डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-44

कहे तुरत सिवसंकर दानी।

तुमहिं न जनम-मरन-दुख हानी।।

     मानउ सत्य मोर अस बानी।

     मिटै न तोर ग्यान खगप्रानी।।

पहिला जनम अवधपुर तुम्हरो।

पायो राम-भगति तुम्ह सगरो।।

     द्विज-अपमान व संत-निरादर।

     यहि मा नहिं भगवान-समादर।।

जे बिबेक अस मन मा रखही।

नहिं कछु जग मा दुर्लभ रहही।।

      अस मुनि-बचन हरषि गुरु तहऊ।

      एवमस्तु कह निज गृह गयऊ ।।

प्रेरित काल बिन्ध्य-गिरि जाई।

रहेउँ भुजंग जोनि सुनु भाई।।

      तब तें जे तन मैं जग धरऊँ।

      बिनु प्रयास तजि नव तन गहऊँ।।

जे-जे तन धरि मैं जग आऊँ।

राम-भजन नहिं कबहुँ भुलाऊँ।।

       बिसरै नहिं मोहिं गुरू-सुभावा।

       कोमल-मृदुल नेह जे पावा ।।

द्विज कै जनम अंत मैं पाई।

लीला लखे बाल रघुराई।।

     प्रौढ़ भए पठनहिं नहिं भावा।

     जदपि पिता बहु चहे पढ़ावा।।

राम-कमलपद रह अनुरागा।

नहिं कछु औरउ मम मन लागा।।

      कहु खगेस अस कवन अभागा।

       कामधेनु तजि गर्दभि माँगा ।।

इषना त्रिबिध नहीं मन मोरे।

संपति-पुत्र-मान जे झोरे ।।

     सतत लालसा रह मन माहीं।

     कइसउँ दरस राम कै पाहीं।।

गिरि सुमेरु तब बट-तरु-छाया।

मुनि लोमस आसीनहिं पाया।।

     तातें सुने ब्रह्म-उपदेसा।

     अज-अनाम प्रभु अछत खगेसा।

निरगुन रूप ब्रह्म नहिं भावा।

ब्रह्म समग्र सगुन मैं पावा ।।

     राम-भगति-गति जल की नाई।

      मम मन-मीन रहहि सुख पाई।।

दोहा-सगुन रूप मैं राम कै, निरखन चाहुँ मुनीस।

        करु उपाय कछु अस मुनी,देखि सकहुँ प्रभु ईस।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                            9919446372

चंचल हरेंद्र वशिष्ट,हिंदी प्राध्यापिका,थियेटर शिक्षक एवं कवयित्री

 रचनाकार का नाम: श्रीमती चंचल हरेंद्र  वशिष्ट

माता का नाम: श्रीमती माया देवी शर्मा

पिता का नाम: श्री भूषण दत्त शर्मा 'कश्यप'

पति का नाम: श्री हरेन्द्र देव वशिष्ट

जन्मस्थान: बनखंडा,जिला हापुड़,उत्तर प्रदेश,भारत 

शिक्षा: एम.ए.-हिंदी, एम.एड.,

पोस्ट एम ए हिंदी लिंग्विस्टिक डिप्लोमा कोर्स,(केंद्रीय हिंदी संस्थान) नई दिल्ली

थियेटर एप्रीसिएशन कोर्स( राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) नई दिल्ली

उर्दू सर्टिफिकेट कोर्स ( दिल्ली उर्दू अकादमी) दिल्ली

व्यवसाय: हिंदी भाषा प्राध्यापिका(सेंट एंथनी सीनियर सेकेंडरी स्कूल,नई दिल्ली )हिन्दी विभागाध्यक्षा एवं थियेटर प्रशिक्षक।

रंगमंच विशेषतः नुक्कड़ नाटकों से सम्बद्ध। 

प्रकाशित रचनाओं की संख्या: विद्यालय पत्रिका में समय-समय पर बहुत सी रचनाएं प्रकाशित।

विभिन्न समाचारपत्रों में रचनाएं प्रकाशित।

प्रकाशित एकल पुस्तकें: अभी कोई नहीं,

पहली पुस्तक प्रकाशन की प्रक्रिया में।

साझा काव्य संग्रह: अभी तक पांच साझा काव्य संग्रह  में रचनाएँ प्रकाशित।

विश्व हिंदी संस्थान,कनाडा, विश्व हिन्दी रचनाकार मंच, महिला काव्य मंच, दक्षिणी दिल्ली इकाई की सक्रिय सदस्य, ट्रू मीडिया तथा चित्रगुप्त प्रकाशन समूह से संबद्ध।

ऑल इंडिया हिन्दी उर्दू एकता ट्रस्ट (रजि) से सम्बद्ध एवं अनेक साहित्यिक संस्थाओं से संबद्धता।

काव्य पाठ :  विद्यालय तथा अनेक मंचों पर काव्यपाठ। 

विद्यालय में विभिन्न उत्सवों एवं कार्यक्रमों में मंच संचालन,संयोजन आदि।

गतिविधियां: समाज सेवा, हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार एवं उत्थान हेतु प्रयासरत,

नुक्कड़ नाटकों का आयोजन एवं निर्देशन आदि , हिन्दी भाषा ज्ञान कक्षाएं आदि।

सम्मान: महिला काव्य मंच, गाजियाबाद इकाई द्वारा सम्मान पत्र, 

चित्रगुप्त प्रकाशन द्वारा हिन्दी दिवस पर रचना एवं एक आलेख के लिए विशेष सम्मान पत्र ,

आॅल इंडिया हिन्दी उर्दू एकता मंच की ओर से साहित्य साधना सम्मान पत्र एवं अनेक सम्मान पत्र, सहभागिता पत्र आदि।

विशेष गौरवपूर्ण: मेरी स्वरचित दो रचनाएँ अंतर्राष्ट्रीय काव्य प्रेमी मंच पर काव्य सृजन एवं काव्य पाठ के माध्यम से गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज़!

ऑनलाइन काव्य गोष्ठियों में प्रतिभागिता,यूट्यूब पर आॅडियो,वीडियो काव्य प्रसारण आदि।

विशेष:  विभिन्न मंचों पर स्वरचित सरस्वती वंदना गायन,काव्य की अलग अलग विधा में

रूचि: हिन्दी साहित्य पठन, विशेषकर काव्य विधा में लेखन, कविता एवं पटकथा लेखन, रंगमंचीय गतिविधियां।

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चंचल हरेंद्र वशिष्ट, हिन्दी विभागाध्यक्षा,

हिन्दी प्राध्यापिका,थियेटर प्रशिक्षक, कवयित्री एवं समाज सेवी

आर के पुरम,नई दिल्ली

9818797390


' उठो! राष्ट्र के वीर '


उठो! राष्ट्र के वीरों,तुम गरजो और हुंकार भरो

जो आंख उठे हिंद की ओर तुम उसका संहार करो

हम अमन ,शांति के वाहक हैं, युद्ध नहीं नीति अपनी

पर जो जैसी भाषा बोले उस पर वैसा ही वार करो।


रिपु दमन को समर क्षेत्र में,निज प्राण हथेली पर रखकर

अर्जुन सम लक्ष्य साधकर तुम,कर्मपथ स्वीकार करो

युद्धवीर तुम, कर्मवीर तुम, अतुलित महाबली तुम

तान के सीना रण में , अरि के सीने पर वार करो।


उठो! देश के नव प्राण,दिखा दो ताकत उस शत्रु को

अपनी सबल भुजाओं से शत्रु दल पर प्रहार करो

मातृ भूमि की आन, बान और शान बचाए रखने को

मिट्टी में मिलाकर शत्रु,निज माटी पर प्रत्युपकार करो।


चुनौतियों की चट्टानों को अदम्य साहस से भेद के तुम

शत्रु की कुटिल नीतियों पर,तुम फ़ौलादी वार करो

वंदे मातरम् और जय हिंद,सज़ा के अपने मस्तक पर

जोश की ज्वाला उर में भरकर,पैनी तलवार की धार करो।


महाराणा,सुभाष के तुम वंशज,धीर,वीर और पराक्रमी

याद करो अपनी आज़ादी,फिर से आज ललकार करो

विजय तिलक और गौरव गान से मातृभूमि सुशोभित हो

लहरा के अपनी विजय पताका,भारत की जय जयकार करो।


स्वरचित एवं मौलिक रचना:

चंचल हरेंद्र वशिष्ट,हिन्दी भाषा शिक्षिका,रंगकर्मी एवं कवयित्री

आर के पुरम,नई दिल्ली

9818797390




शीर्षक: कलम की तकदीर


मैं तो माँ वाणी का वरदान मानी गई हूं पर... क्या हुआ है मेरी तक़दीर को.... ? 

यही सोचकर...

यही सोच करके ...वो

कलम भी आज फूट फूट कर रोई है

क्या लिखूं फिर से वही  कुकृत्य ?,

क्या लिखूं बेबसी पीड़िता की?

क्या फिर से लिखूं लचर प्रशासन और सुस्त कानून, 

क्या लिखूं दरिंदगी इन वहशियों की?

क्या यही रह गया लिखने को?

क्या ये वही हिंद नहीं,जहां मैंने लिखी गौरव गाथाएं वीरांगनाओं की और विदुषियों की विद्वता के बखान किए?

तो क्यूं आज मैं समाज की कालिख पर स्याही बिखेरने के काम आती हूं?

क्यूं नहीं टूट जाती मैं ये सब लिखने से पहले?

क्यूं नहीं लिख पाती मैं इन दुष्कर्मियों की सज़ा ए मौत का ऐलान...तुरंत?

क्यूं रुकती, लड़खड़ाती हूं बार बार न्याय दाताओं के हाथ में? 

मैं सिर्फ़ कहानी, किस्से,कविता और लेख लिखने के लिए ही तो नहीं, मैंं इंसाफ़ ,हक, सत्य और सज़ा देने के लिए भी तुम्हारे हाथ में हूं,....

तो क्यूं नहीं लिखते वो जो सच है जो न्याय संगत है ?

इसलिए आज कहती है ये कलम कि कितने भी कुकृत्य लिख लो इनके ,कितनी भी शर्म दिलाओ इन्हें

कितनी भी थू थू करो,कितनी भी सज़ा दिलाओ इन्हें,

अपनी मां का दूध लजाने वालों को लाज कहां आती है?

इनके कुकृत्यों पर तो धरती माँ भी थर्राती है

इन बेशर्मों का केवल एक ही इलाज है

सौंप दो इन्हें ,इनकी सज़ा खुद समाज है

जनता की कोई सुनवाई नहीं,कानून भी लचर है

जनता हिसाब कर देगी तुरंत ही ,पुलिस,कोर्ट सब बेअसर हैं

सरकारी राशन मुफ्त उड़ाते रहते, सालों तक पड़े पड़े ये

फिर भी बच जाते, अनुकूल दण्ड न पाते ये,

उल्टा लटका के नंगा,इनकी चमड़ी उतारो 

तड़पने दो इन्हें, जान से न मारो।

चील,कौओं,गिद्धों के सामने छोड़ दो

इनके जिस्म का माँस ऐसे ही नोंचने दो।


चंचल हरेंद्र वशिष्ट, हिन्दी भाषा शिक्षिका,रंगकर्मी एवं कवयित्री

नई दिल्ली





'ललकार '


रणचंडी,लक्ष्मी,दुर्गा,काली,मैं ही तो हूँ

लक्ष्मीबाई,सरोजिनी नायडु ,मैं ही तो हूँ


कल्पना भी,किरण बेदी हाँ, मैं ही तो हूँ

माँ ,बहन,बेटी,बहु,पत्नी भी मैं ही तो हूँ


शिवशक्ति,अर्धनारीश्वर में है मेरा स्वरूप

चाँदनी सी शीतल भी,मैं ही हूँ तपती धूप


लेकिन छुपकर जो करता है वहशी पन तू

पहले सुन ओ नीच दरिंदे,मानव तो बन तू


मुझे ज़रा ललकार तो,मत कर यूँ घात तू

मर्द है तो फिर आकर सामने से टकरा तू


कायर और नपुंसक की तरह छुपता है क्यूँ

किसी बात में नहीं है कम नारी,बस देख तू


भुजदण्डों में है ताकत तो जा सीमा पर लड़

देश की खातिर जा सीमा पर दुश्मन से भिड़


मर्दानगी न दिखा , उन औरतों पर तू उदंड

अबला तू कहता जिन्हें हैं वो शक्ति प्रचण्ड।



चंचल हरेन्द्र वशिष्ट,हिन्दी प्राध्यापिका,थियेटर शिक्षक एवं कवयित्री

आर के पुरम,नई दिल्ली



' सत्य पथ पर चल निर्भय '


कदम कदम पर हर मानव की बड़ी परीक्षा होती है

कठिनाई कितनी भी आए विजय सत्य की होती है।


दृढ़संकल्प अगर हो मन में मुश्किल आसां होती है

जीवन की कठिन राह में संयम की ज़रूरत होती है।


पाप,अधर्म,अनैतिकता कभी पर्दे में नहीं छुप सकते

एक न एक दिन इन कर्मों की कीमत चुकानी होती है।


ग़लत राह पर चलकर,कितने भी उठ जाओ ऊंचे

महफ़िल में ख़ुद की नज़रों में गर्दन ऊंची कब 

होती है।


जीवन तो है रिश्तों में ही, खून के हों या मुंह बोले

साथ न हो अपनों का गर, ज़िन्दगी अधूरी होती है।


यूं ही नहीं मिला करते,मोती दामन से समंदर के

लहरों से जो टकराते उनकी खाली झोली नहीं होती है।


आँधी हो या तूफ़ान हो चाहे,डटकर जो आगे बढ़ते

पाते वो ही मंज़िल को जिनकी राहें संघर्षरत होती है।


ऊँच नीच की बात हो भले, तुम भयभीत नहीं होना 

हर घनी स्याह रात की नित एक भोर सुनहरी होती है।


लूटपाट,बेईमानी से दौलत चाहे लाख कमाई हो 

जीवन में ऐसे काले धन से बरकत कभी नहीं होती है ।


जो झूठ की डगर पर चलते,भय उनके भीतर पलता

सच्चाई के पथ पर जो चलते,जीत उन्हीं की होती है


स्वरचित एवं मौलिक रचना

चंचल हरेन्द्र वशिष्ट,हिन्दी भाषा शिक्षिका,थियेटर प्रशिक्षक,कवयित्री एवं समाजसेवी

आर के पुरम,नई दिल्ली




'निकिता हत्या मामला' 

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आज के युवक-युवतियों के लिए संदेश!...

समय है सोचने और सँभलने का!....

