एस के कपूर श्री हंस

हर किसी के दिल में घर एक

*बनाना सीखिये।।*


हर  दिल में तुम   इक  घर 

बनाना       सीखो।

किसी के दर्द में  तुम  दवा

बन जाना सीखो।।

ऊंची आवाज   नहीं ऊंची

बात   कहो   तुम।

वक्त रहते     सही   गलत

आजमाना सीखो।।


आँखों और दिल की जुबां

पढ़ना     सीखो।

बिना सीढ़ी के   तुम ऊपर

चढ़ना     सीखो।।

तुम्हारी  किस्मत  बनती है

प्रारब्ध    कर्म से।

अपना भाग्य  तुम  खुद ही

गढ़ना       सीखो।।


धारा के   विपरीत भी  तुम

चलना      सीखो।

संघर्ष अग्नि में तुम   तपना

गलना      सीखो।।

तेरे अंदर की क्षमता निकल

कर  आये  बाहर।

हो लाख  रुकावटें तुम आगे

बढ़ना      सीखो।।


विनम्र विनोदी सहयोगी तुम

बनना      सीखो।

हर काम  जीवन  में   धैर्य से

करना      सीखो।।

याद रखो  छवि  की उम्र तेरी

उम्र से होती ज्यादा।

हो बदनामी पहले उससे तुम

मरना       सीखो।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"

*बरेली।।*

मोब।।।           9897071046

                      8218685464



।।राष्ट्रीय बालिका दिवस 24 जन*

*पर रचना।।*

*।।घर में प्रेम और रौनक का रंग* 

*भरती है बेटियाँ।।*


पढ़ेंगी बेटियाँ   और आगे

बढ़ेंगी    बेटियाँ।

बराबर हक़ के    लिए भी

लड़ेंगी   बेटियाँ।।

बेटों से कमतर  कहीं नहीं

हैं बेटियाँ  हमारी।

हर ऊँची   सीढ़ी    पर भी

चढ़ेंगी    बेटियाँ।।


विश्व पटल परआज बेटियों

का खूब नाम है।

आज कर रही     दुनिया में

वह हर काम हैं।।

बेटी को जो देते  बेटों जैसा

प्यारऔर सम्मान।

अब  माता  पिता   कहलाते

वही महान      हैं।।


हर दुःख सुख   साथ     में    

संजोतीं  हैं बेटियाँ।

हर घर में प्रेम और   रौनक

बोती  हैं   बेटियाँ।।

बड़ी होकर करती सृष्टि की

रचना भी   नारी।

प्रभुकृपा बरसती वहीं जहाँ

होती हैं   बेटियाँ।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।।         9897071046

                    8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-51

कोटिक रावन रहे लखाई।

चहुँ-दिसि गरजहिं धाई-धाई।।

      चले भाग कंपित सुर-देवा।

      रावन एकहि सभ हरि लेवा।।

अब तो इहाँ भए बहु रावन।

जीत नहीं अब होय लखावन।।

     अस कहि भाग गए सभ देवा।

      सरन गुहा गिरि जाई लेवा।

कादर भालू-बानर भागे।

जुद्ध न अंगद-हनुमत त्यागे।।

     नल अरु नील साथ हनुमाना।

     अंगद मारहिं रावन नाना ।।

मीजि-मसलि जैसे भुइँ अंकुर।

कोटिक रावन पटकहिं थुर-थुर।।

       लखि सुर-कपिन्ह हँसे रघुनाथा।

        काटे एक बान बहु माथा ।।

तुरतै छटी सकल खल-माया।

उदित भानु भागहि तम-छाया।।

      रावन इक लखि हरषित सबहीं।

       सुमन-बृष्टि सुर प्रभु पे करहीं।।

प्रभु-प्रताप तें बानर-भालू।

रन महँ चले सभें श्रद्धालू।।

     हरषित सुरन्ह देखि पुनि रावन।

     होके कुपित चला नभ धावन।।

आवत देखि असुर सुर-देवा।

भागन लगे सभीत बनेवा ।।

     सुरन्ह बिकल देखि तब अंगद।

     उछरि तुरत खींचा गहि तिसु पद।।

पुनि सम्हारि निज बपु खल रावन।

करन लगा बरसा बहु बानन।।

      काटे तुरत राम रिपु-सीसा।

       फेंकन लगे भुजा जगदीसा।।

रावन-भुजा-सीस अस बाढ़े।

करत पाप जस तीरथ गाढ़े।।

दोहा-रावन-सिर-भुज बढ़त लखि,अंगद-द्विद-हनुमान।

         लइ नल-निल-सुग्रीव सभ,किन्ह प्रहार बलवान।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                               9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 विधवा पुनर्विवाह चालीसा


दोहा:

