नाम - हर्षिता किनिया
पिता - श्री पदम सिंह
माता - श्रीमती किशोर कंवर
गांव - मंडोला
जिला - बारां ( राजस्थान )
मो. न.- 9461105351
मेरी कविताएं निम्न है
1."मेरा नाम"
जब मैं बाबुल के घर आयी ,
हर्ष उल्लास और खुशियां लाई।
नामकरण जब हुआ मेरा,
"हर्षिता" मैं कहलाई ।।
2 .शीर्षक - " कवि"
ना हो जिसके मन में डर,
और ना ही है वो अमर,
जिसकी वाणी में दबंग आवाज हो ,
कलम सच्चाई लिखने के लिए हर पल तैयार हो।
ना हम किसी के मित्र है और ना ही शत्रु , सच्चाई लिखने का साहस हम रखते हैं,
एवं निडर भाव से कविताएं रचते है ,
तभी तो हम " कवि" कहलाते है...
ऐसा नहीं की हम सच्चाई को आसानी से कह देते हैं,
कही बार तो हम लोगो की आलोचनाएं भी सहते हैं,
हम गरीब की आवाज बन कर उन्हें न्याय दिलाते हैं ,
राजाओं को भी गुलाम बनने से बचाते हैं, लोकतंत्र के इस शासन में जनता को समझाते हैं,
भ्रष्टाचार क्या होता है उन्हें ये बतलाते हैं,
यूं ही नहीं हम "कवि" कहलाते है....
वीर शहीदों की गाथाएं हम लोगों को बताते हैं, और कई बार कारागृह में भी रात बिताते हैं,
हम कुछ पंक्तियों में बहुत बड़ा अर्थ छिपाते हैं, यूं ही नहीं हम " कवि" बन जाते हैं.....
सोती हुई प्रजा को हम जगाते है,
उनके साथ हुए अन्याय से उन्हें अवगत कराते हैं,
यूं ही नहीं हम "कवि" कहलाते हैं......
साहस ,शौर्य ,प्रेम एवं बलिदान ये सब हम में होता है,
तभी तो हमारी कलम बोल उठती हैं,
शहीदों के बलिदान को हम व्यर्थ नहीं जाने देंगे,
अपनी कविताओं में रचकर उनका शौर्य नव पीढ़ी को बतलाएंगे ,
अन्याय का विरोध करते - करते हम चाहें मिट जाएंगे,
तभी तो हम "कवि" कहलाएंगे….
हास्य , व्यंग्य, वीर , रोद्र हर रस में कविताएं रचते हैं,
कविताओं को लोगों के समक्ष रखने के लिए रात - रात भी जगते है,
यूं ही नहीं हम "कवि" बन जाते है ।।
कवियत्री - हर्षिता किनिया
3 - "बेटियां "
हे भगवान ! तूने क्या बनाई है बेटियां ,
आज अपनी तो कल ,
पराई है बेटियां ।
हे भगवान..............
जिन मां - बाप ने पाल पोषकर हमें बड़ा किया है ,
उन्हीं ने आज धूम - धाम से हमें विदा किया है।
हे भगवान !तू ही बता हमने क्या गुनाह किया है?
कन्या भ्रूण हत्या बंद हो गई,
बेटियों की संख्या में भी वृद्धि हो गई,
पर विश्वास तो केवल बेटों पर ही किया जा रहा है।
बेटियों को तो एक मोहरा बना दिया गया है।।
हे भगवान !तू ही बता हमने क्या गुनाह किया है ?
तू ही बता हमने क्या गुनाह किया है ।।
कवयित्री - हर्षिता किनिया
4 शीर्षक - " माता- पिता"
ना धन मांगू,
ना दौलत मांगू ,
हर जन्म मिले मुझे यही मात - पिता ,
मैं रब से यही मांगू ।
कोशिश करती हूं कि ,
मैं इनकी हर ख्वाइश पूरी करू ।
इनके सपनों को पूरा कर,
जग में इनका नाम रोशन करू ।।
गर्व करें ये अपनी संतान पर,
खुशियों के रंग इनके जीवन में लाऊ।
मैं रब से यही फ़रियाद करू।।
हे आभार प्रकट करती ,
ईश्वर मैं तेरा,
जो तूने मुझको ऐसे मात- पिता दिए।
बिन कहे ही ये मेरी ,
सम्पूर्ण ख्वाइशों को पूरा करे ।।
हे धन्य हुई इनको पाकर ,
चरणों में इनके वंदन करती ।
हर जन्म मिले मुझे यही मां - बाप ,
मैं रब से यही फ़रियाद करती ।।
जो मांगा अब तक हमने,
इन्होंने लाकर दिया है।
हमारी हर ख्वाइशों को,
इन्होंने पूरा किया है।।
लाख करू जतन भी फिर भी,
इनका उपकार न चुका सकती ।
हर जन्म मिले मुझे यही मां- बाप ,
मैं रब से यही फ़रियाद करती।।
मैं रब से यही फ़रियाद करती।।
- हर्षिता किनिया
5 .शीर्षक - "क्या तुमको दीपक दिखलाऊं"
क्या तुमको दीपक दिखलाऊं,
कैसा घनघोर अंधेरा है।
थोड़े कदम बढ़ाओ आगे,
थोड़ी दूर सवेरा है।।
संभल - संभल कर चलना सीखो ,
तो आगे बढ़ जाओगे।
जग में नाम करोगे रोशन ,
अपनी मंजिल पाओगे।।
जब - जब कोई बढ़ा जगत में,
तूफानों ने घेरा है।
क्या तुमको दीपक दिखलाऊं,
कैसा घनघोर अंधेरा है..
