कोमल पूर्बिया कुमोद

*शीर्षक:-कोई सीखे नारी से*

अपने अरमां दबाना
पर आँगन महकाना
हिय मे दुःख दफनाना
दर्द में भी मुस्कुराना
             कोई नारी से सीखे......

होती ये दो घर का गहना
नारी ही होती माँ-बहना
अंदर ही सबकुछ सहना
किसी से कुछ ना कहना
              कोई नारी से सीखे.....

दो कुल की लाज रखना
अपना पराया न परखना
फर्ज से कभी दूर न हटना
फूँक-फूँक कर कदम रखना
              कोई सीखे नारी से.....

हमेशा  ही  रखना  संतोष
न दिखाना कभी आक्रोश
बनाएं रखना पास-पड़ोस
अक्सर ही रहना खामोश
               कोई सीखे नारी से.....

पिता का घर छोड़ना
पति से नाता जोड़ना
कुमोद कहे ये समझना
पिता का मान ऊँचा रखना
                कोई सीखे नारी से.....

कोमल पूर्बिया "कुमोद"
सलूम्बर,उदयपुर(राज.)

सुषमा दीक्षित शुक्ला

खुली आंखों से बाट निहारूँ,
 बापू अब सपने में आते ।
 मन ही मन में रोज पुकारूं ,
बापू अब सपने में आते ।
 स्वप्न  देश के वासी बापू ,
रस्ता भूल गए हैं घर की ।
 वरना उनका मन ना लगता,
 सूरत देखे बिन हम सबकी।
 सपने में वैसे ही मिलते ,
जैसे  कहीं गए ना  हो  ।
सूरत वही ,वही पहनावा ,
वही बोल वह नैना  हों ।
जगने पर गायब हो जाते,
 बापू अब सपने में आते।
 खुली आंख से बाट निहारु ,
बापू अब सपने में आते ।
 स्वप्नदोष वह कैसा होगा ,
जिसमें जा बापू हैं जा भटके ।
रोज चाहते होंगे  आना ,
 पर ना जाने क्यों है अटके ।
स्वप्न देश की रस्ता पूछूं,
 मुझको कौन बताएगा ।
सूरत प्यारे  बापू की वो,
मुझको कौन दिखाएगा।
 पहले देर कहीं जो होती,
 मंदिर में परसाद मानते।
 और बाद में बापू से ही ,
उसका पैसा तुरत मांगते ।
अब कितना परसाद चढ़ाऊं,
 क्या  बापू  आ जाएंगे ।
 जगती आंखों देख सकूंगी,
 क्या बापू मिल जाएंगे ।
 खुली आंख से बाट निहारु,
 बापू अब सपने में आते ।
मन ही मन में रोज पुकारूं,
 पर बापू सपने में आते ।

 सुषमा दीक्षित शुक्ला 2 अगस्त 96

शुभा शुक्ला मिश्रा अधर

विनती       गीत      
******     *****
बचा लो अपना यह संसार।
सृष्टि के पालक रचनाकार।।

पुकारे आर्त कंठ मन प्राण।
तुम्ही से होना है कल्याण।।
कृपा किंचित कर दो भगवान।
कहा अब इतना लो प्रभु मान।।
रहेगा याद सदा उपकार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के•••••••••••••••••।। 

भँवर के मध्य रहा जग झूल।
करोगे कब स्थिति अनुकूल?
विकल हिय चित्त हुआ अति क्लांत।
विवश उद्विग्न अथाह अशान्त।।
मिटा दो बढ़ते कष्ट-विकार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के••••••••••••••••।।

जगत में फैली है जो व्याधि।
मिटा देगी क्या ईश-उपाधि?
रहेंगे अगर न जीव विशेष।
कहो क्या रह जायेगा शेष?
भयावह कोरोना को मार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के•••••••••••••।।

करो अब विस्मृत सब अपराध।
करो पूरी हर मन की साध।।
मुदित होकर हे दीनानाथ!
सदा देना पीड़ा में साथ।।
सुनो प्राणी की करुण पुकार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के पालक••••••••••।।