विधवा के सम्मान से, कटता मन का पाप।

विधवा को लक्ष्मी समझ, दूर करो संताप।।


विधवा की रक्षा करो, हर लो दुःख अरु शोक।

आओ अग्र समाज में, बनो नहीं डरपोक।।


विधवा का सम्मान किया कर।

विधवा का अपमान नहीं कर।।

विधवा को जीने का हक है।

विधवा को रहने का हक है।।


कभी नकारो मत विधवा को।

सहज सकारो नित विधवा को।।

विधवा का सम्मान जहाँ है।

मानवता का ज्ञान वहाँ है।।


बैठाओ विधवा को उर में।

दो सिंहासन अंतःपुर में।।

सिंहासन पर नित्य विराजें।

पा कर मदद स्वयं में राजें।।


विधवावों का पुनर्वास हो।

सुंदर घर प्रिय शुभ निवास हो।।

इनके प्रति जिसमें संवेदन।

वह खुशहाल दिव्य प्रतिवेदन।।


इन्हें प्रेम-अहसास चाहिये।

सहानुभूति उजास चाहिये।।

होय विवाह पुनः इनका भी।

स्थापित हो समाज इनका भी।।


जो भी इनकी मदद करेगा।

स्वांतः सुख का भोग करेगा।।

इनके प्रति जहँ प्रेम-स्नेह है।

वहीं ईश का करुण-गेह है।।


विधवावों को राह दिखाओ।

फिर से इनको देवि बनाओ।।

अपनाओ इनको बढ़-चढ़कर।

गढ़ दो प्रिय समाज अति सुंदर।।


विधवा को विधवा मत जानो।

विधवा की अस्मिता बचाओ।।

नहीं टूटने इनको देना।

इनको सीने में रख लेना।।


इनको कभी न रोने देना।

मानवता का वट बो देना।।

अश्रुधार को मत गिरने दो।

मुस्कानों में ही बसने दो।।


विधवाएँ भी नारी होतीं।

अतिशय कोमल प्यारी होतीं।।

इसको निर्मल बन बहने दो।

गंगा माता सी बनने दो।।


दोहा:


विधवा पुनर्विवाह का,करो समर्थन नित्य।

विधवा को स्थापित करो, बन जाये वह स्तुत्य।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


बेटी       (दोहे)


बेटी को बेटा समझ, कर उसका सम्मान।

दोनों में क्या फर्क है, बेटी दिव्य महान।।


बेटी घर की रोशनी, करती घर उजियार।

आदि शक्ति सम्पन्न यह, रचती घर संसार।।


करतीं प्यारी बेटियाँ, घर का सारा काज।

शिक्षा-दीक्षा ग्रहण कर, करतीं दिल पर राज।।


बेटी के आयाम बहु, यह बहु- उद्देशीय।

बेटी को अति स्नेह दो, यह अतिशय महनीय।।


बेटी की पूजा करो, यही सृष्टि का धाम।

अब तो बेटी कर रही, सकल लोक में नाम।।


कोई ऐसा पद नहीं, जिस पर वह आसीन।

जग के नित्य विकास में, बेटी प्रबल प्रवीण।।


बेटी के अरमान को, मत कर चकनाचूर।

सदा मनाओ जन्मदिन, बेटी का भरपूर।।


बेटी का जब जन्म हो, होना बहुत प्रसन्न।

आयीं घर में आज हैं,लक्ष्मी जी आसन्न।।


अति पवित्र अवधारणा, बेटी शब्द महान।

बेटी में बेटा छिपा, बेटी में भगवान।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस जयंती पर विशेष

 नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जयंती पर विशेष दोहे


नीरज अपने देश मे,नेता बने अनेक। 

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस जी की अमर जयंती पर विशेष


नीरज मेरे देश मे नेता दिखे अनेक।

लेकिन मेरी नजर में नेता दिखता एक।


सारे भारतवर्ष को होती जिससे आस। 

नेता केवल एक ही हमको लगे सुभाष।


जिनकी भाषा श्रवण कर होते थे सब मौन।

 वीर बोस जैसा निडर हुआ दूसरा कौन।


नमन करूँ लाखो तुम्हे सौ सौ बंदनवार। 

नेता जी के नाम पर तन मन धन बलिहार।


आशुकवि नीरज अवस्थी 9919256950

क्या उचित बात है , डॉ प्रताप मोहन

 * उदारता *

देश के लोगों को

अभी कोरोना की 

वैक्सीन लग नहीं

पाई है

उसके पहिले प्रधानमंत्री 

ने वैक्सीन पडोसी 

देशों को मुफ्त

भिजवाई है

उदारता अच्छी बात है

मगर घर के लोगों को

भूखा रखकर

पड़ोसी को खाना खिलाना

क्या उचित बात है ?

लेखक

             डॉ  प्रताप मोहन


"भारतीय"308,चिनार-A2 ओमेक्स पार्क -वुड-बद्दी

173205 (HP)

मोबाईल-9736701313

Email-DRPRATAPMOHAN

@GMAIL.COM

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *पिता-माहात्म्य*

      *पितृ भाव*

जीवन-दाता जनक है,जैसे ब्रह्मा सृष्टि।

करे पिता-सम्मान जो,उसकी अनुपम दृष्टि।।


पिता देव के तुल्य है,इसका हो सम्मान।

इसका ही अपमान तो,कुल का है अपमान।।


चाल-चलन,शिक्षा-हुनर,सब सुख जो संसार।

चाहे देना हर पिता,सह कर कष्ट अपार ।।


पिता रहे चाहे जहाँ, रखे बराबर ध्यान।

सुख-सुविधा परिवार का,होता स्रोत महान।।


पिता-पुत्र,पुत्री-पिता,जग संबंध अनूप।

राजा दशरथ राम का,जनक-जानकी भूप।।


कभी तिरस्कृत मत करें,वृद्ध पिता को लोग।

बड़े भाग्य जग पितु मिले,बने सुखद संयोग।।


यही सनातन रीति है,पितु है देव समान।

पिता के कंधे पर रहे,कुल-उन्नति-उत्थान।।


पितृ-दिवस का है यही,बस उद्देश्य महान।

हर जन के हिय में बसे,पिता-भाव-सम्मान।।

               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                  9919446372

सुनीता असीम

 बस श्याम नाम ही मेरी प्यासी नज़र में है।

इक दर्द प्यार का मेरे दर्दे जिगर में है।

****

वो गीत हैं मेरा वो ही मनमीत बन गए।

सारे जहाँ में बात यही तो ख़बर में है।

****

दासी बनी जो उनकी तो मोहन मेरे हुए।

अब तो मेरा बसेरा भी उनके नगर में है।

****

कैसे नहीं हमारे मिटेंगे ये   फासले।

लगता है यूं कि कान्हा मेरे असर में हैं।

****

वो जानते हैं ये कि सुनीता   है पामरी।

मुस्कान कृष्ण की बसी उसके अधर में है।

*****

सुनीता असीम

२१/१/२०२१

डॉ० रामबली मिश्र

 खुशियों का संसार   (चौपाई)


