सुधीर श्रीवास्तव

सुरक्षित रहिए
************
समय प्रतिकूल है
जीवन के लिए आया शूल है,
ऐसे में हर किसी की
बनती अहम जिम्मेदारी है।
खुद,परिवार और समाज के 
अस्तित्व जीवन रक्षा के लिए,
सुरक्षित रहना ही हर एक की
साथ साथ बारी है।
सतर्क, सावधान रहें
सबको जागरूक करते रहें,
दो गज दूर दूर रहें
मनोबल बनाए रहें।
डरें नहीं ,डरायें नहीं
हाथ भी मिलाएं नहीं,
शरीरिक दूरी तो रखिए
मन में दूरी लायें नहीं।
बार बार हाथ धुलें
मुँह, नाक ढके रखें,
बाहर भी घूमें नहीं
खुद पर संयम रखें।
घर पर ही रहिए
सुरक्षित भी रहिए
कोरोना से जंग में
आप भी आधार बनिए।
● सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
     8115285921
©मौलिक,स्वरचित

सुनीता असीम

बिना तेरे किधर जाऊँ।
कहे तू तो मैं मर जाऊं।
****
डगर मुश्किल मुहब्बत की।
इसे भी पार कर जाऊँ।
****
तू ही है आइना मेरा।
बिना देखे बिखर जाऊँ।
****
बता दे हो अगर मुमकिन।
तेरे दिल में उतर जाऊँ।
****
नज़र जो पड़        गई तेरी।
मैं खिलकर के निखर जाऊँ।
****
सुनीता असीम
१७/५/२०२१

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*सजल*
मात्रा-भार--16
समांत--ईर
पदांत--रहेगा
नदियों में जब नीर रहेगा,
शीतल तभी समीर रहेगा।।

वही सफल होता जीवन में,
जो कष्टों में धीर रहेगा।।

करे जो सेवा दीन-दुखी का,
सबसे वही अमीर रहेगा।।

देश-सुरक्षा सोच है जिसकी,
वह सैनिक बलवीर रहेगा।।

जिसके हृदय प्रेम है बसता,
ऐसा सुनो फकीर रहेगा।

बिना कहे जो करे भलाई,
व्यक्ति वही गंभीर रहेगा।।

संतों की जो रक्षा करता,
निर्मल वही शरीर रहेगा।।
  ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
           9919446372

मधु शंखधर स्वतंत्र

*गीत*
*2122  2122*
*माँ बनी तू आज छाया*
------------------------------

माँ बनी तू आज छाया,
वृक्ष के सम छाँव धरती।
सद्गुणों की खान बनकर,
मातु जीवन धन्य करती।।

ताप जीवन का तपाता 
बन धरा कुंदन चमकती।
स्वर्ण आभा से सुशोभित,
भावनाओं में बिहसती।
माँ अधर पर नाम तेरा,
तू ह्रदय में भाव धरती।
माँ बनी तू आज छाया..........।।

माँ धरा पर एक तू ही,
पुष्प जैसे ही महकती।
पायलों सी चूड़ियों सी,
शब्द बनकर तू खनकती।
तू सदा  परछाइयों सी,
हर कदम पर साथ चलती।
माँ बनी तू आज छाया.....।।

एक आशा साथ आई
ईश ने धरती  बनायी।
कौन देगा अब सहारा,
मातु की मूरत बनाई।
जान फूँकी तब समझ ये,
मात छाया है कुदरती।
माँ बनी तू आज छाया....।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️

डॉ अर्चना प्रकाश

-;कृषक  ;- 
          खेत उसका तीर्थ है ,
        श्रम साधना उसकी ।
        भूमि ही इक सम्पदा ,
          रहने को छप्पर आसरा।
         धूल माटी का तिलक धरे,
         दे रहा भूखे को रोटी ।
          घर घर भरते ढेर अन्न के,
          वन्दना कृषकों की करे ।
            ये विधाता प्रगति उन्नति के,
            अन्नदाता कृषक देश के ।
             फसलों से ये सोना उगाते,
            हर पर्व उत्सव रँगी बनाते ।
           धूप वर्षा आंधी पानी ,
           रहते कृषक खेत खलिहानी।
          घर आँगन खुशियां ये भरे,
            देह मन में शक्ति भरते ।
            दो बैलों और हल से नाता,
          खेत फसलें भाग्य विधाता ।
           दुआएँ गगन की साथ इनके,
          दैव देव भी तनय इनके ।
           जय जय किसानों की सदा,
           विजय होश्रम जीवियों की ।
         कर्मयोगी न कोई इनसे बड़ा,
           इनसे देश का हर दिल जुड़ा ।
          ये नहीं तो जीवन नहीं
          इनकी हर शर्त स्वीकारो सदा ।
               डॉ अर्चना प्रकाश 
            लखनऊ 
        मो 9450264638

अतुल पाठक धैर्य

शीर्षक-यादों के झरोखों से
विधा-कविता
-----------------------------------
दिल से जुड़ी हैं आपकी यादें,
और हमेशा दिल में रहेंगी आपकी यादें।

