डॉ.राम कुमार झा निकुंज

 दिनांकः ०४.०२.२०२१

दिवसः गुरुवार

छन्दः मात्रिक

विधाः दोहा

विषयः शूल


भूल   सदा  करता  मनुज , जीवन को   अनुकूल।

चिन्तन यदि प्रतिकूल  मन , बने   भूल  नित शूल।।१।।


विरहानल आतप  मनसि , चुभते   दिल बन शूल। 

बाट   जोहती   प्रिय   मिलन , क्या  मैंने की भूल।।२।।


सम्प्रेषण     हो   जाँच   में , नैतिकता     हो  मूल।

खुले गबन का   पोल अब , चढ़े भ्रष्ट   नित  शूल।।३।।


जन   मन   शोषण   देखकर , यीशू मानस शोक। 

अलख   जगाया   शान्ति  का , शूल  चढे़  बेरोक।।४।।


भौतिकता    जंजाल   में , नैतिक पथ  नित भूल।

सत्य    विमुख  संघर्ष पथ , मर्माहत   दुख   शूल।।५।।


संघर्षी       सम्वेदना , पड़े     सत्य     पर   धूल।

स्वार्थ   धरा  होता सफल ,सच आहत छल शूल।।६।।


कुछ  द्रोही   बैठे   वतन ,  प्रगति  विरोधी  भूल।

न्याय क्रान्ति के नाम पर , दहशत     दंगा  शूल।।७।।


आन्दोलन  के नाम पर , भोंक   शूल  निज देश।

बस किसान भड़का रहे ,  देश विमुख  परिवेश।।८।।


राजनीति सत्ता   विमुख , तड़पे    सत्ता   भोग।

फँस  विदेश  षडयंत्र   में , बने    शूल    दुर्योग।।९।।


राष्ट्रधर्म   को   भूल कर ,  देश  हानि   आकूल।

ध्वज तिरंग अपमान  कर , लोकतंत्र     निर्मूल।।१०।।


लखि   निकुंज   मन वेदना , शूल   बने  गद्दार।

बेनकाब   साज़ीश   अब ,   राष्ट्र   द्रोह   संहार।।११।।


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"

रचनाः मौलिक (स्वरचना)

नई दिल्ली

डा0 हरिनाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-62

तपस-बेष अरु दूबर गाता।

नेम व धरम सहित मम भ्राता।।

      सुमिरत पल मोंहि कल्प समाना।

       केहि बिधि तुरत ताहिं पहँ जाना।

करहु राज तुम्ह एक कल्प भर।

सुमिरन करत मोंहि निज उर धर।।

      सुनत बचन प्रभु छुइ के चरना।

       गए बिभीषन पुनि निज भवना।।

भरि क बिमान प्रचुर मनि-बसना।

आए तुरत गहे प्रभु-चरना ।।

       सुनहु बिभीषन कह रघुराई।

        जावहु गगन बिमान उड़ाई।।

फेंकहु महि पे सभ पट-भूषन।

लैहैं तिनहिं सभें निज रुचि मन।।

      मुहँ-मुहँ पकरि तजहिं कपि-भालू।

       बिहँसहिं लखि सिय-राम कृपालू।।

तुम्हरे बल मैं रावन मारा।

राज बिभीषन-तिलक सँवारा।।

     कह प्रभु राम सुनहु कपि-भालू।

      जाहु गृहहिं निज होइ निहालू।।

निर्भय रहहु मोहिं उर धइ के।

कानन-बन-संपति लइ-लइ के।।

      सुनि अस बचन राखि हिय रामा।

      गए तुरत सभ निज-निज धामा।।

दोहा-कहि नहिं सके कछुक तहाँ,अंगद-नील-कपीस।

         नल-हनुमान-बिभीषनै,देखि कोसलाधीस ।।

सुनीता असीम

 चोट नहीं अब खानी है।

मरहम सिर्फ लगानी है।

***************

बदरा विरहा भड़काते।

कुदरत की शैतानी है।

******************

उन बिना सांस नहीं आती।

जीवन  भी   बेमानी    है।

******************

अपना समझूँ इस तन को।

ये   मेरी  नादानी      है।

********************

प्रेम करूँ केशव से बस।

दुनिया आनी जानी है।

*******************

माधव मुझको अपना लें।

ये  ही  मन  में  ठानी है।

*******************

तुममें मैं मिल जाऊं यूँ।

सागर  बूँद समानी  है।

*******************

सुनीता असीम

३/२/२०२१

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 गीत

          *गीत*(16/16)

