अर्चना पाठक निरंतर

दिनांक- 26 /05/ 2021 
 *तूफान*
विधा- आल्हा छंद 

कोरोना से त्रस्त सभी थे,
 आया कैसा यह तूफान।
 अस्त सभी है करके जाता ,
रूप भयंकर लेता जान।

 तटनी थरथर काँप रही है,
 तट बंधों का टूटा ढाल।
 जल गर्जन से डोली धरती,
 जनजीवन भी है बेहाल।

 ऊँची उठती लहरें माना,
 तूफानों में गिरता कार ।
देख रहे हैं कुछ सैलानी,
 रोक सके क्या हाहाकार।

 ताप बढ़ा फिर पर्वत पिघले ,
तांडव सहने को मजबूर,
 रूष्ट प्रकृति का ध्यान धरो अब,
 क्रुद्ध भयंकर होगा दूर।

*अर्चना पाठक 'निरंतर'*

अतुल पाठक धैर्य

बुद्ध पूर्णिमा विशेष
शीर्षक-भगवान बुद्ध
विधा-मुक्त
-----------------------
सारे सुख सम्पदा त्यागते,
सत्य पर चलकर खुद को जानने की ठानते।

जीवन सत्य को जिसने जाना है,
वही भगवान बुद्ध कहलाना है।

जो मन, वचन और कर्म से शुद्ध है,
हकीकत में बस वही इक बुद्ध है।

लालच,घृणा,काम,क्रोध सब त्यागे तब भए शुद्ध,
सत्य,सनातन,धर्म,समपर्ण पर चल चल बन गए बुद्ध।

क्योंकि आज ही बुद्ध जन्म है पाते
इसलिए बुद्ध पूर्णिमा हम पर्व मनाते।
रचनाकार-अतुल पाठक " धैर्य "
पता-जनपद हाथरस(उत्तर प्रदेश)
मौलिक/स्वरचित रचना

सुधीर श्रीवास्तव

ख्वाब प्यारा है
**************
ये सिवाय गलतफहमी के
और कुछ नहीं है,
सिर्फ तुम्हारे मन का फितूर है,
तुम्हारा अहम भाव है।
माना कि आज तुम
घमंड में फुदक रहे हो,
मृगतृष्णा बन उछल रहे हो
ये साल तुम्हारा है
सोचकर भ्रम में जी रहे हो।
शायद मुगालते का शिकार हो
गत वर्ष भी तो आये थे
अपना रंग दिखाये थे
फिर हमारे आगे दुम भी दबाए थे,
शायद ये साल तुम्हारा हो जाये
यही सोचकर तुम
अब इस साल भी चोरी चोरी
घुस आये हो मगर
अब तुम्हारे विनाश की बारी है,
तुम्हें मिटाने की हमनें
कर ली पूरी तैयारी है।
टुकड़ों में तुमने साल को
अपना बनाने की कोशिशें
जरूर की है बेवकूफ,
न वो साल तुम्हारा बन सका
न ये साल तुम्हारा बन सकता है,
वो साल भी हमारा था
ये  साल भी हमारा है,
अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने का
तुम्हारा ख्वाब जरूर प्यारा है।
# सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

आत्मा से परम आआत्मा
की यात्रा सिद्धार्थ से बुद्ध
अवतार-----

बढ़ गया अन्याय क्रूरता अत्याचार 
पसरा व्यथि व्यभीचार।।
काया  मानव की माया विष्णु ने
लिया मनुज अवतार सिद्धार्थ।।

कपिल वस्तु लुम्बनी पावन भूमि अविनि आँचल अवतार जन्मा सिद्ध अर्थ का नाम ।।

शुद्धौधन महामाया के धन्य भाग्य जन्मा सिद्धार्थ जन्म भाग्य में बैराग्य।।

राज पाठ समाज जीवन सुख भोग विलास में रम जाए सिद्धार्थ माँ बाप के सारे प्रयास व्यर्थ बेकार।।

राम का चौदह वर्ष वनवास
कृष्ण कारागार ही जन्म भूमि
राज पाठ सुख भोग विलास का
स्वयं त्याग किया सिद्धार्थ।।

मर्यादा अवतार लीला अवतार
राम कृष्ण का रूप विष्णु
सिद्धार्थ जीवन सत्य आविष्कार
अवतार।।

जीवन की अवस्थाएं चार
बृद्ध बीमार मृत्यु  असहाय
जीवन की सच्चाई निकल
पड़ा सिद्धार्थ त्यागा भौतिकता
का संसार।।
पहुंचा राजगीर गया  मोक्ष का तीर्थस्थल सत्य सनातन का विश्वाश।।

बट बृक्ष की छाया मात्र सिद्धार्थ से बुद्ध की जीवन यात्रा आत्मा की परम यात्रा की यात्रा बुद्ध परमात्मा का
सत्य साकार।।                           

आत्म बोध का बोध 
बोध राजगीर बोध गया
बट  बृक्ष बोधि बट बृक्ष
बन गया युग का पारिजात।।

सारनाथ वाराणसी में
उद्देश्य उपदेश का प्रथम
सोपान ।।                              

हिंसा नही अहिंसा
धर्म सिद्धान्त का शंखनाद।।

अहिंसा परमोधर्म युग का
धर्म मर्म करुणा सत्य अहिंसा
सिद्धार्थ से बुद्ध की आत्मा के
परमात्मा का यथार्थ सत्यार्थ।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

रामकेश एम यादव

मुंबई शहर!

