डॉ अर्चना प्रकाश

-;  नई सुबह -;
    नई सुबह फिर आये गी ,
    आशा की किरणें लायेगी ।
           सूरज नया उगाने को ,
           सबको साथ मिलने को ।
           सब पर खुशियां बरसाने को
      नई सुबह फिर आएगी ,
      आशा की किरणें लाएगी ।
      हर दुआ दे रही कॅरोना को मात,
       हर निशा लाती स्वर्णिम प्रभात ।
        सपनों का इन्द्र धनुष ले कर,
        मेघ गगन पर छाएंगे ।
         बारिश की नई फुहारों से,
           फिर धरा में अंकुर जागेंगे ।
           खुशियों के दीप जलाने को,
     नई सुबह फिर आएगी,
      आशा की किरणें लाएगी ।
             सम्बल नव जीवन देने को,
           प्राणवायु सबमें भरने को ।
           अपनत्व पगा नेह बढ़ाने को,
          नव जीवन गंगा बहाने को।
      नई सुबह फिर आये गी ,
        आशा की किरणें लाएगी ।
               डॉ अर्चना प्रकाश 
                लखनऊ ।

अभय सक्सेना एडवोकेट

(जाने कहां तुम चले गए ग्रंथ में प्रकाशन हेतु)
  *************
स्व.आशुतोष कवि नीरज जी को मेरी यह रचना श्रृद्धा सुमन समर्पित।
----------------------------------------
सदा नमन करूं मैं उनको
***********************
अभय सक्सेना एडवोकेट
                #####
मुझ ,खुश नसीब को
काव्यरंगोली से ,जुड़ने का 
इक ,मौका जो मिला।

धन्यवाद, देता हूं उनको
जिनके सहयोग ,से आपका
फिर, हमें साथ मिला।

मेरी, प्रकाशनार्थ रचनाओं को
आप की, भावनाओं का
फिर ,मुझे परसाद मिला।

"अभय,'जैसे रचनाकारों को
नीरजजी की, आत्मीयता का
अपने, सिरपर हाथ मिला।

छोटी ,छोटी त्रुटियों को
शिष्य स्वरुप, समझने का
सुंदर, सा सौभाग्य मिला।

सदा नमन करूं मैं उनको
कोरोना से दो दो हाथ किया
फिर शहीद "नीरज "को बैकुंठधाम मिला।
*************************
अभय सक्सेना एडवोकेट
48/268, सराय लाठी मोहाल
जनरल गंज,कानपुर नगर।.9838015019,8840184088.

जयप्रकाश अग्रवाल

मनोदशा


क़हर ढाहे कोरोना, अच्छा नहीं लगता ।
कि अपनों को यों खोना, अच्छा नहीं लगता ।

मुँह पर मास्क, समाजिक दूरी डराये,
हाथ बार बार धोना, अच्छा नहीं लगता ।

दिलो दिमाग़ को गिराना, ख़बरें सुन सुन कर,
मायूसी में डुबोना, अच्छा नहीं लगता ।

बेचारा हो गया, बहुत लाचार हो गया,
खुद का इंसान होना, अच्छा नहीं लगता ।

महीनों गुजर गये दोस्तों से मिले बिना,
आकर अब तो मिलोना, अच्छा नहीं लगता ।

ना बाहर कुछ खाया, ना ही घूमने गये,
मन करे आज-चलोना, अच्छा नहीं लगता ।

दया करो, बहुत हुआ, छोड़ो अब तो पीछा,
कुदरती जादू टोना, अच्छा नहीं लगता ।

जयप्रकाश अग्रवाल 
काठमांडू 
नेपाल

सुनीता असीम

दूरियां कितनी सही उनसे मुहब्बत है तो है।

दिल के मेरे जो खुदा उनकी इबादत है तो है।

****

देखना तिरछी नज़र से फेर लेना फिर नज़र।

श्याम की तिरछी निगाहों में शरारत है तो है।

****

लब पे है इनकार पर इकरार नज़रों में रहे।

दिल में उठती आज अपने इक बगावत है तो है।

****

बस मनाना रूठना ही प्यार का किस्सा रहा।

फिर भी हमको प्यार उनसे ही निहायत है तो है।

****

रीत दुनिया की निभानी दिल न लेकिन साथ दे।

प्यार में तेरे मरूं दिल की इजाजत है तो है।

****

सुनीता असीम

रामकेश एम यादव

रास्ते निकलते हैं!

रास्ते   निकालो  तो   रास्ते  निकलते  हैं,
आंधी-  तूफानों से  चराग़ कहाँ  डरते हैं।
झाँकती है  जब- जब  वो अपने दरीचे से,
मल-मल के आँखों को लोग उसे देखते हैं।
वो  जब  उतरती  है  उन  तंग  गलियों  में,
करती  शरारत  हवा वो  दुपट्टे  सरकते हैं।
इंसानी  फितरत  ये  रोज -रोज  हैं  लड़ते,
मयकदे में जाकर  के साथ- साथ पीते हैं।
कर  लो  बराबरी  की  चाहे  भी  जो बातें,
होकर  जमीं  देखो, आसमां  में  उड़ते हैं।
हालचाल  दुनिया  की  अच्छी  नहीं यारों,
पूछने  से  पहले  ही,  घर  में  रो  लेते  हैं।
राम- नाम  के  ऊपर  रोज  कुछ  हैं ठगते,
फूलों   की   शैया पर  करवटें  बदलते  हैं।
तपकर  के बादल  वो आसमां  में जाते हैं,
खोलकर दिल अपना झमाझम बरसते  हैं।
हम नहीं   सुधरेंगे, ये  दुनिया  सुधर  जाए,
ऊपरी  कमाई  पर  सारा ध्यान  रखते  हैं।
बाजीगरी आंकड़ों  की जिसे भी आ जाए,
देखो सियासत में सिक्के उसके चलते हैं।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

