नूतन लाल साहू

पहचान

संस्कार का बीज
माता पिता ने जो बो दिए है
भविष्य में एक दिन
बनकर फसल लहराएंगे
मानाकि इस कलियुग में
विकल ईमान है,पर
संस्कृति और संस्कारो का वास है
इसीलिए श्रेष्ठ हिंदुस्तान है
हम कलियुग से,काहे को डरे
जब माता पिता गुरु का
दुआओं ही दुआओं की सौगात है
मैं हिंदुस्तानी हूं
यही मेरी पहचान है
घड़ी की सुइयां
समय का बोध कराने के लिए बनी है
सब जानते है
समय बड़ा बलवान है
सभी मानते है
पर,बुजुर्गो के मान सम्मान आशीर्वाद से
संवरता है,इंसान का भाग्य
टूटते हुए उम्मीदों में उम्मीद की किरणें
दिखाता है,माता पिता गुरु का आशीर्वाद
इसीलिए तो,श्रेष्ठ है हिंदुस्तान
मैं हिंदुस्तानी हूं
यही मेरी पहचान है
जहां माता पिता  का पग छुवे
गुरु पद शीश धरें
मानवता के भाव धरें
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई
आपस में है, सब भाई भाई
अनेकता में एकता का नारा
लगता है हिंदुस्तान में
मैं हिंदुस्तानी हूं
यही मेरी पहचान है

नूतन लाल साहू

सुधीर श्रीवास्तव

विद्रूप वाणी
**********
अब इसे क्या कहें?
अभिव्यक्ति की 
आजादी के नाम पर
शब्दों का 
खुला चीर हरण हो रहा है,
विरोध के नाम पर
शब्दों की मर्यादा का
हनन हो रहा है।
न खुद के बारे में सोचते हैं,
न ही सामने वाले के
पद प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हैं।
बस आरोप प्रत्यारोप में
अमर्यादित शब्दों का
जी भरकर प्रयोग करते हैं,
बस अधिकारों के नाम पर
सतही बोलों पर उतर आते हैं।
अगली पीढ़ियों को हम
शिक्षा,सभ्यता,विकास और
आधुनिकता के नाम पर
ये कौनसा, कैसा चरित्र 
सिखाते, समझाते, दिखाते हैं?
हम अपनी विद्रूप वाणी से
ये कैसा उदाहरण देना रहे हैं।
अफसोस की बात तो यह है कि
न तो हम लजाते,शर्माते हैं
न ही तनिक भी पछताते हैं,
इस फेहरिस्त में हर रोज
नये नाम जुड़ते जाते हैं।
●सुधीर श्रीवास्तव
    गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

विधा---कथा काव्य
शीर्षक ---जयद्रथ वध
रचना----

टुटते उम्मीदों में उम्मीद की
काव्य कथा सुनाता हूँ पुत्र
शोक प्रतिज्ञा जयद्रथ पिता
पुत्र का नियत  मोक्ष सुनाता
हूँ।।

अभिमन्यू युवा पुत्र के
कुरुक्षेत्र के कपट क्रूर काल से
आहत युग ब्रह्मांड महारथी श्रेठ
धनुर्धर ।।
किया प्रतिज्ञा सूर्यास्त तक
जयद्रथ को मारूँगा युद्ध
भूमि में या चिता स्वयं की 
सजा भस्म हो जाऊंगा घायल
अन्तर्मन।।
महानिशा का अंधकार की
 प्रतीक्षा देखेगा महारथी
का महासमर सूरज भी अस्त
हुआ था उदय उदित होगा
फिर लेकर भीषण महासमर।।
सूरज निकला मधुसूदन का
शंखनाद परम् प्रतिज्ञा का
नव संग्राम महासमर।।
युद्ध शुरू हो गया गिरते 
मुंड बहने लगा रुधिर समंदर
ज्वाला से चलते अस्त्र शत्र काल
स्वयं खड़ा देख रहा था महासमर।।
कमलविह्यू की रचना के मध्य 
खड़ा जयद्रथ कंप रहा था थर थर
पार्थ आज कुरुक्षेत्र में काल साक्षात
महा काल का रूप प्रत्यक्ष।।
केशव ने देखा असम्भव है
वध जयद्रथ का पार्थ करले
चाहे लाख जतन नारायनः
ने चक्र सुदर्शन को दिया
आदेश।।
ढक लो सूरज को आदेश
सुदर्शनधारी का पाते ही
सूरज को ढक लिया सुदर्शन
अंधेरा छा गया हा हाकार मचा
पांडव दल में छा गए निराशा
का बादल।।
महारथी अर्जुन अब रण में
स्वयं चिरनिद्रा को गले लगाएगा
प्रतिज्ञा की चिता अग्नि में भस्म
स्वयं हो जाएगा।।
कौरव दल में उत्साह हर्ष
विजय पांडव अब ना पायेगा
चलो देखते है अर्जुन खुद ही
कैसे भस्म हो जाएगा।।
अर्जुन की जब चिता पर
चिरनिद्रा के लिए प्रस्थान
किया कहा मधुसूदन ने
सुदर्शन आज तुमने क्या काम
किया।।
अब आओ लौटकर मेरे पास
अंधेरा अब फिर छटने दो
ज्यो लौटा मधुसूदन का सुदर्शन
सूरज निकला कहा नारायणन ने
पार्थ अब ना देर करो।।
पूर्ण करो प्रतिज्ञा जयद्रथ खड़ा
सामने टूटते उम्मीदों की उम्मीद
का सत्कार करो कायर नही 
कहेगा युग के टुटते ऊम्मीदो की उम्मीद में धर्म युद्ध टंकार करो।।
मारो ऐसा वाण शीश कटे जयद्रथ
का पिता गोद मे गिरे पिता पुत्र दोनों
को युग से मोक्ष प्रदान करो।।
मधुसूदन के आदेश मिला 
गूंजी गांडीव प्रत्यंचा कौरव दल
में हा हाकार मचा कटा शीश जयद्रथ
का धड़ कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में
शीश पिता गोद मे चक्रधारी की
महिमा से अर्जुन ने पिता पुत्र का
उद्धार किया।।
धर्म युद्ध मे टुटते उम्मीदों की उम्मीद
विजय  अवसर उपलब्धियों की
युद्ध राजनीति का महासमर नीति
नियत चक्रधारी ने मार हार विजय
निर्णायक कर्म धर्म मर्म का मान किया।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

