सुधीर श्रीवास्तव

विश्व चाय दिवस पर विशेष
(21 मई )
चाय
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आज की सर्वाधिक जरूरतों में
चाय भी प्रमुख है,
कहने को हम कुछ भी कहें
पर बहुत बड़ा रोग है।
फिर भी आज की अनिवार्यता है
चाय के बिना रहा नहीं जाता है,
बहुतों की सुबह नींद से
पीछा ही नहीं छूट पाता,
वहीं न जाने कितनों का
शौच तक साफ नहीं होता।
घर में मेहमानों की इज्जतनवाजी में
चाय सबसे जरुरी है,
आफिस में रहने पर
चाय तो मजबूरी है,
अपना काम निकलवाना है तो
चाय जैसे संजीवनी है।
देर तक काम करने के लिए
चाय टानिक सी है,
टाइम पास करने के लिए
चाय अंगूरी सी है।
आजकल चाय जो नहीं पीते
समझना मुश्किल है कैसे वे जीते हैं
हर किसी के लिए चाय की  
अपनी महत्ता है,
कोई एक दो बार में 
संतुष्ट हो जाता ,
किसी किसी का बार बार 
पीना भी मजबूरी है।
अंग्रेज हमें चाय की चस्का
लगाकर निकल गये,
आज हमने उसे बड़े प्यार से
अपना सबसे प्रिय पेय बना रखा है।
आज तो आलम यह है कि
हम इसे छोड़ भी नहीं पाते,
छोड़ें भी तो कैसे भला
चाय के बिना रहने की 
बात भी भला कहाँ सोच पाते?
चाय सर्वधर्म सम्भाव का प्रतीक है,
ऊँच नीच ,अमीर गरीब
जाति धर्म मजहब से दूर
चाय की सबसे प्रीत है।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मेरी तरफ से सुबहोसुबह का प्रणाम और आप सभी के आशीर्वाद की कामना करताहुआ दिनानुदिन हमारी आप सभी की प्रेरणा से प्रारम्भ की गयी काव्य रचना ।।धनवन्तरि शतक।। धीरे धीरे पूर्णता को प्राप्त हो रही है ,आगे यह विचार आ रहा है कि रोग और उनकी दवा पर अगली पुस्तक में छन्द माध्यम से ही समाज में प्रसारित करूँ ,मगर यह तभी सम्भव होगा जब हमारे सीनियरान और पाठक इसी तरह प्यार और आशीर्वाद देते रहेगें आज मैने ।।लगन।।शब्द।। को ध्यान में रखकर रचना की है ,यहाँ मैं अपने ग्रेट अपलाइन मि. सूरज कश्यप सर को अन्तरात्मा से हार्दिक धन्यवाद देना चाहूँगाकि काव्य शतक पूरा होने में उनका विशेष उत्साहवर्धन रहा, अवलोकन करें....                                   रूचि जागे हिया सबु काजु सधै बिनु इच्छा किहे नहि होतु भलाई।।                 इच्छा जगी जबहीं जियरा  तबै आयै पै औसरु हाँथु लगाई।।                             जागी रही इच्छानु जबै भरि चोंचु ते नीरहु आगि बुझाई।।                              भाखत चंचल प्रश्न भये तौ रूचिकर उत्तरू आवतु साँई।।1।।                            इच्छा जगी जियरा कर्मवीरू तौ खोदि पहाड़ तै सरिता बहाई।।                          इच्छा जगी जियरा मरूभूमि  बहा श्रमुशीकरू  फसिलु उगाई।।                      भाखत चंचल नेहु जगी तबै  विषु प्यालिनु कंठ लगाई।।2।।।                       चाह रही तबै झाँसी कै रानी  साजि के सैन्य फिरंगी भगाई।।                             चाह उठी जियरा महराणा  तबु जंगल जंगल घूमिह जाई।।                           चाह उठी तबै घास कै रोटी  मुगल सम्राट ते कीन्हि लडा़ई।।                        भाखत चंचल चाह नही तौ परोसी   हु थाली उदरू नहि जाई।।3।।                      चाह जगी  जियरा तौ अपाला  जौ दाग सफेद मिटाय धराई।।।                             चाह उठी  जियरा तबै मूरख पाठु औ ध्यान कालीदास कहाई।।                     चाहनु बातु रही जियरा  रत्नाकर हू बाल्मीकि कहाई।।                            भाखत चंचल चाह सबूत तौ बाबा  हू राम चरित्र जू गाई।।4।।                            गरीबी हटैगी नसैगी बेमारी यही धनवन्तरि वीणा उठाई।।                       औसरु हाथु गँवावै जोई तौ निरा निर्बुद्धि कहावौं हौं भाई।।                        अइहँय लक्ष्मी नेटवर्कु किहै  जौ चाह उठै तौ नेहू लगाई।।                              भाखत चंचल आलसि छाँडि रचाओ समूह ओ लाभु कमाई।।5।।                      आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल। ओमनगर ,सुलतानपुर,  उलरा,चन्दौकी ,अमेठी .उ.प्र.। प्रोडक्ट प्रचारक व सेल्स इक्जीक्यूटिव डीबी एस ,प्रा. लि. कोलकाता ,भारत।। गाँव देहात की खबर शहर पर भी नजर। द ग्राम टुडे।। दैनिक, साप्ताहिक व मासिक मैग्जीन तथा यू ट्यूव चैनल भी।। एल आई सी आफ इण्डिया।। भारत।। सलाहदाता।। जय जय जय धनवन्तरि,जय हिन्द, जय भारत,वन्दे मातरम् ।।

