मधु शंखधर स्वतंत्र

राणा प्रताप की जयंती पर समर्पित एक रचना.....शत शत नमन....🙏🙏💐
*राणा प्रताप*
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राणा प्रताप  इतिहास रचे , यह उनकी अमर कहानी है।
जो विजय पताका फहराए , अब उनकी याद दिलानी है।

ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया जन्मे, मेवाड़ धरा के वीर रहे।
कुम्भलगढ़ दुर्ग धरा पावन, यह जन्म कथा की बात कहे।
पिता महाराणा उदयसिंह, माता जयवंता बाई थीं।
राजपूत सिसोदिया वंशज, के घर बन खुशियाँ आयीं थी।
इस बालक की अग्रिम गाथा,अब सबको आज सुनानी है।
राणा प्रताप इतिहास रचे.......।।

जब हल्दीघाटी युद्ध हुआ, अकबर को धूल चटाये थे।
वो अभिमानी अकबर का भी, यह दर्प तोड़ने आए थे।
वो तीन आक्रमण तुरत किया, और सेना स्वयं गवाँ बैठा।
मुगलों की सेना का रक्षक, खुद अपनी साख मिटा बैठा।
 बस निडर साहसी राणा की,  फिर गाथा ह्रदय बसानी है।
राणा प्रताप इतिहास रचे......।।

चप्पली, देवर का युद्ध बड़ा, औकात दिखाए मुगलों का।
मेवाड़ी राणा मान सभी, उद्घोष हुआ जब बिगुलों का।
छापामारी की युद्धनीति, राणा ने स्वयं बनाया था।
यह शेर हिन्द की धरती पर, मेवाड़ बचाने आया था।
राणा की सैन्य शक्ति अद्भुत, यह शौर्य रहा बस सानी है।
राणा प्रताप इतिहास रचे.....।।

राणा का चेतक भी देखो, हर युद्ध में साथ निभाया था।
वह हवा से बातें करता था, वह राणा का ही साया था।
उनका भाला और कवच सदा, उनके जीवन तक साथ दिया।
राणा पुंजा सरदार सदा , बढ़करके अपना हाथ दिया।
यह अद्भुत शुभ संयोग रहा, जो झलक आज दिखलानी है।
राणा प्रताप इतिहास रचे....।।

कुछ मिथ्या बातें फैलायीं, बस चाटुकारिता के कारण।
नहीं घास की रोटी खाए, है करना  बस यह निष्तारण।
नहीं लिखे संधि पत्र अकबर को, नहीं जीते जी वह झुक पाए।
वो सुंगा पहाड़ी पे जाकर ,  बावड़ी बगीचा लगवाए।
ये मिथक बसा जो पन्नों पर, शोधित प्रकाश डलवानी है।
राणा प्रताप इतिहास रचे.....।।

यह नहीं झुका यह नहीं रुका, वह साहस ह्रदय बसाए थे।
दृढ़ संकल्पों के धाती थे , हिन्दुत्व भाव अपनाए थे।
उनके साहस अरु शौर्य देख, मुगलों ने लोहा मान लिया।
अकबर का दरबारी कवि भी,था पृथ्वीराज (राठौड़) बखान किया।
इस वीर महाराणा की छवि, *मधु* बच्चों तक पहुँचानी है।
राणा प्रताप इतिहास रचे.......।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*13.06.2021*