एस के कपूर श्री हंस

।।  प्रातःकाल   वंदन।।*
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂
मिले बस     खुशियों  का
चमन   आपको।
रोज सुबह   याद    करना
धरम    आपको।।
सादर स्नेह  सप्रेम   वंदन
अभिवादन    है।
*प्रातःकाल का ह्र्दयतल*
*से नमन आपको।।*
👌👌👌👌👌👌👌👌
*शुभ प्रभात।।।।।।।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।।।।  एस के कपूर*
👍👍👍👍👍👍👍👍
*दिनाँक 24   05     2021*


*।।हमारे बुजुर्ग।।दुआओं की* 
*सौगात है, बुजुर्गों के पास।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
क्षमा दुआ अनुभव और  आस,
है बुजुर्गों    के  पास।
बहुत ही  जिम्मेदारी  अहसास,
है बुजुर्गों   के  पास।।
छोटे बड़ों का ध्यान   और करें, 
घर की रखवाली  भी।
संस्कृति,  संस्कारों  का वास है,
बुजुर्गों        के  पास।।
2
बहुत  दुनिया    देखी   बड़ों  ने,
उनसे  ज्ञान    लीजिये।
उन्होंने  किया    लालन  पालन,
उन पर   ध्यान  दीजिए।।
उनके मान सम्मानआशीर्वाद से,   
संवरताआपका भी भाग्य।
आ जाता  कुछ  चाल   में  अंतर, 
नही   अपमान   कीजिये।।
3
हर किसी  के लिए खूब जज़्बात,
हैं   बुजुर्गों    के  पास।
अनुभवों की   इक लंबी    बारात, 
हैं बुजुर्गों     के   पास।।
दिल है   दिमाग है     हर  बात है,
पास    बुजुर्गों      के।
दुआओं ही दुआओं की   सौगात,
है    बुजुर्गों  के   पास।।
4
पैसे की   तो      बहुत    कदर  है,  
बुजुर्गों     के    पास।
बहुत ही ज्यादा   पारखी नज़र है,
बुजुर्गों    के     पास।।
रखते  तजुर्बा हर मौसम  बरसात,
का    बुजुर्ग     हमारे।
एक पूरी   जिन्दगी  का   सफर है,
बुजुर्गों    के     पास।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।*
मोब।।            9897071046
                     8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-6
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
कबहुँ त छेद करहि मटका महँ।
छाछ पियहि भुइँ परतइ जहँ-तहँ।।
     लला तोर बड़ अद्भुत जसुमत।
     गृह मा कवन रहत कहँ जानत।।
केतनउ रहइ जगत अँधियारा।
लखतै किसुन होय उजियारा।।
     तापर भूषन सजा कन्हाई।
     मणि-प्रकास सभ परे लखाई।।
तुरतै पावै मटका-मटकी।
माखन खाइ क भागै छटकी।।
     लखतै हम सभ रत गृह-काजा।
     तुरतै बिनु कछु किए अकाजा।।
लइ सभ सखा गृहहिं मा आई।
खाइ क माखन चलै पराई ।।
दोहा-पकरि जाय चोरी करत,तुरतै बनै अबोध।
        भोला-भाला लखि परइ, धनि रे साधु सुबोध।।
       सुनतै जसुमति हँसि परीं,लीला-चरित-बखान।
       डाँटि न पावैं केहु बिधी,कान्हा गुन कै खान।।
       एक बेरि निज गृहहिं मा,माखन लिए चुराय।
       मनि-खंभहिं निज बिंब लखि,कहे लेउ तुम्ह खाय।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                           9919446372


*कुण्डलिया*
बोलें कभी न कटु वचन,इससे बढ़े विवाद,
मधुर बोल है शहद सम,करे दूर अवसाद।
करे दूर अवसाद,शांति तन-मन को मिलती,
उपजे शुद्ध विचार,और भव-बाधा टलती।
कहें मिसिर हरिनाथ,बोल में मधु रस घोलें,
यही ताप-उपचार, वचन रुचिकर ही बोलें।।
            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                9919446372

निशा अतुल्य

आज की सृजन अभिव्यक्ति
 माँ की सेवा
24.5.2021

मेरी आस्था,मेरा विश्वास 
तुम्हारे होने से दृढ़ है मेरी माँ।
तुम्हारा पीपल,बरगद पूजना
संरक्षण पर्यावरण सीखा गया ।
देना सूरज को जल नित सवेरे
सर्व-शक्तिमान का सम्मान समझा गया। 
चर-चराचर की निस्वार्थ सेवा करना
जिसके बिना जीवन प्रस्फुटन नहीं
वो जल,वायु,चाँद,तारे,सूरज से,
एक प्यारा रिश्ता बना गया।
चाँद को कभी मामा बताना ,
कभी साजन की लंबी उम्र की कामना 
 उसी चाँद से करना, 
एक रिश्ता समझा गया ।
माँ तेरा चुप रह कर हर कर्म
मुझे जीना सीखा गया ।
भावनाओं को संजो 
जीवन के दुर्गम रास्तों को 
निर्विरोध पार करना 
स्नेह संचित संसार का महत्त्व 
आगे बढ़ना सीखा गया।
माँ तू संपूर्णता का सागर 
अटल निश्छल पर्वत बन
मेरे जीवन का आधार 
तेरा सेवा भाव
जीवन का सार बिना कुछ 
कहें बता गया।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

