एस के कपूर श्री हंस

।मौत से पहले मरने को तैयार नहीं,*
*कॅरोना तुझसे हार हमें स्वीकार नहीं।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
मौत से   पहले     मरने   को
तैयार    नहीं       हम।
तेरी    दहशत से   डर   जाएं
वो किरदार नहीं हम।।
सावधानी दवाई और योग से
हराएंगे तुझको जरूर।
कॅरोना     तुझको    रखेंगे दूर
तेरे    यार   नहीं हम।।
2
माना पकड़ बहुत     पर  वार
हमारा भी   खाली नहीं।
माना कि    तुम  अदृश्य    पर
बच न सकें बेहाली नहीं।।
जो हमने खोया  उससे   कुछ
सीखा   समझा भी    है।
तुझसे   बचाव न   कर    सकें
ऐसी भी बेख्याली नहीं।।
3
माना कि हम   सब ने   संकट
भोगा   बहुत   भारी  है।
पर तेरी हर   लहर से   निपटने
का    प्रयास   जारी   है।।
तेरी हर काट की   काट    ढूंढी
अब    है    जा      रही।
जान ले   कॅरोना   अब    होगी 
तेरी ही     दुश्वारी     है।।
4
विषम परिस्थिति ही हमें आत्म
बल   संदेश     देती   है।
हमको सामना   करने का  इक़
नया परिवेश    देती   है।।
कर्म,सहयोग,खोज, अनुसंधान
का मिलता नव आवरण।
नव निर्माण के    आवाह्न     का
श्री  गणेश     देती      है।।


*।।रचना शीर्षक।।*
*।।बेटी,तुम ही बनती जाकर बहन,पत्नी,माँ हो।। तुम केंद्र ,तुम धुरी, सृष्टि की रचनाकार हो।।*
*।।विधा।। मुक्तक।।*
1
तुम केंद्र तुम  धुरी  तुम सृष्टि
की   रचनाकार हो।
तुम धरती    पर    मूरत  प्रभु
की   साकार  हो।।
तुम जगत    जननी    हो तुम
संसार     रचयिता।
बेटी,माँ,बहन,पत्नी,जीवन में
हर   प्रकार      हो।।
2
बेटी से ही  ममता    स्नेह प्रेम
जीवित रहता   है।
मन सच्चा कभी   कपट कुछ
नहीं   कहता   है।।
त्याग समर्पण    का    जीवंत
स्वरूप   हो  तुम।
तन मन में बेटी तेरे   प्यार का
दरिया बहता है।।
3
तुम से ही घर     आँगन  और
चारदीवारी     है।
हरी भरी    जीवन     की  हर
फुलवारी       है।।
तुमसे ही आरोहित    संस्कार
संस्कृति  सृष्टि में।
तुमसे ही उत्पन्न  होती  बच्चों
की किलकारी है।।
4
तुमसे ही बनती हर   मुस्कान
खूबसूरत      है।
दया श्रद्धा की बसती साक्षात
मूरत           है।।
तुझसे से ही है  मानवता   का
आदि  और अंत।
चलाने को संसार  प्रभु को भी
तेरी जरूरत है।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।।*
मोब।।            9897071046
                     8218685464

नूतन लाल साहू

जीवन पथ

कुछ पा करके कुछ खोना
कुछ खोकर के कुछ पाना
उलट पुलट कर आती जाती
चलती फिरती है नई उमंगे
कभी सीधा तो कभी टेढ़ा
हमारा जीवन पथ है
सामान सजाकर यहां वहां
बरसों की करते है चिंता
विरह मिलन का चक्र सतत
कभी भटकना तो कभी मटकना
कभी सीधा तो कभी टेढ़ा
हमारा जीवन पथ है
ऊंचे ऊंचे ख्वाब संजोति
कभी इतराना तो कभी घबराना
कभी हंसाती तो कभी रुलाती
हर दिन बदलती हुई कहानी है
कभी सीधा तो कभी टेढ़ा
हमारा जीवन पथ है
एक नदी सा कल कल करती
गूंज रही है जिसकी धार
कभी कभी पंछी सा उड़कर
मानो नभ को छू रही है
कभी सीधा तो कभी टेढ़ा
हमारा जीवन पथ है
अपने शब्दों के सहारे
नई जान फूंक देती है
आवाज को तलाशती पुकारती
चहुं ओर घूमती है
कभी सीधा तो कभी टेढ़ा
हमारा जीवन पथ है

नूतन लाल साहू

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*मयूर*
  *दोहे*(मयूर)
पावस-ऋतु अलमस्त छवि,घटा घिरे घनघोर।
मन-मयूर नर्तन करे,देखि नृत्य वन-मोर।।

नृत्य मयूरा है कड़ी,मध्य अवनि-आकाश।
जलद धरा धानी करे,लख मन हो न निराश।।

मोर-पंख-छवि है जगत,अद्भुत कला-प्रतीक।
कुदरत की कारीगरी,लगती परम सटीक।।

कार्तिकेय वाहन यही,देवतुल्य खग-वीर।
इसकी छवि को देख हो,प्रमुदित हृदय अधीर।।

सिर पर कलगी मोर के,शोभित मुकुट समान।
अनुपम पंख पसार खग,लगता शोभा-खान।।

धारे पंख मयूर की,सिर पर नंद-किशोर।
करते जन-जन को सदा,विह्वल-भाव-विभोर।।

यही राष्ट्र-पक्षी रुचिर,यही देश की शान।
इसकी रक्षा सब करें,यह भारत-पहचान।।
            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                9919446372

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.
    