सुनीता असीम

दूरियां कितनी सही उनसे मुहब्बत है तो है।
दिल के मेरे जो  खुदा उनकी इबादत है तो है।
****
देखना तिरछी नज़र से फेर लेना फिर नज़र।
 श्याम की तिरछी निगाहों में शरारत है तो है।
****
लब पे है इनकार पर इकरार  नज़रों में रहे।
दिल में उठती आज अपने इक बगावत है तो है।
****
बस मनाना रूठना ही प्यार का किस्सा रहा।
फिर भी हमको प्यार उनसे ही निहायत है तो है।
****
रीत दुनिया की निभानी दिल न लेकिन साथ दे।
प्यार में तेरे मरूं दिल की इजाजत है तो है।
****
सुनीता असीम
१८/५/२०२१

निशा अतुल्य

समय महा बलवान 

मजदूर लौट घर चला,काम को तरस गया 
हाथ में बचा न कुछ,ये मुफ़लिसी का दौर है ।

कब कौन काम आएगा,जब बन्द सब है पड़ा 
कौन किस को देगा क्या,ये मुफ़लिसी का दौर है ।

अर्थ रहा न पास का,दाल रोटी आस का 
पानी कभी पीया,कभी फ़ाक़ा ही किया 
ये मुफ़लिसी का दौर है ।

रौनक लौट आएगी,खिजां एक दिन जाएगी 
फूल फूल फिर खिला,जब काम हाथ को मिला ।

हाथ में जो हाथ हो,अपनो का जो साथ हो 
ये मुफ़लिसी का दौर भी,बस गुजर ही जायेगा ।।

ये दौर खत्म होगा जरूर,खुशहाल दौर आएगा 
पेट भी होंगे भरे,हर चेहरा खिलखिलाएगा ।

हौसलों की दौड़ हो ,हारना नहीं हमें 
हरा कर इस दौर को,देश मुस्कुराएगा ।

प्रार्थना प्रभु से ये,कर्म परिभाषा तू गढ़
ये मुफ़लिसी का दौर फिर,पल में गुजर यूँ जाएगा ।

कमज़ोर तू होना नहीं,विश्वास को खोना नहीं 
समय महा बलवान है,तेरा हौसला ही तो इसे हराएगा।

ये मुफ़लिसी का दौर है,ये दौर हार जाएगा
बीतता कठिन ये पल,इंसान मुस्कुराएगा ।

तेरा मेरा न कुछ रहा,साथ जब तक सबका रहा
एक अकेला चना न भाड़ फोड़ पाएगा।

ये मुफ़लिसी का दौर है,ये गुजर ही जाएगा 
समय महा बलवान है,ये करतब कुछ दिखाएगा ।

स्वरचित
निशा अतुल्य

अभय सक्सेना एडवोकेट

वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है
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अभय सक्सेना एडवोकेट
                  +++++
हाल बड़ा बेहाल हुआ है,
समय नहीं कुछ कहने का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।

 मतकर तू जिद किसी बात की,
समय नहीं बाहर निकलने का।
तू जीले जिंदगी सादगी की,
बाहर खतरा है जान निकलने का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।

चारों तरफ हाहाकार मचा है,
डर है अपनों से ठगने का।
बेईमानों का बाजार सजा है,
गम है अपनों से लुटने का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।

कोरोना को समझने में भूल हो गई,
समय ना मिलेगा सम्हलने का।
मत कर चूक चूक हो गई,
सहना पड़ेगा गम अपनों का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।

गर अभी तू सम्हल गई तो,
मौका अभी है सम्हलने का।
घरवालों की बात मान लें,
सहना ना पड़ेगा गम बिछड़ने का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।
*************************

अभय सक्सेना एडवोकेट
48/268,सराय लाठी मोहाल,
 जनरल गंज, कानपुर नगर।.9838015019,8840184088

कुमकुम सिंह

रेत पर मैं लिखती रही,
 और वो पानी के फवारो से मिटती रही।

कोशिश तो मैंने बहुत बार की, 
पर वो टिकने की कोई हरकत ना की।

दिल में थी बहुत से राज़, 
लेकिन वो समझने की कोशिश ही ना की।

अपनी पहचान बता दिया ,
खुद का वो भेद खोलकर ही रख दिया। 

वो क्या है, 
बिन बोले ही समझा दिया।

बात प्यार निभाने की थी,
ना की दिल्लगी थी।

उसने मेरे दिल से खेलकर ,
मेरे दिल को दहला दिया दिया।

सब्र कब तक करूं मैं, 
कब तक सहू में उसकी बेवफाई।

मुझे जिंदगी भर का दर्द दे, 
 खुद को हवा के संग उड़ा लिया।

कुमकुम सिंह

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(16/14)
है यद्यपि इस पल यह पतझर,
कल बहार फिर आएगी।
रात्रि-तिमिर से क्या घबराना-
शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।