खुशियों का संसार दिला दो।

सुंदर सा दिलदार दिला दो।।

प्यारा सा परिवार दिला दो।

प्रिय मादक रसधार पिला दो।।


मन को अब कर दो रंगीला।

नाचे भीतर छैल-छबीला।।

प्रेमी का दरबार दिला दो।

सद्गति का अधिकार दिला दो।।


मेरे भीतर बैठे रहना।

दिल में घुलकर चलते रहना।।

मुझको मेरी प्रीति दिला दो।

मधुर प्रेम की रीति सिखा दो।।


अपना अद्भुत रूप दिखाओ।

मोहक सुंदर राग सिखाओ।।

रूप मधुर प्रिय हे आजाओ।

दिल में अमी सरस बरसाओ।।


करो प्रतिज्ञा आना ही है।

प्रीति रहस्य बताना ही है।।

मुझ से कुछ भी नहीं छिपाना।

सत्य प्रेम का मर्म सिखाना।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

निशा अतुल्य

 गीत

21.1.2021


भूली बिसरी अपनी यादों से 

पहचान बनाने बैठी हूँ ।

कैक्टस सी उग आइ बातों के

कुछ झाड़ हटाने बैठी हूँ । 

अपने दिल में लटके जालों को

मैं आज मिटाने बैठी हूँ ।

भूली बिसरी अपनी यादों से 

पहचान बनाने बैठी हूँ ।।


छोड़ दिया था जिनको राहों में 

मैं उन्हें बुलाने बैठी हूँ ।

भूल गई सब बिगड़ी बातें अब

रूठों को मनाने बैठी हूँ  ।

चलो साथ मिलकर सब बात करें

कुछ राज बताने बैठी हूँ ।

भूली बिसरी अपनी यादों से 

पहचान बनाने बैठी हूँ ।।


होता मन सबका सहज सरल है

बाधाओं में बांधे क्यों कर।

विपत्ति आई आकर जाएगी 

कौन भला ठहरा है कब तक ।

कुछ ऐसा जो मन में आता है

वो तुम्हें बताने बैठी हूँ ।

भूली बिसरी अपनी यादों से 

पहचान बनाने बैठी हूँ ।।


कुछ कटु बातों ने घाव दिए जो

मेरे मुझ से दूर हुए जो  ।

रूठे मेरे सब दोस्त पुराने

भूले बिसरे गीत हुए वो।

क्यों दफ़न हुए अहसास पुराने

अहसास जगाने बैठी हूँ ।

भूली बिसरी अपनी यादों से 

पहचान बनाने बैठी हूँ ।।


स्वरचित

निशा"अतुल्य"

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *ज़िंदगी के रूप*

    *ज़िंदगी के रूप*

आज अपने जनम-दिन मना लीजिए,

कल न जाने कहाँ शाम हो जाएगी?

ज़िंदगी एक पल है उजाले भरी-

फिर अँधेरों भरी रात हो जाएगी।।


    धूप है,छाँव है,भूख है,प्यास है,

     घात-प्रतिघात है,आस-विश्वास है।

     चलते-चलते यूँ रस्ते बदल जाते हैं-

     देखते-देखते बात हो जाएगी।।


है ये पाषाण से भी कहीं सख़्तदिल,

पुष्प से स्निग्ध,स्नेहिल व कृपालु है।

तोला माशा बने,माशा रत्ती कभी-

जलते शोलों पे बरसात हो जाएगी।।


   ज़िंदगी दास्ताँ प्यार-नफ़रत की है,

   दोस्ती-दुश्मनी-इल्म-शोहरत की है।

    एक पल में हमें बख़्श देती अगर-

     दूसरे में हवालात हो जाएगी।।


स्वार्थ में है जगत सारा डूबा हुआ,

हित यहाँ ग़ैर का गौड़ अब हो गया।

लोग अपनों में गर इस तरह खो गए-

बदबख़्ती की हालत हो जाएगी।।


   लाख खुशियाँ यहाँ हम मनाएँ मगर,

   याद रखना हमेशा यही दोस्तों।

   आज हैं हम यहाँ, कल न जाने कहाँ-

   अजनबी से मुलाकात हो जाएगी।।

आज अपने जनम-दिन मना लीजिये।।

             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

              9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 प्यारा मीत      (सजल)