 जीवन-सपना पूरा होता,

यदि तुम कहीं नहीं जाते तो।

अपनी प्रीति सफल हो जाती-

तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।


और नहीं कुछ माँगे थे हम,

केवल माँगे थे प्यार ज़रा।

नहीं सुने तुम विनय हमारी,

भाव न जाने भी प्रेम भरा।

यादें तेरी नहीं सतातीं-

नहीं ख़्वाब में यदि आते तो।

      तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।


कितनी प्यारी दुनिया लगती,

प्यारे चाँद-सितारे भी सब।

बाग-बगीचे,वन-उपवन सँग,

झील-नदी-सर-झरने भी तब।

खग-कलरव सँग मधुकर-गुंजन-

अति प्रिय लगते यदि गाते तो।

    तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।


राग-रागिनी की धुन मधुरिम,

धीरे-धीरे दिल बहलाती।

कड़क दामिनी गगन मध्य से,

विरह-ज़ख्म रह-रह सहलाती।

हरित भाव सब उर के होते-

बादल बन यदि बरसाते तो।

      तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।


पुष्प-वाटिका बिना भ्रमर के,

रीती-रीती सी लगती है।

बिना गुलों के गुलशन की छवि,

फ़ीकी-फ़ीकी सी रहती है।

जीवन-उपवन फिर खिल जाता-

बन भौंरा यदि मँडराते तो।

       तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।। प्रिती


बिना प्रीति के मानव-जीवन,

बहुत अधूरा सा लगता है।

तम छँट जाता प्रेम-दीप जब,

प्यारा पूरा सा जलता है।

ज्योतिर्मय हो जाता जीवन-

यदि आ दीप जला जाते तो।

     तुम यदि प्रीति निभा पाते तो।।

                 ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                    9919446372

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।। सारी दुनिया की आँख का*

*तारा, मैं हिंदुस्तान हूँ।।*

दुनिया   जहान     में  आला 

मैं       हिंदुस्तान हूँ।

सारे जग से      ही   निराला

मैं      हिंदुस्तान  हूँ।।

विरासत लेकर     चल  रहा

संस्कार संस्कृति की।

प्रेम अमन का   भरा प्याला

मैं    हिंदुस्तान    हूँ।।


अतिथि देवो भव   आचरण

मैं    हिंदुस्तान   हूँ।

ध्यान ज्ञान मंत्र     उच्चारण

मैं    हिंदुस्तान  हूँ।।

संकल्पना  आत्म   निर्भरता

का उदाहरण हूँ मैं।

बड़े  बुजुर्गों का वंदन चारण

मैं   हिंदुस्तान    हूँ।।


महाभारत की   महा    हाला

मैं  हिंदुस्तान    हूँ।

वेदों की   देव   दीप     शाला

मैं   हिंदुस्तान   हूँ।।

एकसौपैंतीस कोटिआशीर्वाद

अग्रसर कर्मपथ पर।

शत्रुओं लिए   भीषण  ज्वाला

मैं   हिंदुस्तान     हूँ।।


संत ऋषि मुनियों माटी    का

मैं   हिंदुस्तान    हूँ।

शौर्य गाथायों हल्दी  घाटी का

मैं    हिंदुस्तान   हूँ।।

वसुधैव कुटुम्बकम     पड़ोसी

धर्म  पालन  कर्ता।

विविधता में   एकता   चौपाटी 

का मैं हिंदुस्तान  हूँ।।


तेजी से विकास   राज  दुलारा

मैं    हिंदुस्तान    हूँ।

विश्वगुरु शांति दूत का उजाला

मैं     हिंदुस्तान  हूँ।।

सारे जग में    शान     अदभुत 

मेरी    निराली  है।

दुनिया   की   आँख  का  तारा

मैं     हिंदुस्तान हूँ।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।            9897071046 