निशा अतुल्य

सृजन अभिव्यक्ति
हाइकु
5,7,5
23.5.2021

बीती वो बातें
जगाती जब रातें
भीगा तकिया ।

वो साथ चले
मोड़ आया वो मुड़े 
रहे अकेले ।

दर्द है मेरा
निःशब्द शोर तेरा
कौन समझा ।

हर सवेरा
कोलाहल ले आया
बीती रात का ।

उठा कदम
रहना सातजन्म 
हमकदम ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

सुधीर श्रीवास्तव

जिंदगी क्या है ?
*************
मान लीजिए 
जिंदगी ,गीत, मीत, संगीत है,
सलीका समझ में आ जाये तो
सबसे बड़ी प्रीत है।
बस ! जिंदगी को
जीने का अपना अपना
हरेक का तरीका है,
कोई हंसकर जी रहा है
कोई रोकर जी रहा है,
बस ! मानसिकता का फर्क है
कोई बहुत सुख सुविधा के बाद भी
जिंदगी को बस ढो रहा है,
कोई अभावों में भी 
जीवन के लुत्फ उठा रहा है।
कोई किस्मत को दोष 
दे देकर सुलग रहा है,
तो कोई ईश्वर का धन्यवाद कर
मस्ती में जी रहा है।
बस सिर्फ़ नजरिए का फर्क भर है
किसी को बोझ लग रहा है,
तो कोई सुकून से नाच गाकर
जिंदगी के गीत गा रहा है।
जिंदगी क्या है?
मायने नहीं रखता,
जिंदगी के प्रति 
हमारा नजरिया क्या है?
फ़र्क इससे पड़ता है।
■ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा,उ.प्र.
     8115285921
 ©मौलिक, स्वरचित

नूतन लाल साहू

टूटती उम्मीदों की उम्मीद

जिंदगी जख्मों से भरी हुई है
वक्त को मरहम बनाना सीख लो
मानव जीवन एक अवसर है
यही तो टूटती हुई उम्मीदों की उम्मीद है
कर्म वीर के मन में
कुछ कर गुजरने की
ऐसी आग होती है
जिसे वे अपने कर्म रूपी ईंधन से
सदा प्रज्जवलित रखते है
यही तो,सफलता का मूल मंत्र है
मानव जीवन एक अवसर है
वक्त को मरहम बनाना सीख लो
यही तो टूटती हुई उम्मीदों की उम्मीद है
काले क्षणों के बीच में
मानव जब शून्य से होकर
प्रकट होता है
आखिरी मंजिल नहीं होती
कही भी दृष्टिगोचर
तब कर्मवीर का आत्मविश्वास ही
नई उम्मीदें जगाती है
मानव जीवन एक अवसर है
यही तो टूटती हुई उम्मीदों की उम्मीद है
पंथ जीवन का चुनौती
दे रहा है हर कदम पर
सुखी वही है जो
संकटों से सामना करने
हमेशा रहता है तत्पर
जब झकझोर देती है,लहराती हुई हवाएं
आती है,आंधी और तूफान
तब मानव का सजगता और आत्मविश्वास ही
बहुरंगी सुमनो से लदकर
सहसा दौड़ती है,हरियाली बनकर
जिंदगी जख्मों से भरी हुई है
वक्त को मरहम बनाना सीख लो
यही तो टूटती हुई उम्मीदों की उम्मीद है
जो सुधरने का अवसर देता है

नूतन लाल साहू

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

शीर्षक---लम्हा लम्हा जिंदगी

जिंदगी का सफर गम खुशी आंसू मुस्कान तन्हाई कारंवा नफरत मोहब्ब्त की दासता दरमियान।।
मन के कागज़ पर लम्हे कुछ लिख जाते ऐसा जिन्दगी जज्बात ज़मीं आसमान जैसा।।                      

नित्य निरंतर प्रभा प्रवाह का ठहराव चलती जिंदगी रिश्ते नाते प्यार मोहब्बत दुश्मनी दोस्ती।मन के कागज पर जिंदगी की याद इबारत।।
कुछ भूलता मिटाता कुछ साथ याद जख्मो की शक्ल कुछ जिंदगी के हसीन लम्हे हम सफर ।।
मन के कोरे कागज पर हुश्न इश्क मोहब्बत जज्बा जुनून सुरूर गुरुर ईमान गुनाह के अक्षर अल्फ़ाज़
दर्ज।।
इंसान की चाहत मन के कोरे कागज पर सोने के अक्षर अल्फ़ाज़ के खूबसूरत चमकते सोहरत की इबारत।।
मंजूर नही  खुदा को इंसान अपनी मर्जी से दर्ज करे मन के कोरे कागज  अपने जिंदगी लम्हो कदमो की तारीख  इबारत।।
तमाम हद हैसियत की लाइने खिंच देता मन में चाहत नफरत दोस्ती दुश्मनी जज्बे के बीज फसल लहलहाते।।

इंसान की जिंदगी का सफर जंग के मैदान का लम्हा लम्हा मन के कोरे
कागज़ पर रंग बिरंगी बहुरंगी इबादत के इबारत।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

रामकेश एम यादव

कलमकार कभी मरता नहीं!

काश,एक बार फिर आप मिलने आते,
आप  मुझे  फिर  से  समझाने  आते।
गलतियों  का पुतला  होता है  इंसान,
मेरी उन गलतियों को सुधारने आते।
हौसलाफजाई तो करते  ही  रहते थे,
आप मेरी मंजिल मुझे दिखाने आते।
मैं जानता हूँ हे! कर्मवीर आप नहीं हैं,
पर अपनी  दुवाओं से नवाजने आते।
एक  कलमकार   कभी  मरता   नहीं,
करते   ही   याद   पैगाम   देने  आते।
भौतिक   काया  ये   रहे,  या   न  रहे,
पर  अमन  की  लोरी   सुनाने   आते।
कलम की जुबां से बोये क्रांति के बीज,
लहलहाती  ये   फसल   देखने  आते।
नमन  है  आपको,आपकी  कीर्ति को,
होते तो इन  रिश्तों  को  सींचने आते।
भगवान दे आपकी आत्मा को शान्ति,
आप अपने अनुभव साझा करने आते।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुबई,