जीवन के चौखट पर हर-पल,
सुख-दुख का पहरा रहता।
एक जगे जब दूजा सोता,
काल-चक्र हर क्षण चलता।
घन-घमंड का स्वागत कर लो-
घटा शीघ्र शर्माएगी।।
    शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।

तिमिर-गर्भ से उगे किरण रवि,
बाद अमावस पूनम हो।
सींच पसीने की बूँदों से,
उगे अन्न जो सोनम हो।
इस रहस्य के ज्ञाता की मति-
कभी नही भरमाएगी।।
     शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।

जीवन एक पहेली समझो,
इसे समझ जो पाया है।
उसने काँटों के साये में ,
पुष्प अनेक खिलाया है।
इसी पहेली को गुलाब की-
अद्भुत कथा बताएगी।।
  शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।

पीत पर्ण झड़ जाने से ही,
हरित पर्ण उग आते हैं।
रहे अमर यह प्रीति जगत में,
शलभ स्वयं जल जाते हैं।
जलना-बुझना इसी प्रथा को-
प्रकृति सदा दुहराएगी।।
     शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।
     कल बहार फिर आएगी।।
                ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                     9919446372

डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

राम बाण🏹 घर में बैठे हैं छिपकर

बदले मौसम  के दुखियारे,
अब घर में बैठे हैं छिपकर।
बिन मौसम के बादल छाये,
छत से देख रहे हैं छिपकर।

         अर्ज करे थे घर मैं बैठो,
बिन मौसम में जो निकल पड़े।
  जो विचरे थे बिना मास्क के, 
        उन पर डंडे बिफर पड़े।
       पीड़ा के ये काले बादल,
    अब उनको लगते हैं दुष्कर।

       घमंड जैसे काले बादल, 
    आसमान को ही ढाँक रहे।
   सूरज की किरणों को रोके, 
  जो अवसर अपना ताँक रहे।
   खेल-खेल की लुक्का छिप्पी,
     सूरज देख रहे हैं छिपकर।

      हवाओं के तेज प्रचंड ने, 
घमंड उनका जब तोड़ दिये।
  सपने अपने सब उड़ा चले,
दिशा दशा ही सब मोड़ दिये।
       डर के भागे सारे बादल
     भाग रहे हैं कैसे छिपकर।

  कुछ गर्जन कर चमक रहे हैं,
  कुछ तो बेबस ही बरस रहे। 
 कुछ को गर्दन का होश नहीं,
पर बिन मौसम ही गरज रहे।
  बेबस होकर बरस न जाना,
  संबंधो के रिश्ते हैं हितकर।

       गर्जन के उद्घोष निराले,
    भय में रहते बादल काले।
     उनके संरक्षण में निकले,
       देने को मुंह में  निवाले।
     भूखे तन की मजबूरी भी,
उनको देख रही थी छिपकर।
 
पैदल मीलों चलना जिनको,
 रास्ता सड़कें ही नाप रहीं।
   आँखे उनकी आस जगाये,
   भूख से चेहरा भाँप रहीं।
 कुछ मुखड़ों ने मास्क लगाये,
 खबरें छाप रहे हैं छिपकर।


   उम्मीदों ने अनुबंध किये,
 इच्छाओं के सँग निकल पड़े।
     मंजिल से अंजानी राहें,
मौत के मुंह में निकल पड़े।
  रिश्तों की सरकार पुरानी
खोजबीन करती है छिपकर।

     मुआवजे जैसी खेती में,
सरकारी है अनुबंध मिला।
   मौत के आँकड़े मांग रहे,
   मौके का है संबंध खिला।
 ज्ञानमार्ग के खबरी चैनल,
  खबरें भी देते हैं छिपकर।

   बदले मौसम  के दुखियारे,
   अब घर में बैठे हैं छिपकर।
  बिन मौसम के बादल छाये,
  छत से देख रहे हैं छिपकर।

          डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

प्रेम के चेहरे कई हैं - मधु शंखधर स्वतंत्र

गीत
प्रेम के चेहरे कई हैं...
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प्रेम के चेहरे कई हैं, भाव पर सबके वही हैं।
प्रेम दिल की भावना है, प्रेम बस होता सही है।।

प्रेम माँ का है अनोखा, जन्म देकर वह लुटाती।
दे नया अस्तित्व माता, खुद का सुख दुख सब भुलाती ।
प्रेम उसका प्राप्त होता, तब तलक जब तक मही है।
प्रेम के चेहरे कई.............।।

प्रेम होता है पिता का, भाव जो खुद में समाता।
सब लुटा देता है पर वो, शब्द से कुछ कब जताता।
श्रेष्ठ होता प्रेम उनका, भावना सच्ची रही है।
प्रेम के चेहरे कई हैं............।।

प्रेम बहना भाई का भी, एक अनुपम भावना सा।
एक दूजे की सुरक्षा, मानते वह साधना सा।
प्रेम आशा से बँधा है , प्राप्ति की बस चाह नहीं है।
प्रेम के चेहरे कई हैं................।।

प्रेम प्रेमी प्रेमिका का, वास्तविक अहसास है।
सत्य जिसके मूल बसता, ईश को भी रास है।
यह कहानी प्रेम की, सुनते सभी सबने कही है।
प्रेम के चेहरे कई ................।।

प्रेम से बनता है बंधन, एक नए विश्वास का।
जिन्दगी की चाह का, रिश्तों के सुंदर वास का।
प्रेम ही जीवन की माया, मूल में सदियों रही है।।
प्रेम के चेहरे कई हैं...........।।

मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज ✒️

देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

.............सिसकियों के शहर में.............

