सुधीर श्रीवास्तव

हे परशुरामजी
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त्रेतायुग धारी
रेणुका जमदग्नि सुत
भोलेनाथ के शिष्य
पितु आज्ञाकारी
ग्यानी, ध्यानी,प्रचंड क्रोधी
धनुष बाण,फरसाधारी
महेंद्र पर्वतवासी
भगवान परशुराम जी,
अब जागो,ध्यान से बाहर आओ
अपना रौद्ररूप दिखाओ
अपना क्रोध दिखा
आपे से बाहर आओ
धनुष की टंकार गुँजाओ
फरसे का कमाल दिखाओ।
या फिर जाओ
भोले बाबा की शरण में
छुप ही जाओ।
आज धरा का हर प्राणी
बेबस, लाचार,असहाय है,
लगता है धरा पर अब
कोई नहीं सहाय है,
आज वेदना भरी अनगिनत आँखे
आप को ही निहार रही हैं,
बिना कुछ कहे ही आपको
मौन निमंत्रण दे रही हैं।
अब तो जाग जाओ भगवन
ध्यान छोड़ धरती पर आओ
अपनी क्रोधाग्नि का दर्शन कराओ,
आज कोई लक्ष्मण
नहीं चिढ़ायेगा,
न ही कोई राम
आपकी क्रोधाग्नि बुझायेगा।
आज धरा को सचमुच
आपकी ही नहीं
अतिक्रोधी परशुराम की जरुरत है।
दिनों दिन कोरोना महामारी
पड़ती ही जा रही है भारी,
मानव कीड़े मकोड़ों की तरह
मर रहा है,
मानव अस्तित्व ही नहीं 
धरती पर जीवन जैसे 
विनाश की ओर जा रहा है।
बस ! अब देर न करो
अपने हर जरूरी काम बाद में करो
जल्दी धरा पर आओ
अपने क्रोध की ज्वाला
बिना हाँड़ माँस वाले
अदृश्य कोरोना पर बरसाओ,
मानव जाति को
विनाश होने से बचाओ,
अब इतना जिद भी न दिखाओ
मौन साधना तोड़कर चले आओ,
अब 
और विचार न करो
अपनी जिद का नहीं 
भोलेनाथ के सम्मान की लाज धरो।
आप तो पहाड़ो में छिपकर
हमसे बहुत दूर हो,
पर तनिक ये भी तो विचार करो
जब धरा पर हमारा
अस्तित्व ही नहीं होगा,
तब भला आपके गुरु
औघड़दानी  भोलेनाथ का
रुद्राभिषेक/जलाभिषेक
पूजन, अर्चन आरती
भला कौन करेगा।
●सुधीर श्रीवास्तव
     गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

वर्तमान का सच------

चहु ओर निराशा छाई है
आशा के बादल अब निराशा
की परछाईं है।।
वीरान हो रही बस्तियाँ घर
घर बन गए श्मशान
ईश्वर तेरी सृष्टि का कैसा 
यह विधान।।
अंधेरे की चीख है
भटक रहा है इंसान।।
पावन नदियाँ कल कल
कलरव करती पाप नासिनी
ना जाने कैसे  बन गयी है शमशान।।
एक दूजे से पूछ रहा है इंसान
क्या छंट पायेगा अंधेरा क्या
अंधेरे की चीख से उबर पायेगा इंसान।।
गलियां और मोहल्ले सुने
नही बचीअब मुस्कान।।
आज मिले जिससे कल
शायद हो उससे मुलाकात।।
दहसत कहर भय का दानव
अदृश्य कर रहा है नंगा नाच
खुद की गलती की सजा भोग रहा इंसान या कुपित हो
गया है भगवान।।
संमझ नही पाता कोई जाए
तो जाये कहाँ करे तो करे
क्या इंसान।।
मातम का मंजर खामोश
हो रहे प्राणि प्राण।।
एक दूजे से पूछ रहा सवाल
इंसान काल कोरोना हैं या
कल्कि से पहले ही यमराज
लिये अवतार।।
रिश्ते से रिश्ता मुहँ छुपाता
शर्मसार हो रहा समाज
जिनकी खातिर जीवन 
जल रहे दफन हो रहे लावारिस अनजान।।
बहुत हुआ मौत का
तांडव  कहता है पीताम्बर
सुनो दुनियां के भगवान
आंधेरो की चीखों से
मुक्त करो अब युग को
आंधेरो की चीख है कब
तक सुन पाओगे मिट
जाएगा जब तेरी सृष्टि से
तेरा ही विधि विधान।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उतर प्रदेश

विनय साग़र जायसवाल

गीत--

संयम के आधारों से अब ,फूटे मदरिम फुब्बारे हैं
कंचन काया पर राम क़सम, यह नैना भी कजरारे हैं

तेरे नयनों में मचल रही, मेरे जीवन की अभिलाषा 
कुछ और निकट आ जाओ तो,बदले सपनों की परिभाषा 
है तप्त बदन हैं तृषित अधर,कबसे है यह तन मन प्यासा  ।।
तुम प्रेमनगर आ कर देखो ,महके-महके गलियारे हैं ।।
कंचन काया-----

बरसा दो प्रेम सलिल आकर ,इस जलते नंदन कानन में
अंतस स्वर अब तक प्यासे हैं ,मेघों से छाये सावन में 
कितना उत्पात मचाती हैं ,तेरी छवियाँ उर-आँगन में 
तुम राग प्रणय का गाओ तो ,हँसते-खिलते उजियारे हैं ।।
कंचन काया -----

तुम साँझ-सवेरे दर्पण में ,अपना श्रंगार निहारोगी
मेरे सपनो के आँगन में, यौवन के कलश उतारोगी 
कब प्रणय-निमंत्रण आवेदन ,इन नयनों के स्वीकारोगी 
आखिर तुमको भी पता चले ,हम कब से हुए तुम्हारे हैं ।।
कंचन काया ----

आँचल में सुरभित गन्ध लिये,बहती है चंचल मस्त पवन
सच कहता हूँ खिल जायेगा, तेरे उर का हर एक सुमन
पंछी सा इत उत डोलेंगे ,झूमेंगे धरती और गगन 
अपने स्वागत में ही तत्पर ,जगमग यह चाँद-सितारे हैं ।।
कंचन काया------

मानो मन के हर कोने में ,तेरी आहट ही रहती हो 
सुर-सरिता बन कर तुम निशिदिन ,अंतस-सागर को भरती हो 
शुचि स्वप्नों का भण्डार लिये, मेरे ही लिये संवरती हो 
रेशम कुंतल बिखराओ तुम ,व्याकुल कितने अँधियारे हैं ।।
कंचन काया ----

संयम के आधारों से अब ,फूटे मदरिम फुब्बारे हैं ।
कंचन काया पर राम क़सम, यह नैना भी कजरारे हैं ।।

🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली
20/1/2007

डाॅ० निधि त्रिपाठी मिश्रा

*##*अक्षय तृतीया* *विशेष:भगवान परशुराम** *महिमामृतम्*##*

 *दोहा-*
अक्षय तृतीया तिथि यही, त्रेता का आरम्भ ।
परशुराम के अवतरण, का है यह प्रारम्भ।। 

 *चौपाई-* 
शुक्ल दिवस बैशाख महाना,तृतीया तिथि अक्षय तुम जाना। 
प्रभु करि कृपा तुमहि पर  नाना, शुभ कारज सकल सिद्ध जाना।। 

पितु जमदग्नि कहै सुत न्यारा,  मातु रेणुका के चक्षु तारा।
श्री विष्णु आवेशावतारा,नामहि परशुरामअति प्यारा।।
 
परम वीर ओजस्वी जाना,गुण अरु कर्म क्षत्रिनहि समाना। 
वर पाये प्रभु शिव से नाना,विप्र पुत्र बन गये भगवाना।। 

मातु पितु भगत अति सुखराशी,हरिअवतार सदा अविनाशी। 
अन्त तक महेन्द्र गिरि वासी,त्रय युग से इह लोक निवासी।। 

शिव से मिलन गये इक बारा, श्री गणपति बाधा करि डारा।
मुनि रिसियाये किये प्रहारा,अस कपिल एकदन्त करि डारा।।

हैहय दुष्ट सकल कुल घाती,करि उत्पात फुलावै छाती। 
परशुराम उनके प्रतिघाती,एकइस बार बुझै कुल बाती।। 

बहुतहि शस्त्र-अस्त्र के ज्ञाता, द्रोण कर्ण को ज्ञान प्रदाता।
द्विज जन पर अनुरक्ति विशेषा,सदैव क्षत्रियों पर अति रोषा। 

पितु पर प्रेम अनत रखियाहीं, पितु करि आज्ञा सिर धरियाहीं। 
मातु शीश धड़ से बिलगाहीं, पितु सन मातु वरद मा पाहीं।।

 *दोहा-* 
परशुराम भगवान की ,महिमा बडी़ महान। 
विनती जो जन नित करें, ते पावे कल्यान।।

 *स्वरचित-* 
 *डाॅ०निधि त्रिपाठी मिश्रा* 
 अकबरपुर,अम्बेडकरनगर**

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत(16/14)

जब विवेक से दूर रहे मन-
ज्ञान कहाँ से पाओगे??
प्रभु-गुण को पहचानो पहले-
तब जग को समझाओगे।।

जो हैं धीर-वीर इस जग में,
सबमें सदा विवेक रहे।
भले कष्ट वे पाते पल-पल,
वे विवेक से सदा सहे।
सहन-शक्ति का जब अभाव है-
मान कहाँ से लाओगे??
       ज्ञान कहाँ से पाओगे??

जी लो जब तक जीना जग में,
बिना तजे इस धीरज को।
जब तक सर में नीर टिका है,
देख सकोगे नीरज को।
नहीं अगर जल-सर का संगम-
कैसे कमल खिलाओगे??
     ज्ञान कहाँ से पाओगे??

है विवेक रक्षक जीवन का,
यही करे पहरेदारी।
धीरज और विवेक उभय की,
रहे यही जिम्मेदारी।
हुआ अलग जब एक किसी से-
कैसे जान बचाओगे??
     ज्ञान कहाँ से पाओगे??

जीवन में जब विकट परिस्थिति,
बन बादल छा जाती है।
पूनम की उजली रातों में,
पूर्ण अमावस आती है।
निज विवेक से कर संरक्षण-
सुख-प्रकाश फैलाओगे।।
      ज्ञान कहाँ से पाओगे??

              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                  9919446372

डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

*राम बाण🏹 बदले-बदले नकाब देखे*
       हां जी हां हमने ऐसा साल देखा है।
      सड़कों में लगे तंबू तिरपाल देखा है।
          शाहीन बाग के लजीज खानों में।
        दिल्ली के दंगों के दलाल देखा है।।

     मुखौटों में बदले - बदले नकाब देखे।
        मजहब‌ के कौमी नामी नवाब देखे।
   तार - तार कर रही थी इंसानियत वहां।
नालों में मिलती लाशों का हाल देखा है।।

      पैदल जो घर को मजदूर जा रहे थे।
    पांव के छाले दर- दर को बता रहे थे।
          बच्चों के भी चेहरे मुरझाये देखे।
 दर - दर को भटके भूखे बाल देखा है।।

      रिश्ते जो पास थे वे भी दूर हो गये।
         घरों में रहने कैसे मजबूर हो गये।
      दवाओं की दलाली की दरिंदगी में।
नजदीकियों ने दूर से वो काल देखा है।।

  यह भोर भी अब विभोर करने लगी है।
  वादी भी अब ठगी- ठगी लगने लगी है।
धूप -छाँव की अटखेलियाँ खलने लगी है।
     बंद कमरे से सूरज वह लाल देखा है।। 

       हवायें आज हमसे कुछ पूछ रहीं हैं।
     अपनों से ही अपना पता पूछ रही हैं।
‌  ‌      हवाओं के ‌सौदे सदनी दलालों के।
        बंगलों में रखे हुए वह माल देखा है।।

    इनमें तो कुछ चेतना जगाओ राम जी।
      मानवता का संचार कराओ राम जी।
      अच्छे दिन कैसे भी बुलाओ राम जी। 
        बुरे दिनों के हमने बुरे हाल देखा है।।

            डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

छठवाँ-6
  *छठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
स्तन-पान कराइ क माता।
पलना माहिं सुताय बिधाता।।
    निरखन लगीं जसोदा मैया।
    प्रमुदित मन जब सिसुहिं कन्हैया।।
बाबा नंद तहाँ तब आए।
गोपिन्ह सँग मथुरा तें धाए।।
    देखि पूतना भीम सरीरा।
    अचरज भे सबहीं गम्भीरा।।
अवसि इहाँ बसुदेवहिं रूपा।
जनम लियो जनु ऋषी अनूपा।।
    अस सभ कहन लगे ब्रजबासी।
     काटत अंग पूतना नासी।
रखि लकड़ी पे अंग-प्रत्यंगा।
दिए जरा सभ अंगहिं-अंगा।।
     धूम्र सुगंधित निकसन लागा।
      पुतना-तन तें जरत सुभागा।।
पिबत दूध तन भयो पुनीता।
पाइ क किसुनहिं मुख-अमरीता।।
     तुरत परम गति पाइ पूतना।
      सत्पुरुषहिं जग मिलई जितना।
प्रभु-पद-पंकज जे मन लागा।
जाके हृदय नाथ अनुरागा।।
     पाई उहहि अवसि सतधामा।
     निसि-दिन भजन करत प्रभु-नामा।।
ब्रह्मा-संकर बंदित चरना।
करहिं सुरच्छा जे उन्ह सरना।।
     प्रभु निज चरनहिं दाबि पूतना।
     पिए दूध तिसु जाइ न बरना।।
दियो परमगति ताहि अनूपा।
मिली सुगति जस मातुहिं रूपा।।
दोहा-कथा पूतना मोच्छई,अद्भुत, परम पुनीत।
         बालकृष्ण लीला इहइ, सुनि जन होंहिं अभीत।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                           9919446372