                     8218685464

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल --


यूँ अपनी निगाहों में ज़िंदा  वो उजाले हैं

अहसास के जुगनू को हम आज भी पाले हैं


कुछ अपनी ख़ता ठहरी  कुछ दिल का तकाज़ा भी 

कुछ उनकी अदा के भी  अंदाज़ निराले हैं


कुछ हौसला देता है वो शख़्स इशारों से 

यूँ जान हथेली पर हम रखते जियाले हैं


यह कैसा गुमाँ होता  इस राहे मुहब्बत में

उनकी ही ज़ियाओं के हर सिम्त में हाले हैं


हर शाम जलाते हैं हम ख़ून चराग़ों में

तब जाके कहीं उनकी दुनिया में  उजाले हैं


इन्आम यही हमने पाया है मुहब्बत में 

होंठो पे हँसी नग़मे  तो पाँव में छाले हैं


साग़र न बदल जाये इस.दिल का इरादा भी 

हम उनकी विरासत को अब तक तो संभाले हैं 


🖋विनय साग़र जायसवाल

21/1/20 20

नूतन लाल साहू

 सत्य कथन


दुनिया में दान जैसी

कोई संपति नहीं है

लालच जैसा कोई और

रोग नहीं है

अच्छे स्वभाव जैसा कोई

आभूषण नहीं है

और संतोष जैसा

और कोई सुख नहीं है

शेष चीज का क्या पता

जग में निश्चित होगा या नहीं होगा

पर निश्चित है, एक दिन

सभी मानव का मृत्यु होगा

क्यों आया है तू,इस संसार में

इस रहस्य को,पहले जान

नहीं तो मिलती ही रहेंगी,वक्त से

जख्मों की सौगात

दुःख सुख तो मेहमान है

इक आयेगा इक जायेगा

कहते है,सब संत फकीर

जीवन एक सराय

जो करना है,आज कर

वक्त बहुत है,कम

टाइम टेबल प्रभु जी का

बदल सकय न कोय

तू तो अपना कर्म कर

काहे को घबराता है

माता पिता ही तो,साक्षात भगवान है

उनकी ही सेवा कर लें

भवसागर पार हो जायेगा

दुनिया में दान जैसी

कोई संपति नहीं है

लालच जैसा कोई और

रोग नहीं है

अच्छे स्वभाव जैसा कोई

आभूषण नहीं है

और संतोष जैसा

और कोई सुख नहीं है


नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-61

देवराज कह हे रघुराई।

तुमहिं कृपालु, तुमहिं सुखदाई।।

     हे रच्छक सरनागत स्वामी।

     मारेउ रावन सठ-खल-कामी।।

आपुन भगति देहु रघुनाथा।

महिमा तव अकथ्य गुन-गाथा।।

     चाहहुँ राउर मैं सेवकाई।

      सीता-लखन सहित तुम्ह पाई।।

जनक-सुता अरु लखन समेता।

बसहु हृदय मम कृपा-निकेता।।

      इंद्र-बचन सुनि कह रघुराई।

      रिच्छहिं-कपिनहिं देउ जियाई।।

मरे सबहिं बस मोरे कारन।

धरम तोर अब इनहिं जियावन।।

     इंद्र कीन्ह तब अमरित-बर्षा।

      जीवित भे सभ कपि-दल हर्षा।।

जीवित भया न निसिचर कोऊ।

पाइ मुक्ति प्रभु-कृपा ते सोऊ।।

      तेहि अवसर सिवसंकर आयो।

      जोरि जुगल कर बिनय सुनायो।।

रच्छ माम तुम्ह रघुकुल-भूषन।

रावन हते, बधे खर-दूषन ।।

     मोह-जलद-दल तुमहिं भगावत।

      संसय-बन महँ आगि लगावत।।

हे धनु सारँग-सायक धारी।

भ्रम-तम प्रबल,क्रोध-मद हारी।।

      बसहु आइ तुम्ह मोरे उर मा।

      सीय-लखन-स्याम बपु यहि मा।।

गए संभु जब बिनती कइ के।

आए तुरत बिभीषन ठहि के।।

      जोरि पानि बोले मृदु बानी।

       अति दयालु प्रभु तुम्ह कल्यानी।

रावन सहित सकल कुल मार्यो।

निसिचर सहित सबन्ह कहँ तार्यो।।

      मोंहि सिंहासन लंका दीन्हा।

       परम कृपा प्रभु मों पे कीन्हा।।

चलहु नाथ अब भवन मँझारे।

संपति-भवनहिं सबहिं तुम्हारे।।

     करि बिधिवत मज्जन-अस्नाना।

      भोज करहु जे लगइ सुहाना ।।

राजकोष प्रभु  तुम्हरै आहै।

देहु कपिन्ह जे जितना चाहै।

      कोष तुम्हार जानु मैं पूरा।

      सभ कछु जानूँ,नहीं अधूरा।।

दोहा-सुनहु बिभीषन मम बचन, कहहुँ बाति गंभीर।

         पुनि-पुनि सुधि मों आवहीं, भरत भ्रात प्रन-धीर।।

                     "©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                           9919446372

डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 दिनांकः ०२.०२.२०२१

दिवसः मंगलवार

विधाः कविता

विषयः जवानों की सहनशक्ति

शीर्षकः जवानों की सहनशक्ति नमन


जवानों की सहन शक्ति नमन,

संरक्षक प्रहरी    धैर्य     नमन,

रनिवासर  रत  भारत     सेवा,

जयकार वीर  योद्धा  चितवन। 


असहाय   पड़े  रक्षक जीवन,

क्षत विक्षत घायल  रक्त वदन,

कायर बुज़दिल  गद्दार  वतन,

सहता जवान  हर घाव दमन।


जख़्मी  होता रख अनुशासन,

आन तिरंगा  बस रखता  मन,

लाल किला मर्दित मान वतन,

आदेश विरत बस अश्रु नयन।


तन मन जीवन अर्पित रक्षण,

नित शीत धूप विप्लव  वर्षण,

तज मोह कुटुम्बी दिया  वतन,

बेवस व्यथित,पर अड़ा यतन।


दुर्दान्त क्लान्त दुष्कर जीवन,

जयगान वतन सीमान्त सघन,

रख लाज तिरंगा तन मन धन,

साहस अदम्य बलिदान वतन। 


हो  शौर्य  शक्ति   गुणगान  वतन,

पर आज जवान आहत तन  मन,

करूँ  सहन    शक्ति   वीर वन्दन,

सहे  सैन्य  कबतक   अवसादन।


आक्रोश हृदय  नित कवि लेखन,

कुछ    द्रोही   खल  गद्दार  वतन,

तुले   राष्ट्र   हित    मान     मर्दन,

दो   शक्ति  जवानों   को  शासन। 


ये    कृषक  नहीं  भारत दुश्मन,

दंगा  हिंसा   रत       आन्दोलन,

सरकार    विरोधी    जिद्दी   बन,

मंच  राजनीति  सज  नेता   गण। 


बस ध्येय अशान्ति , नहीं चिन्तन,

उन्माद  प्रसार  रत   ध्येय  जघन,

कुकृत्य  रत  बाधित    गमनागम,

दो स्व अधिकार  जवान    वतन।


कमजोर  न  समझो   सहनशील,

मत    गिराओ    मनोबल  जवान,

जाग्रत     सशक्त   प्रहरी   भारत,

हर   जवान  शान  सम्मान वतन।


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

रचनाः मौलिक (स्वरचित)

नई दिल्ली

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 अँधेरा छटेगा

      *गीत*(रौशनी न रही)

ये घटा घिर गई,रौशनी न रही,

ग़म न करना,अँधेरा छँटेगा ज़रूर।

रात आयी है इसको तो आना ही था-

ग़म न करना सवेरा  रहेगा ज़रूर।।ये घटा घिर.......