तन्हाइयों के शहर में दोस्त मिलते  नहीं हैं।
स्वार्थियों के शहर में दोस्त मिलते नहीं हैं।।

हर  शहर  है  आततायिओं  के  गिरफ्त  में;
इनलोगों के शहर में दोस्त मिलते  नहीं हैं।।

जिधर  देखें , एहसानफरामोश हैं  पटे  पड़े;
ऐसों  के  शहर  में  दोस्त  मिलते  नहीं  हैं।।

हर शहर  में  गद्दारों  का  ही  है  बोलबाला;
गद्दारों  के  शहर  में दोस्त  मिलते  नहीं हैं।।

आए  दिन   दगाबाजी   से   रहते  हैं  त्रस्त;
दगाबाजों के शहर में दोस्त मिलते नहीं हैं।।

हर  तरफ  कमिनापनी  में   है  आपाधापी;
कमीनों  के शहर  में दोस्त  मिलते नहीं हैं।।

अब  तो   उठा  ले , ऐ  ऊपरवाले  "आनंद";
सिसकियों केशहर में दोस्त मिलते नहीं हैं।।

-------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

जया मोहन

ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ लहराए तो सावन की घटा छाती है
तेरे हँसने से बिजली सी कौंध जाती है
तुमको कुदरत ने बनाया बड़ी फुर्सत से
पलके तेरी जो उठी रोशनी छा जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।।
तू जब बोलती है तो लगता जैसे कानो में मीठी मिश्री सी घुली जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।
रेशमी हाथों पे सजती चूड़ियां तेरी
छूते ही मेरे वो खनक जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।।
तेरे पास आकर ये महसूस होता है मुझे
साँसे मेरी जैसे थमी जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।
तू जब निकलती है किसी राह पर
तेरी खुश्बू से जया वो राह महक जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।।।
स्वरचित
जया मोहन
प्रयागराज

सुधीर श्रीवास्तव

विवशता
********
हर ओर फैली सिर्फ़ बेचैनी है
व्याकुलता है,कुलबुलाहट है
न खुलकर जिया जा रहा है,
न ही आसानी से मरने की
उम्मीद कहीं से दिखती है।
कहीं मौत की अठखेलियाँ हैं
तो कहीं लाशों की बेकद्री 
कहीं जमीन पर मरने जीने की
जद्दोजहद के बीच साँसो की
कहीं अस्पताल में जगह पाने की
उम्मीदी ना उम्मीदी का दृष्य।
मृत्यु के मुँह में जाता यथार्थ,
सब कुछ अनिश्चित ही तो है
साँसो की बाजीगरी देखिए
तो धनपिशाचों की बेशर्मी भी,
परंतु कुलबुला कर ही रह जाती
असहाय लाचार फरियादी बन,
सिवाय कुलबुला कर रह जाने के
कुछ कर भी तो नहीं पाती।
उम्मीद लगाए बुझी आँखों में
एक किरण की तलाश करती
दबी कुलबुलाहट ,सिसकियों संग
सब कुछ हार कर सिर पीट लेती
रोना बिलखना सिसकना भी
कठिन सा हो गया है लेकिन
कुलबुला भी नहीं पाती खुलकर
विवशता साफ चेहरे पर दिख जाती।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
     8115285921
©मौलिक, स्वरचित

नूतन लाल साहू

उत्साह

बीता समय बात हुई बासी
कुछ मुस्कुराएं,कुछ बतियाएं
अपने दोस्तों को,शुभ चिंतकों को
भेजते रहें, शुभ कामनाएं
अब ऐसा ही उत्साह मनाएं
अच्छा खैर
ये सब करें या न करें
तुम तो बस इतना ही कर दें
दिल में खाई सी खुद गई है
नफरत और पराएं पन की
उसमें ढ़ाई आखर प्रेम की
भर लें
अंत हो समाज से बुराइयों का
अब ऐसा ही उत्साह मनाएं
ये न समझो कि
बस तुम ही,दुखी हो
हर आदमी का अभी,दर्द बहुत बड़ा है
याद तो वही रहता है
जो आखिरी सांस तक लड़ता है
यदि कुछ उपाय न सुझें तो
मौन ही रख लें
तोड़ दें, मनहुसियत
अब ऐसा ही उत्साह मनाएं
ये कैसा वक्त आया है
वातावरण प्रदूषित हो गया है
आंखो तक का पानी
दूषित हो गया है
ए सी और कूलर में
खुलती नही खिड़किया
नीरस हो गई है जिंदगानी
बीता समय बात हुई बासी
कुछ मुस्कुराएं,कुछ बतियाएं
अपने दोस्तों को, शुभ चिंतकों को
भेजते रहें शुभ कामनाएं
अब ऐसा ही उत्साह मनाएं