मुंबई के दरो-दीवार में मेरा दिल धड़कता है,
हर जर्रे - जर्रे को ये दिल सलाम करता है।
करती हैं सजदा इसकी,निशिदिन मेरी सांसें,
बिना रुके,बिना थके,यह रात-दिन चलता है,
सजाते हजारों ख्वाब लोग दूर-दूर से आकर,
हर मेहनतकश का ये खूब आदर करता है।
दौलत,शोहरत से भर जाती है सबकी झोली,
ये मोहब्बत का दीया जला के रखता है।
चुभाता कोई इस फूल के शहर को काँटा,
तब फूल नहीं,ये कांटे से कांटा निकालता है।
यहाँ की व्यवस्था सदा रहती है चाक चौबंद,
बावजूद इसके भी,ये तूफाँ से रोज लड़ता है।
यहाँ की जनता है मानों फ़रिश्ते के जैसी,
उन्हें पलकों की छाँव में छुपाके रखता है।  
 वफ़ाओं की बस्तियाँ तो बसाता ही है ये,
अपने दिल के तार से उन्हें जोड़के रखता है।
संतों,महात्माओं,शहीदों की है ये पावन भूमि,
रहे चमन महफूज, अहल-ए-दिल रखता है।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

निशा अतुल्य

राधे राधे 
बुद्ध पूर्णिमा की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं 
इस दिन पर अभी लिखी रचना आप सबके लिए बताइए जरूर क्या ठीक लिखा ?

26.5.2021
*बुद्ध पूर्णिमा पर समर्पित यशोधरा को*

बुद्ध हो ना कहाँ आसान था सिद्धार्थ का
तो क्या यशोधरा होना सहज था नारी स्वभाव का ।

सब त्यागना अगर आसान न था सिद्धार्थ का 
तो कर्मों का कर निर्वहन तपस्वनी जीवन जीना क्या आसान था यशोधरा का ।

पुत्र का त्याग 
कहाँ आसान था सिद्धार्थ के लिए,
मगर राज्य को संभालना शिशु के साथ
क्या बहुत आसान था यशोधरा के लिए।

सच में सिद्धार्थ का बुद्ध होना आसान न था
पर कोई यशोधरा बन हो जाये स्वतः ही बुद्ध तो 
बुद्ध को आना पड़ता है लेने स्वीकृति सन्यास की ।
और यशोधरा अनजाने ही बन जाती है गुरु, दे स्वीकृति सन्यास की ।

स्वमेव पुत्र सहित करती गमन 
बुद्धम शरणम गच्छामि ,
बुद्धम शरणम गच्छामि 
ये ही उत्कृष्टता बन जाती है,
नारी भाव की ।।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

नंदलाल मणि त्रिपाठी पितांबर

कुदरत और कायनात

सागर से उठती लहरे
तूफान तहस नहस करती
युग मानव का अहंकार।।
लाख जतन करता बच
नही पाता निश्चय होता
विनाश संघार ।।
कुदरत का कहर सुनामी
चक्रवात तूफान विज्ञान
करता लाख प्रयास 
ज्ञात  रोक नही पाता तूफान।।
सुनामी का  पता नही
कब आएगी विकट विकराल
विज्ञान चाँद मंगल पर पहुँच
रहा नही रोक पाया अब तक
कहर कुदरत का विज्ञान।।
कुदरत क्या है कुदरत 
ताकत की क्या है क्या है कुदरत की मार अब तक संमझ रहा है
युग मानव विज्ञान।।
दिखता नही समझ नही
पाता युग मानव संक्रमण
संक्रामक कुदरत का कहर 
कोरोना काल।।
टूट गए युग मानव के
अहंकार विखर गयी 
संसकृति विगड़ गए 
चाल अभिमान ।।
रिश्तों से रिश्ते दूर 
मुश्किल साँसों का
संचार ।।
पास नही आता कोई
चाहे प्रियतमा का प्यार
हुश्न इश्क मोहब्बत जज्बा
जुनून समाप्त।।
अरबो की दौलत लाखो
कारिन्दों की फौज बेकार
तड़फ तड़फ कर मरता युग
मानव लावारिस सा पड़ा
शमशान कब्रिस्तान।।
नज़र बंद , कैद कर
दिया घर मे ही युग खोज
रहा अपना अपराध।।
कुदरत का कानून अलग
कुदरत का न्याय फैसला
अलग कुदरत का कहर 
सजा काटती कायनात।।
सड़के सुनी हाट बाजार
बीरान गलियां मोहल्ले भी
लगते जैसे बसते नही यहां
इंसान।।
कोरोना का रोना कुदरत
की नाराजगी का अपना
 अलग अंदाज बेबस
लाचार दे रहे सभी एक
दूजे को अपने अपने नुक्से
का उपचार।।
रिम झिम सावन की फुहार
प्रेम प्यार हुश्न इश्क मोहब्बत
दुनियां में इज़हार कुदरत की
इनायत उपहार।।
सूखा कही बाढ़ प्यासे 
मरता कोई पानी ही पीकर
मरता कोई कभी सर्द की चांदनी
यौवन प्यार मोहब्बत की खुशियों
का दीदार।।
शीत लहर ठंठ मरता इंसान
वासंती वायर नव कोपल
किसलय का मधुमास
जलती ज्वाला सी गर्मी 
मृत्यु काल।।
कुदरत के कायनात में
सौगातों की शान कहर
रहम के दो धार।।
कुदरत की दुनियां में 
कुदरत का प्यार मिले
कुदरत के करिश्मे का
दुनियां को सौगात मिले।।         

कुदरत का कहर ना 
बरपे ,बरसे कुदरद का
प्यार सौगात कुदरत से
प्यार करो बेजा कुदरत
को ना नाराज करो।
समझो कुदरत का विज्ञान
ना होगा कुदरत का कहर
ना होंगे हैरान परेशान।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पितांबर
गोरखपुर उत्तर प्रदेश