👉👉

प्रेम का फेंककर जाल ये,जीना करते मुहाल हैं।

धर्मांतरण है मक़सद,मुहब्बत तो सिर्फ़ चाल है।


सोची समझी हैे साज़िश,प्रेम की नहीं कोई बात यहाँ 

विवाह के नाम पर धर्मांतरण या धर्मांतरण के लिए विवाह ।


नफ़रत की आँधी कैसी भी हो,मासूम निशाना बनते हैं

प्रेम,मुहब्बत के नाम पर कुछ शातिर मोहरे चलते हैं।


अल्हड़ किशोर या युवक युवती, कठपुतली बन जाते हैं 

नफरत के व्यापार के नाम पर न जाने कितने ही जान गँवाते हैं।


ये धर्म,मज़हब,संप्रदाय के झगड़े तब तक नहीं मिटेंगे

जब तक कट्टरपंथियों के दिलों में नागफनी खड़े रहेंगे।


खुले घूमते दुर्योधन,दुशासन,लेकिन चेहरों पे मुखौटे हैं

पहचान हुई है मुश्किल,पर नीयत,खयाल सब खोटे हैं।


धर्मनिरपेक्षता के नाम पर,भ्रमित न हो अब पीढ़ी अपनी

मिलजुलकर रहो समाज में पर,भूलो मत पहचान अपनी।


सचेत हो जाओ नई पीढ़ी ,इस द्युत क्रीड़ा से अब दूर रहो

प्रेम विवाह करो भले ही पर मज़हबी खेल से दूर रहो।


हे!आर्यपुत्र संतानों जागो,निज संस्कृति पर मान करो

अपनी हिंदुत्व परम्परा की जड़ों को सुदृढ़ करो।


हिंदु संस्कृति का संरक्षण करके,निज धर्म का सम्मान करो

गिरगिटों की चाल से बचो ,बुद्धि,विवेक से ध्यान करो।


हिंदु होने पर गर्व करो ,हिंदुत्व का विस्तार करो

हे राम कृष्ण के वंशजों,सत्य सनातन धर्म का प्रसार करो।


चंचल हरेन्द्र वशिष्ट,हिन्दी प्राध्यापिका,थियेटर प्रशिक्षक,कवयित्री एवं समाजसेवी

नई दिल्ली




एक रचना:

           ' इस बार होली में !'


धुल जाए कलुष हृदय का, इस बार होली में

बह जाए  मैल हर मन का ,इस बार होली में।


तेरे -मेरे बीच में न रहे बाकि कोई तकरार

सब शिकवे गिले  मिटाना ,इस बार होली में।


 तू और मैं भुला दें ,मिलकर बन जाएँ हम

 रिश्तों की जंग हटाना ,इस बार होली में।


बातों में ही सुलझा लें ,उलझनें विवादों की 

दिल से दिल को मिलाना,इस बार होली में।


मुहब्बत का पैगाम ये ,पहुंचा दो सीमा पार

नफ़रत की दीवार हटाना ,इस बार होली में।


मेरे  वीर सैनिकों, तुम शत्रु से खेलो होली 

तुम घर की फ़िक्र न करना,इस बार होली में।


जिस थाली में खाएं,उस में ही छेद करें जो

ऐसे गद्दारों से बचना ,इस बार होली में।


राष्ट्रहित में जुट जाएँ,मिलकर के हम सारे

सिर्फ दोषारोपण मत करना,इस बार होली में।


गले लगा लो उनको जिनके अपने बिछड़े हों

किसी आँख से आँसू पोंछना,इस बार होली में


होली का मेरा संदेश तुम घर-घर में पहुंचा दो

स्नेह का गुलाल मलना, इस बार होली में।


स्वरचित एवं मौलिक 

चंचल हरेंद्र वशिष्ट,हिंदी प्राध्यापिका,थियेटर शिक्षक एवं कवयित्री


आर के पुरम,नई दिल्ली

सुरेश लाल श्रीवास्तव प्रधानाचार्य , अम्बेडकरनगर

 सरस्वती-वन्दना


हे हँसवाहिनी! मातु शारदा!

तुम ज्ञानदा हो मुझे ज्ञान तू दो।

तेरी हो जिस पर कृपा दृष्टि,

उसका व्यक्तित्व विभूषित हो ।।

हे हँसवाहिनी-----------


विमला भी तुम्हीं शारदा हो,

ज्ञान की देवी वागीश तुम्हीं।

जिह्वा पर जिसके उतर गयी,

बन  जाये कालिदास वही।।

हे हँसवाहिनी---------


मुझको है धन की भूख नहीं,

वश तेरी कृपा बनी जो रहे।

तुमसे ही सब कुछ साधित है,

तूँ  है  तो जीवन   धन्य बने।।

हे हँसवाहिनी------------


            -----  रचनाकार----

            सुरेश लाल श्रीवास्तव

                   प्रधानाचार्य

        राजकीय इण्टर कॉलेज

    अकबरपुर, अम्बेडकरनगर

उत्तर प्रदेश      224122

   मोबाइल न.  09455141000


अर्थ-प्रेम  और दिली प्रेम                      अर्थ से प्रेम जब जब पराजित हुआ,

 रिश्ते-नातों का दामन कलंकित हुआ।

  दिल धड़कता नहीं अब किसी के लिए,

  अर्थ ने इसको जकड़ा स्वयं के लिए ।

   जानते हम सभी इस परं राज को,

  जिन्दगी तब तलक जब तलक स्वांस है।

    जोर इस पर किसी का है चलता नहीं ।

    अर्थ-अंकुश भी यहाँ काम आता नहीं।।


 जिन्दगी के सफर पर जरा ध्यान दो ,

 क्या जरूरत है इस जिन्दगी के लिए।

  प्रेम से पूरित जीवन दिली आस हो,

   अच्छे कर्मों से संयुत पवित्र भाव हो।

  राह जीवन का उसके सहज हो चले ,

  प्रेम-पथिकों का मिलता जिसे साथ हो।

  अर्थ इतना रहे कि जीवन चलता रहे,

   अर्थ सब कुछ नहीं जिन्दगी के लिए।।


  अर्थ-प्रेमी कभी दिल से प्रेमी नहीं,

   अर्थ ही इनको जीवन का सुख-सार है।

   अर्थ-बुनियाद पर प्रेम आसीन है ,

    दिल के जज़्बात का अब नहीं जोर है।

    माँ-पिता भी पराजित हुए अर्थ से ,

   भाई-बहनों का रिश्ता चले अर्थ से।

    अर्थ की पूजा होती बड़े चाव से ,

  अर्थ सब कुछ हुआ जिन्दगी के लिए।।


अर्थ से प्रेम का है नशा अति बुरा ,।

खूनी रिश्तों में चल जाता जो है छुरा।

इक हक़ीक़त सुनो आज की बात ये,

 जंग जो बढ़ चली निज तनय-बापमें।

 विरासत को लेकर इस छिड़ी जंग में ,

 पुत्र को मार डाला इस सगे बाप ने ।

 अर्थ-लिप्सा मेंअब क्या नहीं हो रहा,

 बाप  के खून से बेटा है नहा रहा ।।


 परिवारी रिश्तों में दिली प्रेम,

  हर तरफ  दिखाई देता था ।

  अब अर्थ-प्रेम से ये रिश्ते ,

  पग-पग पर साधित होते हैं।।

  दादा-दादी के तीर्थाटन की ,

 जब बारी  घर में आती थी ।

 परिवारी जनों के आंखों में ,

प्रेमाश्रु धार  बह जाती थी।।

उठ चली परम्परा अब यह भी,

 वे  बोझ  बने  परिवारों में ।                            तन शिथिल हुआ जल को तरसें,

 रोटी  नसीब  नहीं  पेटों  में ।।

  दादी-दादा की क्या विसात ,

   माँ-बाप भी समझ से परे हुए।

   इनका मरना-जीना भी अब ,

   निज हानि -लाभ के अर्थ हुए  ।।


 पत्नी के अति आकर्षण में,

  बेटा यदि खिंच जाता है ।

  तब सास-ससुर की पूजा में,

  उसका मन रम जाता है ।।

  अर्थ -दौड़ की महिमा का ,

 जो भी बखान वह सब कम है।

पति प्रिय और पत्नी प्रिये रूप,.                       अब अर्थ से साधित होते हैं ।।


 धन लाये तो  बेटा बेटा है ,

 धन देती बेटी बेटी  है ।

 धन अर्जन के तौर-तरीकों को,.                      माँ -बाप कभी न पूँछते हैं ।।

                  

  धन-दात्री पत्नी के चरणों में ,

   पति प्रेम से शीश झुकाता है।

    जब जहाँ कहे बिनु टिप्पणी के,

     तब  तहाँ  उसे पहुँचाता है ।।


  दिन भर के क्रिया-कलापों में ,

   यदि कहीं चूक हो जाती है ।

   पति की क्लास ले पत्नी तब ,

 जी भर कर डांट पिलाती है ।

  ईश कृपा से यदि दोनों ,

   सरकारी सेवा से संयुत है.                         बातों की जंग तब छिड़ती है,

 और प्रेम पराजित होते हैं ।।


   त्याग  गया  सद्भाव  मिटा ,

   दिली -प्रेम अब दूर  हुआ ।

    धन -अर्चन में हैं लगे सभी ,

   मानवत्व गुणों से वैर बढ़ ।

  जीवन के सभी आयामों पर,

  अब  दिली  प्रेम  पराजित है ।

    अर्थ के सर पर सेहरा है ,

    दिली  प्रेम  उपहासित है ।।.            

 -------सुरेश लाल श्रीवास्तव ------

               प्रधानाचार्य

      राजकीय इण्टर कालेज

      अकबरपुर, अम्बेडकरनगर


              उत्तर प्रदेश

एस के कपूर श्री हंस

 ।।ग़ज़ल।।  ।।संख्या  32।।*

*।।काफ़िया।। आह।।*

*।।रदीफ़।।देखना चाहता हूँ।।*

*बहर   122-122-122-122*

*संशोधित।।।*

1

तिरी चाह को    देखना  चाहता हूँ।

हद-ए-वाह को   देखना चाहता हूँ।।

2

तू  हमराही है मेरा हमजोली भी है। 

इसी थाह को  देखना     चाहता हूँ।।

3.

ग़रीबों की आहों में कितना असर है। 

उसी आह को  देखना      चाहता हूँ।।

4

मज़ा इंतज़ारी में आता     है कैसा। 

तिरी  राह को देखना     चाहता हूँ।।

5

गुज़रती है क्या *हंस* उस पर जहां में।

मैं गुमराह    को देखना       चाहता हूँ।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।।।।             9897071046

                           8218685464


।।ग़ज़ल।।   संख्या 33 ।।

*।। काफ़िया।।  तोड़ने,मोड़ने,छोड़ने*,

*जोड़ने आदि।।*

*।।रदीफ़।। पड़े मुझे।।*

*बहर    221-2121-1221-212*

1

अपने  उसूल उसके लिए तोड़ने पड़े ।

ग़लती नहीं थी हाथ मगर जोड़ने पड़े ।।

2

दूजों को आबोदाने कि दिक्कत न पेश हो ।

अपने हक़ो के सिक्के सभी छोड़ने पड़े ।।

3

मुफ़लिस के घर भी जाये मिरे घर की रौशनी।

अपने  घरौंदे ख़ुद ही मुझे फोड़ने पड़े ।।

4

तकलीफ़ हो किसी को न मेरे वजूद से ।

यह सोच अपने शौक मुझे छोड़ने  पड़े ।।

5

जिस रहगुज़र से *हंस* था मुश्किल भरा सफ़र ।

उस रास्ते पे अपने क़दम मोड़ने पड़े ।।


*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।।*

मोब।।।।।       9897071046

                     8218685464


।।ग़ज़ल।।  ।।संख्या    34।।*

*।।काफ़िया।। आर ।।*

*।।रदीफ़।। होती है  ।।*


1    *मतला*

शब्द की महिमा अपार      होती है।

लिये शक्ति का इक़ भंडार      होती है।।

2    *हुस्ने मतला*

हर शब्द की अपनी इक़ पैनी धार   होती है।

कि शब्द शब्द से ही पैदा खार होती है।।

3    *हुस्ने मतला*

शब्दों से ही   बात इक़रार      होती है।

शब्दों से ही कभी बात इंकार होती है।।

4  *हुस्ने मतला*

शब्द की मिठास लज़ीज़ बार बार होती है।

कभी यह तीखी तेज़ आर पार    होती है।।

5

किसी शब्द का महत्व कम मत आँकना कभी।

शब्द से शुरू बात फिर विचार होती है।।

6

हर शब्द बहुत नाप तोल   कर   ही   बोलें।

हर शब्द की अपनी एक रफ्तार होती है।।

7

शब्दों का खेल बहुत निराला होता है।

एक ही शब्द बनती व्यपार, व्यवहार होती है।।

8

शब्दों से खेलें नहीं कि होते हैं नाजुक।

कभी इनकी मार जैसे तलवार होती है।।

9

*हंस* शब्द महिमा  बखान  को शब्द कम हैं।

शब्दों की दुनियाअपने में एक संसार होती है।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"

*बरेली।।।*

मोब।।             9897071046

                      8218685464

क्या लिखूं

 क्या लिखूं


कलम हूॅं मुरीद तेरी

तू जो कहे वही बात लिखूं

भीगे हुए जज्बात या

रुठे हुए हालात लिखूं

बिकेंगे गीत किस तरह के

वो अल्फाज लिखूं

तू ही बता ए सफा

आखिर तुझ पर क्या लिखूं


कई बार सोचा स्वयं मुख्तार हूं,लिख दूं जो मन आए

मगर......

सोच में पड़ गई के आखिर 

किसकी कहानी ,किसकी

करुणा के गीत के लिखूं

कौन है आज यहाॅं खुश  जिनके गुदगुदाते कहकहे लिखूं


जीत का महाकाव्य या

कालजयी कोई गाथा लिखूं

भूली बिसरी यादों के 

अफसाने या बीती जवानी की

कोई कहानी लिखूं


पढ़ेगा कौन बता ,किसके

लिए लिखूं

लिखे हुए शब्द बंद सफों में

इक दूजे की रगड़ से ही

घायल हो जाते हैं

या बिन खुले ही जिल्दों में

दीमक की खुराक 

बन जाते हैं


पढ़ेगा कौन बता 

किसके लिए लिखूं

स्वर्ण की कलम हूं चाहे

लकड़ी की ही सही

आखिर तो चंद सिक्कों

के लिए ही बिकूं* 


हॉं सफे की मैं सफा मेरी

जरुरत है

चलो सोचते हैं मिलकर

क्यों,क्या,कैसे ,कब, लिखूं

कलम हूं मुरीद तेरी मैं

तू जो कहे वही बात लिखूं।


(अपवाद को छोड़ कर अधिकांश कलम बेच देते हैं ,किसी के निजत्व पर प्रहार नहीं है🙏)

सम्राट सिंह

 एक कविता ऐसा भी...


