काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार
(1)नाम----प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे
(2)जन्म- 25-09-1961
(3) शिक्षा-एम.ए(इतिहास)(मेरिट होल्डर),एल- एल.बी,पी-एच.डी.(इतिहास)
(4)व्यवसाय----शासकीय सेवा,
प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष इतिहास/प्रभारी प्राचार्य
कार्यालय----शासकीय जे.एम.सी.महिला महीविद्यालय,मंडला(म.प्र.)
(5)प्रकाशित रचनाएं व गतिविधियां --
*चार दशकों नें देश के पांच सौ से अधिक प्रकाशनों व विशेषांकों में दस हज़ार से अधिक रचनाएं प्रकाशित
*गद्य- पद्य में कुल 20 कृतियां प्रकाशित (चुभन,हक़ीक़त,विवेचना के स्वर,अनुभूतियाँ,कसक आदि)
*प्रसारण-----रेडियो(38 बार),भोपाल दूरदर्शन (6बार),ज़ी-स्माइल,ज़ी टी.वी.,स्टार टी.वी., ई.टी.वी.,सब-टी.वी.,साधना चैनल से प्रसारण ।
*संपादन---9 कृतियों व 8 पत्रिकाओं/विशेषांकों का सम्पादन ।
*विशेष---सुपरिचित मंचीय हास्य- व्यंग्य कवि, संयोजक,संचालक,मोटीवेटर,शोध- निदेशक,विषय विशेषज्ञ,रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर के इतिहास विभाग के अध्ययन मंडल के तीसरी बार व शासकीय पी.जी.ओटोनॉमस कॉलेज, छिंदवाड़ा इतिहासअध्ययन मंडल के सदस्य ।
एम.ए.इतिहास की पुस्तकों का लेखन
150 से अधिक कृतियों में प्राक्कथन/ भूमिका का लेखन ।
300 से अधिक कृतियों की समीक्षा का लेखन
राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में160 से अधिक शोध पत्रों की प्रस्तुति
सम्मेलनों/ समारोहों में 350 से अधिक व्याख्यान
300 से अधिक कवि सम्मेलन ।
475से अधिक कार्यक्रमों का संचालन ।
सम्मान/अलंकरण/ प्रशस्ति पत्र------देश के लगभग सभी राज्यों में 700 से अधिक सारस्वत सम्मान/ अवार्ड/ अभिनंदन ।सर्वप्रमुख अवार्ड--- म.प्र.साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी अवार्ड(51000/ रु)।
संपर्क/वर्तमान पता-आज़ाद वार्ड-चौक,मंडला,मप्र,
मो.9425484382
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(1)
प्रकाश का गीत
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अँधियारे से लड़कर हमको,उजियारे को गढ़ना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!
पीड़ा,ग़म है,व्यथा-वेदना,
दर्द नित्य मुस्काता
जो सच्चा है,जो अच्छा है,
वह अब नित दुख पाता
किंचित भी ना शेष कलुषता,शुचिता को अब वरना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!
झूठ,कपट,चालों का मौसम,
अंतर्मन अकुलाता
हुआ आज बेदर्द ज़माना,
अश्रु नयन में आता
जीवन बने सुवासित सबका,पुष्प सा हमको खिलना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!
कुछ तुम सुधरो,कुछ हम सुधरें,
नव आगत मुस्काए
सब विकार,दुर्गुण मिट जाएं,
अपनापन छा जाए
औरों की पीड़ा हरने को,ख़ुद दीपक बन जलना होगा !
डगर भरी हो काँटों से पर,आगे को नित बढ़ना होगा !!
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2- गीत
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गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की
बढ़ रही है रोज़ ही,आफ़त यहाँ इंसान की
न सत्य है,न नीति है,
बस झूठ का बाज़ार है
न रीति है,न प्रीति है,
बस मौत का व्यापार है
श्मशान में भी लूट है,दुर्गति यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की।।
बिक रहीं नकली दवाएँ,
ऑक्सीजन रो रही
इंसानियत कलपे यहाँ,
करुणा मनुज की सो रही
ज़िन्दगी दुख-दर्द में,शामत यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की।।
हो रहे लाशों के ठेके,
मँहगा है अब तो कफ़न
चार काँधे भी नहीं हैं,
रिश्ते-नाते हैं दफ़न
साँस है व्यापार में पीड़ित यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही,क़ीमत यहाँ इंसान की।।
जोंक बन अब आदमी,
चूसता नित ख़ून है
भावनाएँ बिक रही हैं,
हर तरफ तो सून है
बच सकेगी कैसे अब,क़ीमत यहाँ इंसान की।
गिर रही है रोज़ ही क़ीमत यहाँ इंसान की।।
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3- समकालीन गीत
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रोदन करती आज दिशाएं,मौसम पर पहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो,घाव बहुत गहरे हैं !!
बढ़ता जाता दर्द नित्य ही,
संतापों का मेला
कहने को है भीड़,हक़ीक़त,
में हर एक अकेला
रौनक तो अब शेष रही ना,बादल भी ठहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे वो,घाव बहुत गहरे हैं !!
मायूसी है,बढ़ी हताशा,
शुष्क हुआ हर मुखड़ा
जिसका भी खींचा नक़ाब,
वह क्रोधित होकर उखड़ा
ग़म,पीड़ा औ' व्यथा-वेदना के ध्वज नित फहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं !!
व्यवस्थाओं ने हमको लूटा,
कौन सुने फरियाद
रोज़ाना हो रही खोखली,
ईमां की बुनियाद
कौन सुनेगा,किसे सुनाएं,यहां सभी बहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे है वो घाव बहुत गहरे हैं !!
बदल रहीं नित परिभाषाएं,
सबका नव चिंतन है
हर इक की है पृथक मान्यता,
पोषित हुआ पतन है
सूनापन है मातम दिखता,उड़े-उड़े चेहरे हैं !
अपनों ने जो सौंपे हैं वो घाव बहुत गहरे हैं !!
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4- समसामयिक गीत
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दिल छोटे,पर मक़ां हैं बड़े,सारे भाई न्यारे !
अपने तक सारे हैं सीमित,नहीं परस्पर प्यारे !!
दद्दा-अम्मां हो गये बोझा,
कौन रखे अब उनको
टूटे छप्पर रात गुज़ारें
परछी में हैं दिन को
हर मुश्किल से दद्दा जीते,पर अपनों से हारे !
अपने तक सीमित हैं सारे,नहीं परस्पर प्यारे !!
मीठा बचपन भूल चुके सब,
वर्तमान की बातें
दौलत,धरती,बैल-ढोरवा,
की ख़ातिर आघातें
अपनी करनी से बेटों ने,फैलाये अँधियारे !
अपने तक सीमित हैं सारे,नहीं परस्पर प्यारे !!
खेत सिंच रहे,पर दिल सूखे,
जगह-जगह हरियाली
रिश्ते तो अब रिसते हर दिन,
रची अमावस काली
कोर्ट-कचहरी रोज़ाना ही,ह्रदय-मुकदमे हारे !
अपने तक सीमित हैं सारे,नहीं परस्पर प्यारे !!
बिलख रहीं चौपालें अब तो,
नीम खड़ा रोता है
पीपल वाला मंदिर भी तो,
रोज़ श्राप देता है
आज वक्त की इस देहरी पर,सब करनी के मारे !!
अपने तक सीमित हैं सारे,नहीं परस्पर प्यारे !!
---प्रो.शरद नारायण खरे