       
                     कविता
              *कागज के फूल*
                   ~~~~
           बचपन में बहुत बनाये,
           रंगीन कागज के फूल।
           आया आधुनिक जमाना,
           सभी गये उनको भूल।।

          चाहे तुम कुछ भी समझो,
          सुंगध उनमें आती थी।
          पावनता की खूशबू,
          दूर-दूर तक जाती थी।।

          याद करो सब वो दिन भी,
          मिलकर खुशियाँ मनाते।
          बना कागज की तीतरी, 
          रोज हवा में उड़ाते।।

          कागज की अनुपम महिमा,
          देख सौंदर्य इतराते।
          पुराने कागज के फूल,
          कितनों की भूख मिटाते।।

         ©®
            रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

सुधीर श्रीवास्तव

रक्तदान
********
आपका किया रक्तदान
तीन व्यक्तियों का जीवनदान।
विचार कीजिये
और लगे हाथ
यह पुण्य काम कर डालिए।
मन में संतोष होगा,
आत्मसंतुष्टि मिलेगी,
आपके इस कदम से 
किसी के आँगन में
खुशियाँ महकेगी।
रक्तदान का कोई मोल नहीं है
ये अनमोल है,
हम सबके छोटे से प्रयास का
जाने किस किसके जीवन में
बड़ा रोल है।
आइए संकल्प लें,
किसी की जिंदगी बचाने के लिए
अपना मानव धर्म निभायें।
✍ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा(उ.प्र.)
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-4
  *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
सुनहु परिच्छित किसुन-गोपाला।
जानहिं बिधिवत तीनिउ काला।।
   भूत-भविष्य-आजु प्रभु जानैं।
   छूत-अछूत-भेद नहिं मानैं।।
समदरसी प्रभु अंतरजामी।
रच्छहिं निज सेवक-अनुगामी।।
    जस उड़ि तिनका परे अगिनि मा।
     भभकत जरै तुरत ही वहि मा।
वइसहि परिगे सभ मुख माहीं।
जठर अगिनि मा जरिहैं ताहीं।।
    छिन भर मा तब किसुन-कन्हाई।
    अजगर-मुख मा गए समाई।।
किसुन-गमन लखि अजगर-मुख मा।
चिंतित सुरहिं  भए सभ नभ मा।।
    कंसहिं औरु अघासुर मीता।
     लखि प्रबेस प्रभु मुदित-अभीता।।
तुरतै प्रभु निज देह बढ़ावा।
अघासुरै बहु पीरा पावा।।
     गला अघासुर रुधिगा तुरतइ।
     दुइनिउ आँखि पुतरि गे उल्टइ।।
साँसहिं थमी निकसि गे प्राना।
इंद्रिय सुन्य बदन बिनु जाना।।
     अजगर थूल बदन तें निकसी।
     अद्भुत जोति चहूँ-दिसि बिगसी।।
कछु पल ठाढ़ि रही ऊ तहवाँ।
पुनि भइ लोप किसुन लखि उहवाँ।।
    जाइ समाइ गई सुरगनहीं।
    नभ तें सुमनहिं देव बरसहीं।।
दोहा-सभें कीन्ह अभिनंदनइ, किसुनहिं साथे-साथ।
         विद्याधर अरु अप्सरा,गाइ-नाचि नत माथ।
                       डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372

शिवम् कुमार त्रिपाठी शिवम्

उड़ चल रे पंछी कोई न दीजे साथ...
लोभ मोह से भरी ये दुनिया
अपने पंखन की आस।
उड़ चल रे पंछी कोई न दीजे साथ...

अपनापन  दिखावा है सब, मिथ्या सबकी बात
उस चेहरे के पीछे छिपा, जाने कौन नकाब
मन चंचल, पथ भटक गया है, कैसी अंधियारी ये रात
बस कुछ पहर का खेल है पगले, फिर क्या शह और मात
डूब रही है नैया अपनी, अब कैसी ये ठाट
उड़ चल रे पंछी कोई न दीजे साथ
लोभ मोह से भरी ये दुनिया, अपने पंखन की आस
उड़ चल रे पंछी कोई न दीजे साथ

दुसरो से क्या शिकवा करें जब अपने लगाएं घात
दुख की दुपहरी बीत रही, अब होने को है सूर्यास्त
जीवन के इस भागदौड़ में, कौन सुने जज़्बात
नज़र बंदी का खेल है जग ये, कोई नही करामात
'प्रभु भक्ति' की डोर में ही, बंधी है अपनी सांस
लोभ मोह में डूबी ये दुनिया, अपने पंखन की आस
उड़ चल रे पंछी, कोई न दीजे साथ।

               - ई० शिवम कुमार त्रिपाठी
Email: tripathishivam5@gmail.com

स्वरचित....सर्वाधिकार सुरक्षित

मधु शंखधर स्वतंत्र

मधु के मधुमय मुक्तक
प्रभात

यह प्रभात की लालिमा, रश्मिरथी का तेज।
उदित हुई आभा सुखद, धरा स्वतः ही भेज।
प्रकृति देख मुसका रही, शोभित प्रियम प्रभात,
दृग खोले रवि देखता, लेती धरा सहेज।।

शुभ प्रभात में ईश का, वंदन करते लोग।
धूप दीप चंदन चढ़ा, देते छप्पन भोग।
प्रथम पहर जब भोर की, प्राप्ति ईश वरदान,
धर्म कर्म के मेल से, कीर्ति सुभग संजोग।।

