।


राजनीति की सोच शुचि,रहे देश का प्राण।

जन-जन का उत्थान हो,यही करे कल्याण।।

                 ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                    9919 44 63 72

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल 


ये चंद रोज़ की यारी ग़ज़ब की यारी लगे

तमाम ज़ीस्त तेरे  साथ ही  गुज़ारी लगे 


हरेक शय में ही आती नज़र सनम तुम हो 

तुम्हारे प्यार की अब तक चढ़ी ख़ुमारी लगे


न देखो ऐसी नज़र से कि जां निकल जाये

हमारे दिल को ये चुभती हुई कटारी लगे 


तुम्हारे अदना इशारे पे नाच उठती है

हमारी ज़ीस्त भी हमको तो अब तुम्हारी लगे 


शदीद ग़म है जुदाई का इस क़दर हमदम

मुझे  हयात की तारीकियों पे भारी लगे 


यक़ीन कैसे करूँ दोस्ती पे मैं उनकी 

ये आजकल की जो यारी है दुनियादारी लगे 


ज़ुबां ख़मोश न रख्खें तो क्या करें *साग़र* 

हरेक बात बुरी उनको जब हमारी लगे 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *मधुरालय*

              *सुरभित आसव मधुरालय का*7

अन्न-फूल-फल बदन सँवारें,

रक्त-तत्त्व  संचार  करें।

रचे रक्त इस तन की पुस्तिका-

यह अक्षर-रोशनाई  है।।

     अक्षर बिना न पुस्तक सार्थक,

      रक्त बिना तन व्यर्थ  रहे।

      रक्ताक्षर का मेल  निराला-

      पुस्तक-जतन बधाई  है।।

यह पुनीत मधुरालय-आसव,

मन स्थिर,तन स्वस्थ  रखे।

आसव औषधि है अमोघ इक-

करता रोग  छँटाई  है।।

        दान अभय का मिला सुरों को,

         पीकर ही अमृत -हाला।

         अमर हो गए सभी  देवता-

         माया नहीं  फँसाई  है।।

हाला कहो,कहो  या  आसव,

दोनों  मधुरालय -वासी।

दोनों की  है  जाति  एकही-

यह  सुर-पान  कहाई  है।।

      कह लो इसको अमृत या फिर,

      कहो सोमरस  भी  इसको।

      देव-पेय यह  देत  अमरता-

       लगती  नहीं  पराई  है।।

ताल-मेल सुर-नर में रखती,

अपन-पराया  भेद  मिटा।

दिया स्वाद जो सुर-देवों को-

नर को स्वाद  दिलाई  है।।

      जग-कल्याण ध्येय है इसका,

      करे मगन मन जन-जन का।

      तन-मन  मात्र  निदान यही है-

      रखे नहीं  रुसुवाई  है।।

कहते तन जब स्वस्थ रहे तो,

मन भी स्वस्थ अवश्य  रहे।

तन-मन  दोनों  स्वस्थ रखे यह-

हाला  जगत  सुहाई  है।।

      जब भी तन को थकन लगे यदि,

      मन भी  ढुल-मुल  हो  जाए।

      पर आसव  का  सेवन  करते-

       मिटती शीघ्र  थकाई  है।।

लोक साध  परलोक साधना,

सेतु  यही  बस  आसव  है।

साधन यह है पार देश का-

करता सफल  चढ़ाई  है।।

       मिटा के दूरी सब शीघ्र ही,

       मेल कराता  अद्भुत  यह।

       मिलन आत्मन परमातम सँग-

       कभी न  देर  लगाई  है।।

एक घूँट  जब करे गला तर,

अंतरचक्षु- कपाट  खुले।

भोग विरत मन रमे योग में-

भागे भव-चपलाई  है।।

       सकल ब्रह्म-ब्रह्मांड दीखता,

        करते आसव-पान तुरत।

       विषय-भोग तज मन  है रमता-

       जिससे  नेह  लगाई  है।।

                    ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                      9919446372