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

नहीं बात ऐसी कि पहरा नहीं है
किसी के वो रोके से रुकता नहीं है

तड़प है मुहब्बत की उसके भी दिल में
जो तोड़ा कभी उसने वादा नहीं है

बयां क्या करूँ ख़ूबसूरत है कितना
यहाँ उसके जैसा भी दूजा नहीं है

मुहब्बत है उससे ये कैसे मैं कह दूँ
वो इतना भी खुलकर के मिलता नहीं है

तेरे ग़म से फ़ुर्सत ही मिलती कहाँ है
किसी सिम्त यूँ हमने देखा नहीं है 

वो चाहें तो पत्थर लगें तैरने भी
अभी वाक्या हमने भूला नहीं है 

उसी के करम पर भरोसा है हमको
सिवा उसके कोई हमारा नहीं है 

कभी क़द्रां होंगे लाखों हमारे
ज़माना अभी हमको समझा नहीं है

असर शेरगोई में कैसे हो *साग़र*
लहू तो ग़ज़ल में निचोड़ा नहीं है 

🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली

नूतन लाल साहू

कागज के फूल

बड़े भाग्य प्रभु जी की दया से
पाया मानुष तन अनमोल
जब कौड़ी साथ न जानी है
तब छल से द्रव्य कमाना क्या
मुर्गे की बोली से सीखो
प्रातः काल प्रभु जी का गुण गाना
स्वप्न को स्वप्न समझो
ये श्रुति ने समझाया है
फूल से पूछो तुम
उस पर कैसे छायी है बहार
गुरु गोविंद के बगैर
भवसागर पार,संभव ही नहीं है
जैसे खुशबू आ नही सकता
कागज के फूलों से
तू बढ़ता ही जा रहा है
अपने लक्ष्य पर,किसके सहारे
आखिरी मंजिल नहीं होती
कही भी दृष्टिगोचर
अच्छा है,निरंतर आगे बढ़ना
पर लक्ष्य पर,पहुंचना है अनिश्चित
गुरु गोविंद से नाता जोड़ लें
बेड़ा पार लगाने वाला
कोई और नहीं है
हर खुशी मिल जायेगी तुम्हें
प्रभु जी के कदमों में
झुक जाने के बाद
सांसारिक भय भी तुझे नहीं सताएगा
क्योंकि उस तरफ के लोक से भी
जुड़ चुका है, एक नाता
मृत्यु पथ पर भी आगे बढ़ेगा तू
मोद से गुनगुनाता
गुरु गोविंद के बगैर
भवसागर पार, संभव ही नहीं है
जैसे खुशबू आ नही सकता
कागज के फूलों से

नूतन लाल साहू

निशा अतुल्य

उफ्फ ये जलन 

आदमी से आदमी क्यों दूर कर दिया
उफ्फ ये जलन तूने क्या कसूर कर दिया।

प्यार की कीमत नहीं समझे जहां में जो
जलन के खातिर खुदको,ख़ुद से दूर कर दिया ।

प्यार की नेमत न समझी,डाह सौतन संग रही 
जिंदगी बीती जब तन्हा,बात तब समझी गई।

मिट गए है तख्तों ताज उफ्फ ये जलन के वास्ते
अपनो को न समझा अपना,कैसा मन को भाव है।

माँ का किरदार सोचो और कुछ चिंतन करो
न किसी से डाह रखती,पोसती हर डाल है ।

कहाँ से बस गई दिल में जलन दुनिया के अवतार में 
कुछ तो राह ऐसी बने की उफ्फ ये जलन न हो कहीं ।

जिसने समझा त्याग को वो तिरोहित हो गया
मन में रही न कोई जलन,निर्विकार हो गया ।

बुद्ध,महावीर, राम,कृष्ण भाव कुछ बता गए
करो मनन इनके चरित्र पर,मिट जाएगी सारी जलन।

प्रेम ,त्याग,अहिंसा जीवन का बना आधार 
बढ़ चले जो जीवन पथ पर हुई उसकी तपस्या साकार।

स्वरचित 
निशा"अतुल्य"