सुधीर श्रीवास्तव

सादर समीक्षार्थ

तस्वीर
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मन की आँखों से देखकर
बड़े प्यार से मैंने उसकी
खूबसूरत सी तस्वीर बनाई,
तस्वीर ऐसी कि मुझे ही नहीं
हर किसी को बहुत भायी।
आश्चर्य मुझे भी हुआ बहुत
ऐसी तस्वीर भला मुझसे 
कैसे स्वमेव बन ही पायी,
खैर ! मुझे तो वो ताजमहल से
कहीं कमतर नजर नहीं आई।
पर हाय रे मेरी किस्मत
तूने ये कैसी कलाबाजी खाई,
तस्वीर ने अपने रंग दिखाये
खूबसूरत रंग दम तोड़ने लगे।
खूबसूरत सी तस्वीर भी अब 
शनैः शनैः बदरंग होने लगी,
उसके अहसास की खुश्बू भी अब
मेरे मन से थी खोने लगी।
और तो और उसका चेहरा भी
उसकी तरह ही स्याह दिखने लगा,
शायद उसकी असलियत का
पर्दा अब धीरे धीरे उठने लगा।
दोष उसका या तस्वीर का नहीं
दोष मेरी सोच कल्पनाओं का था,
मैं ही बिना सोचे समझे बस
ऊपर ऊपर ही था उड़ने लगा।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

सुनीता असीम

समसामयिक

बढ़ गए हैं काफिले खामोशियों के।

कदम कम साथ हैं अब साथियों के।

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बदन से जान का है फासला कम।

गिरे हैं फूल कितने टहनियों के।

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तबाही का है मंज़र चारसू अब।

लगे झटके हैं सबको बिजलियों के।

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हैं चहरे श्वेत पड़ते आज सबके।

उड़े हैं रंग भी तो तितलियों के।

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कहीं खाना कहीं सिन्दूर गायब।

कदम ठिठके हुए हैं पुतलियों के।

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सुनीता असीम

२१/५/२०२१

निशा अतुल्य

गर्व कियो सो ही हारो
21.5.2021
मनहरण घनक्षरी
8,8,8,8,7 चार चरण पदांत गुरु 

गर्व कियो सो ही हारो
स्वाभिमान को संभालो
अभिमान होता बुरा
बात जान लीजिए।

थोड़ा उपकार करो
अँखियों को नीची रखो
जान नहीं पाए कभी
दान तभी दीजिए।

गुप्त दान है जरूरी
लालसा से रहे दूरी 
सब जन एक से हैं
मन प्रण कीजिए ।

ताज तख्त लूट गए
गर्व में जो जन खोए
समूल का नाश हुआ
जहर न पीजिए।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

रामकेश एम यादव

कुदरत की बाँहों में!
तेरी आँखों के काजल में दिन कटते रहेंगे,
जीवन की बगिया में,वो फूल खिलते रहेंगे।
दो पल के  जीवन को जियेंगे सदी के जैसे,
दुःख- सुख के  झूले  में नभ को छूते रहेंगे।
बँधी है प्यार की डोर में देखो सारी दुनिया,
सागर को  दरिया कहो,दरिया कहते रहेंगे।
जो नूर है तेरी  आँखों में, पढ़ लिया पिया,
सावन की बदली बनके सदा बरसते रहेंगे।
क्या हुआ जो राहें जीवन की टेढ़ी-मेढ़ी हैं,
प्यार के इस झरने में बस ऐसे बहते रहेंगे।
गुजर जाएगी ज़िन्दगी मुट्ठीभर आसमां से,
हम  तन्हाई  को  शहनाई में बदलते रहेंगे।
संसार न कभी रुका है औ न कभी झुकेगा,
लोग  कुदरत  की  बाँहों  में सिमटते रहेंगे।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*दोहे*
साहस मन का मीत है,दे संकट में साथ।
पथरीले पथ पर सदा,चले पकड़ कर हाथ।।

झटका देता पवन जब,आँधी करे प्रहार।
बनकर साहस मीत तब,करता बेड़ा पार।।

बढ़े मनोबल पा इसे,साहस कष्ट-निदान।
शक्ति-स्रोत जो भी यहाँ, सबमें यही प्रधान।।

वैभव-सुख-संपति मिले, मिले सदा सम्मान।
पुरुष साहसी पूज्य है,उसकी  रहती  शान।।

साहस के बल पवन-सुत,किए सिंधु को पार।
पता लगाए सीय का, हुआ  लंक - संहार।।

साहस शस्त्र अभेद्य है,करे शत्रु का नाश।
इसे बना मन-मीत ही,जीते पुरुष हताश।।

श्रेष्ठ वही जिसमें रहे, साहस-बुद्धि-विवेक।
प्रेमी जन-जन का बने,और रहे जग नेक।।
           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
               9919446372

एस के कपूर श्री हंस

 Kavi S K KAPOOR Ji: 💐💐💐💐💐💐💐
*Good......Morning*
*।।  प्रातःकाल   वंदन।।*
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂

सुबह प्रणाम   का रिवाज
यह     बहुत     जरूरी है।
दूर रह  कर    भी   घटती
जाती       इससे   दूरी  है।।
शुभकामनाएं     देती    हैं
इक़       नव ऊर्जा संचार।
*प्रतिदिनअभिवादन दिलों*
*को पास लाताभरपूरी है।।*
👌👌👌👌👌👌👌👌
*शुभ प्रभात।।।।।।।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।।।।  एस के कपूर*
👍👍👍👍👍👍👍👍
*दिनाँक   21     05      2021*

