एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।जैसी करनी वैसी भरनी यही*

*विधि का विधान है।।*


आज आदमी अनगिनत चेहरे

लगाये   हज़ार है।

ना जाने    कैसा     चलन  आ

गया   व्यवहार है।।

मूल्य अवमूल्यन    शब्द  कोरे

किताबी   हो गये।

अंदर कुछ अलग  कुछ  आज

आदमी   बाहर है।।


जैसी करनी वैसी भरनी  यही

विधि का विधान है।

गलत कर्मों की     गठरी लिये

घूम रहा   इंसान है।।

पाप पुण्य का अंतर  ही  मिटा 

दिया      है   आज।

अहंकार से भीतर    तक समा

गया    अज्ञान    है।।


बोलता अधिक कि ज्यादा बात

से बात खराब होती है।

मेरा ही  हक बस   यहीं से पैदा

दरार   होती          है।।

अपना यश कम दूसरों का अप

यश  सोचते  अधिक।

बस यहीं से शुरुआत        मौते

किरदार     होती   है।।


पाने का नहीं कि देने का दूसरा

नाम     खुशी     है।

जो जानता है देना वह     रहता

सदा      सुखी     है।।

दुआयें तो बलाओं का भी   मुँह

हैं      मोड़       देती।

जो रहता सदा लेने में वो   कहीं

ज्यादा  दुखी       है।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब।।             9897071046