एस के कपूर श्री हंस

।।ग़ज़ल।।
*।।काफ़िया।। आर ।।*
*।।रदीफ़।। है जिंदगी।।*
1      मतला
प्रभु की    दी यह उधार   है   ज़िंदगी।
चार दिन का  कारोबार    है   जिंदगी।।
2        *हुस्ने मतला*
जान लो अनमोल  उपहार है जिंदगी।
सुख दुःख का       दीदार है   जिंदगी।।
3
बख्शी ऊपरवाले ने सोच समझ कर।
सही से जीने की हक़दार है   जिंदगी।।
4
बनावटी उसूलों नफरतों में उलझे तो।
बन जाती यही    धिक्कार है जिंदगी।।
5
जो रहते   हैं हर बात में हद के   अंदर।
बनती उनकी सिलसिलेवार है ज़िंदगी।।
,6
देखना सुनना सबको, हो अपना पराया।
बनानी होतीअपनी सलीकेदार है जिंदगी।।
7
अच्छा बुरा सब तुम्हारे   ही तो हाथ है।
तुम्हारी अपनी ही  सरकार   है  जिंदगी।।
8
हर गम और खुशी में   साथ है निभाती।
बहुत ही यह     वफादार  है    जिंदगी।।
9
डूबे रहो   जब अपने में हर फ़र्ज़ से दूर।
तब   कहलाती   गुनाहगार  है जिंदगी।।
10
*हंस* जब थाम लेते   हैं काम का दामन।
बन जाती जीत की  दावेदार है जिंदगी।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।।     9897071046
                     8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

कलमकार (दोहे)मात्र समीक्षार्थ

कलमकार जो श्रेष्ठ है,दे विचार को धार।
प्रीति-रीति की सीख दे,खोले उन्नति-द्वार।।

देश-काल सँग पात्र के,कर लेखन अनुरूप।
नूतन ज्ञान-प्रकाश का, बारे  दीप  अनूप।।

अक्षर-अक्षर जोड़ कर,रच देता इतिहास।
अमर कोष इस ज्ञान का,होता कभी न ह्रास।।

मानव की जो सभ्यता,कला निहित जो ज्ञान।
कलमकार की लेखनी,दे  सबको  पहचान।।

जीवन के हर पक्ष का,चित्रण करे सटीक।
कलमकार की लेखनी,होती ज्ञान-प्रतीक।।
          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र।
              9919446372

डा. नीलम

समय नहीं था

छिटकी तो थी धूप
कभी मेरे 
आशियाने पर भी
बसंत ने भी 
दी थी दस्तक 
मेरे दरवाजे पर
महकते फूल
झांक रहे थे 
खिड़कियों से
मगर मैं ही
उलझा रहा उलझनों में
अपनी 
हावी था अर्थ-शास्त्र
मेरी खुशियों पर
बोझ था कर्म का मेरे 
सर पर
उम्र तो थी ऐश करने की
मगर...
वक्त सही नहीं था मेरा
चटक धूप 
गम की बदली में
छिप गई
बसंत भी द्वार खटखटा
थक हार कर
समेट ले गया दामन में
अपने सारे 
महकते पुष्प
मैं कर्म और श्रम के
पसीने से तर
बैठा रहा अपने ही भीतर।

       डा. नीलम

कबीर ऋषि

★कौन? किस पर भारी!★

बेशक़!
अपनी समझ से
सब कुछ ठीक करता हूँ मैं!
पर कभी-कभी सामने अपने खड़े होते हैं!
और मैं कभी भी अपने-पराये का
भेद नहीं करता हूँ!
जो सही है, वो सही है
और जो गलत है, वो गलत!
पर जब मैं बोलता हूँ,
तो लोग मेरी बातों को तौलने लगते हैं!
रिश्तों और सम्बन्धों के तराजू पर!
फिर… शुरू होता है!
आरोप-प्रत्यारोप का एक नया खेल!
और मैं शांत होकर एक कोने पर बैठ जाता हूँ!
और लोगों के विचारों को सुनता हूँ!
फिर मन ही मन गुनता हूँ!
और सोचता हूँ!
न जाने कैसे हर बार रिश्ता और सम्बन्ध!
सत्य पर, भारी पड़ जाता है!

– कबीर ऋषि
बांसी सिद्धार्थनगर, उ.प्र.

रामकेश एम यादव

कुदरत के चरणों में !