पहले अपनी मंजिल चुन लो,
फिर उस पर प्रस्थान करो।
पक्का वादा कर लो मन से,
फिर सबका कल्याण करो।।
क्या तुमको दीपक दिखलाऊं,
कैसा घनघोर अंधेरा है।
थोड़े कदम बढ़ाओ आगे,
थोड़ी दूर सवेरा है।।
- हर्षिता किनिया
6. शीर्षक - "मैं तिरंगा हूं"
मैं तिरंगा हूं ,
भारत की शान हूं।
कामगारों की कसौटी मैं,
किसानों की मुस्कान हूं ।।
केवल फहराये जाने के लिए ही नहीं हूं ,
मैं आप सभी का सम्मान हूं ,
मैं तिरंगा हूं , भारत की शान हूं।
मैने देखा है जमाना गांधी का ,
नेहरू के सीने में जिया हूं ।
हिंदुस्तान के बंटवारे का,
जहर भी मैं पिया हूं।।
मैं जैन हूं, सिख, इसाई,
बौद्ध , पारसी ,हिंदू हूं ,मुसलमान हूं,
मैं तिरंगा हूं भारत की शान हूं।
वीरों के दिल की धड़कन,
कामगारों की कसौटी,
किसानों की मुस्कान हूं।
मैं तिरंगा हूं ,तिरंगा हूं, तिरंगा हूं,
भारत की शान हूं ।।
कवयित्री
- हर्षिता किनिया
शीर्षक - "आत्मविश्वास "
मुश्किलें जरूर है ,
मगर ठहरी नहीं हूं मैं ।
मंजिल से जरा कह दो ,
अभी पहुंची नहीं हूं मैं ।।
कदमों को बांध न पाएंगी,
मुसीबत की जंजीरे ।
रास्तों से जरा कह दो ,
अभी भटकी नहीं हूं मैं ।।
सब्र का बांध टूटेगा ,
तो फना कर के रख दूंगी ।
दुश्मन से जरा कह दो ,
अभी गरजी नहीं हूं मैं ।।
दिल में छुपा कर रखी है ,
लड़कपन की चाहते ।
दोस्तों से जरा कह दो ,
अभी बदली नही हूं मैं ।।
साथ चलता है मेरे ,
दुआओ का काफिला ।
किस्मत से जरा कह दो,
अभी तनहा नहीं हूं मैं ,
अभी तनहा नहीं हूं मैं ।।
- हर्षिता किनिया
शीर्षक - "निवेदन एक बेटी का"
मैं भारत की बेटी आज तुमसे,
प्रसन्न चिन्ह ये करती ?
जब नारी का सम्मान जगत में तो,
क्यूं तुम्हारी बेटी आज घर में कैद हे बैठी ?
पहले 10 वीं तक पढ़ाकर ,
बड़े - बड़े सपने दिखलाएं,
जब पूरा करने का वक्त आया तो,
क्यूं वो पीछे हट जाये?
पढ़ा - लिखा कर तुम उसको,
अपनी नव पहचान दो ,
जग में नाम करेगी रोशन ,
उसकी भी पहचान हो ।
मैं भारत की बेटी........?
लोक - लाज के भय से तुम ,
उसके जीवन के रंग ना छिनों ,
और ना ही...
पुत्र को आगे बढ़ाने की चाह में,
उसके सपनों को ना तोड़ो।
नई उमंग की आशा लेकर ,
उसके जीवन में खुशहाली भर दो।।
किस शास्त्र में लिखा है कि ,
बेटी केवल घर - गृहस्थी संभालेगी ?
वो भी अपना सपना पूरा कर ,
अपनी मंजिल पायेगी।
मुक्त करो जंजीरों से,
उसको आगे बढ़ने दो।
उसको अपने जीवन में नव रंग है ,
भरने दो ।।
तुम्हारी खुशियों की खातिर वो ,
मोन आज है बैठी ।
अपनी ख्वाइशों को मारकर ,
आज मेरी सखि उदास घर पर हे बैठी !
मन की हर बात उसने मुझको हे बतलाई,
मगर मैं उसके परिवार को न समझा पाई ,
उदास चेहरे के साथ मैं उसके घर से लौट आई ।
कुछ दिन उपरान्त.........
फिर हम दोनों सखियों ने मिलकर,
एक नई पहल चलाई ।
गांव की हर लड़कियों को कराएंगे, अब हम पढ़ाई ।।
उसके साथ काम कर मुझको ,
बहुत प्रसन्नता है आई,
मगर अफसोस रहा की ,
मैं अपनी सखि का तो सपना ही पूरा न कर पाई।।
क्यूं उसके परिवार को ,
मैं ना समझा पाई ।।
कवयित्री - हर्षिता किनिया