रचनाकार का नाम: श्रीमती चंचल हरेंद्र वशिष्ट
माता का नाम: श्रीमती माया देवी शर्मा
पिता का नाम: श्री भूषण दत्त शर्मा 'कश्यप'
पति का नाम: श्री हरेन्द्र देव वशिष्ट
जन्मस्थान: बनखंडा,जिला हापुड़,उत्तर प्रदेश,भारत
शिक्षा: एम.ए.-हिंदी, एम.एड.,
पोस्ट एम ए हिंदी लिंग्विस्टिक डिप्लोमा कोर्स,(केंद्रीय हिंदी संस्थान) नई दिल्ली
थियेटर एप्रीसिएशन कोर्स( राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) नई दिल्ली
उर्दू सर्टिफिकेट कोर्स ( दिल्ली उर्दू अकादमी) दिल्ली
व्यवसाय: हिंदी भाषा प्राध्यापिका(सेंट एंथनी सीनियर सेकेंडरी स्कूल,नई दिल्ली )हिन्दी विभागाध्यक्षा एवं थियेटर प्रशिक्षक।
रंगमंच विशेषतः नुक्कड़ नाटकों से सम्बद्ध।
प्रकाशित रचनाओं की संख्या: विद्यालय पत्रिका में समय-समय पर बहुत सी रचनाएं प्रकाशित।
विभिन्न समाचारपत्रों में रचनाएं प्रकाशित।
प्रकाशित एकल पुस्तकें: अभी कोई नहीं,
पहली पुस्तक प्रकाशन की प्रक्रिया में।
साझा काव्य संग्रह: अभी तक पांच साझा काव्य संग्रह में रचनाएँ प्रकाशित।
विश्व हिंदी संस्थान,कनाडा, विश्व हिन्दी रचनाकार मंच, महिला काव्य मंच, दक्षिणी दिल्ली इकाई की सक्रिय सदस्य, ट्रू मीडिया तथा चित्रगुप्त प्रकाशन समूह से संबद्ध।
ऑल इंडिया हिन्दी उर्दू एकता ट्रस्ट (रजि) से सम्बद्ध एवं अनेक साहित्यिक संस्थाओं से संबद्धता।
काव्य पाठ : विद्यालय तथा अनेक मंचों पर काव्यपाठ।
विद्यालय में विभिन्न उत्सवों एवं कार्यक्रमों में मंच संचालन,संयोजन आदि।
गतिविधियां: समाज सेवा, हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार एवं उत्थान हेतु प्रयासरत,
नुक्कड़ नाटकों का आयोजन एवं निर्देशन आदि , हिन्दी भाषा ज्ञान कक्षाएं आदि।
सम्मान: महिला काव्य मंच, गाजियाबाद इकाई द्वारा सम्मान पत्र,
चित्रगुप्त प्रकाशन द्वारा हिन्दी दिवस पर रचना एवं एक आलेख के लिए विशेष सम्मान पत्र ,
आॅल इंडिया हिन्दी उर्दू एकता मंच की ओर से साहित्य साधना सम्मान पत्र एवं अनेक सम्मान पत्र, सहभागिता पत्र आदि।
विशेष गौरवपूर्ण: मेरी स्वरचित दो रचनाएँ अंतर्राष्ट्रीय काव्य प्रेमी मंच पर काव्य सृजन एवं काव्य पाठ के माध्यम से गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड में दर्ज़!