पोंछकर अश्क़ अब मुस्कुराओ,
बुझ चुके हैं,  वो दीये जलाओ।
मौत बनकर जो छाया  अंधेरा,
सूरज नया कोई बनकर छाओ।
दुःख सहोगे आखिर कहाँ तक,
बैठकर ऐसे मातम न मनाओ।
नहीं टिका कोई मौसम जमीं पे,
गम के पर्दे से बाहर तो आओ।
ख्वाहिशों  का  कोई  अंत नहीं,
ऐसी ख्वाहिश पे लगाम लगाओ।
दो गज जमीं,दो गज कफन मिले,
बाकी की हसरतें तू भूल जाओ।
सज जाएगी अपनी फूल-सी धरा ,
हाय तौबा अब न इतना मचाओ।
बनाओ दिल को ऐसा फौलादी,
कुदरत के चरणों में सो जाओ।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

निशा अतुल्य

स्वेच्छिक 
अतुकांत

*कहाँ जा रहे युवा*

राह राह भटक गया 
आज का क्यों युवा
बात करें सभ्यता की
तो शर्माता है ।

फटे कपड़े पहन कर
बाल अपने रंग कर 
चश्मा चढ़ा के नैन
कैसे इतराता है ।

सुनता न बात है 
न मात पिता का ध्यान है 
भटके है इधर उधर 
लड़कियाँ घुमाता है ।

पढ़ना तो भूल गया
बाहर कॉलेज के खड़ा 
तकता है लड़की को 
बाइक तेज चलाता है ।

कम कहाँ लड़की है 
वो भी जरा भड़की है 
शर्म लिहाज तज कर
नैन मटकाती है ।

बहाने बनाती देखो
कैसे रँग दिखाती देखो
मांग नित नई करे
रोब जमाती है ।

युवा को समझाए कौन
समाज बचाये कौन
अभिव्यक्ति की आजादी
राह भटकाती है ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.
            *बाल मनुहार*
                   ~~~
         सोनू बोला सुन रे मोनू,
         बात पते की बतलाता हूँ।
         सेवा से ही मिलता मेवा,
         आज तुम्हें मैं सिखलाता हूँ।।

        गाँव के सारे बच्चे पढ़ने,
        रोज विद्यालय में जाते है।
        हम भी जाकर देखें भैया,
        चलों अपना फर्ज निभाते है।।

        सब कुछ अच्छा सुन्दर मनभावन,
        यहाँ कमी बहुत बड़ी भाई।
        चारों तरफ देखों मंदिर में,
        हरियाली नजर नहीं आई।।

        अहसास हुआ आकर हमकों,
        इनको धूप सताती होगी।
        पौधारोपण करने की अब,
        जिम्मेदारी लेनी होगी।।

       मानवता की अलख जगाकर,
       हमें अपना धर्म निभाना है।
       हरा-भरा बने यह विद्यालय,
       जनमानस को समझाना है।।

      ©®
        रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

जयप्रकाश अग्रवाल

शीर्षक:    कान्हा करे श्रृंगार 


श्रृंगार करे राधा का कान्हा , सखियाँ देखें सारी ।
मोहन का जादू चढ़ बोले, राधा लगती प्यारी ।

सुरभित जल से पाँव पखारे, लगायी लाली, लगते प्यारे ।
पीताम्बर से पोंछे हरि पग- इन पाँवों में हरि सब हारे ।
चुटकी, पायल और पैंजनी, स्वयं पहनाये मुरारी ।
श्रृंगार करे राधा का कान्हा, राधा लगती प्यारी ।

हाथों पर मेहँदी लाल, बना अधरों से बिंदिया भाल ।
हरी-लाल-पीली-नीली, चूड़ी पहनाते नन्दलाल ।
मणि-मुक्ता-माणिक का हार, लाया साथ बिहारी ।
श्रृंगार करे राधा का कान्हा, राधा लगती प्यारी ।

सजा हाथों में हथफूल, कानों कुण्डल औ नथफूल ।
गजरा, कजरा लगा दिये-  फिर भी कान्हा गया भूल ।
काली बिंदी लगा राधा को, मोहन जाये वारी ।
श्रृंगार करे राधा का कान्हा, राधा लगती प्यारी ।

