सुधीर श्रीवास्तव

सेवादार बनिए
************
आइए आज हम सब
अपनी संस्कृति और परंपरा का
एक नया अध्याय लिखें,
सेवाधर्म का नया आयाम गढ़ें
पुरातन व्यवस्था को
ध्यान में रखकर ही सही
सेवाधर्म का नया पाठ पढ़ें ।
कोरोना महामारी की
जब हर ओर दहशत है,
सेवाभाव से आओ मिलकर
इसका प्रतिकार करें।
दो गज दूरी का संदेश फैलाएं
मास्क, सेनेटाइजर कितना जरूरी है
ये सबको बताएं,समझाएं,।
रोजी रोजगार की समस्या 
बहुत कठिन है लेकिन,
कोई भूखा न रहे आसपास हमारे
हम सब की जिम्मेदारी है कि 
उसके खाने का प्रबंध कराएं।
सबका टीकाकरण हो
ये सुनिश्चित कराएं,
कोरोना पीड़ितों का मनोबल बढ़ायें।
अफवाह, भ्रम, दहशत न फैलने पाये
जनमानस को इससे हम सब बचाएं।
कोरोना रोग है महामारी है,
हौसला रखें,डरें नहीं ,इलाज कराएं
ठीक हो जायेंगे विश्वास दिलाएं,
ये दौर भी गुजर जायेगा
सबके मन में ये भाव जगायें।
अपने अपने स्तर से 
सब अपनी जिम्मेदारी निभाएं,
जो जितना कर सकता है
उतना जरूर करे ये भाव जगाएं,
सेवाधर्म के लिए सेवादार बनिए
सेवाभाव का नया अनुबंध लिखिए।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
     8115285921
©मौलिक, स्वरचित

नूतन लाल साहू

उल्टा.पुल्टा

राम कृष्ण की इस धरती में
बिना मोल तीनों बिंकै
भूख, गरीबी व फूट
जिसमें जितना सामर्थ्य है
लूट सकें तो लूट
चोरों व घूसखोरों पर
नोट बरसता है,हर रोज
ईमान के मुसाफिर
राशन को तरसता है
दिन.दिन बढ़ता जा रहा है
काले धन का जोर
लेकर कर्ज भारी
काम चल रहा है,सरकारी
जिसमें इलजाम है हजारों
उनकी हो रही है,आरती
अच्छा है कि,आप चुप रहिए
हिंदी के भक्त है,हम
जनता को यह जताते है
लेकिन अपने सुपुत्र को
कांवेंट में पढ़ाते है
फिल्मों पे फ़िदा है लड़के
फैंशन में फ़िदा है लड़की
सदाचरण में है,जीरो
किंतु खुद को,हीरो से नापता है
अच्छा है कि आप चुप रहिए
अंग्रेज कर गए,अपना काम
सत्ता की खुमारी में
आजादी सो रही है
जो कल तक थे
माता पिता गुरु के पूजारी
वो अब जुल्म ढा रहे है
स्वतंत्रता की मधु बेला में
अपना आपा भूल गए है
अच्छा है कि आप चुप रहिए

नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-2
  *अठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
सुनि अस बचन नंद बाबा कै।
गर्गाचार बाति कह मन कै।।
     सुनहु नंद जग जानै सोई।
     गुरु जदुबंस कुलयि हम होंई।।
कहे नंद बाबा हे गुरुवर।
अति गुप करउ कार ई ऋषिवर।।
    'स्वस्तिक-वाचन' मम गोसाला।
     अति गुप-चुप प्रभु करउ निराला।।
अति एकांत जगह ऊ अहई।
नामकरन तहँ बिधिवत भवई।।
    गुप-चुप कीन्हा गर्गाचारा।
    तुरतयि नामकरन संस्कारा।।
'रौहिनेय' रामयि भे नामा।
तनय रोहिनी अरु 'बल'-धामा।।
    रखहिं सबहिं सँग प्रेम क भावा।
     नाम 'संकर्षन' यहि तें पावा ।।
साँवर तन वाला ई बालक।
रहा सबहिं जुग असुरन्ह-घालक।।
    धवल-रकत अरु पीतहि बरना।
    पाछिल जुगहिं रहा ई धरना।
सोरठा-नंद सुनहु धरि ध्यान,कृष्न बरन यहि जन्महीं।
           नाम कृष्न गुन-खान,रखहु अबहिं यहि कै यहीं।।
                          डॉ0हरि नाथ मिश्र
                           9919446372