अलर्क अवस्थी

 वादा किया था तूने, सबको राहत - ए आराम देगा।


तो हो गया क्या दिल्ली में इतना मचा कोहराम क्यों है।


आ गया सड़कों  पर ,  आज ये किसान क्यों है 


और रोटी देने वाला, आज रोटी का मोहताज क्यों है।


उठने लगे है आज इतने ये उनके  दिलों में सवाल क्यों है।


उनके गिड़गिड़ाने का असर अब सरकारों पर क्या होता नहीं है ।


आज मेरे देश का अन्नदाता इतना परेशान क्यों है।


छोड़ कर अपने खेतों की मेढें को वो, सोने को सड़कों पर आज वो मजबूर क्यों है।


वादा किया था तूने, सबको राहत - ए आराम देगा।


तो हो गया क्या दिल्ली में इतना मचा कोहराम क्यों है।


  Written  by  -Alark awasthi

सुनीता असीम

 नहीं जो बात पर अपनी अड़ा है।

वही ईमान से       सुंदर  बड़ा है।

*****

बशर के सामने हैं मुश्किलें बस।

रहा वो तान सीना पर खड़ा है।

*****

बचें ख़ारों से कैसे हम सभी अब।

ये जीना ज़िन्दगी भी इक कला है।

*****

नहीं है काटना तन्हा सफर भी।

यही उत्तर निगाहों ने दिया है।

*****

रसाई है मेरी तुझ तक कन्हैया।

नहीं छोड़े तू मुझको ये दुआ है।

*****

तुम्हें बातें कई दिल की सुनानी।

सफर अपना मुहब्बत का नया है।

*****

कन्हैया ने पुकारा है   सुनीता।

वही मरहम वही दिल की दवा है। 

 *****

नहीं जो बात पर अपनी अड़ा है।

वही ईमान से       सुंदर  बड़ा है।

*****

बशर के सामने हैं मुश्किलें बस।

रहा वो तान सीना पर खड़ा है।

*****

बचें ख़ारों से कैसे हम सभी अब।

ये जीना ज़िन्दगी भी इक कला है।

*****

नहीं है काटना तन्हा सफर भी।

यही उत्तर निगाहों ने दिया है।

*****

रसाई है मेरी तुझ तक कन्हैया।

नहीं छोड़े तू मुझको ये दुआ है।

*****

तुम्हें बातें कई दिल की सुनानी।

सफर अपना मुहब्बत का नया है।

*****

कन्हैया ने पुकारा है   सुनीता।

वही मरहम वही दिल की दवा है। 

 *****

सुनीता असीम

डॉ० रामबली मिश्र

 तुझे देखकर…    ( वीर छंद)


कभी न लगना इतना क्रूर,

       तुझे देखकर डर लगता है।

हो जाता मैं चकनाचूर,

      जब भी तेरी छाया पड़ती।

चल जाओ तुम मुझसे दूर ,

      कभी न अपना रूप दिखाना।

क्यों रहते हो मेरे पास,.    

      कहीं निकल जा मुझे छोड़ कर।

नहीं चाहिये तेरा साथ,

      मुझे अकेला ही रहने दो।

मुझे अकेले में आनंद,

      सदा मिलेगा इसे समझ लो।

मुझे चाहिये भय से मुक्ति,

        निर्भयता ही मेरा जीवन।

तेरी छवि में डर का वास,

      अब मत परेशान कर मुझको।

मुझे चाहिये अब एकांत,

      यही जगह सर्वोत्तम सुखकर।

लेंगे केवल प्रभु का नाम,

      सिर्फ साथ में ईश रहेंगे।

मुझे चाहिये सुख-विश्राम,

      केवल ईश भजन से मतलब।

मिट जायेगा भय का भाव,

      जब ईश्वर का दर्शन होगा।

नहीं चाहिये भय का साथ,

      निर्भयता का सावन होगा।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

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