हैं जो बादल यहाँ, चंद लम्हों के हैं,

गर्मियाँ-सर्दियाँ सिर्फ़ कहने को हैं।

इनका आना हुआ,समझो जाना हुआ-

ग़म न करना बसेरा रहेगा ज़रूर।।ये घटा घिर........


यह जो तूफ़ान है,इसमें ईमान है,

फ़र्ज़ पूरा करेगा चला जाएगा।

इसको मेहमाँ समझ कर गले से लगा-

देखना,गम घनेरा घटेगा ज़रूर।।ये घटा घिर........


ज़िंदगी के कई रूप देखे हैं हम,

कभी खुशहाल है तो कभी बदहाल है।

वक़्त ये है बदलती घड़ी की तरह-

देखना,सुख का फेरा लगेगा ज़रूर।।ये घटा घिर........


भूख है,प्यास है,आस-विश्वास है,

शांति है,क्रांति है,इसमें उपवास है।

ज़िंदगी ऐसी गर,हम हैं करते बसर-

जग ये जन्नत का डेरा बनेगा ज़रूर।।ये घटा घिर........


अभी वक़्त का दौर नाज़ुक बहुत,

है चलना सँभल कर कठिन पथ बहुत।

अपने जीवन का रक्षक स्वयं ही बनो-

ज़िंदगी में तभी सुख मिलेगा ज़रूर।।ये घटा घिर..........।।

                     ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                        9919446372

अवधेश रजत

 *करदाता*

अर्थव्यवस्था टिकी हुई है कन्धे पर करदाता की,

सच्ची सेवा करते अविरल पुत्र ये भारत माता की।

शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षादि का बोझ माथ पर ढोते हैं,

इनके बल पर बीज खेत में भूमिपुत्र भी बोते हैं।

बिजली पानी गली सड़क और सब्सिडी की भरपाई,

राजकोष के घाटे की ये पाट रहे गहरी खाई।

सरकारी हर एक योजना का व्यय यही उठाते हैं,

सार्वजनिक सम्पत्ति पर हक़ अपना नहीं जताते हैं।

इनकी व्यथा कथा का होता असर नहीं सरकारों पर,

जीवन यापन करते हैं ये दो धारी तलवारों पर।

नियमों के निष्ठुर चाबुक से होते हैं भयभीत नहीं,

सबकुछ सहते फिर भी गाते राष्ट्रद्रोह के गीत नहीं।।

©अवधेश रजत

    वाराणसी

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *गीत*(16/14)

प्रिय परदेश छोड़,घर आओ,

अब वसंत आने को है।

कलियाँ खिल-खिल करें सुवासित,

अलि-गुंजन छाने को है।।


पतझड़ गया,कोपलें निकलीं,

तरु ने ली अँगड़ाई है।

बौर लग गए आम्र वृक्ष पर,

सजी-धजी अमराई है।

आम-डाल पर बैठ कोकिला-

गीत मधुर गाने को है।।

      अलि-गुंजन छाने को है।।


बहने लगा समीर फागुनी,

मादक-मादक,डगर-डगर।

मस्त लगें घर-आँगन सारे,

बस्ती-कुनबे, गाँव-नगर।

फूल रहीं सरसों खेतों  की-

प्रिय सुगंध लाने को है।।

    अलि-गुंजन छाने को है।।


तन-मन में नित आग लगाए, 

यह मधुमास बड़ा छलिया।

भले बदन को झुलसाता यह,

पर,अनुभव देता बढ़िया।

मधुर याद भी तेरी कहती-

अब मन मुस्काने को है।।

     अलि-गुंजन छाने को है।।


चला-चला कर पुष्प-वाण अब,

करे अनंग हृदय छलनी।

नहीं सजन जब संग रहें तो,

सुख पाए कैसे सजनी?