एस के कपूर श्री हंस

*।। हे कॅरोना , हमें हार मंजूर नहीं है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
माना कि   घनेरी रात  पर
सुबह भी दूर नहीं।
प्रहार बहुत     कठोर   पर
हार भी मंजूर नहीं।।
माना समय   कठिन    पर
गुजरेगा   धैर्य   से।
हौंसला कुछ   टूटा  जरूर
पर    चूर चूर नहीं।।
2
दुआ दवाई     निरंतर  श्रम
परेशानी से निकालेगा।
कड़ी की तोड़ ही     हमको
महामारी से निकालेगा।।
सदी में एक    बार    जरूर
आती है  कोई  बीमारी।
हमारा हौंसला ही  हमें  इस
दुश्वारी से   निकालेगा।।
3
इस कॅरोना ने   जीवन   की
परिभाषा बदल   दी है।
असर यूँ पड़ा जीवन की हर
अभिलाषा बदल दी है।।
4
हम फिर वैसी ही    चहकती 
सुबाह   लेकर आयेंगें।
जीने की वैसी ही ललकऔर
चाह    लेकर   आयेंगें।।
इस कॅरोना कड़वी  यादों को
कर     देंगें दफ़न हम।
जिंदगी की वापिस फिर वही
हर वाह लेकर आयेंगे।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।       9897071046
                     8218685464




*।।  प्रातःकाल   वंदन।।*
*(अक्षय तृतीया की शुभकामना*
*सहित)*
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂

इस    अक्षय   तृतीया पर
मिले स्वर्ण चंदन  आपको।
इस अखा तीज  प्राप्त  हो
स्वर्णिमअभिनंदनआपको।।
यह पुनीत पर्व लेकर आये
जीवन में खुशियां  आपार।
*इस अक्षय तृतीया के नव*
*प्रभात पर वंदन  आपको।।*
👌👌👌👌👌👌👌👌
*शुभ प्रभात।।।।।।।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।।।।  एस के कपूर*
👍👍👍👍👍👍👍👍
*दिनाँक. 14.     05.       2021*

नूतन लाल साहू

पुतरी पुतरा के बिहाव

आज हे अक्षय तृतीया के तिहार
होही पुतरी पुतरा के बिहाव
बाजा ह बाजही ताकधिन ताकधिन
मन मा,खुशी भर जा ही
लक्षमिन के पुतरी हे,विष्णु के पुतरा
हो ही चुलमाटी, चघही तेल
रानी  अऊ राजा कस
सजाही, दुलहीन दूल्हा ल
बाजा ह बाजही ताकधिन ताकधिन
आज हे अक्षय तृतीया के तिहार
हो ही पुतरी पुतरा के बिहाव
बईसाख के मंझनिया
लक लक ले तपय भुईया
मड़वा छवाही तब
आही अड़बड़ मजा
दाई माई ह गाही गीत
बाजा ह बाजही ताकधिन ताकधिन
आज हे अक्षय तृतीया के तिहार
हो ही पुतरी पुतरा के बिहाव
लड्डू, बरा,पपची, पुड़ी अऊ सोहारी
 ढट्ठा मठ्ठा के पंगत म बइठके
सबों झन,खाही ओंसरी पारी
बेटी बिदा के बेरा मा संगी
करेजा ह हो जाही चानी चानी
दाई माई सहेली के आंखी म
बरसही आंसू, जइसे बरसथे पानी
खेल खेल म, सबो नेंग हो ही
हांसी खुशी सकलाही, जम्मो सहेली
मड़वा नाचें के बेरा म
बाजा ह बाजही ताकधिन ताकधिन
आज हे अक्षय तृतीया के तिहार
हो ही पुतरी पुतरा के बिहाव

नूतन लाल साहू

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मेरा शत शत नमन व वन्दन तथा अक्षय तृतीया की ढेरों ढेरू बधाई ,आज की रचनाओं का अवलोकन करें....                                   बैशाख कै माह उजारो था पाखु तृतीया तिथी कसु नीकु सुहाई।।                       वेद बखानतु याहि तिथी अक्षय भण्डारू भरैं जु लुगाई।।                        याकु विशेषु है अऊर भयी रेणुका गोदिया यकु पूत है आई।।                     भाखत चंचल रिसि जमदग्नि खुशी बहु नीकु औ बाजै बधाई।।1।।                      मंगलगान गुँजै चहुँओरू औ वटुकनु मन्तर वेद सुनाई।।                                ढोलु कै थाप बजै दिनुरैनु  औ नाचि रहीं सखियाँ अँगनाई।।                            पोथिनु खोलि के बाँचै रिसी छह योगु सुनीकु परा जौ देखाई।।                           भाखत चंचल फूलो समाय ना बालकु विष्णु कै रूपनु आई।।2।।                     याकु समय कर बातु लिखी यकु देव जो उत्तिमु धेनु अँटाई।।                                बात विशेषु रही यहिमा रिसि खर्चनु पूरो करो यहू गाई।।।                            राजनु याकु अँटे तबु आश्रम धेनु पै मोहितु वै ह्वै जाई।।                              भाखत चंचल माँगतु धेनु औ नाही कहे रिसी मारि गिराई।।3।।।                        क्रोधी भयो परशुराम तबै अरू ठान्यो शपथु क्षत्री नु नसाई।।                           बार इक्कीस विनाशु भयो तबु अंजनीपुत्र धरानु बचाई।।                         राम कहो परशुराम जपो कलिकालु करालु धरानु  पै आई।।                        भाखत चंचल अमर सपूत जो रेणुका देवी  की कोखनु आई।।4।।                      आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।।ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी,उ.प्र.।मोबाइल...8853521398,9125519009।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

नीरज निर्मल अविरल निर्झर
निष्काम कर्म का जीवन जीवंत
योद्धा हो ।।
शौम्य मृदु मधुर मुस्कान
शान स्वाभिमान मूल्य मूल्यवान
व्यक्ति व्यक्तित्व अनूठा हो ।।
पानी आग समीर अविनि आकाश पंच
तत्व में  मलय सुगंध पुरुषार्थ पुरोधा हो।।
अविरल निष्छल निर्विकार 
निर्विरोध साकार सत्य परमेश्वर
का सच्चा वंदा हो।।
रचना जीवन धर्मिता धर्म मर्म
कर्म  दूषित कलयुग में स्वच्छ
सार्थक मानव मानवता हो।।
माँ बाप का पुण्य प्रताप
माँ बाप के पुण्य प्रताप का
परम् शौर्य सूर्य नीरज अनमोल
रत्न सा हो।।            
चाहे जितना रूठ जाओ
चले जाओ छोड़ हम सबको
फिर भी हम तो नीरज के 
अरमानों का दीप जलाये
रखेंगे।।
उद्देश पथ था जो आपका
उसको महकाये रखेंगे
श्रद्धा की अंजली में यही
भाव पुष्प अर्पित हम करते
है ।।  
स्वर्ग में मील आपको 
ईश्वर का आशीर्वाद मिले
रिश्ते नातों को आपके जीवन
मर्यादा मूल्यों का पुण्य प्रताप
प्रसाद मिले।।