                      8218685464

नूतन लाल साहू

 उद्देश्य


मानव जीवन का मूल उद्देश्य

मन की शांति प्राप्त करना है

मन की शांति से बढ़कर

इस दुनिया में

और कोई दौलत नहीं है

जिंदगी हमें,हमेशा ही

एक नया पाठ,पढ़ाती है

लेकिन हमें

समझाने के लिए नहीं,बल्कि

हमारी सोच बदलने के लिए।

मत लड़ मानव,भाग्य से

और ना ही उससे भाग

उचित दिशा में कर्म कर

मन में रख संतोष।

पहले समझो शून्य को

तब पाओगे ज्ञान

महाशक्ति है आत्मा

आत्म ज्ञान से ही,मनुष्य को

मन की शांति मिलती है।

जिसने जाना स्वयं को

वहीं असली साधक है

जो दुनिया के रंग में रंग गया

वो मन की शांति कहां पायेगा।

तरह तरह के धर्म हैं

तरह तरह के है संत

जिसने मारा,अहम को

वहीं असली संत

मानव जीवन का मूल उद्देश्य

मन की शांति प्राप्त करना है

मन की शांति से बढ़कर

इस दुनिया में

और कोई दौलत नहीं है।


नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-60

राम क नाम सदा सुखकारी।

प्रभु कै भजन होय हितकारी।।

     होंहिं अनंत-अखंड श्रीरामा।

     ब्रह्म स्वरूप,अतुल-बलधामा।।

दीनदयालु-परम हितकारी।

अति कृपालु, जग-मंगलकारी।।

      सत्य-धरम के रच्छा हेतू।

       राम अवतरेउ कृपा-निकेतू।।

तेज-प्रताप प्रखर प्रभु रामा।

दुष्ट-बिनास करहिं बलधामा।।

      राम अजेय-सगुन-अबिनासी।

       करुनामय-छबि-धाम-सदासी।।

प्रभु कै चरित इहाँ जे गावै।

अविरल भगति नाथ कै पावै।।

      प्रगट भए तहँ दसरथ राऊ।

       अतिसय मगन भए रघुराऊ।।

सानुज कीन्हा पितुहिं प्रनामा।

आसिस दसरथ दीन्हा रामा।।

      तव प्रताप-बल रावन मारा।

       सुनहु,पिता निसिचर संहारा।।

दसरथ-नयन नीर भरि आवा।

सुनि प्रभु-बचन परम सुख पावा।।

       पितुहिं रूप निज ग्यान लखावा।

      राम भगति तिन्ह देइ पठावा ।।

राम-भगति जब दसरथ पयऊ।

हरषित हो सुरधामहिं गयऊ।।

दोहा-देखि कुसल प्रभु राम कहँ,लखन-जानकी साथ।

        देवराज तब हो मुदित,बंदहिं अवनत माथ। ।।

                       डॉ0हरि नाथ मिश्र

                         9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 खूबसूरत यादें

         *गाँव की खुशबू*

बहुत याद आए वो मंज़र सुहाना,

बगीचे में जाना,नदी में नहाना।

पीपल-तले बैठ कर हो मुदित नित-

मधुर तान मुरली का रह-रह बजाना।।

              वो मंज़र सुहाना।


खेत को जोतते बजती बैलों की घंटी,

मंदिरों में भी घड़ियाल बजते सुहावन।

बहुत मन को भाता था गायों का चरना,

कूदते संग में उनके बछड़े मन-भावन।

कान में डाल उँगली जब गाता चरवाहा-

बहुत याद आए सुरीला वो गाना।।

             वो मंज़र सुहाना।।


खेत की सारी फसलें जो थीं लहलहाती,

चना और अरहर-मटर भी थी भाती।

बगल बाग में आम-महुवा की खुशबू,

याद सबकी हमें आज रह-रह सताती।

नहीं भूल पाता मेरा मन ये कोमल-

किसी माँ का लोरी गा शिशु को खिलाना।।

            वो मंज़र सुहाना।।


सरसों के फूलों का गहना पहन कर,

करती नर्तन थी सीवान भी मस्त होकर।

होतीं थीं प्यारी सी सुबहें सुहानी जो,

रात के तम घनेरे को शबनम से धोकर।

गाँव का प्यारा-सीधा-सलोना सा जीवन-

न भूले कभी पाठशाला का जाना।।

              वो मंज़र सुहाना।।


वो सावन की कजरी,वो फागुन का फगुवा,

झूलते झूले-रंगों के वो दिलकश नज़ारे।

आज भी जब-जहाँ भी रहूँ  मैं अकेला,

उनकी आवाज़ें हो एक मुझको पुकारे।

हाट-बाजार-मेलों की तूफ़ानी हलचल-

हो गया है असंभव अब उनको भुलाना।।

               वो मंज़र सुहाना।।


गाँव की गोरियों का वो पनघट पे जाना,

सभी का वो सुख-दुख को खुलके जताना।

पुनः निज घड़ों में रुचिर नीर भर कर ही,

मधुर गीत गा-गा कर,त्वरित घर पे आना।

चाह कर भी न भूलेगा वो प्यारा सा आलम-

था घूँघट तले उनका जो मुस्कुराना।।

          वो मंज़र सुहाना।।

          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

             9919446372

नूतन लाल साहू

 भरोसा


भरोसा बहुत बड़ी पूंजी हैं

यूं ही नहीं बांटी जाती,यह

खुद पर रखो तो ताकत और

दूसरों पर रखो तो

कमजोरी बन जाती हैं

सभी दुखो से मुक्ति का

निकला नहीं निचोड़

जिन मसलों का हल नहीं

उन्हें समय पर छोड़

प्रभु जी पर पूरी आस्था

रखता जो इंसान

उस इंसान के लिए है

दुःख सुख एक समान

जिसका मन हो संतुलित और

आपा कभी ना खोता है

वहीं इंसान इस जग में

सबसे अधिक सफल होता है

भरोसा बहुत बड़ी पूंजी होता है

भ्रम में पड़कर, जो खोदा पहाड़

हाथ कुछ नहीं आयेगा

इसको निश्चित जान

शक संशय को पालकर

इंसान नित रो रहा है

लोटे जैसा मत लुढ़क

स्थिर रह इंसान

खुद पर हो,अगर भरोसा तो

तेरा बिगड़ी काम,बन जायेंगे

भरोसा बहुत बड़ी पूंजी हैं

यूं ही नहीं बांटी जाती, यह

खुद पर रखो तो ताकत और

दूसरों पर रखो तो

कमजोरी बन जाती है


नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-59

लेइ सबहिं तब गयउ बिभीषन।

सिय पहँ तुरत लंक-कुलभूषन।।

      सबिधि सजाइ बिठाइ पालकी।

      रच्छक सँग लइ आय जानकी।।

धाए तहाँ तुरत कपि-भालू।

देखन जननी सियहिं दयालू।।

      तुरतै कहे राम रघुराया।

       पैदल लाउ सियहिं सुनु भाया।।

नाहिं त होहिहिं बहुत अनीती।

करिहउ तसै कहै जस नीती।।

     लखन जाउ अगिनिहिं उपजाऊ।

      तेहि मा सीते तब तुम्ह जाऊ।।

सुद्धिकरन मैं चाहूँ सीता।

होहु न तुम्ह सभ कछु भयभीता।

       सीता जानहिं प्रभु कै लीला।

        कीन्ह प्रबेस अनल गुन सीला।।

मन-क्रम-बचनहिं सीय पुनीता।

प्रभु-पद-पंकज बंदउ सीता ।।

       प्रगट भईं सँग अनल सरीरा।

        सत स्वरूप समच्छ रघुबीरा।।

लछिमिहिं अर्पेयु जस पय-सागर।

बिष्णुहिं तथा राम नय नागर।।

       अगिनि समरपेउ तैसै सीता।

       अति हरषित भे राम पुनीता।।

हरषित भए सभें सुर ऊपर।

बर्षा सुमन कीन्ह तब महि पर।।

      सोनकली जस नीलकमल सँग।

      सोहहिं सिय तस राम-बाम अँग।।

सोरठा-लखि सिय प्रभु के बाम,भे बहु हरषित भालु-कपि।

           आयसु पा श्रीराम, मातल गे तब इंद्र पहँ ।।

दोहा-आइ तुरत सभ देवगन,रामहिं बहुत सराहिं।

         धन्य नाथ जे तुम्ह हतेउ,रावन पापी आहिं।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                             9919446372