मुझको प्यारा मीत चाहिये।

उर मोहक संगीत चाहिये।।


प्रिय भावों में मधुर लालिमा।

होठों पर मधु गीत चाहिये।।


कंचन काया पावन छाया।

प्रेम रसिक मनमीत चाहिये।।


मुझको पाने को हो विह्वल।

प्रेम कलश सा मीत चाहिये।।


मीत सहज हो बहुत छबीला।

उर प्रेरक अभिजीत चाहिये।।


मन में आकर सदा समाये।

गीतकार मधु गीत चाहिये।।


कभी न दो की रेखा खींचे।

ब्रह्म रूप रघुसीत चाहिये।।


पय सा स्वच्छ परम प्रिय निर्मल।

सुरभित नित नवनीत चाहिये।।


मेरा प्यारा अति खुशदिल हो।

मुस्कानों का मीत चाहिये।।


समझदार प्रिय शिव सदृश हो।

कल्याणी गुरुमीत चाहिये।।


साथ निभाये हर स्थिति में।

दिल लायक हममीत चाहिये।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-48

रावन नाम मोर जग जानै।

बंदी मोरे लोकप मानै।।

     मारे तुम्ह खर-दूषन-तृषिरा।

    बाली-कुंभकरन रनधीरा।।

तुम्ह बिराध-घननादपि मारे।

निसिचर बहु-बहु सुभट पछारे।।

     आजु सकल हम करज उतारब।

       मारि तुमहिं निजु भागि सँवारब।।

तब हँसि कहे राम रघुनाथा।

कछुक करहु,मत गावहु गाथा।।

    नीति कहहि तुम्ह सुनउ पिसाचू।

     तीन प्रकार पुरुष बिधि राचू।।

पनस-गुलाब-रसाल समाना।

फरहिं-फुलहिं-फरफ़ूलहिं माना।।

      जल्पहिं एक करहिं अरु दूजा।

      कहहिं,करहिं जग जानै तीजा।।

राम-बचन सुनि हँसि कह रावन।

चला मोंहि कहँ ग्यान सिखावन।।

     कुलिस-कराल बान संधाना।

      चहुँ-दिसि छाए रावन-बाना।।

तब सर अनल राम संधाने।

जारि दीन्ह लंकेसहिं बाने।।

      अगनित चक्र-त्रिसूलहिं फेंका।

       तुरत राम काटहिं हर एका।।

निष्फल होय मनोरथ खल कै।

रावन-बान फिरहिं तस चलि कै।।

    झट रावन सत बान चलावा।

     राम-सारथी भुइँ पे आवा।।

गिरत भूइँ प्रभु राम पुकारा।

 उठाइ राम प्रभु ताहि सँवारा।।

दोहा-होंहि कुपित प्रभु राम तब,कीन्ह धनुष-टंकार।

         कंपित भे मंदोदरी,नभ-थल-जल-झंकार ।।

                       ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                           9919446372