ऑनलाइन काव्य गोष्ठियों में प्रतिभागिता,यूट्यूब पर आॅडियो,वीडियो काव्य प्रसारण आदि।
विशेष: विभिन्न मंचों पर स्वरचित सरस्वती वंदना गायन,काव्य की अलग अलग विधा में
रूचि: हिन्दी साहित्य पठन, विशेषकर काव्य विधा में लेखन, कविता एवं पटकथा लेखन, रंगमंचीय गतिविधियां।
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चंचल हरेंद्र वशिष्ट, हिन्दी विभागाध्यक्षा,
हिन्दी प्राध्यापिका,थियेटर प्रशिक्षक, कवयित्री एवं समाज सेवी
आर के पुरम,नई दिल्ली
9818797390
' उठो! राष्ट्र के वीर '
उठो! राष्ट्र के वीरों,तुम गरजो और हुंकार भरो
जो आंख उठे हिंद की ओर तुम उसका संहार करो
हम अमन ,शांति के वाहक हैं, युद्ध नहीं नीति अपनी
पर जो जैसी भाषा बोले उस पर वैसा ही वार करो।
रिपु दमन को समर क्षेत्र में,निज प्राण हथेली पर रखकर
अर्जुन सम लक्ष्य साधकर तुम,कर्मपथ स्वीकार करो
युद्धवीर तुम, कर्मवीर तुम, अतुलित महाबली तुम
तान के सीना रण में , अरि के सीने पर वार करो।
उठो! देश के नव प्राण,दिखा दो ताकत उस शत्रु को
अपनी सबल भुजाओं से शत्रु दल पर प्रहार करो
मातृ भूमि की आन, बान और शान बचाए रखने को
मिट्टी में मिलाकर शत्रु,निज माटी पर प्रत्युपकार करो।
चुनौतियों की चट्टानों को अदम्य साहस से भेद के तुम
शत्रु की कुटिल नीतियों पर,तुम फ़ौलादी वार करो
वंदे मातरम् और जय हिंद,सज़ा के अपने मस्तक पर
जोश की ज्वाला उर में भरकर,पैनी तलवार की धार करो।
महाराणा,सुभाष के तुम वंशज,धीर,वीर और पराक्रमी
याद करो अपनी आज़ादी,फिर से आज ललकार करो
विजय तिलक और गौरव गान से मातृभूमि सुशोभित हो
लहरा के अपनी विजय पताका,भारत की जय जयकार करो।
स्वरचित एवं मौलिक रचना:
चंचल हरेंद्र वशिष्ट,हिन्दी भाषा शिक्षिका,रंगकर्मी एवं कवयित्री
आर के पुरम,नई दिल्ली
9818797390
शीर्षक: कलम की तकदीर
मैं तो माँ वाणी का वरदान मानी गई हूं पर... क्या हुआ है मेरी तक़दीर को.... ?
यही सोचकर...
यही सोच करके ...वो
कलम भी आज फूट फूट कर रोई है
क्या लिखूं फिर से वही कुकृत्य ?,
क्या लिखूं बेबसी पीड़िता की?
क्या फिर से लिखूं लचर प्रशासन और सुस्त कानून,
क्या लिखूं दरिंदगी इन वहशियों की?
क्या यही रह गया लिखने को?
क्या ये वही हिंद नहीं,जहां मैंने लिखी गौरव गाथाएं वीरांगनाओं की और विदुषियों की विद्वता के बखान किए?
तो क्यूं आज मैं समाज की कालिख पर स्याही बिखेरने के काम आती हूं?
क्यूं नहीं टूट जाती मैं ये सब लिखने से पहले?
क्यूं नहीं लिख पाती मैं इन दुष्कर्मियों की सज़ा ए मौत का ऐलान...तुरंत?
क्यूं रुकती, लड़खड़ाती हूं बार बार न्याय दाताओं के हाथ में?
मैं सिर्फ़ कहानी, किस्से,कविता और लेख लिखने के लिए ही तो नहीं, मैंं इंसाफ़ ,हक, सत्य और सज़ा देने के लिए भी तुम्हारे हाथ में हूं,....
तो क्यूं नहीं लिखते वो जो सच है जो न्याय संगत है ?
इसलिए आज कहती है ये कलम कि कितने भी कुकृत्य लिख लो इनके ,कितनी भी शर्म दिलाओ इन्हें
कितनी भी थू थू करो,कितनी भी सज़ा दिलाओ इन्हें,
अपनी मां का दूध लजाने वालों को लाज कहां आती है?