व्यंग और पर्व का समावेश करने की कोशिश


प्रबुद्ध लोगों से निवेदन की आकलन जरूर करें


भलही के भाग भइल 

एहि साल फाग में

मेहरी हेरा गइली

महंगाई के आग में

अच्छा दिन ओझल भइल

अखियां के ओट से

लोरवा अब गिरेलागल

महंगाई के चोट से

सभे लागल बेचे में 

अब देशओ बेचाई

देश बेंच के पईसा मिली

तबे नु अच्छा दिन आई

कहे सम्राट सुन एक राग में

भलही के भाग भइल 

एहि साल फाग में

मेहरी हेरा गइली

महंगाई के आग में।।

रंग भइल फीका

उमंग भइल फीका

तेल मसाला के महंगाई से

स्वाद भइल फीका

आइल बा चुनाव तब

माहौलवा गर्मात बा

जहाँ जहाँ होखत बा

कोरोना भाग जात बा

कहे सम्राट सुन एहि फाग में

होली नाही मानी

बीत जाइ भागम भाग में

भलही के भाग भइल 

एहि साल फाग में

मेहरी हेरा गइली

महंगाई के आग में।।

रात अब दिन लागे

दिन अब रात कहाता

जउन ओकर मालिक कहे

पीछे सब हुवाँ हुवाँ चिल्लाता

लंबा लंबा फेके में

प्रतियोगिता बा अइसन बुझाता

केहू 15 लाख देत बा

त केहू के आलू से सोना निकलाता

कहे सम्राट सुन बस एके राग में

भलही के भाग भइल 

एहि साल फाग में

मेहरी हेरा गइली

महंगाई के आग में।।

डीजल पेट्रोल गैस मसाला

ई सब पर महंगाई बा

नेता लोग के छूट मिलल बा

आम जनता पर कड़ाई बा

अबकी होली सुखल जाइ

गरीबवन के समाज के

ढाका भर के लानत बाटे

अच्छा दिन वाला राज के

कहे सम्राट सुन बस एके राग में

भलही के भाग भइल 

एहि साल फाग में

मेहरी हेरा गइली

महंगाई के आग में।।




©️सम्राट की कविताएं

सुनीता असीम

 आशिकी तुझसे करूं चाहे डगर में डर रखूं।

पार उतरूँ भावनगरी प्रेम को नौकर रखूं।

***

वो जहां का है अगर मालिक तो मैं भी दास हूं।

भीलनी से बेर भी क्यूँ आज मैं चखकर रखूँ।

***

बैर नफरत रोग हैं दुनिया जहां की भीड़ में।

भावभक्ति की खरीदी कर उसे चाकर रखूं।

***

सांवरे की है नहीं तुलना    से भी   कहीं।

वो तुम्हें अपना बनाएगा यही कहकर रखूं।

***

मैं तड़प अपनी कहूं किससे कन्हैया तुम कहो।

हर घड़ी तन मन मैं अपना हिज़्र में तपकर रखूं।

***

सुनीता असीम

१९/३/२०२१


सोए भाव दिल के जगाते नहीं हैं।

उम्मीदों की किरणें जलाते नहीं हैं।

***

जो पूरे कभी ख्वाब अपने नहीं हों।

सपन ऐसे हम भी सजाते नहीं हैं।

***

भरोसा करो जिनपे दुनिया जहां में।

वही लोग रिश्ते       निभाते नहीं हैं।

***

जिन्हें देखके जी रहे थे सदा हम।

वो नज़रें भी हमसे मिलाते नहीं हैं।

***

कसम से हैं कहते  कन्हैया मनोहर।

नज़ारे ये तुम बिन तो भाते नहीं हैं।

***

सुनीता असीम

१९/३/२०२१

विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल-

1.

आपकी जबसे इनायत हो गयी है

ज़िन्दगानी ख़ूबसूरत हो गयी है

2.

तेरी आँखों में जो शोखी देखता हूँ

मुझको उससे ही मुहब्बत हो गयी है

3.

क्या कहूँ मैं इस दिल-ए बेज़ार को अब 

हर नफ़स तेरी ज़रूरत हो गयी है

4.

तेरी हर तस्वीर मुझसे कहती है यह

मेरी दुनिया तुझसे जन्नत हो गयी है 

5.

रोज़ मिल जाते हैं मिलने के बहाने

किस कदर कुदरत की  रहमत हो गयी है 

6.

चाहता हूँ पास में बैठे रहो तुम

क्या करूँ इस दर्जा उल्फ़त हो गयी है

7.

आजकल कहने लगा है आइना भी 

तेरी मेरी एक सूरत हो गयी है

8.

हो रहे उस और से *साग़र* इशारे

इसलिए मुझ में भी हिम्मत हो गयी है


🖋️विनय साग़र जायसवाल 

3/3/2021

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-41

छोट बसन कलिजुग-तन-सोभा।

लघु पट सजि न नारि-मन छोभा।।

     नारी-पुरुष काम-रति भोगा।

      पति-पत्नी बिरलै संजोगा।।

परदारा-रति-भोग-बिलासा।

रत जे नर सभकर बिस्वासा।।

      झपसट-लंपट-भ्रष्ट-आवारा।

      कलिजुग महँ पूजै संसारा।।

अपठ-गवाँर-अबोधा पंडित।

दुर्जन मंडित,सज्जन दंडित।।

     कलिजुग कै सभ उलटय धारा।

     जितै असत्य सत्य जग हारा।

पसुवत रहै आचरन जन-जन।

संकर बरन बढ़हिं जग छन-छन।।

      मसलहिं कली बिनू कुसुमाई।

       ब्यभिचारी गति बरनि न जाई।।

हतै पती कुलवंती नारी।

पर त्रिय प्रेम करै ब्यभिचारी।।

      मातु-पिता-गुरु-गरिमा घटही।

      प्रेम-नेह ससुरारिहिं बढ़ही।।

बहु अकाल जन भूखन्ह मरहीं।

कबहुँ-कबहुँ बहु बृष्टिहिं भवहीं।।

     भाई भगिनिहिं नहिं पहिचानी।

     रीति-नीति अरु प्रीति न मानी।।

कटुक बचन-इरिषा अरु लालच।

उर महँ कलिजुग भरा खचाखच।।

    पर निंदक,पर स्त्री-भोगी।

     पर तन-सोषक कलिजुग-जोगी।।

जे गति जप-तप पूजा मिलही।

सतजुग-द्वापर-त्रेता  जुगही।।

   सो गति कलिजुग अपि जन मिलहीं।

    जौं हरि-नाम निरंतर जपहीं ।।

दोहा-कलिजुग जुग जग अस अहहि,जेहि मा हरि कै नाम।

        भजत तरै भव-सिन्धुहीं,बिनु जप-तप-गुन-ग्राम ।।

                        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                            9919446372


*सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-40

कारन कवन बता गुरु नाथा।

पूछा गरुड़ नवा निज माथा।।

     नासहि काल सकल जग-जीवा।

     नागहिं-मनुज,चराचर-देवा।।

पर तुम्ह काल-गाल नहिं आवहु।

जानि दास निज मोंहि बतावहु।।

     सरल-सुसील-सनेह सुभावा।

      नहिं तुम्ह महँ प्रभु-प्रेम अभावा।।

कारन कवन काग-तन पायो।

प्रलयहुँ नास न सिवा बतायो।।

     मिथ्या बचन न सिव कै होवै।

     अह कस संसय मोहें सोवै।।

गरुड़-बचन सुनि बिहँसा कागा।

कह तुम्ह धन्य खगेस सुभागा।।

     बहु-बहु जनम मोंहि सुधि आई।

     सुनहु गरुड़ तुम्ह मन-चित लाई।।

जप-तप,जगि-दम-दान-बिरागा।

ब्रतहिं-बिबेक,जोग-फल-भागा।।

     मिलहिं न बिनु प्रभु-पद-अनुरागा।

      स्वारथ बिनु चित प्रभू न लागा।।

नीच प्रेम सज्जन सँग करही।

नीति कहै जब स्वारथ रहही।।

     सुंदर-रुचिर पटम्बर ताईं।

      सेवहिं कीटहिं प्रान की नाईं।।

ऊँच-नीच तन एक समाना।

जे पूजै अह-निसि भगवाना।।

      राम-भजन तन-भेद न जानै।

      खग-पसु-नर बिच भेद न मानै।।

नर-तन पाइ क भजन न होवै।

ते जन राम-चरन-सुख खोवै।

    प्रथम जनम जब मम जग भयऊ।

     कलिजुग घोर अवनि पे रहऊ।।

अवधपुरी महँ मोर निवासा।

सुद्र-जाति पर,सिव-बिस्वासा।

      अपर देव-निंदक-अभिमानी।

      मैं नित करत रहेउँ मनमानी।

महिमा राम न जानत रहऊँ।

जदपि अवधपुरी महँ भयऊँ।।

     जावद उर नहिं प्रभु-अनुरागा।

      तावद भगति न चित कोउ लागा।।

परम कठिन कलि-काल कराला।

कपटी-कुटिल-पिचालिन्ह पाला।।

    नीति व रीति-धरम कै हानी।

     कामी-क्रोधी जन अभिमानी।।

बेद-बिबाद,सुग्रंथन-लोपा।

प्रेमाभावहिं सबहिं सकोपा।।

     संत-असंत-बिभेद न कोऊ।

     गाल बजाय जे संतइ होऊ।।

अनाचार करि जन आचारी।

साँचा जे पर-संपति हारी।।

     मिथ्या भखि जे करै मसखरी।

     बड़ गुणवंत कहाय नर-हरी।।

श्रुति-पथ त्यागि निसाचर नाई।

कलिजुग बड़ ग्यानी कहलाई।।

दोहा-खान-पान-अग्यान नर,भच्छ-अभच्छ न बिचार।

        भूषन-बसन न सुचि पहिर,कलिजुग बस ब्यभिचार।।

                       डॉ

आज का सम्मानित कलमकार कविता मोदी भरुच.


 

सुषमा दीक्षित शुक्ला

 आठ मुक्तक पच्चीस मुहावरे


रिश्वतखोरों की मत पूछों ,

ऐसी बाट लगाते हैं ।

मोटी मोटी रकमें लेकर ,

सिर अपना खुजलाते हैं ।

नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली ,

हज को जाती हो जैसे ।

आदर्शों का भाषण देकर ,

बकरा खूब बनाते हैं ।


जिसकी लाठी भैंस उसी की ,

बचपन से सुन आयी ।

बाहुबली से डरते हैं सब ,

कहते भाई  भाई ।

काला आखर भैंस बराबर ,

भले न वो कुछ जाने ।

फिर भी उसके सारे अवगुण ,

की होवे भरपाई ।


धोबी के कुत्ते बन जाते ,

अपनों को छलने वाले ।

तिरस्कार का दण्ड भुगतते ,

खुद को ही ठगने वाले ।

अपनों के जो हो न सके हैं,

वो क्या जाने वफ़ा यहाँ ।

अंधकार में घिरते इक दिन ,

वो ढोंगी मन के काले ।


दिल वालों की दिल्ली है,

ये बात सुनी थी यारों ।

रहते यहाँ बिलों में देखो ,

काले  नाग   हजारों।

आस्तीन के सांप हैं ये सब ,

कब डस लें ये खबर नहीं ।

स्वयं बचो अरु देश बचाओ ,

ढूँढ ढूँढ कर मारो ।


रँगे सियारों से तुम बचना ,

कभी न आना चालों में ।

भोले भाले फँस जाते हैं ,

इनके बीने जालों में ।

ठग विद्या है इनका धंधा ,

चिकनी चुपड़ी बातें हैं।

कौन पीठ में छुरा भोंक दे ,

छुपे हुए ये खालों में ।


मेरी एक पड़ोसन मित्रों,

पति को अपने बहुत सताती ।

घर का सारा काम कराकर ,

पैसे भी उससे कमवाती।

पति कोल्हू का बैल बना है ,

किस्मत को है कोस रहा ।

पत्नी का आदेश न माने ,

बस समझो फिर शामत आती ।


स्वतन्त्रता के दीवानों ने ,

इंक़लाब जब बोला था ।

नवल क्राँति की ज्वाला में ,

तब हर सेनानी शोला था ।

नाकों चने चबाया अरिदल ,

त्राहि त्राहि था बोल उठा ।

नाक रगड़ कर भागे सारे ,

जिस जिस ने विष घोला था ।


वो मेरी आँखों के तारे ,

जो मेरे दो लाल दुलारे ।

रात दिवस मैं नज़र उतारूँ ,

मुझको लगते इतने प्यारे ।

एक हूर है ज़न्नत की तो ,

दूजा भी है चाँद का टुकड़ा ।

मां हूँ ख़्याल रखूँ मैं उनका ,

बन जाते वो भी रखवारे ।


सुषमा दीक्षित शुक्ला

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 सृजन

धर्म है जिंदगी का सृजन ही सृजन,

प्रेम से रह के कर लें दिलों का मिलन।

आज हैं हम यहाँ कल न जाने कहाँ-

कर सृजन आज ही कर लें पूरा सपन।।


जन्म लेकर धरा पे यहाँ जो रहे,

वादा अपना निभाए भले दुख सहे।

बड़े धोखे मिले,कर्म रत ही रहे-

बस सृजन ही रहा उनका प्यारा व्यसन।।


 चिंतक-साधक-उपासक जो भी रहे,

सबने कर्तव्य अपना निभाया यहाँ।

कष्ट आया,उसे झेलकर हो मुदित-

वे किए हैं सृजन,रख हृदय में लगन।।


बात बिगड़ी बनाया उन्होंने सदा,

कर्ज धरती का सबने किया है अदा।

कभी भी न प्राणों की चिंता किए-

अपने दायित्व का वे किए हैं वहन।।


सृजन लक्ष्य जिसका रहा है यहाँ,

है हुआ नाम उसी का हमेशा यहाँ।

संत-साधक-तपस्वी यही तो किए-

साधना-अग्नि में तप किए हैं सृजन।।

           डॉ0हरि नाथ मिश्र

            9919446372

 *कुण्डलिया*

मिलता है सुख प्रेम से,बनता बिगड़ा काम,

करें प्रेम हम मिल सभी,इसमें लगे न दाम।

इसमें लगे न दाम,बने जग सुंदर सारा,

बने यही सुखधाम,बहे मधुमय रस-धारा।

कहें मिसिर हरिनाथ फूल है सुख का खिलता,

हों रक्षक भगवान,अति आनंद  है मिलता।।

             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                 9919446372

        

             *कुण्डलिया*

कहना बड़ों का मान लें,इसमें है कल्याण,

उनसे मिलती सीख जो,होती जीवन-त्राण।

होती जीवन-त्राण,सीख से अनुभव बढ़ता,

अनुभव देता मान,शान की राहें गढ़ता।

कहें मिसिर हरिनाथ,अगर है सुख से रहना,

मानो प्यारे मीत, सदा बूढ़ों का कहना ।।

         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

              9919446372


*कुण्डलिया*

मिलता है सुख प्रेम से,बनता बिगड़ा काम,

करें प्रेम हम मिल सभी,इसमें लगे न दाम।

इसमें लगे न दाम,बने जग सुंदर सारा,

बने यही सुखधाम,बहे मधुमय रस-धारा।

कह मिश्रा हरिनाथ फूल है सुख का खिलता,

हों रक्षक भगवान,अति आनंद  है मिलता।।

             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                 9919446372

        