इस प्रभात की सृजनता, धन्य सतत शुभ रीत।
दृश्य नयन में यह बसे, हो प्रसन्न यह चीत।
चंपा बेला पुष्प भी, देखे खिला गुलाब,
रोमांचित तन मन हुआ, इत्र बसी मनमीत।।

यह प्रभात नित यह कह, है ये सुख दुख छोर।
जीवन की परिकल्पना, अमर भाव चितचोर।
पशु, पक्षी, मानव सभी, जीव जन्तु की आस,
जन्म मृत्यु सा सत्य है, नवल प्रकृति मधु भोर।।

मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज ✒️

दुर्गा प्रसाद नाग - आज का सम्मानित कलमकार

आज का सम्मानित कलमकार 

नाम– दुर्गा प्रसाद नाग
माता– श्रीमती कांती देवी
पिता– श्री लक्ष्मी नारायण
पता– ग्राम,पोस्ट व ब्लॉक– नकहा
जिला–लखीमपुर खीरी
(उत्तर प्रदेश)262728
मो०–9839967711
शैक्षिक योग्यता– स्नातक
वृत्ति–कला अध्यापक (PTA)
1-🌹🌹🌹 गीत 🌹🌹🌹

स्वर तुम्हारा अगर मुझको मिलता रहा,
गीत मेरे यूं ही संवर जाएंगे।
लोग कहते हैं पागल मुझे आज मां,
कल उनकी नजर में उभर जाएंगे।।
_____________________
खुशबू आएगी कागज के फूलों से भी,
लोग देखेंगे भी, लोग जानेंगे भी।
आश बंधती नहीं, लाख बन्धन में भी,
लोग समझेंगे भी, लोग जानेंगे भी।।

गर तुम्हारा सहारा यूं मिलता रहा,
पत्थरों के हृदय भी पिघल जाएंगे।
लोग कहते हैं पागल मुझे आज मां,
कल उनकी नजर में उभर जाएंगे।।
_____________________
स्वर की देवी ने मुझपे करम जो किया,
हम झुकेंगे नहीं, लोग कुछ भी कहें।
अपनी किस्मत में कांटे हों फिर भी सही,
लोग जैसे भी चाहें, चमन में रहें।।

मां, तुम्हारी दया से चमन में ही तो,
सूखी डाली में भी फूल खिल जाएंगे।
लोग कहते हैं पागल मुझे आज मां,
कल उनकी नजर में उभर जाएंगे।।
_____________________

2-
🥀🥀🥀((गीत))🥀🥀
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

_____________________
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________
मेरी भावनाएं, ये शुभकामनाएं,
तेरे साथ में हैं, तेरे साथ जाएं।

तेरे पथ के कांटे, बने पुष्प सारे,
तेरे रास्ते में दिए जगमगाएं।।

यही कामना है सदा मुस्कराना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________
ये जीवन समर है, इसे लड़ना होगा,
कदम से कदम तक, तुम्हे बढ़ना होगा।

अंधेरा सफर है, उजाले की खातिर,
अमर हैं किताबें, तुम्हे पढ़ना होगा।।

किसे जीतना है, व किसको हराना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________
कदमों को अपने भटकने न देना,
ये लंबा सफर है, बहुत दूर मंजिल।

हो तन्हा सफर में, ये महसूस करना,
भले हो तुम्हारे हर ओर महफ़िल।।

कहीं हंस न पाए तुम्हे, ये जमाना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________
माता पिता व गुरु के वचन को,
कभी भूलकर भी न तुम भूल जाना।

न अभिमान करना कभी भी, स्वयं पर,
किसी की डगर पे न कांटे बिछाना।।

सदा रोशनी के दिए तुम जलाना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
_____________________


3-
_____________________
दुनिया के रीति रिवाजों से,
एक रोज बगावत कर बैठे।

महबूब की गलियों से गुजरे,
तो हम भी मोहब्बत कर बैठे।।
_____________________

मन्दिर-मस्जिद से जब गुजरे,
पूजा व इबादत कर बैठे।

जब अाई वतन की बारी तो,
उस रोज सहादत कर बैठे।।
_____________________

दुनिया दारी के चक्कर में,
जाने की हिम्मत कर बैठे।

गैरों के लिए हम भी इक दिन,
अपनों से शिकायत कर बैठे।।
_____________________

जो लोग बिछाते थे कांटे,
हम उनसे इनायत कर बैठे।

पीछे से वार किये जिसने,
हम उनसे सराफत कर बैठे।।
_____________________

हमने अहसानों को माना,
वो लोग अदावत कर बैठे।

हर बात सही समझी हमने,
वो लोग शरारत कर बैठे।।
_____________________

उनके जीवन की हर उलझन,
हम सही सलामत कर बैठे।

पर मेरी हंसती दुनिया में,
कुछ लोग कयामत कर बैठे।।
_____________________


4- 🥀🥀🥀 गज़ल 🥀🥀🥀
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

औरों के लिए औरत.....
कहते हैं सभी गैरत......

