नूतन लाल साहू

 कर्म


कर्म का,धर्म से अधिक महत्व है

क्योंकि,धर्म करके

भगवान से मांगना पड़ता हैं

पर,कर्म करने से

भगवान स्वयं,फल देता है

पिंजरा रूपी काया से

स्वांस का पंछी बोले

तन है नगरी, मन है मंदिर

परमात्मा है जिसके अंदर

दो नैन है,पाक समुंदर

ओ पापी,अपने पाप को धो लें

हाथ में आया,रतन

लेकिन कदर न जानी

जानबूझकर तू,अनजान बनता है

जैसे सदा,तू जिंदा रहेगा

खुद ही खुद को तुम पहचानो

और करो,अमृत पान

उलझी हुई है,जिंदगी तेरी

कर्म कर,फिर से सजा लेे

गुरु की मूर्ति से ही सीख लें

एकलव्य,श्रेष्ठ धनुर्धर बन गया

माता पिता की सेवा कर

श्रवण कुमार का नाम,अमर हो गया

कर्म ही बनाता है

सपनों को साकार

जिसने भी सत्कर्म किया

उसका बेड़ा पार हुआ

कर्म का, धर्म से अधिक महत्व है

क्योंकि, धर्म करके

भगवान से मांगना पड़ता हैं

पर,कर्म करने से

भगवान स्वयं फल देता है


नूतन लाल साहू

डॉ निर्मला शर्मा

 भूकम्प


धैर्य धारिणी धरित्री का धैर्य जब

 खंड खंड हो जाता

धरती करती हो रौद्र कम्पन 

चहुँ ओर तांडव मच जाता

शोषण, दोहन और प्रतिबंधों की

 जब आँच सुलगती है

तब क्रोध की भीषण ज्वाला की 

लपटें धरती पे पहुँचती हैं

मानवीय तिरस्कार से आहत

जब वसुधा दहकती है

दारुण दुख का दरिया बन

भूकम्प में बदलती है

हो कम्प कम्प कम्पायमान

धरती करतल नृत्य करती है

सर्वत्र मचा है शोर और कोलाहल

मानव प्रजाति आर्त स्वर में क्रंदन करती है

ढह गई सभी अट्टालिकाएँ

सूनी पड़ी हैं सब वीथिकाएँ

सब नष्ट भृष्ट धरती करती है

गिरते कठपुतली से मानव

भूकम्प की लहर जब चलती है

चीत्कार मचा देता है भूकम्प

आपदा ये जब आती है

बचता न कोई इस त्रासदी से

आहत होता है जन जन

नष्ट कर जाता है सब कुछ

क्षण भर में ही मानव जीवन

ये प्राकृतिक आपदा बन

जाती बड़ी दुखदाई

तब मस्तक पर चिंता की रेखा खिंच

ये बात समझ में आई

धरती है पूज्या नहीं ये भोग्या

न करो तिरस्कार इसका तुम

है मानव जाति का सुदृढ़ आधार

रखो ध्यान इसका तुम


डॉ निर्मला शर्मा

दौसा राजस्थान

सुनीता असीम

 मन जब भी घबराता है।

तेरा साथ    सुहाता  है।

****

तू है मेरे तन      मन में।

जन्म जनम का नाता है।

****

तुझमें मैं  मुझमें  है  तू।

फिर क्यूँ हाथ छुड़ाता है।

****

दूर कभी पास हुए तुम।

रूप तेरा भरमाता है।

****

हम दोंनो जब मिल बैठें।

बातें  खूब     बनाता है।

****

तुझ बिन श्याम अधूरी मैं।

छोड़ मुझे क्यूँ  जाता है।

****

मिलता तू उसको केवल।

रोकर सिर्फ बुलाता है।

****

सुनीता असीम

१२/२/२०२१

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-7

भवन गए तब रघुकुल-नायक।

करुना-सिंधु राम,सुखदायक।।

      देखन लगे अटारिन्ह चढ़ि सब।

      साँवर रूप सराहहिं अब-तब।।

साजे रहे सभें निज द्वारा।

कनक-कलस सँग बन्दनवारा।।

      पुरे चौक गज-मुक्तन्ह द्वारे।

      गलिनहिं सकल सुगंध सवाँरे।।

चहुँ-दिसि गीति सुमंगल गावैं।

बाजा-गाजा हरषि बजावैं ।।

     जुबती करहिं आरती नाना।

      गावत गीति सुमंगल गाना।।

राम-आरती नारी करहीं।

सेष-सारदा सोभा लखहीं।।

      नारि कुमुदिनी,अवध सरोवर।

        सूरज बिरह रहे तहँ रघुबर।।

अस्त होत रबि लखि ते चंदा।

नारी कुमुद खिलीं सभ कंदा।।

      हरषित करत सभें भगवाना।

      कीन्ह भवन निज तुरत पयाना।।

जानि मातु कैकेई लज्जित।

प्रथम मिले मन मुदित सुसज्जित।।

      बहु समुझाइ राम तब गयऊ।

       आपुन भवन जहाँ ऊ रहऊ।।

जानि घड़ी सुभ सुदिन मनोहर।

द्विजन बुलाइ बसिष्ठ सनोहर।।

      कहे बिठावउ राम सिंहासन।