नाम : रामकेश एम. यादव, (लेखक )
पता : काजूपाडा, कुर्ला पश्चिम, मुंबई :400072
रचना : स्वरचित -मौलिक रचना,
दिनांक :23/05/2021

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल -

पहले दूजे का कुछ तो भला कीजिए
फिर तवक्को किसी से रखा कीजिए
हुस्ने मतला--
यह इनायत ही बस इक किया कीजिए
हमसे जब भी मिलें  तो हँसा कीजिए

 साथ लाते हैं क्यो़ सैकड़ों ख्वाहिशें
हमसे तन्हा कभी तो मिला कीजिए

हाल मेरा ही क्यों पूछते हैं सदा
अपने बारे में कुछ तो लिखा कीजिए

आपको है हमारी क़सम हमनफ़स
हमसे कोई कभी तो गिला कीजिए

 आप भी और बेहतर कहेंगे ग़ज़ल
दूसरे शायरों को पढ़ा कीजिए

आप *साग़र* की ग़ज़लों में हैं जलवागर 
थोड़ा बनठन के यूँ भी रहा कीजिए 

🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली
20/3/2021

एस के कपूर श्री हंस

 ग़ज़ल।।संख्या 102।।*
*।।काफ़िया।। आन।।*
*।।रदीफ़।।होता ही है।।*
1      *मतला*
इश्क में    इम्तिहान तो     होता ही है।
महोब्बत में     परेशान    होता  ही है।।
2     *हुस्ने मतला*
होश में बढ़ना नहीं तो बदनाम होता ही है।
दुनिया पास बारूदे सामान होता ही है।।
3
जान पे खेल जाना होता उसकी गली।
गली में रक़ीब का मकान होता ही  है।।
4
नौबतआती उसका कमरा बंद होने की।
डरना क्या कमरे में रोशनदान होता ही है।।
5
पर हद से मत गुजरना कि पिट जाओ।
हर जगह कोई गुलदान तो होता ही है।।
6
महोब्बत तो महोब्बत है पर करना देखकर।
मामला बढे तो दस्तूरे खानदान होता ही है।।
7
संभल के रखना कदम दरियायेआग में।
ये न कहना किआशिक तो नादान होता ही है।।
8
*हंस* पर जो होता है इक़ सच्चा आशिक।
किस्मत का सितारा मेहरबान होता ही है।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।      9897071046
                    8218685464



*Good......Morning*
*।।  प्रातःकाल   वंदन।।*
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂
सस्नेह सादर  प्रणाम
करता हूँ आपको।
अपना  वंदन  सलाम
करता हूँ आपको।।
हर सुबह    बहुत  ही
अनमोल होती है।
*प्रातः नमस्कार नाम*
*करता हूँआपको।।*
👌👌👌👌👌👌👌👌
*शुभ प्रभात।।।।।।।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।।।।  एस के कपूर*
👍👍👍👍👍👍👍👍
*दिनाँक.  23.      05.     2021*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-5
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
ग्वाल-बाल लइ साथे-साथे।
फोरहिं मटकी गोपिन्ह माथे।।
   घर मा घुसि के कबहुँ कन्हाई।
   ग्वाल-बाल सँग मक्खन खाई।।
भागहिं इत-उत पकरि न पावहिं।
जदपि कि गोपिहिं पाछे धावहिं।।
    बछरू छोरि पियावहिं गैया।
    चोरी-चोरी किसुन कन्हैया।।
डाँट परे जब हँसहिं ठठाई।
तब भागै जनु पीर पराई।।
     बड़ नटखट तव लाल जसोदा।
     कहि-कहि गोपिन्ह लेवहिं गोदा।।
बहु-बहु जतन करै तव लाला।
चोरी-चोरी जाइ गोसाला।।
      बछरू-गैयन छोरि भगावै।
      निज मुख कबहूँ थनइ लगावै।।
खाइ-बहावै-फोरै गागर।
तोर लला ई नटवर नागर।।
      ग्वाल-बाल सँग खाइक माखन।
       कछुक देइ ई बनरन्ह चाखन।।
सुनउ जसोदा गोपी कहहीं।
कबहुँ त लला तोर अस करहीं।।
    सोवत सिसुन्ह रोवाइ क भागै।
    माखन मिलै न गृह जब लागै।।
निन्ह हाथ नहिं पहुँचै छीका।
चढ़ि ऊखल पर तुरत सटीका।।
     अथवा धयि पीढ़ा दुइ-चारा।
      तापर चढ़ि तहँ पहुँचि दुलारा।।
कबहुँ-कबहुँ चढ़ि गोपिन्ह काँधे।
पहुँचै जहाँ लच्छ रह साधे।।
    मटका भुइँ उतारि सभ खावैं।
    जदपि सतावहिं पर बड़ भावैं।।
दोहा-तोर लला बड़ ढीठ अह,चंचल-नटखट-चोर।
        सुनहु जसोदा गृहहिं महँ,प्रबिसइ बिनु करि सोर।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मेरा सांध्यकालीन प्रणाम व आज की रचना का विषय।। मेहमान।। का अवलोकन करें...                    आदरू औ सम्मानु कै खातिनु  मान लिए मेहमान जू आवैं।।                           देव रिषी गुरू काव कही मित्र हितू अरमान ही लावैं।।                                प्रणाम विनम्र झुकाव लगाव  सम्मानु सबै इहय मान रिझावै ।।                         भाखत चंचल दीनदयाल मेहमानु सही अभिमान ना आवैं।।1।।                           दुर्योधन ने नहि मानु दयो  तबै कुरूक्षेत्र भयंकरू आयौ।।                                 मानु दयो जबु मातु सिया जबु रावन साधु के भेष मा आयौ।।                          मान दयौ कँह रावनु हनुमत  लंक सुवर्नहि खाकु करायौ।।                           भाखत चंचल सीय के मानु तै अवनीनु निशिचरू साफु बनायौ।।2।।                     शकुंतला ने जबु मान दयौ तबै पूत भरत जसु गोदिनु पायौ।।                           मानु दयो कँह हिरण्य कशिपु  तबै फारि कै खम्भ त्रिलोकी जु आयौ।।               मान कियौ बहु विप्र सुदामा तबै  तिसरै मा दुलोकी कहायौ।।                               भाखत चंचल या अपमानहु पाया हु राज तौ कंस गँवायौ।।3।।                           मान करौ मेहमाननु कै यहय रीति सदानु ही हिन्द रहाई।।                            देव गुरून रिसी अरू मित्रनु औरै हितून मेहमानी जे आई।।                                मधुर जबानु औ शीतलु नीर औ आदरू भाव ना और कहाई।।                              भाखत चंचल काव कही यहि नातेन देव जू द्वारै जौ आई।।4।।                             आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा ,चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र.।। मोबाइल...8853521398,9125519009।। जय हिन्द, जय हिन्दुस्तान, जय जय जय धनवन्तरि।।