खुशी के दीप जलें दिन-रात।
करें हिय सदा परस्पर बात।।
बुझे दुख द्वेष द्रोह की आग।
रहे चिरकाल 'अधर' अनुराग।।
सभी को दो ऐसा उपहार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के पालक••••••••••।।

*****************************

आप आत्मीयजनों से अनुरोध है #कोरोना को हराना है🔥,तो कृपया जीवन-रक्षक निर्देशों का पालन अवश्य करें।सदैव शुभ हो।🙏🌹

    शुभा शुक्ला मिश्रा 'अधर'❤️✍️

कुमकुम सिंह

आप यूं अचानक चले जाएंगे ,
हमें छोड़ तनहा कर जाएंगे ।
यह हमने सोचा ना था ,
वक्त ऐसा भी आएगा यह हमने जाना ना था।

आपके जैसा मुखारविंद हंसमुख चेहरा,
जैसे कि मानो कुछ कहने को तत्पर है।
काल ने किस तरह से अपने गाल में आपको समाया होगा,
आप को ले जाते वक्त उसको भी तो रोना आया होगा।

आपके परिजनों चित्त परिचितों का भी दिल दहलाया होगा,
ऐसे बहुमुखी को लेकर जाने में उसे शर्म भी तो आया होगा।
आप थे बहुगामी यह अपने कर्मों से दिखलाया हमें,
नीरज की तरह कीचड़ में भी खिल कर ,
अपने आप को कमल साबित कर बतलाया।
              कुमकुम सिंह

स्वर्गीय आदरणीय नीरज जी को मेरी यह चंद लाइने श्रद्धांजलि में भेंट स्वरूप, 🙏🏻🙏🏻💐🙏🏻🙏🏻

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

आज़माने की बात करते हो
दिल दुखाने की बात करते हो

हमने देखा है अपनी आँखों से
तुम ज़माने की बात करते हो

सारी दुनिया उदास लगती है
जब भी जाने की बात करते हो

मंज़िलों की सदा पे तुम हमसे
लड़खड़ाने की बात करते हो

मुझको ज़ख़्मों की देके सौगातें
मुस्कुराने की बात करते हो

छेड़ कर साज़े-दिल के तारों को
भूल जाने की बात करते हो 

अपने हाथों से फूँक कर तुम अब
आशियाने की बात करते हो

मौसम-ए-पुरबहार में *साग़र*
तुम न आने की बात करते हो 

🖋️विनय साग़र जायसवाल, बरेली
11/4/1983

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-1
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1
रहे पुरोहित जदुकुल नीका।
पंडित गर्गाचारहिं ठीका।।
    आए गुरु गोकुल इक बारा।
    जा पहुँचे वै नंद-दुवारा ।।
पाइ गुरुहिं तहँ नंदयिबाबा।
करि प्रनाम लीन्ह असबाबा।।
     ब्रह्मइ गुरु अरु गुरु भगवाना।
     अस भावहिं पूजे बिधि नाना।।
बिधिवत पाइ अतिथि-सत्कारा।
भए मगन गुरु नंद-दुवारा।।
     करि अभिवादन निज कर जोरे।
      कहे नंद अति भाव-बिभोरे ।।
तुमहीं पूर्णकाम मैं मानूँ।
केहि बिधि सेवा करउँ न जानूँ।।
    बड़े भागि जे नाथ पधारे।
     अवसि होहि कल्यान हमारे।।
निज प्रपंच अरु घर के काजा।
अरुझल रहहुँ सुनहु महराजा।।
     पहुँचि पाउँ नहिं आश्रम तोहरे।
      छमहु नाथ अभागि अस मोरे।।
भूत-भविष्य-गरभ का आहे।
जानै नहिं नर केतनहु चाहे।।
     ब्रह्म-बेत्ता हे गुरु ग्यानी।
     जोतिष-बिद्या तुमहिं बखानी।।
करि के नामकरन-सँस्कारा।
मम दुइ सुतन्ह करउ उपकारा।।
    मनुज जाति कै ब्रह्मन गुरुहीं।
    धरम-करम ना हो बिनु द्विजहीं।।
                डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मुझ अकिंचन का प्रणाम, आज की रचना ।।सम्भावना।। शीर्षक।। पर है,अवलोकन करें.. संसारू बँटा लगै भागु मा दुईऔ कयामतु लागि गयी नकुचाई।। दीनदयाल दयो सद्बुद्धि नाही तौ सृष्टि रसातलु जाई।। फलस्तीनु भयो बरबाद मुला अबु लागतु बारी है पाकु कै आई।। भाखत चंचल हे करूनानिधि कैसी बयारू बही चौपाई।।1।।। भारत सैन्य विचारू करैअमरीका औ चीन तनातनी आई।। हमदर्द रहा फलस्तीनौ मुला सेना दयी इजरैलु अँटाई।।। भाखत चंचल हे करूनानिधि कैसी बयारू बही चौपाई।।2।। सत्तावनु मुस्लिम देखु जहानु रहे सबु एकु जोकालु देखाई।। फूटि गयी एकता उनकय औ आजु धडा़ दो परै दिखलाई।। भाखत चंचल हे करूनानिधि दयो सद्बुद्धि औ युद्ध बचाई।।3।। तूफानौ थम्हा औ कोरोनौ नसे औ यहू युद्ध रूकै जबु भाई।। राकेट और मिसाइल युद्ध दहाडि़ रहा बोफोर्स ऊ जाई।। हाइपरसोनिक याकि कहौं जो रहे सुपरसोनिक होतु लडा़ई।।। भाखत चंचल हे करूनानिधि सृष्टि तोहारू विनाशु पै आई।।4।। आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र.।।मोबाइल...8853521398,9125519009।।