       पावहिं राम तुरत राजासन।।

सुनत बसिष्ठ-बचन द्विज कहहीं।

राम क तिलक तुरत अब भवहीं।।

     सुनत सुमंत जोरि रथ-घोरे।

     नगर सजा बोले कर जोरे।।

मंगल द्रब्यहिं अबहिं मँगायो।

अवधपुरी बहु भाँति सजायो।।

     सुमन-बृष्टि कीन्ह सभ देवा।

     सोभा पुरी चित्त हरि लेवा।।

राम तुरत सेवकन्ह बुलवाए।

सखा समेत सबहिं नहवाए।।

     पुनि बुलाइ भरतहिं निज भ्राता।

     निज कर जटा सवाँरे त्राता ।।

बंधुन्ह तिनहुँ सबिधि नहवाई।

गुरु बसिष्ठ कहँ सीष नवाई।।

     आयसु पाइ तासु रघुराऊ।

     छोरि जटा निज तहँ पसराऊ।।

पुनि प्रभु राम कीन्ह असनाना।

भूषन-बसन सजे बिधि नाना।।

दोहा-अनुपम छबि प्रभु राम कै, भूषन-बसनहिं संग।

        लखि-लखि छबि अभिरामहीं,लज्जित कोटि अनंग।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

                          9919446372

नूतन लाल साहू

 अभिमान छोड़ दें प्यारे


आसमान में उड़ने वाले

धरती मां को पहचान ले

हमेशा नहीं रहना है जग में

रहना है,दिन चार

अभिमान को छोड़ दें प्यारे

हे पिंजरे की,ये मैना

भजन कर लें,प्रभु श्री राम की

मिलता है सच्चा सुख केवल

प्रभु जी के चरणों में

अभिमान को छोड़ दें प्यारे

चाहे बैरी सब संसार बने

जीवन चाहे,तुझ पर भार बने

चाहे संकट ने,तुझे घेरा हो

चाहे चारो ओर अंधेरा हो

बाल न बांका कर सकें कोई

जिसका रक्षक कृपा निधान हो

अभिमान को छोड़ दें प्यारे

जो मिला है,वह हमेशा

पास नहीं रह पायेगा

मै,मेरा यह कहने वाला

मन किसी का है दिया

मै नहीं,मेरा नहीं

यह तन,किसी का है दिया

देने वाला ने दिया है

वह भी दिया,किस शान से

सूखी जीवन का,क्या राज है

पहले यह जान लीजिए

अभिमान छोड़ दें प्यारे

अंत समय,पछताएगा

गया समय,नहीं आयेगा

डरते रहो यह जिंदगी

कहीं बेकार न हो जाए

अभिमान हरै,सुख शांति

हर क्षण,इसे याद रख

अभिमान छोड़ दें प्यारे

आसमान में उड़ने वाले

धरती मां को पहचान ले

हमेशा नहीं रहना है,जग में

रहना है दिन चार

अभिमान को छोड़ दें प्यारे


नूतन लाल साहू

एस के कपूर श्री हंस

 *विषय।। बाग।।बगीचा।।उपवन।।*

*रचना शीर्षक।।हम सब फूल हैं*

*माँ भारती के उपवन के।।*

*विधा।।मुक्तक।।*

मेरा देश महान इक    गुलशन

बाग    बगीचा    है।

मराठी गुजराती जैन सिंधी  ने

मिल कर सींचा है।।

इसके फूलों के       रखवाले हैं

सिख  हिन्दू  ईसाई।

मुस्लिमों ने भी      देकर   साथ

गोरों से     खींचा है।।


माँ भारती का     यह     उपवन

एकता की मिसाल है।

हर पत्ता बूटा    दिखता    बहुत

ही       खुशहाल   है।।

एक फूल ना  तोड़ने    देंगें   इन

नापाक चालबाजों को।

हरियाली    इसकी       हर   रंग 

बहुत     बेमिसाल  है।।


हमारी  मातृभूमि    की   बगिया

विश्व में चमक रही है।

महक इसकी बहुत      दूर  तक     

दमक     रही       है।।

तिनका   पत्ता   डाली   महफूज

हर भारतीय के हाथ में।

छू न पायेगा बाड़े की   तार  यही

इसकी धमक     रही है।।


बेला चंपा चमेली   गुलाब    मिल

कर साथ  साथ हैं।

गेंदा जूही कनेर    मोगरा     लिये

हाथों में   हाथ  हैं।।

दिल बहुत   विशाल    बगिया का

दे चैन आराम दर्द में।

ध्येय देना शीतल छाया ओ करना

बस     परमार्थ    है।।


चारों ओर   आम    नीम    बरगद

की       दीवार     है।

चिनार चीड़ के दरख़्त   रोकते हर

तीरो     तलवार    हैं।।

गुलमोहर चंदन वृक्ष    महका   रहे

इस   बाग           को।

मातृभूमि माँ भारती   का    उपवन

चहक रहा बार बार है।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"।।बरेली*