करती है प्यार जिसे
क्यों पाती है नफ़रत

दुनिया ये कहती है
इक जज़्बा है औरत

जो कर न सके कोई
वो कर सकती औरत

इंसान खिलौना है
उस्ताद तो है औरत

इंसान को दुनिया में
पैदा करती औरत

जो लोग समझते हैं
कमजोर है हर औरत

हर मोड़ पे मिलती है
उन लोगों को जिल्लत

औरत वो शोला है
देती है जला नफ़रत

इंशा जो इबादत है
मंदिर- मस्जिद औरत

औरत वो तराजू है
जो तौलती है उल्फत

इक पलड़े में बदनामी
इक पलड़े में है शौहरत
_____________________


5- वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________
जिस पर तेरा नाम लिखा है,
रंग बिरंगे फूलों जैसा।

जिस पर मेरा दर्द लिखा है,
रेगिस्तान के शूलों जैसा।।

कितनी मिन्नत की थी मैने,
तब तुमने वो नाम लिखा था।

अपने आंसू की स्याही से,
सुबह-ओ-शाम लिखा था।।

मेरे जीवन की सांसों का,
एक वही स्वर- सजिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________

जिसमें इक "तस्वीर" है तेरी,
जिससे हंसकर बात करूं मैं।

जिसमें इक तकदीर है मेरी,
जन्नत दिन और रात करूं मैं।।

कितनी कोशिश की थी मैने,
तब तुमने तस्वीर वो दी थी।

उससे वक्त कटेगा मेरा........,
समझो बस "शमशीर" वो दी थी।।

सारे पन्नों के समाज में,
जैसे वो भी बासिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________

जिसमें एक गुलाब रखा है,
मरा हुआ है, सूख चुका है।

अपनी अंतिम सांसे देकर,
स्वाभिमान को फूंक चुका है।।

कितनी चाहत की थी मैने,
तब तुमने वो फूल दिया था।

सूनी आंखों में चुभता है,
ऐसा तुमने शूल दिया था।।

खुशबू उसकी अभी अमर है,
लेकिन फूल नहीं जिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________

जिसके सीने पर रखा वो,
लाल- कलम अब भी रोता है।

जैसे इक मां के आंचल से,
"लाल" लिपटकर के सोता है।।

कितनी इज्जत की थी मैने,
तब तुमने वो कलम दिया था।

लिखने को ये गीत अधूरा,
तुमने साज-ए-अलम दिया था।।

तुम्हीं बताओ कैसे लिख दूं ,
तेरा प्यार कहीं जिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________

कितनी बार कहा था तुमसे,
मुझको प्रिया गीत वो लिख दो।

मेरा मन बहलाने को ही,
मुझको पागल मीत ही लिख दो।।

कितनी हिम्मत की थी हमने,
तब तुमने वो गीत लिखा था,

याद रहे मुझको जीवन भर,
ऐसा स्वर- संगीत लिखा था।।

आज जुदा हो जाने पर भी
"दुर्गा" तुमसे शर्मिन्दा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
_____________________
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

दुर्गा प्रसाद नाग
नकहा- खीरी
मोo- 9839967711

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

शीर्षक ---असली नकली
कागज के फूल हो या प्राकृतिक
फूल तो फूल ही है असली नकली का
अन्तर्मन अंतर बताते।।
रंग बिरंगे कागज के फूल काँटे नही फिर भी शूल गमक नही ना ही खिलते
मुस्कुराते छल जाते।।
रस हीन प्रकृति प्राणि का ज्ञान नहीं
आकर्षण युग मन में भाव जगाते
कागज के फूल वन्डरफुल वास्तव
वास्तविकता से दूर ले जाते।।
कागज की नाव कल्पना 
कोई रंग नही कोई सुगंध नही
छल छद्म के किसी रंग में रंग जाते
मोल नही कोई फिर भी दुनियां का
मोल बताते।।
भौतिकवादी युग नकली चाल चरित्र चेहरे कागज के फूल जैसे निहित स्वार्थ में जाने क्या क्या कर जाते।।
बदल गया है युग कितना असली नकली की पहचान नही नकली ही
कागज के फूल जैसे असली बन जाते।।
कागज के फूल आचरण संस्कृति सांस्कार का परिहास नकली युग के संसय का सत्य सत्यार्थ बताते।।
प्रकृति प्राणि के फूल रात कली
प्रभात के फूल जीवन के मौलिक
नैतिक मोल बताते ।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

रामकेश एम यादव

एक धनवान के बेटे ने!

एक धनवान के बेटे ने,
 प्यार भरा दिल तोड़ दिया,
शादी का झाँसा देकर,
हाल पे उसके छोड़ दिया।

साथ जियेंगे, साथ मरेंगे,
कितनी कसमें खाया था।
चुपके-चुपके दिल के अंदर,
गोता खूब लगाया था।
सारी मस्ती करके भौंरा,
उस कली को छोड़ दिया।
शादी का झाँसा देकर,
हाल पे उसके छोड़ दिया।
एक धनवान के बेटे ने,
प्यार भरा दिल तोड़ दिया।

सिसक रही उस बेटी पर क्यों 
ये आवाज नहीं उठती।
आज मेरी,कल तेरी बेटी,
की ये अर्थी है सजती।
आंसू की दरिया में डुबोकर,
मरने खातिर छोड़ दिया।
शादी का झाँसा देकर,
हाल पे उसके छोड़ दिया,
 एक धनवान के बेटे ने,
 प्यार भरा दिल तोड़ दिया।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

अनिल गर्ग

कहानी बुद्धिहीन सेवक

किसी शहर में एक सेठ रहता था । किसी कारणवश उस बेचारे को अपने कारोबार में घाटा हो गया और वह गरीब हो गया। गरीब होने का उसे बहुत दुख हुआ था। इस दुख से तंग जाकर उसने सोचा कि इस जीवन से क्या लाभ? इससे तो मर जाना अच्छा है । 