।।रचना शीर्षक।।*
*।।कभी आशा,कभी निराशा*
*यही जीवन की परिभाषा है।।*
*।। विधा।।मुक्तक।।*
1
कुछ   खोकर      यह   पाने 
की  आशा       है।
यही तो जीवन    की   सही
परिभाषा       है।।
कभी खुशियों     की    धूप
या गम की   छाँव।
चलना हर स्तिथि  में   यही
उचितअभिलाषा है।।
2
जोड़ जोड़ कर        घरौंदा 
इक़    बनता   है।
यह आशियाना    झटके में
उजड़ता       है।।
पतझड़ बिन नये  पत्ते पेड़
पर आते हैं नहीं।
सफलता मंत्र  कठनाई  से
ही गुज़रता  है।।
3
किसी स्तिथि में मत  छोड़ो    
तुम आस का दामन।
मुसीबत में काम आता बस
विश्वास का दामन।।
तूफान   आता    जरूर  पर
गुज़र कर रहता है।
कठनाई कितनी न पकड़ना
निराश का दामन।।

*रचयिता।।एस के कपूर "" श्री हंस""*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।    9897071046
                  8218685464

देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

........................दस्तक............................

आप  देते   रहिये  बंद   दरवाजों   पर   दस्तक।
साथ  ही   दीजिये  बंद   दिमागों  पर   दस्तक।।

हम  अच्छे - अच्छे   रिवाजों   को  मानते  चलें;
पर जरूर  दिया करें बुरे  रिवाजों  पर  दस्तक।।

समाज  हर  तरह  के  होते  हैं, अच्छे और  बुरे;
हमेशा   दिया  करें  बुरे  समाजों   पर  दस्तक।।

जो खुद अच्छे काम करते, उन्हें मदद करते रहें;
कभी न  दिया करें  ऐसे  परवाजों  पर दस्तक।।

आगाज़ ठीक है  तो अंजाम भी ठीक  ही होगा;
बराबर दिया  करें अच्छे आगाजों  पर दस्तक।।

हर जगह है  छीनाझपटी सभी  ताजों के लिए;
सही को मिले ,दें हम सभी ताजों  पर दस्तक।।

मुल्क के हर आवाम रहें  हर हाल  में "आनंद";
देते रहें हुक्मरानों के हर दरवाजों पर दस्तक।।

----------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

नूतन लाल साहू

अरजी

हम पर विपदा आई है भारी
किसने कि ऐसी निठुराई
कैसे आया ये काली साया
पीड़ा क्यों दे दी,इतनी विराट
हम भी तो है,तेरा ही अंश प्रभु जी
अरजी सुन लें आज
मानव जाति का न हो विनाश
स्थिति हमें,डरा रही है
घर से निकलना भी हो गया है मुसीबत
रोजगार और शिक्षा भी छीन ली
थम सा गया है,सफलता का सफर
यहां हर मोड़ पर
यमराज आता है नजर
अरजी सुन लें आज प्रभु जी
मानव जाति का न हो विनाश
रास्ता है मुस्किल, हाल है खस्ता
देवी देवताओं के मंदिर का
किवाड़ भी बंद है
बहुत बड़ा है,मुल्क हमारा
राम कृष्ण के इस धरा पर
ऐसी मुसीबत क्यों आया
अरजी सुन लें आज प्रभु जी
मानव जाति का न हो विनाश
किसे सुनाएं कड़वा किस्सा
हमारा घाव बड़े गहरें है
कौन सुनेगा किसको बोले
कौन बांटेगा,दर्द में हिस्सा
किसके आगे दिल को खोलें
हमें बता दो, ब्रम्हा विष्णु महेश
अरजी सुन लें आज प्रभु जी
मानव जाति का न हो विनाश

नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-3
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
पहिले कबहुँ रहा ई जनमा।
यही बरन बसुदेवहिं गृह मा।।
     यहिंतें बासुदेव कहलाई।
     तोर लला ई किसुन कन्हाई।।
बिबिध रूप अरु बिबिधइ नामा।
रहहि तोर सुत जग बलधामा।।
    गऊ-गोप अरु तव हितकारी।
    अहहि तोर सुत बड़ उपकारी।।
हे ब्रजराज,सुनहु इकबारा।
कोउ नृप रहा न अवनि-अधारा।।
    लूट-पाट जग रह उतपाता।
    धरम-करम रह सुजन-निपाता।।
रही कराहत महि अघभारा।
जनम लेइ तव सुतय उबारा।।
    जे जन करहिं प्रेम तव सुतहीं।
     बड़ भागी ते नरहिं कहहहीं।।
बिष्नु-सरन जस अजितहिं देवा।
अजित सरन जे किसुनहिं लेवा।।
     तव सुत नंद,नरायन-रूपा।
सुंदर-समृद्ध गुनहिं अनूपा।। 
रच्छा करहु तुमहिं यहि सुत कै।
सावधान अरु ततपर रहि कै।।
    नंदहिं कह अस गरगाचारा।
    निज आश्रम पहँ तुरत पधारा।।
पाइ क सुतन्ह कृष्न-बलदाऊ।
नंद-हृदय-मन गवा अघाऊ।।
सोरठा-कहे मुनी सुकदेव, सुनहु परिच्छित थीर मन।
           कृष्न औरु बलदेव,चलत बकैयाँ खेलहीं।।
                          डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मेरा प्रातःकाल का प्रणाम ,आज की रचना विचारणीय तथ्य संवेदनात्मक विषय।। किसान।। का स्पर्श किया है,अवलोकन करें...           श्रमुशीलु किसानु सदा ही रहा अरू फोरि पहारू ते भूख मिटावै।।                 किसान कही या कही मजदूर जे रैनुदिना नित खेतु बितावै।।।                    एड़ी पसीना हू चोटी चढै़ चहय होवै धूप या शीत बरसातनु आवै।।                        भाखत चंचल कर्ज भा जनम औ कर्जै मँहय निज प्रानु नसावै।।1।।।                भूख मिटावतु वा सबु जीव इन्सानु कही पशु पक्षी गनाई।।।                        उत्तिमु फसिलु बजारि अँटाई औ निम्ननु तै परिवारू चलाई।।                    भूख औ प्यासु करै वरदासु  औ कूलर एसिनु सपनौ ना आई।।                         भाखत चंचल जेठु खरौ मँहय वृक्ष तरै नित छाँवहु जाई।।2।।                             सत्तरु सालु अजादी भयी मुल याहु गरीबी अजहुँ नहि जाई।।।                   आई गयीं सरकारू तमाम मुला यनकय कैऊ ध्यानु ना लाई।।                               इतिहासु बतावतु बाति इहय यै कर्जु लयै जौ महाजनु जाई।।                        भाखत चंचल ब्याजु चुकी नहिमूल कै बाति हौं काव बताई।।3।।।                    महाजनु तौ गयै अबहूँ मुला गाँवनु गाँव मा बैंक देखाई।।                                   ब्याजू मा आई कमी ना अबौ  अजहूँ निजुघातिनु दाँव लगाई।।                     खानु औ पानु कहाँ सुविधानु औ शिक्षा व्यवस्था तौ जौनु कहाई।।                         शिक्षा व्यवस्था तौ दोहरी चलै  चंचल तिन्ह बालु  मदरसनु जाई।।4।।                  केहु केहू श्वानु ना भावत दूध किसाननू पूत ना दूध दवाई।।।                               नेतै घुमै नित एसिनु कारू चहे परधानु विधायकु  भाई।।                                नोकरी मँहय तनखाहय कमी तेहि बाढ़ति चन्द्रकलानु की नाईं।।                    भाखत चंचल यहि सरकारू ई बैइठै सदन मुल ध्यानु ना लाई।।5।।                आई नयी सरकारू जबैबस पाँचै शतक मँहय काम चलाई।।                             नेतनु कै मँहगाई बढै़ नित वेतनू तौ अम्बरू चढि़ धाई।।                                किसानु कै बालक चूल्है तकैं औ गुरूवन कै तकदीरू बधाई।।                 आयै सजी पंचायत नित औ चंचल पूत जो खेलु बिताई।।6।।।                              फेलु ना होवहि पूत किसानु गयै हाई स्कूल औ गनतिऊ ना आई।।                    अशिक्षितु पैदा भवा जौ किसानु  समानु सबै परधाननु खाई।।                     ग्यानु भवा अजहूँ ना किसानु समानु सबै कहँय काव गनाई।।                         भाखत चंचल काव कही शौचालय देखु परधानु रचाई।।7।।                              आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल। ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा ,चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र.।। मोबाइल...8853521398,9125519009।। जय हिन्द ,जय भारत, जय जय जय धनवन्तरि,गाँव देहात की खबर शहर पर भी नजर,द ग्राम टुडे ।।दैनिक ,साप्ताहिक व मासिक मैग्जीन ,यूट्यूव चैनल के साथ।। प्रोडक्ट प्रचारक व सेल्स इक्जीक्यूटिव डी बी एस प्रा.लि. कोलकाता, एल आई सी आफ इंडिया।।सलाहदाता।। भारत।।

सुधीर श्रीवास्तव

दहशत
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एक अजीब सी दहशत
हर मन में छाई है,
घरों में कैद हैं फिर भी
सूकून कहाँ भाई है।
बंद दरवाजों पर भी
रह रहकर ध्यान जाता है,
जैसे मौत की दस्तक
रह रहकर आई है।
इतनी उम्र हुई मेरी
कभी डरा तो नहीं था मैं,
आज तो खौफ ऐसा है
कि जैसे जान पर बन आई है।
बता दे तू मुझको इतना जरा
क्या तू दहशत का बड़ा भाई है?
ऐ कोरोना बहुत हो चुका
बंद कर आँख मिचौली हमसे,
हमनें चुपचाप तुझे मान लिया 
दहशत तेरा सहोदर भाई है।
बंद कर अब तो डराना मुझको
मेरी तेरी तो न कोई लड़ाई है,
तेरे नाम की दहशत समाई इतनी
लगता है तू मेरी जान का सौदाई है।
अब मान भी जाओ हाथ जोड़ता हूँ मैं
अब तो वापस चला जा मेरे यार
मेरे घर में भी माँ बाप बहन भाई हैं,
यकीन मान ले ऐ मेरे प्यारे कोरोना 
मेरे घर में पहले से मेरा घर जमाई है।
● सुधीर श्रीवास्तव
     गोण्डा, उ.प्र
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मुझ अकिंचन का सांध्यबेला का सादरप्रणाम स्वीकार हो ,आज की रचना ।। सीता नवमी।। पर आधारित है,अवलोकन करें...              