नूतन लाल साहू

चिंता

धुंआ उमड़ता है,भीतर ही भीतर
दहके जैसे कोई अवा
लाइलाज ये रोग है
जिससे चतुराई,घट जाता है पूरा
इसका ना तो इलाज है
और ना ही है,कोई दवा
गीली लकड़ी सुलगे जैसे
ऐसे ही काया,जलता है हमेशा
मूंद लें पलके, सपनों में खो जा
जुगत करो जीने का
चिंता के वजह से ही,होती है बीमारी
कैसे समझाऊं,मन को मैं
गलती से कोई,सबक न लिया
यही तो है,नादानी
अंधड़ सी बनकर उड़ती है
अंदर ही अंदर,पागल मस्त हवा
लाइलाज ये रोग है
और ना ही कोई दवा
समय बड़ा अनमोल है
गया समय,फिर नही आयेगा
किसी से नही,शिकवा गिला है,पर
क्या गलत है और क्या सही है
बस इतना ही,समझ ले बंदे
मुझे तो बस इतना ही,चिंता है
ये किसी को,बात खुलकर
कभी बताते ही नही है
चिंता से चतुराई घटय
दुःख से घटय शरीर
सब कुछ,खाक हो जाता है
जैसे लकड़ी में लगता है घून

नूतन लाल साहू

सुधीर श्रीवास्तव

बीत गई सो बीत गई
*****************
न शोक करो
न खुशफहमी पालो,
जो बीत गई,वो बात गई
अब वो इतिहास हो गई।
वो कहावत तो सुनी है न
रात गई ,बात गई
सो अब वर्तमान में लौटिए,
अब आज कुछ कीजिए
अंतर्मन में झांकिए
भविष्य का विचार कीजिए,
बीते कल के 
अच्छे बुरे के चक्कर में
आने वाला कल 
न खराब कीजिए।
बीता कल अच्छा नहीं था
तो भी कोई बात नहीं,
आने वाले कल को तो
सुधार लीजिये,
बीता कल अच्छा था तो भी
आने वाले कल को
और भी अच्छे साँचे में 
ढालने का इंतजाम 
आज से नहीं अभी से ही
शुरु कीजिए।
● सुधीर श्रीवास्तव
     गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

