काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार किनिया

 नाम - हर्षिता किनिया


पिता - श्री पदम सिंह 

माता - श्रीमती किशोर कंवर

गांव - मंडोला 

जिला - बारां ( राजस्थान ) 

मो. न.- 9461105351


मेरी कविताएं निम्न है 


  1."मेरा नाम"

 जब मैं बाबुल के घर आयी ,

हर्ष उल्लास और खुशियां लाई।

नामकरण जब  हुआ मेरा,

"हर्षिता" मैं कहलाई ।।


2 .शीर्षक - " कवि"


ना हो जिसके मन में डर,

और ना ही है वो अमर,

जिसकी  वाणी में दबंग आवाज हो ,

कलम सच्चाई लिखने के लिए हर पल तैयार हो।

ना हम किसी के मित्र है और ना ही शत्रु , सच्चाई लिखने का साहस हम रखते हैं,

एवं निडर भाव से कविताएं रचते है ,

तभी तो हम " कवि" कहलाते है...

ऐसा नहीं की हम सच्चाई को आसानी से कह देते हैं, 

कही बार तो हम लोगो की आलोचनाएं भी सहते हैं,

हम गरीब की आवाज बन कर उन्हें न्याय दिलाते हैं ,

राजाओं को भी गुलाम बनने से बचाते हैं, लोकतंत्र के इस शासन में जनता को समझाते हैं, 

भ्रष्टाचार क्या होता है उन्हें ये बतलाते हैं,

 यूं ही नहीं हम "कवि" कहलाते है....

वीर शहीदों की गाथाएं हम लोगों को बताते हैं, और कई बार कारागृह में भी रात बिताते हैं,

हम कुछ पंक्तियों में बहुत बड़ा अर्थ छिपाते हैं, यूं ही नहीं हम " कवि" बन जाते हैं.....

सोती हुई प्रजा को हम जगाते है,

उनके साथ हुए अन्याय से उन्हें अवगत कराते हैं, 

यूं ही नहीं हम "कवि" कहलाते हैं......

साहस ,शौर्य ,प्रेम एवं बलिदान ये सब हम में होता है, 

तभी तो हमारी कलम बोल उठती हैं, 

शहीदों के बलिदान को हम व्यर्थ नहीं जाने देंगे,

अपनी कविताओं में रचकर उनका शौर्य नव पीढ़ी को बतलाएंगे ,

अन्याय का विरोध करते - करते हम चाहें मिट जाएंगे, 

तभी तो हम "कवि" कहलाएंगे…. 

 हास्य , व्यंग्य, वीर , रोद्र हर रस में कविताएं रचते हैं,

कविताओं को लोगों के समक्ष रखने के लिए रात - रात भी जगते है,

यूं ही नहीं हम "कवि" बन जाते है ।।

कवियत्री - हर्षिता किनिया


3 - "बेटियां  "       

हे भगवान ! तूने क्या बनाई है बेटियां ,

आज अपनी तो कल ,

पराई है बेटियां ।

हे भगवान..............

जिन मां - बाप ने पाल पोषकर हमें बड़ा किया है ,

उन्हीं ने आज धूम - धाम से हमें विदा किया है।

हे भगवान !तू ही बता हमने क्या गुनाह किया है?

कन्या भ्रूण हत्या बंद हो गई,

बेटियों की संख्या में भी वृद्धि हो गई,

पर विश्वास तो केवल बेटों पर ही किया जा रहा है।

बेटियों को तो एक मोहरा बना दिया गया है।।

हे भगवान !तू ही बता हमने क्या गुनाह किया है ? 

तू ही बता हमने क्या गुनाह किया है ।।

 कवयित्री - हर्षिता किनिया


4 शीर्षक -   " माता- पिता"

  

ना धन मांगू,

ना दौलत मांगू ,

हर जन्म मिले मुझे यही मात - पिता ,

मैं रब से यही मांगू ।

कोशिश करती हूं कि ,

मैं इनकी हर ख्वाइश पूरी करू ।

इनके सपनों को पूरा कर,

जग में इनका नाम रोशन करू ।।

गर्व करें ये अपनी संतान पर,

खुशियों के रंग इनके जीवन में लाऊ।

मैं रब से यही फ़रियाद करू।।

हे आभार प्रकट करती ,

ईश्वर मैं तेरा,

जो तूने मुझको ऐसे मात- पिता दिए।

बिन कहे ही ये मेरी ,

सम्पूर्ण  ख्वाइशों को पूरा करे ।।

हे धन्य हुई इनको पाकर ,

चरणों में इनके वंदन करती ।

हर जन्म मिले मुझे यही मां - बाप ,

मैं रब से यही फ़रियाद करती ।।

जो मांगा अब तक हमने,

इन्होंने लाकर दिया है।

हमारी हर ख्वाइशों को,

इन्होंने पूरा किया है।।

लाख करू जतन भी फिर भी,

इनका उपकार न चुका सकती ।

हर जन्म मिले मुझे यही मां- बाप ,

मैं रब से यही फ़रियाद करती।।

मैं रब से यही फ़रियाद करती।।


            -    हर्षिता किनिया 

 


5 .शीर्षक - "क्या तुमको दीपक दिखलाऊं"


क्या तुमको दीपक दिखलाऊं, 

कैसा घनघोर अंधेरा है।

थोड़े कदम बढ़ाओ आगे,

थोड़ी दूर सवेरा है।।

संभल - संभल कर चलना सीखो ,

तो आगे बढ़ जाओगे।

जग में नाम करोगे रोशन ,

अपनी मंजिल पाओगे।।

जब - जब कोई बढ़ा जगत में,

तूफानों ने घेरा है।

क्या तुमको दीपक दिखलाऊं,

कैसा घनघोर अंधेरा है..

पहले अपनी मंजिल चुन लो,

फिर उस पर प्रस्थान करो।

पक्का वादा कर लो मन से,

फिर सबका कल्याण करो।।

क्या तुमको दीपक दिखलाऊं,

कैसा घनघोर अंधेरा है।

थोड़े कदम बढ़ाओ आगे,

थोड़ी दूर सवेरा है।।

               - हर्षिता किनिया 



6. शीर्षक - "मैं तिरंगा हूं"


मैं तिरंगा हूं ,

भारत की शान हूं।

कामगारों की कसौटी मैं,

किसानों की मुस्कान हूं ।।

केवल फहराये जाने के लिए ही नहीं हूं ,

मैं आप सभी का सम्मान हूं ,

मैं तिरंगा हूं , भारत की शान हूं।

मैने देखा है जमाना गांधी का ,

नेहरू के सीने में जिया हूं ।

हिंदुस्तान के बंटवारे का,

जहर भी मैं पिया हूं।।

मैं जैन हूं, सिख, इसाई,

बौद्ध , पारसी ,हिंदू हूं  ,मुसलमान हूं,

मैं तिरंगा हूं भारत की शान हूं।

वीरों के दिल की धड़कन,

कामगारों की कसौटी,

किसानों की मुस्कान हूं।

मैं तिरंगा हूं ,तिरंगा हूं, तिरंगा हूं,

भारत की शान हूं ।।

         कवयित्री 

       - हर्षिता किनिया



शीर्षक -  "आत्मविश्वास "


मुश्किलें जरूर है ,

मगर ठहरी नहीं हूं मैं ।

मंजिल से जरा कह दो ,

अभी पहुंची नहीं हूं मैं ।।

कदमों को बांध न पाएंगी,

मुसीबत की जंजीरे ।

रास्तों से जरा कह दो ,

अभी भटकी नहीं हूं मैं ।।

सब्र का बांध टूटेगा ,

तो फना कर के रख दूंगी ।

दुश्मन से जरा कह दो ,

अभी गरजी नहीं हूं मैं ।।

दिल में छुपा कर रखी है ,

लड़कपन की चाहते  ।

दोस्तों से जरा कह दो ,

अभी बदली नही हूं मैं ।।

साथ चलता है मेरे ,

दुआओ का काफिला ।

किस्मत से जरा कह दो,

अभी तनहा नहीं हूं मैं ,

अभी तनहा नहीं हूं मैं ।।

          -  हर्षिता किनिया



शीर्षक - "निवेदन एक बेटी का"

मैं भारत की बेटी आज तुमसे,

प्रसन्न चिन्ह ये करती ? 