नूतन लाल साहू

 सलाह


फिक्र करता है,क्यों

फिक्र से होता है,क्या

रख अपने इष्ट देव पर भरोसा

फिर देख,होता है क्या

सत्संग में,आने से ही

दृष्टि बदल जाती हैं

भगवान को, सन्मुख पाकर

सृष्टि बदल जाती हैं

सांसारिक वासनाओं में

व्यर्थ की कल्पनाओं से

नाता मत जोड़

नाता जोड़ना है तो,भगवान से जोड़

फिर देख होता है, क्या

खुद को भूलकर

इधर उधर,क्यों भटक रहा है

तू खुशी की तलाश में

पैरों में तो,मोह माया की

जंजीर पड़ी हुई हैं

अपनी क्षमता को पहचानो

और छोड़ दें,फिक्र करना

मानव जीवन,सफल हो जावेगी

सतगुरु की शरण में आ जा

फिर देख होता है, क्या

ब्रम्ह ज्ञान में बड़ी शक्ति हैं

ज्ञान सुन ले,घड़ी दो घड़ी

उस इंसान की जीना भी क्या

जिसमें ज्ञान की ज्योति नहीं हैं

और उस जीवन का मतलब भी क्या

जिसमें प्रेम की बोली,नहीं हैं

फिक्र करता है,क्यों

फिक्र से होता है,क्या

रख अपने इष्ट देव पर भरोसा

फिर देख होता है क्या


नूतन लाल साहू

सुनीता असीम

 सितारा रातभर का हो गया हूं।

उजाला एक घर का हो गया हूँ।

*****

 यूं तो हैं मंजिलें मेरी बहुत सी।

पता पर इक सफ़र का हो गया हूँ।

*****

बहुत रोया मै जिन्हें याट करके।

मैं तारा उस नज़र का हो गया हूं।

*****

वो भगवन मेरे बरगद के हैं जैसे।

मैं पत्ता उस शज़र का हो गया हूँ।

*****

खबर जो चारसू मेरी हैं फैली।

हरफ़ मैं उस ख़बर का हो गया हूँ।

*****

सुनीता असीम

नूतन लाल साहू

 संघर्ष


संघर्ष,प्रकृति का आमंत्रण है

जो स्वीकार करता है

वहीं आगे बढ़ता है

लम्बा है रास्ता, जिन्दगी का

लक्ष्य है,अति दूर

खाई कुंए से बचकर

जाना है, अकेला

दुनिया खोंटी,बड़ी रंगीली

देख तू, धोखा न खाना

चलती स्वांस,हवा का झोंका

इत आया, उत जाना है

पानी की, बुलबुले सी

तेरी जिंदगानी है

श्री राम और श्री कृष्ण जैसा भी

यहां कोई रह न पाया है

अच्छे कर्मो से तूने

मानुष देह पाया है

चार दिन की चमक चांदनी

फिर अंधेरी रात यहां

उसका जीवन भी जीना है,क्या

जिसके जीवन में,संघर्ष नहीं रहा

महाराणा प्रताप का संघर्ष

अमर हो गई गाथा

संघर्ष,यदि आदत बन जाए

तो कामयाबी,मुकद्दर बन जाती हैं

संघर्ष शील व्यक्ति,जब हंसता है

तो दूसरों को भी,हंसा देता हैं

और जब वो,रोता है

तो दूसरों को भी,रुला देता हैं

संघर्ष,प्रकृति का आमंत्रण है

जो स्वीकार करता है

वहीं आगे बढ़ता है


नूतन लाल साहू

एस के कपूर श्री हंस

 *विषय।।दिल।ह्रदय आदि शब्द* 

*पर केंद्रित ।।*

*।।रचना शीर्षक।।*

*।। दिल से उतरो नहीं,दिल में*

*उतर जायो।।*

*विधा।।मुक्तक ।।*


न गुड़ न गुड़ सी बात यही

कुछ   लोगों   का काम है।

इसी में   मिलता  कुछ को

बहुत   ही  आराम        है।।

अहंकार में     जीते     वह

पर दिल से हैं   हार   जाते। 

किसी दिल में     नहीं  उन

का      उतरता    नाम   है।।


बात जो दिल में  होती  वो

जुबां पर आ ही  जाती  है।

क्या बसा  आपके मन  में

वह सब कुछ     बताती है।।

कहते   कि मन   मस्तिष्क

सदा ही साफ   रखें  आप।

आपकी हरबात ह्रदय  का

शीशा बन  कर आती   है।।


सदा यूँ बोलें कि    दिल से

न उतरें उसमें    उतर जायें।

किसी के दर्द   को   समझें

थाह उसके अंतस की पायें।।

ऐसे बोल   हों   कि    ह्रदय

भीतर तक खुश किसी  का।

जुबां से नहीं दिल  से  आप

अपना जीत  कर     बनायें।।


जान लीजिए कि   दिल का

दरवाजा अंदर से खुलता है।

जो दिया आपने वही     जा

कर ही   मिलता जुलता  है।।

जुबां से हो गिला    शिकवा 

पर दिलों में मैल  नहीं आये।

दिमाग से न   दिल से निभा

रिश्ता ही जाकर खिलता है।।

एस के कपूर श्री हंस

*बरेली।।*

मोब।।          9897071046

                   8218685464

डॉ0हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-47

रावन अब तहँ भवा अकेला।

चहै करन बहु माया-खेला।।

     बिरथ देखि रन महँ रघुबीरा।

     बिकल भए सभ देव गँभीरा।।

धाइ इंद्र-रथ आवा मातुल।

भए मुदित देव जे ब्याकुल।।

    इंद्र काम ई उत्तम कीन्हा।

     जे प्रभु रामहिं निज रथ दीन्हा।

चंचल चारि नधे रथ घोरे।

अजर-अमर गति बायु-झकोरे।।

      हरषि चढ़े तेहि पे रघुबीरा।

       देखि कपिन्ह बाढ़ा बल-धीरा।।

कपिन्ह उछाह बिलोकि दसानन।

माया कइलस आनन-फानन ।।

     ब्यापै नहिं माया प्रभु रामहिं।

      लछिमन,कपि सभ सच ई मानहिं।।

राम-लखन बहु लखि रन माहीं।

कपि भे भ्रमित-अचंभित ताहीं।।

       हँसि प्रभु कीन्ह बान संधाना।

        भए मुक्त कपि-भालू नाना

बैठउ अब तुम्ह सभ कपि-भालू।

थकित भए तुम्ह कहे कृपालू।।

      द्वंद्व जुद्ध अब देखउ तुम्ह सब।

      बिबिध कला जुधि निरखहु तुम्ह अब।।

तुरत सुरहिं नवाइ निज माथा।

रथ चढ़ि तहँ आयउ रघुनाथा।।

      कुपित होइ तब रावन आवा।

      करत गर्जना धावा-धावा।।

दोहा-कह रावन क्रोधित-बिकल,सुनहु तपस्वी राम।

         जे जीतेउ अबहीं तलक,मैं नहिं रावन-नाम।।

                         डॉ0हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

 सद्गति      (दोहे)


सद्गति मिलती है तभी,जब हो सुंदर चाल।

सत्कर्मों से ही सहज,विपदाओं को टाल।।


सद्गति -शुभगति क्षितिज ही, इस जीवन का लक्ष्य।

सहज सुखद परिणाम ही, सद्गति का है तथ्य।।


मुक्ति मंत्र के जाप में, सद्गति की है राह।

सद्गति पाने के लिये, रखो मोक्ष की चाह।।


कर्म करो निष्काम हो, यह सद्गति की नीति।

सत्य आचरण में छिपी, सद्गति की है रीति।।


धर्मयुधिष्ठिर बन निकल, करना धर्म प्रचार।

इसी पंथ से है जुड़ा, प्रिय सद्गति का तार।।


इसी अवस्था के लिये, रहना सतत सचेत।

सद्गति पाता वह नहीं,जो रहता निश्चेत।।


सद्गति सुंदर भाव का, सत्य दिव्य परिणाम।

सद्गति मधुर स्वभाव का, अति शीतल है नाम।।


रचनाकार: डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ० रामबली मिश्र

 दिव्य भाव  चालीसा


दिव्य भाव की करो कामना।

कर ईश्वर से यही याचना।।

दिव्य भाव अति पावन सरिता।

बूँद-बूँद में अति प्रिय कविता।।


देव शक्ति है दिव्य भाव में।

नैसर्गिकता सहज चाव में।।

दिव्य भाव में अमृत सागर।

दिव्य भाव प्रिय अमृत नागर।।


दिव्य भाव को पवन समझना।

सदा धर्मरत शीतल बहना।।

यह मानवतावादी पावन।

ब्रह्मलोक तक सहज लुभावन।।


देव मनुज सबका हितकारी।

दिव्य भाव ही प्रेम पुजारी।।

ब्रह्म विचरते दिव्य भाव में।

निर्विकार नित मधु स्वभाव में।।


दिव्य भाव के ब्रह्म रचयिता।

इसमें निर्मलता शुभ शुचिता।।

भरा हुआ जो दिव्य भाव से।

आच्छादित वह सुखद छाँव से।।


जिसके मन में गंगा बहतीं।

उस में दिव्य भावना रहती।।

जिस को सद्विवेक मनभावन।

उस में दिव्य भाव का आवन।।


अडिग प्रेम में दिव्य भावना।

प्राणि मात्र की शुभद कामना।।

जिस के भीतर सत्व प्रीति है।

दिव्य भावनामयी रीति है।।


दिव्य भाव में नित्य दान है।

नैतिकता का सत्य ज्ञान है।।

यह प्रिय दाता सहज सन्त सम।

देव तुल्य यह भाव परम नम।।


दिव्य भाव है सब से ऊपर।

बाधाओं से मुक्त उच्चतर।।

यह निसर्ग का देवालय है।

शुभग मनोहर विद्यालय है।।


पावन मन का भाव यही है।

शुद्ध हृदय का गाँव यही है।।

सकल विश्व मैत्री का देशा।

दिव्य भाव सर्वोच्च विशेषा ।।


दोहा-


दिव्य भाव के धाम में,ईश्वर का सहवास।

दिव्य भावनायुक्त नर,सदा ईश के पास।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