डॉ0 निर्मला शर्मा

भक्त शबरी

राम नाम की धुन लगी, शबरी के मन माय।
राम नाम ही हिय बसा, करती सुमिरन जाय।
भीलपुत्री शबरी चली,मातु-पिता गृह त्याग।
सांसारिक सुख तज दिये, प्रभु चरणन अनुराग।
गुरु मतंग के आश्रम में, जपे राम का नाम।
शबरी नित आशा करे, कबहु पधारे राम।
राह बुहार शूल चुनती, मन में हरपल आस।
फूल बिछाऊं राह में, प्रभु मिलन की प्यास।
राम चरण कुटिया पड़े, खुशी न हृदय समाय।
प्रभु चरणों की धूल पा, जीवन ज्योति समाय।
घन सम नैनन नीर बहे, चरण रहा ज्यों पखार।
शबरी की भक्ति फली, मिट गये सभी विकार।
बेसुध सी शबरी हुई, चख-चख रखती बेर।
भगवन का आतिथ्य करे, उन्हें खिलाए बेर।

डॉ0 निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान

वंशिका अल्पना दुबे

भाई

मेरे भाई मेरे दोस्त भी हैं, और मेरी जिंदगी भी
हम तीनों साथ हंसते भी हैं, और रोते भी
हम लड़के भी हैं, और झगड़ते भी
हम साथ खेलते भी हैं, और घूमते भी

घर पर हर बात में सिर्फ अपनी हुकूमत चलाती हूं, इस बात से वह चिढ़ाते नहीं
घर की हर एक चीज में अपना अधिकार जताती हूं, इस बात से वह जलते नहीं

मैं चाहे कुछ भी करूं, वह मुझे कभी रोकते नहीं टोकते नहीं
हमेशा कहते हैं कि मैं दुनिया की सबसे अच्छी बहन हूं, मुझ में कोई कमी है यह वह मानते ही नहीं

शादी के बाद भी घर पर या उन पर मेरा अधिकार कम हो गया है, ऐसा कभी उन्होंने बताया नहीं
मैं कहीं पर गलत हूं या मैं कुछ गलत भी कर सकती हूं, ऐसा कभी उन्होंने बोला ही नहीं

हम एक दूसरे से गुस्सा तो होते हैं, पर कोई किसी को मनाता नहीं
हम एक दूसरे पर जान देते हैं, पर कोई किसी को यह जताता नहीं

किसी को भी दुखी करना यह हममें से किसी की भी आदत नहीं, 
पर हममें से किसी एक को भी दुखी करके कोई हम से बच जाए यह संभव नहीं

चोट मुझको लगती है, दर्द उनके चेहरे पर नजर आता है
दुखी मैं होती हूं, तो आंसू उनके आंखों से गिरता है
मेरी मुस्कान उनके चेहरों की चमक बन जाती है, 
मेरी खुशी उनके दिलों का सुकून बन जाती है

हम अपनी खुशियां आपस में बांटते भी हैं, 
और एक दूसरे से अपने गम छुपाते भी है
हम साथ मिलकर खिलखिलाते भी हैं, 
हम हमेशा एक दूसरे का साथ देते भी हैं

क्या लिखूं अपने उन भाइयों के बारे में, 
जिनकी हर खुशी मेरे बिना अधूरी है, 
मेरी जिंदगी उनके बिना अधूरी है, 
हमारा यह रिश्ता हमारी जिंदगी है

भगवान से बस यही प्रार्थना करती हूं, 
कि मेरे भाई जहां रहे खुश रहे स्वस्थ रहे, 
कामयाबी हमेशा उनके कदम चूमे
दुख और परेशानियां उनको छू कर भी न गुजरे

          वंशिका अल्पना दुबे
                  बेंगलुरु

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

आठवाँ-7
  *आठवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
एक दिवस बलदाऊ भैया।
लइ गोपिन्ह कह जसुमति मैया।।
     माई,खाए किसुन-कन्हाई।
     माटी इत-उत धाई-धाई।।
पकरि क हाथ कृष्न कै मैया।
कह नटखट तू बहुत कन्हैया।।
     काहें किसुन तू खायो माटी।
     अस कहि जसुमति किसुनहिं डाँटी।।
सुनतै कान्हा डरिगे बहुतै।
लगी नाचने पुतरी तुरतै।।
    झूठ कहहिं ई सभें हे मैया।
    गोप-सखा-बलदाऊ भैया।।
अस कहि कृष्न कहे सुनु माई।
नहिं परतीति त मुँहहिं देखाई।।
    अब नहिं बाति औरु कछु बोलउ।
    कहहिं जसोदा मुहँ अब खोलउ।।
तुरत किसुन तब खोले आनन।
लखीं जसोदा महि-गिरि-कानन।।
      सकल चराचर अरु ब्रह्मंडा।
      बायु-अग्नि-रबि-ससी अखंडा।।
जल-समुद्र अरु द्वीप-अकासा।
विद्युत-तारा सकल प्रकासा।।
    सत-रज-तम तीनिउँ मुख माहीं।
    परे जसोदा सभें लखाहीं।।
जीव-काल अरु करम-सुभावा।
साथ बासना जे बपु पावा।।
     बिबिध रूप धारे संसारा।
     स्वयमहुँ देखीं जसुमति सारा।।
दोहा-किसुन-छोट मुख मा लखीं,जसुमति रूप अनूप।
        सकल विश्व जामे रहा,जल-थल-गगन-स्वरूप।।
                 डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