सुषमा दीक्षित शुक्ला

 आख़िर सजन के पास जाना


छुपा  निज उर शूल को ,

कितना कठिन  है मुस्कुराना ।


पहन अभिनय का मुखौटा ,

कठिन है अभिनय दिखाना ।


आह !इक अंदर समायी ,

इस दर्द को है कौन जाना ।


अब चाह अपनी भूलकर ,

है फ़र्ज का दीपक जलाना ।


राहें  अंधेरी  चीर कर  ,

इस पार से उस पार जाना ।


डाह किस्मत से करूँ क्यूँ,

आखिर सजन के पास जाना ।


अग्निपथ की ये परीक्षा ,

जीतकर प्रिय संग पाना ।


छुपा निज उर शूल को ,

कितना कठिन है मुस्कुराना ।


पहन अभिनय का मुखौटा ,

कठिन है अभिनय दिखाना ।


सुषमा दीक्षित शुक्ला

डॉ0हरि नाथ मिश्र

 *मधुरालय*

          *सुरभित आसव मधुरालय का*16

सब देवालय,सब ग्रंथालय,

जितने शिक्षा-सदन यहाँ।

सबके संचित ज्ञान-कोष की-

होती यहीं लिखाई है।।

      ज्ञान संग विज्ञान की शिक्षा,

      वैदिक शास्त्र,पुराणों की।

      मानव-मूल्यों की भी शिक्षा-

      इससे जग ने पाई है।।

औषधीय पद्धतियों का भी,

प्रतिपादक मधुरालय है।

रखे स्वस्थ यह जन-जन मन को-

नहीं वर्ण-टकराई है।।

     समतामूलक संस्कृति की यह,

     सदा सूचना देता है।

     यह मधुरालय बस प्रहरी सा-

     करता रात-जगाई है।।

विविध रूप-रँग-कला-केंद्र यह,

रखे बाँध इक धागे में।

शत्रु-भाव को कर अमान्य यह-

उपदेशक-समताई है।।

      अति विशिष्ट मधुरालय-आसव,

       विश्व-पटल का बन आसव।

       सातो सिंधु पार जा करता-

       अपनी पैठ-बिठाई है।।

भारतीय आदर्शों-मूल्यों,

की विदेश में शान बढ़ी।

श्वेत-श्याम की घृणित धारणा-

की जग करे खिंचाई है।।

      आसव तो है निर्मल-पावन,

      सोच-समझ मानव-मन की।

      मधुर सोच,रसभरी समझ ही-

      मन-रसाल-अमराई है।।

पावन आसव-सोच-पवित्रता,

मुदित मना करती नर्तन।

नृत्य-कला की बिबिध भंगिमा-

देख धरा लहराई है।।

आसव-असर-प्रभाव-पवित्रता,

पा पवित्र यह धरती हो।

मनसा-वाचा और कर्मणा-

जन-जन शुचिता छाई है।।

     पूरब-पश्चिम,उत्तर-दक्षिण,

      मधुरालय की चर्चा है।

     गौरव-गरिमा मातृ-भूमि यह-

     जग-बगिया महकाई है।।

स्नेह-भाव,सम्मान-सुहृद गृह,

मधुरालय रुचिरालय है।

गरल कंठ जा अमृत होती-

शिवशंकर-चतुराई है।।

      सदा रहा मन कंपित अपना,

      कैसा आसव-स्वाद रहे?

      पर आसव ने हरी व्यग्रता-

      नीति अमल अपनाई है।।

नव प्रभात ले,नई चेतना,

सँग नव ज्योति सदा फैले।

प्रगतिशील नित नूतन चिंतन-

की आसव विमलाई है।।

      सदा भारती ज्ञान की देवी,

      से आसव की शान बढ़े।

      मधुरालय की दिव्य छटा लखि-

      माँ वाणी मुस्काई है।।

एक घूँट बस दे दे साक़ी-

आसव की सुधि आई है।।

                  © डॉ0हरि नाथ मिश्र

                    9919446372

डॉ. निर्मला शर्मा

 🌺 बासन्ती उन्माद 🌺

        ******************************

नीला नीला आसमाँ,

फैला है चहुँ ओर।

बगुलों की ये पंक्तियाँ,

चली क्षितिज की ओर।

सूरज ने धरती को पहनाई ,

किरणों की चादर।

धरती ने पहना वह चोला ,

किया बसन्ती ऋतु का आदर।

हरियाली के ओज से, 

निखर उठी ये धरा।

नजर जहाँ भी डाल लो,

 मन बस वहीं ठहरा।

कली कली यूँ खिल उठी ,

जैसे हँसा बसन्त।

भँवरों की गुँजार से,

 मन मैं उठी उमंग।

धानी चूनर ओढ़ कर,

 ऐसा किया श्रृंगार।

वसुंधरा की आभा से,

 आलोकित हुआ संसार।

हरे, गुलाबी, नीले, पीले,

 फूल खिले है अनेक।

मनवा भरा आह्लाद से,

 हर्षित हुआ अतिरेक।

अभिलाषाओं की लहरियाँ,

 लेने लगी तरंग।

ह्रदय वेग से उड़ चला ,

जैसे चले तुरंग।


डॉ. निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

निशा अतुल्य

 सुप्रभात 

1.2.2021

*प्रेम*


कुछ दूर तुम चले 

कुछ हम 

आया एक झौंका

बिछड़ गए ।


ताप वो 

न तुम सह पाए

न हम 

एक ठंडी छाँव में 

दरखत बदल गए ।


लाल चुनर प्यार की

लगती थी जो मुझको भली

तुम्हारी काली साड़ी ने 

मायने बदल दिए ।


नैनो के कजरे में 

कभी छवि तुम्हारी थी

सो गए हैं ख़्वाब सारे 

और नैना खुल गए ।


गेसुओं में महका बेला

और मद्धम सांस हैं 

परछाइयों में ढूंढूं तुमको 

पर तुम न साथ थे ।


चलो बन जाए 

फिर से हम अज़नबी

राह में जब तुम मिलों तो

धड़कने न साथ दे ।


स्वरचित 

निशा"अतुल्य"

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 प्रेम-पथ(16/16)