             *कुण्डलिया*

कहना बड़ों का मान लें,इसमें है कल्याण,

उनसे मिलती सीख जो,होती जीवन-त्राण।

होती जीवन-त्राण,सीख से अनुभव बढ़ता,

अनुभव देता मान,शान की राहें गढ़ता।

कह मिश्रा हरिनाथ,अगर है सुख से रहना,

मानो प्यारे मीत, सदा बूढ़ों का कहना ।।

         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

              9919446372

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च 2021 काव्य रंगोली नारी श्रद्धा सम्मान 2021

 

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च 2021


[08/03, 7:56 am] कवि रवीन्द्र प्रसाद, शिक्षक, झारखण्ड: नारी महान संस्कृति है
-‐--------------------------
नारी नारायणी तू
जननी कल्याणी तू
बेटी बहन माता है
सृष्टि की विधाता है।।

बेटियाँ गीत हैं संगीत हैं
आत्मा हैं ये मनमीत हैं
प्राण हैं घ्राण हैं श्वाँस हैं
माता पिता के आश हैं।।

कुल की पावन विधान हैं
संस्कृति की संविधान हैं
सृष्टि की आधारशिला ये
पाल रहीं पीयूष पिला ये।।

सृष्टि की अनुपम कृति है
नारी महान संस्कृति है
संस्कार की अनुकृति है
विश्व की यह विभूति है।।

जन-जन की अनुभूति है
बल बुद्धि विद्या श्रुति है
पुरुषार्थ की ये सीढ़ी है
बढ़ाती वंश की पीढ़ी है।।

आशीष पुत्रियों को नित्
अहर्निश सदा मिलता रहे
कामना यही प्रभु से नित्
आशीष सदा बरसता रहे।।

       रचना मौलिक एवं स्वरचित व सर्वाधिकार@ सुरक्षित है।
     रचनाकार:---
    रवीन्द्र प्रसाद "दैवज्ञ "
सम्पर्क सूत्र 8804276009
[08/03, 8:00 am] +91 88409 22449: *महिला दिवस काव्य रंगोली 21*
*अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस*
*काव्य सृजन समारोह*
***********************************
*नारी तू नारायणी*
***********************************
नारी तू नारायणी जीवन भर कष्ट उठाती है
मां-बहन-बेटी-बहू कितने फर्ज निभाती है।
सुख हो या दुःख साथ सदा निभाती है
नारी तू नारायणी अपना फर्ज निभाती है।
बेटी रूप में तू घर बाबुल का चहकाती है
पत्नी रूप में तू घर पति का महकाती है
नारी तू नारायणी जीवन भर कष्ट उठाती है।
बांध भाई की कलाई पर स्नेह का धागा
रक्षा कवच  बन जाती है
वक्त पड़े तो तू दुर्गा-चण्डी-काली बन जाती है
नारी तू नारायणी जीवन भर कष्ट उठाती है।
ईश्वर का वरदान तू अनोखा
सृष्टि का आधार कहलाती है
नारी तू नारायणी जीवन भर साथ निभाती है।
**********************************
स्वरचित व मौलिक रचना रचनाकार- सुनील कुमार
जिला- बहराइच,उत्तर प्रदेश।
मोबाइल नंबर- 6388172360
[08/03, 8:02 am] कवि सुरेश लाल श्रीवास्तव अम्बेडकरनगर: नारी जीवन-सम्मान

नारी- सम्मान   निराकृत से,
दुःखमय समाज हो जाता है।
नारी को सुख पहुंचाने से,
सुखमय समाज हो जाता है।।

इतिहास प्रत्यक्षित करने से,
यह विदित हमें हो जाता है।
जब-जब नारी अपमान बढ़ा,
उठता समाज गिर जाता है।।

निज देश में नारी की महिमा,
सज्जित थी पुरातन कालों में।
गायत्री, सावित्री अरु अनुसूया,
पूजित   थीं  उन  समयों में ।।

नारी    की  पूजा   होने  से,
उस काल की महिमा भारी थी।
सुखमय   समीर   चहुँ ओर बहे,
किंचिद     न     दुश्वारी   थी ।।

मध्य-काल   के  आते  ही,
नारी-जीवन अपमान बढ़ा।
जीवन -सम्मान  बचाने को,
सतियों   का  है ग्राफ चढ़ा।।

इनके जीवन की धारा को,
हर तरह से पहुँची पीड़ा थी।
फिर    भी  अपने बलबूते से,
रजिया, दुर्गा   हुंकार  उठीं।।

मीरा   के  भक्ती तानों से,
दुर्गा    के  बलिदानों से।
नारी -जागरण की डंका को,
कोई रोक सका न बजने से।।

ब्रिटिश -काल    में नारी ने,
अपनी शक्ति थी दिखलायी।
पुरुषों के समान नारियाँ भी,
रणक्षेत्रों    में   उतर  आईं।।

लक्ष्मी बाई,  विजय लक्ष्मी,
अरुणा आसफ अब बोल उठीं।
इनके     शक्ति   प्रदर्शन से,
अंग्रेजों  की  सत्ता डोल उठी।।

नारी महिमा का यह बखान,
जो  भी    है   सो  कम है।
हर क्षेत्र में नारियों का परचम,
लहराया  अब   भारत  में है।।

इंदिरा, बेदी,   मदर टेरेसा,
संधू की अब है शान बढ़ी।
एवरेस्ट विजेता बनी बछेन्द्री,
जज बनी फातिमा बीबी थीं।।

नारियाँ   अपनी     प्रतिभा से,
भारत  का मान   बढ़ा हैं रहीं।
मेधा पाटेकर  की सामाजिकता,
विश्व में आज भी   गूँज रही।।

मिशन शक्ति की ज्योति अब,
चहुँ   दिसि    प्रसरित  होय।
नारी -जीवन      सम्मान  से,
भारत    की    उन्नति   होय।।

        रचनाकार-----
       ----सुरेश लाल श्रीवास्तव--
                प्रधानाचार्य
         राजकीय इण्टर कालेज
       अकबरपुर, अम्बेडकरनगर
   उत्तर प्रदेश,224122






परमादरणीय डॉ सरोज गुप्ता जी, सादर प्रणाम, रचना सेवा में सादर सम्प्रेषित
[08/03, 8:12 am] कवयत्री सीमा शुक्ल बेसिक टीचर मंझवा गद्दोपुर रायबरेली रोड अयोध्या: कमजोर कहां हो तुम नारी?

तुम भरती हो नभ में उड़ान,
संचालित करती रेल यान,
घर की थामें हो तुम कमान,
हर गुण है तुममें विद्दमान
जीवित करती हो सत्यवान,
ममता का गुण सबसे महान।

तुम नया जन्म ले लेती हो
जब बन जाती हो महतारी
कमजोर कहां हो तुम नारी।

मन प्रेम छलकता सागर है,
अंतस करुणा की गागर है।
अमृत रसधार बहे आंचल,
हर पीड़ा सहती हो अविचल।
जीवन में अनुपम धीर भरा।
है नयन नेह का नीर भरा।

तुम देहरी का जलता दीपक
घर घर में तुमसे उजियारी।
कमजोर कहां हो तुम नारी?

मन में नित भाव समर्पण है।
हर रूप प्रेम का दर्पण है।
प्रियतम की संग सहचरी हो
मां रूप बाल की प्रहरी हो।
मन क्षमा दया उर त्याग लिए,
प्रति पल जीती अनुराग लिए।

तुम ईश्वर की सुंदर रचना
यह सृष्टि सृजन तुमसे जारी
कमजोर कहां हो तुम नारी?

युग से इतिहास लिखा तुमने
वीरों को नित्य जनां तुमने।
नित नीर बहाना छोड़ो तुम
अन्याय भुलाना छोड़ो तुम
तुम उमा,रमा हो ब्राम्हणी,
तुम झांसी वाली हो रानी।

शमशीर उठा संहार करो
डाले कुदृष्टि जो व्यभिचारी
कमजोर कहां हो तुम नारी?

सीमा शुक्ला अयोध्या।
[08/03, 8:23 am] दुर्गा प्रसाद नाग: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2021 के पावन अवसर पर "नारी" विषय पर मेरी यह रचना कार्यक्रम प्रमुख आदरणीया माताश्री सरोज गुप्ता जी के चरणों में सादर समर्पित__

दोहा –
" नारी सुख का मूल ही नारी सुख की खान,
नारी का सम्मान कर होते मनुज महान।"

चौपाई–

इसलिए अगर सुख पाना हो तो नारी का सम्मान करो।
जो नाम अमर कर जाना है तो नारी का सम्मान करो।।

जग में वह देश उठा ऊंचा जिसने नारी का मन किया।
पर मिला खाक में लंका सा जिसने उसका अपमान किया।।

पहले जब महिला मण्डल का भारत में आदर ऊंचा था।
तब उसका चरण कलम वंदन करता संसार समूचा था।।

थे एक राम सीता के हित जिनने रावण का नाश किया।
पांडव थे जिसने कौरव का नारी के लिए विनाश किया।।

अब हरी जा रही हैं कितनी हरदम ही नारी भारत में।
पर कौन खोज करता उनकी रघुराई सा इस भारत में।।

कितनी ही पांचाली के अब नित वस्त्र उतरे जाते हैं।
पर कौन पाण्डवों की नाई बदले में शस्त्र उठाते हैं।।

इसलिए देश यह सदियों से हो रहा रात दिन गारत है।
अब तो बस नाम ही भारत है, भारत अब नहीं वो भारत है।।

भारत की बहनों माताओं यदि अब भी आप जाग जाए ।
तो निश्चय ही हम लोगो के सारे दुःख दैन्य भाग जाएं।।

फिर से यह भारत पहले के भारत सा गौरववान बने।
बलवान बने धनवान बने गुणवान बने विद्वान बने।।

बहनों तुम चाहो तो अब भी, आ सकता है फिर वक्त वही।
दिखलादो तुममें अब भी है, अपनी माता का रक्त वही।।

उठ पड़ो देख ले सब कोई भारत की कैसी नारी हैं।
दुर्गा यदि नहीं तो दुर्गा की अब भी कन्याएं प्यारी हैं।।
__________________________

दुर्गा प्रसाद नाग
नकहा– खीरी
उत्तर प्रदेश
मोo– 9839967711
[08/03, 8:33 am] कवयित्री सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ: ऐ!मातृशक्ति अब जाग जाग।
ऐ!शक्तिपुंज अब जाग जाग ।

रणचंडी बन तू स्वयं आज।
मत बन निरीह नारी समाज।

उठ हो सशक्त भय रहा भाग ।
अबला का चोला त्याग त्याग ।

चल अस्त्र उठा तज लोक लाज ।
शोषण का ले जग से  हिसाब ।

भारत की नारी दुर्गा है ,
भारत की नारी सीता है ।

रणचण्डी बन वह युद्ध करे ,
गीता सी परम पुनीता है ।

मां कौशल्या, जसुदा बनकर ,
जग् को सौगात दिया उसने ।

लक्ष्मीबाई रजिया बनकर ,
बैरी को मात दिया उसने ।

  वह  अनुसुइया वह सावित्री ,
वह पार्वती का मृदुल रूप ।

वह राधा है वह सरसवती
माँ लक्ष्मी का अनुपम स्वरूप ।

इसको अपमानित मत करना ,
ऐ!दुनिया वालों सुन लो तुम ।

सब  नरक भोग कर जाओगे ,
अब कान खोलकर सुन लो तुम ।

सुषमा दीक्षित शुक्ला
[08/03, 8:37 am] भरत नायक "बाबूजी"
मु. पो. - लोहरसिंह
जिला - रायगढ़ (छत्तीसगढ़): *"नारी"* (ताटंक छंद गीत)
****************************
विधान- १६ + १४ = ३० मात्रा प्रतिपद, पदांत SSS, युगल पद तुकांतता।
****************************
*नारी अनुकृति परमेश्वर की, पूजन की अधिकारी है।
सृष्टि-वृष्टि-संतुष्टि-शांति है, ममता की फुलवारी है।।
नाते अनगिन जग में उसके, जिन पर तन-मन वारी है।
सृष्टि-वृष्टि-संतुष्टि-शांति है, ममता की फुलवारी है।।

*नारी के बिन नर आधा है, नर भी रचना नारी की।
त्याग-तपस्या की प्रतिमा है, जय हो जन हितकारी की।।
प्रीति दायिनी हर पल है वह, स्नेहिल अति  सुखकारी है।
सृष्टि-वृष्टि-संतुष्टि-शांति है, ममता की फुलवारी है ।।

*सतत सजगता से नारी की, जग निश्चिंत सदा मानो।
विडंबना फिर यह कैसी है? सहती वह विपदा जानो।।
मान सभी उसका भी रखना, नारी शुचि प्रणधारी है।
सृष्टि-वृष्टि-संतुष्टि-शांति है, ममता की फुलवारी है।।

*देव करें उपकार वहाँ पर, मान जहाँ पाती नारी।
है अवलंब सदा वह घर की, फिर क्यों न सुहाती नारी??
नारी तो है द्वार स्वर्ग का, महिमा उसकी न्यारी है।
सृष्टि-वृष्टि-संतुष्टि-शांति है, ममता की फुलवारी है।।

*नारी का उपहास न करना, उसका मान बढ़ाना है।
रोक भ्रूण की हर हत्या को, पुत्री-प्राण बचाना है।।
नव प्रतिमान सुता नित गढ़ती, सुत पर भी वह भारी है।
सृष्टि-वृष्टि-संतुष्टि-शांति है, पूजन की अधिकारी है।।

*सृष्टि समाहित जिस नारी में, उसकी किस्मत फूटे क्यों?
थाम ऊँगली तुम्हें चलाया, उसकी लाठी छूटे क्यों??
अपना भी कर्तव्य निभाओ, कर्ज-मुक्ति की बारी है।
सृष्टि-वृष्टि-संतुष्टि-शांति है, ममता की फुलवारी है।।

*मानवता का मान रखो तो, संशय कहीं न होता है।
तोष मिले सत्कर्मों से ही, नाश कुकर्मों होता है।।
कर्म कभी मत करना ऐसा, जिसमें जग-धिक्कारी है।
सृष्टि-वृष्टि-संतुष्टि-शांति है, ममता की फुलवारी है।।
*******************************
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़ (छ.ग!)
मो. 9340623421
*******************************
[08/03, 9:15 am] Bharti Jain Divyanshi Nr 21: *अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2021काव्य रंगोली*
में प्रेषित है 👇👇👇

गीत :-

सीने में रखती है ममता, आँखों में चिंगारी है।
अबला नहीं सदा से सबला, ये भारत की नारी है।।

एक तरफ बन महिष- मर्दिनी ,
दुश्मन मार गिराती है।
छुई-मुई ,बन लजवन्ती सी,
दूजी ओर लजाती है।।

समझो मत इसको बेचारी, ये तलवार दुधारी है।
अबला नहीं सदा से सबला, ये भारत की नारी है।।

ये अनुसुइया, सावित्री भी,
रामायण की सीता है।
यही अहल्या , शबरी राधा,
मीरा, भगवत -गीता है।।

है दशरथ की कौशल्या ये, मनुज नहीं अवतारी है।
अबला नहीं सदा से सबला, ये भारत की नारी है।।

कहीं निर्भया, कहीं दामिनी,
कण-कण रूप भवानी है।
प्राण लुटा दे भारत माँ पर,
वो झाँसी की रानी है।।

कदम-कदम पर पौरुष के सँग, इसकी भागीदारी है।
अबला नहीं सदा से सबला, ये भारत की नारी है।।

ये सतलुज, रावी, चिनाव है,
ये गंगा की धारा है।
दिव्य शक्ति ये परमेश्वर की,
काली का हुंकारा है।।
मर्यादा है इसका गहना, मत समझो लाचारी है।
अबला नहीं सदा से सबला ,ये भारत की नारी है।।

जय हिंद! जय मातृ शक्ति!