जब नारी का सम्मान जगत में तो,

क्यूं तुम्हारी बेटी आज घर में कैद हे बैठी ? 

पहले 10 वीं तक पढ़ाकर ,

बड़े - बड़े सपने दिखलाएं,

जब पूरा करने का वक्त आया तो,

क्यूं वो  पीछे हट जाये?

पढ़ा -  लिखा कर तुम उसको,

अपनी नव पहचान दो ,

जग में नाम करेगी रोशन ,

उसकी भी पहचान हो ।

मैं भारत की बेटी........?

लोक - लाज के भय से तुम ,

उसके जीवन के रंग ना छिनों ,

और ना ही...

पुत्र को आगे बढ़ाने की चाह में,

उसके सपनों को ना  तोड़ो।

नई उमंग की आशा लेकर ,

उसके जीवन में खुशहाली भर दो।।

किस शास्त्र में लिखा है कि ,

 बेटी केवल घर - गृहस्थी संभालेगी ?

वो भी अपना सपना पूरा कर ,

अपनी मंजिल पायेगी।

मुक्त करो जंजीरों से,

उसको आगे बढ़ने दो।

उसको अपने जीवन में नव रंग है  , 

भरने दो ।।

तुम्हारी खुशियों की खातिर वो ,

मोन आज है बैठी ।

अपनी ख्वाइशों को मारकर ,

आज मेरी सखि उदास घर पर हे बैठी !

मन की हर बात उसने मुझको हे बतलाई,

मगर मैं उसके परिवार को न समझा पाई ,

उदास चेहरे के साथ मैं उसके घर से लौट आई ।

कुछ दिन उपरान्त.........

फिर हम दोनों सखियों ने मिलकर,

एक नई पहल चलाई ।

गांव की हर लड़कियों को कराएंगे, अब हम पढ़ाई ।।

उसके साथ काम कर मुझको ,

बहुत प्रसन्नता है आई,

मगर अफसोस रहा की ,

मैं अपनी सखि का तो सपना ही पूरा न कर पाई।।

क्यूं उसके परिवार को ,

मैं ना समझा पाई ।।

  कवयित्री  -  हर्षिता किनिया

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल ---
1.
क्या खाक जुस्तजू करें हम सुब्हो-शाम की 
जब फिर गईं हों नज़रें ही माह-ए-तमाम की 
2.
शोहरत है इस कदर जो हमारे कलाम की
नींदें उड़ी हुई हैं यूँ हर खासो-आम की 
3.
हर शख़्स हमको शौक से पढ़ता है इसलिए
करते हैं बात हम जो ग़ज़ल में अवाम की 
4.
जो कुछ था वो तो लूट के इक शख़्स ले गया 
जागीर रह गई है फ़कत एक नाम की
5.
 खोली किताबे-इश्क़ जो उसकी निगाह ने
उभरीं हरेक हर्फ़ से मोजें पयाम की 
6.
ज़ुल्फों में उसकी फूल भला कैसे टाँकता
हिम्मत बढ़ाई उसने ही अदना गुलाम की 
7.
ज़ुल्फ़े-दुता का नूर अँधेरों को बख़्श दे 
प्यासी है कबसे देख ये तक़दीर शाम की 
8.
*साग़र* धुआँ धुआँ है फ़जाओं में हर तरफ़
शायद लगी है आग कहीं इंतकाम की 

🖋️ग़ज़ल ---
1.
क्या खाक जुस्तजू करें हम सुब्हो-शाम की 
जब फिर गईं हों नज़रें ही माह-ए-तमाम की 
2.
शोहरत है इस कदर जो हमारे कलाम की
नींदें उड़ी हुई हैं यूँ हर खासो-आम की 
3.
हर शख़्स हमको शौक से पढ़ता है इसलिए
करते हैं बात हम जो ग़ज़ल में अवाम की 
4.
जो कुछ था वो तो लूट के इक शख़्स ले गया 
जागीर रह गई है फ़कत एक नाम की
5.
 खोली किताबे-इश्क़ जो उसकी निगाह ने
उभरीं हरेक हर्फ़ से मोजें पयाम की 
6.
ज़ुल्फों में उसकी फूल भला कैसे टाँकता
हिम्मत बढ़ाई उसने ही अदना गुलाम की 
7.
ज़ुल्फ़े-दुता का नूर अँधेरों को बख़्श दे 
प्यासी है कबसे देख ये तक़दीर शाम की 
8.
*साग़र* धुआँ धुआँ है फ़जाओं में हर तरफ़
शायद लगी है आग कहीं इंतकाम की 

🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली
जुस्तजू -खोज ,तलाश
माह-ए-तमाम-पूर्णमासी का चंद्रमा 
ज़ुल्फ़े-दुता-स्याह गेसू 
नूर-प्रकाश 
इंतकाम-बदला 
24/5/1979 बरेली
जुस्तजू -खोज ,तलाश
माह-ए-तमाम-पूर्णमासी का चंद्रमा 
ज़ुल्फ़े-दुता-स्याह गेसू 
नूर-प्रकाश 
इंतकाम-बदला 
24/5/1979

नूतन लाल साहू

सुंदरता निखारिए,सदाचरण से

धैर्यवान, व्यवहार कुशल
सहनशील व विवेकी बने
उच्च विचार एवं सुंदर विचार ही
व्यक्ति की सुंदरता है
अवगुण और बुरे कर्म
व्यक्ति की सुंदरता को
नष्ट कर देता है
व्यक्ति और समाज की भलाई
करने वाला इंसान
चाहे कुरूप हो या रूपवान
कोई फर्क नही पड़ता है
क्योंकि सभी व्यक्ति
अच्छे कामों का प्रशंसा करते है
मैं सच कहता हूं
इंसान के बुरे कर्म
व्यक्ति के सुंदरता को
ढक लेता है
व्यक्ति के गुणों अवगुणों का संबंध
उसके सुंदरता या कुरूपता से नहीं
बल्कि अच्छे और बुरे
विचारों और कर्मो से होता है
सोने के प्याले में यदि
विष भरा हो तो
उसे कोई पीना नहीं चाहेंगे
जबकि मिट्टी के प्याले में
अमृत हो तो
उसे सभी पीना चाहेंगे
धैर्यवान, व्यवहार कुशल
सहनशील व विवेकी बने
उच्च विचार एवं सुंदर विचार ही
व्यक्ति की सुंदरता है
अतः सुंदरता निखारिए
सदाचरण से
यही तो आत्म ज्ञान है

नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*पहला*-1
 पहला अध्याय(श्रीकृष्णचरितबखान)-1 
            बंदउँ सुचिमन किसुन कन्हाई।
            नाथ चरन धरि सीष नवाई ।।
मातु देवकी पितु बसुदेवा।
नंद के लाल कीन्ह गो-सेवा।।
           राधा-गोपिन्ह के चित-चोरा।
            नटवर लाल नंद के छोरा।।
गाँव-गरीब-गो-रच्छक कृष्ना।
गीता-ग्यान हरै जग-तृष्ना ।।
         मातु जसोदा-हिय चित-रंजन।
         बंधन मुक्त करै प्रभु-बंदन।।
दोहा-कृष्नहिं महिमा बहु अधिक,करि नहिं सकहुँ बखान।
सागर भरि लइ मसि लिखूँ, तदपि न हो गुनगान ।।
        जय-जय-जय हे नंद किसोरा।
       निसि-दिन भजन करै मन मोरा।।
पुरवहु नाथ आस अब मोरी।
चाहूँ कहन बात मैं  तोरी  ।।
       कुमति-कुसंगति-दुर्गुन-दोषा।
        भागें जे प्रभु करै  भरोसा  ।।
कृष्न-कन्हाइ-देवकी-नंदन।
जसुमति-लाल,नंद के नंदन।।
      चहुँ दिसि जगत होय जयकारा।
      नंद के लाल आउ मम द्वारा ।।
हे चित-चोर व मक्खन चोरा।
बासुदेव के नटखट छोरा  ।।
      मेटहु जगत सकल अँधियारा।
      ज्ञान क दीप बारि उजियारा  ।।
दोहा-सुनहु सखा अर्जुन तुमहिं, आरत बचन हमार।
चहुँ-दिसि असुर बिराजहीं,आइ करउ संघार ।।
           श्रीकृष्ण का प्राकट्य-
रोहिनि नखत व काल सुहाना।
रहा जगत जब प्रभु भय आना।।
          गगन-नखत-ग्रह-तारे सबहीं।
          सांत व सौम्य-मुदित सब भवहीं।।
       निरमल-सुद्ध नदी कै नीरा।
       हरहिं कमल सर खिल जग-पीरा।।
बन-तरु-बिटप पुष्प लइ सोभित।
पंछी-चहक सुनत मन मोहित  ।।
    सुर-मुनि करैं सुमन कै बरसा।
      होइ अनंदित हरसा-हरसा ।।
नीरद जाइ सिंधु के पाहीं।
गरजहिं मंद-मंद मुस्काहीं।।
     परम निसीथ काल के अवसर।
     भएअवतरित कृष्न वहीं पर।।
पसरा रहा बहुत अँधियारा।
लीन्ह जनर्दन जब अवतारा।।
      जस प्राची दिसि उगै चनरमा।
      लइ निज सोरह कला सुधरमा।।
गरभ देवकी तें तहँ वयिसै।
बिष्नु-अंस प्रभु प्रगटे तइसै।।
  दोहा-निरखे बसुदेवइ तुरत,अद्भुत बालक-रूप।
  नयन बड़े मृदु कमल इव,हाथहिं चारि अनूप।।
                   डॉ. हरि नाथ मिश्र
                    99194463

काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार कानुनगो इंदौर मध्यप्रदेश

 

परिचय
ममता कानुनगो इंदौर मध्यप्रदेश


मैंने मनोविज्ञान और समाज शास्त्र विषय में एम ए किया है,और शास्त्रीय गायन में खैरागढ़ युनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया है।
मुझे बचपन से ही लेखन और संगीत में गहन रुचि रही है।
सामाजिक पत्र पत्रिकाओं में  रचनाएं प्रकाशित होती रहती है।

लोकजंग भोपाल समाचार पत्र में लघुकथाएं व कविताएं प्रकाशित
साझा संकलन- व्यक्तित्व दर्पण लघुकथा संग्रह,
काव्य साझा संकलन-साहित्य सरीता, अपराजिता,
संगीत में पंचम सादी खां समारोह में पुरस्कृत व गायन।
नमामि देवी नर्मदे मंच द्वारा गायन में विशेष पुरस्कार।
गणगौर मंच द्वारा भजन गायन में पुरस्कृत।
काव्य रांगोली, साहित्यिक मित्र मंडल जबलपुर, काव्य मंजरी साहित्यिक मंच, उड़ान साहित्यिक मंच,प्रेरणा साहित्यिक मंच, भावांजलि साहित्यिक मंच द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में पुरस्कृत।

*बसंत* *प्रीति*

इंद्रधनुषी गगन,सुरभित है पवन,
पुष्पित हरित धरा,मन को लुभाती है।

मंद स्वच्छंद पवन,मधुर गंध सुमन,
शुचित मुदित मन, प्रीति बढ़ाती है।

सिंदुरी सांझ सुहानी, महकती रातरानी,
तुहिन कण पल्लव, मोती बिखराते है।

प्रकृति की पुलकन,प्रेमभाव मधुवन,
प्रणय निवेदन से, बसंत रिझा रहा।

श्याम राधा स्नेह बंध,गोपियन रासरंग,
ऋतुराज मधुमास,प्रेम बरसाते हैं।

मनभावन बसंत, केसरिया मकरंद,
प्रसून अलि गूंजत, सौंदर्य बढ़ाता है।

सुगंधित तन-मन, आल्हादित है ये मन,
उमंग की प्रीत में, प्रसन्न हो जाइए।

मलय है मदमाती, चांदनी है छिटकाती,
सितारों की लड़ियों से,धरा जगमगाई है।

द्वेष द्वंद छोड़कर, हृदयों को जोड़कर,
शुचित पुनीत प्रेम,मन में बसाइये।

स्वरचित (मौलिक रचना)
ममता कानुनगो इंदौर

नमन मंच
सायली छंद
सुर्योदय

अरुणोदय,
स्वर्णिम लालिमा,
उज्जवल आकाश नवप्रभात,
प्रकृति पुलकित,
आल्हादित।

दिवाकर,
आरुष प्रखर,
सिमटी ओस दोपहर,
तेजस्वी ओजस्वी,
सुप्रभात।

सुर्योदय,
अर्पित अर्घ्य,
जागृत तन मन,
सकारात्मक जीवन,
सुखमय।

आदित्य,
प्रभात ज्योतिर्मय,
मंद सुरम्य पवन,
सुरभित मन,
हृदयानंदित।

ममता कानुनगो इंदौर

नमन मंच
धनाक्षरी
*अंजुरी*

अंजुरी में भर स्नेह,
लागी श्याम संग नेह,
दधि माखन मिश्री से,
कान्हा को रिझाए रही।

मन में बसे मुरारी,
गोवर्धन गिरधारी
चरण धूलि पाकर,
आनंद पाए रही।

चहक रही चांदनी,
महक रही यामिनी,
अंजुरी में चांद भर,
मन मुस्काए रही।

गोपियन वृंदावन,
राधारानी मधुवन,
कृष्ण की मुरली सुन,
रास रचाए रही।

ममता कानुनगो इंदौर

विषय आराधना
विधा-सेदोका
5-7-7,5-7-7

भावपूरित,
करुं मैं समर्पित,
ईश तेरी वंदना,
साध मन को,
तप उपासना से,
करूं मैं आराधना।

पुष्प दल,
मन की सुगंध से,
कर्म की कलम से,
अभिव्यंजना,
सत्यप्रकाश दो हमें,
प्रभु सुनो प्रार्थना।

मन तरंग,
नवरस के संग,
नादयोग ही सत्य,
ह्दयदल,
स्वीकारो हे! नाथ,
अर्पण सद्भावना।
ममता कानुनगो

एस के कपूर श्री हंस

*।।विषय।।मिलन।।*
*।।रचना शीर्षक।।*
*।।धैर्य,बुद्धि,विवेक,विश्वास का*
*मिलन ही जीवन है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
जिन्दगी की  तस्वीर  में 
हमको ही रंग  भरना है।
अपनी   तकदीर  से भी
हमको जंग     करना है।।
मुक़द्दर की  कलम हाथ
हमारे  है    अपने     ही।
जीवन में हमें अपने  ही
ढंग    से    बढ़ना      है।।
2
बुद्धि विवेक  वालों   को 
ही याद किया   जाता है।
धैर्यवान को  ही   जीवन
में साथ  दिया   जाता है।।
धन बल     सदा    काम 
आते नहीं  किसी के भी।
नफ़रत  से  तो    आदमी
बर्बाद   जिया     जाता है।।
3
पत्थर सा     तराश  कर
हीरा बनना      पड़ता है।
ज्ञान की   रोशनी  से भी
भरपूर   करना पड़ता है।।
भीतर  छिपी     प्रतिभा
है   निखारनी      पड़ती।
धैर्य  विवेक   का     पुट
खूब  भरना     पड़ता है।।
4
बुरी स्तिथि  में   आदमी
को  संभलना     चाहिये।
अच्छी  स्तिथि    में नहीं
उसे  उछलना     चाहिये।।
सच झूठ     परखने  की
चाहिये    तासीर  रखनी।
बस नित   प्रतिदिन  को
व्यक्ति  सुधरना  चाहिये।।

*रचयिता।।एस के कपूर " श्री हंस*"
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।         9897071046
                       8218685464