नूतन लाल साहू

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

मानव अपराध का जैविक हथियार
         कोरोना

युग बेचैन कहर काल है
युद्ध लड़ रहा मानव
शत्रु अदृश्य है।।
दिखता नही मानव ने
कर लिये सारे यत्न 
मचा कोहराम है।।
चारो तरफ जैसे
विधाता स्वयं बन गए
काल हैं।।
अस्त्र शात्र सारे 
निर्रथक संक्रमण से युद्ध का
शत्र मात्र संस्कृत सांस्कार है।।
मानव बेबस लाचार है
कुछ बोल नही सकता
चेहरे पर मास्क है।।
शस्त्र भी नही हाथ 
पल पल करना पड़ता
हाथ साफ है।।
कम से कम दो ग़ज़
दूरी आपस मे दूरी
मानव की संयुक्त शक्ति का
विखराव है।।
घर मे ही बंद कैद 
मानव अदृश्य शत्रु की
सयुक्त शक्ति के क्रम 
टूटने का कर रहा इन्तज़ार है।।
रिश्तों की रिश्तों की दूरी
मजबूरी तड़फती मानवता
शर्मशार है।।
युग कर रहा प्राश्चित स्वयं
कर्म का या विधाता का
विधि विधान है।।
समझ मे आता नही
मर्ज का मर्म मानवता
खोजतो नित नए इलाज
है।।
भय खौफ का मंजर
चारो तरफ मानव  जो
अहंकार मे कहता खुद
को महान हैं।।
प्रकृति प्रदूषण का हाहाकार है
या प्रकृति की मार है चहुँ ओर
निराश का घन घोर अंधकार है।।
विज्ञान  चमत्कार में
मानव चमत्कार का
अपराध जैविक हथियार है।।
मानव मानवता का शत्रु स्वयंका
बन चुका काल है।।
शवो से पटे 
शमशान अस्पताल है
पहचान नही पा रहा 
मानव अपनो को
पड़ा जो कोरोना के काल हैं।।
विश्व युद्ध हैं या बंधु युद्ध हैं
युद्ध लड़ रही मानवता 
सारा विश्व बना युद्ध मैदान है।।
शोर शराबा नही रक्तपात नही
गोला तोप बम बारूद नही
ना मिसाइल की मार है।।
चीखती मानवता मृत्यु का
का तांडव नंगा नाच है।।
रिश्तो लाशों का विश्व बना
बाज़ार हैं।।
कृतिम साँसों की दरकार है
मिल जाये तो शायद युद्ध 
जितने के आसार है
कृत्रिम जीवन प्रणाली ईश्वर
अवतार है।।
युद्ध के लड़ने का अस्पताल
का विस्तर ढाल है लड़ रहे
जो बीर वो भी किसी मां के
लाल है।।
कितनी मांगे सुनी हो गयी
कितनी माताओं ने खोए
अपने औलाद हैं।।
सुनी सड़के वीरान नगर
गली मोहल्ले लगते रेगिस्तान है।।
लड़ाना हैं यदि इस भय भयंकर से
संयम संकल्प ही हथियार है।।
बनाना होगा हर मानव को
नर में नरेंद्र जो इस युद्ध का
सबल सक्षम धैर्य धीर पराक्रम
पुरुषार्थ नेतृत्व महान है।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

मेरी परवाज़ को आसमां कुछ नहीं 
फिर भी दिल में है मेरे गुमां कुछ नहीं

आज़माना है तो खुल के तू आज़मा 
मेरी कुव्वत को यह इम्तिहां कुछ नहीं

तुझको अपना बनाने की ज़िद है मुझे
तेरी  खातिर ये कौन-ओ-मकां कुछ नहीं 

अपनी उल्फ़त से रंगीन कर दे इसे
तेरे बिन ख़ूबसूरत समां कुछ नहीं

तूने भर दी है झोली मेरी प्यार से 
और अब चाहिए मेहरबां कुछ नहीं 

कैसे क़ातिल पे इल्ज़ाम साबित करूँ
जूर्म का उसने छोड़ा निशां कुछ नहीं

मेरे मुँह में किसी और की है ज़ुबां
बोल सकता मैं अपनी ज़ुबां कुछ नहीं

मेरी बातो पे  *साग़र* अमल हो रहा 
लफ्ज़ मेरे हुए रायगां कुछ नहीं

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
गुमां-अहंकार ,गर्व, कयास
कुव्वत-ताकत ,दम
कौन-ओ-मकां-संसार ,जगत
अमल-व्यवहार में लाना ,अपनाना
रायगां-बेकार
17/5/2021