यह सोचकर एक रात को वह सोया तो रात को उसे सपने में एक संन्यासी नजर आया जो उसे कह रहा था, 'सुनो, सेठ, तुम मरो मत, मैं तुम्हारे सारे दु:ख दूर करने के लिए कल सुबह तुम्हारे घर पर आऊंगा। तुम मेरे सिर पर डंडा मारना, मैं उसी समय सोने का बन जाऊंगा।' संन्यासी की बात सुनकर दुःखी सेठ ने सोचा कि चलो एक बार और देख लेते है। 
यही सोचकर वह सुबह से ही अपने घर पर बैठे संन्यासी की प्रतीक्षा करने लगा। उसका नौकर नाई भी उस समय उसके पास ही बैठा था। थोड़े ही क्षणों के पश्चात् जैसे ही यह संन्यासी सेठ को आता दिखाई दिया तो उसने झट से अपना डंडा उठाकर उसके सिर पर दे मारा। 

बस फिर क्या था, देखते-ही-देखते वह सोने का बनकर गिर पड़ा। उसे वहां से उठाकर खुशी से नाचता सेठ अंदर ले गया। उसने नाई को इनाम में कुछ रुपए देकर कहा, "तुम जाओ, लेकिन यह बात बाहर जाकर किसी से मत कहना ।‘ 
नाई ने अपने घर जाकर सोचा कि जितने भी ये संन्यासी फिर रहे हैं यदि इनके सिर पर डंडा मारा जाए तो ये सोने के बन जाएंगे । सो मैं भी सुबह उठते ही इन सबके सिर पर डंडे मारूंगा और फिर...मैं भी अमीर... 
बस फिर क्या था, सुबह उठते ही उसने एक बड़ा लठ लिया और चल पड़ा सन्यासियों की खोज में और एक स्थान पर जहाँ बहुत से भिक्षुक ठहरे हुए थे,उन्हें अपने घर पर आने का निमंत्रण दिया। जैसे ही वह खाने के लिए घर पर आए तो नाई पहले से ही द्वार पर लठ लेकर बैठा था।

बस फिर क्या था,जैसे ही साधु अंदर आने लगे,नाई बारी-बारी उनके सिर पर लठ मारता रहा। उनमें से कोई मर गया कोई  गहरे घाव  खाए धरती पर तड़पता रहा। यह सूचना राजा की पुलिस तक पहुंच गई। पुलिस ने नाई को बंदी बना लिया और साथ ही साधुओं की लाशें  और घायल साधुओं को लेकर राजा के पास पहुंचे।

राजा ने नाई से पूछा,'तूने यह पाप क्यों किया?'उत्तर में नाई ने सेठ वाली सारी कहानी राजा को सुना डाली। नाई की कहानी सुन राजा ने सेठ को बुलाया और सब बात पूछी तो  सेठ ने अपना सारा सपना राजा को बता दिया।सेठ की बात सुन राजा ने कहा,'यह सारा दोष नाई का है, इसे फांसी दे दी जाए।'इस प्रकार नाई को फांसी दे दी गई। इसलिए कहा है-
'जो ठीक से देखा,जाना और सुना न हो, वह न करना चाहिए,जैसा कि नाई ने किया और मारा गया।
 अनिल गर्ग, कानपुर

रवि रश्मि अनुभूति

     डर                 अतुकांत 
    =====
पहले जंगल में रहने के लिए डर लगता था 
अब घर में रहते हुए डर लगता है 
घर में मुक्त नहीं आकांक्षाएँ , भावनाएँ 
बंदी हैं मानसिक संवेदनाएँ 
यहाँ तो हर चिंगारी में 
समाया ज्वाल लगता है 
अब तो घर में रहते हुए डर लगता है ।
संस्कृति और व्यवस्था के लिए 
कुछ कहना भी है पाप 
सुरक्षित नहीं मासूमों से भी 
सम्मान का अपना आप 
अब तो हर कदम पर उनका 
भटका ख़्याल लगता है 
अब घर में रहते हुए डर लगता है । 
चलो , महत्त्वाकांक्षाओं को 
कहीं समुद्र में डुबो दें 
बिन आस , बिन सम्बल 
निश्चिंत कुछ देर तो जी लें 
इन घुटन भरे दायरों में 
मरना मुहाल लगता है 
अब घर में रहते हुए डर लगता है ।
यूँ तो समझाने से स्वयं को 
कुछ होना नहीं है 
बुज़ुर्गों का बोझ 
नई पीढ़ी ने ढोना नहीं है 
अनुशासनहीनता का  इन्हें 
नहीं कोई मलाल लगता है 
अब तो घर में रहते हुए डर लगता है ।
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रवि रश्मि  ' अनुभूति  '
मुंबई   ( महाराष्ट्र ) ।
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देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

........................विरह-गीत............................