सुनीता असीम

दर्द में यार जब मुस्कुराने लगे।
फिर हमें वो हसी भी रुलाने लगे।
****
खो गया दिल कहां से कहां ये मेरा।
जब से नैनों के उनके निशाने लगे।
****
हौंसला साथ देने का जिनका नहीं।
दम हमें आशिकी का दिखाने लगे।
****
नाम से प्यार के जो थे अंजान से।
वो मुहब्बत की रस्में निभाने लगे।
****
देख हमको सनम मुस्करा जब दिए।
प्रेम के गीत हम तब से गाने लगे।
****
सुनीता असीम

लता विनोद नौवाल

सपने हुए चूर-चूर
हमने जिनके घर बनाए
 वह हमारे काम ना आए 
एक  महीने भी वो रखना पाए
छुट गयी नौकरी 
 पैदल चल कर आ गए 
जाने कहां से  इतनी ताकत पा गए रोजी रोटी ना रोजगार
 बंद हो गए कारोबार  
कोरोना ने बढ़ाई मजबूरी 
ना चाहते हुए हो गई दूरी 
सब सपने हुए चूर-चूर 
 कितने हुए मजबूर
 हर तरफ दिखती मायूसी
  जायें तो जायें  कहां 
भविष्य का भी कुछ नहीं पता
हमसे क्या हुई ऐसी खता
 क्यों हुए इतने मजबूर
 सपने सब हो गए चूर-चूर
 लता विनोद नौवाल

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मेरा सादर व सप्रेम प्रातःकाल का हृदयतल की गहराइयों से प्रणाम स्वीकार हो ,आज की रचना का शीर्षक ।।पैसा।। है,अवलोकन करें.....                                             पैसा रहा बदले के लिए मुल उपयोगु ना योगु देखाई।।                                       पैसा रहा उपयोगी बहू मुला यहु माँहि विनाशु भैखाई।।।                               पैसा मिले पै पूर जुरूरतु मुला ई भवा अपराधु सुखाई।।                                भाखत चंचल हीन मलीन औ दीननु मा यहु लालिचु खाई।।1।।                               पैसा कै लालिचु दै दै के कछू लोग अपराध ढकेलतु जाई।।                            पैसा भवा मनयी कै रिपू यहि पैसा मँहय दानवता छिपाई।।।                          जुरूरतु राखौ सीमितु ही यहु लालचि रैनुदिना अरूझाई।।।                              भाखत चंचल पैसै  लिए मनयी घर छाँडि़ विदेशहु जाई ।।2।।।                        ध्यानु ईमानु रखौ इन्सानु ना पैसा हितु दानव बनि जाई।।                  .             अपराधु छिपाये छिपाना कबौ  उघरे जु जबै आदरू घटि जाई।।                       मान औ आदर पावै मा बेरि मुला यहु जातु ना बेरि लगाई।।।                          भाखत चंचल या पैसा ही बिगारै ईमानु औ काव बताई।।3।।                           पैसा बडो़ ना रहा कबहूँ पर पानी गये कबौ पानी ना आई।।                            पैसा ते नाहि खरीदा गा पानी  ई पैसा कमावतु पानिनु ताई।।।                           रूखा औ सूखा तौ नीको बहू विधि छप्पनभोग अकारथु जाई।।                    भाखत चंचल मान गये सम्मान घटावतु  नीरहु जाई।।4।।                                  आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओमनगर, सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी उ.प्र. ।। जय जय जय धनवन्तरि,जय हिन्द ,जय भारत,वन्देमातरम् ,गाँव देहात की खबरशहर पर भी नजर। द ग्राम टुडे ।।दैनिक, साप्ताहिक व मासिक मैग्जीन ,यूट्यूव चैनल भी।। एल आई सी आफ इण्डिया, प्रोडक्ट प्रचारक व सेल्स इक्जीक्यूटिव ,डी बी एस कोलकाता ।।भारत।।