डॉ अर्चना प्रकाश

-;  नई सुबह -;
    नई सुबह फिर आये गी ,
    आशा की किरणें लायेगी ।
           सूरज नया उगाने को ,
           सबको साथ मिलने को ।
           सब पर खुशियां बरसाने को
      नई सुबह फिर आएगी ,
      आशा की किरणें लाएगी ।
      हर दुआ दे रही कॅरोना को मात,
       हर निशा लाती स्वर्णिम प्रभात ।
        सपनों का इन्द्र धनुष ले कर,
        मेघ गगन पर छाएंगे ।
         बारिश की नई फुहारों से,
           फिर धरा में अंकुर जागेंगे ।
           खुशियों के दीप जलाने को,
     नई सुबह फिर आएगी,
      आशा की किरणें लाएगी ।
             सम्बल नव जीवन देने को,
           प्राणवायु सबमें भरने को ।
           अपनत्व पगा नेह बढ़ाने को,
          नव जीवन गंगा बहाने को।
      नई सुबह फिर आये गी ,
        आशा की किरणें लाएगी ।
               डॉ अर्चना प्रकाश 
                लखनऊ ।

अभय सक्सेना एडवोकेट

(जाने कहां तुम चले गए ग्रंथ में प्रकाशन हेतु)
  *************
स्व.आशुतोष कवि नीरज जी को मेरी यह रचना श्रृद्धा सुमन समर्पित।
----------------------------------------
सदा नमन करूं मैं उनको
***********************
अभय सक्सेना एडवोकेट
                #####
मुझ ,खुश नसीब को
काव्यरंगोली से ,जुड़ने का 
इक ,मौका जो मिला।

धन्यवाद, देता हूं उनको
जिनके सहयोग ,से आपका
फिर, हमें साथ मिला।

मेरी, प्रकाशनार्थ रचनाओं को
आप की, भावनाओं का
फिर ,मुझे परसाद मिला।

"अभय,'जैसे रचनाकारों को
नीरजजी की, आत्मीयता का
अपने, सिरपर हाथ मिला।

छोटी ,छोटी त्रुटियों को
शिष्य स्वरुप, समझने का
सुंदर, सा सौभाग्य मिला।

सदा नमन करूं मैं उनको
कोरोना से दो दो हाथ किया
फिर शहीद "नीरज "को बैकुंठधाम मिला।
*************************
अभय सक्सेना एडवोकेट
48/268, सराय लाठी मोहाल
जनरल गंज,कानपुर नगर।.9838015019,8840184088.

जयप्रकाश अग्रवाल

मनोदशा


क़हर ढाहे कोरोना, अच्छा नहीं लगता ।
कि अपनों को यों खोना, अच्छा नहीं लगता ।

मुँह पर मास्क, समाजिक दूरी डराये,
हाथ बार बार धोना, अच्छा नहीं लगता ।

दिलो दिमाग़ को गिराना, ख़बरें सुन सुन कर,
मायूसी में डुबोना, अच्छा नहीं लगता ।

बेचारा हो गया, बहुत लाचार हो गया,
खुद का इंसान होना, अच्छा नहीं लगता ।

महीनों गुजर गये दोस्तों से मिले बिना,
आकर अब तो मिलोना, अच्छा नहीं लगता ।

ना बाहर कुछ खाया, ना ही घूमने गये,
मन करे आज-चलोना, अच्छा नहीं लगता ।

दया करो, बहुत हुआ, छोड़ो अब तो पीछा,
कुदरती जादू टोना, अच्छा नहीं लगता ।

जयप्रकाश अग्रवाल 
काठमांडू 
नेपाल

सुनीता असीम

दूरियां कितनी सही उनसे मुहब्बत है तो है।

दिल के मेरे जो खुदा उनकी इबादत है तो है।

****

देखना तिरछी नज़र से फेर लेना फिर नज़र।

श्याम की तिरछी निगाहों में शरारत है तो है।

****

लब पे है इनकार पर इकरार नज़रों में रहे।

दिल में उठती आज अपने इक बगावत है तो है।

****

बस मनाना रूठना ही प्यार का किस्सा रहा।

फिर भी हमको प्यार उनसे ही निहायत है तो है।

****

रीत दुनिया की निभानी दिल न लेकिन साथ दे।

प्यार में तेरे मरूं दिल की इजाजत है तो है।

****

सुनीता असीम

रामकेश एम यादव

रास्ते निकलते हैं!