प्रेम-डगर है ऊभड़-खाभड़,

इसपर चलो सँभल कर भाई।

इसमें होती बहुत परीक्षा-

असफल यदि,हो जगत-हँसाई।


दाएँ-बाएँ निरखत चलना,

सदा बिछे काँटे इस पथ पर।

थोड़ी बुद्धि-विवेक लगाना,

रहे नियंत्रण मन के रथ पर।

यदि हो ऐसी पथ की यात्रा-

निश्चित मिले सफलता भाई।।

      असफल यदि,हो जगत-हँसाई।।


जीवन-पथ को करे सुवासित,

विमल प्रेम की सुंदरता ही।

सात्विक यात्रा प्रेम-डगर की,

 करती प्रदत्त अमरता ही।

तन की नहीं हृदय की शुचिता-

यात्रा करती है सुखदाई।।

    असफल यदि,हो जगत-हँसाई।।


एक-दूसरे की चाहत यदि,

रहती प्रेम में एक समान।

तभी प्रेम-पथ हो निष्कंटक,

प्रेमी ऐसे होते महान।

इसी भाव को रख पथ-यात्रा-

करती रहती है कुशलाई।।

     असफल यदि,हो जगत-हँसाई।।


जिसने गिने मील के पत्थर,

उनका ही प्रेम अधूरा है।

यह तो पथ है दीवानों का,

जो बिना गिने पथ पूरा है।

जिसने समझा इसी मर्म को-

पथ-मिठास ही उसने पाई।।

    असफल यदि, हो जगत-हँसाई।।


पथ चाहे जैसा भी रहता,

सच्चा प्रेमी बढ़ता जाता।

प्रेम-गीत को गा-गा कर वह,

मंज़िल अपनी रहता पाता।

जीवन का उद्देश्य प्रेम है-

इसको माने सही कमाई।।

   असफल यदि,हो जगत-हँसाई।।

             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                 9919446372

डॉ.राम कुमार निकुंज

 दिनांकः ०१.०२.२०२१

दिवसः सोमवार

छन्दः मात्रिक

विधाः दोहा

विषयः वसन्त

शीर्षकः लखि वसन्त कवि कामिनी


खिली      मंजरी      माधवी   प्रमुदित      वृक्ष    रसाल।  

हिली     डुली  कलसी     प्रिया, हरित   खेत   मधुशाल।।१।।


वासन्तिक    पिक गान    से , मुदित    प्रकृति अभिराम।

बनी      चन्द्रिका  रागिनी , प्रमुदित     मन     सुखधाम।।२।।


मधुशाला       मधुपान      कर , मतवाला     अलिवृन्द।

खिली   कुसुम     सम्पुट  कली ,पा   यौवन   अरविन्द।।३।।


नवकिसलय     अति    कोमला ,  माधवी लता  लवंग।

बहे    मन्द  शीतल    समीर , प्रीत      मिलन   नवरंग।।४।।


नवप्रभात     नव किरण  बन ,स्वागत   कर  मधुमास।

दिव्य    मनोरम    चारुतम , नव जीवन     अभिलास।।५।।


खगमृगद्विज   कलरव  मधुर , सिंहनाद      अभिराम।

लखि     वसन्त   गजगामिनी , मादक रति  सुखधाम।।६।।


नव जीवन   उल्लास   बन , सरसों    पीत       बहार।

मंद      मंद    बहता    पवन ,   वासन्तिक    उपहार।।७।।


गन्धमाद    मधुमास      यह , उन्मादक     रतिकाम।

रोमांचित    प्रियतम   मिलन , आलिंगन    सुखधाम।।८।।


काम   बाण    संधान  से ,  मदन      मीत  ऋतुराज।

प्रीत   युगल  घायल   हृदय , चारु   प्रीति    आगाज़।।९।।


भव्य    मनोरम चहुँ   दिशा , कल  कल सरिता धार।

इन्द्रधनुष     सतरंग    नभ ,  वासन्तिक      उपहार।।१०।।


लखि वसन्त कवि कामिनी,ललित कलित सुखसार।

पी      निकुंज   रस  माधुरी ,  आनन्दित      संसार।।११।।



कवि✍️ डॉ.राम कुमार "निकुंज"

रचनाः मौलिक (स्वरचित)