🙏🙏🙏

रचनाकार--भारती जैन 'दिव्यांशी'
मुरैना मध्य प्रदेश
मोबाइल--7000896988
                8103384949
(स्वरचित)
[08/03, 9:15 am] Nk अर्चना द्विवेदी अयोध्या फैजाबाद बेसिक टीचर: नारी दिवस की शुभकामनाएं

*दोहे*

नर-नारी जब साथ हों,गढ़ें नवल सोपान।
राष्ट्र प्रगति का पथ चुने,हो जग में उत्थान।।

अम्बर चूमे पाँव को,नारी करे प्रयास।
अपनों के सहयोग का,होता जब आभास।।

पग-पग पर सम्बल मिले,धरती करे विकास।
स्वर्ण अक्षरों में लिखा,नारी का इतिहास।।

नारी को प्रभु ने दिया, अतिशय रूप अनूप।
जैसे प्रतिदिन भोर में, खिलती छत पर धूप।।

करते हैं हर देवता,ऐसी भूमि निवास।
जीवन के अस्तित्व में,नारी का हो वास।।

जीवन की बाजी लगा, नार करे उत्थान।
काज सभी कर डालती,लेती है जो ठान।।
          अर्चना द्विवेदी
            अयोध्या
           सर्वाधिकार सुरक्षित
[08/03, 9:20 am] कवयित्री रजनी गुप्ता 'पूनम चंद्रिका'
लखनऊ: *देवी स्वरूप माँ बनकर सृष्टि को उद्भूत व परिपालन एवं संवर्धन करते हुए हर क्षेत्र में अग्रणी भूमिका का निर्वहन करने वाली समस्त नारी शक्ति को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की अनंत हार्दिक शुभकामनाओं सहित प्रस्तुत हैं रजनी की दो कुण्डलियाँ-*
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❤❤❤❤❤❤❤❤
नारी का होता नहीं, जहाँ कहीं सम्मान।
खुशियाँ जातीं रूठ हैं, रोता है भगवान।
रोता है भगवान, न करता देश तरक्की।
खोती जग पहचान, बात यह पूरी पक्की।।
संकट खड़े विशाल, पड़े नित विपदा भारी।
सदन वही खुशहाल, जहाँ खुश रहती नारी।।
👩👩👩👩👩👩👩👩
नारी के सम्मान हित, करते बातें लोग।
पर संभव यह कार्य हो, होता नहीं प्रयोग।।
होता नहीं प्रयोग, समस्या बढ़ती जाती।
देवी सम है पूज्य, मगर यह पीटे छाती।।
करें इसी पर वार, प्रताड़ित करते भारी।
होता है अपमान, सहे कब तक यह नारी।।
👵👵👵👵👵👵👵👵
*©रजनी गुप्ता 'पूनम चंद्रिका'*
*लखनऊ✍*
*उत्तर प्रदेश*
*स्वरचित एवं मौलिक*
*1/12/2019 के संकलन से उद्धृत*
🙏🙏🌹🌻🌻🌹🙏🙏
[08/03, 9:42 am] प्रमिला पांडेय कानपुर: महिला दिवस
मां को समर्पित रचना

तुम गीता हो ,रामायन हो ,
तुम चारो वेदो की थाती।
तुम आरती, पूजा ,वंदन हो।
तुम जलती दीपक में बाती ।।
तुम स्वर हो मधुर कोकिला का तुम राग - रागिनी वर दाती।
तुम दोहा , रोला ,भजनामृत ।
तुम ही दीपक मल्हार गाती।।

तुम मधुर चाॅदनी चंदा की ।
तुम दिनकर का उजियारा हो
तुम ही बसंत सी पुरवाई
तुम  पतझड का पखवारा हो।
तुम ही नदियों में गंगा हो
तुम ही संगम की धारा हो।
तुम मंदिर, मस्जिद,गिरजाघर तुम  ही नानक गुरुद्वारा हो।।

 

प्रमिला पान्डेय
कानपुर
संम्पर्क सूत्र
7905988068
[08/03, 10:34 am] +91 96104 47000: आओ सभी बहने मिलकर हम भारत का उत्थान करें
भारत के आँगन से आओ शुरू नया अभियान करें

प्रश्न यही है कियूं आखिर, बहनों पर अत्याचार हुए ?
राजनीति के चक्रब्यूह में,कियूं बेटी पर वार हुए?
जले न नारी लुटे न इज्जत,शपथ उठायें ध्यान धरें|
भारत के आँगन से आओ,शुरू नया अभियान करें ||

नारी की ताकत बनकर,अब ऐसी अलख जगानी है |
दुर्गा काली तुम बन जाओ, बनना हमें भवानी है ||
कब तक रोयेंगे छिप-छिप,कर माँ चंडी का ध्यान धरें ?
भारत के आँगन से आओ,शुरू नया अभियान करें||

तीन रंग की ध्वजा सम्हालो, सश्त्र उठाओ हांथों में|
हर पापी का नाश करो, तुम मत टूटो जज्बातों में||
चलो एक उज्जवल भारत, का पुनः नया निर्माण करें|
भारत के आँगन से आओ, शुरू नया अभियान करें||

बहुत दुसाशन यहाँ मिलने, गलियों में चौबारों में|
मगर नहीं गोविन्द मिलेंगे, स्वार्थ भरे बाज़ारों में||
धरा और आकाश नापने, की शक्ती का ध्यान धरें|
भारत के आँगन से आओ शुरू नया अभियान करें ||
अमित तिवारी (आजाद )
जयपुर,राजस्थान
9610447000
[08/03, 10:34 am] +91 70142 26037: सादर मंच
दिनांक-7-03-21
विषय-=महिला दिवस पर विशेष
**************************
नारी तुम हो घर की इज्जत ,और रिश्तो की शान हो।
हर युग में पूजित तुम नारी, सबसे बड़ी महान हो।
************************************
घर कि तुम मर्यादा हो, रुप अनेकों तेरे हैं।
माता पुत्री बहन भार्या, रिश्तों में नाम घनेरे हैं।
************************************
जीवन की तुम छाया हो, मोह  ममता कि तुम माया हो
करे समर्पित अपना जीवन, प्रेम सिक्त का साया हो।
************************************
नारी का अभिमान सदा ही, प्रेममय उसका घर है
हो नारी का सम्मान जहां, प्रमुदित नारी का वह घर है।
************************************
नारी का सम्मान बचाना, सच्चा धर्म हमारा है।
वही सफल इंसान जगत में, लगे सभी को प्यारा है।
***********************************
प्रेम लुटा कर अर्पण करती, तन और मन बलिदान है।
कभी रूप रणचंडी बनकर, रखती निज का स्वाभिमान है।
***********************************
कवि संत कुमार सारथि नवलगढ़
[08/03, 10:36 am] Nr नीतू सिंह चौहान Lko: मंच को नमन
विषय - महिला दिवस  ( नारी)
विधा  - गजल
सभी को महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
****************************

नारियाँ अब चांद छूने आसमां चढने लगी हैं।
देखिये हर रोज एक इतिहास ये गढने लगी हैं।।

रूढियों के बंधनों को तोडकर के नारियाँ अब।
हौसलों से नित नये आयाम पर बढने लगी हैं।

खौफ कोई अब नहीं, आजाद होकर जी रही वो।
पंक्षियों सी गगन में ले पर नये उडने लगी हैं।।

मुश्किलों से ना डरी वो, पार हर बाधा किया है।
राह के हर कंटकों से, रात- दिन लडने लगी हैं।।

ज्ञान की उर में जलाकर लौ,उजाला कर रही वो।
जब कभी रूढियां बन शूल, हिय खाने लगी हैं।।