एकु तौ माधव मासु सुहावनु पाखु उजेरे कै नवमी हु आई।।                              बरिसु कैइव रहे बीति चुके  मुला अम्बरू बूँद धरा नहि आई।।                      दूजे सोचु विचारू करैं मिथिलेशु हौ कौनी विधा परजा समुझाई।।                   भाखत चंचल मुनिवर याकु रहे मिथिलेशु उपाइ सुझाई।।1।।                   वसन नहि धारैं जौ आपु औ रानी औ दुइनो जना मिलि हलजौ चलाई।।  वारिद देंय तौ बूँद धरा खुशहालु तबै पशु पक्षी बताई।।                                ख्यातु चुनाव करैं तबु मुनिवर  राजा औ रानिहु कीन्हि जुताई।।।                    घटा धनघोर चढी़ चहुँ ओर  औ चंचलु बूँद धरानु सुहाई।।2।।।                           जोततु खेतनु कै समयानु जौ फारू घडा़ मँहै जा टकराई।।।                         सुन्दरु शीलु सुशीलहू कन्या तबै धरनीनु ते बाहेरु आई।।।                                 बारिसु होय झमाझम दशु दिशु  तालु तलैया चलैं उफनाई।।                           भाखत चंचल माह ई माधव जनकसुता तबै सीता कहाई।।3।।                           राम के नामु का ध्यानु धरैंअरू रामहि नामु हियानु समाई।।                             बैशाख शुदा नवमीनु रही जबु  राजा प्रजानु गयौ हरषाई।।                               चन्द्रकलानु बढै ई सुता औ स्वरूपु लिखतु उपमानु लजाई।।                         भाखत चंचल याही सिया जगजननी कही लक्ष्मीनु कहाई।।4।।                         आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र. ।। मोबाइल...8853521398,9125519009।।

अशोक छाबरा

बात का क्या है बात तो बस बात है
तेरी बात मेरी बात 
मन की बात दिल की बात
दुख की बात खुशी की बात
राज की बात रोज की बात
कल की बात आज की बात
नई बात पुरानी बात
काम की बात फालतू बात
बात की बात बेबात की बात
बड़ी बड़ी बात बड़ी बात
छोटी छोटी बात छोटी बात
गर्व की बात शर्म की बात
मौके की बात बे मौके की बात
बच्चों की बात बड़ो की बात
दोस्ती की बात दुश्मनी की बात
घर की बात बाहर की बात
आम बात खास बात
अच्छी बात गन्दी बात
ये बातों का बाजार है
बातो का क्या 
कुछ करो तब भी बात
कुछ ना करो तब भी बात
बात तो बस बात होती है
बातो बातो मे निकल आती है बात
कभी शुरू नही होती है बात
तो कभी खत्म नही होती है बात
कभी एक ही होती है बात
तो कभी हो जाती है दो दो बात
छोटी छोटी बात बन जाती है जब बड़ी बात तो
बात का बतंगड़ भी बना देती है बात
कभी चलते चलते तो कभी
बैठ कर करनी होती है बात
बातो बातो मे जब करनी हो बात
तो इशारों मे कानाफूसियों में
तो कभी खामोशियों मे भी हो जाती है बात
सौ बात की एक बात
जो बात न होती तो 
कैसे होती बात
ये भी कोई बात है
चाहे जो भी होता
बात तो होती ही क्योकि
बात तो बस बात होती है।
अशोक छाबरा

रेनू बाला सिंह

काव्य रंगोली परिवार मंच को नमन🙏
विषय- मेरी दुनिया मेरी मां
 वृहस्पतिवार 
20-05- 2021