फ़लक के चाँद सितारों से बात होती है
फ़िराक़े-यार में जब-जब हयात रोती है 

जो बेवफ़ाई के दामन पे दाग़ हैं उसके
हरेक रात वो अश्कों से उनको  धोती है

क़रार दिल का मेरे लूट तो लिया लेकिन
सुकूनो-चैन से वो भी उधर न सोती है 

क़सम से अश्क बहाना कभी न तुम फिर से
मेरी नज़र में ये आँसू हरेक  मोती
 है 

इसी लिए है ये मक़बूल अहले-दुनिया में 
ख़याल तेरे ही मेरी ग़ज़ल पिरोती है 

मुझे वो होश में रहने कभी नहीं देती
नशे में इतना मुझे रोज़ ही डुबोती है

ज़रा सी देर में फिर दिन निकल ही आयेगा
फिज़ूल बातों में क्यों पल हसीन खोती है 

सभी चिढ़ाते हैं कह कह के बेवफ़ा उसको 
न जाने कैसे वो यह बोझ दिल पे ढोती है 

ज़रा सी बात ये *साग़र* समझ नहीं आई
कि उसकी  याद मेरी आँख क्यों  भिगोती है 

🖋️विनय साग़र जायसवाल, बरेली
22/5/2021
फ़लक-अम्बर, आकाश
फ़िराक़े-यार-मित्र का वियोग
हयात-जीवन
मक़बूल -पिय्र ,मान्य, स्वीकृति ,
अहले-दुनिया में-दुनिया वालों में

नूतन लाल साहू

मां का गर्भ एक प्रयोगशाला

जैसे सागर से निकला
सीपी में पला
आभा से भरपूर
अनेक रूपों में ढला
मोती होती है
वैसी ही मानव जीवन की
कहानी भी होती है
मां का गर्भ
इंसानी प्रयोगशाला है
सम्पूर्ण परिसर को
मां,कहा जाता है
कच्चे माल से
फाइनल प्रोडक्ट तक की
गतिविधियां नौ महीने रहती है
जिंदगी है, हरमुनिया जैसी
जहां उंगलियां दबाती है
सफेद और काली पट्टी
सफेद यानी सुख की
तो काली को दुःख की मान लो
लेकिन याद रखना मेरे मीत
काली पट्टी से भी
निकलता है संगीत
सुख और दुःख दोनों
इंसान के लिए है,इंसानियत के
गतिमान पहिए
सुख से दुःख सोता है
और दुःख से सुख भागे
सुख और दुःख दोनों है
जीवन की, ऊन के दो धागे
रास्ता है मुस्किल
पर नामुमकिन नही
जो आत्मविश्वास के सहारे
आगे बढ़ता है
अपना लक्ष्य पा जाता है
और जो, कुसंगति में पड़ता है
उसका जीवन
अंधकार मय हो जाता है
मां का गर्भ एक प्रयोगशाला है
वीर अभिमन्यु
साक्षात उदाहरण है

नूतन लाल साहू

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना साथ निभाना
सुख दुःख में मिल कर हाथ
बटाना।।
जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना।।
अभी तो ख्वाबो की दुनियां
दूल्हा दुल्हन रस्म रिवाज 
कसमे वादे के संग जन्म 
जन्म तक रहना है।।
जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना।।
जीवन की राहों में कांटे बहुत फूल
कम कांटो के शुलों से बचना  फूलों से दिल दामन का राह बनाना है।।
जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना।।
मधुमास की शुरुआत
मेरे नज़रों में तेरी दुनियां
तेरी नज़रों में मेरी दुनियां
नज़रों में ही सिमटी दुनियां
नज़रों से दिल दरिया की
गहराई में डूब जाना है।।
जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना।।

दिल की गहराई से उठते
तूफान कभी तूफानों में
डगमगाती जिंदगी की कश्ती
दिल नज़रों में दर्द का एहसास
दिल के उठते तूफानों में प्यार
को पतवार बनाना है।।                   
जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना।।
गर दिल को चोट ही
लग जाय अनजाने में
एक दूजे से दिल दर्पण
ना टूटे ना रूठे ऐसा
साथ निभाना सीखे
कुछ जमाना।।
जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना।।
वक्त की मार की रफ़्तार में
प्यार ना हो फीका 
रंग ना  दूजा चढ़े प्यार के सिवा
प्यार की नई दुनियां बनाना है।।
वक्त की कोई धूल प्यार
की इबादत की इबारत
ढक न पाए दुनियां
भूल ना पाए जहाँ जन्नत
बानाना है।।
जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना।।
दिल सांसे धड़कन
एक दूजे से एक दूजे
की खातिर कदम कदम
लम्हा लम्हा जवां जज्बा
साथ चलते जाना है ।।
जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना।।
जवां जज्बा जज्बात ही
आखिरी लम्हे तक साथ
बुढ़ापा बोझ बासीपन का नही
नाम हर लम्हा नए जोश
का जश्न बनाना है।।
जीवन साथी जीवन साथी
साथ मे रहना।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(16/14)
जबसे गए छोड़ तुम मुझको,
नहीं मुझे कुछ भाता है।
शांति और सुख कहे अलविदा-
व्योम अनल बरसाता है।।

लगती कुदरत रूठी-रूठी,
फीके लगें नज़ारे भी।
अच्छे लगते नहीं गगन के,
सूरज-चाँद-सितारे भी।
खिला हुआ भरपूर सुमन भी-
मन को नहीं लुभाता है।।
   व्योम अनल बरसाता है।।

जब भी बहे पवन पुरुवाई,
पीर उठे अनजानी सी।
साँची प्रीति लगे अब मन को,
झूठी गढ़ी कहानी सी।
यही सोच कर अब दिल मेरा-
रह-रह कर घबराता है।।
    व्योम अनल बरसाता है।।