सुधीर श्रीवास्तव

डाक्टर
*******
धरती पर साक्षात
भगवान का प्रतिनिधि है,
रोतों को हँसाता है
व्याधियों से मुक्ति दिलाता है,
जन जन को
 शारीरिक परेशानियों से 
बचाने का सदा
अथक प्रयास करता है।
दिन रात का भेद किए बिना
सेवा भाव से डटा रहता है।
अपनी निजी सुख सुविधा छोड़
सेवा को तत्पर रहता है,
समय से भोजन, भरपूर नींद
अपनी स्वतंत्रता से वंचित रहता है,
परिवार की शिकायतें सहता है
यार दोस्तों के उलाहने सुनता है
सबको संतुष्ट करने की कोशिश में
खुद से असंतुष्ट रहता है।
चिड़चिड़ाता भी है
पर खुद में समेटे रहता है,
बीमारों के परिजनों के आक्रोश भी
जब तब सहता है,
ईश्वर को यादकर 
अपना चिकित्सकीय धर्म निभाता है,
ऊँच नीच हो जाने पर
धमकियां सहता है
गालियां, अभद्रता बर्दाश्त करता है
मारपीट भी सहन करता है,
फिर भी अपना धर्म ,कर्तव्य समझ
जी जान से जुटा ही रहता है,
अपने चिकित्सकीय ज्ञान और
ईश्वर के भरोसे 
अपना कर्म करता है।
धरती पर ईश्वर का दूसरा रूप है 
जानता है मगर ईश्वर तो नहीं 
यही बात दुनियां को 
समझा ही तो नहीं पाता,
मोहपाश में बंधा परिजन
यही समझना भी नहीं चाहता,
ऐसे में डाक्टर ही 
कोपभाजन बनता,
जान भी अपना जोखिम में डाले
सब कुछ सहता परंतु
कर्तव्य की आवाज सुन
फिर अपने कर्तव्यमार्ग पर 
आगे बढ़ता जाता।
विडंबनाओं का खेल यहां भी है
चंद बेइमान और 
धनपिपासुओं के कारण
समूचा डाक्टर वर्ग
संदेह की नजरों से देखा जाता,
फिर भी डाक्टर के बिना
किसी का काम भी कहाँ चल पाता?
आज कोरोना के दौर में
घर परिवार से दूर रहकर
सुख सुविधा त्याग
जानपर खेलकर भी
दिन रात एक एक मरीज को
जीवन देने की कोशिशों में 
दिन रात लगा है,
जाने कितने डाक्टरों ने
अपना जीवन खो दिया है,
फिर भी साथी डाक्टरों ने
अपने साथी के खोने का ग़म
खुद में जब्त करके भी
अपने कर्तव्य की खातिर 
खुद को झोंक रखा है।
डाक्टर ही तो हैं भगवान नहीं हैं
फिर भी धरती के इस भगवान ने
भगवान का सम्मान बचा रखा है।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
        गोण्डा, उ.प्र.
     8115285921
©मौलिक, स्वरचित

डाॅ०निधि त्रिपाठी मिश्रा

*दौर कठिन है दोस्तों* 

दौर कठिन है दोस्तों, ये सोच बात कर लिया करो। 
गुजर जायेगा आहिस्ता, धैर्य हृदय धर लिया करो। 
माना कि गम बाँटेंगे नहीं, न समझ सकेंगे सब तुमको,
बोझिल मन कुछ हल्का होगा, इसलिए दर्द कह दिया करो।
दौर कठिन है दोस्तों..... 

हाथ बढाओ और थाम लो, गिरते का सहारा बना करो। 
जीतें हैं सभी अपनी खातिर ,दूजे के लिए भी जिया करो। 
आप रोशनी बन जाओगे, सूरज भी कहलाओगे। 
कुछ भटके मायूस लोग हैं, दीपक बन जल लिया करो।

दौर कठिन है दोस्तों.... 

कोई फरिश्ता आता नहीं, आफत में साथ निभाने को, 
मगर मुसीबत की हालत में, सिर्फ इंसा, बन जाया करो। 
सुख- दुःख तो आना- जाना है, इसका क्या रोना, रोना ।
सब बन्दे हैं इक मालिक के, आपस में मिलकर रहा करो।

दौर कठिन है दोस्तों..... 

मुश्किल रातें, दुष्कर दिन हैं, हैं कदम- कदम पर मजबूरी।
जीने के लिए, जो पल हैं मिले, खुल कर उनको जी लिया करो। 
कब ,कौन ,राह में छोड़ चले, हमदर्द रहे, ना हमसाया, 
होठों पे हँसी,दिल को हो सकूँ,कुछ बात ऐसी कह दिया करो।

दौर कठिन है दोस्तों...... 

गुजरें हैं जमाने साथ बहुत, अब वक़्त हुआ है दूरी का। 
हो बेपरवाह इस दूरी से, अहसास मुहब्बत किया करो। 
हौसला अगर, ना पस्त हुआ, महफूज गुलिस्ताँ फिर होगा। 
आबाद रहे ये गुल-गुलशन, फरियाद, दुआ दिल किया करो।

दौर कठिन है दोस्तों....