दुनिया से आपका शरीर जुदा हुआ है,
आपके गुण व्यक्तित्व अभी भी बाकी हैं।

आपकी अच्छाई आपके अपनत्व भाव,
यहीं तो हैं हमारे आसपास।

आपका स्नेह प्यार और दुलार,
मैं महसूस करता अब भी हूँ।

मेरी कलम को प्रेरणा देते थे तुम,
मेरे प्रेरणास्रोत आज भी हो तुम।

बेशक दुनिया के लिए छोड़कर चले गए हो तुम,
पर मेरे लिए अब भी दिल में रह गए हो तुम।

सबके साथ खड़े रहते तुम,
उन लम्हों को दोहराते हम।

उगता हुआ आफ़ताब या ढलती शाम हो तुम,
अंतिम साँस तक यादों में नज़र आआगे तुम।

यादें वो सहारा हैं जिन्हें कोई छीन न पाएगा,
अमर रहेगा नाम तुम्हारा दिलो दिमाग से न जाएगा।
रचनाकार-अतुल पाठक " धैर्य "
पता-जनपद हाथरस(उत्तर प्रदेश)

डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

*राम बाण🏹 लोग मरते रहे*

        लोग मरते रहे हम दिखाते रहे।
       एक दूजे कि गलती बताते रहे।।

      ये जहर जो मिला है हवा में हमें।
   ‌     दूर तक‌‌ बात‌‌ यूँ ही चलाते रहे।।

मौत मुँह में खड़ी कौन किसका यहाँ।
        खूब रिश्ते यहाँ पर भुनाते रहे।।

क्या दलाली चली मौत बिकती रही।
       मोल अपना हमें वे बताते रहे।।

     रात रोती रही दिन गुजरता गया।
        ईद अपनी यहाँ वे मनाते रहे।।

      जख्म भरते नहीं जख्म देते रहे।
    वे जले में नमक फिर लगाते रहे।।

 क्यों हवायें बिकी क्यों दवायें बिकी।
   ‌ राज इसका सभी से छिपाते रहे।।

   मास्क मुँह में लगा हाथ धोते रहो।
        रोग कैसे मिटे राम बताते रहे।।
             *डॉ रामकुमार चतुर्वेदी*

सुधीर श्रीवास्तव

सिसकियां 
*********
हर ओर अफरातफरी है
हर चेहरे पर खौफ है,दहशत है।
घर, परिवार का ही नहीं
बाहर तक फिज़ा में भी
अजीब सी बेचैनी है।
माना सिसकियां भी
सिसकने से अब डर रहीं।
आज सिसकियां भी मानव की
विवशता देख सिसक रहीं।
सिसकियों में भी संवेदनाओं के
स्वर जैसे फूट पड़े है,
मानवों के दुःख को
करीब से महसूस कर रहे हैं।
पर ये भी तो देखो 
सिसकियां भी
मानवीय संवेदनाओं से जुड़ रहीं,
हमें नसीहत और हौसला 
दोनों दे रहीं,
अपनी हिचकियों के बहाने से हमें
खतरे से आगाह भी कर रहीं।
अक्षर ज्ञान नहीं सिसकियों को
इसीलिए अपने आप में ही 
सिसक रहीं अपनी हिचकियों से संवेदनाओं को व्यक्त कर रहीं।
सुन सको तो सुन लो,
सिसकियां तुमसे क्या कह रहीं?
न हार मानों तुम शत्रु से
न उसे अजेय मानों।
रख मन में पूरी आशा 
करो खुद पर भरोसा
कस कर कमर अपनी 
प्रयास करो जोर से,
दूर होगी सारी दुश्वारियां
फौलादी चट्टान सी जो हैं 
तेरी राह में डटकर खड़ी।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित,

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को नमन ,वन्दन ,व अभिनन्दन ,आजु की रचना  ।। प्रकृति।। पर है,अवलोकन करें.....              याकु तौ मारू कोरोना चलै अरू दूजो तुफानु उठय अँगिराई।।                              तीजौ युद्ध लगे निहचय जेहिमा तो फलस्तीनु परा भहराई।।।                              सबु मुसलिमु देशु विचारु करैं इजराइल भेजू रसातलु जाई।।                                 भाखत चंचल दीनदयालु ई कैइसु विकास धरानु देखाई।।1।।                         राकेट अऊर दगै जौ मिसाइल नारी नरौ सबु बालु बताई।।।                        कँह रमजान रहा अरू माधव पाक महीना मा युद्ध रचाई।।।                         कतनेन जीव कोरोना मरे अरू जीव विनाशकु युद्ध देखाई।।।                           या करतारू दयो सद्बुध्दि ई कवनु बवालु धरानु पै आई।।2।।।                     अबै आवै जौ माह ई जेठु असाढु तौ इन्द्र धरानु  हु आफतु लाई।।।                    सगरी नदियानु बहैगी ऊफानि औ वारिधि लहरू अकाशनु जाई।।।                 कहूँ बाढ भयानकु रूप धरै अरू बूँद धरानु कतौ नहि आई।ः                            भाखत चंचल कारनु याहिव  जीव इहै सरकारहू लाई।।3।।                                जो वृक्षानु रहे ई धरानु तँहा अबु रोड अँटारी सुहाई।।                                       चंचल चील औगिद्ध गौरैय्या उठाई लयो यहू टावरु लाई।।                            प्रकृति विनाशु जौ जीव करै तौ कोपि गयी इहौ प्रकृतिऊ भाई।।।                      कहूँ कहूँ बाढ दिखै विकरालु औ कहूँ भुँईडोल मकानु ढहाई।।4।।                .       .                            आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।। ओमनगर, सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र.।। मोबाइल....8853521398,9125519009।।            पत्रकार.. द ग्राम टुडे ।।दैनिक, साप्ताहिक, मासिक मैग्जीन ,यूट्यूव चैनल के साथ,एल आई सी आफ इण्डिया, सलाहदाता, प्रोडक्ट प्रचारक व सेल्स इक्जीक्यूटिव धनवन्तरि बायोसाइंस प्रा.लि. कोलकाता, भारत।। जय हिन्द,जयजयजय धनवन्तरि।।वन्दे मातरम्।।