कोयल बोले भले बाग में,
अब तो हो विश्वास नहीं।
प्रियतम की रट करे पपीहा,
बुझे प्रीति की प्यास नहीं।
मधुर गीत-संगीत भी सुनकर-
कभी न हिय हुलसाता है।।
     व्योम अनल बरसाता है।।

घर वापस अब आ जा साजन,
दिल तुझको ही याद करे।
तेरा साथ मिले फिर इसको,
ईश्वर से फरियाद करे।
भूल हुई थी जो भी इससे-
सोच-सोच पछताता है।।
  व्योम अनल बरसाता है।।
  जब से छोड़ गए तुम मुझको,
  नहीं मुझे कुछ भाता है।।
          "©डॉ0हरि नाथ मिश्र
              9919446372

सुखमिला अग्रवाल भूमिजा

*कैसा ये तूफान*
•••••••••🌹•••••••
घिरी जब मेरी किश्ती, बने हो तुम पतवार।
फंसा था तूफान में, बचा लिया हर बार।१।

तूफान सा जीवन मेरा, तुम लो हमको थाम।
चरणों का नित ध्यान हो,करना इतना काम।२।

घिर घिर चहुँओर घिरे,कैसा है तूफान।
सूझे ना राह कोई,सम्भालो अब आन।३।
*********🌹**********
सुखमिला अग्रवाल'भूमिजा'
स्वरचित मौलिक
कापीराइट ©️®️
मुंबई

देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

...................टूटती उम्मीदों की उम्मीद.................

विषम परिस्थितियों में है , टूटती उम्मीदों  की उम्मीद।
भगवान,अल्लाह,वाहेगुरु, बस एक आपकी उम्मीद।।

साल दर साल , विषाणु , फफूँद आदि  का आक्रमण;
सारे तंत्र  हो रहे  हैं असफल  तो आपसे  ही उम्मीद।।

हर बार तुफान के नये नये नाम,यस,आमफानआदि;
हर तरह की परेशानियों में बस आपकी  ही उम्मीद।।

नेताओं की  राजनीति , एक दूसरे  की टाँग खिंचाई;
देश और  जनता  को है  इनसे  कोई  नहीं  उम्मीद।।

सब कहते रहते हैं कि  उनलोगों ने कुछ  नहीं किया;
कोई नहीं कहते हमने क्या किया, तो कैसी उम्मीद?

व्यवसाय में अंग्रेजी में एक मुख्य शब्द है"कष्टोमर";
जनता कष्टों से ही मर , पर कुछ कर  नहीं उम्मीद।।

इतने तप करने के बाद,मनुष्ययोणि में जन्म लेकर;
कैसे रहें "आनंद",आपको छोड़कर है कहीं उम्मीद?

----------------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को मेरा कोटि प्रणाम, आज का विषय ।।विचार।। पर की गयी रचनाओं का अवलोकन करें....                    सदभाव विचार पुनीत जगै तौ बाल उठै किलकारी लगाई।।                                       पहिचानु औ जान कै बात नही  ऊ तकै तव नैन हिया  तव जाई।।                           दाँतुलि पंक खिलै जस मोतिनु  हार विहारु विलोकतु धाई।।                           भाखत चंचल काव कही इहय मानव कै सदभाव कहाई।।1।।                       दुरभाव निहारतु नैन विलोकतु  काँपि जिया तव पास ना जाई।।                        नैन विलोकतु नयन उहौ अरू नयननु भाषा ते भाव लगाई।।                            रूह कँपै कछू भाखि सकै नहि निरखतु सिहरतु काँपतु जाई।।                           भाखत चंचल रुदन करै  अरू हाथु औ पाँव चलावनु जाई।।2।।                         नयननु भाव स्वरूप निहारतु बागनु पुष्प चुनावनु जाई।।                                 सखियनु संगु रहि सिय मातु  अँटे तँह अनुज  सहित  रघुराई।।                          चाहत फूल चुनन दोऊ भाई  मुला उत नैन ते नयन मिलाई।।                               भाखत चंचल काव कही  उत नयननु भाव  सनेहु लगाई।।3।।                               काँधे धरे तनु हाँथु सरासनु  पीठनु अश्व  अँटे तँह जाई।।                                   घना विरवानु छिपा हिरना तन प्यासु  बुझावनु सरवरू जाई।।                            ताहि समय सखियानु समेत करै स्नानु अँटी तरुनाई।।                                      भाखत चंचल रिसिवरु नाहि औ राजनु संगु तब नयनु लगाई।।4।।                         इहाँ तौ सयानी शकुन्तल देखि उहाँ दुष्यन्तु तै नेहु लगाई।।                            नेह सनेह जगै यतनानु कि रिसिवरु कै तौ ख्यालु ना आई।।                                  प्रीति पुनीत जगी यतनी नु कि नैननु चारि मिलावनु जाई।।                     भाखत चंचल व्याहु रच्यौ औ मुँदरी निशानु दिखावनु ताँई।।5।।                        आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओम नगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी,अमेठी,उ.प्र.।। मोबाइल... 8853521398,9125519009।।