मैं कितनी दूर रहता हूँ अब

                  *माँ*

को देख भी नहीं पाता हूँ,,

छोटा था तो उसके आंचल का कोना पकड़ कर चला करता था। 

आंचल का कोना मुंह में दबाकर नजरें ऊपर करके 

मैं, माँ को निहारा करता था।

थकने पर माँ गोदी में उठा लिया करती थी।
  
पर ,,उंगली आंचल से छूटा नहीं करती थी।

गोदी में उठा कर माँ 
मुझको घर के काम निपटाया करती थी ।

मैं उसकी गोद में सोता  झूलता रहता था।

 थकने पर न जाने कब 
मुझे बिस्तर पर सुला
 दिया करती थी ।

पर ,,आंचल का कोना छूटने नहीं पाता था।

 धर-दबोचा साड़ी का 
कोना न जाने कब वो 

साड़ी ही छोड़कर रसोई 
घर में चली जाती थी।
 
मैं ऊष्मा के आगोश में आंचल पकड़ कर सोया करता था ।
 
करवट बदलने पर मुझे ताका झाँका करती थी। 

फिर,,थपकी देकर मुझे सुला दिया करती थी 

सब को खाना खिला 
कर ,खुद भी खा कर 

सीने में मुझको दुबका कर 
खुद भी हो जाया करती थी।

उसकी छाती की गर्माहट पाकर मैं मुस्कुराया करता था।
 
मेरे मुस्कुराने पर वो अपने 
चुम्बन की बौछार किया करती थी।

न जाने कैसी गुदगुदी
 गोदी थी,, 
तब वो आंचल छुड़ा 
लिया करती।

सुबह सवेरे उठने पर 
आंचल कमर में दबोच लेती 
 गीली नैपी बदला करती थी

तब, मैं उसके गालों को सहलाया करता था।
 
बिखरे बालों को नोंचा करता था।

एक हाथ से खुद को बचाती 

एक हाथ से मेरी नैपी धरती 

फिर गुस्से से वो आँख दिखाती।

मेरे रुआँसा होने पर 
वो  धीरे से अपना 
आंचल पकड़ाती
 
बिल्कुल, धीरे से मेरी नन्ही उंगलियों को अपना 
आंचल पकड़ा देती।
 
मेरी दुनिया बस 
इतनी सी होती 

उसकी गोदी गुदगुदी
और माँ का आंचल 
मेरी दुनिया होती ,

बस!!उसका आंचल ही
मेरी दुनिया होती।

धन्यवाद🙏
 रेनू बाला सिंह✍️
 
स्वरचित मौलिक एवं अप्रकाशित रचना 

गाजियाबाद उत्तर प्रदेश 201014

सुनीता असीम

चली ही गई जान जब से जिगर से।
नहीं डर रहे बद-दुआ के असर से।
***
यही कोशिशें हैं सदा के लिए बस।
तेरा नाम निकले हमारे अधर से ।
***
कि मुझसे हो रूठे मेरे तुम कन्हैया।
परेशान हूँ सुनके ऐसी खबर से।
***
तेरा रूप सांवल मुझे भा गया यूं।
सदा देखती रूप दीदा ए तर से।
***
अगर मिल गए श्याम आकर के मुझसे।
तो जाने न दूँगी तुम्हें मैं नज़र से।
***
*दीदा ए तर=आंसू भरी आंखों से

सुनीता असीम
२०/५/२०२१

निशा अतुल्य

भक्ति गीत
20.5.2021

कान्हा मन में आन बसे हो 
चोरी सांसो की कर लो
साथ ले चलो अपने संग ही
मुरली बना अधर धर लो ।

मीरा सी न प्रीत हो मुझसे
न राधा सा सयंम है 
द्रौपदी सम बनू सखि मैं
लाज मेरी तुम ही रख लो ।
कान्हा मन में आन बसे हो 
चोरी सांसो की कर लो ।।

ग्वाल बाल संग खेलना तेरा
गोपियन संग रास रचो
तेरे प्रेम में खो कर कान्हा
लगे सब कुछ अर्पण कर दो ।
कान्हा मन में आन बसे हो 
चोरी सांसो की कर लो ।।

फोड़े मटकी बाहं मरोड़े
जो तेरी बात न कान धरो
मैया से जा करूँ शिकायत 
वरना नाच दिखा मुझको ।
कान्हा मन में आन बसे हो 
चोरी सांसो की कर लो ।।

तू चितचोर है कैसा कान्हा
चित न कोई अब ध्यान धरो
भरी दोपहरी ताकने तुझको
पनघट पर सभी शोर करो 
कान्हा कान्हा नाम रटे सब 
नाम अपना बिसराय गयो ।
कान्हा मन में आन बसे हो 
चोरी सांसो की कर लो ।।

कान्हा तू जो रटे राधिका
मुरली की तान मधुर कर लो
राधा राधा जो भी करे
तुम उसके सगरे काम करो 
तारो प्रभु जीवन हमरा
कुछ और न हमने चाह करो ।
कान्हा मन में आन बसे हो 
चोरी सांसो की कर लो ।।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

सुषमा दीक्षित शुक्ला

नामदेव था कर्म देव से ,
बापू देव पुरुष ही थे।
 जितने सरल मृदुलता उतनी,
 बापू देव पुरुष ही थे ।
मात-पिता के अंधभक्त थे,
 गुरुजनों के पूजक थे ।
प्यारे बंधु बहन भाई के ,
अपने कुल के भूषण थे ।
पत्नी के थे ऐसे प्रेमी ,
जैसे राम सिया के थे ।
अहंकार का नाम नहीं था,
 कोमल सरल  हिया के थे। 
 कृष्ण सुदामा सी ही मैत्री,
 उनकी मित्र जनों से  थी ।
थे शुभ चिंतक सखा जनो के ,
 उनकी यही  प्रकृति  ही थी।
वरद हस्त था  गुरुजनों का ,
प्रथम  सदा ही आए थे ।
श्रमजीवी  बन जीवन जीना,
 सबको यही दिखाये थे ।
कूट कूट कर भरा हुआ  था ,
देश प्रेम  उनके मन में ।
सत्याग्रह के  वीर व्रती थे ,
लिए  उमंगे तन मन में ।
मान पिता की  परम आज्ञा ,
कूद पड़े आंदोलन में ।
गये राष्ट्रहित छोड़ पढ़ाई,
 गांधी के  सम्मोहन में ।
कारावासी जा बन बैठे ,
बचपन पूर्ण हुआ भी ना।
सुत होने का ऋण चुकता कर,
 गदगद किया पितृ सीना ।
 कर्तव्यों से विमुख कभी भी 
हुए नहीं मेरे बापू ।
थे प्रियदर्शन मात-पिता के ,
अति भावुक मेरे बापू ।
सरस्वती के परम उपासक,
 वेद पुराणों के ज्ञानी ।
सदा संगिनी कविता उनकी ,
गायन सुगम मधुर वाणी ।
प्रकृति प्रेम से भरा हुआ था,
 उनका सारा जीवन ही।
फसल -फूल फल औ पशु पंछी,
हरते थे उनका मन ही ।
दुग्धपान  व्यायाम हमेशा ,
यही नियम जीवन  का था ।
पशु पंछी  भी सहवासी थे ,
यही सदा उनका मन था।
जीवन के दुर्बल क्षण  में भी ,
संयम कभी गया ही ना।
 धैर्यवान  बन  डटे रहे वह ,
 सार्थक  किया जन्म अपना ।
 जीवन की अंतिम बेला में भी,
 बिखराई निर्मल मुस्कान ।
 चलते चलते चले गए वह ,
मेरे बापू  महा महान ।
नाम देव  था कर्म देव से ,
बापू  देव पुरुष ही थे । 
जितने सरल मृदुलता उतनी ,
 बापू देव पुरुष ही थे ।
सुषमा दीक्षित शुक्ला

शुभा शुक्ला मिश्रा अधर

वैदेही💖
*****
जगत के हरने क्लेश अनेक।
मही से निकली कन्या एक।।
सुनयना माता की सन्तान।
पिता श्री राजा जनक महान।।