कहता मुझसे फाग प्यार से-

कंत-प्रेम पाने को है।।

     अलि-गुंजन छाने को है।।

       प्रिय परदेश छोड़,घर आओ,

       अब वसंत आने को है।।

                   © डॉ0हरि नाथ मिश्र

                        9919446372

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।जैसी करनी वैसी भरनी यही*

*विधि का विधान है।।*


आज आदमी अनगिनत चेहरे

लगाये   हज़ार है।

ना जाने    कैसा     चलन  आ

गया   व्यवहार है।।

मूल्य अवमूल्यन    शब्द  कोरे

किताबी   हो गये।

अंदर कुछ अलग  कुछ  आज

आदमी   बाहर है।।


जैसी करनी वैसी भरनी  यही

विधि का विधान है।

गलत कर्मों की     गठरी लिये

घूम रहा   इंसान है।।

पाप पुण्य का अंतर  ही  मिटा 

दिया      है   आज।

अहंकार से भीतर    तक समा

गया    अज्ञान    है।।


बोलता अधिक कि ज्यादा बात

से बात खराब होती है।

मेरा ही  हक बस   यहीं से पैदा

दरार   होती          है।।

अपना यश कम दूसरों का अप

यश  सोचते  अधिक।

बस यहीं से शुरुआत        मौते

किरदार     होती   है।।


पाने का नहीं कि देने का दूसरा

नाम     खुशी     है।

जो जानता है देना वह     रहता

सदा      सुखी     है।।

दुआयें तो बलाओं का भी   मुँह

हैं      मोड़       देती।

जो रहता सदा लेने में वो   कहीं

ज्यादा  दुखी       है।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब।।             9897071046