*।।ग़ज़ल।।  ।।संख्या  51 ।।*
*।।काफ़िया।। आस।।*
*।।रदीफ़।। नहीं चाहिये।।*
1
दीन हीन का    परिहास  नहीं चाहिये।
असत्य के ऊपर विश्वास नहीं चाहिये।।
2
संवेदनशीलता   कदापि कम नहीं हो।
धन बल वैभव भोग विलास नहीं चाहिये।।
3
मूल्यों का कदापि पतन न हो जीवन में।
मद्यपान मे डूबा उल्लास नहीं चाहिये।।
4
हर घर को मिलेगा उजाला और निवाला।
हमें ऐसा झूठ आस पास नहीं चाहिये।।
5
खत्म हो जाये जहाँ पर दर्द का ही रिश्ता।
हमें ऐसा कोई रिश्ता शाबास नहीं चाहिये।।
6
अमीरी गरीबी का जहाँ उड़ता हो मजाक।
हमें ऐसा मानवता का उपहास नहीं चाहिये।।
7
स्वार्थ के ही हों जहाँ पर सब रिश्ते नाते।
प्रेम सौहार्द का हमें ऐसा खलास नहीं चाहिये।।
8
छल कपट झूठ अदाकारी से भरा हुआ।
इंसानियत का काला इतिहास नहीं चाहिये।।
9
*हंस* हमें चाहिये सवेदनायों से पूर्ण मनुष्य।
हमें दिखावटी आदमी खास नहीं चाहिये।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।       9897071046
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*।।ग़ज़ल।।  ।।संख्या  51 ।।*
*।।काफ़िया।। आस।।*
*।।रदीफ़।। नहीं चाहिये।।*
1
दीन हीन का    परिहास  नहीं चाहिये।
असत्य के ऊपर विश्वास नहीं चाहिये।।
2
संवेदनशीलता   कदापि कम नहीं हो।
धन बल वैभव भोग विलास नहीं चाहिये।।
3
मूल्यों का कदापि पतन न हो जीवन में।
मद्यपान मे डूबा उल्लास नहीं चाहिये।।
4
हर घर को मिलेगा उजाला और निवाला।
हमें ऐसा झूठ आस पास नहीं चाहिये।।
5
खत्म हो जाये जहाँ पर दर्द का ही रिश्ता।
हमें ऐसा कोई रिश्ता शाबास नहीं चाहिये।।
6
अमीरी गरीबी का जहाँ उड़ता हो मजाक।
हमें ऐसा मानवता का उपहास नहीं चाहिये।।
7
स्वार्थ के ही हों जहाँ पर सब रिश्ते नाते।
प्रेम सौहार्द का हमें ऐसा खलास नहीं चाहिये।।
8
छल कपट झूठ अदाकारी से भरा हुआ।
इंसानियत का काला इतिहास नहीं चाहिये।।
9
*हंस* हमें चाहिये सवेदनायों से पूर्ण मनुष्य।
हमें दिखावटी आदमी खास नहीं चाहिये।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।       9897071046
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सुषमा दीक्षित शुक्ला

होली के रँग 

होली के शुचि पर्व में ,
रँगो प्रेम से मीत।
 प्रेम करो हर एक से
 लिखो प्रेम के गीत ।

फागुन आया झूमता ,
हैंबगियन में बौर ।
रंगों का त्यौहार ये ,
मधुर मिलन का दौर ।

होली के रँग में रँगो ,
 छोड़ो सारे क्लेश ।
हो जाओ सब एकरँग ,
भूलभाल कर द्वेष  ।

पिचकारी भर भर रँगो ,
डालो लाल गुलाल।
 होली में मिल झूम लो,
 रँग दो सब के गाल ।

कोई बैरी  ना रहे ,
होली से लो सीख ।
 प्रेम रंग से जग रँगों ,
 बनो सभी के मीत ।

सुषमा दीक्षित शुक्ला

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-51
संजम-नियम कृपा भगवाना।
नासहिं रोग जगत जे नाना ।।
      प्रभु कै भगति सँजीवनि नाई।
      श्रद्धा बहु जड़ ब्याधि नसाई।।
मन निरोग तुम्ह जानउ तबहीं।
उपजै जब बिराग तव उरहीं ।।
      बढ़ै सुबुधि अरु घटै बासना।
      राम-भगति-जल-ग्यान चाहना।।
श्रुतिहिं-पुरान-ग्रंथ सभ कहहीं।
राम-भगति बिनु सुख नहिं लहहीं।।
      होइ असंभव संभव बरु जग।
       मिलै न सुख बिनु राम-भगति खग।।
मथे बारि बरु घृत जग पावै।
सिकत पेरि बरु तेल लगावै।।
      प्रगटै पावक बरु हिम-खंडा।
       करै नास तम भानु प्रचंडा।।
पाथर मूलहिं उपजै फूला।
भानु उगै पच्छिम प्रतिकूला।
      पर न होहि खगेस कल्याना।
      बिनू कृपा राम भगवाना ।।
दोहा-राम-कृपा जग बहु प्रबल,भगति प्रबल प्रभु राम।
        महिमा गावैं चतुर जन,पावहिं ते सुख-धाम ।।
        राम क चरित जल-निधि इव, जल अथाह नहिं पार।
        तैरत रह प्रभु-चरित-जल, मिलहीं रतन अपार ।।
                       डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372

 *दोहे*(मादकता/मानवता)
होली के हुड़दंग में,मादकता अधिकाय।
रहे मनुजता शेष तो,होली परम सुहाय।।

उभय बीच संबंध मधु,बहुत कठिन है मीत।
स्नेह-रज्जु से यदि बँधें,बने मधुर जग-गीत।।

मादकता ने ही जना, रावण जैसा नीच।
जिसके ही उत्पात से,भरा लोक-सर कीच।।

पुनि आए प्रभु राम ले, मानवता-हथियार।
मादकता को कुचल कर,किया लोक-उद्धार।।

होली के हुड़दंग में, दोनों का रख ध्यान।
मने अगर त्यौहार यह, बढ़े पर्व - सम्मान।।

होली के त्यौहार पर, मिलें गले दो यार।
रिपुता को सब भूलकर,करें शत्रु-सत्कार।।

होली-पावक पावनी, करे भस्म अभिमान।
मादकता को भी जला,दे मानव को ज्ञान।।
             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                  9919446372

नूतन लाल साहू

होली

परिवार संग खेलो होली
बीती उमर न आयेगी कल
हंस लें जरा, गा लें जरा
होली है होली है होली है
बड़ी जादू भरी है ये दुनिया
दुनिया के मजे लूट लें
रंग गुलाल का त्यौहार
होली है होली है होली है
खुशी से नाचें मेरा मन
पायल बोले छन छनाछन
एक साथ मिलकर बोलो
होली है होली है होली है
रात भर का है मेहमान अंधेरा
तुझको ये पल न मिलेगा
रंग डाल लें,गुलाल लगा लें
और प्रेम से बोलो
होली है होली है होली है
यही तो वो सांझ सबेरा है
जिसके लिए तड़पे
मानव सारा जीवन भर
आ गई है,खुशियों की बेला
पूरा परिवार मिलकर बोलो
होली है होली है होली है
आया है कोरोणा का बवंडर
हमेशा नहीं रह पायेगा
कही खुशी तो कहीं गम है
बुराई पर अच्छाई का पर्व
होली है होली है होली है
परिवार संग खेलो होली
बीती उमर न आयेगी कल
हंस लें जरा, गा लें जरा
होली है होली है होली है

नूतन लाल साहू

आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला

🌹🌹होली की शुभकामनाएं 🌹🌹

प्रेम रंगो की हो वर्षा नित, 
सौहार्द गुलाल की फुहार,
सूरज की सुनहरी किरणे , 
करें खुशियों की बौछार,
चन्दन की खुशबु बिखरे , 
संग सदा अपनों का प्यार,
जीवन हो मधुर मंगलमय,
हर्षाए अंग-अंग आनंद अपार,
हे हरि ! हो हर दिन होली
रास रंग सज जाए  घर द्वार,
गिले-शिकवे सारे भूल कर,
करें इक दूजे पर  प्रेम की बौछार,
करें आजाद अकेला अभिनंदन,
मुबारक हो होली का त्यौहार।