            कवयित्री नीतू सिंह चौहान
               जानकी अपार्टमेंट, बल्दीखेडा,
                  लखनऊ- 226012
                    मो0-  9453562919
[08/03, 10:39 am] कवयत्री नीरजा नीरू5/243
जानकी पुरम विस्तार
लखनऊ: *नहीं*चाहती*बनना*देवी*
~~~~~~~~~~~~~~

नहीं चाहती बनना देवी
बस इन्सान ही रहने दो
कतरो  मेरे पंख न देखो
मुझको मन की कहने दो

नहीं चाहती तुम मेरा
चंदन से ही अभिषेक करो
नहीं चाहती तुम मेरा
वंदन बस मुँह को देख करो
माँ के गर्भ में तो मुझको
जन्म समय तक रहने दो
कतरो मेरे ..

नहीं चाहती फल फूलों से
रोज मेरा श्रृंगार करो
नहीं चाहती धन दौलत को
मुझको निश्चित प्यार करो
मुझको मेरे दावानल में 
आप अकेले दहने दो
कतरो मेरे ...

नहीं चाहती निश दिन ही तुम
चरण कमल मेरे धोओ
नहीं चाहती मंगल स्वर लहरी में 
जग के पापों को रोओ
मुझको वस्तु न समझो बस तुम
मानव बन कर सहने दो
कतरो  मेरे ..

दुर्गा ,काली, लक्ष्मी कहकर
मत पूजो  तुम नारी को
सामाजिक ढाँचे में लेकिन
रख दो आधी पारी को
मंदिर ड्योढ़ी न मुझे सजाओ 
बस सम्मान से रहने दो
कतरो  मेरे ...

          _नीरजा'नीरू'
              लखनऊ
[08/03, 10:48 am] कवयित्री कुसुम चौधरी गंगागंज लखनऊ: अंतराष्ट्रीय महिला दिवस
---------------****-------------------

नारी तेरी अजब कहानी,कितनी
                    पीड़ा सहती  है।
गम के प्याले हरदम पीती नहीं
                   किसी से कहती है।

    माँ बहना ,पत्नी बन करके
          रिश्ता सदा निभाती है।
    सबको भोजन ताजा देकर
           बासी तू फिर खाती है।

नारी तू ममता की मूरत कितनी
                  भोली लगती है ।
गम के -----**-------------------।

     तेरे ऊपर अत्याचारों का अंबार
                            लगा रहता ।
      अन्तर्मन में कष्टों का तेरे
               शैलाब भरा रहता ।

फिर भी नहीं हारती नारी ,कुन्दन
                    सी तू जलती है।।
गम के ----------------------------।

    रानी लक्ष्मीबाई बनकर प्राणों
                   का बलिदान किया।
   मत पूछो अब तक नारी ने
          कितना है विषपान किया।

अंध रूढियों मेंजलकरके,बलि-
                  बेदी पर चढ़ती है।
गम के------------------------।

   जीत-जीतकर नारी हरदम-
          अपनो से फिर हारी है।
    सृष्टि रचयिता बनकर नारी -
         ,कुसुम, सदा बलहारी है।

सावित्री,अनुसुइया बनकर-
       अखबारों में छपती है।
गम के----------------------- ।

         डा0 कुसुम चौधरी
          गंगागंज लखनऊ
[08/03, 11:17 am] कवि शिवेंद्र मिश्र मैगलगंज: अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं..

नारी*
नारी भगिनी औ वधू,नारी नर की शक्ति।
नारी जननी पुत्रियां, बिन नारी जग रिक्त।।
*कविता*
एक नारी जीवन मे हर पल,
संघर्ष   सदा   करती   रहती।
बचपन  से  वृद्धावस्था  तक,
बस घुट घुट कर जीती रहती।
वह इस दुनियाँ में आती जब,
पितु  मस्तक  रेखाएँ  छाती।
निज नेह बांटकर अपनो को,
सबके  दिल में हैं  छा जाती।
आंगन में किलकारी भरकर,
सबके दुःख  दर्द चुरा लेती।
रखती हर पग है फूंक फूंक,
निज-जन की मर्यादा सेती।
जीवन भर हर कठिनाई को,
बस हंसते हंसते सह जाती।
जब मां का आंगन छोड़ सदा,
अपने पति के घर को जाती।
स्वयं की समस्त इच्छाओं को,
निज अन्तर-मन में दफनाती।
जग में  जब  'मां' का रुप  धरे,
ममता  का  आँचल  फैलाती।
फिर बनके तपस्या की मूरत,
उपकार अनेकों  वह करती।
अपनी  इच्छाओं  का  स्वाहा,
कर्तव्य  की  बेदी  में  करती।
पति-पुत्र, पौत्र की  सेवा में,
अपना जीवन अर्पित करती।
'शिव' अनुपम कृति ये ईश्वर की,
इसकी  न  कोई  तुलना  होती।
शिवेन्द्र मिश्र 'शिव'
( मैगलगंज-खीरी )
[08/03, 11:20 am] डॉ विद्यासागर मिश्रा लखनऊ: अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर छन्द-

करते जो अत्याचार भारतीय नारियों पे,
उन अत्याचरियों को सबक सिखाइये।
डरिये न रंच मात्र ऐसे दुष्ट-पापियों से,
व्यभिचारियों के शीश धड़ से उड़ाइये।
नारियों की लाज पर आंच नहीं आने पाये,
देवी के समान यह इनको बचाइये।
भारतीय नारियों की लाज को बचाने हेतु,
आप भी जटायु के समान बन जाइये।।
डॉ0विद्यासागर मिश्र "सागर"
लखनऊ उ0प्र0
मो0नं09452018190
[08/03, 11:58 am] कवयित्री स्नेहलता नीर रुड़की: आप सभी को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं🌹🌹🌹🌹

कुंडलिया छन्द
*************
1
नारी भोली गाय है,ये  मत समझो आप।
उसमें दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती की छाप।।
सरस्वती की छाप, भरम मत मन में पालो।
देख सुकोमल गात,दृष्टि कुत्सित मत डालो।
'नीर' कभी वह फूल,कभी तलवार दुधारी।।
सृजन और संहार, निभाती दोनों नारी।।

2

'नारी' माँ,अर्धांगिनी,बेटी , भगनी, मित्र।
सब रूपों में सन्निहित,प्रेम  भाव  का इत्र ।।
प्रेम भाव का इत्र,लुटा  घर  स्वर्ग बनाती।
दे ममता की  छाँव,सदा  जीवन महकाती।।
बनिता अबला नहीं,आज वह सब पर भारी।
करो  मान-सम्मान,  बढ़ेगी  आगे  नारी।।

-स्नेहलता"नीर"
1960 प्रीत विहार रुड़की
जनपद हरिद्वार ,उत्तराखंड 267667
[08/03, 12:18 pm] कवयत्री अनामिका श्रुति सिंह नागपुर: काव्य रंगोली
महिला दिवस के अवसर पर मेरी    एक कविता    -

भग्न हृदय
🌹🌹🌹

नारी जीवन सदा महान
सब करते इसका गुणगान
सीता हो या सावित्री हो
जग में कर गई अपना नाम ।

आदर्श स्थापित कर ऊँचा
जग में रहना कितना मुमकिन
सीता और सावित्री को भी
था चैन कहाँ रत्ती भर लेकिन।

सतयुग हो या त्रेता हो
द्वापर या कलयुग की रात
ग्रंथ उठाकर बांचे जो
हर जगह भग्न हृदय की बात ।

कभी सुना था किस्सो में
धंस जाती एक हाथ धरा
बेटियों के जन्म लेते ही
मां-बाप का बोझ बढ़ा।

क्या शापित है नारी सदा
इस धरा का बोझ उठाने को
प्यार ,दया और निष्ठा जैसी
कोमल भाव बहाने को।

सीता सावित्री तो नहीं
यह नवयुग की नारी है
पर त्याग, तपस्या, निष्ठा तो
युग- युग की विरासत पाई है।

खुद ही बंधी रही डोर से
शाप मुक्त कैसे होगी
होगी भले ही भग्न हृदय
पर भाव रिक्त नहीं होगी।

अनामिका सिंह
चंद्रपुर, महाराष्ट्र
7990615119
[08/03, 5:22 pm] कवियित्री गीता गुप्ता 'मन' C/o पंकज सिंह
नवीपुरवा धर्मशाला रोड
हरदोई: दोहे-नारी

नारी श्रद्धा रूप है, देवी रूप समान।
ममता का भण्डार है, सदा करो सम्मान।

नारी जीवन संगिनी, देती नर का साथ।
संकट कितना हो बड़ा, नही छोड़ती  हाथ।

कर्तव्यों की नींव है, वनिता  बड़ी महान।
जननी बन पालन करें, प्रेम पले सन्तान।

सीता अनुपम त्याग से, वैदिक युग की शान।
नारी देविस्वरूप है,ज्ञानवान गुणवान।

है ममता ,अनुराग की, समझो नारी   खान।
अबला न समझो इसे,रणचण्डी है जान।

आया संकट देश में, नारी बन पतवार।
बाँधा बेटा पीठ  पर,चला रही तलवार।

स्वरचित
गीता गुप्ता 'मन'
उन्नाव-उत्तरप्रदेश
[08/03, 6:49 pm] +91 85328 52618: 🍋🍓    गीतिका  🍓🍋
              *************************
                          💧  नारी  💧
                     आधार- छंद-विधाता
         मापनी- 1222  1222  1222  1222
                 समांत- आन, पदांत- है नारी
     🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

हमारी  सृष्टि में  भगवान का  वरदान  है  नारी ।
वही  बेटी वही जननी अथक  पहचान है नारी ।।

बडी़ है त्याग की मूरति तपस्या जो करे सब को,
करे पय खून से पोषित  सभी की जान है नारी ।

लिया  जो जन्म  कहते  हैं पराई  है  चली  जाये,
बनी ससुराल में आश्रित बड़ी अनजान  है नारी ।

जगत की माँ प्रथम शिक्षक कराती बोध है हमको,
सिखा कर सत्य कथनों को भरे सत ज्ञान है नारी ।

बनाती  सुत सुताओं को  सदा ही योग्य  शिक्षा दे,
बसा  देती  सभी के  घर सुखी अरमान  है नारी ।

मनाती  है मनौती  वह  सभी संतान  के सुख  को,
सभी  उपवास व्रत करती  खुशी का दान है नारी ।

सजग ममता  दिखाती है  रहे खटती  हमेशा वह ,
खिलाती  है प्रथम  हमको बचा पकवान है नारी ।

कभी  सीता  कभी  राधा  कभी  अनुसूइया  माता,
गढ़ी है  कीर्ति सत पथ पर  हमारी  शान है  नारी ।

बनी  झाँसी  महारानी   नहीं  मानी  गुलामी  थी ,
महा  रणचंडिका बन के  वतन का  मान है नारी ।

सदा वह  दम्भ को  सहती  बहू  बेटे नहीं  समझें ,
दुखी फिर भी करे  चिन्ता गमों का  पान है नारी ।

कहें लक्ष्मी उसे घर की अरे उसका कहाँ घर है ?
पराश्रित है सदा ही वह दुखित मुस्कान है नारी ।।

             🍎🍀🌴💧🌸🌀🌺

🌴🌻...रवीन्द्र वर्मा मधुनगर आगरा
               मो0- 8532852618
[08/03, 7:12 pm] कवयत्री पूनम रानी रांची: अन्तर्राष्टीय महिला दिवस  पर समस्त नारी-शक्ति  का वन्दन-अभिनन्दन  करती चार पंक्तियाँ:---
प्रतियुग-प्रति-ब्रह्माण्ड विदित है  ,
जिसकी महिमा भारी !
ब्रह्मा-विष्णु-महेश "बाल" बन,
जाते हैं  बलिहारी !!
पुत्री-पत्नी-मातृ रंप में,
अति आदर अधिकारी !
सकल सृष्टि का "मूल"-
प्रकृति की,
अनुपम "कृति" है "नारी" !!

[08/03, 7:52 pm] निरुपमा मिश्रा नीरू हैदर गढ़ बाराबंकी: काव्य रंगोली अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2021काव्य सृजन समारोह हेतु

विषय - नारी
विधा - दोहा

नारी बिन जीवन नही, जाने यह संसार।
यही सृष्टि का रूप है, यही जगत आधार।१।

जिस घर में होता नही, नारी का सम्मान।
विपदा की पहचान है, वह घर नरक समान।२।

विषम परिस्थिति को सदा, लेती रही संभाल।
सुख का बनती आसरा, दुख में बनती ढाल।३।

इंद्रधनुष जैसे लगे, नारी के हर रूप।
माँ बहन संगिनी सुता, जीवन सरल अनूप।४।

मानवता के हित में सदा, रखना है यह ध्यान।
शिक्षित सभ्य समाज हो, नारी का सम्मान।५।

नारी के माधुर्य में, शक्ति रूप सौंदर्य।
जीवन में है संतुलन, स्नेह शौर्य एश्वर्य।६।

अपने ही परिवेश में, लाना हमें सुधार।
सुरक्षित नारी अस्मिता, मिले सभी अधिकार।७।

वाणी कर्म विचार से, करिए मत अपमान।
आहत मन नैना सजल,चुभता शूल समान।८।

रचनाकार- निरुपमा मिश्रा 'नीरू'
पता - हैदरगढ़-बाराबंकी (उ०प्र०)
मोबाइल नंबर- 8756697686
[08/03, 8:14 pm] कवि विनय कुमार बुद्ध असम: *नारी*
(विधा: चौपाई)
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बहन सुता दारा महतारी ।
नारी जगत शक्ति अवतारी ।।
पर उपकार धरा महँ आई ।
नारी महिमा बरनि न जाई ।।

जहँ नारी पाबत दुख नाना ।
सो घर होयहु नरक सामना ।।
जे नर करहि नारि अवमाना ।
काहू न अधम ताहि समाना ।।

घाट बाट घर गली लजाई ।
दुष्टन नहीं तजे कटुलाई ।।
राबण बैठहि घात लगावा ।
आपन आपन सुता बचावा ॥

बैठहु कारन कवन बिचारा ।
नारी भोगत कष्ट अपारा ।।
करहु जतन सब सज्जन भ्राता।
समय रहत चेतहु अब ताता ।।        

हर घर सुता पढ़हि जब आजू ।
करहि प्रगति तब सकल समाजू।
धन्य धन्य समस्त परिवारा।
कान्धा देई बनै सहारा ।।
    ✒️ *विनय कुमार बुद्ध*, न्यू बंगाईगांव, असम, फोन: 9435913108.
[08/03, 9:14 pm] नीरज अवस्थी काव्य रंगोली: कठिन होगी डगर लेकिन,
न तुम कभी डगमगाना।
करके दृढ़ संकल्प मन में,
पाँव को आगे बढ़ाना।

आत्म रक्षा के सभी गुण,
सीख सखियों को सिखाना।
रुक न जाना तुम ठिठक कर,
जीत कर दुनिया दिखाना।

खुद लड़ो अपनी लड़ाई,
छोड़ दो आँसू बहाना।
जो कहे कमजोर तुमको,
बल उसे अपना दिखाना।

बेड़ियाँ सब तोड़ डालो,
अपना तुम डंका बजाना।
नारियाँ भी कम नहीं हैं,
अब सभी को तुम बताना।

जिस्म को फौलाद कर लो,
भेड़ियों से डर न जाना,
कह रही 'प्रतिभा' सभी से,
लाज तुम अपनी बचाना।

प्रतिभा गुप्ता
भिलावां,आलमबाग
लखनऊ
मो-8601546171
[08/03, 9:19 pm] नीरज अवस्थी काव्य रंगोली: महिला दिवस पर विशेष:

नारी में सीता बसती है।
नारी में राधा रमती है।।
नारी की अपनी गरिमा है।
नारी की अपनी महिमा है।
नारी अपने में सुषमा है।
नारी आराध्य अनुपमा है।।
नारी ममता की सागर है।
नारी करुणा की आगर है।
नारी से नर सम्मानित है।
नारी से नर अनुशासित है||
ऊषा की प्रथम अरुणिमा है।
ऋतु की मधुमास प्रियतमा है।।
चंदा की चारु चांदनी है।
संस्रति की सुभग कामिनी है।।

नारी तुम सुभग कामिनी हो!

-  योगेंद्र नाथ द्विवेदी
Mobile Number 07007571382
[08/03, 9:36 pm] कुं जीतेश मिश्रा "शिवांगी": काव्य रंगोली अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2021 काव्य सृजन समारोह हेतु
8 मार्च महिला दिवस
कार्यक्रम प्रमुख आदरणीया सरोज दीदी के समक्ष सादर प्रेषित

शीर्षक-: हे नारी !
विधा-: कविता

नारी तुम सुंदर चित्रण हो ।
मानव जीवन के पन्नों का ।।

साहस हो शील नेह श्रद्धा ।
तुम जीती हो मुस्कानों में ।।
बुझती लौ सी आशाओं में ।