स्वरचित-
 *डाॅ०निधि त्रिपाठी मिश्रा*

अभय सक्सेना एडवोकेट

( मेरी दुनिया मेरी मां में प्रकाशन हेतु प्रेषित)
**********************
मां ने चरणों में स्थान दिया।
+++++++++++++++++++
अभय सक्सेना एडवोकेट
################

नौ माह कोख में रखकर पाला
हम पर मां ने उपकार किया।
लातें हजारों मारी हमने
कष्ट सहा पर उफ़ ना किया।

बड़े सहज कर रखा मां ने
प्रसव पीड़ा को सहन किया
लाड़ प्यार से पाला मां ने
सब सुख हम पर वार दिया।

जब भी मुसीबत आई मां ने
अपने आंचल में छुपा लिया।
हर गलती को मेरी मां ने
अपने मथ्थे चढ़ा लिया।

सबकुछ हमको सिखाया मां ने
फिर भी कभी ना गुमान किया।
अभय नवाते शीष हमेशा
मां ने चरणों में स्थान दिया।
************************
अभय सक्सेना एडवोकेट
48/268,सराय लाठी मोहाल, जनरल गंज, कानपुर नगर।
9838015019,8840184088

मीरा आर्ची चौहान

*दूरसंचार*

वैश्विक जागरुकता की कड़ी है
दूरसंचार ।
सामाजिक परिवर्तन की लड़ी है
दूरसंचार ।।

तकनीकि दूरियांँ  कम कर दिया
दूरसंचार ।
पारिवारिक दूरियाें को हल किया
दूरसंचार ।।

अर्थव्यवस्था का सशक्त माध्यम है
दूरसंचार ।
आर्थिक समृद्धि का पर्याय बना है
दूरसंचार ।।

कृषि तंत्र का अतिविश्वनीय साधन 
दूरसंचार ।
शिक्षा के विस्तार का संसाधन है 
दूरसंचार ।।

साइबर  अपराधों का हथियार ये
दूरसंचार ।
मौत, दुर्घटनाओं का औजार है ये
दूरसंचार ।।

आम आदमी की पहली जरुरत है
दूरसंचार ।
विकसित राष्ट्र का अब पर्याय  है
दूरसंचार ।।

*मीराआर्ची चौहान*
    *कांकेर,छग*

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को  सांध्यकालीन प्रणाम ,आज की ऐतिहासिक रचना का अवलोकन करें....                              धन्य कहूँ हौं जसोदा दमोदरु  धन्य कहूँ यही हिन्द कै माटी।।                               धन्य बखानौं सरदार पटेल औ धन्य कहौ हियाँ कै परिपाटी।।                       देशू अजाद मा आये नरेन्द्र औ वयसेनु आये नेतन्याहू सुभाटी।।                           भाखत चंचल गयौ सालु सत्तर शतकनु आठु कै  जोरि सपाटी।।1।।।                   देखनु लागै छोटु मुलुक मुल वा व्योहारू  बखानी ना जाती।।।                     स्वागतु भव्य भवा जेसु वहि छिनु  हालि ना देखी विरोधिनु जाती।।।                   नेहु मिलैं ससनेहु मिलैं अरू अइसेहु मेलु लिखी नहि जाती।।।                          भाखत चंचल ताहि दशा  यहू मेलू उभौ कै बखानि ना जाती।।2।।।                     कुटुम्बु परम्परा हिन्द रही अरू याही खरी हिन्दुस्तान कै माटी।।                    दोस्ती करैं निबहँय सबु भाँति  औ भरि भरि अंकु लगावतु बाटी।।                         जेहि बातु जुबानु उचारि धरैं पग खैंचतु नाहि  भले नसि पाटी।।                          भाखत चंचल नेता कहैं औ लखै ह्वै प्रसन्न शहीदु सुभाटी।।3।।                          फूली ना समानु ई हिन्द धरा वतनी मुरुझानी परोसिनु माटी।।                       इक्कीस हजारु रहे दुई कै उन्नीसु लिखी ऐतिहासिक पाटी।।                              यहू हिन्द कै पूत दहाडि़ रहा जेस ठाढं खुँखारू ई शेरू सुहाटी।।                            भाखत चंचल पूत सपूत जना वहि मातु जसोदा जू माटी।।4।।                          आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओमनगर, सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र.।मोबाइल...8853521398,9125519009।।।         जय हिन्द ,जय भारत ,जय जय जय धनवन्तरि, वन्दे मातरम् ,गाँव देहात की खबरशहर पर भी नजर ,द ग्राम टुडे ,दैनिक व साप्ताहिक ,यू ट्यूव चैनल भी ,एल आई सी आफ इण्डिया. डी बी एस. प्रा. लि. कोलकाता।। भारत।। प्रोडक्ट प्रचारक. व सेल्स इक्जीक्यूटिव ।।

रामकेश एम यादव

कुदरत!

कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।
निर्ममता से काटे जंगल,
हरियाली उसकी उजाड़ दिया।

पावस ऋतु जो नहलाती थी,
झूलों पे वो मुस्काती थी।
कोमल -कोमल उन अंगों से,
बड़े प्यार से सहलाती थी।
उन कजरारे मेघों को हमने
आखिर क्यों दुत्कार दिया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

पहले तो आशिक थे वन के,
होते थे वो सादे मन के।
किए न सौदा कभी धरा का,
थे महकते चाल -चलन के।
नदिया, पर्वत, पवन कुचलकर,
हमने कारोबार किया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

भरे थे नभ में कितने परिन्दे,
एटम -बम से हुए हम नंगे।
बरस रही है मौत ये कैसी,
राह से भटके हम क्यों बन्दे?
अंत नहीं मेरी हवस की यारों!
हमने जीवों का संहार किया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

सजाओ मन तब सजेगा जंगल,
चारों तरफ हो मंगल-मंगल।
छनके प्रकृति की झांझरिया,
गाँव -गाँव हो कुश्ती -दंगल।
कैसे समझेगा प्रकृति का बैरी,
सजी दुल्हन जो तार-तार किया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

निशा अतुल्य

जीवन

जीवन है चलने का नाम 
पल पल हरपल चलता जाए
सुख दुख है इसके ही पहिए
जीवन गाड़ी हिचकोले खाए ।

कर्म सदा इसका है साथी
स्वाभिमान जीना सिखलाए ।
अभिमान न करो कभी भी
अंत समय कुछ संग न जाए ।

कुछ नहीं अपना है इस जग में 
जो यहॉं पाया,वो यहीं रह जाए
अच्छे कर्म किये जो हमने
वो ही अपना नाम बढ़ाए ।

कुछ नियम है इस समाज के
जीवन में सदा उन्हें निभाए ।
अपनी सभ्यता,अपनी संस्कृति
जीवन भर जग में नाम बढ़ाए ।

धैर्य और सहनशीलता 
चेहरे की मुस्कान बढ़ाए 
आए कितनी बाधाएं चाहे 
अंततःसफलता जीवन पाए।

जीवन है उसकी ही धरोहर
जब तक वो चाहे हम मुस्काए
जब हो जाए कार्य पूर्ण तो
प्रभुवर अपने पास बुलाए ।

प्रभु मिलन की चाह मन में 
नित नित अपने बढ़ती जाए
मोह माया का छूटे दामन 
भव से पार मोक्ष हम पाए ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

कोमल पूर्बिया कुमोद

*शीर्षक:-मैं मजदूर हूँ मजबूर*

मैंने बनाये मंदिर,मस्जिद
मैंने बनाये गिरजाघर
लेकिन मैं नही 
बना पाता अपना घर।

बहुत बनाई बहु मंजिला इमारत
 संग में बंग्ला और कोठी
फिर भी मेरे पास में
एक झोपड़ी ही होती।

बना दिए मैंने महँगे -महँगे
शॉपिंग मॉल और दुकान
लेकिन मेरा नही हुआ
अब तक पूरा मकान

हाँ मैंने बनाये विधानसभा,
लोकसभा संसद भवन
लेकिन अपने वास
पर न कर सका चमन।

हाँ, मैंने ही बनाये
कार्यालय सरकारी
लेकिन मैं ना बना 
सका अच्छी रहनवारी

कुमोद कहे हे मजदूर
तू क्यों हैं इतना मजबूर
तू सबको देता खुशियाँ
तू ही क्यों खुशियों से दूर।


कोमल पूर्बिया "कुमोद"
ओगणा,उदयपुर (राज)
क्षेत्रीय अध्यक्ष,
क्राइम कंट्रोल रिफॉर्म ऑर्गेनाइजेशन, इंडिया

स्वरचित, मौलिक,सर्वाधिकार सुरक्षित रचना

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(16/14)
बनना नहीं निराशावादी,
कभी विफलता पाने से।
सुखमय होगा जीवन केवल,
ऐसा भाव भगाने से।।

हो जाओ संकल्पित मानव,
रजनी शुभकर करने को।
सुखद ज्योति ले दिनकर निकले,
तमस-विषाद निगलने को।
साहस-धैर्य धरोहर बनते-
केवल सोच जगाने से।।
     ऐसा भाव भगाने से।।

नकारात्मक सोच है दुश्मन,
मन में इसे न पलने दो।
पल-पल चैन छीनती रहती,
इसे न साथी बनने दो।
चाँद-सितारे दिखेंगे सुंदर-
आशा-दीप जलाने से।।
     ऐसा भाव भगाने से।।

उचित न लगता डर से डरना,
यह कायरता सूचक है।
पुरुष न,उसको क्लीब कहे जग,
यह विवेक उन्मूलक है।
अर्जुन होता सफल युद्ध में-
मन-अवसाद मिटाने से।।
    ऐसा भाव भगाने से।।