                      8218685464

नूतन लाल साहू

 उद्देश्य


मानव जीवन का मूल उद्देश्य

मन की शांति प्राप्त करना है

मन की शांति से बढ़कर

इस दुनिया में

और कोई दौलत नहीं है

जिंदगी हमें,हमेशा ही

एक नया पाठ,पढ़ाती है

लेकिन हमें

समझाने के लिए नहीं,बल्कि

हमारी सोच बदलने के लिए।

मत लड़ मानव,भाग्य से

और ना ही उससे भाग

उचित दिशा में कर्म कर

मन में रख संतोष।

पहले समझो शून्य को

तब पाओगे ज्ञान

महाशक्ति है आत्मा

आत्म ज्ञान से ही,मनुष्य को

मन की शांति मिलती है।

जिसने जाना स्वयं को

वहीं असली साधक है

जो दुनिया के रंग में रंग गया

वो मन की शांति कहां पायेगा।

तरह तरह के धर्म हैं

तरह तरह के है संत

जिसने मारा,अहम को

वहीं असली संत

मानव जीवन का मूल उद्देश्य

मन की शांति प्राप्त करना है

मन की शांति से बढ़कर

इस दुनिया में

और कोई दौलत नहीं है।


नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-60

राम क नाम सदा सुखकारी।

प्रभु कै भजन होय हितकारी।।

     होंहिं अनंत-अखंड श्रीरामा।

     ब्रह्म स्वरूप,अतुल-बलधामा।।

दीनदयालु-परम हितकारी।

अति कृपालु, जग-मंगलकारी।।

      सत्य-धरम के रच्छा हेतू।

       राम अवतरेउ कृपा-निकेतू।।

तेज-प्रताप प्रखर प्रभु रामा।

दुष्ट-बिनास करहिं बलधामा।।

      राम अजेय-सगुन-अबिनासी।

       करुनामय-छबि-धाम-सदासी।।

प्रभु कै चरित इहाँ जे गावै।

अविरल भगति नाथ कै पावै।।

      प्रगट भए तहँ दसरथ राऊ।

       अतिसय मगन भए रघुराऊ।।

सानुज कीन्हा पितुहिं प्रनामा।

आसिस दसरथ दीन्हा रामा।।

      तव प्रताप-बल रावन मारा।

       सुनहु,पिता निसिचर संहारा।।

दसरथ-नयन नीर भरि आवा।

सुनि प्रभु-बचन परम सुख पावा।।

       पितुहिं रूप निज ग्यान लखावा।

      राम भगति तिन्ह देइ पठावा ।।

राम-भगति जब दसरथ पयऊ।

हरषित हो सुरधामहिं गयऊ।।

दोहा-देखि कुसल प्रभु राम कहँ,लखन-जानकी साथ।

        देवराज तब हो मुदित,बंदहिं अवनत माथ। ।।

                       डॉ0हरि नाथ मिश्र

                         9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 खूबसूरत यादें

         *गाँव की खुशबू*

बहुत याद आए वो मंज़र सुहाना,

बगीचे में जाना,नदी में नहाना।

पीपल-तले बैठ कर हो मुदित नित-

मधुर तान मुरली का रह-रह बजाना।।

              वो मंज़र सुहाना।


खेत को जोतते बजती बैलों की घंटी,

मंदिरों में भी घड़ियाल बजते सुहावन।

बहुत मन को भाता था गायों का चरना,

कूदते संग में उनके बछड़े मन-भावन।

कान में डाल उँगली जब गाता चरवाहा-

बहुत याद आए सुरीला वो गाना।।

             वो मंज़र सुहाना।।


खेत की सारी फसलें जो थीं लहलहाती,

चना और अरहर-मटर भी थी भाती।

बगल बाग में आम-महुवा की खुशबू,

याद सबकी हमें आज रह-रह सताती।

नहीं भूल पाता मेरा मन ये कोमल-

किसी माँ का लोरी गा शिशु को खिलाना।।

            वो मंज़र सुहाना।।


सरसों के फूलों का गहना पहन कर,

करती नर्तन थी सीवान भी मस्त होकर।

होतीं थीं प्यारी सी सुबहें सुहानी जो,

रात के तम घनेरे को शबनम से धोकर।

गाँव का प्यारा-सीधा-सलोना सा जीवन-

न भूले कभी पाठशाला का जाना।।

              वो मंज़र सुहाना।।


वो सावन की कजरी,वो फागुन का फगुवा,

झूलते झूले-रंगों के वो दिलकश नज़ारे।

आज भी जब-जहाँ भी रहूँ  मैं अकेला,

उनकी आवाज़ें हो एक मुझको पुकारे।

हाट-बाजार-मेलों की तूफ़ानी हलचल-

हो गया है असंभव अब उनको भुलाना।।

               वो मंज़र सुहाना।।


गाँव की गोरियों का वो पनघट पे जाना,

सभी का वो सुख-दुख को खुलके जताना।

पुनः निज घड़ों में रुचिर नीर भर कर ही,

मधुर गीत गा-गा कर,त्वरित घर पे आना।

चाह कर भी न भूलेगा वो प्यारा सा आलम-

था घूँघट तले उनका जो मुस्कुराना।।

          वो मंज़र सुहाना।।

          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

             9919446372

नूतन लाल साहू

 भरोसा


भरोसा बहुत बड़ी पूंजी हैं

यूं ही नहीं बांटी जाती,यह

खुद पर रखो तो ताकत और

दूसरों पर रखो तो

कमजोरी बन जाती हैं

सभी दुखो से मुक्ति का

निकला नहीं निचोड़

जिन मसलों का हल नहीं

उन्हें समय पर छोड़

प्रभु जी पर पूरी आस्था

रखता जो इंसान

उस इंसान के लिए है

दुःख सुख एक समान

जिसका मन हो संतुलित और

आपा कभी ना खोता है

वहीं इंसान इस जग में

सबसे अधिक सफल होता है

भरोसा बहुत बड़ी पूंजी होता है

भ्रम में पड़कर, जो खोदा पहाड़

हाथ कुछ नहीं आयेगा

इसको निश्चित जान

शक संशय को पालकर

इंसान नित रो रहा है

लोटे जैसा मत लुढ़क

स्थिर रह इंसान

खुद पर हो,अगर भरोसा तो

तेरा बिगड़ी काम,बन जायेंगे

भरोसा बहुत बड़ी पूंजी हैं

यूं ही नहीं बांटी जाती, यह

खुद पर रखो तो ताकत और

दूसरों पर रखो तो

कमजोरी बन जाती है


नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-59

लेइ सबहिं तब गयउ बिभीषन।

सिय पहँ तुरत लंक-कुलभूषन।।

      सबिधि सजाइ बिठाइ पालकी।

      रच्छक सँग लइ आय जानकी।।

धाए तहाँ तुरत कपि-भालू।

देखन जननी सियहिं दयालू।।

      तुरतै कहे राम रघुराया।

       पैदल लाउ सियहिं सुनु भाया।।

नाहिं त होहिहिं बहुत अनीती।

करिहउ तसै कहै जस नीती।।

     लखन जाउ अगिनिहिं उपजाऊ।

      तेहि मा सीते तब तुम्ह जाऊ।।

सुद्धिकरन मैं चाहूँ सीता।

होहु न तुम्ह सभ कछु भयभीता।

       सीता जानहिं प्रभु कै लीला।

        कीन्ह प्रबेस अनल गुन सीला।।

मन-क्रम-बचनहिं सीय पुनीता।

प्रभु-पद-पंकज बंदउ सीता ।।

       प्रगट भईं सँग अनल सरीरा।

        सत स्वरूप समच्छ रघुबीरा।।

लछिमिहिं अर्पेयु जस पय-सागर।

बिष्णुहिं तथा राम नय नागर।।

       अगिनि समरपेउ तैसै सीता।

       अति हरषित भे राम पुनीता।।

हरषित भए सभें सुर ऊपर।

बर्षा सुमन कीन्ह तब महि पर।।

      सोनकली जस नीलकमल सँग।

      सोहहिं सिय तस राम-बाम अँग।।

सोरठा-लखि सिय प्रभु के बाम,भे बहु हरषित भालु-कपि।

           आयसु पा श्रीराम, मातल गे तब इंद्र पहँ ।।

दोहा-आइ तुरत सभ देवगन,रामहिं बहुत सराहिं।

         धन्य नाथ जे तुम्ह हतेउ,रावन पापी आहिं।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                             9919446372