निशा अतुल्य

 भागमभाग भरी जिंदगी

20.1.2021


कहाँ जा रही हूं मैं 

अपने ही विचारों में उलझी

कर्तव्यों की डोर से बंधी

खुद को भूलती बिखराती

भागमभाग भरी जिंदगी ।


कुछे छूटे साथी 

कुछ बंधन नए

कुछ किये दर किनार

अपने से स्वयं ही ।

करती सामंजस्य सबसे

भागमभाग भरी जिंदगी ।


विचारों की तन्द्रा पर ताले

जब तक कुछ न सोचूं

तब तक भली

खोलूं जो पंख अपने

दूसरे के गले में अटकी

बन्द कर सभी दरवाजे 

मैं ख़ुद में भली

भागमभाग भरी जिंदगी ।


जी करता 

छोड़ चली जाऊं कहीं

जब तक मैं चाहूँ 

निभाते सब मुझे 

जब खोलूँ मुँह 

बात बेबात बढ़ी 

कैसी है भला ये जिंदगी

किसके लिए भली 

भागमभाग भरी जिंदगी ।


व्यवस्थित सयंमित

जिंदगी मेरी कब तक ?

जब तक मैं चुप तब तक

वरना बिखरी उजड़ी सी

दिखती हर पल 

कर्तव्यों के साथ बंधी जिंदगी

भागमभाग भरी जिंदगी ।


हाँ सब की जिंदगी है ये ही

माने या न माने 

सुनकर स्वीकार करना सच को

नही आसान है कोई

सादा सरल कुछ भी नहीं

हाँ बस ये ही है कहानी सबकी

भागमभाग भरी जिंदगी सबकी ।


स्वरचित

निशा"अतुल्य"

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *गीत*(16/16)

सौंधी गंध लिए आ जाओ,

घर-आँगन सुरभित हो जाएँ।

संग बहारों को ले आओ-

तन-मन सब पुलकित हो जाएँ।।


छीन बादलों से बरसातें,

आ धरती की प्यास बुझाओ।। 

सूखी पड़ी सभी सिवान हैं,

दे हरियाली उन्हें जिलाओ।

सभी प्रतीक्षारत लगते हैं-

तुमको पा हर्षित हो जाएँ।।

   तन-मन सब पुलकित हो जाएँ।।


छीन पवन से पुरुवाई भी,

ले बहो मस्त वन-बागों में।

दिनकर की भी ले कर किरणें,

आ खिल जा कमल-तड़ागों में।

तुमको पाकर लतिकाएँ सब-

विह्वल हो पुष्पित हो जाएँ।।

    तन-मन सब पुलकित हो जाएँ।।


 सुर सातों ले तुम झरनों से,

 आओ चले बजाते सरगम।

बस्ती-कुनबे,नगर-डगर सब,

सुनना चाहें गीत सुधा सम।

सुनकर तेरे गीत सुरीले-

 वृक्ष पत्र से पूरित हो जाएँ।।

      तन-मन सब पुलकित हो जाएँ।।


पुनि आ जा ऐ मीत हमारे,

खुला हुआ घर-आँगन मेरा।

आकर करो सुगंधित फिर से,

मेरे साजन,घर जो तेरा।

तेरा साथ सुगंधित पा कर-

हृदय-कुसुम कुसुमित हो जाएँ।।

     संग बहारों को ले आओ,

     तन-मन सब पुलकित हो जाएँ।।

 

कब से लिए आस मैं जोहूँ,

आकर प्यास बुझा तो जाओ।

प्यार भरा आलिंगन देकर,

सोया प्रेम जगा तो जाओ।

पाकर स्नेहिल आलिंगन सब-

प्रेम-भाव द्विगुणित हो जाएँ।।

      संग बहारों को ले आओ,

      तन-मन सब पुलकित हो जाएँ।।

                ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                    9919446372

डॉ निर्मला शर्मा

 वीर महाराणा प्रताप

राजस्थान री माटी पर ,जब राणा रो जनम हुयौ।

जेठ शुक्ल री तृतीया पर ,कुम्भलगढ़ में सूरज चमक्यो।

राजस्थान री आन रो रखवालो, वा अजब बड़ो सैनानी।

जीवन भर स्वाभिमान री खातर, देतो रह्यो कुर्बानी।

सिसोदिया वंश री धरोहर ,वा वीर बड़ो सम्मानी।

कुम्भलगढ़ रे किला में जन्मयो, जिसरी मैं लिखूँ कहानी।

माता जिसरी जीतकंवर सा ,पिता हैं वीर उदयसिंह।

त्याग, शौर्य, वीरता बलिदान में ,सदा आगे रह्यो वा सिंह।

पूत रा पाँव पालना दीखे, या कहावत चरितार्थ कर माना।

बालकपन सूं सब गुण दीखै, व्यक्तित्व महान था राणा।

राजस्थान री आन, बान, और शान रो वा रखवालो।

उसरे आगे जो कोई आयौ, मुँह की खायौ भाग्यो।

हल्दीघाटी रा युद्ध री, धरती पै प्रसिद्ध कहानी।

मुगलां री सेना रा छक्का छुडायो, वा तलवार रो धणी।

चेतक री जब करै सवारी, रण में तलवार चलावै।

बैरी री सेना डर भागै, केसरिया बाना ही लहरावै।

दानी भामाशाह ने भी, आपणो कर्तव्य निभायौ।

भीलां रे सहयोग सूं ,राणा नै अकबर कूं झुकायौ।

वा वीर शिरोमणि देशभक्त नें, झुक-झुक शीश नवाऊँ।

या वीरां री धरती पर, ऐसो व्यक्तित्व कभी न पाऊँ।

वा स्वाभिमान रो सूरज, वा तो वीर बड़ौ बलिदानी।

माटी रो करज चुकाने कूं ,जीवन री दी कुर्बानी।


डॉ निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

ड़ॉ० रामबली मिश्र

 प्रेमी! पागल…    (सजल)