पावन मंच को मेरा कर बद्ध प्रणाम, आज की रचना का प्रसंग धार्मिक है, अवलोकन करें बारहू मा वैशाख जू नीकु माधव मास यही कहि जाई!! हिन्दुअन मा यहु मास पुनीत धरा पै यही भगवान बताई!! सागर काढि़ जौ पायौ अमरित वा तिथि पुण्य एकादशी भाई!! भाखत चंचल अन्तिम तीन सुनीकु रही यहू वेद बताई!! 1!! त्रयोदशी पूनम और चतुर्दशी याको महत्तव बरनि नहि जाई!! ब्राह्ममहूर्त नींद तजय अरू जा स्नानु ना बेरि लगाई!! ध्यान औ जापु जपै त्रिलोकी औ नामु हजारू जपै जेहि भाई!! भाखत चंचल निहचय मुक्ति औ लख चौरासिनु पारहु जाई!! 2!! दान औ ध्यान जे नित्य करै औ तीरथु धामु जा पुण्य कमाई!! याहू कोरोना ना छांड़हु गेहु सबै नदियानु कै ध्यानु लगाई!! अवगुण नाहि जे चित्त धरै परस्वार्थ मा निज नाम लिखाई!! भाखत चंचल काव कही तेहि दीनदयाल जे पार लगाई!! 3!! तन मानुस ई बड़ भागि मिला चौरासी मा नीकु यहै गनि जाई!! झूठ फरेब औ छद्म ना नीकु अवगुण या इतिहास कहाई!! ऊंच विचार औ जीवन सादा रख नित नेति औ पुण्य कमाई!! भाखत चंचल दीनदयाल ई पार करै मा ना बेरि लगाई!! 4!! आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल, ओमनगर सुलतानपुर, उलरा चन्दौकी अमेठी उत्तर प्रदेश मोबाइल 8853521398,9125519009!!

सुधीर श्रीवास्तव

कर्मफल
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यह विडंबना ही तो है
कि सब कुछ जानते हुए भी
हम अपने कर्मों पर
ध्यान कहाँ देते हैं,
विचार भी तनिक नहीं करते हैं।
बस ! फल की चाहत
सदा रखते हैं,
हमेशा अच्छे की ही चाह रखते हैं।
सच तो यह है कि
हमारे कर्मों का पल पल का
हिसाब रखा जाता है,
जो हमारी समझ में नहीं आता है।
जैसी हमारी कर्मगति है
उसी के अनुरूप कर्मफल
कुछ इस जन्म में मिलता जाता है
तो कुछ अगले जन्म में भी
हमारे साथ जाता है।
हमें अहसास तो होता है
पर अपने कर्मों पर हमारा 
ध्यान ही कब जाता है?
संकेत भी मिलता है
पर इंसान कितना समझता है
या समझना ही नहीं चाहता है
बस उसी का कर्मफल
समयानुसार हमें मिलता जाता है।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
     8115285921
©मौलिक, स्वरचित

पुत्रवधु
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अपेक्षाओं का टोकरा
सिर पर लादकर
हम बाखूशी स्वागत करते हैं
अपनी पुत्रवधु का।
अंजाने लोग,परिवार, परिवेश में
हम उसकी स्थिति को
समझना कब चाहते?
अपने स्वार्थ की गंगा में
बस। क्रीड़ा करते,
वह भी इंसान है
किसी की बहन बेटी है,
भावनाओं के ज्वार के बीच
गड्डमड्ड हो रही उसकी
किसी को फिक्र  तक नहीं।
ये विडंबना नहीं 
तो और क्या है?
चंद पलों में बस जैसे
उसका अस्तित्व ही खो गया,
बेटी थी तब तक सब ठीक था,
वधु क्या बनी
उसका वजूद ही जैसे
दीनहीन हो गया,
परिंदा पंख विहीन हो गया।
● सुधीर श्रीवास्तव
         गोण्डा,उ.प्र.
      8115285921
©मौलिक, स्वरचित

रुपेश कुमार

आज का भारत 
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जहाँ कभी पुष्प वाटिका हुआ करती थी,  
वहाँ आज लाशों का अंबार लगा हुआ है ,

जो जमीन कभी सोने की चिड़िया होती थी ,
वहाँ आज लाशों का विछावन बिछा है ,

जो कभी विश्व का भाग्य विधाता हुआ करता था ,
वो आज भिखारी बना घुमाता है ,

जहाँ कभी मंदिरो मे मेले लगते थे ,
आज वहाँ शमशानों पर मेले लगते है ,

जहाँ कभी सभी धर्मो का सम्मान हुआ करता था ,
आज वहाँ धार्मिक कट्टरता हुआ करती है ,

जो कभी साधु- संतों की नगरी हुआ करती थी ,
आज वहाँ आज बाजार बना बैठा है ,

जहाँ कभी ईमानदारी की आवाजें गूँजती थी ,
आज वहाँ बेईमानों का अड्डा हुआ करता है ,

जहाँ के ज्ञान व विज्ञान की कभी विश्व पूजा करता था ,
आज वहा अज्ञानता का पर्याय बना बैठा है ,

जहाँ कभी दानी ज्ञानी महाराजाओं  का राज हुआ करता था ,
आज वहाँ अनपढ़ बेईमानों का राज हुआ करता है ,

जहाँ कभी शिक्षित - विद्वान ही गुरु हुआ करते थे ,
आज वहाँ चोरी के नम्बरों पर शिक्षक ज्ञानदाता बन बैठे है ,

जहाँ कभी सत्य और अहिंसा की पूजा होती थी ,
आज वहाँ असत्य और हिंसा का बोलबाला हुआ करता है ,

जहाँ कभी राम, रहीम, बुद्ध, गाँधी आजाद का आदर होता था ,
वहाँ आज हिंसावादी नेताओं, आतंकवादियों की पूजा होती है ,

जहाँ की मिट्टी मे सिर्फ शांति का वास था ,
वहाँ की अब मिट्टी में खून, अशांति का घर है ,