सुधीर श्रीवास्तव

*राजा राममोहन राय*
******************                                                        बाइस मई सन् सत्रह सौ बहत्तर के
मुर्शिदाबाद ,बंगाल के
ब्राह्मण परिवार में
माँ तारिणी के गर्भ से जन्में थे
रमाकांत सुत प्यारे दुलारे,
बनकर पुरोधा उभरे
सबकी आँखों के बनते गये तारे
राजा राममोहन राय।
भारतीय परंपरा के संवाहक बन
संस्कार को जगाते चले,
और राष्ट्र प्रणेता बन
भारतीयता के पुनर्जागरण का
स्वर सदा गुँजाते बढ़े,
दूरदर्शी, वैचारिकी के पुरोधा
रुढ़वादिता के धुर विरोधी
धुनसाधना के सच्चे,पक्के
स्वतंत्रता, समानता के पक्षधर
ब्रह्म समाज के संस्थापक
भारतीय भाषाओं के उन्नायक
समाज निर्माण के मुखर नायक,
राजा राममोहन राय।
बाल विवाह और सती प्रथा के
 मुखर विरोधी बन
कौमुदी संवाद के दम पर
जन जन में अपनी आवाज 
पहुँचाने की कोशिशें करते रहे
राजा राममोहन राय।
पंद्रह वर्ष की अल्पायु में ही
संस्कृत, बंगाली, फ़ारसी, के ज्ञानी,
'ईष्ट इंडिया कंपनी' के
अल्पावधि कर्मचारी,
राजा राममोहन राय।
स्वतंत्रता और कुरीतियों की
दोहरी  लड़ाई लड़ते रहे
सामाजिक बुराइयों के, 
उन्मूलन की नींव मजबूती से
स्थापित कर ही गये
राजा राम मोहनराय।
सत्ताइस सितंबर अठारह सौ तैंतीस को
इंग्लैड की धरती पर
दुनिया से विदा हो गये,
सामाजिक सुधारों के 
पितामह कहाये
राजा राममोहन राय।
● सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
     8115285921
©मौलिक, स्वरचित

रामकेश एम यादव

प्रकृति!
अगर सो रहा तनकर पर्वत,
 निश्चित उसको सोने दो।
जड़ी-बूटी का वहीं खजाना,
महफूज़ अगर है, रहने दो।
मत छेड़ो झरनों को कभी,
मंथर गति से बहने दो।
जीवन का उसमें सार छिपा,
पढ़ने वालों को पढ़ने दो।
अमूल्य भेंट है कुदरत की वो,
उसका क्षय न होने दो।
मदमाती हरियाली को,
मेघों से आँख मिलाने दो।
करो न अत्याचार प्रकृति पर,
शाखों पे गुल खिलने दो।
चहकें खंजन-पपीहा द्रुम पर,
निशि -दिन उन्हें चहकने दो।
पाटो न नदी,झील,सरोवर,
ठंडी पवन को बहने दो।
ताल -तलैया की  छइयां में,
धूप -छाँव को हिलने दो।
धरा न बाँटो,सागर न बाँटो,
भगवान को न बँटने दो।
एक शाख के फूल हैं सब,
न खून किसी का बहने दो।
हवस न पालो किसी चीज का,
निर्भय होकर चलने दो।
क्या हिन्दू,क्या मुस्लिम,सिख,
एक साज में सजने दो।
टपके न आंसू गरम किसी का,
हर आँखों को हँसने दो।
खिलती मानवता का सिर,
जग में कहीं न झुकने दो।
नभ की बाँहों में कोई,
यदि जाता है,तो जाने दो।
कोई बसाये चाँद पे बस्ती,
तो मंगल पर भी बसने दो।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार(,मुंबई

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

--जेठ की दोपहरी का एक दिया--1

जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया दिया जलाने की
कोशिश में लम्हा लम्हा जिये
जिये जा रहा हूँ।।
शूलों से भरा पथ शोलों से
भरा पथ पीठ लगे धोखे फरेब
के खंजरों के जख्म दर्द सहलाते
खंजरों को निकालने का प्रयास
किये जा रहा हूँ।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा 
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
दर्द जाने है कितने 
जख्म जाने है कितने
फिर भी युग पथ पर
फूल की चादर बिछाए जा
रहा हूँ।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा 
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
कभी सपनो में भी नही सोचा जो
वही जिये जा रहा हूँ।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा 
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
खुद से करता हूँ सवाल
कौन हूँ मैं ?
आत्मा से निकलती आवाज़
मात्र तू छाया है व्यक्ति
व्यक्तित्व तू पराया है
सोच मत खुद से पूछ मत
कर सवाल मत तू भूत नही
वर्तमान मे किसी हकीकत में
छिपी रहस्य सत्य की साया है।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा 
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
कोशिश तू करता जा लम्हो
लम्हो को जिंदा जज्बे से जीता जा
भरी जेठ की दोपहरी में दिया जलाने
कि कोशिश करता जा।।
गर जल गया एक दिया
जल उठेंगे अरमानो के लाखों
उजालों के दिए चल पड़ेंगे
तुम्हारे साथ साथ लम्हो लम्हो
में एक एक दिया लेकर युग 
समाज।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा 
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर.      