नई दिल्ली

सुनीता असीम

 रूमाल में रखूँ यादें अपनी लपेट के।

मिटने लगे हैं हर्फ भी ज़हनी सलेट के।

****

दुनिया भरी है मोह व माया से चारसू।

जाएंगे एक दिन सभी बिस्तर समेट के।

****

झुलसा रही हैं गर्म हवाएं हमें तुम्हें।

लो आ गया है जेठ लिए लू लपेट के।

*****

कांटे मेरे बदन को तो फूलों की सेज भी।

करवट इधर उधर  ले रही थी मैं लेट के।

*****

बचपन हुआ जवाँ लो बुढ़ापा भी आ गया।

पर कृष्ण तो मिलेंगे सुना खुद को मेट के।

*****

सुनीता असीम

१/२/२०२१

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 खूबसूरत यादें

         *गाँव की खुशबू*

बहुत याद आए वो मंज़र सुहाना,

बगीचे में जाना,नदी में नहाना।

पीपल-तले बैठ कर हो मुदित नित-

मधुर तान मुरली का रह-रह बजाना।।

              वो मंज़र सुहाना।


खेत को जोतते बजती बैलों की घंटी,

मंदिरों में भी घड़ियाल बजते सुहावन।

बहुत मन को भाता था गायों का चरना,

कूदते संग में उनके बछड़े मन-भावन।

कान में डाल उँगली जब गाता चरवाहा-

बहुत याद आए सुरीला वो गाना।।

             वो मंज़र सुहाना।।


खेत की सारी फसलें जो थीं लहलहाती,

चना और अरहर-मटर भी थी भाती।

बगल बाग में आम-महुवा की खुशबू,

याद सबकी हमें आज रह-रह सताती।

नहीं भूल पाता मेरा मन ये कोमल-

किसी माँ का लोरी गा शिशु को खिलाना।।

            वो मंज़र सुहाना।।


सरसों के फूलों का गहना पहन कर,

करती नर्तन थी सीवान भी मस्त होकर।

होतीं थीं प्यारी सी सुबहें सुहानी जो,

रात के तम घनेरे को शबनम से धोकर।

गाँव का प्यारा-सीधा-सलोना सा जीवन-

न भूले कभी पाठशाला का जाना।।

              वो मंज़र सुहाना।।


वो सावन की कजरी,वो फागुन का फगुवा,

झूलते झूले-रंगों के वो दिलकश नज़ारे।

आज भी जब-जहाँ भी रहूँ  मैं अकेला,

उनकी आवाज़ें हो एक मुझको पुकारे।

हाट-बाजार-मेलों की तूफ़ानी हलचल-

हो गया है असंभव अब उनको भुलाना।।

               वो मंज़र सुहाना।।


गाँव की गोरियों का वो पनघट पे जाना,

सभी का वो सुख-दुख को खुलके जताना।

पुनः निज घड़ों में रुचिर नीर भर कर ही,

मधुर गीत गा-गा कर,त्वरित घर पे आना।

चाह कर भी न भूलेगा वो प्यारा सा आलम-

था घूँघट तले उनका जो मुस्कुराना।।

          वो मंज़र सुहाना।।

          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

             9919446372

दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

 औषधि अपना गुण न दिखाये, 

नहीं   व्याधि   को  ठीक  करे।

तब   समझो   सब  अंतिम  है,

अन्न जल भी खुद को खाक करे।।


देख चिता धू-धू जल लव रूप दिखाये,

मृत्यु  अटल  सत्य  बने  स्वीकार  करे।

जीवन   पथ   का   अंतिम   पड़ाव   है,

नवकिसलय का पथ सुलभ स्वीकार करे।।


श्मशान पर खुद में खुद को लोग मिले, 

करते  शाश्वत   सम्प्रभुता  की  तैयारी।

कैसी है दिल दुखाने  की  ये  रीति यहां,

क्षमा  भी  मांग  लेते  हैं  कर  विचारी।।


संकल्प  हृदय  पथ  के  अविचल,

तूफानों के उफानों से भरा है मन।

डाली से पत्ते के  झड़ने  सा  दु:ख

लिये फिरता है सारा जीवन मृत तन।।


निश्छल उर जो हो पूण्य आत्मा,

उनको ही स्वर्गासन मिल जाये।

पापी, कपटी, कलुषित  उर का, 

नरक  द्वार   ही   खुल   जाये।।


जीवन अमृत धरा धाम का, 

हर उर को पावन करता है।

भले न मानव रहता जग में,

उसकी अच्छाई आसन करता है।।



    दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

नूतन लाल साहू

 सफलता की कुंजी


इस संसार में अनेक कलाये है

पर जो दूसरों के हृदय को छू लें

वो सबसे बड़ा कलाकार हैं

भूतकाल और भविष्य पर

नहीं दीजिए, ध्यान

वर्तमान में ही रहकर

लाओ होठो पर मुस्कान

कल क्या होगा यह राज

कौन सका है जान

झेल लिया जिस शख्स ने

पीड़ा का संघर्ष

एक दिन उसके सामने

नमन करेगा हर्ष

सांसे हमारी सीमित है

मृत्यु खड़ी है द्वार

एक बात लिख लीजिए

नहीं सांच को आंच

शक संशय पालकर

व्यर्थ न जलाओ हाड

यह जीवन इक युद्ध है

कभी जीत तो कभी हार

सबसे मीठा बचन बोल

वाणी का बाण,घातक होता है

जो पाया सबका आशीष

वहीं श्रेष्ठ इंसान होता है

भक्ति में मस्त,हनुमान जी को देखो

हृदय में प्रभु राम दिखा डाला

श्री कृष्ण भक्ति में मस्त,मीरा को देखो

विष का प्याला को अमृत बना डाला

इस संसार में अनेक कलाये है

पर जो दूसरों के हृदय को छू लें

वो सबसे बड़ा कलाकार होता है


नूतन लाल साहू

मन्शा शुक्ला

 परम पावन मंच का सादर नमन

                 सुप्रभात  

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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मोर मुकुट है शीशपर,उर बैजन्ती माल।

रूप सलोना साँवरा,तिलक केसरी भाल।।


वंशी वट वेणू बजी, नटवर नंद किशोर।

गोप गोपिका मिल चले,सुन मुरली का शोर।।


 गोप बाल संग खाते,माखन माखनचोर।

 लीला नटखट दिखाते , नटवर नंदकिशोर।।



चित्त चुरा के ले गये ,मेरा मनहर श्याम।

मूरत राधे श्याम की,सुमिरन आठों याम।।


सुन्दर छवि राधे किशन,सुन्दर सुषमा धाम।।

जग की भव बाधा हरो,राधा मोहन श्याम।।

🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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मन्शा शुक्ला