जहाँ कभी स्त्रियों को देवी का रुप माना जता था ,
वहाँ अब स्त्रियों पर अत्यचार, हिंसा हुआ करता है ,

जहाँ सुकून भरी ठंडी हवाएँ गुजरती थीं खूबसूरत वादियों से, 
आज वहाँ साँस लेना दुष्कर है, 

जहाँ कभी सूरज की पहली रोशनी से सवेरा होता था ,
वहाँ आज सूरज की अंतिम रोशनी से सवेरा होता है ,

जहाँ कभी नेताओं के सिर पर खादी की टोपी होती थी ,
वहाँ आज नेताओं के सिर पर भ्रष्टाचार की टोपी है ,

जहाँ पर कभी नदियाँ माँ सम मानी जाती थीं ,
आज उनमें लाशों की नावें चल रही है ,

भारत जो कभी विश्व मे ज्ञान का सागर कहा जाता था ,
वही भारत आज अज्ञानी कहा जाता है ,

जहाँ कभी यमुना, गंगा , सरस्वती की आरती होती थी ,
आज वहाँ लाशों की आहुतियां होती है ,

जिस भारत को कभी जगत का बगीचा कहा जाता था ,
आज वहाँ ऑक्सिजन की कमी हो गई है ,
ऐसा क्यों ? 

यह जो आज का भारत है, ऐसा क्यों है? 
जाग्रत हो हे भारतवासी......! 

- रुपेश कुमार©️

रामकेश एम यादव

दौड़ेगी ज़िन्दगी!
कोरोना का  खौफ अब  हट  जाएगा,
लॉकडाउन का ये  दिन  कट जाएगा।
होगा हर जगह  खुशनुमा  वातावरण,
वायरस  का  ये  बादल  छंट जाएगा।
सजेंगे    फिर    से   वो    सिनेमाघर,
स्कूल -  कॉलेज  भी  खुल  जाएगा।
देखते बनेगी बच्चों की  चहलकदमी,
अजायबघर पर्यटकों से भर जाएगा।
कल -कारखानों में  दौड़ेगी  ज़िन्दगी,
मशीनों का  सीना भी  तन  जाएगा।
मज़दूरों  के  माथे से  फूटेगी  किरन,
अंधेरा  धरा   से   ही  मिट  जाएगा।
खाएँगे  गोलगप्पे  जुहू  बीच जाकर,
सैलानियों  का  तनाव  छंट जाएगा।
काट  देती  है हवा  जब  पत्थर  को,
जमाना   पुराना  वो  लौट   आएगा।
गुलजार होंगे फिर  होटल ये  दुकानें,
पब्लिक से चौराहा फिर भर जाएगा।
पहनेंगे  खेत  फिर  नई -नई  पोशाकें,
हर  कोई  रिश्तों  से  लिपट  जाएगा।
पा जाएगा  इंसान सुकूँ  की ज़िन्दगी,
अपनी फिर दुनिया में सिमट जाएगा।
रामकेश एम,यादव(कवि,साहित्यकार), मुंबई

अशोक छाबरा

प्रस्तुत पंक्तियां फुर्सत में लिखी गई हैं क्योंकि सभी आविष्कार फुर्सत में ही हुए हैं 😄
मैं गुजर रहा था इधर से
सोचा कि बात कर लूं आपसे...
व्यर्थ की बातों के लिए 
समय निकालना ही प्यार है,
इसके सिवा बाकी सब
दुनिया में व्यापार है,
एक बंदे ने पूछा
कि कविता करना कैसा है?
मैंने कहा-
जेब फटी हुई है
और मान रहे पैसा है,
यह ना प्यार है 
और ना व्यापार है
इस बेवकूफी को जो करे
समझ लो समझदार है!
  
🌹❤️😊

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल 

पहले तो  नज़र दिल को तलबगार करे है 
फिर उसको  मुहब्बत से गिरफ़्तार करे है 
हुस्ने-मतला--

पतझार का मौसम भी वो गुलज़ार करे है
छुप छुप के मेरा रोज़ ही दीदार करे है 

है मौजे-तलातुम में उम्मीदों का सफ़ीना
इस पार करे है न वो उस पार करे है 

यह सोच सवालों की किताबें नहीं खोलीं
हुशियार है इतनी कि पलटवार करे है 

क्या उसका इरादा है समझ में नहीं आता
इकरार करे है न वो इनकार करे है

मुश्किल में हुआ जाता है घर बार चलाना
हर चीज़ यहाँ मँहगी जो सरकार करे है

रह -रह के हिला जाती है वो दिल की इमारत
यह काम भी क्या कोई वफ़ादार करे है 

लाँघी नहीं जाती है कभी हमसे वो  *साग़र*
तामीर वो लफ़्ज़ों की जो दीवार करे है

🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली
मौजे-तलातुम --तूफान की लहरें
सफ़ीना--नाव, कश्ती
25/2/2021

नूतन लाल साहू

पहचान

संस्कार का बीज
माता पिता ने जो बो दिए है
भविष्य में एक दिन
बनकर फसल लहराएंगे
मानाकि इस कलियुग में
विकल ईमान है,पर
संस्कृति और संस्कारो का वास है
इसीलिए श्रेष्ठ हिंदुस्तान है
हम कलियुग से,काहे को डरे
जब माता पिता गुरु का
दुआओं ही दुआओं की सौगात है
मैं हिंदुस्तानी हूं
यही मेरी पहचान है
घड़ी की सुइयां
समय का बोध कराने के लिए बनी है
सब जानते है
समय बड़ा बलवान है
सभी मानते है
पर,बुजुर्गो के मान सम्मान आशीर्वाद से
संवरता है,इंसान का भाग्य
टूटते हुए उम्मीदों में उम्मीद की किरणें
दिखाता है,माता पिता गुरु का आशीर्वाद
इसीलिए तो,श्रेष्ठ है हिंदुस्तान
मैं हिंदुस्तानी हूं
यही मेरी पहचान है
जहां माता पिता  का पग छुवे
गुरु पद शीश धरें
मानवता के भाव धरें
हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई
आपस में है, सब भाई भाई
अनेकता में एकता का नारा
लगता है हिंदुस्तान में
मैं हिंदुस्तानी हूं
यही मेरी पहचान है