रास्ते   निकालो  तो   रास्ते  निकलते  हैं,
आंधी-  तूफानों से  चराग़ कहाँ  डरते हैं।
झाँकती है  जब- जब  वो अपने दरीचे से,
मल-मल के आँखों को लोग उसे देखते हैं।
वो  जब  उतरती  है  उन  तंग  गलियों  में,
करती  शरारत  हवा वो  दुपट्टे  सरकते हैं।
इंसानी  फितरत  ये  रोज -रोज  हैं  लड़ते,
मयकदे में जाकर  के साथ- साथ पीते हैं।
कर  लो  बराबरी  की  चाहे  भी  जो बातें,
होकर  जमीं  देखो, आसमां  में  उड़ते हैं।
हालचाल  दुनिया  की  अच्छी  नहीं यारों,
पूछने  से  पहले  ही,  घर  में  रो  लेते  हैं।
राम- नाम  के  ऊपर  रोज  कुछ  हैं ठगते,
फूलों   की   शैया पर  करवटें  बदलते  हैं।
तपकर  के बादल  वो आसमां  में जाते हैं,
खोलकर दिल अपना झमाझम बरसते  हैं।
हम नहीं   सुधरेंगे, ये  दुनिया  सुधर  जाए,
ऊपरी  कमाई  पर  सारा ध्यान  रखते  हैं।
बाजीगरी आंकड़ों  की जिसे भी आ जाए,
देखो सियासत में सिक्के उसके चलते हैं।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

सुनीता असीम

दूरियां कितनी सही उनसे मुहब्बत है तो है।
दिल के मेरे जो  खुदा उनकी इबादत है तो है।
****
देखना तिरछी नज़र से फेर लेना फिर नज़र।
 श्याम की तिरछी निगाहों में शरारत है तो है।
****
लब पे है इनकार पर इकरार  नज़रों में रहे।
दिल में उठती आज अपने इक बगावत है तो है।
****
बस मनाना रूठना ही प्यार का किस्सा रहा।
फिर भी हमको प्यार उनसे ही निहायत है तो है।
****
रीत दुनिया की निभानी दिल न लेकिन साथ दे।
प्यार में तेरे मरूं दिल की इजाजत है तो है।
****
सुनीता असीम
१८/५/२०२१

निशा अतुल्य

समय महा बलवान 

मजदूर लौट घर चला,काम को तरस गया 
हाथ में बचा न कुछ,ये मुफ़लिसी का दौर है ।

कब कौन काम आएगा,जब बन्द सब है पड़ा 
कौन किस को देगा क्या,ये मुफ़लिसी का दौर है ।

अर्थ रहा न पास का,दाल रोटी आस का 
पानी कभी पीया,कभी फ़ाक़ा ही किया 
ये मुफ़लिसी का दौर है ।

रौनक लौट आएगी,खिजां एक दिन जाएगी 
फूल फूल फिर खिला,जब काम हाथ को मिला ।

हाथ में जो हाथ हो,अपनो का जो साथ हो 
ये मुफ़लिसी का दौर भी,बस गुजर ही जायेगा ।।

ये दौर खत्म होगा जरूर,खुशहाल दौर आएगा 
पेट भी होंगे भरे,हर चेहरा खिलखिलाएगा ।

हौसलों की दौड़ हो ,हारना नहीं हमें 
हरा कर इस दौर को,देश मुस्कुराएगा ।

प्रार्थना प्रभु से ये,कर्म परिभाषा तू गढ़
ये मुफ़लिसी का दौर फिर,पल में गुजर यूँ जाएगा ।

कमज़ोर तू होना नहीं,विश्वास को खोना नहीं 
समय महा बलवान है,तेरा हौसला ही तो इसे हराएगा।

ये मुफ़लिसी का दौर है,ये दौर हार जाएगा
बीतता कठिन ये पल,इंसान मुस्कुराएगा ।

तेरा मेरा न कुछ रहा,साथ जब तक सबका रहा
एक अकेला चना न भाड़ फोड़ पाएगा।

ये मुफ़लिसी का दौर है,ये गुजर ही जाएगा 
समय महा बलवान है,ये करतब कुछ दिखाएगा ।

स्वरचित
निशा अतुल्य

अभय सक्सेना एडवोकेट

वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है
*************************
अभय सक्सेना एडवोकेट
                  +++++
हाल बड़ा बेहाल हुआ है,
समय नहीं कुछ कहने का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।