नांदलाल मणि त्रिपाठी  पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

सुनीता असीम

प्यार को घटते हुए देखा गया है।
नफरतें बढ़ते हुए देखा गया है।
***
जो बना बलवान फिरता है जगत में।
उसको भी डरते   हुए देखा गया है।
***
आग की महिमा  भला कैसे कहें हम।
अग्नि को जलते  हुए देखा गया है।
***
जब हुई कृपा कभी भगवान की है।
अंधे को पढ़ते हुए देखा गया है।
***
दर्प कैसे इस जवानी का करें फिर।
जब इसे  ढलते हुए देखा गया है।
***
सुनीता असीम
१२/४/२०२१

डॉ0 निर्मला शर्मा

लहर नहीं कहर
कोरोना संक्रमण बढ़ा
नहीं रुका ये ज़हर
कोरोना की लहर बढ़ी
बरपाया है कहर

टीकाकरण भी हो रहा
अपनाए सभी नियम
फिर भी बढ़ता जा रहा
कोरोना का कहर

गली- गली और शहर- शहर
चर्चा बनी खबर
स्कूलों में बढ़ रहा
कोरोना का कहर

मास्क बिन जाना नहीं
बाहर का खाना नहीं
स्वच्छता का ज्ञान हो
बचना है यही ध्यान हो।

डॉ0 निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*चौपाइयाँ*(देश-भक्ति)
देश-भक्ति की शुद्ध भावना।
सदा रहे हर जन का सपना।।

देश-भक्ति यदि भाव नहीं है।
पत्थर-दिल  इंसान  वही  है।।

राष्ट्र-प्रेम है प्रेम निराला।
देश हेतु मर-मिटने वाला।।

चाहे राष्ट्र समर्पण पूरा।
इसे न भाए भाव अधूरा।।

राष्ट्र-धर्म  ही  मात्र  धर्म  है।
त्याग राष्ट्र-हित सुखद कर्म है।।

धर्म सनातन कहता  अपना।
राष्ट्र-सुरक्षा  करते  रहना।।

देश-भक्ति का गीत सुहाना।
सब जन को है नित-नित गाना।।
         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
            9919446372

आशुकवि एवं काव्य रंगोली परिवार के संस्थापक एवं काव्य रंगोली पत्रिका के संपादक लोकप्रिय कवि साहित्यकार रचनाकार समीक्षक, मार्गदर्शक श्री नीरज अवस्थी जी का कोरोना से आज दिनांक 11 मई 2021 को सुबह हुआ निधन, साहित्य जगत की हुई अपूर्णिय क्षति, उनकी रिक्ति भर पाना असम्भव, परमात्मा का क्रूर प्रहार, अंश्रूपूरित श्रद्धांजलि समर्पित।

आशुकवि एवं काव्य रंगोली परिवार के संस्थापक एवं काव्य रंगोली पत्रिका के संपादक लोकप्रिय कवि साहित्यकार रचनाकार समीक्षक, मार्गदर्शक श्री नीरज अवस्थी जी का कोरोना से आज दिनांक 11 मई 2021 को सुबह हुआ निधन, साहित्य जगत की हुई अपूर्णिय क्षति, उनकी रिक्ति भर पाना असम्भव, परमात्मा का क्रूर प्रहार, अंश्रूपूरित श्रद्धांजलि समर्पित।

जनपद लखीमपुर खीरी के ऐरा खमरिया पंडित गांव निवासी आशुकवि एवं काव्य रंगोली परिवार के संस्थापक एवं काव्य रंगोली पत्रिका के संपादक लोकप्रिय कवि साहित्यकार रचनाकार समीक्षक श्री नीरज अवस्थी का कोरोना से आज दिनांक 11 मई 2021 को सुबह निधन हो गया। दादा की अच्छाई के बारे में और साफगोई के बारे जितना कहा जाए वह कम ही होगा। 

 श्री नीरज अवस्थी के निधन से साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति हुई है, उनका जाना हमारे लिए निजी छती है ,मैंने अपना एक मार्गदर्शक खो दिया ,आशु कवि श्री नीरज अवस्थी ने बहुत ही कम संसाधन में साहित्य की जो सेवा की है उसे सदियों सदियों तक याद किया जाएगा ,श्री नीरज अवस्थी जी साहित्य जगत की एक ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने कभी ऊंच नीच छोटे बड़े का भेदभाव जाना ही नहीं, उन्होंने देश के विभिन्न कोने कोने से कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के साहित्यकारों को खमरिया गांव बुलाकर सम्मानित किया, मेरा भी सौभाग्य रहा कि मुझे भी आपके संस्था व आपके हाथों से सम्मानित होने का अवसर प्राप्त हुआ, ईश्वर आपकी आत्मा को शांति प्रदान करें तथा घोर दु:ख की इस घड़ी में परिवार को दु:ख सहने की असीम क्षमता प्रदान करें।
 ॐशांतिॐ
😭😭😭😭😭🙏🙏🙏🙏🙏
दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
 ज़िद   भी    ऐसी    ना   हो
कि  थक  गया हूं  बस  करो
दूर तलक जा होना है आसमानी 
नई इबारत लिख रहा हूं बस करो। 

गुफ्तगू   की   नये   सफर   की
मृत्यु तो आनी ही है जी लिजिए
अमर होना है अगर हर दिलों में
मरकर जिंदगी के चरम ले लिजिए।

क्यों! मौत को चुपके से बुलाया
व्याकुल  हो  गये  स्तब्ध  हैं सब
मौत को आनी थी कल कहा था
आमंत्रित ऐसे किया स्तब्ध हैं सब। 

अश्रुपूरित_श्रद्धांजलि_आशुकवि_नीरज_अवस्थी_दादाजी
    दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल
    महराजगंज, उत्तर प्रदेश।

नीचे दी गरीब मेरी यह रचना स्व0 आशुकवि नीरज अवस्थी दादा जी को सहृदय 😭😭😭😭😭😭🙏🙏🙏🙏समर्पित करता हूं...

पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

आसूं औ दहशत का आलम हर नयनों में उभर रही,
जानें कितने आशाओं पर बज्र पात सी मचल रही।
ऐ मरने वालों सुनों गुज़ारिश वोट डालते जाओ तुम,
निष्ठुर  समय  बता  रहा  है  मृत्यु  द्वारे  सजल  रही।
राजनीति का चाबुक ऐसा अटक रही हैं सांसें अब,
जीत रही सियासत देखो हारी ले मानवता उपहास।
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

सांसों का संकट है फैला कभी यहां और कभी वहां,
सभी दलों के नेता सारे एक्जिट पोल पर लड़े जहां।
कहीं बिलखता बचपन है तो कहीं जवानी डूब गयी,
देखो सारे श्रवण तुम्हारे घातक बाणों से मरे जहां।
कटुता-कपट-कुसंगत तेरे पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
सब कालखण्ड में अंकित होंगें ले स्वर्णिम इतिहास।
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

जब भी रावण खड़ा सामने दिख जाये लो चेत,
संहारक हैं कृष्ण धरा की करें श्रीराम सा हेत।
उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम  हाहाकार  चहुंओर,
लेकिन तृष्णा नहीं गयी है हैं गज़ब चरित्र के प्रेत।
इस समर का पहर बहुत है बाकी करनी है गणना,
ताप-तपित धरती है व्याकुल स्वार्थ लोभ बनवास
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

है सुविधा अनगिनत जहां में फिर भी संकट है गहरा,
सुख के सब सामान जुटाके देते है मरघट में पहरा।
हर प्राणी है सहमा-सहमा मृत्यु का आभास लिए,
सदा सत्य है मृत्यु लेकिन फिर भी जीवन है गहरा।
नैतिकता के रखवाले सारे सच्चे साधक नहीं रहे,
अब सम्प्रभुता पाने की खातिर कर डाले बकवास।
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

          © दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(16/14)
कुछ भी नहीं सरल है जग में,
जीवन है संघर्ष भरा।
पर देता संघर्ष मधुर फल-
करता तरु भी शुष्क हरा।

तिनका-तिनका चुनकर पक्षी,
अपना गृह-निर्माण करे।
उसी घोंसले में वह रहता,
तूफानों से  बिना डरे।
जग रहता संघर्षशील ही-
कठिनाई से बिना डरा।।
     करता तरु भी शुष्क हरा।।

सोना तपकर कंचन बनता,
मथे दही से घृत निकले।
श्रम-बूदों के संघर्षों से,
गलकर ही पत्थर पिघले।
खाकर रगड़ शिला पर,देखो-
रूप हिना का हो निखरा।।
    करता तरु भी शुष्क हरा।।

सिंधु-उर्मियों से लड़ नाविक,
नौका को उस पार करे।
ऊँची उठें भले लहरें भी,
वह बढ़ जाता बिना डरे।
इसी राज को जिसने समझा-
जीवन उसका है सँवरा।।
     करता तरु भी शुष्क हरा।।

करे उजाला बाती जलकर,
तम-उर फाड़ प्रभात बने।
कभी न उगतीं फसलें प्यारी,
बिना पसीना बूँद सने।
जीवन तो संघर्ष एक है-
ग्रंथों में है यही धरा।।
      करता तरु भी शुष्क हरा।।
                 "©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372

पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास, नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

आसूं औ दहशत का आलम हर नयनों में उभर रही,
जानें कितने आशाओं पर बज्र पात सी मचल रही।
ऐ मरने वालों सुनों गुज़ारिश वोट डालते जाओ तुम,
निष्ठुर  समय  बता  रहा  है  मृत्यु  द्वारे  सजल  रही।
राजनीति का चाबुक ऐसा अटक रही हैं सांसें अब,
जीत रही सियासत देखो हारी ले मानवता उपहास।
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

सांसों का संकट है फैला कभी यहां और कभी वहां,
सभी दलों के नेता सारे एक्जिट पोल पर लड़े जहां।
कहीं बिलखता बचपन है तो कहीं जवानी डूब गयी,
देखो सारे श्रवण तुम्हारे घातक बाणों से मरे जहां।
कटुता-कपट-कुसंगत तेरे पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
सब कालखण्ड में अंकित होंगें ले स्वर्णिम इतिहास।
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

जब भी रावण खड़ा सामने दिख जाये लो चेत,
संहारक हैं कृष्ण धरा की करें श्रीराम सा हेत।
उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम  हाहाकार  चहुंओर,
लेकिन तृष्णा नहीं गयी है हैं गज़ब चरित्र के प्रेत।
इस समर का पहर बहुत है बाकी करनी है गणना,
ताप-तपित धरती है व्याकुल स्वार्थ लोभ बनवास
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

है सुविधा अनगिनत जहां में फिर भी संकट है गहरा,
सुख के सब सामान जुटाके देते है मरघट में पहरा।
हर प्राणी है सहमा-सहमा मृत्यु का आभास लिए,
सदा सत्य है मृत्यु लेकिन फिर भी जीवन है गहरा।
नैतिकता के रखवाले सारे सच्चे साधक नहीं रहे,
अब सम्प्रभुता पाने की खातिर कर डाले बकवास।
पानी बिकने लगा हंसी हो हवा बिके परिहास,
नहीं होश है मानव संकट में हार रहा इतिहास।

          © दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

श्रीकांत त्रिवेदी लखनऊ लघुकथा प्रसिद्ध न्यूरोसर्जन ब्रेन स्ट्रोक से पैरालाइज्ड!

 डॉ अरोड़ा का नाम दूर दूर तक फैला हुआ था !

शहर के मेयर, 

बहुत बड़े न्यूरो सर्जन!

दवाओं की होल सेल एजेंसियां पूरी कमिशनरी में फैली थी !

  उन्हे सांसदी का टिकट कई पार्टियां देने को तैयार बैठी हैं,

पर वो चाहते हैं की उनके एकमात्र बेटे को टिकट मिले वो भी सत्ताधारी पार्टी से! 

  अचानक देश में कोरोना फैल गया!

दवाओं की मांग बढ़ती ही जा रही थी, डॉ साहब की एजेंसियां लगातार माल सप्लाई कर रही थी, दवा बनाने वाली कंपनियों के बोर्ड के डायरेक्टर जो थे, लोग कहते है बहुत सी जीवन रक्षक दवाएं बनाने की कंपनियां भी हैं उनकी।

  शाम को बेटे को तेज बुखार के साथ कोरोना के सिम्पटम्स उभरे, शहर के सबसे अच्छे हॉस्पिटल में इलाज शुरू हुआ,पर हालत बिगड़ती जा रही थी , डॉ साहब ने दवाएं चेक की तो पता चला कि उन्ही की कंपनियों की दवाएं चल रही हैं, तुरंत दूसरी कंपनी की दवाएं मंगाने के लिए कहा गया हॉस्पिटल से!

    पर शायद देर हो चुकी थी ,कुछ ही देर में बेटे ने दम तोड दिया!

  अगले दिन बेटे के अंतिम संस्कार के बाद डॉ साहब के घर कोरोना के बावजूद हुजूम उमड़ पड़ा! सब सांत्वना दे  रहे थे पर डॉ साहब बदहवास से  बार बार घर के अंदर जाकर पत्नी को चुप करा रहे थे।

    एकाएक अंदर से पत्नी के बिलखने की आवाज में कुछ शब्द सुनाई दे गए,......