  ✍️आचार्य गोपाल जी उर्फ आजाद अकेला (बरबीघा वाले)

जय जिनेंद्र देव

*गाँव की होली...*
विधा : कविता

होली आते ही मुझे
याद गाँव की आ गई। 
कैसे मस्ती से गाँव में 
होली खेला करते थे।
और गाँव के चौपाल पर
होली की रागे सुना थे। 
अब तो ये बस सिर्फ
यादे बनकर रह गई।। 
क्योंकि

मैं यहां से वहां
वहां से जहां में। 
चार पैसे कमाने
शहर जो आ गया।। 

छोड़कर मां बाप और 
भाई बहिन पत्नी को। 
चार पैसे कमाने 
शहर आ गया। 
छोड़कर गाँव की 
आधी रोटी को। 
पूरे के चक्कर में 
शहर आ गया। 
अब न यहाँ का रहा 
न वहाँ का रहा।
सारे संस्कारो को
अब भूल सा गया।। 
चार पैसे कमाने....। 

गाँव की आज़ादी को 
मैं समझ न सका। 
देखकर शहर की
चका चौन्ध को। 
मैं बहक कर गाँव से
शहर आ गया।
और मुँह से आधी रोटी
भी मानो छूट गई।। 
चार पैसे कमाने...। 

सुबह से शाम तक 
शाम से रात तक। 
रात से सुबह तक
सुबह से शाम तक। 
मैं एक मानव से 
मानवमशीन बन गया। 
फिर भी गाँव जैसा मान
शहर में  न पा सका।। 
चार पैसे कमाने 
यहाँ वहाँ भटकता रहा।
छोड़कर गाँव को
मैं शहर आ गया।। 

आज होली के दिन
रंगो के उड़ते ही 
बीतेदिन याद आ रहे। 
पर जिंदगी को अपनी
वहाँ से कहाँ तक ला दिया।
और भूल से गये शहर में
अब तो होली खेलना।
कहाँ गाँव का चौपाल है 
अब तो बंद है चार दिवारी में, बस चार दिवारी में।। 


आप सभी को होली की बहुत बहुत बधाई और शुभ कामनाएं। 

जय जिनेंद्र देव
संजय जैन मुंबई
28/03/2021

पुनीता सिंह

शीर्षक -
*मन में बरसे फाग*
इस होली में दफन करो हर दुख देती बात,
नेह रंग में रंग डालें हम अपनें जज़्बात।
💞💞
हम अपने जज़्बात, करें ना अब बरजोरी,
प्रीत के रंग में रंग जाए, आओ सब हमजोली।
💕💞
मिल करके हमजोली, सजायें मन का आंगन,
यही दुआ रब से है मेरी, मन में बरसे फागुन।
💞💞
मन में बरसे फाग, प्यार से भर पिचकारी,
बेरंग भाव हटे जीवन से, महके मन फुलवारी।
💞💞
खुशियों में सेंध लगी, साल भर मची तबाही,
पूरी कसर करें होली में, अंसुअन की करें विदाई।।
*पुनीता सिंह दिल्ली*

उषा जैन

विषय -होली

रूत बसंती मन बसंती 
तने बसंती फागुन की मस्ती
मदमाता फागुन  आ गया
फागुनी खुमार चढ़ा गया

टेसू कनेर के फूल है महके
लाल पलाश सब और है दहके
केसरिया सा मन हो गया 
मेरा अंग अंग महका गया 
मदमाता फागुन आ गया

ढोल नगाड़े मृदंग है बचते
फागुनी गीत हवा में गूंजे
छम छम गोरी गोरी ने पायल छनकाई
झूम रही है सारी  अमराई
कोयल भी फिरती है बौराई
एक नशा  सा हवा में छा गया
 मदमाता फागुन आ गया

आज न छोटा बड़ा है कोई
झूम रहे सब लोग लुगाई
आज न कोई राजा प्रजा है
खेल रहे रंग बनके हमजोली
रंगो के बहाने छेड़े भाभी को
देवर भी आज करे मनमानी
भाभी के गालों को रंग गया
मदमाता फागुन आ गया

तुम भी आ जाओ मेरे रंगरसिया
मुझ पर भी रंग बरसा दो मनबसिया
सूखी फीकी है मोरी चुनरिया
तुझे बिन रहा ना जाए सांवरिया
मन की अगन और भी दहका गया 
मदमाता फागुन आ गया गया

पीली पीली चुनर ओढ़ कर
अवनी भी आज रंग बरसाए
हर सजनी अपने सजना के संग
गीत प्यार के झुमके गाए
आज न  कोई तन्हा रह जाए
दुश्मन को भी गले लगाएं
रूठे हुए को आज मना ले 
प्रेम प्यार से तन मन रंग ले 
मन का बैर भाव  मिटा गया
मदमाता फागुन आ गया

स्वरचित उषा जैन कोलकाता
28/3/2021

रामकेश एम.यादव

होली!
आओ नफ़रत जलाएं होली में,
गिले -शिकवे भुलाएं होली में।
रूठ गए हैं  अर्से  से  जो रिश्ते,
उन्हें    बचाएँ   इस   होली  में।
जिनके सजन  परदेश में छाए,
उन्हें   भी   बुलाएँ   होली   में।
गोल गप्पे खाएं,रसगुल्ले खाएं,
गुझिया भी खाएँ इस होली में।
अबीर  लगाएं,  ग़ुलाल  उड़ाएं,
तन- मन को मिलाएँ होली में।
ढोल की थाप पे  थिरकें  सभी,
प्यार     बरसाएं     होली    में।
कब की प्यासी हैं नजरें उसकी,
चलो,अंगियाँ भिगोयेँ होली में।
यौवन- रस  से झुक  गईं  डालें,
पियें -  पिलाएं  हम  होली  में।
भीगा ये मौसम, भीगी  दुनिया,
खुशियाँ    मनाएँ    होली    में।
तन  को  छुए  भले  पिचकारी,
पर  मन  भी  भिगोए होली में।
फिर से वायरस का खतरा बढ़ा,
मास्क न  हटाएँ  इस  होली में।

        - रामकेश एम.यादव
    (कवि, साहित्यकार),मुंबई

सुधीर श्रीवास्तव

ले ही लूँ
********
आ गई है होली, थोड़ा सा तो पी लूं ,
बीत गया है अर्सा थोड़ा तो बहक लूँ।
देखता हूँ तो कुछ अच्छा नहीं लगता,
बस थोड़ा सा लेकर कुछ अच्छा हो लूँ।
पीना अच्छा नहीं है पता तो मुझे भी है
थोड़ा सा जीवन का कुछ मजा तो ले लूं।
पीकर बहक जाऊं ऐसा नहीं हो सकता
नाली में गिरने का अनुभव तो कर लूं ।
राज की बात है किसी से भी मत कहना
बीबी के लात घूसों का स्वाद तो चख लूँ।
होली है तो होली का खूब आनंद उठा लूँ
पीता नहीं हूँ,पीने का नाटक तो कर लूं।
आया है आज फिर से त्योहार होली का
आज तो आप सबका आशीष ही ले लूँ।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित,अप्रकाशित

जय जिनेन्द्र देव

*होली अपनो के संग*
विधा : कविता 

आओ हम सब, 
मिलकर मनाएं होली।
अपनों को स्नेह प्यार का, 
रंग लगाये हम।
चारो ओर होली का रंग, 
और अपने संग है।
तो क्यों न एकदूजे को, 
रंग लगाए हम।
आओ मिलकर मनाये, 
रंगो की होली हम।।

राधा का रंग और 
कान्हा की पिचकारी।
प्यार के रंग से,
रंग दो ये दुनियाँ सारी।
ये रंग न जाने कोई, 
जात न कोई बोली।
आओ मिला कर मनाये, 
रंगो की होली हम।।

रंगों की बरसात है, 
हाथों में गुलाल है।
दिलो में राधा कृष्ण, 
जैसा ही प्यार है।
चारो तरफ मस्त, 
रंगो की फुहार है।
हर कोई कहा रहा, 
ये रंगो का त्यौहार है।।