भवानी-शंकर की प्रिय भक्त।
सदा से रहीं राम-अनुरक्त।।
बसे हैं जिनके हिय में राम।
उन्हीं का पावन सीता नाम।।

अलौकिक शोभा की हैं खान।
अथक रसना करती गुणगान।।
निहारे कण-कण रूप अनूप। 
पूजते मुनिजन निर्धन-भूप।।

विकारी दंभी अति लंकेश।
बदल जब आया अपना वेश।
हारने ही थे उसको प्राण।
तभी होना था जग-कल्याण।।

विहँसता रहे सदा संसार।
मुदित मन करता जय जयकार।।
जिसे हैै प्रेम-दया का बोध।
पार वह करता हर अवरोध।।

जगत जननी को कोटि प्रणाम।
विराजें नित्य हृदय के धाम।।
रूप शुचि शीतल चन्द्र समान।
'अधर' पर अनुपम है मुस्कान।।
      

विशेष:---वैशाख शुक्ल नवमी,आज के दिन ही मघा नक्षत्र में श्री सीता माता जी का प्राकट्य हुआ था। आप सभी को श्री #सीता नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाई...☺️💞🌹🌺🌷

आप आत्मीयजनों से अनुरोध है #कोरोना को हराना है🔥,तो कृपया #जीवन-रक्षक निर्देशों का पालन अवश्य करें। सदैव शुभ हो।🙏🌹

   #शुभा शुक्ला मिश्रा 'अधर'❤️✍️

चन्दन सिंह चाँद

हिंद का सैनिक 

उठो हिंद के वीर जवानों !
देश की माटी करे पुकार
रक्त तिलक तुम आज लगाकर 
अरि दल का कर दो संहार 

रिश्ते-नाते का मोह त्याग कर 
निकल पड़ो छोड़ घर - बार
राष्ट्रभक्ति की धधकती ज्वाला से 
करो आज माँ का श्रृंगार 

हिमगिरि की विशाल चोटियाँ 
तेरी हिम्मत के आगे बौनी हैं
फड़क उठी हैं आज भुजाएँ
जब बदला लेने की ठानी है

खून आज उबाल मार रहा 
अंग - अंग में साहस का हुआ संचार 
भरत सपूतों की यह सेना 
दुश्मन पर करेगी अचूक वार 

हिंद का सैनिक , हिंद का गौरव
दिया तूने सर्वस्व है वार 
हे राष्ट्र प्रहरी , हे राष्ट्र सपूत !
नमन करुँ तुझको शत बार ।।
नमन करुँ तुझको शत बार ।।

मौलिक व स्वरचित
© - चन्दन सिंह 'चाँद'

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

नैतिकता-----

चकाचौंध भौतिकता है
नैतिकता स्वच्छ मन बुद्धि की नियत 
नैतिकता जीवन का मौलिक मूल्य
नैतिकता का ही अनमोल जीवन।।

नैतिकता ताकत है नैतिकता 
मानव को मानवता विरासत 
नैतिकता की नीति नियत से 
भुवन यह आलोकित ।।

थक जाना हार जाना निराशा
बेवस लाचारी भौतिकता के
चका चौध की बीमारी ।।

भौतिकता में परतन्त्र पुरुषार्थ
भौतिकता की लोलुपता दीमक
खोखला कर देती व्यक्तित्व 
बैभव विराट।।

छंट जाएगा अंधेरा सूरज का
निकलना नितांत सिद्धान्त विधान 
सूरज का भी अंधेरो के बाद ही अस्तित्व है।

नैतिकता मूल्यों के मानव
जीवन मे ईश्वर इच्छा और परीक्षा नैतिकता दृढ़ता परिणाम ।।

नही टुटता नही विखरती नैतिकता
सच्चाई भौतिकता की चकाचौंध में
दिखती आडम्बर की परछाई।।

निराश नही होती नैतिकता
नैतिकता का ह्रास नही
नैतिकता संघषों की नीयत होती
कभी परास्त नही।।

शत्रु हो जाये जो भी युग में चिंता परवाह नही निष्छल निर्मल निर्विकार
नैतिकता जीवन मौलिक मूल्य
प्रवाह।।

नैतिकता कपोल कल्पना नही
नैतिकता विडम्बना नही 
नैतिकता निष्काम कर्म धर्म
जीवन संसार।।


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

रामकेश एम यादव

कुदरत!

कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।
निर्ममता से काटे जंगल,
हरियाली उसकी उजाड़ दिया।

पावस ऋतु जो नहलाती थी,
झूलों पे वो मुस्काती थी।
कोमल -कोमल उन अंगों से,
बड़े प्यार से सहलाती थी।
उन कजरारे मेघों को हमने
आखिर क्यों दुत्कार दिया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

पहले तो आशिक थे वन के,
होते थे वो सादे मन के।
किए न सौदा कभी धरा का,
थे महकते चाल -चलन के।
नदिया, पर्वत, पवन कुचलकर,
हमने कारोबार किया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

भरे थे नभ में कितने परिन्दे,
एटम -बम से हुए हम नंगे।
बरस रही है मौत ये कैसी,
राह से भटके हम क्यों बन्दे?
अंत नहीं मेरी हवस की यारों!
हमने जीवों का संहार किया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

सजाओ मन तब सजेगा जंगल,
चारों तरफ हो मंगल-मंगल।
छनके प्रकृति की झांझरिया,
गाँव -गाँव हो कुश्ती -दंगल।
कैसे समझेगा प्रकृति का बैरी,
सजी दुल्हन जो तार-तार किया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

बचेगी कुदरत तो ही बचेंगे,
प्यार के पेड़ तभी उगेंगे।
ममता-समता की छंइयाँ में,
नये- नये फिर फूल खिलेंगे।
कोख उजाड़ी जिस धरती की,
उसने हमें संसार दिया।
कुदरत ने हमको जनम दिया,
हमने उसे बाज़ार दिया।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई


: माँ !