" कितना मना किया किया था ये नकली दवाओं का बिजनेस न करो, पर नहीं माने ! अब ये दौलत सिर पर रख नाचो, मेरे बेटे की जान ले ली तुम्हारी दवाओं ने!" 

  कोई कुछ समझता तब तक डॉ साहब की पत्नी को भयानक दिल का दौरा पड़ा और वो भी अपने पुत्र से जा मिलीं।

   दो तीन दिन बाद सभी समाचार पत्रों की हेड लाइन थी....


    प्रसिद्ध न्यूरोसर्जन ब्रेन स्ट्रोक से पैरालाइज्ड!



श्रीकांत त्रिवेदी लखनऊ

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा-5
  *चौथा अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
हाँकहिं डींग देवता सबहीं।
जब जुधि-भूमिहिं बाहर रहहीं।।
    कहहिं बीर सबहीं अपुनै को।
    जब नहिं आस लराई तिन्हको।।
का करिहहिं बनबासी संकर।
बिषनू जे एकांत निरंतर ।।
    अल्पबीर्य इंद्रहिं बस नाहीं।
     ब्रह्म तपस्वी अपि डरि जाहीं।।
तदपि न करिअ उपेछा तिन्हकर।
रहहिं सत्रु जग सत्रुहिं बनकर।।
     हम सभ नाथ सुरच्छा करबै।
     जड़ उखाड़ि रिपुन्ह कै फेकबै।।
इंद्री-दमन सदा हितकारी।
सो रिपु-दलन अहहि सुखकारी।।
    सभ सुर कै जड़ बिष्नू आहीं।
    रहइ सनातन धरमहिं पाहीं।।
धरम सनातन कै जड़ बेदा।
गऊ-तपस्या-द्विजहिं अभेदा।।
     जग्य-दच्छिना औरउ दाना।
      अहहिं सनातन धरम-बिधाना।।
हम सभ करब नास यहि सबकर।
ब्रह्मन-बेद--तपस्या-गउ कर ।।
      ब्रह्मन-गऊ-तपस्या-बेदा।
      श्रद्धा-दया व सत्य अभेदा।।
मन-निग्रह अरु इंद्री-दमना।
जग्य-तितिच्छा बिषनुहिं बपुना।
     असुर-सत्रु अरु सुर कै स्वामी।
      भोजराज सुनु, बिष्नुहिं नामी।।
पर ऊ रहइ गुफा के अंदर।
उहइ अहइ जड़ ब्रह्मा-संकर।।
     तासु मृत्यु कै एक उपाया।
     ऋषि-मुनि कै जब होय सफाया।।
कंसइ दंभी-सत्यानासी।
भ्रष्ट-बुद्धि अरु धरम-बिनासी।।
     कंसहिं सचिव कंस तें बढ़कर।
     देहिं सलाह घृनित सभ मिलकर।।
हिंसा-प्रेमी राच्छस सबहीं।
नृप-आयसु पा मारन चलहीं।।
      संत पुरुष जे रहहिं सुधर्मी।
      मारैं तिनहिं उ सबहिं कुकर्मी।।
रजोगुनी रह प्रकृति असुर कै।
तमोगुनी रह चिंतहिं तिनहिं कै।।
   उचित न अनुचित समुझहिं असुरा।
   तिनहिं के सिर जनु कालहि पसरा।।
बिबिध रूप धरि इत-उत फिरहीं।
इरिषा-जलन संत सँग रखहीं।।
दोहा-करइ अनादर संत जे,कबहुँ न सुख ते पाहिं।
        संपति-आयुहि-धर्म-जसु, खोवहिं जग पछिताहिं।।
                       डॉ0हरि नाथ मिश्र
                         9919446372

*दोहे*
सच्चा कवि तो है वही,जो हो भाव-प्रधान।
औषधि रूपी शब्द से,करता उचित निदान।।

बिना किए बेचैन मन,लिख न लेखनी गीत।
सुख-दुख के हर भाव का,रचे वही संगीत।।

कविता कवि-मन की उपज,कविता-कवि अनमोल।
रहे  लेखनी  अति  सजग,   करे  न  टाल - मटोल।।

गीत  और  संगीत  का, होता  अद्भुत  मेल।
दोनों को औषधि समझ, मेंटे  संकट - खेल।।

कोमल और कठोर दो, होते  मन  के  भाव।
कोमल को जन पूजते, रखते  अपर  दुराव।।

भाव-नाव  के  भेद  को, समझो  मेरे  यार।
एक  करे  दुख  दूर  तो, दूजी  सरिता पार।।

खले सदा जग रिक्तता,धन या जन जो होय।
मिले अगर जग पूर्णता,भाग्यवान  नर सोय।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

विनय साग़र जायसवाल,

गीत--श्रमिक दिवस पर

तुम वर्तमान के पृष्ठों पर ,पढ़ लो जीवन का समाचार ।
क्या पता कौन से द्वारे से ,आ जाये घर में अंधकार।।
🌹
आशा की किरणें लौट गयीं ,बैठी हैं रूठी इच्छायें
प्रात: से आकर पसर गईं ,आँगन में कितनी संध्यायें
इन हानि लाभ की ऋतुओं में, तुम रहो सदा ही होशियार ।।
तुम वर्तमान-----
🍁
चल पड़ो श्रमिक की भाँति यहाँ, छेड़ो  जीवन का महासमर
अवसान हताशा का कर दो ,सुरभित हों मरुथल गाँव नगर
श्रमदेवी कर में भेंट लिये ,आयेगी करने चमत्कार ।।
तुम वर्तमान--------
🌷
प्राची ने शंख बजाया तो ,कर्तव्यों का दिनमान चला
फिर कलश उठाये हाथों में ,जीवन क्रम का अभियान चला
हर गली मोड़ चौराहों पर ,खुल गया दिवस से विजय-द्वार ।।
तुम वर्तमान-----
🌺
स्वागत हो हर श्रमजीवी का ,हर तन को भी परिधान मिले
शिशुओं के आभा-मंडल पर, सुंदर-सुंदर मुस्कान खिले
छँट जाये छाया तिमिर घना ,मिट जाये जग से अनाचार ।।
तुम वर्तमान------
🌱
हर ओर शाँति के दीप जलें , सदभाव फले हर उपवन में
*साग़र* न भयानक रूप दिखे , अपना ही अपने दर्पन में
मानवता के जलजात खिलें ,हो धूल धूसरित अहंकार ।।
तुम वर्तमान-–-----