रोग-भोग-संयोग जगत है,
इसको हमें समझना है।
यही सत्यता जीवन की है।
यह संतों का कहना है।
सब कुछ लगता शुभ-शुभ मित्रों-
शुभ विचार उर लाने से।।
   बनना नहीं निराशावादी,
    कभी विफलता पाने से।
   सुखमय होगा जीवन केवल-
   ऐसा भाव भगाने से।।
             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

चाहतो के दिये जलाए रखिये
चाहतों कि हद से गुजरना सीखिये।।

चाहते है तो जिंदगी जिंदा चाहतों का मीट जाना जिंदगी का मीट जाना।।

चाहत जज्बा है जिंदगी का करम करिश्मा है चाहत है तो भगवान खुदा की कायनात में जिंदगी जिंदा।।

चाहतों कि तकदीर तारीख के वजूद  जिंदा  चाहत जिंदगी को जीने का अंदाज़ ।।                                   चाहते जमीं आसमान चाहते इम्तेहान 
चाहते कोशिशों को अंजाम चाहत दिल की आवाज़।।

चाहत आरजू हकीकत नाज़ चाहत ताकत चाहत किस्मत चाहत से मिल जाते खुदा भगवान।।

चाहत ऊंचाई चाहत गहराई चाहत शोला शबनम आग की राह चाहत से तारीखे बनती  चाहत से ही जंगो के मैदान।।
चाहत  इश्क मोहब्ब्त चाहत की दुनियां बाज़ार चाहत का कोई मोल नही चाहत का कोई तोल नही।।

चाहर पर ज़ोर नही चाहत शोर नही
चाहत से सूरज की किरणें चाहत से चाँद चाँदनी का अरमान।।

चाहत मोहब्बत की बुनियाद चाहत में चालाकी नही जम्हूरियत चालाकी नही चाहत मासूम मासूमियत जज्बा जज़्बात।।
चाहत का आकाश बनते विगड़ते हालात चाहत दिल सांसों धड़कन से
निकली निःशब्द निस्वार्थ आवाज़।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

कोमल पूर्बिया कुमोद

*शीर्षक:-कोई सीखे नारी से*

अपने अरमां दबाना
पर आँगन महकाना
हिय मे दुःख दफनाना
दर्द में भी मुस्कुराना
             कोई नारी से सीखे......

होती ये दो घर का गहना
नारी ही होती माँ-बहना
अंदर ही सबकुछ सहना
किसी से कुछ ना कहना
              कोई नारी से सीखे.....

दो कुल की लाज रखना
अपना पराया न परखना
फर्ज से कभी दूर न हटना
फूँक-फूँक कर कदम रखना
              कोई सीखे नारी से.....

हमेशा  ही  रखना  संतोष
न दिखाना कभी आक्रोश
बनाएं रखना पास-पड़ोस
अक्सर ही रहना खामोश
               कोई सीखे नारी से.....

पिता का घर छोड़ना
पति से नाता जोड़ना
कुमोद कहे ये समझना
पिता का मान ऊँचा रखना
                कोई सीखे नारी से.....

कोमल पूर्बिया "कुमोद"
सलूम्बर,उदयपुर(राज.)

सुषमा दीक्षित शुक्ला

खुली आंखों से बाट निहारूँ,
 बापू अब सपने में आते ।
 मन ही मन में रोज पुकारूं ,
बापू अब सपने में आते ।
 स्वप्न  देश के वासी बापू ,
रस्ता भूल गए हैं घर की ।
 वरना उनका मन ना लगता,
 सूरत देखे बिन हम सबकी।
 सपने में वैसे ही मिलते ,
जैसे  कहीं गए ना  हो  ।
सूरत वही ,वही पहनावा ,
वही बोल वह नैना  हों ।
जगने पर गायब हो जाते,
 बापू अब सपने में आते।
 खुली आंख से बाट निहारु ,
बापू अब सपने में आते ।
 स्वप्नदोष वह कैसा होगा ,
जिसमें जा बापू हैं जा भटके ।
रोज चाहते होंगे  आना ,
 पर ना जाने क्यों है अटके ।
स्वप्न देश की रस्ता पूछूं,
 मुझको कौन बताएगा ।
सूरत प्यारे  बापू की वो,
मुझको कौन दिखाएगा।
 पहले देर कहीं जो होती,
 मंदिर में परसाद मानते।
 और बाद में बापू से ही ,
उसका पैसा तुरत मांगते ।
अब कितना परसाद चढ़ाऊं,
 क्या  बापू  आ जाएंगे ।
 जगती आंखों देख सकूंगी,
 क्या बापू मिल जाएंगे ।
 खुली आंख से बाट निहारु,
 बापू अब सपने में आते ।
मन ही मन में रोज पुकारूं,
 पर बापू सपने में आते ।