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।चार दिन की चांदनी,खत्म सब*

*बात है।रह जाती जहाँ में, तेरे कर्मों*

*की सौगात है।।*

एक शब्द मन्त्र   और  एक 

शब्द गाली हो   जाता    है।

अपनी बोलचाल से व्यक्ति

मवाली      हो    जाता   है।।

शरीर और     मन की   भी 

इक     भाषा अलग  होती।

खो जाये यकीं गर आदमी

तब सवाली हो  जाता   है।।


हमेशा  प्रभु   की   कृपा  में

आप अपनी आस्था रखिये।

किस्मत में  कम  और  कर्म

से ज्यादा   वास्ता     रखिये।।

रहोगे काम    में   मगन  तो

कुछ बुरा       सोचोगे   नहीं। 

हर मुश्किल से निकलने का

जरूर   इक   रास्ता  रखिये।।


रुक  जाती   श्वास       फिर

ये  ठाठ   खत्म हो जाता है।

एक दिन   जाकर    जीवन

घाट पर   खत्म हो जाता है।।

याद रखो जीता    हुआ भी 

हार जाता        अहंकार से।

बनाकर रखो यूँ सब साहब

लाट  खत्म   हो     जाता है।।


चार दिन की चांदनी    फिर

तो बस    अंधेरी    रात   है।

इस जहान      में रह  जाती

बस तेरे    कर्मों की बात है।।

ज्ञान और नम्रता मिल   कर

बन     जाते हैं          अमृत।

यूँ ही जीना   जीवन   मिली

जिसकीअनमोल सौगात है।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।            9897071046