इक  पीली  शाम  में , मेरी  प्यारी   प्रेयसी  खो  गई।
पहले अपनी बनी रहती थी, अब किसी की हो गई।।

मेरी प्रेयसी , तुमसे मैंने , क्या-क्या  नही देखे सपने।
लेकिन सपने , विखरे ऐसे , जैसे कोई बिछड़े अपने।
तुमसे  मेरी  जिंदगी थी , तुम  ही  दूसरे  की  हो गई।
पहले अपनी बनी रहती थी, अब किसी की हो गई।।

मैंने पहले समझ लिया था , तुम मेरी हो मेरी रहोगी।
मेरे सिवा तुम किसी की , नही बनी  हो नही बनोगी।
पर ऐसी  क्या  खता थी , तू औरों  की क्यों  हो गई।
पहले अपनी बनी रहती थी ,अब किसी की हो गई।।

कैसे तुझे  यकीं कराऊँ , तेरे विना  मैं जी नहीं पाऊँ।
तू न मिली तो,जीना क्या,मरना चाहूँ तो मर न पाऊँ।
तुमसे  मेरी   प्यारी  जहाँ  थी , तू  गैरों  की  हो  गई।
पहले अपनी बनी रहती थी ,अब किसी की हो गई।।

ख़ुदा  करे  तू  फिर  से मेरी , जिंदगी  में  लौट आये।
अंधेरे में उजाला फैलाए,फिर से मुझे अपना बनाए।
तुमसे  मेरी  हर  खुशी थी , तुम ही  मुझे  छोड़  गई।
पहले अपनी बनी रहती थी,अब किसी की  हो गई।।

जहां भी हो,जैसी भी हो ,मेरे लिए बिलकुल वही हो।
कोई कुछ कहे दिल यही माने,तुम दूसरे की नही हो।
तुमसे मेरी प्यारी  बगिया थी , तुम्ही तन्हा  छोड़ गई।
पहले अपनी बनी रहती थी, अब किसी की हो गई।।

---------------------देवानंद साहा " आनंद अमरपुरी "

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

वीरता,पराक्रम एवं त्याग के प्रतीक महाराणा प्रताप की जयंती पर शत शत नमन 🙏🙏

                 *महाराणा प्रताप*
               ~~~~~~~~~
धन्य हुई  मेवाड़ी माटी,वीर सपूत ने जन्म लिया,
चंहु ओर खुशियाँ फैली,वो बालक नन्ना हर्षाया।
बज उठी शहनाई, मिल कर सब ने मंगल गाया,
बटी मिठाई खुशियों का घर में परचम लहराया।।

बचपन रूपी हठखेली में ही योद्धा की परछाई,
देख-देख लगता जैसे उसने वीरों की शोभापाई।
राष्ट्र धर्म की समर्पण भावना, हर मन को भाई।
चांद सूरज सी तेजलालिमा उसमें जो है समाई।।

आन-बान-शान की माटी पर जब संकट आया,
मेवाड़ी वीर सपूत वो प्रताप सबसे आगे पाया।
अडिग हिमालय जैसा,दुश्मन भी डिगा न पाया,
मातृभूमि की रक्षा खातिर अपना धर्म निभाया।।

अकबर भी हाफ गया था,प्रतापी उस हुंकार से,
ऐसा अदम्य शौर्य देखा राजस्थानी ललकार में।
जाने कितने सिर काटे थे,राणा की तलवार ने,
मेवाड़ी माटी के चर्चे गूंज रहे थे दिल्ली दरबार में।।

भाला का ऐसा परचम,दुश्मन को चने चबाये,
स्वामीभक्त चेतक घोड़ा भी अपनी टाप सुनाये।
झुके नहीं मुगलों आगे कितने अनुबंध ठुकराये,
राष्ट्र भक्ति के आगे दुश्मन ने कितने डोरे डाले।।

पूंजा भील प्रतापी आभा,आज भी महक रही, 
वीरगाथाओं में महाराणा की खुशबू फैल रही।
फोलादी हाथों से राजस्थानी माटी चहक रही,
कण-कण में  मानवता की झांकी चमक रही।।



   ©®
       रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

सुखमिला अग्रवाल भूमिजा

महाराणा प्रताप की जयंती के अवसर पर 
चौपाई छंद

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राणा जी की अमर कहानी,
कण कण गाथा कहे जुबानी।
अति बलशाली राजा राणा,
गौरव शाली राजपुताना।१।

अस्सी किलो का बना भाला,
युद्ध कौशल जिनका आला।
हृदय मोम आंखें चिंगारी,
मुगली सेना पुनि पुनि हारी।२।

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सुखमिला अग्रवाल'भूमिजा'
स्वरचित मौलिक
कापीराइट ©️®️
मुंबई

रवि रश्मि अनुभूति

 बाल साहित्य 
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आओ खाना बनाना सीखें 
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हम बच्चे हैं तो क्या हुआ  
मन तो लेकिन सच्चा हुआ 
मम्मी ने कुछ सिखाया है ,
खाना बनने की दी दुआ ।

मम्मी कहीं भी बाहर हो 
आने में उनको देर हो 
भूखे तभी तक बैठोगे , 
देर हो या तब सबेर हो ? 

खाना बनायेंगे हम जब 
मम्मी को मिलेगा सुख तब 
कभी भूखे नहीं रहेंगे , 
खाना बना लेंगे जब तब ।

मम्मी करती खूब सेवा
हम भी देंगे उन्हें  मेवा 
झट सीखें खाना बनाना , 
मदद कर दो तुम हे देवा ।

बचपन रहे ही सुखकारी 
खाना हो कल्याणकारी 
सीखें हम ये लगन से , 
काम ये मगर नहीं भारी ।

पका लें रोटी ,भात , दाल  
कर रसोई की देखभाल 
नाश्ता हम करें तैयार , 
चाय बनायें नीर उबाल ।

पधारें अतिथि सेवा करें
काम से हम तो नहीं डरें 
बनायें खाना व परोसें , 
हाथ पर हाथ न कभी धरें । 

अच्छे बच्चे सभी बनना
माँ - पिता की सेवा करना 
लड़का हो भले हो लड़की ,
अपनी शक्ति पर दम भरना ।
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(C) रवि रश्मि 'अनुभूति ' 
12.6.2021 , 2:42 पीएम पर रचित  ।
मुंबई   ( महाराष्ट्र ) ।

गौरव शुक्ल

कितनी जल्दी हार गए तुम!