बड़ा ही विचित्र ये, 
रंगो का त्यौहार है।
जो लोगो के दिलों में, 
रंग बिरंगी यादे भरता है।
देवर को भाभी से, 
जीजा को साले से।
बड़े ही स्नेह प्यार से, 
रंगो की होली खिलता है।
और अपना प्यार, 
रंगो से बरसता है।।

होली मिलने मिलाने का, 
प्यारा त्यौहार है।
शिकवे शिकायते, 
भूलाने का त्यौहार है।
और दिलों को दिलों से, 
मिलाने का त्यौहार है।
सच मानो और जानो, 
यही होली का त्यौहार है।।

जय जिनेन्द्र देव 
संजय जैन (मुंबई ) 
29/03/2021

रामकेश एम. यादव

हे ! दुनिया के मालिक

सुबह -सुबह जगकर चिड़िया,
मेरी   मुंडेर   पर   आती   है।
अपने  मीठे   कलरव  से  वो,
सबसे    पहले   जगाती   है।
बाग -  बगीचों   की   खुशबू ,
फिजाओं  में  घुल  जाती  है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद    तुम्हारी     आती    है।

सागर  की  लहरों  से  बादल,
जब  नील  गगन में  छाता है।
उमड़-घुमड़कर करता बारिश,
धरा   को   धानी   करता  है।
सज्जित तन को देख-देखकर,
धानी   धरा    मुसकाती    है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद    तुम्हारी    आती     है।

बंजर  को   उपजाऊ   बनाने,
पर्वत   से   नदी  उतरती  है।
कहीं पे गहरी,  उथली  कहीं,
सूरज  की  पाती  पढ़ती  है।
जीना मुहाल किया ये मानव,
धुन -धुन  जब  पछताती  है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद     तुम्हारी    आती    है।

मानव  भी  है  नभ  में उड़ता,
इसको   बड़ा  अभिमान   है।
एटम-बम  की सेज पर सोता,
मन   में    बड़ा   तूफ़ान   है।
अपनी भाषा में जब कुदरत,
लोगों   को    समझाती    है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद    तुम्हारी    आती     है।

ऊपर  से  कोई   साया   नहीं,
वो  जिस्म का धंधा करती है।
उसके  हक़ की धूप  चुराकर,
दुनिया    मौज    मनाती   है।
आंसू  की  दरिया  में  बेचारी,
जब जख्म वो अपना धोती है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद    तुम्हारी     आती    है।

- रामकेश एम. यादव (कवि, साहित्यकार)मुंबई

शुभा शुक्ला मिश्रा 'अधर

शुभ रंगोत्सव..💞🎨☺🎭
ग़ज़ल
*****
चढ़े संसार के सिर पर अजब सी भंग होली में।
लगाते हैं मुहब्बत से सभी जब रंग होली में।।

करें सब एक दूजे को भले ही तंग होली में।
नहीं होती मगर तकरार कोई जंग होली में।।

बड़े-छोटे थिरकते हैं खिलें घर-द्वार भी सबके,
नगाड़े- ढोल  बजते  हैं  चले  हुड़दंग  होली में।

कहीं होती ठिठोली तो हुआ मदहोश है कोई,
पुलक उठता खुशी से झूमता हर अंग होली में ।

रँगा जो भक्ति के रँग में हुआ प्रहलाद सा प्यारा,
करे वो होलिका का दंभ पूरा भंग होली में।

सिखाती आग होली की बुराई को जलाना पर,
सिखा सकता नहीं कोई  किसी को ढंग होली में।

उमा-शंकर सिया-राघव रँगे हैं कृष्ण-राधा भी,
कथाएँ यह बताती हैं इन्हीं से रंग होली में।

गुज़ारिश है मुक़म्मल हो 'अधर' दिल की यही चाहत,
कि मैं खेलूँ सदा होली तुम्हारे संग होली में।

*****************************

आप सभी आत्मीयजनों को रंगों के पावन पर्व #होली की हार्दिक शुभकामनाएँ।☺🙏💐

🌹।।जय जय श्री राधेकृष्ण।।🌹

 #शुभा शुक्ला मिश्रा 'अधर'❤️✍️

एस के कपूर श्री हंस

*।।ग़ज़ल।।  ।।संख्या  50  ।।*
*।।काफ़िया।। आया।।*
*।।रदीफ़।। जाये ।।*
1
जमीं है  जो धूल  उसको हटाया जाये।
दिलों में इक़ नई लौ को जलाया जाये।।
2
थक हार कर जो बैठ   गई  है उम्मीद।
उस उम्मीद को फिर से जगाया जाये।।
3
चला गया है  जो दूर   हमसे  रूठ कर।
लग कर गले उसको फिर बुलाया जाये।।
 4
क्योंकर लगी है आग सीने में नफरतों की।
उसीआग को अब बिलकुल बुझाया जाये।।
5
जो बात कर रही दूर हमको एक दूजे से।
हटा कर प्यार के गीतों को सुनाया जाये।।
6
बेवज़ह लगा दिये इल्ज़ाम एक दूजे पर।
उन दागों को सिरे से  अब मिटाया जाये।।
7
बीत गए जो पल बने थे महोब्बत को।
उन लम्हों को   फिर से  चुराया जाये।।
8
ये जो बेवजहआ गए बीच में राहुकेतु से।
उन्हें अबकी तो बहुत  दूर भगाया जाये।।
9
एक वक़्त थे जो अपने हमजोली हमराह।
उनको आज फिर   सीने से लगाया जाये।।
10
प्रेम और मिलन का त्यौहार है ये होली।
इसे मिलकर  महोब्बत से मनाया जाये।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।      9897071046
                    8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-52
दोहा-सुनि भसुंडि-मुख प्रभु-चरित,भगति-बिमल रस सानि।
        कहेसि गरुड़ मम हिय भई, नवल प्रीति गुन-खानि।।
        मोह व माया जनित दुःख, गए तुरत सभ भागि।
        मोह-मुक्त तुम्ह कीन्ह मोहिं,बंदउँ चरन सुभागि ।।
         भयो जनम मम अब सुफल,पा प्रसाद तव नाथ।
          संसय-भ्रम मम बिगत मन,भजउँ नवा निज माथ।।
          सिर झुकाइ अरु करि नमन,हृदय राखि प्रभु राम।
          गयो गरुड़ बैकुंठ तब, सुमिरत हरि कै नाम।।
सुरसरि बास धन्य ई देसा।
धन्य नारि बहु धन्य नरेसा।।
        धर्महि धन्य,धन्य सभ लोंगा।
         भुइँ भारत प्रधान जप-जोगा।।
धन्य धरनि जहँ नित सतसंगा।
जप-तप-नियम-धरम नहिं भंगा।।
         सभ जन सुनहिं रुचिर मन लाई।
          राम-कथा पुनि-पुनि हरषाई।।
गुरु-पद प्रीति रखहिं नर-नारी।
राम-भगत सुख कर अधिकारी।।
       सकल कामना पूरन होवै।
       कथा कपट बिनु सुनै न खोवै।।
दोहा-राम-भगति दुर्लभ मुनिन्ह,बरु ते करहिं प्रयास।
        बिनु प्रयास नर पावहीं, कहि-सुनि रखि बिस्वास।।
   प्रार्थना-
         हे दीन दयालु-कृपालु प्रभो,
                  सद्बुद्धि सभी जन को दीजै।
       पथ-भ्रष्ट न हों,न हों कपटी,
                  नहिं लोलुप हों,न हों हवसी।
      अज्ञान-अँधेर को छाँटि प्रभो,
                   रवि-ज्ञान-प्रकाश उदित कीजै।
      माया-भ्रम-मद-मोह क जाल,
                     जंजाल-प्रभाव जरा हरिए ।
      नारि क लाजि बचाइ प्रभो,
                      खल-बुद्धि क शुद्धि जरा करिए।
      बालक जो बिनु मात-पिता,
                      असहाय प्रभो तू शरण लीजै।
     राष्ट्र बेहाल-विवाद-विकल,
                       कहीं जाति-विभेद त धर्म-विभेद।
     आतंक भरा है सकल जग में,
                        कहीं वर्ण- विभेद त कर्म-विभेद।
      हे जग-नायक राम प्रभो,
                        जनमानस - शुद्धिकरण कीजै ।
      राष्ट्र सभी आपस मिलकर,
                        बस एक कुटुंब बने सबहीं।
      सुख में,दुख में सब साथ रहें,
                          अरु नेह - सनेह करें सबहीं।
       हे जग-स्रस्टा - पालनकर्ता,
                           जग-कल्य�

नूतन लाल साहू

बाधाओं से कैसा घबराना

नदी नाले की पानी
तब तक निरंतर, बहता रहता है
जब तक वह समुद्र में
नही मिल जाता है
धरती की बड़ी बड़ी चट्टाने भी
उसके वेग को रोक नहीं पाया है
मार्ग की सभी बाधाओं को
नजर अंदाज करना पड़ता है
जब पानी अपने लक्ष्य तक
पहुंचने में सफल हो सकता है
तो आप तो इंसान है
सुर दुर्लभ मानव तन पाया है
फिर भी क्यों घबराता है
जो बिना संघर्ष मरता है
उसे भगवान भी माफ नहीं करता है
सतगुरु ने पूरण ज्ञान दिया है
भव तरने का सामान दिया है
सत्संग का प्याला
जो पियेगा,वह है किस्मत वाला
मोह माया के नशे में
खुशी की तलाश में
व्यर्थ ही फिरता रहता है
इंसान जहां में
मोह माया के बंधन छूटे
मेरी तेरी के भरम भी टूटे
इसीलिए प्रभु जी ने
एक शब्द दो कान दिया है
एक नजर दो आंख दिया है
और इंसान को ही
ज्ञान की ज्योति दिया है
हमें तो लक्ष्य तक जाना है
बाधाओं से कैसा घबराना
आप ही अपनी जिंदगी का
शिल्पकार है

नूतन लाल साहू

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल

ग़ज़ल को इस हुनरमंदी से हम अल्फाज़ देते हैं 
परिंदे जिस तरह से पंख को परवाज़ देते हैं

छुपाओगे कहाँ तक तुम मुहब्बत के सबूतों को 
ये आँखें और चेहरे खोल दिल का राज़ देते हैं

हमारी ख़ासियत को जानता सारा ज़माना है
जिसे छू लें बना उसको ही हम मुमताज़ देते हैं

मुहब्बत में कशिश यह सब तुम्हारी ही बदौलत है
तुम्हारे नाज़ ही इसको नया अंदाज़ देते हैं

हमारे लम्स से उस जिस्म में बजती है यूँ सरगम
कि जैसे मीर की ग़ज़लों को मुतरिब साज़ देते हैं

हमारी ख़्वाहिशें भी क़ैद कर लीं उसने कुछ ऐसे
परों को बाँध जैसे कुछ कबूतरबाज़ देते हैं

हवेली दिल की इस खातिर ही बस आबाद है *सागर*
वो लम्हें दौरे-माज़ी के मुझे  आवाज़ देते हैं

🖋 विनय साग़र जायसवाल
लम्स-स्पर्श 
मुतरिब-गायक
मुमताज़-विशिष्ट ,ख़ास

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

परिवर्तन
       
लगीं हैं बहने नदियाँ अब तो,निर्मल-निर्मल नीर लिए,
चंद्र-चंद्रिका छिटके नभ में, अब तो धवल अभीर हुए।
बरगद-पीपल-आम्र-नीम तरु लगते निखरे-नखरे हैं-
पर्यावरण-प्रदूषण गायब, शीघ्र हुआ जग-पीर लिए।।

लगा है दिखने अब तो हिमालय दूर देश से अपने,
धूल-गंदगी लगीं हैं छँटने, करतीं पूर्ण सभी सपने।
लगतीं जो थीं सकल दिशाएँ, धुँधली सी अति धूमिल-
हो आलोकित हुईं उजागिर रुचिर धवलिमा तीर लिए।।

गाँव की गड़ही-ताल-पोखरे,झीलें जल से भरन लगीं,
जल-सिंचित समयोचित फसलें,खेतों में अब उगन लगीं।
कृषि-प्रेमी हों प्रमुदित मन से निरख फसल निज धन्य रहें-
रखें नित्य घर-द्वार स्वच्छ,मन निर्मल,हिय अति धीर लिए।।

समय नियंत्रण-नियमन का कुछ ऐसा ही तो आ ही गया,
हुए सतर्क सब जन कुछ ऐसे, नियमन सबको भा ही गया।
नियमन और नियंत्रण तो ही अपनी जीवन-पद्धति है-
आज उसी को लगे हैं करने ग्रहण सभी मन थीर लिए।।

शिक्षा-दीक्षा-नव तकनीकें,नव विधान,नव सोच प्रखर,
नई दृष्टि सँग नित मानव की,गई सोच है पूर्ण निखर।
शोर-शराबा,हल्ला-गुल्ला,भारी भीड़ की नीति गई-
नव संस्कृति अब दस्तक दी है,नव प्रभात गम्भीर लिए।।

राजनीति के नायक-चिंतक जितने साधक-शिक्षक हैं,
सब हिमायती परिवर्तन के,सब नव सूर्य समर्थक हैं।
अब नव भारत नव बिहान ले,नवल गगन से है उतरा-
विश्व-पटल पर छा जाएगा निज सीना बलवीर लिए।।
              ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र
              9919446372

निशा अतुल्य

स्वरचित सृजन
30.3.2021

मन के पके भाव जब व्यक्त करती 
तो किसी का अहम् रोकता है 
रिश्तों की दुहाई स्वयं को देती
भूल जाती स्त्री फिर उन्हें ।
नारी उत्थान की बातें करने वाले
घुसते ही घर में जब 
स्त्री से पैर धुलवा 
दर्प से काँधे पर टँगे अंगौछे से 
झुकी निगाहों पर 
अहम् की दृष्टि गड़ाते हैं 
तब खो जाती हैं 
अनगिनत चीत्कार
घुटी साँसों में 
जो दिखा भी नहीं पाती रोष
पलकें ऊपर कर ।
घर की चार दीवारी और निकले कदम 
ऐसे ही हैं जैसे धरती अंबर
देखते है हर क्षण एक दूसरे को,
पर दूर से 
तरसती निगाहों को कब किसने समझा
नाम दे दिया क्षितिज का ।
नारी ढकती सबके ऐब 
अपने में समेटती सभी राग विराग
पीती नित गरल भावनाओं के 
बन जाती शक्ति से शिव ।
पर कौन समझे उसे, 
याद तभी आती है,जब कोई रक्तबीज
नहीं आता बस में 
तब साम दाम दण्ड भेद से 
बना चंडिका उपयोग करते उसे ।
और स्त्री फिर धीर,शील टूटी कड़ियों को जोड़ने में लग जाती 
नित पीती हुई विष
कभी अपने परिवार के लिए
कभी समाज के लिए ।
और फिर एक ढोल बजता 
रोज की तरह नारी शक्ति जिंदाबाद ।
स्त्री आधी आबादी जिंदाबाद
एक अनचाही हंसी 
फिर मन में ठहाका लगाती करती चीत्कार अंतर्मन में ।
ये ही सच्चाई है नारी उत्थान की
इस सृष्टि पर ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार जाकड़

 परिचय  

नाम-आशा जाकड़

जन्म स्थान-शिकोहाबाद

जन्म तारीख -10जून1951

शिक्षा-एम.ए.(हिन्दी व समाजशास्त्र)बी.एड.