 सुषमा दीक्षित शुक्ला 2 अगस्त 96

शुभा शुक्ला मिश्रा अधर

विनती       गीत      
******     *****
बचा लो अपना यह संसार।
सृष्टि के पालक रचनाकार।।

पुकारे आर्त कंठ मन प्राण।
तुम्ही से होना है कल्याण।।
कृपा किंचित कर दो भगवान।
कहा अब इतना लो प्रभु मान।।
रहेगा याद सदा उपकार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के•••••••••••••••••।। 

भँवर के मध्य रहा जग झूल।
करोगे कब स्थिति अनुकूल?
विकल हिय चित्त हुआ अति क्लांत।
विवश उद्विग्न अथाह अशान्त।।
मिटा दो बढ़ते कष्ट-विकार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के••••••••••••••••।।

जगत में फैली है जो व्याधि।
मिटा देगी क्या ईश-उपाधि?
रहेंगे अगर न जीव विशेष।
कहो क्या रह जायेगा शेष?
भयावह कोरोना को मार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के•••••••••••••।।

करो अब विस्मृत सब अपराध।
करो पूरी हर मन की साध।।
मुदित होकर हे दीनानाथ!
सदा देना पीड़ा में साथ।।
सुनो प्राणी की करुण पुकार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के पालक••••••••••।।

खुशी के दीप जलें दिन-रात।
करें हिय सदा परस्पर बात।।
बुझे दुख द्वेष द्रोह की आग।
रहे चिरकाल 'अधर' अनुराग।।
सभी को दो ऐसा उपहार।
बचा लो अपना यह संसार।।
सृष्टि के पालक••••••••••।।

*****************************

आप आत्मीयजनों से अनुरोध है #कोरोना को हराना है🔥,तो कृपया जीवन-रक्षक निर्देशों का पालन अवश्य करें।सदैव शुभ हो।🙏🌹

    शुभा शुक्ला मिश्रा 'अधर'❤️✍️

कुमकुम सिंह

आप यूं अचानक चले जाएंगे ,
हमें छोड़ तनहा कर जाएंगे ।
यह हमने सोचा ना था ,
वक्त ऐसा भी आएगा यह हमने जाना ना था।

आपके जैसा मुखारविंद हंसमुख चेहरा,
जैसे कि मानो कुछ कहने को तत्पर है।
काल ने किस तरह से अपने गाल में आपको समाया होगा,
आप को ले जाते वक्त उसको भी तो रोना आया होगा।

आपके परिजनों चित्त परिचितों का भी दिल दहलाया होगा,
ऐसे बहुमुखी को लेकर जाने में उसे शर्म भी तो आया होगा।
आप थे बहुगामी यह अपने कर्मों से दिखलाया हमें,
नीरज की तरह कीचड़ में भी खिल कर ,
अपने आप को कमल साबित कर बतलाया।
              कुमकुम सिंह

स्वर्गीय आदरणीय नीरज जी को मेरी यह चंद लाइने श्रद्धांजलि में भेंट स्वरूप, 🙏🏻🙏🏻💐🙏🏻🙏🏻