इनके कुकृत्यों पर तो धरती माँ भी थर्राती है
इन बेशर्मों का केवल एक ही इलाज है
सौंप दो इन्हें ,इनकी सज़ा खुद समाज है
जनता की कोई सुनवाई नहीं,कानून भी लचर है
जनता हिसाब कर देगी तुरंत ही ,पुलिस,कोर्ट सब बेअसर हैं
सरकारी राशन मुफ्त उड़ाते रहते, सालों तक पड़े पड़े ये
फिर भी बच जाते, अनुकूल दण्ड न पाते ये,
उल्टा लटका के नंगा,इनकी चमड़ी उतारो
तड़पने दो इन्हें, जान से न मारो।
चील,कौओं,गिद्धों के सामने छोड़ दो
इनके जिस्म का माँस ऐसे ही नोंचने दो।
चंचल हरेंद्र वशिष्ट, हिन्दी भाषा शिक्षिका,रंगकर्मी एवं कवयित्री
नई दिल्ली
'ललकार '
रणचंडी,लक्ष्मी,दुर्गा,काली,मैं ही तो हूँ
लक्ष्मीबाई,सरोजिनी नायडु ,मैं ही तो हूँ
कल्पना भी,किरण बेदी हाँ, मैं ही तो हूँ
माँ ,बहन,बेटी,बहु,पत्नी भी मैं ही तो हूँ
शिवशक्ति,अर्धनारीश्वर में है मेरा स्वरूप
चाँदनी सी शीतल भी,मैं ही हूँ तपती धूप
लेकिन छुपकर जो करता है वहशी पन तू
पहले सुन ओ नीच दरिंदे,मानव तो बन तू
मुझे ज़रा ललकार तो,मत कर यूँ घात तू
मर्द है तो फिर आकर सामने से टकरा तू
कायर और नपुंसक की तरह छुपता है क्यूँ
किसी बात में नहीं है कम नारी,बस देख तू
भुजदण्डों में है ताकत तो जा सीमा पर लड़
देश की खातिर जा सीमा पर दुश्मन से भिड़
मर्दानगी न दिखा , उन औरतों पर तू उदंड
अबला तू कहता जिन्हें हैं वो शक्ति प्रचण्ड।
चंचल हरेन्द्र वशिष्ट,हिन्दी प्राध्यापिका,थियेटर शिक्षक एवं कवयित्री
आर के पुरम,नई दिल्ली
' सत्य पथ पर चल निर्भय '
कदम कदम पर हर मानव की बड़ी परीक्षा होती है
कठिनाई कितनी भी आए विजय सत्य की होती है।
दृढ़संकल्प अगर हो मन में मुश्किल आसां होती है
जीवन की कठिन राह में संयम की ज़रूरत होती है।
पाप,अधर्म,अनैतिकता कभी पर्दे में नहीं छुप सकते
एक न एक दिन इन कर्मों की कीमत चुकानी होती है।
ग़लत राह पर चलकर,कितने भी उठ जाओ ऊंचे
महफ़िल में ख़ुद की नज़रों में गर्दन ऊंची कब
होती है।
जीवन तो है रिश्तों में ही, खून के हों या मुंह बोले
साथ न हो अपनों का गर, ज़िन्दगी अधूरी होती है।
यूं ही नहीं मिला करते,मोती दामन से समंदर के
लहरों से जो टकराते उनकी खाली झोली नहीं होती है।
आँधी हो या तूफ़ान हो चाहे,डटकर जो आगे बढ़ते
पाते वो ही मंज़िल को जिनकी राहें संघर्षरत होती है।
ऊँच नीच की बात हो भले, तुम भयभीत नहीं होना
हर घनी स्याह रात की नित एक भोर सुनहरी होती है।
लूटपाट,बेईमानी से दौलत चाहे लाख कमाई हो
जीवन में ऐसे काले धन से बरकत कभी नहीं होती है ।
जो झूठ की डगर पर चलते,भय उनके भीतर पलता
सच्चाई के पथ पर जो चलते,जीत उन्हीं की होती है
स्वरचित एवं मौलिक रचना
चंचल हरेन्द्र वशिष्ट,हिन्दी भाषा शिक्षिका,थियेटर प्रशिक्षक,कवयित्री एवं समाजसेवी
आर के पुरम,नई दिल्ली
'निकिता हत्या मामला'
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आज के युवक-युवतियों के लिए संदेश!...