मो 9897071046/8218685464

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल


गर्दिश में आ गये हैं क्या आज सब सितारे 

डूबी है नाव अपनी  आकर  के ही किनारे 


आवाज़ देते देते साँसें ही थम गयीं थीं

कोई भला कहाँ तक बोलो उन्हें  पुकारे 


जब मौसम-ए-बहाराँ में साथ तुम नहीं हो 

बेरंग  लग रहे हैं दिल को सभी नज़ारे


बचता भी मैं कहाँ तक उस शोख की नज़र से 

तक तक के तीर उसने मेरे जिगर पे मारे


राह-ए-सफ़र में इतनी दुश्वारियाँ थीं लेकिन

*मंज़िल पे आ गये हम बस आपके सहारे*


कैसे बताओ हमको यारो  सुकून आये 

नाराज़ जब हैं वोही जो खास हैं हमारे 


इस बात का ही *साग़र* दिल को मलाल होता

बरसे थे संग हम पर हाथो से ही तुम्हारे 


🖋️विनय साग़र जायसवाल

31/1/2021

मधु शंखधर स्वतंत्र

 गज़ल

122 122 122 122

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गुमां आप दिल में जो पाले हुए हैं।

यूँ हीं अंजुमन से निकाले हुए हैं।।


बदी आज भी दरबदर है भटकती,

 वफा़ की जुबा़ँ पर भी ताले हुए हैं।।


बसर करना मुश्किल रहा साथ जिसके,

खुदी आज उसके हवाले हुए हैं।।


अँधेरों में घिर के बहुत की मशक्कत,

कहीं जाके तब यह उजाले हुए हैं।।


तुम्हें ढूँढ़ते हर नगर हर गली में,

चलें कैसे पैरों में छाले हुए हैं।।


जिन्हें कर पराया किया दूर खुद से,

वही आज हमको सम्हाले हुए हैं।।


ज़माना हमें *मधु* करे याद कैसे

यहाँ हीर राँझा निराले हुए हैं।।

*मधु शंखधर स्वतंत्र*

*प्रयागराज*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *गजराज*(दोहे)

सज-धज कर शोभन लगे,चलत-फिरत गजराज।

मस्त चाल मन-भावनी,वन्य-जीव-सरताज ।।


ओढ़ दुशाला झालरी,पग-पहिरावा लाल।

मग में झूमत जा रहे,जैसे वे ससुराल ।।


सूँड़ लचीला तो रहे,पर वह गज-हथियार।

तोड़े झटपट तरु-शिखा,डाले मुख के द्वार।।


भीमकाय ये जंतु गज,रखें समझ बेजोड़।

स्वामिभक्त होते सदा,शत्रु-मान दें तोड़।।


युद्ध-भूमि में जा करें, अद्भुत कला-कमाल।

स्वामी की रक्षा करें,बनकर रण में ढाल।।


जंगल के हैं जीव ये,पर समझें संकेत।

निज कुल की रक्षा करें,रहकर सदा सचेत।।


रहें सदा ये झुंड में,करके गठित समाज।

रखें सोच नर भाँति गज,धन्य-धन्य गजराज।।

              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                   9919446372

निशा अतुल्य

 बसंत

12.2.2021

हाइकु


खोल नयन

देखे बसंत मुस्काय

उर्जित धरा।


कलियाँ खिली

धीरे से फूल बनी

हँसती धरा।


भँवर आए

मधुर राग सुनाए

कली मुस्काई ।


बाण चलाए

काम,रति हर्षाए 

उन्माद छाया ।


प्रेम की ऋतु

प्रणय निवेदन 

करें  हैं सभी ।


हैं ऋतुराज 

बसंत सुकुमार

हर्षित है मन ।


भूल सबको

अब ढूंढ स्वयं को

कुछ न यहाँ ।


हो आल्हादित

कर मन शृंगार 

हो सुवासित ।


स्वरचित

निशा"अतुल्य"

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *माँ*(दोहे)

माता का वंदन करें,पूजें चरण पखार।

पालन-पोषण माँ करे,देकर ममता-प्यार।।


स्वयं कष्ट सह-सह करे,निज सुत का उत्थान।

बेटा-बेटी उभय का,रखे  बराबर  ध्यान ।।


जीव-जंतु के जन्म का,केवल माँ आधार।

इसी लिए इस सृष्टि पर,माँ का है उपकार।।


माँ की कोख कमाल की,अद्भुत प्रभु की देन।

राम-कृष्ण को जन्म दे,रावण-कंस-सुसेन।।


मूर्ति यही है त्याग की,रखे न निज सुख-ध्यान।

हे जननी तुम धन्य हो, तेरा  हो   यश-गान ।।


माँ के ही व्यवहार से,निर्मित होय चरित्र।

नहीं हृदय यदि स्वच्छ है,हों संतान विचित्र।।


माँ चाहे जैसी रहे, माँ  है  ईश्वर-रूप ।

पूजनीय है माँ सदा,इसका रूप अनूप।।

            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                 9919446372

अखिल भारतीय साहित्यिक मंच)सहरसा


 *साहित्य साधक मंच के द्वारा कवि सम्मेलन का शानदार आयोजन*


10 फरवरी 2021 के संध्या साहित्य साधक (अखिल भारतीय साहित्यिक मंच)सहरसा ,बिहार द्वारा आहूत आनलाईन काव्य गोष्ठी जिसकी अध्यक्षता वरिष्ठ कवि साहित्यकार डॉ. राणा जयराम सिंह 'प्रताप' ने की।

इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवयित्री माधुरी डड़सेना 'मुदिता' जी थी l कार्यक्रम का श्री गणेश अध्यक्ष के द्वारा मां शारदे के प्रतिमा पर दीप प्रज्ज्वलन एवं विशिष्ट अतिथि के द्वारा माल्यार्पण के साथ हुआ, शिव प्रकाश साहित्य जी के शानदार संचालन में

कवयित्री डॉ. लता जी द्वारा सरस्वती वंदना की प्रस्तुति की गई।

प्रथमतः हरियाणा से उपस्थित सरला कुमारी द्वारा  किसान पर एक कविता प्रस्तुत की गई - 

"लिखती मैं किसान के लिए, लिखती मैं इंसान के लिए।

नहीं लिखती मैं धनवान के लिए, नहीं लिखती मैं भगवान के लिए।"

लखनऊ उत्तर प्रदेश से सरिता त्रिपाठी ने अपने कविता के माध्यम से कहा-प्रियतम तेरी याद में, हाल हुआ बेहाल। नैनो से आंसू झरे, तुमको नहीं ख्याल।।

छत्तीसगढ़ से आरती मैहर गीत ने श्रृंगार रस की एक कविता:-  देखें मैंने हैं कई सपने, होते उनमें मेरे अपने। पूरे कहां होते सपने,दगा दे जाते हैं अपने।

रायबरेली उत्तर प्रदेश से गीता पांडे अपराजिता ने प्रस्तुत किया:-सागर की गहराई में, जैसे कोई फूल खिला हो। कौन कहेगा अबला नारी, सचमुच तू तो सबला हो। वहीं इस कार्यक्रम में डॉ. विनय सिंह, फतेहपुर, उत्तर प्रदेश

,सुरंजना पाण्डेय, पश्चिमी चंपारण बिहार,प्रीति चौधरी "मनोरमा", बुलन्दशहर, उत्तरप्रदेश,अंजना सिन्हा रायगढ़,संदीप यादव, अधिवक्ता, उच्च न्यायालय-इलाहाबाद,डॉ लता,नई दिल्ली,रेखा कापसे "होशंगाबादी" म.प्र.,नीलोफ़र फ़ारूक़ी तौसीफ़, मुंबई,जितेन्द्र कुमार वर्मा खैरझिटीया छत्तीसगढ़,संतोष कुमार वर्मा"कविराज' कोलकाता,डॉ राजश्री तिरवीर, बेलगांव कनार्टक,अमर सिंह निधि, बाराबंकी, उत्तर प्रदेश,सुशीला जोशी, विद्योतमा, मुजफ्फरनगर,राधा तिवारी 'राधेगोपाल' उत्तराखंड,प्रियदर्शनी राज,जामनगर गुजरात,संतोष अग्रवाल,मध्य प्रदेश

मीना विवेक जैन, मंच के राष्ट्रीय सलाहकार सपना सक्सेना दत्ता, तोरणलाल साहू, अमित कुमार बिजनौरी, केवरा यदु मीरा, अनुश्री, सहित कई प्रतिभागियों ने प्रतिभाग किया।


वही दूसरे चरण में वर्तमान राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष शशिकांत शशि जी को राष्ट्रीय महासचिव, तथा सियाराम यादव मयंक को राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया गया साथ ही राष्ट्रीय मीडिया प्रभारी अमर सिंह निधि एवं सह मीडिया प्रभारी अमन आर्या को बनाया गया।

अपने उद्बोधन में मुख्य अतिथि आदरणीया माधुरी डड़सेना 'मुदिता' जी ने कहा:- बड़े हर्ष की बात है, कि आज साहित्य साधक मंच अपने ऊंचाई को छूने के लिए लालायित है,और इस दृष्टिकोण से सप्ताह भर में कई विधाओं में साहित्यकार सृजन कर रहे हैं। उन्होंने नवांकुर साहित्यकारों के प्रति विशेष स्नेह व्यक्त किया जो अपने जिज्ञासानुरूप अपने भावों को सर्जन विधा में स्थान देकर आगे बढ़ा रहे हैं । उन्होंने साहित्य साधक मंच के मुख्य अतिथि पद के रूपमें सबों के प्रति साधुवाद एवं आभार जताया। अध्यक्षीय उद्बोधन में आदरणीय डॉ. राणा जयराम सिंह 'प्रताप' ने साहित्यकारों को मंचीय अनुशासन का अनुपालन करते हुए निरन्तर साहित्य-साधना करते रहने और मंच को प्रगति-शिखर की ओर गतिमान करने की अपील की। अंत मेंमंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष कृष्ण कुमार क्रांति ने धन्यवाद ज्ञापन में मंच के समस्त साहित्यकारों के प्रति उनके योगदान के लिए साधुवाद और बहुत-बहुत आभार व्यक्त किया।