तुमने तो सपने देखे थे नील गगन के पार चलेंगे;
तुम बोले थे चाँद सितारों पर करने अधिकार चलेंगे। 
मुट्ठी में सागर भरने का दंभ भरा था तुमने ही तो, 
ज्वलित आग पर प्रसन्नता से चरण धरा था तुमने ही तो। 

वह अदम्य साहस कैसे हो गया धूलिधूसरित बताओ? 
क्या  उद्योग किया कि सहजता से हर वचन बिसार गए तुम! 

कितनी जल्दी हार गए तुम! 

मुझसे बढ़कर तुमने किसको अपना माना था, बतलाना? 
मुझसे अधिक और किस पर अधिकार जताया, भी, जतलाना? 
जब जैसी मैंने इच्छा की तुमने वैसा रूप बनाया, 
 मुझ में बुरा लगा तुमको जो, मैं वह सभी त्याग कर आया। 

कितना मुझे सुधारा तुमने, कितना तुम्हें सँवारा मैंने;
मेरा कितना ऋण था तुम पर, कैसे उसे उतार गए तुम! 

 कितनी जल्दी हार गए तुम! 

तुमसे अधिक हृदय के अपने निकट किसे बिठलाया मैंने, 
गो, गोचर मन गया जहाँ तक, सब में तुमको पाया मैंने। 
 बाहर से यद्यपि लगता था, मेरा यह संसार संकुचित;
 पर मेरे मन के भीतर भीतर था यह अनंत तक विस्तृत। 

 टूटे तारे के समान ओझल हो गया दृगों से सब कुछ, 
 आज इंद्रियों की मेरी हर सीमा के हो पार गए तुम! 

 कितनी जल्दी हार गए तुम!

-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
मोबाइल - 7398925402

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

शीर्षक--अबोध का प्रेम


अवसान दिवस का होने वाला
संध्या कुछ विशिष्ठ सी स्वर 
एक पीली शाम के  कहानी किसी अतीत की।।
किया बहुत प्रयास आया नही
कुछ याद छन छन पायल की
आवाज गूँजती एक पीली शाम
संध्या करीब की।।
गगन कुछ लोहित स्वछंद मधुमास
पवन बता रही सृंगार शाश्वत 
सत्य व्यक्त अव्यक्त मधुर पवन
झोके एक पीली शाम की।।
गमक रही धारा आने वाली सूरज की लाली बता रही दृश्य दृष्टांत प्रभा प्रभात की गति चाल नित्य निरंतर की।।
सामने अचानक बचपन अठखेली प्रेम की परी संजी संवरी वचन प्रतिज्ञा मुक्ति याचना विवश तिरस्कार 
पुरस्कार एक पीली शाम की।।
आंखों से आंखे मिली शान्त मन कंठ  अवरुद्ध अश्रु की धाराओं ने पल
में ही बता दिया युग को बचपन अठखेली प्रेम का अन्तर्मन अतीत की।।
शब्द नही थे फिर भी अविनि और आकाश में गूंज निर्झर निर्मल प्रेम
डोर टूटने अवसान दिवस की संध्या विशिष्ठ  एक शाम पीली की।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

सौरभ प्रभात

*गीतिका (हिन्दी ग़ज़ल)*

*मापनी (बह्र)-*
*221 1222 221 1222*
*समांत (काफ़िया) - आता*
*पदांत (रदीफ़) - है*

विह्वल मन आँगन ये सुन गीत सुनाता है।
जब प्रीति करे धोखा तब नीर बहाता है।।

कहती निशदिन आहें वो पीर नहीं देगी।
मुस्कान रुलाये जब हिय को समझाता है।।

वो कुंदन सा चमके इस पावक में तपकर।
पर याद वही आये जो राग भुलाता है।।

चंचल दृग देखे हैं नित राह उसी की अब।
जो आज थकी साँसे कल पर बहलाता है।।

निस्तब्ध हुई धड़कन जो नैन पड़े उसपे।
वो दूर खड़ा अब तो उम्मीद चुराता है।।

ऐ सौरभ क्यों उसको तू याद करे अब भी? 
वो साथ नया पाकर देखो इठलाता है।।

✍🏻©️
सौरभ प्रभात 
मुजफ्फरपुर, बिहार

सुखमिला अग्रवाल भूमिजा

*ओ पालन हारे *

•••••••••••🌹••••••••

ओ सृष्टि के पालन हारे,
क्या तेरी अब मर्जी है।
मानवता सुबक रही है ,
पाशविक वृत्तियों ने घेरा है।

पृथ्वी डगमगा रही है,
खतरा अभी टला नहीं है।
मानवता सुबक रही है,
पाशविक वृत्तियों ने घेरा है।

मानव बना प्रकृति का दुश्मन,
पालनहार को रौंद रहा ,
क्रूरता की सब सीमा लांघा,
इस पर लगाम जरूरी है।

मानवता सुबक रही है, 
पाशविक वृत्तियों ने घेरा है।

बच्चे शिक्षित हो नये भारत के,
और संस्कारों से परिपूर्ण हों,
फिर कोई ताकत हरा नहीं सकती ,
विश्व विजयी भारत को।
बच्चे बच्चे को अब वयमैतिक पाठ जरूरी है,