व्यवसाय-सेंटपॉल हा.से. स्कूल में 28 वर्ष अध्यापन  व सेवानिवृत्त।वर्तमान में लेखन।

प्रकाशन कृतियाँ- 5 पुस्तकों का प्रकाशन

                ..... .राष्ट्र को नमन(काव्य संग्रह)

               अनुत्तरित प्रश्न (कहानी संग्रह )

              नये पंखों की उड़ान(काव्य संग्रह)

            सिंहस्थ महोत्सव2016,(निबंध)

            हमारा कश्मीर।   ( काव्य संग्रह 

लगभग 90 पुस्तकों में कहानी ,कविताओं व समीक्षा आदि का प्रकाशन

 उपलब्धियाँ --काव्य रस की अध्यक्ष और अनेक साहित्यिक संस्थानों की सदस्या।

अहिसास संस्था की सलाह कार सदस्य

अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी परिषद की.इन्दौर जिला अध्यक्ष।

आकाशवाणी पर कविता ,वार्ता पाठ

 दूरदर्शन भोपाल से कविताओं का पाठ

लगभग 100,सम्मानों  से ,सम्मानित। फिल्म एसोसिएशन राईटर्स क्लब की सदस्य।


पता 747,सांईकृपा कोलोनी

      होटल रेडीशन के पास

    ..कुशाभाऊ ठाकरे मार्ग

     452010 इन्दौर म.प्र.

मोबाइल-9754969496


वैक्सीन ः दोहे


 करुना ने पीड़ा दई ,कबहु भूल ना पाय , 

वैक्सीन आगमन से ,कष्ट निवारण पाय।



वैक्सीन दवा आ गई तबहुँ आजाद न कोय,

 हाथ धोए दूरी रखियो गले न मिलियो कोय।


वैक्सिन ने आवत ही दुख को तमस भगाय,

खुशियन की लहरें दिखी हिरदै उमंग जगाय।


वैक्सिन  तो आय गई, आशा किरण लिवाय,

खुशीयाँ संग आय गई  जीवन आस जगाय।


वैक्सिन तो लगवइयों ,पर रहना सवधान,

भिड़- भाड़ से दुर रहियो जिवन होगो असान।


सब वैक्सीन लगइयो ,  करोना दूर भगाय,

डरन की कछु बात नहीं, इक दूजे कु बताय।


  जीवन हमरो   कीमती,  करोना  ने  बताय,

  वैक्सीन लगवा लियो अपनो जिवन बचाय।


आशा जाकड़

9754969496



वज्रपात


कोरोना तूने  कैसा किया वज्रपात 

पूरे विश्व  के बिखर गए पात- पात।


अचानक सारा मंजर थम गया 

लोकडाउन से हृदय धक रह गया

 बेमौसम  ही मौसम सर्द हो गया

 ऐसी बीमारी जिसका ना कोई इलाज 

करोना  तूने कैसा किया वज्रपात 


सब अचानक घर में कैद हो गए 

स्कूल कॉलेज सब बंद हो गए 

ऑफिस कार्य घर से शुरू हो गए

 बेचारे बच्चे घर में कर रहे उत्पात

करो ना तूने कैसा किया वज्रपात ।।


हर जगह सुनसान वीरान हो गए 

बाग बगीचे  सब मौन हो गए

 मानुष सूर्य दर्शन को तरस गए

 जानवर सड़कों पर करें  धमाल

 करोना तूने कैसा किया वज्रपात ।।


गरीब बेचारे बेरोजगार हो गए 

बेघर अपने गांव नगर चलेगए 

चलने से पैरों में छाले पड़ गए 

 भूखों को नहीं मिला दाल भात 

करो ना तूने कैसा किया वज्रपात ।


अनचाही पीड़ा का शिकार हो गए

 किसी के परिजन हॉस्पिटल चले गए 

पर परिजन के दर्शन को तरस गए

अंतिम न लगासके अपनो को हाथ 

करोना तूने कैसा किया वज्रपात।।


आशा जाकड़               24 नवंबर

9754969496





"गीता का सार"


गीता ज्ञान की ज्योति है 

गीता  है जीवन का सार 

जन्म मरण तो निश्चित है

छोड़ो क्रोध और अहंकार।


कर्म करो फल- चाह नहीं 

यही तो है  गीता का सार 

कर्म करना ही धर्म हमारा  

अकर्म नहीं  है अधिकार।


जबभी होवे धर्म की हानि 

और अधर्म की हो  वृद्धि 

तब कृष्ण धरती पे आते

करते धर्म  की  उत्पत्ति। 


सज्जनों  के उद्धार हेतु 

पापियों का नाश चाहिए

धर्म की स्थापना के लिए

कृष्ण प्रगट होना चाहिए।


जो ईर्ष्या- द्वेष न करता 

ना किसी की आकांक्षा

वही कर्मयोगी सन्यासी

जग -,बंधन मुक्त रहता।


जन्म मिला है मानव का

तो मरण भी  निश्चित है

अच्छे कर्म -  धर्म करो 

मानुष ही श्रेष्ठ जीवन है।


कर्म- क्षेत्र का ज्ञान देती 

गीता जीवन काआधार 

जीवन मूल्यों से परिपूर्ण

गीता है ज्ञान का भंडार।


जीवन तो ये  नश्वर है 

और आत्मा  है अमर 

निस्वार्थभाव सेवा करो 

जीवन जायेगा    तर।


आशा जाकड़    ..       .28नवम्बर

9754969496



"समरसता के मोती लुटायें"0०


आओ साथी हम सब मिलकर समरसता के मोती लुटायें


कर्म क्षेत्र से कभी न डिगना,

धर्म क्षेत्र में कभी ना झुकना।

चाहे  कितने  मुश्किल आए,

सत्य राह से कभी ना  हटना।

कोटि- कोटि कंठों  से हम पावन संदेश सुनाएं।

आओ साथी हम सब मिलकर समरसता के गीत सुनाए।।


 भेदभाव को दूर भगा कर,

 एकता का भाव सिखाएं।

 स्वार्थ निशा में सोए जग को,

 हम  परमारथ सिखलाएं ।

 सत्कर्मों से आज धरा को हम सब स्वर्ग बनाएं ।

आओ सखी हम सब मिलकर समरसता के मोती लुटाए।।


 मेहनत की तलवार लेकर,

 बंजर   में  फूल  खिलाए।

 हौसलों के पंख लगाकर, 

 मंजिल  पार   लगाएं ।

 सुप्त परिश्रम के भावों को हम फिर से आज जगायें। आओ साथीःःःःःःःःःः

कटुता की अंगार बुझा कर 

जनमानस में प्यार जगा दें

 दुश्मन आंख उठाए गर तो 

शांत सिंधु में ज्वार उठा दे

उर वीणा के तारों से हम गीता ज्ञान सिखाएं

आओ साथी हम सब मिलकर समरसता के मोती लुटायें।



आशा जाकड़

9754969496०



नारी तू नारायणी है 


नारी ही परिवार की शक्ति है 

नारी अपने कुल की लक्ष्मी है

नारी से ही रिश्तों की खुशी है

नारी में  ही भारतीय संस्कृति है 

नारी तू सचमुच नारायणी है।।



तू ही भक्ति है ,तू नर की शक्ति है,

तू ही त्याग , तपस्या की मूर्ति है

नारी में प्रेम , ममता की शक्ति है

तू ही दुनिया की अनुपम कृति है 

सच  में नारी तू ही नारायणी है ।।


 तू ही लक्ष्मी हैं , तू ही कमला है

 तू ही राधा है , तू ही तो सीता है 

 तू ही शारदा ,तू ही भगवद्गीता है 

 नारी में सृजन की अनुपम शक्ति है 

 नारी तू सचमुच  में नारायणी है।।


तू ही लक्ष्मीबाई है  तू दुर्गा बाई है

तू ही दुर्गा है और तू ही  भवानी है

 तू ही अहिल्या तू पद्मिनी रानी है

निज रक्षा हेतु जौहर की शक्ति है।

नारी तू सचमुच  में  नारायणी  है।


तू ही करुणामयी है ,तू  ही प्रेममयी है

तू ही वात्सल्यमयी.,तू ही कालजयी है,

नारी  ही पुण्य  है और आशीष मयी है

तुझ में माँ काली की संहारक शक्ति है।

  हे नारी तू सचमुच में  नारायणी है।।



आशा जाकड़ 


9754969496


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दयानन्द त्रिपाठी निराला

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