जेठ की भरी दोपहरी-2

जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने की कोशिश में लम्हा 
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
भूल जाऊँगा पीठ पर लगे धोखे
फरेब मक्कारी के खंजरों के 
जख्म दर्द का एहसास।।
तेज पुंज प्रकाश मन्द मन्द शीतल
पवन के झोंको के बीच खूबसूरत
नज़र आएगा लम्हा लम्हा।।
चट्टाने पिघल राहों को सजाएँगी
शूल और शोले अस्त्र शस्त्र 
बन अग्नि पथ से विजय पथ ले जाएंगे।।
चमत्कार नही कहलायेगा 
कर्मो से ही चट्टान फौलाद पिघल 
जमाने को बतलायेगा।।
लम्हा लम्हा तेरा है तेरे ही वर्तमान
में सिमटा लिपटा है तेरे ही इंतज़ार
में चलने को आतुर काल का करिश्मा कहलाएगा।।
पिया जमाने की रुसवाईयों
का जहर फिर भी जेठ की भरी दोपहरी जला दिया एक चिराग दिया।।

जिससे भव्य दिव्य है युग वर्तमान
कहता है वक्त इंसान था इंसानी
चेहरे में आत्मा भगवान था।।
बतलाता है काल सुन ऐ इंसान
मशीहा एक आम इंसान था
जमाने मे छुपा जमाने इंसानियत
का अभिमान था।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर

 -----जेठ की भरी दोपहरी -.--3         

अपने हस्ती की मस्ती का मतवाला
अपनी धुन ध्येय का धैर्य धीर गाता
चला गया जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाता चला गया।।
जेठ की भरी दोपहरी में एक
दिया जलाने की कोशिश में
लम्हा लम्हा जीता चला गया
जमाने को जमाने की खुशियों
से रोशन करता चला गया।।
ना कोई उसका खुद कोई अरमान था
एक दिया जला के जमाने को जगाके
जमाने के पथ अंधकार को मिटाके 
जमाने का पथ जगमगा के ।।
लम्हो को जिया जीता चला गया
कहता चला गया जब भी आना
लम्हा लम्हा मेरी तरह जीना मेरे
अंदाज़ों आवाज़ों खयालो हकीकत
में जीना मरना ।।
जेठ की दोपहरी में एक दिया 
जलाने जलाने की कामयाब कोशिश
करता जा जिंदगी के अरमानों अंदाज़
 की मिशाल मशाल प्रज्वलित करता जा।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

एस के कपूर श्री हंस

।  प्रातःकाल   वंदन।।*
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂
सप्रेम सादर  अभिवादन 
स्वीकार     हो   आपको।
ह्र्दयतल शुभकामनायों
का संचार हो    आपको।।
आज का दिन    कल से
और बेहतर हो  आपका।
*हमारा स्नेहिल    वंदन*
*नमस्कार   हो आपको*
👌👌👌👌👌👌👌👌
*शुभ प्रभात।।।।।।।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।।।।  एस के कपूर*
👍👍👍👍👍👍👍👍
*दिनाँक 22. 05. 2021*



ग़ज़ल।।संख्या 101।।*
*।।काफ़िया।।आना।।*
*।।रदीफ़।।होगा।।*
1  *मतला*
खुशियां तुझको   लौट कर   ही आना होगा
फिर वैसा ही सबका   खिलखिलाना होगा
2     *हुस्ने मतला*
डर के जिन्दगी को नहीं   गिडगिडाना होगा
समझदारी के लिए संबको ही समझाना होगा
3
यही कोशिश है दुनिया की दिन रात अब तो
फिर से जहान में अब वैसा ही जमाना होगा
4
आज जरूर थम गई है कहीं पर यह जिन्दगी
कल को चलता हुआ अब हर कारखाना होगा
5
कसम जो अब खा ली है  सारे जमाने ने ही
इस बीमारी को अब जड़ से ही मिटाना होगा
6
कॅरोना तेरा नामोनिशान मिट जाएगा जहाँ से
अब तो और भी  अच्छा हर दवाखाना होगा
7
अंदर जो आग फैल गई बवा के इस डर की
उसको हरचंद   अब तो  बुझाना ही होगा
8
वक़्त कीमती छिना हर किसी की जिदंगी से
वो हर लम्हा हर किसी को अब लौटाना होगा
9
बिगड़ गई जो बातें वो संभालेंगे हम मिलकर
हर किसी के हाथ में अब   मेहनताना होगा
10
*हंस* मायूसी के इन दिनों   को पीछे छोड़ देंगें
हर किसी को सितारों की तरह जगमगाना होगा

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।      9897071046  
                    8218685464