प्रेमी! पागल मत बन जाना।

फूँक-फूँक कर कदम बढ़ाना।।


सभी नहीं दुनिया में प्रेमी।

धीरे चल चींटी बन जाना।।


जग विश्वास खो रहा अब है।

रुक-रुक करके पैर जमाना।।


धोखेबाज खड़े चौतरफा।

आगे-पीछे होते जाना।।


अति विश्वास कभी मत करना।

सोच-समझकर आगे जाना।।


वफादार का अब टोटा है।

कभी न जल्दी हिल-मिल जाना।।


मकड़जाल है विछा चतुर्दिक।

कभी जाल में फँस मत जाना।।


माना कि तुम प्रेम रसिक हो।

फिर भी सँभल-सँभल कर जाना।।


कभी न सोचो सभी प्रेममय।

कभी न झाँसे में तुम आना।।


पहले लेना घोर परीक्षा।

ठोक-बजाकर चित्त चढ़ाना।।


कामुक घूम रहे पशु बनकर।

इनसे पीछा सदा छुड़ाना।।


कामवासना प्रेम नहीं है।

इस रहस्य को सतत जानना।।


प्रेमी को बस प्रेम सहहिये।

वह तो आशिक़ प्रेम दीवाना।।


प्रेम दीवाने राधे-कृष्णा।

इसी भाव को सदा जगाना।।


सत्व भाव में सत्य प्रेम है।

सात्विक प्रेमी को अपनाना।।


 ड़ॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *मधुरालय*

              *सुरभित आसव मधुरालय का*9

चलो चलें स्वागत हम कर लें,

इस मधुरालय का मन से।

इसकी तीनों जग में चर्चा-

चहुँ-दिशि गरिमा  छाई है।।

      लोक और परलोक-अधोतल,

      आसव -आसव -आसव है।

      हाला की तो बात न पूछो-

      अति विशिष्ट तरलाई है।।

करुणा और मित्रता जागे,

सदा कुभाव सुभाव बने।

मधुर स्वाद अति मन को भाए-

अनुपम नेह -लगाई है।।

        लगे नेह पर विरत वासना,

        शुभ स्वभाव देवत्व जगे।

         देव-पेय सम सबको भाए-

         जब-जब यह इठलाई है।।

पीओ किंतु रहो अनुशासित,

भोग-योग-संयोग  जगत।

जीवन जीना यही सिखाए-

जीओ,जग बिछुड़ाई  है।।

        ईश्वर-कृपा रहे सब जन पर,

        यह केवल तब ही संभव।

        जब सब जन समझें यह दुनिया-

         अपनी नहीं,पराई  है।।

अपन-पराया भेद भूलकर,

सब जन रहना यदि सीखें।

देन यही आसव की होगी-

जानो यही सचाई  है।।

      चलो,आज यह करें प्रतिज्ञा,

       साथ-साथ मिल कर्म करें।

       खाना-पीना,सोना-जगना-

        यही भाव समताई है।।

ऊँच-नीच है रोग विकट जग,

इसको कभी न शह देना।

छुआछूत रिश्तों का कैंसर-

इसने आग लगाई है।।

     बात बनाने से बनती है,

     बिगड़ी बात बना डालो।

     अभी नहीं कुछ देर हुई है-

     ऋतु स्नेहिल अब आई है।।

वायु-अग्नि-जल पक्ष में तेरे,

मौसम करे पुकार अभी।

काले बादल सुखद-सुहाने-

ऋतु ने ली अँगड़ाई है।।

      बीन बजाओ,ढोल बजाओ,

       सुर साधो शहनाई का।

       धीरे से मुरली की धुन ने-

       ऐसी बात बताई है।।

आदि काल से इस आसव ने,

डोर प्रेम की निर्मित की।

प्रेम-डोर से सतत बँधें हम-

इसमें जगत-भलाई है।।

      आसव है संकेत प्रेम का,

       दिव्य दृष्टि का सूचक भी।

      है कपाट अध्यात्म-बोध का-

      जीवन आस-जगाई है।।

                  © डॉ0हरि नाथ मिश्र

                    9919446372





*मधुरालय*

              *सुरभित आसव मधुरालय का*10

छंद-ताल-सुर-लय को साधे,

भाव  भरे रुचिकर हिय  में।

वाणी का यह प्रबल प्रणेता-

सच्ची यह   कविताई  है।।

      लेखक-साधक-चिंतक जिसने,

      दिया  स्नेह  भरपूर  इसे।

      उसके गले उतर देवामृत-

      ने भी प्रीति निभाई  है।।

आसव-शक्ति-प्रदत्त लेखनी,

जब काग़ज़ पर चलती है।

चित्र-रेख अक्षुण्ण खींचती-

रहती जो अमिटाई है।।

      आसव है ये अमल-अनोखा,

       मन भावुक बहु करता है।

       मानव-मन को दे कवित्व यह-

       करता जन कुशलाई है।।

योग-क्षेम की धारा  बहती,

यदि प्रभुत्व इसका होता।

धन्य लेखनी,कविता धन्या,

जो रस-धार बहाई है।।

     मधुरालय के आसव जैसा,

     नहीं पेय जग तीनों में।

     मधुर स्वाद,विश्वास है इसका-

     जो इसकी प्रभुताई है।।

जब-जब अक्षर की देवी पर,

हुआ कुठाराघात प्रबल।

आसव रूपी प्रखर कलम ने-

माता-लाज बचाई  है।।

     अमिय पेय,यह आसव नेही,

     ओज-तेज-बल-बर्धक है।

      साहस और विवेक जगाता-

      होती नहीं हँसाई है।।

रचना धर्मी कलम साधते,

सैनिक अस्त्र-शस्त्र लेकर।

दाँव-पेंच-मर्मज्ञ सियासी-

विजय सभी ने पाई है।।

     शिथिल तरंगों ने गति पाई,

     भरी उमंगें चाहत में।

     बन प्रहरी की इसने रक्षा-

     जब दुनिया अलसाई है।।

मन-मंदिर का यही पुजारी,

रखे स्वच्छ नित मंदिर को।

कलुषित सोच न पलने देता-

सेव्य-भाव बहुताई है।।

      आसव नहीं है मदिरा कोई,

       आसव सोच अनूठी है।

       सोच ही रक्षक,सोच विनाशक-

       सोच बिगाड़-बनाई है।।

                  ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                   9919446372