सुनीता असीम

 विषय-मां पर दोहे


मां की सेवा सब करो, कर दे बेड़ा पार।

तीन देव से है बड़ी,इसपर सब बलिहार।

***

मत मांगे तू भीख यूँ, करके हाथ पसार।

दुख भरे सुख करनी मां,महिमा अपरम्पार।

***

फैला देती रोशनी,देखे जिस जिस ओर।

मात कृपा हो हर दिशा,न ओर मिले न छोर।

***

आंचल में हो दुख भले, सुख की करे बयार।

महकाती है सृष्टि यूँ, जैसे  दाल  बघार।

***

जितनी हो सेवा करो,जब तक टूटे तार।

पछताना मत बाद में, दिना बचे हैं चार।

***

सुनीता असीम

११/२/२०२१

सुषमा दिक्षित शुक्ला

 बासन्ती विरह 


सुनु आया मधुमास सखि,

 लगा हृदय बिच बाण ।


देहीं तो सखि  है यहाँ ,

 प्रियतम ढिंग हैं प्राण ।


केहिके हित संवरूं सखी,

 केहि हित करूं सिंगार।


 बाट निहारूं रात दिन ,

क्यूँ सुनते नाहि पुकार।


 ऋतु बासन्ती सुरमई ,

पिया मिलन का दौर ।


 पियरी सरसों खेत में ,

बगियन  में है  बौर ।


कैसो ये मधुमास सखि,

जियरा  चैन ना पाय ।


नैनन से आंसू  झरत ,

उर बहुतहि अकुलाय ।


 पिय कबहूँ तो आयंगे ,

वापस घर की राह ।


बाट निहारूँ दिवस निसि ,

उर धरि उनकी चाह।


 सबके प्रियतम संग हैं ,

बस मोरे हैं परदेस।


 जियरा तड़पत रात दिन ,

याद नहीं कछु शेष ।


मन मेरो पिय सँग  है,

 ना भावे कोई और ।


वो दिन सखि कब आयगो ,

 पिय सिर साजे मौर ।


 रात दिवस  नित रटत हूँ,

 मैं उनही को नाम ।


उनके बिन ना चैन उर,

ना  मन को आराम ।


डर लागत है सुनु सखी ,

वह भूले तो नाह ।


 हम ही उनकी प्रेयसी ,

हम ही उनकी चाह।


ऋतु बासंती सुनु ठहर ,

जब लौं  पिया ना आय ।


तू ही सखि बन जा मेरी,

 प्रियतम  दे मिलवाय ।


 सुषमा दिक्षित शुक्ला

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *मधुमास*(चौपाइयाँ)

आया अब मधुमास सुहाना।

प्रियजन को है गले लगाना।।


आम्र-मंजरी महँ-महँ महँके।

खग-कुल प्रमुदित होकर चहके।।


मदमाते भौंरे मड़राएँ।

कलियाँ भी खिल-खिल इतराएँ।।


कमल-पुष्प सँग सर अति शोभन।

जिन्हें देख हर्षित हों लोचन।।


कोयल-बोल लगे मन-भावन।

प्रकृति सुंदरी-रूप सुहावन।।


प्रियतम की यादें हैं आतीं।

कहें लताएँ भी बलखातीं।।


कामदेव भी वाण चलाएँ।

सृष्टि-धर्म-दायित्व निभाएँ।।


है मधुमास तुम्हारा स्वागत।

अर्चन-वंदन हे अभ्यागत।।


थलचर-जलचर-नभचर सब में।

प्रेम-संचरण हो सब उर में ।।

           "©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                9919446372