सुधीर श्रीवास्तव

कालाबाजारी
************
अब इसे क्या कहें?
कालाबाजारी या फिर
मर  चुकी इंसानियत
या फिर विडंबना,
कुछ भी कहें पर
अत्यंत दुःखद है।
जब आज महामारी में भी
कुछ लोग इंसानियत को
तार तार करने में लगे हैं।
अफसोस तो यह है कि
तमाम पैसे ऊँची रसूल वाले भी
इस काले धंधे में लगे हैं।
कोरोना की दवाइयों, इंजेक्शन की
कालाबाजारी कर रहे हैं,
इसके लिए स्टाक तक को
गोलमोल  कर रहे हैं,
पानी भर भर कर 
इंजेक्शन से कोटापूर्ति का
इलाज कर रहे हैं,
जिनको बचाना था उन्हें
उन्हें खुद ही मार रहे हैं,
मुर्दों का भी इलाज कर
हजार क्या लाखों कमा रहे हैं।
आक्सीजन की कालाबाजारी कर
सौदेबाजी कर रहे हैं,
अस्पतालों में भर्ती कराने और
बेड दिलाने के नाम पर
सरेआम लूट रहे हैं।
बड़ा अफसोस होता है
कि बेबस परेशान लोगों की
भावनाओं से खेल रहे हैं,
महामारी के कारण जो पहले से ही
अधमरे से हो गए हैं,
उनके परिजनों की जान
बचाने की खातिर 
उनका खून चूस रहे हैं।
इतना तक भी होता तो
शायद सह भी लेते लोग,
सफेदपोश भी इस गंगा में 
डुबकी लगा रहे हैं।
जाने कितने लोग हैं जो
मौके को अच्छे से भुना रहे हैं,
इस कोरोना महामारी को
कमाई का जरिया बना रहे हैं,
बड़ी बेशर्मी से अपनी अपनी
जेबें खूब भर रहे हैं।
जिनके लोग मर गये हैं
उनके भी जज्बातों से खेल रहे हैं,
घर पहुँचाने के लिए भी
बोलियां लगा रहे हैं,
छोटी मोटी कालाबाजारियाँ कर
जो लोग जी भर पा रहे हैं,
वही लोग ज्यादा बदनाम हो रहे हैं,
मौके बे मौके बस 
वही सजा भी पा रहे हैं।
संभ्रांत,बड़े लोग,रसूखदार
स्वच्छंद खुलेआम घूम रहे  हैं,
कालाबाजारी के नित नये
देखिए!कीर्तिमान गढ़ रहे हैं।
◆ कालाबाजारी
************
अब इसे क्या कहें?
कालाबाजारी या फिर
मर  चुकी इंसानियत
या फिर विडंबना,
कुछ भी कहें पर
अत्यंत दुःखद है।
जब आज महामारी में भी
कुछ लोग इंसानियत को
तार तार करने में लगे हैं।
अफसोस तो यह है कि
तमाम पैसे ऊँची रसूल वाले भी
इस काले धंधे में लगे हैं।
कोरोना की दवाइयों, इंजेक्शन की
कालाबाजारी कर रहे हैं,
इसके लिए स्टाक तक को
गोलमोल  कर रहे हैं,
पानी भर भर कर 
इंजेक्शन से कोटापूर्ति का
इलाज कर रहे हैं,
जिनको बचाना था उन्हें
उन्हें खुद ही मार रहे हैं,
मुर्दों का भी इलाज कर
हजार क्या लाखों कमा रहे हैं।
आक्सीजन की कालाबाजारी कर
सौदेबाजी कर रहे हैं,
अस्पतालों में भर्ती कराने और
बेड दिलाने के नाम पर
सरेआम लूट रहे हैं।
बड़ा अफसोस होता है
कि बेबस परेशान लोगों की
भावनाओं से खेल रहे हैं,
महामारी के कारण जो पहले से ही
अधमरे से हो गए हैं,
उनके परिजनों की जान
बचाने की खातिर 
उनका खून चूस रहे हैं।
इतना तक भी होता तो
शायद सह भी लेते लोग,
सफेदपोश भी इस गंगा में 
डुबकी लगा रहे हैं।
जाने कितने लोग हैं जो
मौके को अच्छे से भुना रहे हैं,
इस कोरोना महामारी को
कमाई का जरिया बना रहे हैं,
बड़ी बेशर्मी से अपनी अपनी
जेबें खूब भर रहे हैं।
जिनके लोग मर गये हैं
उनके भी जज्बातों से खेल रहे हैं,
घर पहुँचाने के लिए भी
बोलियां लगा रहे हैं,
छोटी मोटी कालाबाजारियाँ कर
जो लोग जी भर पा रहे हैं,
वही लोग ज्यादा बदनाम हो रहे हैं,
मौके बे मौके बस 
वही सजा भी पा रहे हैं।
संभ्रांत,बड़े लोग,रसूखदार
स्वच्छंद खुलेआम घूम रहे  हैं,
कालाबाजारी के नित नये
देखिए!कीर्तिमान गढ़ रहे हैं।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
      815285921
©मौलिक, स्वरचित
      गोण्डा, उ.प्र.
      815285921
©मौलिक, स्वरचित

चन्दन सिंह चाँद

जागो विश्वविधाता 

सारी दुनिया जिनके चरणों में
आज पड़ी है नतमस्तक 
जागो हे भागवतम भारत !
हे ब्रह्मकमल की दिव्य महक !

सकल जगत कर रहा आवाहन
जड़ - चेतन दे रहे निमंत्रण 
महाकाल का तुझे निवेदन 
जागो जननी , जागो माता 
जाग उठो हे विश्वविधाता !

हे सकल जगत की अग्निशिखा !
हे दिव्यज्योति भारत माता !
प्रगटो तव मूल रूप में अब 
हे परम ज्ञान की विज्ञाता !

जागो जागो हे परमप्रभु !
जागो जागो हे विश्वगुरु !
हे जग की जननी अब जागो 
हे भारत धरिणी अब जागो 

नन्हा शिशु आर्त पुकार रहा 
चरणों की ओर निहार रहा 
आओ माँ अब कर दो मंथन 
यह जगत बने तव मधुर सदन

अंग - अंग से उठी पुकार 
माँ अब तेरे शिशु तैयार 
आज गढ़ तू नवल जगत 
जग जाए भागवतम भारत 

माँ आ जाओ अब जीवन में
उतरो माँ तुम अब कण - कण में 
ले नई चेतना तुम आओ 
हृदयों में आज समा जाओ 

उठ चुका उदधि में है तूफान 
चरणों में नत हैं कोटि प्राण 
माँ आज कर तू यह भू महान 
माँ ला दे अब तू नव विहान 

माँ बस यही है प्रार्थना 
माँ सिद्ध कर तू साधना 
भारतभूमि अब भव्य हो 
जगतमूर्ति यह दिव्य हो ।।

- ©चन्दन सिंह "चाँद"

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*सजल*
मात्रा-भार--16
समांत--इया
पदांत--भाई
जगत बड़ा है छलिया भाई,
आज धवल कल करिया भाई।।