बिलासा साहित्य संगीत धारा मंच व्हाट्सएप आॅनलाइन काव्यगोष्ठी

 बिलासा साहित्य संगीत धारा मंच की चतुर्थ वर्षगांठ पर काव्यगोष्ठी का रंगारंग आयोजन


गत दिनांक 15 जनवरी दिन शुक्रवार को बिलासा साहित्य संगीत धारा मंच के व्हाट्सएप पटल पर आॅनलाइन काव्यगोष्ठी


का रंगारंग आयोजन किया गया। बिलासा मंच की स्थापना के चतुर्थ वर्षगांठ के पावन अवसर पर डॉ. दीपिका सुतोदिया सखी जी मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहीं, विशिष्ट अतिथि श्री कृष्ण कुमार क्रांति जी, अध्यक्ष श्री तेरस कैवर्त्य आंसू जी की गरिमामई उपस्थिति ने कार्यक्रम में चार चांद लगा दिए। साथ ही कार्यक्रम आयोजन कर्ता श्रीमती सुकमोती चौहान रूचि जी के संयोजन से यह ऐतिहासिक कार्यक्रम सफल हुआ।

कार्यक्रम में भारतीय परंपरा अनुरूप सर्वप्रथम मां शारदे व प्रथमपूज्य गौरी नंदन की पूजा की गई साथ ही ग़ज़लकार श्री परशुराम चौहान जी ने मधुरिम आवाज में सरस्वती वंदना प्रस्तुत की, तत् पश्चात अतिथियों का स्वागत किया गया।

कार्यक्रम की अगली कड़ी में क्रमशः श्रीमती माधुरी डडसेना मुदित जी, श्रीमती व्यंजना आनंद मिथ्या जी, श्री विनोद कुमार जोगी जी एवं श्रीमती धनेश्वरी देवांगन धरा जी के सुन्दर संचालन से कार्यक्रम ने अपने सफलता के शिखर तक की यात्रा की।

कार्यक्रम में काव्यपाठ की प्रथम आहुति श्री रामनाथ साहू ननकी जी ने अपने मुखारविंद से प्रस्तुत की तत् पश्चात क्रमशः सुकमोती चौहान रूचि जी, आशा आजाद कृति जी, बोधन राम निषादराज विनायक जी, केवरा यदु मीरा जी, धनेश्वरी देवांगन धरा जी, ओमकार साहू मृदुल जी, डी पी लहरे मौज जी, इन्द्राणी साहू साँची जी, मनोरमा चंद्रा रमा जी, डिजेन्द्र कुर्रे कोहिनूर जी, प्रेमचंद साव जी, शिवकुमार श्रीवास लहरी जी, नीरामणी श्रीवास नियती जी, तोरनलाल साहू जी, चंद्रकिरण शर्मा जी, अंजना सिन्हा सखी जी, माधुरी डडसेना मुदित जी, सुशीला साहू विद्या जी, करमलाल मांझी जी, गीता विश्वकर्मा नेह जी, लक्ष्मण प्रसाद साहू जी, मधु तिवारी जी, पद्मा साहू पर्वणी जी, सुधा शर्मा जी, हेमलता राजेंद्र शर्मा मनस्विनी जी, प्रतिभा प्रसाद कुमकुम जी, हरिकांत अग्निहोत्री महर्षि जी, सुधा देवांगन शुचि जी, अनिता मंदिलवार सपन जी, अमिता रवि दूबे जी, संगीता वर्मा तरंगिणी जी,  सुधा रानी शर्मा जी, जागृति मिश्रा रानी जी, अरूणा साहू जी, सरोज साव जी, प्रभात कुमार शर्मा जी, मानक छत्तीसगढ़िया जी, राजेश कुमार निषाद रुद्र जी, धनेश्वरी सोनी गुल जी, गोवर्धन प्रसाद सूर्यवंशी जी, जितेन्द्र कुमार वर्मा जी, रवि रश्मि अनुभूति जी, व्यंजना आनंद मिथ्या जी, कृष्णा पटेल जी, प्रिया देवांगन प्रियू जी, विनोद कुमार जोगी, सरिता लहरे माही जी, चमेली कुर्रे सुवासिता जी, अनिल जांगड़े जी, डॉ मंजरी अरविंद गुरु जी, कमल कालु दहिया जी, आशा मेहर किरण जी, मनोज यादव भावरिया जी, सुन्दर लाल डडसेना मधुर जी, लक्ष्मी कांत सोनी प्रभु पग धूल जी, डॉ विनय कुमार सिंह जी, सुधीर श्रीवास्तव जी, गीता पाण्डेय अपराजिता जी, एवं सपना सक्सेना दत्ता सुहासिनी जी ने अपने अनुठे काव्यपाठ से कार्यक्रम में शमा बांधा।

कार्यक्रम की अंतिम कड़ी में विशिष्ट अतिथि आ. कृष्ण कुमार क्रांति जी, मुख्य अतिथि आ. दीपिका सुतोदिया सखी जी ने अपने मुखारविंद से उद्बोधन दिया। अंत में अध्यक्ष श्री तेरस कैवर्त्य आँसू जी ने आभार व्यक्त करते हुए यह घोषणा की कि आज के काव्य पाठ में प्रस्तुत कविताओं के संकलन से एक साझा संकलन प्रकाशित की जाएगी। साथ ही कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा करते हुए आगे भी इसी तरह के सफल आयोजन की कामना की।

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

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