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 माँ

           *माँ*

देती है जन्म माँ ही,तुमको भी और हमको,

कर लो सफल ये जीवन,छू-छू के उस चरण को।।


सह-सह के लाख विपदा,माँ ने तुम्हे है पाला,

गीले में खुद को रख कर,पोषा है निज ललन को।।


त्रिदेव को सुलाया,पलने पे माँ की ममता,

सीता को माँ है माना,शत-शत नमन लखन को।।


माता विधायिका है,है रक्षिका व पालिका,

झुकता रहे ये मस्तक,उसके ही नित नमन को।।


निर्मित है होती संस्कृति,माँ के ही संस्कारों से,

उनपर करो ही अर्पण,नित प्रेम के सुमन को।।


माँ ही तो होती लक्ष्मी,दुर्गा-सरस्वती भी।

हो प्रेम-वारि अर्पित,जीवन के इस चमन को।।


चिंतन व धर्म-कर्म की,है केंद्र-बिंदु माँ ही,

होने न व्यर्थ देना,उस ज्ञान-कोष-धन को।


माता से श्रेष्ठ होता,कोई नहीं जगत में,

रखना सदा सुरक्षित,शिक्षा-प्रथम-सदन को।।

                    © डॉ0हरि नाथ मिश्र

                      9919446372

मौनी अमावस्या आशुकवि नीरज अवस्थी

 आज मौनी अमावस्या के उपलक्ष्य में मेरे द्वारा रचितकुदरती दोहे--


घन के उर से कर रही रिमझिम बूंदे गान।

बिना भेद के कर रही अभिसिंचित श्रीमान।

भीग गया तन मन मेरा भीग गये है प्रान।

मौन अमावस्या सुखद हुआ करो स्नान।


मौन धरो दानी बनो जब तक यह में प्रान।

गुरुवारी मौनी पड़ी करो दान स्नान।

दान पुण्य के साथ ही करो प्रेम व्यवहार।

जन जन में उपजाइये शिक्षा प्रद सहकार।

ठिठुरन आयी लौट कर लगे सभी को शीत।

जीवन मे सबको मिले सीधा सच्चा मीत।

राग द्वेष मिट जाय सब संकट का हो अंत।

सबको शुभ कारी लगे सुंदर सुखद बसन्त।

सोमवती मौनी अमावस्या पर विशेष-

आत्मीय मित्रो आज सोमवती मौनी अमावस्या पर मौन व्रत एवम मौन रहते हुए स्नान का महत्व है।स्मृतिशेष मेरी पूज्य माता जी का कथन है कि "याक चुप्प म हजार बलाई टरती है" वास्तव में आप के पास सबसे बड़ा साधन अस्त्र शस्त्र है कोई तो वह मौन है अतः जब भी कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़े मौन आपको सारी समस्याओं से निजात देकर लक्ष्य तक पहुंचाएगा।आप सभी लोग सदैव प्रसन्न रहे।

आशुकवि नीरज अवस्थी मो0-9919256050

💐💐💐💐💐

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।। सूरत नहीं सीरत मायने रखती है*

*किरदार की जिन्दगी में।।*


जैसा देते आप     यहाँ वैसा

ही लौट कर    आता है।

विश्वास     घाती एक   दिन

खुद भी धोखा खाता है।।

आज नहीं तो    कल   मिल

जाता    है     छल  उन्हें।

आदर देने वाला ही   सामने

से      सम्मान   पाता है।।


तिल तिल कर    मरना  नहीं

मुस्करा कर ही जीना है।

वास्तविक आनंद  जीवन में

मेहनत  खून  पसीना है।।

छोड़ कर देखो    अहम   को

मंत्र जीने का आ जायेगा।

मत गवांना   इस जीवन  को

एक अनमोल नगीना है।।


कभी बहुत मुश्किल तो कभी

आसान    भी है  जिन्दगी।

कश्मकश भी बहुत  तो  कभी

नादान      भी है जिन्दगी।।

लाखों रंग समेटे हुए  जिन्दगी

अपनी   इस        जंग में।

हर   सवाल   का जवाब लिये

ऐसा इम्तिहान है  जिंदगी।।


हार और   जीत     तो  हमारी

सोच    का   किस्सा  है। 

गर मन में ठान लिया तो जीत

बनती हमारा हिस्सा है।।

वक्त की कद्र करो   तो  समय

करता  हमारी  इज़्जत।

किरदार की  खूबसूरती से  ही

मिटता    हर घिस्सा है।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।।           9897071046

                      8218685464

बच्चों के लिए स्कूल खुलने पर छोटी सी रचना - "आहिस्ता ही सही गुलज़ार हुई बगिया को देख, था तिमिर घिर चुका दानिस्ता तदबीर को देख"- दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