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

आज़माने की बात करते हो
दिल दुखाने की बात करते हो

हमने देखा है अपनी आँखों से
तुम ज़माने की बात करते हो

सारी दुनिया उदास लगती है
जब भी जाने की बात करते हो

मंज़िलों की सदा पे तुम हमसे
लड़खड़ाने की बात करते हो

मुझको ज़ख़्मों की देके सौगातें
मुस्कुराने की बात करते हो

छेड़ कर साज़े-दिल के तारों को
भूल जाने की बात करते हो 

अपने हाथों से फूँक कर तुम अब
आशियाने की बात करते हो

मौसम-ए-पुरबहार में *साग़र*
तुम न आने की बात करते हो 

🖋️विनय साग़र जायसवाल, बरेली
11/4/1983

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-1
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1
रहे पुरोहित जदुकुल नीका।
पंडित गर्गाचारहिं ठीका।।
    आए गुरु गोकुल इक बारा।
    जा पहुँचे वै नंद-दुवारा ।।
पाइ गुरुहिं तहँ नंदयिबाबा।
करि प्रनाम लीन्ह असबाबा।।
     ब्रह्मइ गुरु अरु गुरु भगवाना।
     अस भावहिं पूजे बिधि नाना।।
बिधिवत पाइ अतिथि-सत्कारा।
भए मगन गुरु नंद-दुवारा।।
     करि अभिवादन निज कर जोरे।
      कहे नंद अति भाव-बिभोरे ।।
तुमहीं पूर्णकाम मैं मानूँ।
केहि बिधि सेवा करउँ न जानूँ।।
    बड़े भागि जे नाथ पधारे।
     अवसि होहि कल्यान हमारे।।
निज प्रपंच अरु घर के काजा।
अरुझल रहहुँ सुनहु महराजा।।
     पहुँचि पाउँ नहिं आश्रम तोहरे।
      छमहु नाथ अभागि अस मोरे।।
भूत-भविष्य-गरभ का आहे।
जानै नहिं नर केतनहु चाहे।।
     ब्रह्म-बेत्ता हे गुरु ग्यानी।
     जोतिष-बिद्या तुमहिं बखानी।।
करि के नामकरन-सँस्कारा।
मम दुइ सुतन्ह करउ उपकारा।।
    मनुज जाति कै ब्रह्मन गुरुहीं।
    धरम-करम ना हो बिनु द्विजहीं।।
                डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मुझ अकिंचन का प्रणाम, आज की रचना ।।सम्भावना।। शीर्षक।। पर है,अवलोकन करें.. संसारू बँटा लगै भागु मा दुईऔ कयामतु लागि गयी नकुचाई।। दीनदयाल दयो सद्बुद्धि नाही तौ सृष्टि रसातलु जाई।। फलस्तीनु भयो बरबाद मुला अबु लागतु बारी है पाकु कै आई।। भाखत चंचल हे करूनानिधि कैसी बयारू बही चौपाई।।1।।। भारत सैन्य विचारू करैअमरीका औ चीन तनातनी आई।। हमदर्द रहा फलस्तीनौ मुला सेना दयी इजरैलु अँटाई।।। भाखत चंचल हे करूनानिधि कैसी बयारू बही चौपाई।।2।। सत्तावनु मुस्लिम देखु जहानु रहे सबु एकु जोकालु देखाई।। फूटि गयी एकता उनकय औ आजु धडा़ दो परै दिखलाई।। भाखत चंचल हे करूनानिधि दयो सद्बुद्धि औ युद्ध बचाई।।3।। तूफानौ थम्हा औ कोरोनौ नसे औ यहू युद्ध रूकै जबु भाई।। राकेट और मिसाइल युद्ध दहाडि़ रहा बोफोर्स ऊ जाई।। हाइपरसोनिक याकि कहौं जो रहे सुपरसोनिक होतु लडा़ई।।। भाखत चंचल हे करूनानिधि सृष्टि तोहारू विनाशु पै आई।।4।। आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र.।।मोबाइल...8853521398,9125519009।।

नूतन लाल साहू

चिंता

धुंआ उमड़ता है,भीतर ही भीतर
दहके जैसे कोई अवा
लाइलाज ये रोग है
जिससे चतुराई,घट जाता है पूरा
इसका ना तो इलाज है
और ना ही है,कोई दवा
गीली लकड़ी सुलगे जैसे
ऐसे ही काया,जलता है हमेशा
मूंद लें पलके, सपनों में खो जा
जुगत करो जीने का
चिंता के वजह से ही,होती है बीमारी
कैसे समझाऊं,मन को मैं
गलती से कोई,सबक न लिया
यही तो है,नादानी
अंधड़ सी बनकर उड़ती है
अंदर ही अंदर,पागल मस्त हवा
लाइलाज ये रोग है
और ना ही कोई दवा
समय बड़ा अनमोल है
गया समय,फिर नही आयेगा
किसी से नही,शिकवा गिला है,पर
क्या गलत है और क्या सही है
बस इतना ही,समझ ले बंदे
मुझे तो बस इतना ही,चिंता है
ये किसी को,बात खुलकर
कभी बताते ही नही है
चिंता से चतुराई घटय
दुःख से घटय शरीर
सब कुछ,खाक हो जाता है
जैसे लकड़ी में लगता है घून

नूतन लाल साहू

सुधीर श्रीवास्तव

बीत गई सो बीत गई
*****************
न शोक करो
न खुशफहमी पालो,
जो बीत गई,वो बात गई
अब वो इतिहास हो गई।
वो कहावत तो सुनी है न
रात गई ,बात गई
सो अब वर्तमान में लौटिए,
अब आज कुछ कीजिए
अंतर्मन में झांकिए
भविष्य का विचार कीजिए,
बीते कल के 
अच्छे बुरे के चक्कर में
आने वाला कल 
न खराब कीजिए।
बीता कल अच्छा नहीं था
तो भी कोई बात नहीं,
आने वाले कल को तो
सुधार लीजिये,
बीता कल अच्छा था तो भी
आने वाले कल को
और भी अच्छे साँचे में 
ढालने का इंतजाम 
आज से नहीं अभी से ही
शुरु कीजिए।
● सुधीर श्रीवास्तव
     गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...