 मतकर तू जिद किसी बात की,
समय नहीं बाहर निकलने का।
तू जीले जिंदगी सादगी की,
बाहर खतरा है जान निकलने का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।

चारों तरफ हाहाकार मचा है,
डर है अपनों से ठगने का।
बेईमानों का बाजार सजा है,
गम है अपनों से लुटने का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।

कोरोना को समझने में भूल हो गई,
समय ना मिलेगा सम्हलने का।
मत कर चूक चूक हो गई,
सहना पड़ेगा गम अपनों का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।

गर अभी तू सम्हल गई तो,
मौका अभी है सम्हलने का।
घरवालों की बात मान लें,
सहना ना पड़ेगा गम बिछड़ने का।
वक्त बड़ा बेदर्द हुआ है,
समय है घर पर रहने का।
*************************

अभय सक्सेना एडवोकेट
48/268,सराय लाठी मोहाल,
 जनरल गंज, कानपुर नगर।.9838015019,8840184088

कुमकुम सिंह

रेत पर मैं लिखती रही,
 और वो पानी के फवारो से मिटती रही।

कोशिश तो मैंने बहुत बार की, 
पर वो टिकने की कोई हरकत ना की।

दिल में थी बहुत से राज़, 
लेकिन वो समझने की कोशिश ही ना की।

अपनी पहचान बता दिया ,
खुद का वो भेद खोलकर ही रख दिया। 

वो क्या है, 
बिन बोले ही समझा दिया।

बात प्यार निभाने की थी,
ना की दिल्लगी थी।

उसने मेरे दिल से खेलकर ,
मेरे दिल को दहला दिया दिया।

सब्र कब तक करूं मैं, 
कब तक सहू में उसकी बेवफाई।

मुझे जिंदगी भर का दर्द दे, 
 खुद को हवा के संग उड़ा लिया।

कुमकुम सिंह

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(16/14)
है यद्यपि इस पल यह पतझर,
कल बहार फिर आएगी।
रात्रि-तिमिर से क्या घबराना-
शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।

जीवन के चौखट पर हर-पल,
सुख-दुख का पहरा रहता।
एक जगे जब दूजा सोता,
काल-चक्र हर क्षण चलता।
घन-घमंड का स्वागत कर लो-
घटा शीघ्र शर्माएगी।।
    शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।

तिमिर-गर्भ से उगे किरण रवि,
बाद अमावस पूनम हो।
सींच पसीने की बूँदों से,
उगे अन्न जो सोनम हो।
इस रहस्य के ज्ञाता की मति-
कभी नही भरमाएगी।।
     शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।

जीवन एक पहेली समझो,
इसे समझ जो पाया है।
उसने काँटों के साये में ,
पुष्प अनेक खिलाया है।
इसी पहेली को गुलाब की-
अद्भुत कथा बताएगी।।
  शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।

पीत पर्ण झड़ जाने से ही,
हरित पर्ण उग आते हैं।
रहे अमर यह प्रीति जगत में,
शलभ स्वयं जल जाते हैं।
जलना-बुझना इसी प्रथा को-
प्रकृति सदा दुहराएगी।।
     शुभ्र सुबह मुस्काएगी।।
     कल बहार फिर आएगी।।
                ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                     9919446372

डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

राम बाण🏹 घर में बैठे हैं छिपकर

बदले मौसम  के दुखियारे,
अब घर में बैठे हैं छिपकर।
बिन मौसम के बादल छाये,
छत से देख रहे हैं छिपकर।

         अर्ज करे थे घर मैं बैठो,
बिन मौसम में जो निकल पड़े।
  जो विचरे थे बिना मास्क के, 
        उन पर डंडे बिफर पड़े।
       पीड़ा के ये काले बादल,
    अब उनको लगते हैं दुष्कर।

       घमंड जैसे काले बादल, 
    आसमान को ही ढाँक रहे।
   सूरज की किरणों को रोके, 
  जो अवसर अपना ताँक रहे।
   खेल-खेल की लुक्का छिप्पी,
     सूरज देख रहे हैं छिपकर।

      हवाओं के तेज प्रचंड ने, 
घमंड उनका जब तोड़ दिये।
  सपने अपने सब उड़ा चले,
दिशा दशा ही सब मोड़ दिये।
       डर के भागे सारे बादल
     भाग रहे हैं कैसे छिपकर।