समय है सोचने और सँभलने का!....
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प्रेम का फेंककर जाल ये,जीना करते मुहाल हैं।
धर्मांतरण है मक़सद,मुहब्बत तो सिर्फ़ चाल है।
सोची समझी हैे साज़िश,प्रेम की नहीं कोई बात यहाँ
विवाह के नाम पर धर्मांतरण या धर्मांतरण के लिए विवाह ।
नफ़रत की आँधी कैसी भी हो,मासूम निशाना बनते हैं
प्रेम,मुहब्बत के नाम पर कुछ शातिर मोहरे चलते हैं।
अल्हड़ किशोर या युवक युवती, कठपुतली बन जाते हैं
नफरत के व्यापार के नाम पर न जाने कितने ही जान गँवाते हैं।
ये धर्म,मज़हब,संप्रदाय के झगड़े तब तक नहीं मिटेंगे
जब तक कट्टरपंथियों के दिलों में नागफनी खड़े रहेंगे।
खुले घूमते दुर्योधन,दुशासन,लेकिन चेहरों पे मुखौटे हैं
पहचान हुई है मुश्किल,पर नीयत,खयाल सब खोटे हैं।
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर,भ्रमित न हो अब पीढ़ी अपनी
मिलजुलकर रहो समाज में पर,भूलो मत पहचान अपनी।
सचेत हो जाओ नई पीढ़ी ,इस द्युत क्रीड़ा से अब दूर रहो
प्रेम विवाह करो भले ही पर मज़हबी खेल से दूर रहो।
हे!आर्यपुत्र संतानों जागो,निज संस्कृति पर मान करो
अपनी हिंदुत्व परम्परा की जड़ों को सुदृढ़ करो।
हिंदु संस्कृति का संरक्षण करके,निज धर्म का सम्मान करो
गिरगिटों की चाल से बचो ,बुद्धि,विवेक से ध्यान करो।
हिंदु होने पर गर्व करो ,हिंदुत्व का विस्तार करो
हे राम कृष्ण के वंशजों,सत्य सनातन धर्म का प्रसार करो।
चंचल हरेन्द्र वशिष्ट,हिन्दी प्राध्यापिका,थियेटर प्रशिक्षक,कवयित्री एवं समाजसेवी
नई दिल्ली
एक रचना:
' इस बार होली में !'
धुल जाए कलुष हृदय का, इस बार होली में
बह जाए मैल हर मन का ,इस बार होली में।
तेरे -मेरे बीच में न रहे बाकि कोई तकरार
सब शिकवे गिले मिटाना ,इस बार होली में।
तू और मैं भुला दें ,मिलकर बन जाएँ हम
रिश्तों की जंग हटाना ,इस बार होली में।
बातों में ही सुलझा लें ,उलझनें विवादों की
दिल से दिल को मिलाना,इस बार होली में।
मुहब्बत का पैगाम ये ,पहुंचा दो सीमा पार
नफ़रत की दीवार हटाना ,इस बार होली में।
मेरे वीर सैनिकों, तुम शत्रु से खेलो होली
तुम घर की फ़िक्र न करना,इस बार होली में।
जिस थाली में खाएं,उस में ही छेद करें जो
ऐसे गद्दारों से बचना ,इस बार होली में।
राष्ट्रहित में जुट जाएँ,मिलकर के हम सारे
सिर्फ दोषारोपण मत करना,इस बार होली में।
गले लगा लो उनको जिनके अपने बिछड़े हों
किसी आँख से आँसू पोंछना,इस बार होली में
होली का मेरा संदेश तुम घर-घर में पहुंचा दो
स्नेह का गुलाल मलना, इस बार होली में।
स्वरचित एवं मौलिक
चंचल हरेंद्र वशिष्ट,हिंदी प्राध्यापिका,थियेटर शिक्षक एवं कवयित्री
आर के पुरम,नई दिल्ली