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल

साज़े-दिल पर ग़ज़ल गुनगुना दीजिए
शामे-ग़म का धुँधलका हटा दीजिए

ग़म के सागर में डूबे न दिल का जहाँ
नाख़ुदा कश्ती साहिल पे ला दीजिए

एक मुद्दत से भटके लिए प्यास हम
साक़िया आज जी भर पिला दीजिए 

इल्तिजा कर रहा है ये रह-रह के दिल
दूरियाँँ आज सारी  मिटा दीजिए 

कर रही हैं बहारें भी सरगोशियाँ 
मन का  पंछी हवा में उड़ा दीजिए 

मुन्हसिर आपकी हम तो मर्ज़ी पे हैं
आपके दिल में क्या है  बता दीजिए

है ये मुमकिन कि दोनों ही घुट-घुट मरें
बात बिगड़ी हुई अब बना दीजिए 

अपनी मंज़िल की जानिब रहूँ गामज़न
मेरे जज़्बात को हौसला दीजिए 

इन अंधेरों में दिखने लगे रास्ता 
मेरे मुश्किलकुशा वो ज़िया दीजिए

मेरा महबूब ग़ज़लों में हो जलवागर 
मेरे लफ़्ज़ों में वो ज़ाविया  दीजिए

कट ही जायेगा ख़ुशियों से *साग़र* सफ़र 
आप रह-रह के बस मुस्कुरा  दीजिए 

🖋विनय साग़र जायसवाल
फायलुन×4

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

शीर्षक----मानव का अपराध

सन्नाटा पसरा, दहसत  का साया
दर्द की महामार जीवन का विश्वास गायब चीख रही मानवता को सूझ  नही कोई राह।।

बेबस विवश लाचार सिसकी से स्तब्ध  संसार दिल टूटते  रिश्ते छूटते लाख जतन करते कोई नही उपाय।।

विरह वेदना की सिसकी है सब लूट जाने की सिसकी है युग के असाय हो जाने की सिसकी घनघोर निराशा तमश में आशा के एक किरण की चाह।।

रिश्ते रिश्तो से मुहँ छिपाते मजबूरी आफत दुःख दर्द साथ नही निभा पाते संग एक दूजे के जा नही पाते सिसकी ही दिल की आवाज़।।

देखे बिना चैन नही था जिनको सपनो में भी नही आते रूठ गया है क्या भाग्य भगवान नीति नियत का
तांडव का यही विधान।।

प्रकृति साथ जो किया खिलवाड़ सिसकी प्रकृति की मार गलियां नगर मोहल्लों सड़को पर कोलाहल ध्वनि  गूँजता आकाश धुंए की दुन्ध से काला
नीला आकाश।।

नदियाँ झरने झील राहत में नही बह रहा युग मानव गंदा प्रवाह प्रकृति रूठने की है सिसकी मार।।

बैठो घर मे कुछ मुक्त प्रदूषण होने
दो  तब तक करो इन्तज़ार दावा दम्भ
अहंकार मानव के विखरे सिसकी 
अंर्तमन की पश्चाताप।।

काल भी युग मानव की सिसकी
पर अट्टाहास मैं तो खामोश देख
रहा हो खुद मानव का मानवता
काल।।
ईश्वर अल्ला भगवान गीता और कुरान
दर किनार किया युग मानव खुद बन बैठा ईश्वर अल्लाह गीता और कुरान।।

विधाता नीति नियत को बौना कर
प्रकृति प्रयदुषित कर कितने ही
प्राणि को अतीत बना डाला अब
पछताना क्या जब सिसकी ही साथ।।


नांदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच कोप्रणाम ,वन्दन ,नमन व अभिनन्दन ,आज की मेरी रचना में ईश वन्दना ।।पद।। व समायिक छन्द सवैया ह़ै,अवलोकन करें..।।पद।।                जाँऊ कहाँ तजि शरन तिहारी।।                   बालेपनु तै उमरि ढलतु तकु देखि कैइव दरबारी।।                                            हौं तौ गयौ कछू देवी देवतानहि पायौ भवहारी।।                                            कमलनैन कै भाव ना पायौं नहि मोहन त्रिपुरारी।।                                            लोगु बतावतु सिद्धिधामु कयी मुल कँह भाव तिहारी।।                                        मोरमुकुट छवि वशी मधुरमन मन ना रमैं  ई मुरारी।।                                    कानन छवि मकराकृत कुंडल पग सोहै    नुपुरु तिहारी।।                                    काशी गया वनारसु घूम्यौ अबु वृन्दावन वारी।।                                                भाखत चंचल का छवि वरनौं करूनासिन्धु खरारी।।1।।                             सवैया छन्द ।।सामयिक।।                     माह जो आवतु नीकहु जेठ  गरीबनु गाँव मजा करिहैं।।                                     घूमिहैं केहु केहु शादी वियाहु औ बागनु बीचु हवा मिलिहैं।।।                           आमु गिरैं जँहु भाँति कैइव  अरू भिन्नन भिन्न स्वादु लेवैहैं।।                        भाखत चंचल काव कही  अबु ख्यातनु पाँसि सबै डरिहैं ।।1।।।                         किसानु केऊ छोडि़हैं बेरनिऊ औ धान कै खेत तयार करैंहै।।                              गेंहू तौ काटि धरें जो भुसैलनु  बीजहु धानु कोठारी हटै़ंहैं।।                               छानि औ छापर छैइहँय केऊ केऊ कंडा भुसैला तयार करैहैं।।                        भाखत चंचल काव कही अबु घूमबु छाँडि ऊ खेती करैंहैं।।2।।।                     ख्यातनु दूबि खनाई करैं अरू खर पतवारू निकारि धरैंगे।।                              गाय औ भैसिऊ दूध निकारिनिकारि के हाटु बजारू  बेचैंगे।।                              गरीबी हटैगी जो खेती बने  सरकारू हजार जौ सिक्स मिलैंगे।।                        भाखत चंचल मेहनतु के बलु  जैविक खेती किसानु करैंगे।।3।।                       गिरिहँय आम मधूपनू बीजु औ जामुन कालि गुलालु गिरैंगी।।                            धावै पवन करि झोंका जो राति तौ झोलनू साथु ऊ बाग भिरैंगी।।                         उठि भिनुसारू बिनैंगे ऊ जामुन आसव नीकनु नीकु धरैंगी।।                               भाखत चंचल नीकु मजा फल कटहलु खूब बजारू बिकैंगी।।4।।                         आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओमनगर, सुलतानपुर, उलरा, चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र.।।मोबाइल..।      8853521398,9125519009।।

एस के कपूर श्री हंस

*।। प्रातःकाल वंदन।।*
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂

दुनिया की हर खुशी
आपको आयात हो।
रहे सुख बस,हर संकट
आपका समाप्त हो।।
नव प्रभात की बेला
करे आशा का संचार।
*प्रातःकाल का वंदन*
*प्रणामआपको प्राप्त हो।।*

👌👌👌👌👌👌👌👌
*शुभ प्रभात।।।।।।।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।।।। एस के कपूर*
👍👍👍👍👍👍👍👍
*दिनाँक. 17 05 2021*


(जाने तुम कहाँ चले गए।)*
*।।आ0 स्व0 नीरज जी की स्म्रति में साझा काव्य संकलन के लिए।।*
*((काव्य रंगोली लखीमपुर )पटल व संस्था*
*की विशिष्टता एवम स्व0 आ0 नीरज के काव्य रंगोली के प्रति समर्पण पर आधारित*
*रचना।)*
1
रंग रंग बिखरे हैँ साहित्य
के जहाँ पर।
नित प्रतिदिन नव सृजन
होता वहाँ पर।।
सुविख्यात काव्य रंगोली
संस्था कहलाती वो।
रचनाकारों का सम्मान
होता यहाँ पर।।
2
जिला स्थान छोटा ही सही
दिल बहुत बड़ा था।
*नीरज जी* सा व्यक्ति स्वागत 
को आतुर खड़ा था।।
हर उत्सव पटल मनाता था
हर्षोल्लास से।
कविता रंग यहाँ हर किसी
पर चढ़ा था।।
3
व्यवस्था व अनुशासन यहाँ
के प्रमुख मापदंड हैं।
सहयोग व सहभागिता यहाँ
के मुख्य मानदंड हैँ।।
सीखने और सीखाने का क्रम
रहता यहाँ निरंतर जारी।
प्रतियोगिता आयोजन संस्था
के मुख्य मेरुदंड है।।
4
भांति भांति के रंग मिलकर
बन गई है काव्य रंगोली।
प्रत्येक सिद्ध साहित्यकार की
यह तो है हम जोली।।
कविता लेख कहानी हैं तरह
तरह के रंग।
 *स्व0 नीरज जी* के कारण ये
बन गई सबकी मुँह बोली।।

*रचयिता।।एस के कपूर 'श्री हंस"*
*बरेली।।।*
मोब।।। 9897071046
                      8218685464