कैसा रूप सजाये हरि, राधा को रिझाये हरि ।
सखियाँ करतीं कानाफूसी, दर्पण क्यों दिखाये हरि ।
दर्पण में दीखे राधा को, मुरलीधर बनवारी,
मोहन का जादू चढ़ बोले, राधा लगती प्यारी ।

(स्वरचित)


जयप्रकाश अग्रवाल,  काठमांडू,  नेपाल ।
मोबाइल +9779840006847
Mail jpagnp@gmail.com

अतुल पाठक धैर्य

शीर्षक-ज़िन्दगी एक फ़न है
विधा-कविता
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ज़िन्दगी एक फ़न है,
फ़नकार बनकर जीया करो।

किसी और की न सोचना,
सिर्फ अपने दिल की सुना करो।

बीते लम्हे गर अच्छे न हों,
तो बुरा सपना समझ भूल जाया करो।

ज़िन्दगी एक ख़ूबसूरत नायाब तोहफ़ा है,
इसे बेहतरी से जीकर और बेहतर बनाने की कोशिश किया करो।

आज को अभी को पल-पल को ख़ुशनुमा बनाया करो,
होंठों पे अपने हँसी मुस्कुराहट लाया करो।

खुलकर जीने का नाम ही ज़िन्दगी है,
बिंदास और बेबाक़ होकर ख़ुशी के गीत गाया करो।

रचनाकार-अतुल पाठक धैर्य
पता-हाथरस(उत्तर प्रदेश)
मौलिक/स्वरचित रचना

सुधीर श्रीवास्तव

व्यंग्य
झूठ का बोलबाला
***************
बस ये ही तो 
गड़बड़झाला है
तुझे ये सब 
कहाँ समझ में आने वाला है।
तुझे  तो सत्यवादी बनने का
भूत जो सवार है।
अरे मूर्खों !
तुम सब क्यों नहीं समझते?
आज के खूबसूरत परिवेश में
सत्य का मुँह काला है।
उसका कुर्ता मुझसे सफेद क्यों है?
यार ! अब तो समझ लो
ये सब झूठ का बोलबाला है।
खबरदार, होशियार
बहुत हो चुका झूठ की
जी भरकर बेइज्जती
अब और सहन नहीं करूंगा,
झूठ का अपमान किया तो
मानहानि का केस करूंगा।
झूठ के गड़बड़झाले की तो
बात भी मत करना,
सत्य को तुम चाटते आ रहे हो 
बचपन से बुढ़ापे तक,
क्या मिला तुम ही बता दो
आखिर तुमको अब तक।
झूठ का गुणगान 
किया मैने अब तक,
तुम खूद ही तो कहते हो
तू तो है सिंहासन वाला।
● सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
     8115285921
©मौलिक, स्वरचित

ज्योति तिवारी

जीवन यह अनमोल है
सुकर्म ‌का दीजे दान
ज्यों ज्यों यह ‌बढता रहे
त्यों आपहिं मिले‌ सम्मान।।

प्रेम विश्वास विनम्र स्वभाव
हो‌  मर्यादा निज ध्यान
जीवन में सब सम्भव
हो जावे कल्याण।।

सुप्रभात🙏🏻

ज्योति तिवारी बैंगलोर

नूतन लाल साहू

प्रकृति का श्रृंगार

जब तक है तेरी जिंदगी
प्रकृति का श्रृंगार करो
प्रकृति की महिमा है,अति भारी
सुखी रहें संसारी
बचपन बीता खेल खेल में
और जवानी राग रंग में
सारा जीवन बीत रहा है
फुरसत न मिलेंगी काम से
महलों में रहो या झोपड़ी में
प्रकृति ही है,सुख का आधार
जब तक है तेरी जिंदगी
प्रकृति का श्रृंगार करो
हरा भरा जब धरती होगी
पुरवइया की पवन होगी सुरीली
अंबर गाना गाएंगी
झूम झूमकर नाचेंगी,धरती मां
स्नेह से भींगी,नई सुबह होगी
खुशी से सराबोर होगी
जब तक है तेरी जिंदगी
प्रकृति का श्रृंगार करो
अमन हो चमन में तो
सुमन मुस्कुराएगी
और साकार होगी सबकी
मधुर कल्पनाएं
धरती मां,जब हरी होगी
मन में उमंगे,भरी हुई होगी
न होगी कोई गम
न होगी मन में उदासी
मानव संस्कृति के ग्रंथों पर
नई सभ्यताएं लिखी जायेगी
जब तक है तेरी जिंदगी
प्रकृति का श्रृंगार करो