🖋विनय साग़र जायसवाल,
बरेली


ग़ज़ल

वो फिर फोन अपना घुमाने लगे हैं
ग़ज़ल मेरी मुझको सुनाने लगे हैं

ज़माना हुआ हमसे रूठे हुए थे
हुआ क्या कि नर्मी दिखाने लगे हैं

कभी हमने उन पर जो ग़ज़लें कहीं थीं 
हमें याद वो अब दिलाने लगे हैं

जुदाई के लम्हात हैं जान लेवा
ये सब राज़ हमको बताने लगे हैं

गज़ब ढाती भेजी हैं तस्वीरें अपनी
अदाओं से अपनी रिझाने लगे हैं

जगा दी हमारी भी सोई मुहब्बत
कि अब उस तरफ़ हम भी जाने लगे 

हमें बेवफ़ा मत कहो आप *साग़र*
परेशानी अपनी गिनाने लगे हैं

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
22/4/2021

सुषमा दीक्षित शुक्ला

मैं श्रमिक हूँ  हाँ मैं श्रमिक हूँ  ।
समय का वह प्रबल मंजर ,

भेद कर लौटा पथिक हूँ ।
मैं श्रमिक हूँ हाँ मैं श्रमिक हूँ।

अग्निपथ पर नित्य चलना ,
ही  श्रमिक  का धर्म है ।

कंटको के घाव  सहना ,
ही  श्रमिक  का मर्म है ।

वक्त ने करवट बदल दी,
आज अपने  दर चला हूँ।

भुखमरी के दंश से लड़,
आज वापस घर चला हूँ ।

मैं कर्म से  डरता नही ,
खोद धरती जल निकालूँ।

शहर के  तज कारखाने ,
गांव जा फिर हल निकालूँ ।

कर्म   ही मम धर्म है ,
कर्म पथ का मैं पथिक हूँ।

समय का वह प्रबल मंजर,
भेद कर लौटा पथिक हूँ।

सुषमा दीक्षित शुक्ला

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

मजदूर हैं हम मजबूर नही------

मजबूर नहीं मजलूम नहीं
मजदूर है हम।
मेहनत मेरा ईमान खून
पसीना बहाते हम।।
मेरा अपना  घर जीवन 
का सपना।
सारे जहाँ का घर बनाते है हम
कल कारखानों में मानव हम
मशीन बन जाते है हम।।
बड़े बड़े महल अटारी बनाते 
हम।
वैसे तो दुनियां का हर मानव
श्रम करता मगर श्रमिक 
 कहलाते हम।।
दिन और रात चिलचिलाती
धुप हो या कड़क सर्द की ठंडी
बारिस हो या तूफ़ान श्रम की
भठ्ठी में खुद को गलते है हम।।
कोई इच्छा अभिलाषा नहीं
विकास निर्माण की कोल्हू में
पिसते जाते हम।।
दो वक्त की रोटी मेरे लिये 
जीवन की सौगात 
आजाद मुल्क में गुलाम सा
जीवन जीते जाते हम।।
गीता में कर्म योग कृष्णा का
ज्ञान सिरोधार्य कर कर्मएव जयते
धर्माएव जयते श्रमएव जयते सत्यमेव जयते को जीते जाते हम।।
खून हमारा पानी जीना
मारना बेईमानी वक्त समय
घुट घुट कर जीते जाते हम।।
अभिमान हमे भी हम है मानव
किला दुर्ग हो या रेल ,प्लेन
हम मजदूर बनाते है।।
अब बिडम्बना मेरी किस्मत का
अपने ही वतन में प्रवासी कहलाते
हम।।
पल पल चलते राष्ट्र धुरी के
इर्द गिर्द साथ चलते जाते 
हम।।
 जो भी हम निर्माण करे 
मेरा अधिकार नहीं रेल
की भीड़ में धक्कम धक्का
खाते है हम।।
आकाश में उड़ते वायुयान
देख खुश हो जाते है
अपने ही कृति कौशल की
दुनियां से अनिभिज्ञ हो जाते
हम।।
ऐसे उद्योगों में जहाँ जहर ही
जिंदगी जीवन की परवाह नहीं
जहर भी पीते जाते हम।।
खेतिहर मजदूर या कामगर
हर प्रातः नगर शहर चौराहों
पर नीलाम हो जाते हम।।
सर्कस या चिड़िया घर के
जानवर मजदूरों का अपनी
भाषा भाव में परिहास उड़ाते है।।
मानव ने ही मुझको गुलाम बनाकर बंदी गृह में कैद किया
फिर भी हम तुम मजदूरों से
बेहतर अपनी मर्जी से जीते
मौज मनाते है।।
कही मेम् का डांगी बेशकीमती
कारो से मुस्काता कहता हम तो
प्राणी अधम जाती कुकर्मो से
जानवर फिर भी मानव मजदूर
तुमसे बेहतर  हम।।
गर हो जाए रोग ग्रस्त 
अस्पताल इलाज के चक्कर में
ही दम तोड़ जाते हम।।
किस्मत से इंसान बदकिस्मत से
मजदूर सिर्फ सांसो धड़कन की
काया में जीते जाते हम।।
ना कोई हथियार हाथ में ना कोई 
दुःख पीड़ा सत्य और आग्रह से
इंकलाब हम गाते है।।
मांगे गर अधिकार शांति से जीवन
जीने का लाठी गोली खाते मारे
जाते हम।।
किसी मिल का द्वार प्रांगण हो
या हो मजदूर किसान के स्वाभिमान की बात पैरों से
रौंदे जाते हम।।
चाहत इतनी काम मिले काम
का न्यायोचित दाम मिले 
जीवन जीने का अवसर उचित
सम्मान मिले।।
मेरी भी पीढ़ी अभिमान 
से जीवन जीना सीखे 
नैतिक मूल्यों के राष्ट्र में
मानव बन कर जीये।।
वैसे तो हर मानव मजदूर
श्रम कर्म की महिमा मर्यादा
मानव मजदूरों में जीना
सीखे ।।
अहंकार नहीं अभिमान नहीं
अधिकार के आयांम में करते
पुकार शंख नाद हम चाहते मजदूरों की खुशहाली सम्मान हम।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

एस के कपूर श्री हंस

*।।विषय।।।।मजदूर दिवस।।*
*।।रचना शीर्षक।।कॅरोना संकट और प्रवासी मजदूरों का पलायन।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
क्या सोच कर वह हज़ारों मील
नंगे पांव   चला   होगा।
कितना   दर्द   उसके  सीने  के 
भीतर     भरा       होगा।।
सवेंदना शून्य रास्तों पर     कैसे
बच्चों ने होगा कुछ खाया। 
जाने कब तक यह जख्म उसके
सीने में    हरा        होगा।।
2
प्रवासी से आज फिर  से     वह
स्वदेशी   हो    गया    है।
लौट कर वापिस  अपनी   मिट्टी
फिर प्रवेशी हो गया है।।
कुछ जड़े कहीं  तो   कुछ  कहीं
अब   गई हैं बिखर सी।
अपनो के बीच भी लगता   जैसे
परदेसी ही   हो गया  है।।
3
पाँव  चल  रहा  था  और    पांव
जल       रहा        था।
अरमान टूट रहे  थे और  परिवार
कैसे    पल   रहा था।।
फूट रहे थे सब सपने और बिखर
रहा था संसार उसका।
मजदूर अपनी आँखों  में     आज  
खुद  ही खल रहा था।।
4
जरूरत है उसको   हमारे    और 
अपनों के      याद     की।
फिर से जोड़ने   तिनका  तिनका
उन सपनों   के साथ की।।
सरकार को भी आगे    चल   कर
उसका हाथ थामना होगा।
लगाने को मरहम    उन      रिसते 
जख्मों पर प्यारे हाथ की।।