।।रचना शीर्षक।।*
*।। सारी दुनिया की आँख का*
*तारा, मैं हिंदुस्तान हूँ।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
दुनिया जहान में आला, 
मैं हिंदुस्तान हूँ।
सारे जग से ही निराला,
मैं हिंदुस्तान हूँ।।
विरासत लेकर चल रहा,
संस्कार संस्कृति की।
प्रेम अमन का भरा प्याला,
मैं हिंदुस्तान हूँ।।
2
अतिथि देवो भव आचरण,
मैं हिंदुस्तान हूँ।
ध्यान ज्ञान मंत्र उच्चारण,
मैं हिंदुस्तान हूँ।।
संकल्पना आत्म निर्भरता,
का उदाहरण हूँ मैं।
बड़े बुजुर्गों का वंदन चारण,
मैं हिंदुस्तान हूँ।।
3
महाभारत की महा हाला,
मैं हिंदुस्तान हूँ।
वेदों की देव दीप शाला,
मैं हिंदुस्तान हूँ।।
एकसौपैंतीस कोटिआशीर्वाद,
अग्रसर कर्मपथ पर।
शत्रुओं लिए भीषण ज्वाला,
मैं हिंदुस्तान हूँ।।
4
संत ऋषि मुनियों माटी का,
मैं हिंदुस्तान हूँ।
शौर्य गाथायों हल्दी घाटी का,
मैं हिंदुस्तान हूँ।।
वसुधैव कुटुम्बकम पड़ोसी,
धर्म पालन कर्ता।
विविधता में एकता चौपाटी, 
का मैं हिंदुस्तान हूँ।।
5
तेजी से विकास राज दुलारा,
मैं हिंदुस्तान हूँ।
विश्वगुरु शांति दूत का उजाला,
मैं हिंदुस्तान हूँ।।
सारे जग में शान अद्धभुत,
मेरी निराली है।
दुनिया की आँख का तारा,
मैं हिंदुस्तान हूँ।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।*
मोब।। 9897071046 
                     8218685464

नूतन लाल साहू

कहां है सुख

सुख और दुःख दोनों
इंसान के लिए
इंसानियत के गतिमान पहिए है
सुख तन और धन में नही
सुख सिर्फ मन में है
निःस्वार्थ भाव से
मदद करना सबकी
इनायत न करना
शिकायत अगर कोई
रखता हो तुमसे
पलट के तुम उनसे
शिकायत न करना
इन्ही से बनता है इंसान
इन्ही से बनता है हमारी
दिव्य आत्मा का परिधान
ये प्रेम और है क्या
जीवन का ही गायन है
सिर्फ सांसे नही है,जरूरी
जो हमको रखे जिंदा
सत्कर्म और मानवता से ही
सच्चा सुख मिलता है
नश्वर मानव तन पाकर
सुख का भोग न कर पाओगे
बिना दुखो का स्वाद चखे
सुख वर्षो की सुदीर्घता में नही
शायद एक क्षण में है
पर्वत की विशालता में नही
शायद एक कण में है
सुख तन और धन में नही
सुख सिर्फ मन में है

नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

सातवाँ-2
  *सातवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
पुनि उठाइ क गोद कन्हैया।
स्तन-पान करवनी मैया।।
    मिलि सभ गोप उठाइ क लढ़िया।
    सीधा करि क दीन्ह वहिं ठढ़िया।।
दधि-अछत अरु कुस-जल लइ के।
लढ़िया पूजे पुनि सभ मिलि के।।
    इरिषा-हिंसा-दंभ बिहीना।
    सत्यसील द्विज आसिष दीना।।
बाल कृष्न कै भे अभिषेका।
पढ़ि-पढ़ि बेद क मंत्र अनेका।।
    पाठ 'स्वस्त्ययन' अरु 'हवनादी'।
    नंद कराइ लीन्ह परसादी।।
बिधिवत ब्रह्मन-भोज करावा।
गऊ-दच्छिना-दान दिलावा।।
     कंचन-भूषन-सज्जित गैया।
     द्विजहिं दान दिय बाबा-मैया।।
एक बेरि जब मातु जसोदा।
लइके किसुनहिं आपुन गोदा।।
     रहीं दुलारत हिय भरि नेहा।
     कृष्न-भार तहँ भारी देहा।।
सहि नहिं सकीं कृष्न कै भारा।
तुरत कृष्न कहँ भूइँ उतारा।।
     लगीं करन सुमिरन भगवाना।
     लीला बाल कृष्न जनु जाना।।
रहा दनुज इक कंसहिं दासा।
त्रिनावर्त तिसु नाम उदासा।।
     आया गोकुल होइ बवंडर।
     किसुनहिं लइ नभ उड़ा भयंकर।।
बहु-बहु धूरि उड़ाइ अकासा।
ब्रजहिं ढाँकि जन किया हतासा।।
    उठत बवंडर गर्जन घोरा।
    रजकन-तम पसरा चहुँ-ओरा।।
सब जन बेसुध अरु उदबिगना।
इत-उत भागहिं लउके किछु ना।।
दोहा-घटना अद्भुत घटत लखि,बाबा नंद बिचार।
         सत्य कथन बसुदेव कै, भयो मोंहि एतबार।।
                    डॉ0हरि नाथ मिश्र
                     9919446372