                     8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-58

कहे राम मैं नगर न जाऊँ।

पिता-बचन मैं तोरि न पाऊँ।।

     तुरत गए सभ तिलक करावन।

     कीन्हेउ तिलक-कर्म अति पावन।।

सादर ताहि बिठाइ सिंहासन।

बिधिवत देइ बिभीषन आसन।

      आए तुरत राम जहँ रहहीं।

      लेइ बिभीषन अपि ते सँगहीं।।

तब प्रभु राम बोलि हनुमाना।

कह लंका पहँ करउ पयाना।

       समाचार सभ सियहिं सुनावउ।

       कुसलइ-छेमु तासु लइ आवउ।।

तुरत पवन-सुत लंका गयऊ।

देखि निसिचरी तहँ तब अयऊ।।

     बिधिवत हनुमत-पूजा किन्ही।

     तब देखाइ बैदेही दीन्ही ।।

हनुमत कीन्हेउ सियहिं प्रनामा।

कुसलहि कहेउ सकल प्रभु रामा।।

     लखन साथ कपि-सेनहिं माता।

      लिए जीति दसमुख सुख-दाता।।

अबिचल राज बिभीषन पावा।

कृपानिधानहिं राम-प्रभावा ।।

      कुसलइ-छेमु जानि बैदेही।

      नैन नीर भरि कहेउ सनेही।।

का मैं तुमहिं देउँ हे ताता।

बिमल भगति जे दियो बिधाता।।

     मम हिय चाहूँ तोर निवासा।

      लछिमन सहित राम कै बासा।

सदगुन सदा रहहि तव हृदये।

प्रीति नाथ तव जुग-जग निभये।।

     अस कछु जतन करउ हनुमंता।

     देखहुँ साँवर तन भगवंता ।।

तुरत कीन्ह हनुमान पयाना।

समाचार रघुनायक जाना।।

दोहा-लेहु बिभीषन-अंगदहिं,पवन-तनय-हनुमान।

         कह रघुबर सादर सियहिं,लावहु इहँ सम्मान।।

                         डॉ0हरि नाथ मिश्र

                           9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *लेखनी के यशस्वी पुजारी*

कालिदास की उपमा उत्तम,बाणभट्ट की भाषा,

तुलसी-सूर-कबीर ने गढ़ दी,भक्ति-भाव-परिभाषा।

मीर व ग़ालिब की गज़लों सँग,मीरा के पद सारे-

"प्रेम सार है जीवन का",कह,ऐसी दिए दिलासा।।

                      बाणभट्ट की.........।।

सूत्र व्याकरण के सब साधे,अपने ऋषिवर पाणिनि,

वाल्मीकि,कवि माघ सकल गुण, पद-लालित्य में दण्डिनि।

कण्व-कणाद-व्यास ऋषि साधक,दे संदेश अनूठा-

ज्ञान-प्रकाश-पुंज कर विगसित,हर ली सकल निराशा।।

                   बाणभट्ट की.............।।

गुरु बशिष्ठ,ऋषि गौतम-कौशिक,मानव-मूल्य सँवारे,

औषधि-ज्ञानी श्रेष्ठ पतंजलि,रोग-ग्रसित जन तारे।

ऋषि द्वैपायन-पैल-पराशर,कश्यप-धौम्य व वाम-

सबने मिलकर धर्म-कर्म से,जीवन-मूल्य तराशा।।

                बाणभट्ट की.............।।

श्रीराम-कृष्ण,महावीर-बुद्ध थे,पुरुष अलौकिक भारी,

महि-अघ-भार दूर करने को,आए जग तन धारी।

करके दलन सभी दानव का,ये महामानव मित्रों-

कर गए ज्योतिर्मय यह जीवन,जला के दीपक आशा।।

              बाणभट्ट की...............।।

किए विवेकानंद विखंडित,सकल खेल-पाखंड,

जा विदेश में कर दिए क़ायम, भारत-मान अखंड।

श्रीअरविंदो ने भी करके,दर्शन का उद्घोष-

भ्रमित ज्ञान-पोषित-मन-जन की,दूर भगाया हताशा।।

              बाणभट्ट की...............।।

भारतेंदु हरिचंद्र हैं,हिंदी-कवि-कुल के गौरव,

उपन्यास-सम्राट,प्रेम ने दिया,कहानी को इक रव।

आचार्य शुक्ल,आचार्य हजारी,भाषा-मान बढ़ाए-

पंत-प्रसाद-निराला भी हैं,हिंदी-बाग-सुवासा।।

               बाणभट्ट की.............।।

यात्रा के साहित्य-पितामह,बहुभाषाविद राहुल,

बौद्ध-धर्म के अध्येता वे,पंडित महा थे काबिल।

सांकृत्यायन राहुल जी भी,ज्ञान-ध्वज फहराए-

ज्ञान-ज्योति-नव दीप जलाकर,दीप्त किए जिज्ञासा।।

            बाणभट्ट की............ ।।

गुप्त मैथिली-दिनकर-देवी,महावीर जी ज्ञानी,

सदानंद अज्ञेय प्रणेता-मुक्त छंद-विज्ञानी।

नीरज-बच्चन गीत-विधाता,सब जन को हैं प्यारे-

प्रखर लेखनी श्री मयंक की,अद्भुत वाग-विलासा।।

           बाणभट्ट की...............।।

नग़मा निग़ार चलचित्र-जगत के,सबने नाम किया है,

राही-हसरत-कैफ़ी-मजरुह ने,रौशन पटल किया है।

बख़्शी-अख़्तर-कवि प्रसून-अंजान सहित इंदीवर-

साहिर-शकील-गुलज़ार सभी ने,नूतन गीत तलाशा।।

         बाणभट्ट की................।।

धन्य धरा यह भारत है,जो जन्म दिया इन लोंगो को,

अध्यात्म-ध्यान,कर्तव्य-ज्ञान का,धर्म सिखाया लोंगो को।

ऋषि-मुनि-ज्ञानी-ध्यानी,सबने मान बढ़ाया माटी का-

"जीवन है अनमोल"तथ्य का,सबने किया खुलासा।।

            बाणभट्ट की............।।

                  

                  डॉ0हरि नाथ मिश्र

                  9919446372

रवि रश्मि अनुभूति

 9920796787****रवि रश्मि 'अनुभूति '


    🙏🙏


  दोहा छंद 

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प्रदत्त शब्द ----

पताका , मित्रता , आरोप , कामिनी , अपराधी , गुलाब , लगन , महिला , हृदय , अपरिचित ।


1 ) पताका 

प्रेम पताका तो सदा , फहराओ तुम मीत ।

ऊँची जितनी ही उड़े , होगी उतनी जीत ।।


2 ) मित्रता 

कान्हा ने की मित्रता , निभाई दिवस रात ।

सुदामा बने थे सखा , भात दिये सौगात ।।


3 ) आरोप 

आरोप लगा गोपियाँ , कहें चोर है श्याम ।

घबराये कान्हा नहीं , भले करें बदनाम ।।


4 ) कामिनी 

भले बनी है कामिनी , रूप सौंदर्य धार ।

मोहित कान्हा देखते , नैनन बने कटार ।।


5 ) अपराधी 

अपराध करो मान लो , पापी मन यह जान ।

सच्चे होते जो सदा , पाते हैं पहचान ।। 


6 ) गुलाब 

कोमल हृदय गुलाब सा , गुलाब सी हो आब ।

ख़ुशबू उठे गुलाब सी , उसका नहीं जवाब ।।


7 ) लगन 

बिना लगन न ईश मिले , जपो राम का नाम ।

पहुँचोगे हरि धाम ही , दुनिया से क्या काम ।।


8 ) महिला 

महिला मन है बावरा , सहनशील गंभीर ।

विचलित मन होता नहीं , रखे सदा ही धीर ।।


9 ) हृदय 

बसते मन में मोहना , रखे सदा ही ध्यान ।

बात - बात में दे रहे , हँसी हँसी में ज्ञान ।।


10 ) अपरिचित 

अपरिचित संग सदा ही , तोल मोल के के बोल ।

चाहे कोई भी रहे , भेद न दिल के खोल ।।

%%%%%%%%%%%%%%%%%%%


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '

29.1.2021 , 9:30 पीएम पर रचित ।

मुंबई   ( महाराष्ट्र ) ।

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🙏🙏समीक्षार्थ व संशोधनार्थ ।🌹🌹

 31.1.2021 .