डा. नीलम

*हौंसले की ऊड़ान*

चलो फिर नई उड़ान भरते हैं
आसमां को नई ऊॅंचाई देते हैं

माना हवाएं विपरित ही सही
चलो हवाओं को तौल लेते हैं

जानते हैं मंजिल है बहुत दूर
चलो हौंसले के साथ दौड़ लेते हैं

मुश्किल है डगर अकेला है सफर
चलो हवाओं को ही साथ लेते हैं।

           डा. नीलम

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

सातवाँ-3
  *सातवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
बिनु सुत बिलखहिं जसुमति मैया।
बछरू बिनू बिकल जस गैया।।
     बेसुध बिकल परीं जा महि पे।
     धावत आईं गोपी वहिं पे ।।
कहँ गे हमरे किसुन-कन्हैया।
कहि-कहि बिलखहिं गोपिहिं-मैया।।
    उधर गगन महँ किसुन क भारा।
     जब सहि  सका न दनुज बेचारा।।
भई सिथिल गति तुरत बवंडर।
भवा सांत तुफान भयंकर।।
    त्रिनावर्त कै गला किसुन जी।
    कसि के पकरे रहे ललन जी।।
परबत नीलहिं भार समाना।
रहे कृष्न सिसु पहिरे बाना।।
   भवा दैत्य बड़ बिकल-बेचैना।
    बाहर निकसि गए तिसु नैना।।
निकसा प्रान असुर कै तुरतइ।
खंड-खंड भे तन भुइँ गिरतइ।।
     सिव-सर-हत त्रिपुरासुर रहई।
     त्रिनावर्त गति वैसै भवई।।
लटकि रहे तिसु गरे कन्हैया।
करत रहे जनु ता-ता-थैया।।
    पाइ सुरच्छित किसुनहिं माता।
    परम मुदित भे पुलकित गाता।।
अद्भुत घटना बड़ ई रहई।
गोपी-गोप-नंद सभ कहई।।
    बालक कृष्न मृत्यु-मुख माहीं।
    भगवत कृपा कि बच के आहीं।।
अवसि कछुक रह पुन्यहि कामा।
यहि तें बचा मोर घनस्यामा।।
    बड़-बड़ भागि हमहिं सभ जन कै।
     अवा लवटि ई बालक बचि कै।।
दोहा-एक बेरि माता जसू,कृष्न लेइ निज गोद।
        रहीं पियावत दुग्ध निज,उरहिं अमोद-प्रमोद।।
       करिकै स्तन-पान जब,कृष्न लिए मुहँ तानि।
       लेत जम्हाई मुहँ खुला,जसुमति बिस्व लखानि।।
दोहा-अन्तरिच्छ-रबि-ससि-अगिनि,ज्योतिर्मंडल-बन।
       नभ-सागर-परबत-सरित,मुख मा द्वीप-पवन।।
       सकल चराचर जगत रह,कृष्न मुखहिं ब्रह्मण्ड।
       जसुमति-लोचन बंद भे,लखतै रूप अखण्ड।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372

मन्शा शुक्ला

आदि गुरु शंकराचार्य जी की पावन जयन्ती पर समर्पित भाव पुष्प💐💐💐💐💐💐🙏🙏🙏🙏🙏
गुरु वन्दना गीत
     विधा छन्दमुक्त

🙏🙏🙏🙏🙏🙏

करजोड़ करूँ  विनती गुरुवर
 प्रभु अरज मेरीअब सुन लीजै
तेरे चरण कमल है ठौर मेरा
प्रभु चरण शरण मोहें दीजै 
कर जोड़ करूँ विनती गुरुवर
प्रभु अरज मेरी अब सुन लीजै।

पदकमल की रज लगा माँथे
तेरी महिमा का गुणगान करूँ
बस एक भरोसा तेरा प्रभु
आशीष से झोली भर दीजै
करजोड़ कँरू विनती गुरुवर
प्रभु अरज मेरी अब सुन लीजै।

मोह माया तृष्णा जग की हमें
पग पग पर पथ भरमाती है
है विदित की यह तन नश्वर है
पाश  मोह  का  बाँधती  है
मिट जायें मोह तमस मन का
प्रभु कृपा दृष्टि हम पर कीजै
कर जोड़ करूँ विनती गुरुवर
प्रभु अरज मेरी अब सुन लीजै।

हैं सिन्धु अगाध यह जग सारा
जर्जर नैया यह  मानव काया
भोग विलास के भँवर बीच
जीवन  नैया डगमग  डोलें
पतवार तुम्हीं आधार तुम्हीं
मेरी नैया  पार लगा  दीजै
कर जोड़ करूँ विनती गुरुवर
प्रभु अरज मेरी अब सुन लीजै।

हैं  भक्ति  शक्ति  नही मुझमें
अर्चन वन्दन नही जानती हूँ
अज्ञान मलीन है अन्तस् उर
मन मुकुर दरश नही पाती
हे दिव्य आलोकित ज्ञानपुंज
मन के अंधकार मिटा दीजै
करजोड़ करूँ विनती गुरुवर
प्रभु अरज मेरी अब सुन लीजै
कर जोड़.........................
प्रभु अरज.......................।।

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

डाॅ० निधि त्रिपाठी मिश्रा

.
 *गंगामृतम्* 

हे   महावेगा,  सदा    नीरा, 
तुम  पतित  पावनी माँ गंगा।
तुम  शिव  केशी  धारा  गंगा, 
हे  सुखदायिनी  प्रबल गंगा।। 

तुम मंदाकिनी,जाह्नवी हो तुम,
तुम  देवनदी, तुम सुरसरिता। 
संताप जगत  के  हरने वाली, 
तुम ध्रुवनन्दा,तुम विष्णुपगा।। 

तुम ब्रह्म कमण्डल से निकली, 
तपस्या हो भागीरथ की । 
दशमी तिथि ज्येष्ठ शुक्ल उतरी, 
मुक्ति  हेतु सगर  के पुत्रों की।। 

तुम हुई अवतरित धरती पर, 
करने को वसुधा का उद्धार। 
पापों से मुक्त जगत को कर, 
स्नेह  दिया   अपना  अपार।।

तेरे   पावन   तट   पर   माता, 
काशी,  हरिद्वार,  प्रयाग बसे। 
अन्तिम गति इस मानव तन की, 
होती  सद्गति  मिलकर तुझसे।। 

निज कर्मो से डर कर मानव, 
आकर तेरे घाट पे वास  करे। 
तेरे    जल   से   स्नान   करे। 
पर मन  का मैल  नही उतरे।।