तुम प्राण फूँकती प्राणों में ।।

तुम लज्जा का श्रृंगार किये ।
अधरों पर कोमलता लेकर ।।
तुम सृजन विश्व का करती हो ।
निज आँचल में ममता लेकर ।।

तुम त्याग धैर्य की मूरत हो ।
परहित के कष्ट उठाती हो ।।
निज सुख का कर बलिदान सदा ।
विष रूप अश्रु पी जाती हो ।।

हे नारी ! तुम हो शक्ति पुंज ।
करती तुम नव निर्माण सदा ।।
निश्चित जय सदा पराजय पर ।
दुष्टों का कर संहार सदा ।।

पीड़ा को सहज ही सहती हो ।
मुख पर धारण मुस्कान किये ।।
तुम मौन का पहने भूषण हो ।
इक्षाओं का हर घूँट पिये ।।

क्या क्या लिख दूँ नारी तुमको ।
तुम हो अंनत निर्मल धारा ।।
भव्यतम रूप लघु शब्दों में ।
कैसे उकरे चित्रण प्यारा ।।

प्रकृति बिन प्रेम नहीं जीवित ।
नारी से मोल है अन्नों का ।।
नारी तुम सुंदर चित्रण हो ।
मानव जीवन के पन्नों का ।।

स्वरचित-: शिवांगी मिश्रा
               धौरहरा,
              लखीमपुर खीरी
[08/03, 9:37 pm] नीरज अवस्थी काव्य रंगोली: काव्य रंगोली अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2021 काव्य सृजन हेतु

एक बार चट्ट से जो टूट गया धागा कोई
आप किसी युक्ति से दोबारा जोड़ देंगे क्या?
चाक पर चढ़ा, बना और फिर पक गया
देख कुदरूप बार-बार फोड़ देंगे क्या?
धार सरिता की तेज बहे निज वेग में ही
आप जहाँ चाहे वहाँ वैसे मोड़ देंगे क्या?
बेटी हो हमारी,आपकी हो या किसी की भी हो
उसे सरकार के सहारे छोड़ देंगे क्या?
~शाश्वत अभिषेक मिश्र
[08/03, 10:27 pm] कवि ओंकार त्रिपाठी दिल्ली बाय राजीव पाण्डेय जी: *काव्य रंगोली अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2021काव्य सृजन समारोह हेतू।*

दीप शिखा सी जलती नारी फिर भी है क्यों अन्धकार में।

जो जननी बन सन्तानों को अमृत सा पय-पान कराती।
सुर्य किरण बन जो अग-जग को ज्योति सरोवर में नहलाती।
जिसकी परछाईं दुलार है जिसकी ममतामय पुकार है
जो नारी दिग्भ्रमित मनुज को हर पल हर क्षण राह दिखाती।
जो कश्ती है स्वयं आज वह डूब रही क्यों बीच धार में।
दीप शिखा सी जलती नारी फिर भी है क्यों अन्धकार में।

नारी के शोषण की गाथा दिल को दहलाने वाली है।
आज प्रभा के आनन पर क्यों छाई सघन घटा काली है।
सीता-सावित्री के कुल पर क्यों है विपदाओं का साया।
रस की नदी आज नीरस है क्यों मधु की प्याली खाली है।
आज भरी है किसने पावक, नारी मन के तार-तार में।
दीप शिखा सी जलती नारी फिर भी है क्यों अन्धकार में।

कहीं पुरुष द्वारा शोषित है कहीं सास के व्यंग सताते।
बिन दहेज के क्यों नारी तन ज्वाला में झुलसाये जाते।
पत्थर शिला समझकर उसको क्यों ठोकर मारी जाती है।
क्यों न अहिल्या के चरणों में रघुवर फिर से शीश झुकाते।
नारी है मधु ऋतु की रानी फिर भी व्याकुल है बहार में।
दीप शिखा सी जलती नारी फिर भी है क्यों अन्धकार में।

पुरुषों ने नारी के तन को केवल एक खिलौना माना।
गौतम ने कब यशोधरा सत्य कहो पूरा पहचाना।
नारी सिर्फ समर्पण वश ही बनती नर की अंक शायिनी।
रूप शमा पर जलने को आतुर रहता है हर परवाना।
लय माधुरी बसानी होगी फिर से सांसों की सितार में।
दीप शिखा सी जलती नारी फिर भी है क्यों अन्धकार में।

नारी को वर्चस्व चाहिये फिर से पुरुषों के समाज में।
एक प्रबल स्वर लहरी बनकर फिर वह गूंजे सुप्त साज में।
नारी श्रद्धा और लाज की जग में रही सहचरी अब तक।
उसे सजाना होगा फिर से हमको गौरव भरे ताज में।
नारी जय की परिचायक है लेकिन कुण्ठित रही हार में।
दीप शिखा सी जलती नारी फिर भी है क्यों अन्धकार में।

ओंकार त्रिपाठी,
दिल्ली
@सर्वाधिकार सुरक्षित
[08/03, 10:48 pm] Nr 21 शालिनी तनेजा: *काव्य रंगोली अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस 2021काव्य सृजन समारोह हेतू।*
************†************
"नारी" - तू खुद ही सक्षम

नारी तू खुद ही सक्षम है
    नव अंकुर तुझ में मुस्काता
जग क्या देगा अधिकार तुझे
     जब तु ही जग की निर्माता

झलक तेरे सार्मथ्य की
    उस पल भी जग ने देखी थी
लक्ष्मीबाई के रुप में
     जब तु हम सब के सम्मुख थी

कभी-कभी सम्मुख ना आकर भी
    तुने सार्मथ्य दिखाया है
तेरी ही शिक्षा से शिवाजी सा   
      शासक इस राष्ट्र ने पाया है

राष्ट्र भक्ति की पाराकाष्ठ
     तब भी जग ने देखी थी
असाधारण बलिदान तु जब
   पन्ना बनकर, कर बैठी थी

नारी के हर रुप में तु
     पुरुर्पों का संबल बनती है
फिर क्यों महिला सशक्तिकरण की
     बात ये दुनिया करती है?

     स्वरचित-
       शालिनी तनेजा (दिल्ली +91 9654861075)
[09/03, 8:12 am] नीरज अवस्थी काव्य रंगोली: अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस को समर्पित नौ दोहे!🙏 

अटल सत्यवादी  रहे , हरिश्चंद्र  महाराज !
पत्नी शैव्या पुत्र की दे,बलि जिसके काज !!

अग्नि परीक्षा दें सिया,फिर भी हो वनवास!
रामराज्य के लिए भी , सीता सहतीं त्रास !!

पीड़ित है अपनी सुता, मां को आया ध्यान !
फटा हृदय तब भूमि का, मिला वहीं स्थान। 

चंद दिनों की प्रीत थी,वर्षों का अवसाद !
हुए द्वारकाधीश तुम , राधा सहे विषाद!!

लगे द्रोपदी दांव पर , द्यूत बने जब धर्म !
धर्मराज के धर्म का, जाने क्या था मर्म !!  

यशोधरा के प्रश्न का, उत्तर दो हे बुद्ध!
भागे थे क्यों छोड़कर,ये जीवन का युद्ध!!

राहुल का अपराध तो,कुछ बतलाओ आज!
पितृ धर्म से विमुख हो ,आयी ना क्यों लाज!! 

आज जशोदा बेन भी,भुगत रहीं वनवास!
नारी ही क्यों सदा ही , सहे पुरुष का त्रास !!

युगों युगों से जो हुआ , अनुचित अत्याचार !
क्या अनुचित जो अब करे,नारी भी प्रतिकार !!
                     
                    श्रीकांत त्रिवेदी, लखनऊ
[10/03, 9:48 am] नीरज अवस्थी काव्य रंगोली: काव्य रंगोली अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2021काव्य सृजन समारोह हेतु
**************************
दिन-रात मैं खटती रहती हूं
मेहनत से नहीं डरती हूं
बस एक दिवस से क्या होगा
सारे दिवस तो मुझसे हैं ।

मेरे बिना क्या जीवन होगा
मेरे बिना धरती सूनी है
कण कण में है मेरा बसेरा
मैं हूं तो हरियाली है ।

कदम मिलाकर चलें आज से
महिलाओं के संग
स्वर्ग सी सुंदर दुनिया होगी
होंगे प्यार के रंग ।

              @ महेंद्र जोशी
‌                     नोएडा
                9818198456
[10/03, 10:20 am] नीरज अवस्थी काव्य रंगोली: काव्य रंगोली अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2021 काव्य सृजन समारोह हेतु

हे नारी का अभिमान जगो,
रण की भीषण हुंकार जगो।
कल  नही  तुम  आज जगो,
हाथों में लेकर तलवार जगो।।2।।

जगना हैं तो बस आज जगो,
माँ  पद्मिनी  की  आन जगो।
लक्ष्मीबाई की ललकार जगो,
ले  एक  नया  इतिहास जगो।।2।।

तुमको तो अब  जगना होगा,
यह  समर तुम्हें लड़ना होगा।
यदि आज नहीं तो कब होगा,
हे  नारी  अब  न  कल  होगा।।2।।

अब न त्रेता, द्वापर युग होगा,
न राम  कृष्ण  का  युग होगा।
पांचाली अब खुद लड़ना होगा,
अब केश रक्त से धुलना होगा।।2।।

हे नारी अब तुम संधान करो,
ये वार तुम अंतिम बार करो।
रण भीषण अबकी बार करो,
यह रण ही अंतिम बार करो।।2।।

~कुमार नमन
लखीमपुर-खीरी

डॉ अभिमन्यू पाराशर काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार

 

नाम-डॉ अभिमन्यू पाराशर



पिता का नाम-श्री रामानंद शर्मा,
माता का  नाम-श्रीमती सुमन देवी,
पत्नी--श्रीमती रीना शर्मा,
पुत्र--दक्ष पाराशर,
जन्म स्थान : गाँव--शिमला,
तहसील-- खेतड़ी, जिला--झुंझुनूं (राजस्थान)
शिक्षा--शास्त्री , शिक्षा-शास्त्री, आचार्य(नव्य व्याकरण), सामुद्रिक रत्न,  एम.ए.(अंग्रेजी), (हिंदी),बी.लिव, पत्रकारिता,
रुचि-साहित्यसृजन, कविता, ज्योतिष/हस्तरेखा,समाज-सेवा,
संपर्क न.-9413723865,
              8769588160,
ईमेल:-astroabhimanyu89@gmail.com

संस्थाओं में पद
: राष्ट्रीय अध्यक्ष, बेटी बढ़ाओ फाउंडेशन,
:अध्यक्ष, साहित्यकार टी.सी.प्रकाश स्मृति मंच एवं धर्मार्थ सेवा संस्थान,
:प्रदेश संरक्षक , विश्व सनातन वाहिनी (देवस्थान प्रकोष्ठ राजस्थान)
:अध्यक्ष, जलाराम बापा ज्योतिष संस्थान(रजि.)

सम्मान
:ज्योतिष/हस्तरेखा में गोल्डमेडलिस्ट,
:डॉ जितेंद्र सिंह पूर्व सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री द्वारा 'साहित्य श्री' उपाधि से सम्मानित,
:देश की कई संस्थाओं  से सम्मानित,
: कला श्री सम्मान,
:कोरोना योद्धा  सम्मान कई संस्थाओं से प्राप्त,
:ग्रामीण पत्रकारिता के लिए सम्मानित।
: लीजेंड दादा साहब अवार्ड से सम्मानित।
:राष्ट्रीय समाज सेवा रत्न अवार्ड से सम्मानित।
:भारत सेवा रत्न गोल्ड मैडल अवार्ड से सम्मानित।

लेखन:--
अनेक दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक समाचार पत्रों में लेखन,
ज्योतिष की पत्रिकाओं में लेखन।
साहित्यिक पत्रिकाओं मे लेखन l

विषय:--मेरी भाषा

हम तो सिर्फ करते हैं 14 सितंबर को ही हिंदी का सम्मान,
कहते हैं जिसको हम सब राष्ट्रभाषा नहीं रहता किसी को ध्यान,
हर समय बोलने वालों का करते हैं हम अपमान,
याद आता है बस हमें तो हिंदी बचाओ अभियान,
एक दिन भाषण देकर नेता क्यों समझते हैं खुद को महान ,
और दिन लगता है हिंदी बोलने से उनको अपना अपमान,
अब तो सुधर जाओ देशवासियों मत करो अपमान,
हमारी  राष्ट्रभाषा हिंदी को दिलवाओ अंतरास्ट्रीय पहचान,।

पं. अभिमन्यू पाराशर
साहित्यकार टी.सी.प्रकाश सदन
गाँव---शिमला, जिला--झुंझुनूं(राजस्थान)
9413723865,

मुझको लौटा दो वो कालेज के दिन

मुझको लौटा दो वो कालेज के दिन ,
वो फ़ानु भाई की चाय, समोसा और मटर,
टूट पड़ते थे हम इस कदर ।

वो आपस में मिलकर खेलना
अभिमन्य,प्रकाश, अमित, पन्नालाल ,लोहान ,रविंद्र का एक साथ खाना
याद आता है वह हॉस्टल का जमाना ।

वो एग्जाम के दिनों में रातों का जागना,
एक दूसरे के नोट से पढ़ना
बार-बार डेट शीट चेक करना परीक्षा शुरू होने से पहले ही खत्म होने पर क्या-क्या करेंगे
  ये सपने देखना ।

वो परीक्षा हाल में चुप बैठना मौका मिलते ही दाएं बाएं झांकना बड़ा याद आता है ..........
बस यार यह बता दे.....
बस पाणिनी के सूत्र दिखा द
यार हिंट दे दे बस .....
यह कह कह कर सबको परेशान करना ।

वो कालेज के दिन दोस्तों का फसाना ।
याद आता है बस वो हॉस्टल का जमाना ,
वो एक साथ नहाना,
कालेज की घंटी का बजना ,
फिर एक साथ दौड़ जाना ,
आज भी  याद आता है वो गुजरा हुआ पल सुहाना ।

वो रातों का पढ़ना,
गोल चक्कर पर जाकर चाय पीना,
आकर के खेलना,
याद आता है गुजरा पल सुहाना।

वो  सर्दियों की धूप में पार्क ग्राउंड में बैठना,
बातें करते करते वो छोटी-छोटी घास का उखाड़ना बड़ा याद आता है ,
वो ग्रुप में बैठकर हर आने-जाने वाले पर कमेंट पास करना ,
वो कॉलेज के दिन और दोस्तों का फसाना ,
"पाराशर "भूले से भी नहीं भूलेंगे वो हर पल सुहाना ।

वो  छुट्टी का दिन बिट्स में बिताना ,
मन की टेंशन को बिरला मंदिर में भगाना,
आज भी याद आता है वो पल सुहाना।

वो  बुधवार के दिन का इंतजार करना।

गणेश जी के मंदिर में जाना, तिवारी सर का सत्कार करना,
वो मिलना जुलना आज भी याद आता है वो पल सुहाना ।

वो शाम  की यादें वो पल सुहाना पार्क में बैठकर घंटों बतियाना, एक दूसरे का हालचाल जाना आज भी याद आता है वो पल सुहाना ।

वो हॉस्टल के साथियों को आदर देना,
शास्त्री जी ,आचार्य जी ,कहकर बुलाना ,
भारतीय संस्कृति की परंपरा को निभाना,

वो कॉलेज के वार्षिक उत्सव की पहले से तैयारी करना ,
और वार्षिक उत्सव के दिन अपने पुरस्कार का इंतजार करना ,
आज भी याद आता है वो पल सुहाना,

कि काश : कोई लौटा दे वो पल पुराना,
"पाराशर" भूले से भी नहीं भूलेंगे वो हर पल सुहाना।


शीर्षक:-- एक खास रिश्ता.

रिश्ता है एक बहुत ख़ास, जुड़ा है अपनापन और विश्वास।

राखी के धागों के संग, करवाता है अहसास।

रिश्ते तो बहुत है दुनिया में, मगर ये रिश्ता है खास ।
खुशी हो या गम हो कोई ,
उसे हो जाता है अहसास। क्योंकि बहन हो या भाई, होता दोनों को अटूट विश्वास।
भावनाओं का होता है विशेष वास ,
महसूस मात्र से हो जाता है आभास ।
खूबियों की करते हैं अक्सर तलाश,
फिर उनको ही बनाते हैं अपना निवास ।
ये ना होते कभी भी हताश, आखिर मंजिल मिलती है  इनके  ही पास।
करते हैं अपने नए सफर की तलाश ,
"पाराशर "इसलिए ही होता है यह रिश्ता खास

अभिमन्यू पाराशर
साहित्यकार टी.सी.प्रकाश स्मृति भवन(गाँव--शिमला,
जिला--झुंझुनू (राजस्थान)
9413723865

शीर्षक:--जीतेगा इंडिया, हारेगा कोरोना,
मैं हूँ शिक्षा की नगरी,
जो रहती हूं हमेशा साफ-सुथरी,
यह कैसा दिन है आया,
हाय किसकी नजर लगी बुरी,
करो ना है भाई परीक्षा की घड़ी,