*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस* "
*बरेली।*
मो।।             9897071046
                    8218685464

।।गजल।। संख्या 90।।*
*।।काफ़िया।। उम्मीद।दीद। खरीद*। *तसदीक।नज़दीक।तरकीब*। *रदीफ़।*
*मुरीद।करीब। फ़रीद।।*

*।।रदीफ़।। जिंदा रखना।।*
1
हमेशा जीने की उम्मीद   जिंदा   रखना
सबके लिए दिल में    दीद जिंदा रखना
2
वक़्त बहुत नाजुक जगह नहीं नफ़रत की
हमेशा महोब्बत की खरीद  जिंदा रखना
3
हर हालात में हमें जीत कर ही आना है
इस बात की भी  तसदीक जिंदा रखना
4
कभी आँख के आँसू   सूखने    नहीं देना
सबका दर्द दिल के नज़दीक जिंदा रखना
5
वक़्त पर काम आयें सब एक  दूसरे के
हमेशा ऐसी कोई तरकीब जिंदा रखना
6
 यूँ ग़ज़लें कहती रहें हालाते ज़िंदगी पर
ऐसी गज़लों के लिए रदीफ़ जिंदा रखना
7
एक ही मिली है जिंदगी  मिलेगी न दुबारा
खुद को बना सबका मुरीद जिंदा रखना
8
शुकराना अदा करो हमेशा ऊपरवाले का
किसीकी तकलीफ़ दिल करीब जिंदा रखना
9
*हंस* चंद सांसें मिली तुमको चार दिन के लिए
खुद को बना कर आदमी  फ़रीद जिंदा रखना

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।        9897071046
                      8218685464

दीद             प्रसंशा।उत्साहवर्धन
तसदीक       प्रमाणिकता

फ़रीद           बेमिसाल बेहतरीन
                    नायाब   अनुकरणीय
                    उदाहरण योग्य


।।रचना शीर्षक।।*
*।।वही काटता है व्यक्ति, जो वो*
*बोता है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
मन की अदालत का  फैंसला
जरूर    सुना   करो।
अंतर्मन की बात को       तुम
जरा      गुना    करो।।
कहते हैं अंतर्मन में  परमात्मा
का वास     होता  है।
ईश्वर का    आदेश   मान कर
उसे न अनसुना करो।।
2
दिल की अदालत का फैंसला
गलत नहीं होता है।
जो मानता नहीं समय से  वह
फिर आगे   रोता है।।
दूसरे की देखने से  पहले जरा
अपनी गलती  देखो।
यही नियम कि वही     काटता
व्यक्ति जो   बोता है।।
3
जियो और जीने दो का      तंत्र
रखो    जीवन   में।
सद्भावना व सहयोग का     यंत्र
रखो     जीवन   में।।
जीवन को बनायो तुम   उदाहरण
योग्य सबके    लिये।
भाग्य नहीं केवल कर्मशीलता का
मंत्र रखो जीवन में।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।        9897071046
                      8218685464

नूतन लाल साहू

घमंड

अहंकार,इंसान के पतन की
पहली सीढ़ी है
जिस पर खुशी खुशी
पांव रखकर,चढ़ता चला जाता है
फिर एक दिन,पतन के गर्त में
समा जाता है
व्यक्ति को कभी भी अहंकार
नही करना चाहिए
क्योंकि कोई भी व्यक्ति
कितना ही बड़ा क्यों न हो
कितना भी धनवान क्यों न हो
दुनिया में,वही अंतिम नही है
धन दौलत और ऐश्वर्य
चलती दिखाई नहीं देती
लेकिन हकीकत में
ये चलती है और
मालिकाना हक़,बदलती रहती है
धन और संपत्ति,हाथ का मैल है
व्यक्ति को चाहिए कि
यदि आपके पास,पैसा है तो
उससे सुकीर्ति खरीदें
यह सुकीर्ति ही उसको
सम्मान दिलाती है
हमें कभी भी,कठोरता का
प्रदर्शन नहीं करना चाहिए
क्योंकि कहा जाता है कि
जो झुकता नहीं है,वह टूट जाता है
जीवन में,कठोरता का रुख
नही अपनाना चाहिए
जैसे कि,दांत भी हालाकि
जीभ के बाद,मुंह में आते है
लेकिन कठोरता के कारण
पहले टूटता है
नम्रता ही,सुखी और लंबे
जीवन का आधार है
अहंकार,इंसान के पतन की
पहली सीढ़ी है
व्यक्ति को कभी भी घमंड
नही करना चाहिए

नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

चौथा-4
  *चौथा अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
गया कंस तुरतै निज गेहा।
मन प्रसन्न अरु पुलकित देहा।।
    निसा-बिगत बुलाइ निज सचिवहिं।
   तिनहिं बताया माया-कथनहिं।।
मंत्री तासु न नीतिहिं निपुना।
असुर-सुभाउ, बोध तिन्ह किछु ना।।
    रखहिं सुरन्ह सँग रिपु कै भावा।
    अस मिलि सभ कंसहिं समुझावा।।
भोजराज! तव आयसु मिलतइ।
लघु-बड़ गाँव-नगर महँ तुरतइ।।
     हम सभ जाइ अहीरन्ह बस्ती।
     जे सिसु लिए जनम निज नियती।।
पकरि क तिनहिं बधहुँ तहँ जाई।
अस करनी महँ नाहिं बुराई।।
     नहिं करि सकहिं लराई देवा।
     समर-भीरु ते का करि लेवा।।
तव धनु कै सुनतै टंकारा।
भागहिं सभें बिनू ललकारा।।
    लखतै तव सायक-संधाना।
    इत-उत भागहिं देवहिं नाना।।
केचन तजहिं भूइँ निज सस्त्रा।
केचन खोलि चोटि-कछ-बस्त्रा।।
    आवहिं तुम्हरे सरनहिं नाथा।
     कर जोरे नवाय निज माथा।।
कहहिं नाथ भयभीतहिं हम सब।
रच्छा करहु नाथ तुमहीं अब।।
     मारउ तू नहिं तिनहीं नाथा।
     सस्त्र-बिहीन रथहिं नहिं साथा।।
दोहा-जुधि तजि जे भागै तुरत,मारहु तिन्ह नहिं नाथ।
          तुमहिं पुरोधा पुरुष हौ,कहा सचिव नइ माथ।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372

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