  कुछ गर्जन कर चमक रहे हैं,
  कुछ तो बेबस ही बरस रहे। 
 कुछ को गर्दन का होश नहीं,
पर बिन मौसम ही गरज रहे।
  बेबस होकर बरस न जाना,
  संबंधो के रिश्ते हैं हितकर।

       गर्जन के उद्घोष निराले,
    भय में रहते बादल काले।
     उनके संरक्षण में निकले,
       देने को मुंह में  निवाले।
     भूखे तन की मजबूरी भी,
उनको देख रही थी छिपकर।
 
पैदल मीलों चलना जिनको,
 रास्ता सड़कें ही नाप रहीं।
   आँखे उनकी आस जगाये,
   भूख से चेहरा भाँप रहीं।
 कुछ मुखड़ों ने मास्क लगाये,
 खबरें छाप रहे हैं छिपकर।


   उम्मीदों ने अनुबंध किये,
 इच्छाओं के सँग निकल पड़े।
     मंजिल से अंजानी राहें,
मौत के मुंह में निकल पड़े।
  रिश्तों की सरकार पुरानी
खोजबीन करती है छिपकर।

     मुआवजे जैसी खेती में,
सरकारी है अनुबंध मिला।
   मौत के आँकड़े मांग रहे,
   मौके का है संबंध खिला।
 ज्ञानमार्ग के खबरी चैनल,
  खबरें भी देते हैं छिपकर।

   बदले मौसम  के दुखियारे,
   अब घर में बैठे हैं छिपकर।
  बिन मौसम के बादल छाये,
  छत से देख रहे हैं छिपकर।

          डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

प्रेम के चेहरे कई हैं - मधु शंखधर स्वतंत्र

गीत
प्रेम के चेहरे कई हैं...
--------------------------------
प्रेम के चेहरे कई हैं, भाव पर सबके वही हैं।
प्रेम दिल की भावना है, प्रेम बस होता सही है।।

प्रेम माँ का है अनोखा, जन्म देकर वह लुटाती।
दे नया अस्तित्व माता, खुद का सुख दुख सब भुलाती ।
प्रेम उसका प्राप्त होता, तब तलक जब तक मही है।
प्रेम के चेहरे कई.............।।

प्रेम होता है पिता का, भाव जो खुद में समाता।
सब लुटा देता है पर वो, शब्द से कुछ कब जताता।
श्रेष्ठ होता प्रेम उनका, भावना सच्ची रही है।
प्रेम के चेहरे कई हैं............।।

प्रेम बहना भाई का भी, एक अनुपम भावना सा।
एक दूजे की सुरक्षा, मानते वह साधना सा।
प्रेम आशा से बँधा है , प्राप्ति की बस चाह नहीं है।
प्रेम के चेहरे कई हैं................।।

प्रेम प्रेमी प्रेमिका का, वास्तविक अहसास है।
सत्य जिसके मूल बसता, ईश को भी रास है।
यह कहानी प्रेम की, सुनते सभी सबने कही है।
प्रेम के चेहरे कई ................।।

प्रेम से बनता है बंधन, एक नए विश्वास का।
जिन्दगी की चाह का, रिश्तों के सुंदर वास का।
प्रेम ही जीवन की माया, मूल में सदियों रही है।।
प्रेम के चेहरे कई हैं...........।।

मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज ✒️

देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

.............सिसकियों के शहर में.............

तन्हाइयों के शहर में दोस्त मिलते  नहीं हैं।
स्वार्थियों के शहर में दोस्त मिलते नहीं हैं।।

हर  शहर  है  आततायिओं  के  गिरफ्त  में;
इनलोगों के शहर में दोस्त मिलते  नहीं हैं।।

जिधर  देखें , एहसानफरामोश हैं  पटे  पड़े;
ऐसों  के  शहर  में  दोस्त  मिलते  नहीं  हैं।।

हर शहर  में  गद्दारों  का  ही  है  बोलबाला;
गद्दारों  के  शहर  में दोस्त  मिलते  नहीं हैं।।