डाॅ० निधि मिश्रा

*जिसने बदला अपना वेश* 

सबसे ज्यादा इस दुनियाँ में, 
देता वह उपदेश, 
जिसने बदला अपना वेश। 

मन में तृष्णा, कुटिल कामना, 
नयनन भरा विद्वेष, 
जिसने बदला अपना वेश। 

साधू सदृश चमक आवरण, 
अन्तस मलिन प्रदेश, 
जिसने बदला अपना वेश। 

धर्म मात्र आडम्बर जिनका, 
समझे सबको मेष, 
जिसने बदला अपना वेश। 

टन्ट- घन्ट ,माया फैला कर, 
करें उर क्षेत्र प्रवेश, 
जिसने बदला अपना वेश। 

ठेंगे पे इनके समाज है, 
स्वारथ रचे कलेश, 
जिसने बदला अपना वेश। 

शर्मसार मानवता इनसे, 
चरित्र छिद्र अशेष, 
जिसने बदला अपना वेश। 

बगुला भगत जपे प्रभु नामा, 
सदा अर्थ अन्वेष, 
जिसने बदला अपना वेश। 

दया ,धरम ,ईमान नहीं, 
पाखण्डी परिवेश। 
जिसने बदला अपना वेश। 

ठग -ठग कर भोली जनता को, 
भरे खजाने शेष, 
जिसने बदला अपना वेश। 

हिय दो धारी, तीक्ष्ण कटारी, 
मुख मिश्री डली विशेष, 
जिसने बदला अपना वेश। 

नीति -अनीति,छद्म छलधारी, 
चतुर चाल ये चेस, 
जिसने बदला अपना वेश। 

श्वेतवसन अपराधी ये ही, 
लाज नहीं है लेश, 
जिसने बदला अपना वेश। 

काशी-काबा, राम-रहीम के,
नाम पे देते ठेस, 
जिसने बदला अपना वेश। 

खेल मौत पर दाँव लगाते, 
खुद को कहें परेश, 
जिसने बदला अपना वेश। 

जातिवाद, अन्याय, अधर्म, 
डसे बने नागेश, 
जिसने बदला अपना वेश। 

शासन, सत्ता, शक्ति जेब में, 
सकल धर्म नरेश, 
जिसने बदला अपना वेश।

जगो प्यारे देशवासियों, 
संकट में है देश, 
जिसने बदला अपना वेश। 

प्रज्ञा चक्षु प्रस्फुटित हो अब, 
क्यूँ विचलित मन उन्मेष,
जिसने बदला अपना वेश।

 *स्वरचित-* 
 *डाॅ०निधि  मिश्रा ,* 
 *अकबरपुर, अम्बेडकरनगर ।*

संदीप कुमार विश्नोई रुद्र

गीतिका

ऐ सनम प्रीत का दान दे दीजिए
प्रेम से ही बड़ा तो यहाँ कुछ नहीं। 

प्रेम ही पुष्प है प्रेम ही गंध है 
प्रेम के तो बिना भी यहाँ कुछ नहीं

जिंदगी ये खिले प्रीत जो शुभ मिले , 
प्रीत के तो बिना फिर बयाँ कुछ नहीं

प्रीत दे दो हमें भी खड़े द्वार हैं
मांग बैठे वहाँ से जहाँ कुछ नहीं

आप बारिश करो प्रेम की ऐ सनम
बादलों से घिरा आसमाँ कुछ नहीं

संदीप कुमार विश्नोई रुद्र
दुतारांवाली अबोहर पंजाब

जयप्रकाश अग्रवाल

*गीता महिमा*

गीता तो श्री हरि मन्तव्य, गीता तो तत्वों का तत्व ।
शान्त-सुखी जीवन शैली यह, दृश्य-दृष्टि, यह हरि दृष्टव्य ।

मोक्ष प्राप्ति और आत्मोद्धार, वेद-वेदान्तों का यह सार ।
सत्य-संजीवनी, सर्वौषधि, कलियुग का यह कृष्णोपचार ।

प्रभु दर्शन देने में सक्षम, ज्योति जलाये मिटाये तम ।
योगेश्वर से योग कराये, सत्य-सनातन-शाश्वत संगम ।

मिटाये मोह-काम और क्रोध, कराती निज धर्म-कर्म का बोध ।
भय-अशान्ति-दुविधा विनाशिनी, निर्मल करती जीवन को शोध ।

सिखाये संयम, मिटाये अहम, यह लोभ-लालसा करती कम ।
लक्ष्य दिखाती-राह बताती, संतोष जगाती- करती सम ।

है गीता देती मन्त्र समर्पण, सब कुछ कर दे हरि परायण।
श्रद्धा-भक्ति-प्रेम से करती, अद्भुत हरि का अद्भुत वर्णन ।

हो गीता के जो शरणापन्न, उससे ही हरि रहते प्रसन्न ।
रक्षा करते-पीड़ा हरते, दौड़े आते - हरि आसन्न ।

जहाँ गीता, वहाँ हरि वास, गंगा बन करती पाप नाश ।
गीता हरि का शब्द रूप है, गीता देती परम प्रकाश ।


जयप्रकाश अग्रवाल 
काठमांडू, नेपाल ।

अब इन जीवन की पथरीली राहों पर,चलने से मन डरता है।अब मरने को जी करता है।- दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

जो रोने की है बात सुनो 
अब उस पर भी हंसना क्या
हैं आशीष नहीं अभिशाप तुझे
आंसू का प्रवाह तुझसे थमना क्या
अब इन जीवन की पथरीली राहों पर, 
चलने से मन डरता है।
अब मरने को जी करता है।।