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल--


हवा का ज़ोर इरादा डिगा नहीं सकता

चराग़े-इश्क़  हूँ कोई बुझा नहीं सकता

हुस्ने-मतला--


किसी के सामने सर को झुका नहीं सकता

वजूद अपना यक़ीनन मिटा नहीं सकता


फ़कत तुम्हारी ही मूरत समाई है दिल में 

इसे मैं चीर के सीना दिखा नहीं सकता 


किसी के प्यार से जान-ओ-जिगर महकते हैं

यक़ीन उसको ही लेकिन दिला नहीं सकता 


वो इस जहान में रुसवा कहीं न हो जाये 

किसी को दाग़ भी दिल के दिखा नहीं सकता 


बसी हैं ख़ुशबुएं इनमें उसी की सांसों की

ख़तों को इसलिए भी मैं जला नहीं सकता 


मुझे है आज भी चाहत तुम्हें मनाने की

सितारे तोड़ के हालाँकि ला नहीं सकता 


जला के ख़ुद को ये नस्लों को रौशनी दी है

ज़माना लाख भुलाये भुला नहीं सकता 


वो कर रहा है जफ़ा मुझसे बारहा *साग़र* 

ये और बात है रिश्ता मिटा नहीं सकता 


🖋️विनय साग़र जायसवाल 

बरेली 

2/11/2014

सुनीता असीम

 भरी आंखें मगर रोने न पाए।

सपन तेरे कभी सजने न पाए।

*****

विरह का योग प्रबल इतना था के।

सिकुड़ तन ये गया पर मरने न पाए।

*****

बड़ा था वेग मेरे आंसुओं का।

की हमने कोशिशें थमने न पाए।

*****   

निगाहे यार का हम थे निशाना।

रहे जिन्ह़ार हम लुटने न पाए।

*****

लुटे बेमोल मन के भाव सारे।

कि मोती इश्क के बहने न पाए।

*****

कन्हैया हो सुनीता के अगर तुम।

कहो वो बात हम कहने न पाए।

*****

सुनीता असीम

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-57

रोवत-बिलखत-पीटत छाती।

गई मँदोदरि रावन धाती ।।

     सहि नहिं सकी भार तव धरनी।

     तन तव नाथ आजु भुइँ परनी।।

कच्छप-सेष बिकल हो जाएँ।

परत भार तव बहु अकुलाएँ।।

      नाथ तुम्हार तेज बड़ चमकै।

      चंदन-अग्नि-तेज लखि लरकै।।

काल जितेउ तुम्ह भुज-बल नाथा।

आजु परेउ भुइँ असुध-अनाथा।।

     बायु-बरुन-कुबेरहिं जीतेउ।

      निज भुज-बल तुम्ह इंद्र घसीटेउ।।

नाथ-तेज जानहिं तिहुँ लोका।

पर तुम्ह दियो राम प्रभु सोका।।

     तव गति भई एही तें अइसन।

      जइसन करम मिलै फल तइसन।।

भयो बिनष्ट तोर कुल सारा।

बचा नहीं अब रोवनहारा।।

       सुनि बिलाप मंदोदरि बेवा।

         ब्रह्मा-सिव-सनकादिक देवा।।

नारद सहित सिद्ध मुनि-जोगी।

भए प्रसन्न मुदित सुख-भोगी ।।

     लगे निहारन संकट-मोचन।

      भरे नीर तें निज-निज लोचन।।

नारिन्ह बिलखत देखि बिभीषन।

पहुँचे तहाँ तुरत भारी मन ।।

      रावन-दसा देखि भे सोका।

      कीन्ह लखन समुझाइ असोका।।

किरिया-करम तुरत तब करई।

प्रभु कै कृपा-दृष्टि जब भवई।।

      तब मंदोदरि देइ तिलांजलि।

       की अरपित सभाव श्रद्धांजलि।।

दोहा-तब प्रभु राम बुला लखन,अंगद-निल-जमवंत।

         कह करु तिलक बिभीषनै, नल-कपीस-हनुमंत।

                            डॉ0हरि नाथ मिश्र

                               9919446372

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।बनो बीज कि दब भी गये तो*

*फिर उग जायो तुम।।*


दब जायो मिट्टी   में फिर भी

बीज से उग आओ तुम।

गिर जायो फिर  भी   संभल

कर उठ    आओ   तुम।।

बनो कोई ऐसी इक   नायाब

सी     तस्वीर       तुम।

मिट जायो फिर  भी     वैसी

ही  उकर आओ  तुम।।


आदमी    खोकर   भी जरूर

कुछ    सीखता     है।

व्यक्ति मुसीबत से  होकर भी

कुछ    सीखता     है।।

अंधेरा नहीं ज्यादा रोशनी भी

बनाती    है       अंधा।

हार के बाद   रोकर  भी बहुत

कुछ    सीखता     है।।


आज है जिंदगी  और कल  भी

रहेगी     ये     जिंदगी।

हर मुश्किल    का    हल     भी

रहेगी      ये    जिंदगी।।

जिन्दगी गर सवाल   तो  जवाब

भी है       ये जिन्दगी।

व्यक्ति की कमजोरी पर बल भी

रहेगी    ये     जिंदगी।।


वही होते    ऊंचे    जो  प्रतिशोध 

नहीं परिवर्तन सोचते हैं।

तोड़ते नहीं टूट      कर   फिर भी

खुद   को  जोड़ते    हैं।।

रंगों को       निखरने   के     लिए

पड़ता    है     बिखरना।

वही जीतते   हैं     जो  जीवन को

सही दिशा में मोड़ते हैं।।


*रचयिता।।एस के कपूर श्री हंस*

*बरेली।।*

मोब।।।          9897071046

                     8218685464

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