आए  दिन   दगाबाजी   से   रहते  हैं  त्रस्त;
दगाबाजों के शहर में दोस्त मिलते नहीं हैं।।

हर  तरफ  कमिनापनी  में   है  आपाधापी;
कमीनों  के शहर  में दोस्त  मिलते नहीं हैं।।

अब  तो   उठा  ले , ऐ  ऊपरवाले  "आनंद";
सिसकियों केशहर में दोस्त मिलते नहीं हैं।।

-------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

जया मोहन

ग़ज़ल
ज़ुल्फ़ लहराए तो सावन की घटा छाती है
तेरे हँसने से बिजली सी कौंध जाती है
तुमको कुदरत ने बनाया बड़ी फुर्सत से
पलके तेरी जो उठी रोशनी छा जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।।
तू जब बोलती है तो लगता जैसे कानो में मीठी मिश्री सी घुली जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।
रेशमी हाथों पे सजती चूड़ियां तेरी
छूते ही मेरे वो खनक जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।।
तेरे पास आकर ये महसूस होता है मुझे
साँसे मेरी जैसे थमी जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।
तू जब निकलती है किसी राह पर
तेरी खुश्बू से जया वो राह महक जाती है
ज़ुल्फ़।।।।।।।
स्वरचित
जया मोहन
प्रयागराज

सुधीर श्रीवास्तव

विवशता
********
हर ओर फैली सिर्फ़ बेचैनी है
व्याकुलता है,कुलबुलाहट है
न खुलकर जिया जा रहा है,
न ही आसानी से मरने की
उम्मीद कहीं से दिखती है।
कहीं मौत की अठखेलियाँ हैं
तो कहीं लाशों की बेकद्री 
कहीं जमीन पर मरने जीने की
जद्दोजहद के बीच साँसो की
कहीं अस्पताल में जगह पाने की
उम्मीदी ना उम्मीदी का दृष्य।
मृत्यु के मुँह में जाता यथार्थ,
सब कुछ अनिश्चित ही तो है
साँसो की बाजीगरी देखिए
तो धनपिशाचों की बेशर्मी भी,
परंतु कुलबुला कर ही रह जाती
असहाय लाचार फरियादी बन,
सिवाय कुलबुला कर रह जाने के
कुछ कर भी तो नहीं पाती।
उम्मीद लगाए बुझी आँखों में
एक किरण की तलाश करती
दबी कुलबुलाहट ,सिसकियों संग
सब कुछ हार कर सिर पीट लेती
रोना बिलखना सिसकना भी
कठिन सा हो गया है लेकिन
कुलबुला भी नहीं पाती खुलकर
विवशता साफ चेहरे पर दिख जाती।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
     8115285921
©मौलिक, स्वरचित

नूतन लाल साहू

उत्साह

बीता समय बात हुई बासी
कुछ मुस्कुराएं,कुछ बतियाएं
अपने दोस्तों को,शुभ चिंतकों को
भेजते रहें, शुभ कामनाएं
अब ऐसा ही उत्साह मनाएं
अच्छा खैर
ये सब करें या न करें
तुम तो बस इतना ही कर दें
दिल में खाई सी खुद गई है
नफरत और पराएं पन की
उसमें ढ़ाई आखर प्रेम की
भर लें
अंत हो समाज से बुराइयों का
अब ऐसा ही उत्साह मनाएं
ये न समझो कि
बस तुम ही,दुखी हो
हर आदमी का अभी,दर्द बहुत बड़ा है
याद तो वही रहता है
जो आखिरी सांस तक लड़ता है
यदि कुछ उपाय न सुझें तो
मौन ही रख लें
तोड़ दें, मनहुसियत
अब ऐसा ही उत्साह मनाएं
ये कैसा वक्त आया है
वातावरण प्रदूषित हो गया है
आंखो तक का पानी
दूषित हो गया है
ए सी और कूलर में
खुलती नही खिड़किया
नीरस हो गई है जिंदगानी
बीता समय बात हुई बासी
कुछ मुस्कुराएं,कुछ बतियाएं
अपने दोस्तों को, शुभ चिंतकों को
भेजते रहें शुभ कामनाएं
अब ऐसा ही उत्साह मनाएं

नूतन लाल साहू

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...