नूतन लाल साहू

सुषमा दीक्षित शुक्ला

कुदरत की चिट्ठी 

हे ! इंसान हे महामानव !!
तुम्हें एक बात कहनी थी ।
मैं कुदरत ,लिख रही हूँ ,
आज एक  खत तुम्हारे नाम ।
मैं ठहरी तुम्हारी मां जैसी ,
जो अप्रतिम प्यार लुटाती ।
 बिल्कुल निस्वार्थ, निश्छल ,
जो बदले तुमसे कुछ न चाहती। 
 परंतु आज मैं लिख रही हूँ ,
तुमको एक दर्द भरी दास्तान ,
यही  है मेरी  अंतिम चिट्ठी ।
सुनो मानव !!इक बात सुनो ,
एक दुनिया तुम्हारी भी है ,
तो एक दुनिया मेरी भी ।
मैं अपनी दुनिया तुम पर लुटाती,
 लेकिन बदले में तुमसे ,
केवल अत्याचार  ही पाती ,
तिरस्कार ही पाती ।
 फिर भी मैं यही चाहती !!
कि मैं जब जब मरूँ, 
तब तब पुनः देह धारण करूँ ।
 तुम्हारे लिए फिर बन सकूँ ,
नदी ,धरा ,पेड़ पौधे ,पत्थर ।
मोक्ष की कामना भी नहीं मुझे। 
न मुक्ति की कोई चाह ।
 हे ! मानव  सुन ले इक बात ,
कुछ पल के लिए मेरे  प्यार को ,
मेरे लाड़ दुलार को सोच ।
 फिर चला मुझ पर कुल्हाड़ी,
 मिटाता चल मेरा वजूद ।
दिन-ब-दिन कत्ल कर मेरे अस्तित्व का ।
तहस-नहस कर मुझ प्रकृति को,
 लेकिन देख ले भयावह अंजाम ।
आये दिन महामारियां ,भूकम्प ,
कहर , जल प्रलय ,मानव विनाश।
अभी भी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा,
 संभल जा जरा ,सुधर जा ,
दया कर  मुझ  पर ,मत सता ।
मुझ बेजुबान की खामोशी सुन। 
हे ! मानव हे !इंसान हे!बुद्धिमान ।

     तुम्हारी कुदरत
सुषमा दीक्षित शुक्ला

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*दोहे*
चढ़कर उन्नति की शिखर,करें नहीं अभिमान।
संभवतः कल नष्ट हो,यह अपनी पहचान।।

हाथ बढ़ाकर थाम लें,उसका भी तो हाथ।
उन्नति-शिख पर जो चढ़े,देकर उसका साथ।।

सोच सदा सहयोग की,है मानव का धर्म।
प्रेम-भाव-सहयोग से,होता उत्तम कर्म।।

कहना कभी न चाहिए,करके जग उपकार।
ऐसा करना अंत में, देता  कष्ट  अपार।।

मात्र इसी सहयोग से, होता  सदा  विकास।
जन-जन का कल्याण हो,बस यह रहे प्रयास।।

नर-नारी-सहयोग को,सृष्टि-धर्मिता जान।
मिल कर ही दोनों करें,जीवन में उत्थान।।

विश्व-एकता तब रहे,जब हो उत्तम सोच।
करें भलाई मिल सभी,सबकी निःसंकोच।।
            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                9919446372