नूतन लाल साहू

सुधीर श्रीवास्तव

विद्रूप वाणी
**********
अब इसे क्या कहें?
अभिव्यक्ति की 
आजादी के नाम पर
शब्दों का 
खुला चीर हरण हो रहा है,
विरोध के नाम पर
शब्दों की मर्यादा का
हनन हो रहा है।
न खुद के बारे में सोचते हैं,
न ही सामने वाले के
पद प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हैं।
बस आरोप प्रत्यारोप में
अमर्यादित शब्दों का
जी भरकर प्रयोग करते हैं,
बस अधिकारों के नाम पर
सतही बोलों पर उतर आते हैं।
अगली पीढ़ियों को हम
शिक्षा,सभ्यता,विकास और
आधुनिकता के नाम पर
ये कौनसा, कैसा चरित्र 
सिखाते, समझाते, दिखाते हैं?
हम अपनी विद्रूप वाणी से
ये कैसा उदाहरण देना रहे हैं।
अफसोस की बात तो यह है कि
न तो हम लजाते,शर्माते हैं
न ही तनिक भी पछताते हैं,
इस फेहरिस्त में हर रोज
नये नाम जुड़ते जाते हैं।
●सुधीर श्रीवास्तव
    गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

विधा---कथा काव्य
शीर्षक ---जयद्रथ वध
रचना----

टुटते उम्मीदों में उम्मीद की
काव्य कथा सुनाता हूँ पुत्र
शोक प्रतिज्ञा जयद्रथ पिता
पुत्र का नियत  मोक्ष सुनाता
हूँ।।

अभिमन्यू युवा पुत्र के
कुरुक्षेत्र के कपट क्रूर काल से
आहत युग ब्रह्मांड महारथी श्रेठ
धनुर्धर ।।
किया प्रतिज्ञा सूर्यास्त तक
जयद्रथ को मारूँगा युद्ध
भूमि में या चिता स्वयं की 
सजा भस्म हो जाऊंगा घायल
अन्तर्मन।।
महानिशा का अंधकार की
 प्रतीक्षा देखेगा महारथी
का महासमर सूरज भी अस्त
हुआ था उदय उदित होगा
फिर लेकर भीषण महासमर।।
सूरज निकला मधुसूदन का
शंखनाद परम् प्रतिज्ञा का
नव संग्राम महासमर।।
युद्ध शुरू हो गया गिरते 
मुंड बहने लगा रुधिर समंदर
ज्वाला से चलते अस्त्र शत्र काल
स्वयं खड़ा देख रहा था महासमर।।
कमलविह्यू की रचना के मध्य 
खड़ा जयद्रथ कंप रहा था थर थर
पार्थ आज कुरुक्षेत्र में काल साक्षात
महा काल का रूप प्रत्यक्ष।।
केशव ने देखा असम्भव है
वध जयद्रथ का पार्थ करले
चाहे लाख जतन नारायनः
ने चक्र सुदर्शन को दिया
आदेश।।
ढक लो सूरज को आदेश
सुदर्शनधारी का पाते ही
सूरज को ढक लिया सुदर्शन
अंधेरा छा गया हा हाकार मचा
पांडव दल में छा गए निराशा
का बादल।।
महारथी अर्जुन अब रण में
स्वयं चिरनिद्रा को गले लगाएगा
प्रतिज्ञा की चिता अग्नि में भस्म
स्वयं हो जाएगा।।
कौरव दल में उत्साह हर्ष
विजय पांडव अब ना पायेगा
चलो देखते है अर्जुन खुद ही
कैसे भस्म हो जाएगा।।
अर्जुन की जब चिता पर
चिरनिद्रा के लिए प्रस्थान
किया कहा मधुसूदन ने
सुदर्शन आज तुमने क्या काम
किया।।
अब आओ लौटकर मेरे पास
अंधेरा अब फिर छटने दो
ज्यो लौटा मधुसूदन का सुदर्शन
सूरज निकला कहा नारायणन ने
पार्थ अब ना देर करो।।
पूर्ण करो प्रतिज्ञा जयद्रथ खड़ा
सामने टूटते उम्मीदों की उम्मीद
का सत्कार करो कायर नही 
कहेगा युग के टुटते ऊम्मीदो की उम्मीद में धर्म युद्ध टंकार करो।।
मारो ऐसा वाण शीश कटे जयद्रथ
का पिता गोद मे गिरे पिता पुत्र दोनों
को युग से मोक्ष प्रदान करो।।
मधुसूदन के आदेश मिला 
गूंजी गांडीव प्रत्यंचा कौरव दल
में हा हाकार मचा कटा शीश जयद्रथ
का धड़ कुरुक्षेत्र की युद्ध भूमि में
शीश पिता गोद मे चक्रधारी की
महिमा से अर्जुन ने पिता पुत्र का
उद्धार किया।।
धर्म युद्ध मे टुटते उम्मीदों की उम्मीद
विजय  अवसर उपलब्धियों की
युद्ध राजनीति का महासमर नीति
नियत चक्रधारी ने मार हार विजय
निर्णायक कर्म धर्म मर्म का मान किया।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...