 बच्चों के लिए स्कूल खुलने पर छोटी सी रचना

            ______गज़ल_____

आहिस्ता ही सही गुलज़ार हुई बगिया को देख,

था तिमिर घिर चुका दानिस्ता तदबीर को देख।


अब कोरोना का ये दरिया थम गया है जहां में,

चल रहे थे कशमकश सारे हर नशेमन को देख।


खिल उठें  हैं  चेहरे नज़ारे  हैं अदीवा देख सारे,

है हक़ीकत शिक्षा का मंदिर उसकी अडीना को देख।


अब ये खुशियां वाबस्ता हैं बच्चों सी जागीर से,

दामन सारा भीग गया मुदर्रिस के हौसले को देख।


है ये गौरव शिक्षा जनसलभ कायद़े-कानून से

फैले गांव से शहरों तलक अब सफ़ीने को देख।


हम तो सजदे में खड़े हैं तहज़ीब के पेश-ए- नज़र,

फैली खुशियां अरुणिमा है व्याकुल मुदर्रिस को देख।


    दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल


गुलज़ार - खिला हुआ बाग-बगीचा

दानिस्ता तदबीर - सोच कर निकाली हुई युक्ति

नशेमन - घर, घोंसला

आदीवा - सुखद, कोमल

अडीना - पवित्र, गुडलक

वाबस्ता - जुड़ी हुई

मुदर्रिस - शिक्षक या अध्यापक

सफ़ीने - आदेश पत्र, समन, नाव, कश्ती

अरुणिमा - लालिमा




डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-6

भेंटेउ राम सत्रुघन भाई।

लछिमन-भरतहिं प्रीति मिलाई।।

     धाइ भरत सीता-पद धरेऊ।

    अनुज शत्रुघन साथहिं रहेऊ।।

सभ पुरवासी राम निहारहिं।

कौतुक की जे राम सराहहिं।।

     अगनित रूप धारि प्रभु रामा।

      मिलहिं सबहिं प्रमुदित बलधामा।।

सभकर कष्ट नाथ हरि लेवा।

हरषित सबहिं राम करि देवा।।

     रामहिं कृपा पाइ तब छिन मा।

     रह न सोक केहू के मन मा ।।

बिछुड़ल बच्छ मिलै जस गाई।

मातुहिं मिले राम तहँ धाई ।।

     मिलहिं सुमित्रा जा रघुराई।

      कैकइ भेंटीं बहु सकुचाई।।

लछिमन धाइ धरे पद मातुहिं।

कैकेई प्रति रोष न जातुहिं ।।

     सासुन्ह मिलीं जाइ बैदेही।

      अचल सुहाग असीसहिं लेही।।

करहिं आरती थार कनक लइ।

निरखहिं कमल नयन प्रमुदित भइ।।

    कौसल्या पुनि-पुनि प्रभु लखहीं।

     रामहिं निज जननी-सुख लहहीं।।

जामवंत-अंगद-कपि बीरा।

लंकापति-कपीस रनधीरा।।

     हनूमान-नल-नील समेता।

     मनुज-गात भे प्रभु-अनुप्रेता।।

भरतहिं प्रेम-नेम-ब्रतसीला।

बहुत सराहहिं ते पुर-लीला।।

      तिनहिं बुलाइ राम पुनि कहहीं।

       गुरु-पद-कृपा बिजय रन पवहीं।।

पुनि प्रभु कहे सुनहु हे गुरुवर।

ये सभ सखा मोर अति प्रियवर।।

      इनहिं क बल मों कीन्ह लराई।

       रावन मारि सियहिं इहँ लाई।।

ये सभ मोंहे प्रान तें प्यारा।

प्रान देइ निज मोहिं उबारा।।

      जदपि सनेह भरत कम नाहीं।

       इन्हकर प्रेम तदपि बहु आहीं।।

दोहा-सुनत बचन प्रभु राम कै, मुदित भए कपि-भालु।

         छूइ तुरत माता-चरन, छूए राम कृपालु ।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                             9919446372