मेरा दिल घबराता, कब खत्म होगी ये घड़ी,
घर बंदी से जी घबराया,
ये कैसा दिन है आया,
कोरोना है महामारी,
ये छूत की बीमारी,
ऐसे में घर से निकलना,
पड़ जाएगा भारी,
साबुन से हाथ धोना हैं जरूरी,
आपस मे बना के रखना  थोड़ी दूरी,
6 फ़ीट का बना के रखना सबसे फासला,
पर मन की मन से मत रखना
दूरी।
इस दुःख की घड़ी में "पाराशर" तुम अपना संयम ना खोना,
वो दिन भी आएगा जल्दी, जब जीतेगा इंडिया, हारेगा कोरोना।
पं. अभिमन्यू पाराशर,
जलाराम बापा ज्योतिष संस्थान गाँव-- शिमला, जिला---झुंझुनूं, राजस्थान 332746
9413723865, 8769588160
astroabhimanyu89@gmail.com


शीर्षक  :-"मोबाइल और संस्कार"

इंसान को शांति नहीं
मोबाइल से नज़र हटती नहीं
सुबह उठते ही चाहिए मोबाइल
अब बच्चे बड़ो के पैर छूते नहीं
यह कैसा बदला है मानव
की अब किसी से मिलता नहीं
मोबाइल की हर ध्वनि से वाकिफ
लेकिन कोई
अपनो की पुकार सुनता नहीं
और इस गिरती दुनिया में
मोबाइल से ऊपर कोई उठता नहीं,
है गलत नहीं, यह फोन की आदत
अगर हो उपयोग सही की बाबत
ये तो है केवल संपर्क का साधन
और है मिलों दूर के दोस्त से "पाराशर"
जुड़े रहने का संसाधन।
पं. अभिमन्यू पाराशर
गाँव--शिमला, जिला--झुंझुनूं,(राजस्थान)


शीर्षक :--मां की ताकत .....
मां जिसको नाम दिया दुनियां और विधाता ने ।।
वो अनमोल सहारा धूप बारिस में जो दिया छाता ने।।
जिसको चाहे उसको सम्राट बना देती ममता के प्रभाव से।।
जिस पर टेढी नजरें कर दे उसको मटियाती अपने ताव से ।।
ये वो तगडियत जो सबरी बन सफलाती है ।।
ये वो बिगडियत जो कैकयी बन बनवासाती है।।
ये अंजनी के रूप में हनुमान जग को देती है।।
और कभी मंथरा संग मिल रूलाती है।।
इसकी ताकत को नकारना विनाशाई और बडी  नादानी है।।
ये ममताए तो मीठा पानी नहीं तो प्रलयंकाई और बडी दुख निशानी है।।
एक रूपया किराया लेकर तगडा अपमान आघात भी कर सकती करीने से।।
ये पानी अभाव अकाल ला सकती और पानी भरमार प्रलय  निज सीने से ।।
ये जिद पर आ जाए तो ईश कृपा भी थोडी है ।।
मेहर करे तो रेगिस दौडती घोडी है।।
पागल खराब अपराधी ठग गठ इसको झूठ में नाहर कहते हैं।
इसने नीति की उक्त आतताई मनमानी करते हैं।।
इसकी नीति भी रोचक अनूठी जच जाने की बयानी है।।
उक्त आतताई संग नीति और निज सुत संग अनिती कहानी है।।
इसकी मेहर इसकी मर्जी और सौभाग्य से मिला करती है ।।
मिल ग ई तो बंजर पौ बारह नहीं मतो समुंदर बनता  सूखी धरती है।।
मां की  कृपा मां की मर्जी बडी रोचक बडी अपरमपार है।।
इसको साध के रखना ये तीखी  बडी शमशीर और  धार है ।।
एक सुत ऐसा भी आज जग को जग हित में बतियाता हूं ।।
जो सुत नित अह़ं रहित हो कृपा 
याचना किया करता है ।।
पर मां का हठ नित सुत नकार किया करता है।।
सुत चमत्कार सेवा  नाम रोशन वादा देकर मदद मां चरणों में मंगियाता है।।
पर मां मन कठोर हो निज सुत धकियाता है।।
बस यही आकर हम महान हिंदुस्तानी खुद से ही ठगी किया करते है ।।
हम अपने ही एक झूठे लोक में जिया करते हैं।।
मां बाप कभी बुरे नहीं हो सकते लोह लीक कह बखनाते हैं।।
और सच को सच कहने से मुकराते हैं।।
मां कौशल्या तो मां कैकयी भी होती है ।।
राम बनवास गमन पर एक रोती दूजी मुसकाती है ।।
एक की सखी नीति दूजी बदबू मंथरा मितराती है ।।
पिता दशरथ तो पिता हिरण्य भी धरम लेख बतलाते हैं।।
पर हम तो आंख मूंद झूठ ही गाते हैं
कवि राज संग अभि अपने  वल्लभ कवि दिनकर धोक लगा कवियाए हैं।।
हमें मां को पूजना है आदरना है पर सच भी बखान होता रहे यही गाए हैं ।।
  --पं.अभिमन्यू पाराशर
जलाराम बापा ज्योतिष संस्थान ,शिमला(झुंझुनूं)
राजस्थान 9413723865

शीर्षक:-- मेरे अरमान:मेरे पिता
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मेरे सपने मेरी जान है पिता,
मेरे अरमान है मेरे पिता,
मेरी सांसे, मेरी धड़कन,
मेरी आवाज है मेरे पिता,
मैं उनका प्रतिरूप प्यारा हूं वो जग में लाए मुझको,
मैं वो उजियारा हूं,
मैं उनका प्रतिरूप पयारा हूं,
निज साँसे  पूरी कर,
निज  जीवन तो पशु भी जीया  करते हैं,
पर नचिकेता वही जो पिता के दुख पीया करते हैं,
सुत पिता को पियारे,
और सम्माने भरपूर ,
यही जीवन की सार्थकता और मानव का नूर।

अभिमन्यू पाराशर
साहित्यकार टी.सी.प्रकाश स्मृति भवन(गाँव--शिमला,
जिला--झुंझुनू (राजस्थान)

शीर्षक:-- योग-दिवस
सुख और स्वास्थ्य का चुम्बक योग हैं,
रोगों को भगाने का संयोग योग हैं,
ये दुनिया को हिन्द का अनुपम दान योग हैं,
सूर्य वंदना से शुभारंभ योग हैं,
स्वयं में स्फूर्ति भरने के लिए योग हैं,
प्रातःकाल घर से निकल पड़ना योग हैं,
यदि जग चाहे होना सुखी, स्वस्थ, शतायु,
तो सिख ले हिन्द से ,
गौ-पालन, शाकाहार, नशा रहित , योग , संगीत चिरायु।
          अभिमन्यू पाराशर
साहित्यकार टी.सी.प्रकाश स्मृति भवन(गाँव--शिमला,
जिला--झुंझुनू (राजस्थान)


*मेरे पापा*
मेरे पापा मेरे सारथी, रथ दौड लगाएगा।।
मेरी लेखनी ही गांडीव मेरा विफलता मार भगाएगा।।
मेरे पापा लेखनीधर,लेखनी पूंजी दी वरदान में।।
मैं उनका नाम रोशनाउंगा अखिल हिंदुस्तान में।।
उंहोंने मुझे अनमोल ब्रह्म जीवन दिया, दुनिया जहान में।।
मैं शुभ सफल करमों के कशीदे पढूंगा उनके मान और सम्मान में।।
पापा मुझे जग में लाए और मैं लाया उनका पोता।।
भाग्य हमारे जगें रहें और अभाग्य रहे सोता।।
मेरे पापा अनमोल पिता  भी हैं।।
मेंरे संरक्षक और सफलता   भी हैं।।
मेरे पापा पूज्नीय ह्रधय श्रद्धा सरोकार से।।
वे शतायु रह हमें संरक्षाएं सफलाए जीवन व्यापार से।।

अभिमन्यू पाराशर
साहित्यकार टी.सी.प्रकाश स्मृति भवन(गाँव--शिमला,
जिला--झुंझुनू (राजस्थान)
9413723865

शीर्षक: *पिता की महिमा*
पिता जगत में अनमोल हैं , पिता ही हैं पालनहार ।।
पिता  में समाई खुशिया अपार,
,पिता ही हैं त्योंहार।।
पिता ने जीवन अनमोल दिया, रोटी देकर पाला ।।
पिता की  आशिर चाबी से खुले है जय का ताला।।
पिता कंधे पर बिठा,मंदिर के दर्शन दर्शाए।।
पिता के खिलाए आम मूंगफली बहुत याद आए।।
पिता जगत में अनमोल हैं पिता संरक्षक साए।।
पिता जगत में अनमोल साया, पिता है पालनहार ।।
पिता है खुशियों का मेला और पिता है जेवनार ।।
सो हर पुत्र को पिता सम्मान सेवा करनी चाहिए।।
पिता अनमोल हैं पिता की महिमा गाहिए।।(गाईए)
पिता जनक, पिता दशरथ और पिता जमदगनी हुए।।
हम अच्छे बेटे बने, ईति(ईतिहास) से बढकर श्रेष्ठ कर्म करें नए।।
जरूरी नही हर पिता मिनस्टर औ धनदार हो।।
गरीब हो पर आत्मा में प्यार हो।।
निज संतती से आत्मीय सरोकार हो  ।।
प्यार सम्मान श्रद्धा ही अनमोल गुण जो पिता संतती रिश्ते को सफलाए हैं।।
ये गुण  बाजार नही बिकते, हर महान ने मन में उपजाएं हैं।।
इनको उपजाया अपनाया वो ही श्रेष्ठ रिश्ताधारी है ।।

अभिमन्यू पाराशर
साहित्यकार टी.सी.प्रकाश स्मृति भवन(गाँव--शिमला,
जिला--झुंझुनू (राजस्थान)
9413723865

अभिमन्यू पाराशर
साहित्यकार टी.सी.प्रकाश स्मृति भवन(गाँव--शिमला,
जिला--झुंझुनू (राजस्थान)
9413723865

             

              परिचय

नाम-अभिमन्यू पाराशर
पिता का नाम-श्री रामानंद शर्मा,
माता का  नाम-श्रीमती सुमन देवी,
पत्नी--श्रीमती रीना शर्मा,
पुत्र--दक्ष पाराशर,
जन्म स्थान : गाँव--शिमला,
तहसील-- खेतड़ी, जिला--झुंझुनूं (राजस्थान)
शिक्षा--शास्त्री , शिक्षा-शास्त्री, आचार्य(नव्य व्याकरण), सामुद्रिक रत्न,  एम.ए.(अंग्रेजी), (हिंदी),बी.लिव, पत्रकारिता,
रुचि-साहित्यसृजन, कविता, ज्योतिष/हस्तरेखा,समाज-सेवा,
संपर्क न.-9413723865,
              8769588160,
ईमेल:-astroabhimanyu89@gmail.com

संस्थाओं में पद
:अध्यक्ष, साहित्यकार टी.सी.प्रकाश स्मृति मंच एवं धर्मार्थ सेवा संस्थान,
:प्रदेश अध्यक्ष, विश्व सनातन वाहिनी (देवस्थान प्रकोष्ठ राजस्थान)
:अध्यक्ष, जलाराम बापा ज्योतिष संस्थान(रजि.)

सम्मान
:ज्योतिष/हस्तरेखा में गोल्डमेडलिस्ट,
:डॉ जितेंद्र सिंह पूर्व सूचना एवं जनसंपर्क मंत्री द्वारा 'साहित्य श्री' उपाधि से सम्मानित,
:देश की कई संस्थाओं  से सम्मानित,
: कला श्री सम्मान,
:कोरोना योद्धा  सम्मान कई संस्थाओं से प्राप्त,
:ग्रामीण पत्रकारिता के लिए सम्मानित।
लेखन:--
अनेक दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक व मासिक समाचार पत्रों में लेखन,
ज्योतिष की पत्रिकाओं में लेखन।

शीर्षक:--मुझको लौटा दो वो कालेज के दिन

मुझको लौटा दो वो कालेज के दिन ,
वो फ़ानु भाई की चाय, समोसा और मटर,
टूट पड़ते थे हम इस कदर ।

वो आपस में मिलकर खेलना
अभिमन्य,प्रकाश, अमित, पन्नालाल ,लोहान ,रविंद्र का एक साथ खाना
याद आता है वह हॉस्टल का जमाना ।

वो एग्जाम के दिनों में रातों का जागना,
एक दूसरे के नोट से पढ़ना
बार-बार डेट शीट चेक करना परीक्षा शुरू होने से पहले ही खत्म होने पर क्या-क्या करेंगे
  ये सपने देखना ।

वो परीक्षा हाल में चुप बैठना मौका मिलते ही दाएं बाएं झांकना बड़ा याद आता है ..........
बस यार यह बता दे.....
बस पाणिनी के सूत्र दिखा द
यार हिंट दे दे बस .....
यह कह कह कर सबको परेशान करना ।

वो कालेज के दिन दोस्तों का फसाना ।
याद आता है बस वो हॉस्टल का जमाना ,
वो एक साथ नहाना,
कालेज की घंटी का बजना ,
फिर एक साथ दौड़ जाना ,
आज भी  याद आता है वो गुजरा हुआ पल सुहाना ।

वो रातों का पढ़ना,
गोल चक्कर पर जाकर चाय पीना,
आकर के खेलना,
याद आता है गुजरा पल सुहाना।

वो  सर्दियों की धूप में पार्क ग्राउंड में बैठना,
बातें करते करते वो छोटी-छोटी घास का उखाड़ना बड़ा याद आता है ,
वो ग्रुप में बैठकर हर आने-जाने वाले पर कमेंट पास करना ,
वो कॉलेज के दिन और दोस्तों का फसाना ,
"पाराशर "भूले से भी नहीं भूलेंगे वो हर पल सुहाना ।

वो  छुट्टी का दिन बिट्स में बिताना ,
मन की टेंशन को बिरला मंदिर में भगाना,
आज भी याद आता है वो पल सुहाना।

वो  बुधवार के दिन का इंतजार करना।

गणेश जी के मंदिर में जाना, तिवारी सर का सत्कार करना,
वो मिलना जुलना आज भी याद आता है वो पल सुहाना ।

वो शाम  की यादें वो पल सुहाना पार्क में बैठकर घंटों बतियाना, एक दूसरे का हालचाल जाना आज भी याद आता है वो पल सुहाना ।

वो हॉस्टल के साथियों को आदर देना,
शास्त्री जी ,आचार्य जी ,कहकर बुलाना ,
भारतीय संस्कृति की परंपरा को निभाना,

वो कॉलेज के वार्षिक उत्सव की पहले से तैयारी करना ,
और वार्षिक उत्सव के दिन अपने पुरस्कार का इंतजार करना ,
आज भी याद आता है वो पल सुहाना,

कि काश : कोई लौटा दे वो पल पुराना,
"पाराशर" भूले से भी नहीं भूलेंगे वो हर पल सुहाना।


शीर्षक:--मेरी भाषा

हम तो सिर्फ करते हैं 14 सितंबर को ही हिंदी का सम्मान,
कहते हैं जिसको हम सब राष्ट्रभाषा नहीं रहता किसी को ध्यान,
हर समय बोलने वालों का करते हैं हम अपमान,
याद आता है बस हमें तो हिंदी बचाओ अभियान,
एक दिन भाषण देकर नेता क्यों समझते हैं खुद को महान ,
और दिन लगता है हिंदी बोलने से उनको अपना अपमान,
अब तो सुधर जाओ देशवासियों मत करो अपमान,
हमारी  राष्ट्रभाषा हिंदी को दिलवाओ अंतरास्ट्रीय पहचान,।

शीर्षक:- बेटियां है अनमोल

बेटियां हैं अनमोल इसे बचाओ रे,
बेटियां हैं अनमोल,
इन्हें खूब पढ़ाओ, लिखाओ,  और आगे बढ़ाओ,
बेटियां हैं अनमोल,
बेटियां होती सबकी प्यारी इन को बढ़ाना हम सबकी जिम्मेदारी,
जब भी तुम कोई मांगलिक कार्य करवाओ,
' सबको तुम आठवां वचन दिलाओ ,
बेटियां हैं अनमोल,

'पाराशर' तुमने ठान लिया है,
बेटी ने जग को सुंदर नाम दिया है,
कन्या भ्रूण हत्या रोको रे,
गोल्डमेडल का तुम गला न घोटो रे,
बेटियां हैं अनमोल, इनको बचाओ रे,

अभिमन्यू पाराशर
हिंदी
हिंदी हिन्द का अनमोल उपहार....
हिंदी हिन्द का अनमोल उपहार,हिंदी प्यारा शब्द संसार है।।
हिंदी ने अनमोल रतन दिए बच्चन ,सुमन,दिनकर शब्द कार है।।
हिंदी संपन्न ,हिन्द वैज्ञानिक, हिंदी हिन्द राष्ट्र प्यार है।।
हिंदी सम्नाओ ,अटल हिंदी सपूत साकार है।।
हिन्द राष्ट्र एकता का हिंदी बेजोड़ फेवि कोल जोड़का र है।।
हिंदी को यथोचित  सम्मान मिले इसकी दर कार है।।
बालि वु ड फिल्मों में शुद्ध हिंदी प्रयोग हो, सुनिश्चित हिन्द सरकार करे।।
हिन्द में हिंदी नस टा ने वालों को लगाम हिन्द सत्ता क़ार करें।।
हिंदी दिए अनमोल सितारे,बच्चन परसाई सुमन पंत प्रसाद दिनकर जय जय कार है।।
हिंदी हिन्द जीवन रेखा,हिंदी प्राण संचार है।।
धरा से अभिराज स्वर्ग से परसाई सुमन दिनकर जयघोष सुमधुर पुरजोर है।।
हिंदी अनंत सागर ज्ञान का जिसका नहीं कोई छोर है ।।
         _अभिमन्यू पाराशर
      शिमला(झुंझुनूं)राजस्थान
9413723865

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