सुषमा दीक्षित शुक्ला

 आख़िर सजन के पास जाना


छुपा  निज उर शूल को ,

कितना कठिन  है मुस्कुराना ।


पहन अभिनय का मुखौटा ,

कठिन है अभिनय दिखाना ।


आह !इक अंदर समायी ,

इस दर्द को है कौन जाना ।


अब चाह अपनी भूलकर ,

है फ़र्ज का दीपक जलाना ।


राहें  अंधेरी  चीर कर  ,

इस पार से उस पार जाना ।


डाह किस्मत से करूँ क्यूँ,

आखिर सजन के पास जाना ।


अग्निपथ की ये परीक्षा ,

जीतकर प्रिय संग पाना ।


छुपा निज उर शूल को ,

कितना कठिन है मुस्कुराना ।


पहन अभिनय का मुखौटा ,

कठिन है अभिनय दिखाना ।


सुषमा दीक्षित शुक्ला

डॉ0हरि नाथ मिश्र

 *मधुरालय*

          *सुरभित आसव मधुरालय का*16

सब देवालय,सब ग्रंथालय,

जितने शिक्षा-सदन यहाँ।

सबके संचित ज्ञान-कोष की-

होती यहीं लिखाई है।।

      ज्ञान संग विज्ञान की शिक्षा,

      वैदिक शास्त्र,पुराणों की।

      मानव-मूल्यों की भी शिक्षा-

      इससे जग ने पाई है।।

औषधीय पद्धतियों का भी,

प्रतिपादक मधुरालय है।

रखे स्वस्थ यह जन-जन मन को-

नहीं वर्ण-टकराई है।।

     समतामूलक संस्कृति की यह,

     सदा सूचना देता है।

     यह मधुरालय बस प्रहरी सा-

     करता रात-जगाई है।।

विविध रूप-रँग-कला-केंद्र यह,

रखे बाँध इक धागे में।

शत्रु-भाव को कर अमान्य यह-

उपदेशक-समताई है।।

      अति विशिष्ट मधुरालय-आसव,

       विश्व-पटल का बन आसव।

       सातो सिंधु पार जा करता-

       अपनी पैठ-बिठाई है।।

भारतीय आदर्शों-मूल्यों,

की विदेश में शान बढ़ी।

श्वेत-श्याम की घृणित धारणा-

की जग करे खिंचाई है।।

      आसव तो है निर्मल-पावन,

      सोच-समझ मानव-मन की।

      मधुर सोच,रसभरी समझ ही-

      मन-रसाल-अमराई है।।

पावन आसव-सोच-पवित्रता,

मुदित मना करती नर्तन।

नृत्य-कला की बिबिध भंगिमा-

देख धरा लहराई है।।

आसव-असर-प्रभाव-पवित्रता,

पा पवित्र यह धरती हो।

मनसा-वाचा और कर्मणा-

जन-जन शुचिता छाई है।।

     पूरब-पश्चिम,उत्तर-दक्षिण,

      मधुरालय की चर्चा है।

     गौरव-गरिमा मातृ-भूमि यह-

     जग-बगिया महकाई है।।

स्नेह-भाव,सम्मान-सुहृद गृह,

मधुरालय रुचिरालय है।

गरल कंठ जा अमृत होती-

शिवशंकर-चतुराई है।।

      सदा रहा मन कंपित अपना,

      कैसा आसव-स्वाद रहे?

      पर आसव ने हरी व्यग्रता-

      नीति अमल अपनाई है।।

नव प्रभात ले,नई चेतना,

सँग नव ज्योति सदा फैले।

प्रगतिशील नित नूतन चिंतन-

की आसव विमलाई है।।

      सदा भारती ज्ञान की देवी,

      से आसव की शान बढ़े।

      मधुरालय की दिव्य छटा लखि-

      माँ वाणी मुस्काई है।।

एक घूँट बस दे दे साक़ी-

आसव की सुधि आई है।।

                  © डॉ0हरि नाथ मिश्र

                    9919446372

डॉ. निर्मला शर्मा

 🌺 बासन्ती उन्माद 🌺

        ******************************

नीला नीला आसमाँ,

फैला है चहुँ ओर।

बगुलों की ये पंक्तियाँ,

चली क्षितिज की ओर।

सूरज ने धरती को पहनाई ,

किरणों की चादर।

धरती ने पहना वह चोला ,

किया बसन्ती ऋतु का आदर।

हरियाली के ओज से, 

निखर उठी ये धरा।

नजर जहाँ भी डाल लो,

 मन बस वहीं ठहरा।

कली कली यूँ खिल उठी ,

जैसे हँसा बसन्त।

भँवरों की गुँजार से,

 मन मैं उठी उमंग।

धानी चूनर ओढ़ कर,

 ऐसा किया श्रृंगार।

वसुंधरा की आभा से,

 आलोकित हुआ संसार।

हरे, गुलाबी, नीले, पीले,

 फूल खिले है अनेक।

मनवा भरा आह्लाद से,

 हर्षित हुआ अतिरेक।

अभिलाषाओं की लहरियाँ,

 लेने लगी तरंग।

ह्रदय वेग से उड़ चला ,

जैसे चले तुरंग।


डॉ. निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

निशा अतुल्य

 सुप्रभात 

1.2.2021

*प्रेम*


कुछ दूर तुम चले 

कुछ हम 

आया एक झौंका

बिछड़ गए ।


ताप वो 

न तुम सह पाए

न हम 

एक ठंडी छाँव में 

दरखत बदल गए ।


लाल चुनर प्यार की

लगती थी जो मुझको भली

तुम्हारी काली साड़ी ने 

मायने बदल दिए ।


नैनो के कजरे में 

कभी छवि तुम्हारी थी

सो गए हैं ख़्वाब सारे 

और नैना खुल गए ।


गेसुओं में महका बेला

और मद्धम सांस हैं 

परछाइयों में ढूंढूं तुमको 

पर तुम न साथ थे ।


चलो बन जाए 

फिर से हम अज़नबी

राह में जब तुम मिलों तो

धड़कने न साथ दे ।


स्वरचित 

निशा"अतुल्य"