तेरा   जल  इतना  निर्मल  है, 
कोई रंग न इस पर  चढ़ता है,
निज पापों को धो कर मानव, 
गंगा   को   मैली  करता  है।।

सतयुग, द्वापर, त्रुता  युग  से, 
तुम कलियुग में भी आयी हो।
तीन  युगों   की  भयमोचिनी, 
आ कलियुग में शरमायी हो।। 

तुम चन्द्र ज्योति सी उज्ज्वल हो, 
शरणागत , दीन   वत्सला  हो।
कर कृपा सकल तिहुँ लोकों पर, 
तुम  अभयदान  नित देती हो।। 

तुम भय की काली रात मिटाती ,
यम   के  त्रास  को  हो हरती  ।
तेरी शीतल  अविरल  धारा ,
युग-युग से सदा सफल बहती।।

 *स्वरचित-* 
 *डाॅ०निधि त्रिपाठी मिश्रा* 
 *अकबरपुर, अम्बेडकरनगर।*

विजय मेहंदी

सम्मानित देश वासियों यह शब्द-यात्रा प्रार्थनीय है---👇🕌🛕🙏
     🛕" यूपी की तीर्थयात्रा "🕌

(धुन-आओ बच्चो तुम्हें दिखाये, झांकी हिन्दुस्तान की,-----)

आओ बच्चो तुम्हें दिखाये,
                             यूपी हिन्दुस्तान की।
इस मिट्टी को नमन् करो,
                        ए मिट्टी तीर्थ स्थान की।
इस माटी को नमन्-----इस माटी को नमन्
इस माटी को नमन्-----इस माटी को नमन्   ------------------------(2)-----------------------=========================
इस मिट्टी में जन्म लिये,
                    श्री कृष्ण और प्रभु राम थे।
इस मिट्टी में ही जन्मे,
                    श्री तुलसी,कबीर महान थे।
सरयूतट पर बसी अयोध्या,
                  जहाँ जन्म लिये प्रभु राम थे।
 बंदीगृह  मथुरा  में  जन्मे ,
               देवकीनन्दन कृष्ण भगवान थे।
जमीं अयोध्या नगरी,मथुरा,
                     जननी   हैंं   भगवान  की।
इस मिट्टी को नमन् करो,
                      ए मिट्टी  तीर्थ स्थान  की।
इस माटी को नमन्-----इस माटी को नमन् 
इस माटी को नमन्-----इस माटी को नमन् 
=========================
यमुना तट पर बसी याद,
                          महल आगरा ताज है
शाहजहाँ था बनवाया यह,
                     ए स्मृति-कृति सरताज है।
ताजमहल ए विश्व प्रसिद्ध,
                      यह यादगार  मुमताज  है।
यादमहल दुनिया में  यह,
                     अद्भुत महलों का ताज है।
 आओ बच्चो बुने योजना,
                    इस ताजमहल प्रस्थान की।
इस मिट्टी को नमन् करो,
                      ए मिट्टी  तीर्थ स्थान  की।
इस माटी को नमन्-----
=========================
संगम पर है बसा प्रयाग,
                   जहाँ गंगा-यमुना दोआब है।
चारों कुम्भो में महाकुम्भ है,
                       ए कुम्भो का सरताज है।
यह पावन संगम तीर्थो का,
                      यहाँ जिला  प्रयागराज है।
ऐतिहासिक महत्त्व है इसका,
                     यहाँ  " पार्क आजाद "  है।
यहाँ तीर्थयात्री दुनियाँ के,
                  लेते डुबकी संगम-स्नान की,
इस मिटटी को नमन् करो,
                        ए मिट्टी तीर्थ-स्थान की।
इस माटी को नमन्-----------------------
=========================
गंगा तट पर काशी नगरी,
                           ए तीर्थो का सम्राट है।
कदम कदम पर गंगा तट पर,
                            यहाँ निराला  घाट है।
दशाश्वमेध घाट सहित यहाँ,
                            पावन अस्सी-घाट है 
यहाँ का मालवीय-विश्वविद्यालय,
                    "बीएचयू" विश्वविख्यात है। यात्रा बौद्ध-भिक्षु करते,
                     यहाँ "सारनाथ-स्थान" की।
इस मिट्टी को नमन् करो,
                      ए  मिट्टी  तीर्थ-स्थान की।
इस माटी को नमन्----इस माटी को नमन् 
इस माटी को नमन्----इस माटी को नमन् 

(मुश्किल सभी यात्रा करना , वृहद यूपी के तीर्थस्थान की---🤷‍♂️) 
========================= 
रचना- " विजय मेहंदी " कविहृदय शिक्षक 
कन्या कम्पोजिट इंग्लिश मीडियम स्कूल शुदनीपुर,मड़ियाहूँ, जौनपुर (यूपी)🙏
📱 91 98 85 22 98

एस के कपूर श्री हंस

Good......Morning*
*।।  प्रातःकाल   वंदन।।*
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂

जीवन में आपके  केवल
सुख का सरोकार हो।
जीवन में बस यश  और
कीर्ति की जयकार हो।।
स्वास्थ्य रहे  उत्तम  और
संकट आये  न कोई।
*सस्नेह प्रातःअभिवादन*
*आपको स्वीकार हो।।*
👌👌👌👌👌👌👌👌
*शुभ प्रभात।।।।।।।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।।।।  एस के कपूर*
👍👍👍👍👍👍👍👍
*दिनाँक. 18.   05.     2021*