ख़ुद्दारी  की  ऐसी  दृष्टि, 
नफरत की हर ओर से वृष्टि।
शोक हमारा हृदयकुंज है, 
तमस भरा दिख रहा पुंज है।
निर्बलता - निर्धनता  का, 
अपराध बोध पल-पल करता है।
अब मरने को जी करता है।।

नाश नगर में घूम रहा हूं, 
ख़ुद को खुद में ढ़ूंढ़ रहा हूं।
छल प्रपंच के अमर बेल में, 
जानें कैसे झूल रहा हूं।
जिंदाशव हू़ं नवजीवन को ढूंढ रहा हूं, 
छलक अश्रु से सब दिखता है।
अब मरने को जी करता है।।

जीवन के पथ पर चलते-चलते, 
यूं सारे उन्माद भरे हैं।
ख़ुद के भूलों के अनुभव पर, 
घोर अंधेरी सी रात भरे हैं।
क्या सपने होंगें साकार कभी, 
तूं रहे जहां वो मृत्यु हो मन करता है।
अब  मरने  को  जी  करता  है।।

  दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*दोहे*
जाड़े की ऋतु में लगे,अच्छी सबको धूप।
रवि-प्रकाश है प्रकृति की,उत्तम देन अनूप।

कटुक वचन है तीर सम,देती हिय को चीर।
रहे अमिय सम मधु वचन,हर लेती है पीर।।

ढाढ़स  देना  कष्ट  में, होता  दवा  समान।
जो ऐसा दुख में करे, वह है व्यक्ति महान।।

प्रेम तत्व अनमोल जग,मिले न कर व्यापार।
समझा जो इस तत्व को,भूला  वह  संसार।।

बिना किसी  उद्देश्य  के,होता व्यर्थ प्रयास।
लक्ष्य नहीं जब सध सके,करे जगत उपहास।।

जिसमें है इंसानियत, वह  है  देव  समान।
उपकारी उस व्यक्ति का,कभी न हो अपमान।।

काम-वासना का,सुनो, होता  कभी न अंत।
रखो नियंत्रण में इसे,कहते ऋषि-मुनि-संत।।
           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
               9919446372

रामबाबू शर्मा

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                     कविता
*नवोदित साहित्यकार का जीवन व संघर्ष*
     
   जीवन नैया में सब की अलग कहानी है,
   पग-पग पर खतरा,हिम्मत नहीं हारी है।
   मन से कर मेहनत,उसी से ईश्वर राजी है,
   बिना काम वालों ने यहां, बाजी मारी है।।

   नवोदित साहित्यकार का रूप निराला,
   सुन्दर-सुन्दर शब्दों का वो है मतवाला।
   मात शारदे की मन से पूजा करने वाला,
   स्वर संधान की वो कलम चलाने वाला।।

   छोटा सा पर मन से बहुत बड़ा ज्ञानी है,
   दिन भर लिखता,पर ये किसने मानी है।
   एक दूसरे से बातें करता किसे सुनानी है,
   ऐसा भी होता,कविता किसने जानी है।।

   घर का काम बीच-बीच में आता रहता,
   तार तमय टूट कर वहीं आके ठहरता।
   लग्न लगी ऐसी बात-बात पर झगड़ता,
   पता होता तो,चक्कर में कभी न पड़ता।।

   रचना संग पढ़ाई का भी देखो  चक्कर,
   संघर्ष से क्या डरना,जाऊं नहीं भगकर।
   ऐसे तो नहीं जाऊं यह  मैदान छोड़कर,
   सायली,हाइकु,रचनाओं से दूंगा टक्कर।।

   कवि इच्छा ने शास्त्रों का ज्ञान कराया,
   लिख-लिख मैंने भी तो इतिहास रचाया।
   जब कवि सम्मेलनों में मेरा नम्बर आया,
   उस दिन मानों प्यारे फूला नहीं समाया।।

   कुछ ने साथ दिया,कुछ ने हंसी उड़ाई,
   कभी तो ऐसे बोले कविता किसने गाई।
  संघर्षों की पगडंडी में,है बहुत कठिनाई,
  पर मैंने भी हिम्मत नहीं हारी है मेरे भाई।।

  गुरु बहुत बनाये तब जाकर ये विधा आई,
  मैंने छंद व्याकरण की नई पुस्तकें मंगवाई।
  कभी-कभी तो मम्मी ने भी आंखें दिखलाई,
  बंद कमरे में लिखता मैं,पड़े नहीं परछाईं।।

  अर्थ पक्ष ने भी अंदर तक से खूब हिलाया,
  बेरोजगारी का आलम भी तो आड़े आया।
  क्षमा करना कुछ गलती रह गई हो भाया,
  'राजस्थानी' ने कथ सोच समझकर गाया।।
   ©®
      रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

डॉ अर्चना प्रकाश

-;  एक श्रद्धांजलि -;
     क्या लिखूँ मैं आज तुमको,
      वक्त का कैसा  कहर ।
         मौन भी स्तब्ध ठहरा,
        हर खुशी लगती ज़हर ।
       आज रोता है बहुत मन ,
        ढूढती हूँ मैं क्षतिज पर ।
          तुम सभी के अमिट स्वर ,
       अपनो के बिछड़ने का डर ।
          अश्रुओं की शान्त लहरें,
          हुई सुप्त सम्वेदना प्रखर ।
            काल निष्ठुर क्रूर निर्णय ,
            पीर के ज्वारों में खोयी ।
            शून्य मन की चेतन डगर,
           विकल मन जीवन अनल ।
           स्थिर दृगों का ये समर्पण ,
           तुमको मेरा शत शत नमन।
          यादों में तुम हो हर पहर ,
          तुम बिन न कोई है सहर ।
                    डॉ अर्चना प्रकाश 
                 लखनऊ ।