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 प्रेम-पथ(16/16)

प्रेम-डगर है ऊभड़-खाभड़,

इसपर चलो सँभल कर भाई।

इसमें होती बहुत परीक्षा-

असफल यदि,हो जगत-हँसाई।


दाएँ-बाएँ निरखत चलना,

सदा बिछे काँटे इस पथ पर।

थोड़ी बुद्धि-विवेक लगाना,

रहे नियंत्रण मन के रथ पर।

यदि हो ऐसी पथ की यात्रा-

निश्चित मिले सफलता भाई।।

      असफल यदि,हो जगत-हँसाई।।


जीवन-पथ को करे सुवासित,

विमल प्रेम की सुंदरता ही।

सात्विक यात्रा प्रेम-डगर की,

 करती प्रदत्त अमरता ही।

तन की नहीं हृदय की शुचिता-

यात्रा करती है सुखदाई।।

    असफल यदि,हो जगत-हँसाई।।


एक-दूसरे की चाहत यदि,

रहती प्रेम में एक समान।

तभी प्रेम-पथ हो निष्कंटक,

प्रेमी ऐसे होते महान।

इसी भाव को रख पथ-यात्रा-

करती रहती है कुशलाई।।

     असफल यदि,हो जगत-हँसाई।।


जिसने गिने मील के पत्थर,

उनका ही प्रेम अधूरा है।

यह तो पथ है दीवानों का,

जो बिना गिने पथ पूरा है।

जिसने समझा इसी मर्म को-

पथ-मिठास ही उसने पाई।।

    असफल यदि, हो जगत-हँसाई।।


पथ चाहे जैसा भी रहता,

सच्चा प्रेमी बढ़ता जाता।

प्रेम-गीत को गा-गा कर वह,

मंज़िल अपनी रहता पाता।

जीवन का उद्देश्य प्रेम है-

इसको माने सही कमाई।।

   असफल यदि,हो जगत-हँसाई।।

             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                 9919446372

डॉ.राम कुमार निकुंज

 दिनांकः ०१.०२.२०२१

दिवसः सोमवार

छन्दः मात्रिक

विधाः दोहा

विषयः वसन्त

शीर्षकः लखि वसन्त कवि कामिनी


खिली      मंजरी      माधवी   प्रमुदित      वृक्ष    रसाल।  

हिली     डुली  कलसी     प्रिया, हरित   खेत   मधुशाल।।१।।


वासन्तिक    पिक गान    से , मुदित    प्रकृति अभिराम।

बनी      चन्द्रिका  रागिनी , प्रमुदित     मन     सुखधाम।।२।।


मधुशाला       मधुपान      कर , मतवाला     अलिवृन्द।

खिली   कुसुम     सम्पुट  कली ,पा   यौवन   अरविन्द।।३।।


नवकिसलय     अति    कोमला ,  माधवी लता  लवंग।

बहे    मन्द  शीतल    समीर , प्रीत      मिलन   नवरंग।।४।।


नवप्रभात     नव किरण  बन ,स्वागत   कर  मधुमास।

दिव्य    मनोरम    चारुतम , नव जीवन     अभिलास।।५।।


खगमृगद्विज   कलरव  मधुर , सिंहनाद      अभिराम।

लखि     वसन्त   गजगामिनी , मादक रति  सुखधाम।।६।।


नव जीवन   उल्लास   बन , सरसों    पीत       बहार।

मंद      मंद    बहता    पवन ,   वासन्तिक    उपहार।।७।।


गन्धमाद    मधुमास      यह , उन्मादक     रतिकाम।

रोमांचित    प्रियतम   मिलन , आलिंगन    सुखधाम।।८।।


काम   बाण    संधान  से ,  मदन      मीत  ऋतुराज।

प्रीत   युगल  घायल   हृदय , चारु   प्रीति    आगाज़।।९।।


भव्य    मनोरम चहुँ   दिशा , कल  कल सरिता धार।

इन्द्रधनुष     सतरंग    नभ ,  वासन्तिक      उपहार।।१०।।


लखि वसन्त कवि कामिनी,ललित कलित सुखसार।

पी      निकुंज   रस  माधुरी ,  आनन्दित      संसार।।११।।



कवि✍️ डॉ.राम कुमार "निकुंज"

रचनाः मौलिक (स्वरचित)

नई दिल्ली

सुनीता असीम

 रूमाल में रखूँ यादें अपनी लपेट के।

मिटने लगे हैं हर्फ भी ज़हनी सलेट के।

****

दुनिया भरी है मोह व माया से चारसू।

जाएंगे एक दिन सभी बिस्तर समेट के।

****

झुलसा रही हैं गर्म हवाएं हमें तुम्हें।

लो आ गया है जेठ लिए लू लपेट के।

*****

कांटे मेरे बदन को तो फूलों की सेज भी।

करवट इधर उधर  ले रही थी मैं लेट के।

*****

बचपन हुआ जवाँ लो बुढ़ापा भी आ गया।

पर कृष्ण तो मिलेंगे सुना खुद को मेट के।

*****

सुनीता असीम

१/२/२०२१

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