जया मोहन

श्रृंगार

चिलमन से देखा चाँद तो मदहोश हो गए
कोई छीन न ले तुझको ये सोच डर गए
चिलमन।।।।।।।

चुनरी है तेरी झिलमिल नीली नीली सी
लगता है हज़ारों सितारे लिपट गये
चिलमन।  ।।
रंगत है तेरी मरमरी आँखे बड़ी बड़ी
इन झील से गहराइयों मे हम  डूब गये 
चिलमन।।।।
ऐसा तराशा तुझको खुदा ने जानेमन
जैसे कोई सुन्दर इबारत सी लिख गये
चिलमन ।।।।।
नाज़ुक नरम कलाई पर चूड़ी है रेशमी
उनकी खनक सुनके मतवाले मचल गये
चिलमन।।।
बालो में लिपटा गजरा ऐसे महक रहा
जैसे हज़ारों इत्र दान खुल गये
चिलमन।।।।
पैरों की पायजेब यू छनक रही
जैसे वीणा के तार छिड़ गये
चिलमन ।।।
रश्क करे दुनियां मेरे नसीब से
ये हुशन की मलिका तुझे हम कैसे पा गये
चिलमन।।।।
ये नाज़नीन तेरी इबादत मैं करू
मन मंदिर में जया की तुम बस गये
चिलमन।।।

स्वरचित
जया मोहन
प्रयागराज

रामकेश एम यादव

पिला दे!

मैं दुनिया को भूल जाऊँ,
मैं शोहरत को भूल जाऊँ।
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।

देखो, वहाँ खड़े हैं,पग-पग पे वो लुटेरे,
वो न हो सके किसी के, न हो सके हमारे।
मैं वक़्त इस जहां में,क्यों व्यर्थ में गवाऊँ,
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।

कोई क्यों नहीं समझता,कि क्यों जहां में आया,
औरों के आंसुओं से, दिन -रात क्यों नहाया।
वीरान हुई जो आँखें, किस हाथ से सजाऊँ,
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।

वो खौफ़ में हैं रहते, जैसे आजकल परिन्दे,
महफूज़ न कली अब,  बेलगाम हैं दरिंदे।
इस बढ़ रही हवस को, मैं किसे -किसे दिखाऊँ,
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।

जब सोचता हूँ ये सब, मेरी आँख है छलकती,
जो उठ रहा धुंआ है, वो आग क्यों न दिखती।
फिर जख्म न हरा हो,मैं दर पे उसके जाऊँ।
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।

ये काठ की है हंडी, बस एक बार चढ़ती,
उस झूठ से कहाँ तक,है ज़िन्दगी ये सजती।
मैं उसके कैमरे से, तुझको कहाँ छुपाऊँ।
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

निशा अतुल्य

मेरी बिटिया
दोहा विधि

मुखड़ा रंगों सा खिला,मीठी है मुस्कान
तू तो मेरी लाडली,है पापा की जान ।

रंगोली सुन्दर बना,लिख दे अपना नाम
पंख लिए नभ में उड़े,अद्भुत तेरे काम।

नन्हे नन्हे हाथ है,करे बड़े तू काम
भोली सी मुस्कान है,जग में तेरा नाम।

छोटे छोटे नैन है,सपने बड़े विशाल
पूरे करने है सभी,सोचे करे कमाल।

लगे नजर न कभी तुझे ,तू सबकी है जान
काम सदा ऐसे करो ,बनो देश की शान।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

सौरभ प्रभात

 *कुण्डलियाँ*

रजनी गंधा की महक, ज्यों ज्यों घुलती श्वास।
घूँघट के पट खोलकर, आते साजन पास।
आते साजन पास, चबाते पान गिलौरी।
थामे माणिक हार, उतारे फिर पटमौरी।
सौरभ पूछे बात, लजाये क्यों री सजनी? 
प्रियतम आये पास, मिलन की है ये रजनी।।


1: *मदिरा सवैया*

साथ रहे जब मीत सदा, मन पावन गंग बहे सरिता।
आस्य सजा सुर की कजरी, चहके बहके महके सविता।
मोहक मादक रूप लिये, हरषे तब आँगन में वनिता।
छंद लिखे मसि नित्य नये, मन भावन प्रीत गढ़े कविता।।