सुधीर श्रीवास्तव

सिसकियां1
*********
हर ओर अफरातफरी है
हर चेहरे पर खौफ है,दहशत है
घर, परिवार का ही नहीं
बाहर तक फिज़ा में भी
अजीब सी बेचैनी है।
हाय ये कैसी बिडंबना है कि
सिसकियां भी सिसकने से
अब तो डर रहीं,
सिसकियां भी अपनी ही नहीं
मानवों की विवशता देख
आज सिसक रही हैं,
सिसकियों में भी संवेदनाओं के
स्वर जैसे फूट पड़े है,
मानवों के दुःख को
करीब से महसूस कर रहे हैं,
शायद इसीलिए सिसकियां भी
चुपचाप सिसक रही हैं,
हिचकियों से बच रही हैं।
मानवीय संवेदनाओं से जुड़ रही हैं
शायद नसीहत दे रही हैं
या फिर हौसला देने की
अजीब सी कोशिश कर रही हैं,
तभी तो सिसकियां भी
अपने आप में ही सिसक रही हैं
संवेदनाओं के 
नये आयाम गढ़ रही हैं।
● सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

V.P.A.निकिता चारण

-तोड़ दे
तोड़ दे उन जंजीरो को जो,
तुझे रोकने की चाह में है।
तोड़ दे उन बंदीशों की जो,
अड़चन हौंसलो की उडा़न में है।।

तोड़ दे
उन निराधार सुर्खियों को जो,
तेरी ऊँचाईयों की गुनहगार में है।
तोड़ दे आड़म्बर विकराल को जो,
राष्ट्रप्रेम ओझल की टकरार में है।।

तोड़ दे
उन झुठी सीमाओ, गरिमाओं को जो,
तुझे तोड़ने की आड़ में है।।
जोड़ना है तो जोड़ उसी को ,
जो तेरी आन - बान - शान में है।

तोड़ दे
हर फिजाओ, नग्मों को जो,
तुझे बैबस करने की तान में है। 
और तूँ बनाले जान उसी को,,
जो तिरंगा हम सबकी पहचान में है।।

           -V.P.A.निकिता चारण 
---------------------------
स्वरचित-V.P.A.निकिता चारण  ।
----------------------------------
परिचय
नाम - V.P.A.निकिता चारण 
गांव - कोडुका ,बाड़मेर (राज.)

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

शीर्षक----भवनाए

एहसास हूँ मैं
झोंका पवन  विश्वाश हूँ मैं
भाव भावना  का प्रवाह हूँ मैं
प्रत्यक्ष नही परोक्ष नही अंतर मन
कि आवाज हूँ मै।।

जिसने जैसा मेरा वरण किया
उसका वैसा ही मैंने भरण किया
मैं क्रोध की ज्वाला प्रेम की 
शीतल छाँव हूं मैं भावना हूँ मैं दिखती नही सिर्फ एहसास हूँ मैं।।

शक्ति जउत्साह हूँ पराक्रम
पुरुषार्थ हूँ  वर्तमान की पहचान
अतीत का स्वर्णिम इतिहास हूँ
एहसास हूं  मैं।।

वीरान रेगिस्तान गम आंसू
मुस्कान  आरम्भ अनिवार्य हूँ
मैं दिखती नही सिर्फ एहसास हूँ मैं।।

आग ज्वाला आँगर शोला धुंआ 
धुंध अंधकार निराशा पराजय में
जय , जय में पराजय का आगाज़
अंदाज़ हूँ भावना हूँ एहसास हूं मैं।।

प्रेम की परिभाषा भाषा
चाह चाहत इच्छा अभिलाषा
सृंगार  हूँ , द्वंद द्वेष घृणा युद्ध
आवाहन शंख नाथ हूँ मैं एहसास हूँ मै।।
भरत राम मर्यादा महिमा युग धर्म गोपियों की प्रेम भक्ति उद्धव का बैराग्य ज्ञान गीता का कर्म ज्ञान हूँ मैं मैं दिखती नही एहसास हूँ मैं भावना हूं मैं।।

मैं वर्तमान का शौर्य सूर्य अतीत की प्रेरणा भविष्य की नव चेतना जागरण का सिंहनाद हूं, मैं भावना हूँ मैं दिखती नही युग मे करा सब कुछ देती 
एहसास हूँ मैं।।

मुझे जगाओ शुभ संध्या की राग रागिनियों में प्रभा  पराक्रम आवाहन  सिद्ध सफल सिद्धान्त में अविरल निर्झर निर्मल की निर्वाण,निर्माण में मैं दिखती नही भावना हूँ मैं एहसास हूँ।।
जिसने जैसा मेरा वरण किया वैसा
ही उसका मैन विकास बैभव संवर्धन
किया क्योंकि मैं भावना हूँ सिर्फ एहसास हूँ मैं।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...