।।रचना शीर्षक।।*
*।। फिर से विश्व गुरु की पहचान*
*वाला ,भारत महान होगा।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
मिलकर धूल में भी   हम
खड़े     हो     सकते   हैं।
टूटकर फिर हम   दुबारा
बड़े हो        सकते     हैं।।
गिर कर भी फिर वैसे ही
उठना   आता      हमको।
देख लेना फिर   वैसे   ही
आसमां चढ़े हो सकते हैं।।
2
परीक्षा यूँ ही      बारम्बार 
हम   देकर          आयेंगे।
खुशियां    अपरम्पार हम
फिर   जाकर       लायेंगे।।
माना कि मुसीबत है और
समय है    महामारी   का।
लेकिन वैसा ही   आकार
हम    लाकर        पायेंगे।।
3
हर    परिस्थिति   में  हम
मुस्कराना        जानते हैं।
हे प्रभु हम    देना     तेरा
शुकराना   जानते        हैं।।
हर मुश्किल को  आसान
बनाना हैं       हम जानते।
अपनी गलतियों का देना
हर्जाना हम  जानते     हैं।।
4
जमीन से आसमान  तक
फिर भारत का नाम होगा।
कुछ ऐसा ही   नायाब सा
हमारा       काम      होगा।।
हमें गर्व     और    गौरव है 
अपनी क्षमता विरासत पर।
फिर विश्व  गुरु की पहचान
वाला भारत    महान  होगा।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।।    9897071046
                    8218685464


।।ग़ज़ल।। संख्या 100 ।।*
*।।काफ़िया।। आने ।।*
*।।रदीफ़।। वाले।।*
1.  *मतला*
हे कॅरोना हम नहीं   डगमगाने   वाले
हम हैं मिल जुल कर     जगाने  वाले
2      *हुस्ने मतला*
हम  नहीं कोई बात  यूँ   उड़ाने  वाले
कर चुके हैं  कोशिश आज़माने  वाले
3
बात में रखते हैं हम दम और   वज़न
वैसे तेरे काम तो हैं खूब   डराने वाले
4
डरे घबराये नहीं हैं  तेरे  कत्लेआम से
तेरे वारों से नहीं हम  लड़खड़ाने वाले
5
तू छिपा दुश्मन   ना दिखाई देने वाला
तेरे पासआकर नहीं हम भरमाने वाले
6
तूने सोचा रोक देगा  सारी दुनिया को
पर तुझे भगाने में लगे ये जमाने  वाले
7
माना   तू रोज़ रंग बदल रहा  नये  नये
पर हम भी जिद पे बात मनवाने  वाले
8
*हंस* तू घूप अंधेरा    कर नहीं  सकता
जान ले हम हैं सितारे   जगमगाने वाले

*रचयिता।।एस के कपूर " श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।      9897071046
                    8218685464

औरत हूं मैं - लवी सिंह

मेरी कलम से....✍️
           👸"औरत हूँ मैं" 👸

हाँ औरत हूँ, पर तुम्हारी गुलाम नहीं हूँ। 
जो आ जाऊं चंद मीठी बातों में, इतनी भी नादान नहीं हूँ।।

बुनती हूँ सपने, मैं भी अरमान  सजाती हूँ 
कर लुंगी एक दिन सब पूरे, यही खुद को समझाती हूँ 
और तुम....जो मुझ पर अंकुश लगाते हो कि औरत हूँ मैं....
तो रोक दूँ अपने ख्वाबों को, थाम लूँ अपने अरमानों को...और समेट लूँ खुद को तुम्हारी इस चाहरदीवारी में 
तो ये मुमकिन नहीं होगा......चूंकि इतनी भी आसान नहीं हूँ मैं....
हाँ औरत हूँ, पर तुम्हारी गुलाम नहीं हूँ मैं ।। 

हाँ हौंसलों की उड़ान मुझे भी भरनी है,
कायम एक मिसाल मुझे भी करनी है,
तो क्या हुआ...? 
जो तुम साथ नहीं दोगे ये बोलकर कि औरत हूँ मैं....
तो भर नहीं सकती उड़ान, पूरे कर नहीं सकती मैं अपने अरमान और छू नहीं सकती मैं आसमान..
तो यह सम्भव नहीं होगा....
जो कर न पाऊं अपने सपनों को साकार, 
इतनी भी परेशान नहीं हूँ मैं.....
हाँ औरत हूँ, पर तुम्हारी गुलाम नहीं हूँ मैं ।।

क्यों सहूं मैं तुम्हारे जुल्म-ओ-सितम....? 
तो क्या फ़र्क पड़ता है, जो मेरे पिता ने नहीं दी तुम्हें दहेज़ में रकम....? 
मेरी माँ ने मुझे जीवन जीने का मतलब सिखलाया है,
वहीं मेरे पिता ने तुम्हारे साथ चलने के काबिल बनाया है,
तुम ठुकरा दो मुझको, इतनी तुम्हारी "औकात" नहीं है...
ब्याह कर आयी हूँ इस घर में, महज़ चंद दिनों की मेहमान नहीं हूँ .....
हाँ औरत हूँ, पर तुम्हारी गुलाम नहीं हूँ
हाँ गुलाम नहीं हूँ ।

- लवी सिंह ✍️

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पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...