नित नूतन यह रूप दिखाता,
अभी सुखी फिर दुखिया भाई।।

मिले किसी को पलँग-बिछौना,
नहीं किसी को खटिया भाई।।

कुछ को लगता विष भी अमृत,
कुछ को अमृत घटिया भाई।।

कहीं झाड़ है काँटों वाली,
कहीं आम की बगिया भाई।।

चाहे जैसा भी यह जग है,
इसको समझो बढ़िया भाई।।

आश्रय देता यही सभी को,
जैसे संतों की कुटिया भाई।।
        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
            9919446372

नूतन लाल साहू

मन के कागज पर

हे शारदा मां मुझे ऐसी प्रेरणा दें कि
एक सदभावना गीत लिख सकूं कि
जो गूंजे गगन में
महके पवन में
हर एक मन में
सुखी रहें सबकी जिंदगानी
हे शारदा मां मुझे ऐसी प्रेरणा दें कि
प्रेम का एक संदेश लिख सकूं
हर घर ऐसा बने कि
जिसमें प्रेम की ईंट और गारा हों
हर नींव में भाई चारा हों
कंधो जैसी छतों का सहारा हों
दिल की खिड़की में उजियारा हों
वह घर गिरें नही,भूचालो से
घर वालों में प्रेम भावना हों
हे शारदा मां मुझे ऐसी प्रेरणा दें कि
एक प्रेरक प्रसंग लिख सकूं
हर मानव में संयम और मर्यादा हो
हिंसा पर न हो आमदा
संवेदन की झंकृतिया हों
ऐसा कॉलम हो भविष्य का, कि
बच्चे अपने मुस्कुराएं
हे शारदा मां मुझे ऐसी प्रेरणा दें कि
एक ऐसी गाथा लिख सकूं
जो जिंदगी के रण में
और इक्कीसवीं सदी के 
अंतिम चरण में
हर आदमी को,जो समाचार मिलें
वह शुभ ही शुभ हों
कोई भी अमंगल न हो
मन के कागज पर
ऐसा ही कुछ लिख सकूं
मुझे शक्ति दे मां,मुझे शक्ति दे मां

नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-4
     *अठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
कीचड़ भरी गलिन गोकुल कै।
खेलहिं जहाँ सुतन्ह नंद कै।।
   चलत बकैयाँ पग-कटि घुघरू।
    जनु सिव थिरकहिं बाजत डमरू।।
कबहुँ-कबहुँ ते पाछे चलहीं।
मग महँ जे अनजाना रहहीं।।
     पर ते सिसुहिं जानि अनजाना।
     चलत बकैयाँ मातुहिं आना।।
जावहिं राम रोहिनी पासा।
पास जसोदा कृष्न उलासा।।
    स्तन-पान करावहिं मैया।
    निरखत अद्भुत राम-कन्हैया।।
कीचड़-लसित गात दुइ भ्राता।
बहु-बहु लखि नहिं चित्त अघाता।।
     लखि भोला मुख राम-कन्हैया।
     सिंधु अनंदहिं डूबहिं मैया ।।
स्तन-पान करत मुस्काए।
लखि दुइ दंतुलि चित हरषाए।।
     कछुक काल बीते दुइ भाई।
      बइठल बछरू पूँछहिं धाई।।
लीला निरखि-निरखि सभ हरखहिं।
देखि जिनहिं गोपी सभ तरसहिं।।
     भागै बछरू डरि चहुँ ओरा।
      लेइ घसीटत दुइनउँ छोरा।।
छाँड़ि सभें गोपी निज कारज।
होंहि अनंदित लखि अस अचरज।।
    हँसि-हँसि, लोट-पोट भुइँ परहीं।
     जनु ते सुखन्ह अमरपुर पवहीं।।
चंचल-नटखट दुइनउँ भाई।
कबहुँ त जाइ हिरन अरु गाई।
     जावहिं कबहूँ पसुहिं बिषाना।
       जरत अगिनि कूदहिं  अनजाना।।
कूप-गड्ढ-जल गिरि-गिरि बचहीं।
कबहुँ त कंट-बनज महँ फँसहीं।।
     खेलहिं कबहुँ लेइ बलदाऊ।
     किसुनहिं मोर संग हरखाऊ।।
बहुतै बरजैं मिलि महतारी।
मानैं राम न किसुन मुरारी।।
     धारि चित्त तजि गृह सभ काजा।
      कहत बुलावैं आ जा,आ जा।।.
दोहा-कछुक काल के बाद तब,चलन लगे निज पाँव।
        दुइनउँ बंधु लुदकि-लुदकि, ब्रज महँ ठाँवहिं-ठाँव।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372

अतुल पाठक धैर्य

अंतर्राष्ट्रीय चाय दिवस विशेष
शीर्षक-चाय
विधा-कविता
************
चाय की चुस्की में घुला है रफ़्ता-रफ़्ता प्यार,
मुस्कुराते लबों पर सदा बढ़ता रहता ख़ुमार।

एक कुल्हड़ चाय से उतरे सिरदर्द की मार,
हो चाय सा इश्क़ भी हर दिन बन जाए इतवार।

रखो अंदाज़ अपना जैसा होता है दिलदार,
छूटती नहीं तलब इसकी भले ही हो जाए उधार।

सुबह-सुबह जो तुम मेरे लिए गर्मागरम चाय लेकर आती हो,
कसम से तुम मेरा हर दिन ख़ास बनाती हो।

मैं और तुम यानी हम से चाय भी तो प्यार करती है,
तभी तो होंठों से आकर सीधे गले में उतरती है।

तेरा साथ न छोड़ेंगे तू मीठे बोल सी घुलकर मिल जाती है,
कितने रिश्ते नाते जुड़वाती है जब तू टेबल पर नाश्ते में आती है।
रचनाकार-अतुल पाठक " धैर्य "
पता-जनपद हाथरस(उत्तर प्रदेश)
मौलिक/स्वरचित रचना

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