✍🏻©️
सौरभ प्रभात 
मुजफ्फरपुर, बिहार

साधना मिश्रा विंध्य

🙏शब्द साधना 🙏

राम नाम संजीवनी दीजिए कृपा निधान।
सारा जग व्याकुल हुआ कृपा करें भगवान।।

त्राहिमाम की गूंज से गूंजा सकल संसार।
हनुमत कृपा कीजिए हरिए दुख संताप।।

पंचमुखी हनुमान के दर्शन कष्ट मिटाए।
अवगुण से दूर हो जन्म सफल हो जाए।।

क्लेश विकार को भक्त शिरोमणि दूर करें तत्काल।
चरणों में समर्पित मैं नमन करूं हर बार ।।

साधना मिश्रा विंध्य

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-2
    *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
बहु-बहु नदी-कछारन जाहीं।
उछरहिं मेंढक इव जल माहीं।।
   जल मा लखि परिछाईं अपुनी।
   कछुक हँसहिं करि निज प्रतिध्वनी।।
संतहिं-ग्यानिहिं ब्रह्मानंदा।
स्वयम कृष्न तेहिं देंय अनंदा।।
  सेवहिं भगतहिं दास की नाईं।
इहाँ-उहाँ तिहुँ लोकहिं जाईं।।
रत जे बिषय-मोह अरु माया।
बाल-रूप प्रभु तिनहिं लखाया।।
    अहहिं पुन्य आतम सभ ग्वाला।
    खेलहिं जे संगहिं नंदलाला।।
जनम-जनम ऋषि-मुनि तप करहीं।
पर नहिं चरन-धूरि प्रभु पवहीं।।
     धारि क वहि प्रभु बालक रूपा।
      ग्वाल-बाल सँग खेलहिं भूपा।।
रह इक दयित अघासुर नामा।
पापी-दुष्ट कपट कै धामा।।
    रह ऊ भ्रात बकासुर-पुतना।
     तहँ रह अवा कंस लइ सुचना।।
आवा तहाँ जलन उर धारे।
अवसर पाइ सबहिं जन मारे।।
     करि बिचार अस निज मन माहीं।
     अजगर रूप धारि मग ढाहीं।।
जोजन एक परबताकारा।
धारि रूप अस मगहिं पसारा।।
    निज मुहँ फारि रहा मग लेटल।
    निगलै वहिं जे रहल लपेटल।।
एक होंठ तिसु रहा अवनि पै।
दूजा फैलल रहा गगन पै।।
     जबड़ा गिरि-कंदर की नाईं।
     दाढ़ी परबत-सिखर लखाईं।
जीभइ लाल राज-पथ दिखही।
साँस तासु आँधी जनु बहही।।
      लोचन दावानलइ समाना।
      दह-दह दहकैं जनु बरि जाना।।
सोरठा-अजगर देखि अनूप,कौतुक होवै सबहिं मन।
           अघासुरै कै रूप,निरखहिं सभ बालक चकित।।
                               डॉ0हरि नाथ मिश्र
                                9919446372

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

बड़े खुलूस से जब वो ख़याल करते हैं
इसीलिये उन्हें हम भी निहाल करते हैं

हमें भी दिल पे नहीं रहता अपने फिर काबू
अदाओ नाज़ से जब वो धमाल करते हैं

जवाब कोई मुझे सूझता नहीं उस दम
वो बातों बातों में ऐसा सवाल करते हैं

खँगाल लेते हैं चुपचाप मेरा मोबाइल
*वो इस तरह से मेरी देखभाल करते हैं*

पकड़ में आती हैं जब जब भी  ग़लतियाँ उनकी 
वो उस घड़ी ही मुझे अपनी ढाल करते हैं

ख़ुदा भी बख़्श उनके गुनाह देता है
पशेमाँ होके जो दिल से मलाल करते हैं

बड़े बुज़ुर्ग भी हैरत में आज हैं *साग़र*
ये दौरे नौ के जो बच्चे कमाल करते हैं

🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली
27/5/2021

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