नूतन लाल साहू

 रहस्य


अच्छा स्वास्थ्य सबसे बड़ा उपहार है

संतुष्टि सबसे बड़ा संपत्ति

मुस्कुराहट सबसे बड़ी ताकत, और

वफादारी सबसे अच्छा रिश्ता होता है

अजर, अमर,अविनाशी प्रभु जी

बिगड़े काम बनाता है

एकाध यदि न हो पाया तो

इंसान,क्यूं शोर मचाता है

अगर कुछ अहित हो भी जाए तो

खो मत देना होश

हरि की इच्छा समझकर

कर लेना संतोष

प्रारब्धो का योग फल है

दुःख सुख की सौगात

आम आदमी यूं लगा है

जैसे कि पिचका आम

संतुष्टि सबसे बड़ा संपत्ति और

मुस्कुराहट सबसे बड़ी ताकत है

होनी तो होकर ही रहेगा

बदल सका न कोय

चाहे कितना ही निरमा मलो

कौव्वा,हंस न होय

जिन प्रश्नों का हल,इंसान को

समझ में नहीं आ रहा है

उन्हें छोड़ दें,प्रभु जी पर

पर,समय बर्बाद न कर

समय आयेगा समय पर

इसको निश्चित जान

एक तुम्हारे ही नहीं है

सबके दाता है,प्रभु श्री राम

अच्छा स्वास्थ्य सबसे बड़ा उपहार है

संतुष्टि सबसे बड़ा संपत्ति

मुस्कुराहट सबसे बड़ी ताकत और

वफादारी सबसे अच्छा रिश्ता होता है


नूतन लाल साहू

नूतन लाल साहू

 आलस्य


जिसने कहां कल

दिन गया टल

जिसने कहां परसो

बीत गए बरसो

जिसने कहां आज

उसने किया राज

अंदर मन का ताला खोल

हो जायेगा,निज से पहचान

खुल गया,अंदर का कण कण तो

बढ़ जायेगी,जीवन की शान

दैव दैव तो आलसी पुकारे

दूर करे,आंखो का परदा

जग की ममता को छोड़

भगवान से नाता जोड़

जिस जिस ने प्रभु से प्यार किया

श्रद्धा से मालामाल हुआ

एक शब्द दो कान है

एक नज़र दो आंख है

यूं तो गुरु गोबिंद एक ही है

झांक सके तो झांक

मत उलझो, तुम

जहां के झूठे ख्यालों में

जो अपने को जान गया

वो ही भवसागर पार हुआ

पाया है,मानुष का यह तन

नर से तू बन जा,नारायण

वर्तमान को साथ ले

बीते से कुछ सीख

चाहता है,परम सुख तो

आलस्य को त्याग दें

जिसने कहां कल

दिन गया टल

जिसने कहां परसो

बीत गए बरसो

जिसने कहां आज

उसने किया राज


नूतन लाल साहू

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।लहरों से सीखिये गिर गिर कर*

*फिर उठना।।*


इक जर्रा भी      आफताब

बन   सकता   है।

इक लफ्ज़    भी   जज्बात

बन  सकता   है।।

करने वाले कर   देते  चाहे

हालात कैसे  हों।

डूबते को  तिनका भी बन

खैरात  सकता है।।


बुरे वक्त में ही    अच्छे   बुरे

की पहचान होती है।

ढूंढो समाधान  तो    जिंदगी

आसान    होती  है।।

बिखर  कर   भी     संवरना 

सीखो    दुनिया में।

फिर  हर       तकलीफ  दूर

आसमान  होती है।।


हर लहर   गिर    कर    नये

जोश से   उठती है।

हर कठनाई   हौंसलों     के

आगे झुकती    है।।

परीक्षा समझ   कर    सहो

हर   दुःख      को।

मुस्कराने से ही   तकलीफ

हर   रुकती     है।।


खुद पे रखो यकीन तो बुरा

वक्त    गुज़र जाता है।

सब्र से धागा  उलझनों  का

पल में सुलट जाता है।।

मन मस्तिष्क शीतल     रहे

हर     निर्णय      में।

बिगड़ कर भी   हर हालात 

फिर सुधर जाता है।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।।*

मोब।।।           9897071046

                      8218685464

निशा अतुल्य

 लेखनी और विचार

10.2.2021



बहती मन की भावना

कभी आँखों के रास्ते राह बनाती 

कभी लेखनी से पिघल जाती 

मैं हो कभी आहत 

संभलती,उठती,चलती जाती ।


विचारों की लौ जलाती नकारात्मकता 

जिसे नहीं समझ पाती दुनिया

करती परिहास विचारों का मेरे 

चलती लेकर संग बेवज़ह स्वयं की कुंठा ।


मन के उद्गार मेरे 

निरन्तर करते यात्रा

मन से मस्तिष्क तक 

बन कर ज्वाला निकलते

लेखनी से मेरे ।


पिघलते,मचलते,जलते विचार 

करें खड़ा 

बनाने को एक भगत,राजगुरु, आजाद 

 फिर से पाने को स्वतंत्रता 

अपनी मानसिक परतंत्रता से 

मन से मस्तिष्क तक उमड़ते

बिखरते,संवरते,पिघलती लेखनी से

हो पंक्ति बद्ध साथ मेरे चलते 

बहते मनोभाव मेरे ।


स्वरचित 

निशा"अतुल्य"

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल ----


कैसे उत्तर दे पाते हम दानिस्ता तदबीर से 

निकले हैं मफहूम हज़ारों उसकी इक तहरीर से


शायद उसको रोक रहीं हैं रस्मे-वफ़ा की ज़ंजीरें 

रो रो कर लिपटा जाता है वो मेरी तस्वीर से


प्यार मुहब्बत की यह दुनिया हर कोशिश आबाद रहे 

सारी ख़ुशियाँ वाबस्ता हैं इस दिल की जागीर से


कहने को तो सारी दूरी तय कर लेते हम यारो

बाँध दिये हैं पाँव किसी ने क़समों की ज़ंजीर से


ऐ दुनिया कुछ ख़ौफ नहीं है इन ऊँची दीवारों का 

हिम्मत वाले कब डरते हैं ख़्वाबों की ताबीर से


आँखों से आँसू बहते हैं दामन भीगा भीगा है 

कैसे दिल का हाल सुनायें हम उनको तफ़सीर से


शायद हम भी बिक ही जाते इन दिलकश बाज़ारों में

चलती रही है जंग हमारी सारी उम्र ज़मीर से


किस किस का अफ़सोस करें कैसे दिल के ज़ख़्म भरें

कर देता है वार कई वो ज़ालिम इक इक तीर से


हार गये हम एक नशेमन की तामीर में  ही *साग़र* 

बनते हैं यह  महलों से घर शायद सब तक़दीर से


🖋 *विनय साग़र जायसवाल*

दानिस्ता तदबीर -सोच कर निकाली हुई युक्ति

वाबस्ता-जुड़ी हुई 

ख़्वाबों की ताबीर-सपनों का फल 

नशेमन-घोंसला , घर ,नीड़

तफ़सीर-विस्तार ,व्याख्या सहित

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