याद बचपन के वो दिन आने लगे, 
आँखों में अश्रु-मेघ तब छाने लगे। 
मानों, माँ  आज  बनाई  हो खाना,  
उसके  हाथों से जैसे   खाने  लगे। 
इन  धड़कनों में हैं  उसकी  सांसें, 
वात्सल्यता के  पुष्प बिहसने लगे। 
उसकी भौतिक काया न आए नजर,  
संस्कारों    के   रंग   बरसने   लगे। 
सारे  रिश्ते  ये  मतलब परस्ती   के,
निश्छल  प्रेम  से फिर  नहाने लगे।  
अंबर से भी बड़ा है माँ का आँचल, 
उसके  स्पर्श  हमें  गुदगुदाने  लगे। 
सृष्टि की धुरी की वही है केंद्र बिंदु , 
ममता के सागर फिर उमड़ने लगे। 
चुपके से आकर पुचकारी मुझे जब,  
मानों, दूध  के दाँत  फिर आने लगे। 
कभी भी कोई  माँ  देख मरती नहीं, 
प्यार  से   पिताजी  समझाने   लगे। 

रामकेश एम. यादव(कवि, साहित्यकार) मुंबई


 माता और पिता !
माँ है धरती तो आकाश है पिता, 
माँ घर की नींव तो छत है पिता। 
माँ फूल की क्यारी तो माली  है पिता, 
माँ अदहन है तो पकता चावल है पिता। 
माँ ख्वाहिश है तो बाजार है पिता, 
माँ है कश्ती तो पतवार है पिता। 
माँ आंसू है तो मुस्कान है पिता, 
माँ घर की लाज, तो सम्मान है पिता। 
माँ अगर राह है तो मंज़िल है पिता, 
माँ वर्तमान है तो भविष्य है पिता।
माँ कुम्हलाती फसल तो बादल है पिता, 
माँ अगर आईना है तो चेहरा है पिता। 
माँ अगर सांस है तो रूह है पिता, 
माँ है नदी तो सागर है पिता। 
माँ गृहस्थी है तो ए.टी.एम. कार्ड है पिता, 
माँ है चंदा तो सूरज है पिता। 
माँ संस्कार है तो संसार है पिता, 
माँ दुवा है तो दवा है पिता। 
माँ हँसी है तो तंदुरुस्ती है पिता, 
माँ तपती धूप है तो आषाढ़ है पिता। 
माँ दीया है तो प्रकाश है पिता, 
माँ है दिवाली तो होली है पिता। 
माँ आब है,   तो दाना है पिता, 
माँ सोंधी रोटी है तो चटनी है पिता। 
माँ ममत्व की देवी तो नर में नारायण है पिता। 
माँ जीवन - चक्र है तो सार है पिता, 
माँ  हमसफर है तो जमीं का सितारा है पिता।
माँ गीत है, तो संगीत है पिता। 
माँ ईश्वर का रूप है तो 
 मोक्ष का द्वार है पिता। 
रामकेश एम. यादव (कवि, साहित्यकार), मुंबई,

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*चौपाइयाँ*
प्राण-वायु के रक्षक तरुवर।
ये उपयोगी सबसे बढ़कर।।
सुंदर पुष्प,मधुर फल देते।
कभी न कुछ बदले में लेते।।

देव समान वृक्ष को जानो।
इसकी महिमा को पहचानो।।
जहाँ रहे हरियाली छाई।
सारी खुशियाँ आएँ धाई।।

वृक्ष वृष्टि के कारक होते।
कटें अगर ये,सुख सब खोते।।
इनको कभी न कटने देना।
यदि जीवन में सुख है लेना।।

आओ मिलकर वृक्ष लगाएँ।
जीवन अपना सुखी बनाएँ।।
हरा-भरा जंगल ही प्यारा।
सुख का रहता सदा सहारा।।
         "©डॉ0हरि नाथ मिश्र
              9919446372

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल ----

देख लेता हूँ तुम्हें ख़्वाब में सोते-सोते
चैन मिलता है शब-ए-हिज्र में रोते-रोते

इक ज़रा भीड़ में चेहरा तो दिखा था उसका
रह गई उससे मुलाकात यूँ होते -होते

इक तिरे ग़म के सिवा और बचा ही क्या है
बच गई आज ये सौगात भी खोते-खोते


प्यार फलने ही नहीं देते बबूलों के शजर
थक गये हम तो यहाँ प्यार को बोते-बोते

बेवफ़ा कह के उसे छेड़े हैंं 
दुनिया वाले 
 मर ही जाये न वो इस बोझ को ढोते-ढोते

इतना दीवाना बनाया है किसी ने मुझको
प्यार की झील में खाता रहा गोते-गोते

ऐसा इल्ज़ामे-तबाही ये लगाया उसने
मुद्दतें हो गईं इस दाग़ को धोते-धोते

आ गया फिर कोई गुलशन में  शिकारी शायद
हर तरफ़ दिख रहे आकाश में तोते-तोते

तेरे जैसा ही कोई शख़्स मिला था *साग़र*
बच गये हम तो किसी और के होते-होते

🖊विनय साग़र जायसवाल,बरेली

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