मानवता सुबक रही है,
पाशविकता ने घेरा है… 
पृथ्वी डगमगा रही है,
खतरा भी तो टला नहीं है… 

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सुखमिला अग्रवाल'भूमिजा'
स्वरचित मौलिक
कापीराइट ©️®️
मुंबई

जया मोहन

कागज़ के फूल
बहार आने पर चमन में फूल खिलते है
कलियों को देख भवरे मचलते है
गमगमा उठती है सारी फ़िज़ा उनकी महक से
दिन मधुमास से सुहाने लगते है
कुछ समय का ही जुवन पाते हैं
शाम तक रंग गन्ध बिखेर के
कुम्हलाते है
कागज़ के फूल कभी नही मुरझाते है
प्रिय की यादो की सुगंध फैलाते हैं
उनके पास न होने पर भी उनका अहसास कराते है
कभी हँसाते कभी रुलाते है
आज बरसो बाद इन कागज़ के फूलो ने मुझे अतीत में पहुँचा दिया
उस मासूम का चेहरा आँखो के आगे  ला दिया
उपहारों से सबने मुझे लाद दिया था
मौन कोने में वो नन्हा खड़ा था
इशारे से मैंने उसे पास बुलाया
छुपाए हुए उपहार दिखाने को उकसाया
शर्मा कर उसने खुद बनाये कागज़ के फूलो का गुच्छा मुझे थमाया
मैं आपके लिए चाह कर भी कुछ न ला सका
सीने से चिपकाते हुए मैने कहा
तेरा तोहफा तो अनमोल है
ये तो हमेशा मेरे पास रह प्यार की सुगंध फैलाएंगे
बाकी तो सूख कर बिखर जायेगे
ये सदा शोख रंगत में नज़र आयेंगे
गुज़रे पलो की याद दिलाएंगे
फूल तो मेरे पास रह गए
नन्हे दूत को ईश्वर ले गये
आज भी इनमें उसका चेहरा दिखता है
जो दिल मे शूल चुभोता है
तुम्हे तो मौत से न बचा सकी
मुझे इन फूलों में तू ही तू दिखता है
ये न कभी सूखेगे न मुर्झायेंगे
तेरी यादों की खुशबू फैलायेंगे।

स्वरचित
जया मोहन
प्रयागराज

अलका जैन

अलका जैन आनंदी

2212  2212  2212  2212  काफिया फासला हौसला
 रदीफ कैसे कहूँ

कहते सदा प्यारी लगे हैं फासला कैसे कहूँ। 
क्या मतलबी दुनिया कहें मैं हौसला कैसे कहूँ।। 

लगता नहीं दिल को कभी की आप ऐसा कर सकें।
मिलकर बनाया था कभी जो घोंसला कैसे कहूँ।। 

पैगाम हमने जो दिया था आपके ही तो लिए ।
आना तुम्हें है जिंदगी में सिलसिला कैसे कहूँ।। 

है आपसे कि प्यार इतना काश शबनम मैं लगू। 
हम तो निभाएँगे सदा अब फैसला कैसे कहूँ।। 

मिलते सनम हम तुम कभी बागों कभी बाजार में।
पकड़े गए बागो खड़े भाई जला कैसे कहूँ।। 

बदला हमें है प्यार ने जो आपने *अलका* दिया।
अब तो चलेगा जन्म भर यह काफिला कैसे कहूँ।। 

अलका जैन @

सुधीर श्रीवास्तव

हाइकु 34
******
सुख
*****
दु:ख ही सुख
का आनंद जगाता
अच्छा लगता।
*****
सुख आयेगा
दु:ख से डरो नहीं,
जीवन चक्र।
*****
सुख से जिए
अभिमान न करें
यही रीति है।
*****
 हारना नहीं 
दु:ख तो परीक्षा है
सुख के लिए।
*****
घमंड कैसा
आज आप सुखी हो
कल मैं सुखी।
*****
भेद न करो
सुख दु:ख सहना
हमको ही है।
*****
दु:ख के पल
स्थाई नहीं रहेंगे
सुख आयेगा।
*****
सुख दु:ख तो
चोली दामन जैसा
आता जाता है।
*****
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-3
    *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
निरखि-निरखि गोपी सभ कहही।
जियतयि अजगर जनु मग अहही।।
     कोऊ कहहि न अजगर इहवै।
     जनु ई गुफा जबर कोउ रहुवै।।
घोटी जदि ई हम सभ  धाई।
मरिहैं किसुन बकासुर नाई।।
    अस कहि हँसि-हँसि ताली पीटत।
    अजगर-मुहँ मा प्रबिसे दउरत।।
सकल गोप अरु बछरू सगरो।
प्रानहिं सभकर कइसे उबरो।।
    लगे सोचने किसुन-कन्हाई।
    सोचें इत-उत सकल उपाई।।
बछरू सहित सबहिं रह मुहँ तक।
तिनहिं न निगला अजगर अब-तक।
    जोहत रहा प्रबेसहि कृष्ना।
    जेहिका निगलि बुझाई तृष्ना।।
बका-पूतना किसुना घालक।
तासु बहिनि-माता कै मारक।।
     यहिं ते अघासुरै रह जोहत।
    मुहँ मा किसुन-प्रबेसइ होवत।।
गोपी-गोप-गाय-रखवारा।
कष्ट सभें कै भंजनहारा।।
    कृष्न दयालू अरु उपकारी।
    दीन-हीन-रच्छक-सुखकारी।।
जानहिं बछरू-गोप न माया।
अघासुरै जस उनहिं दिखाया।।
    निज भगतन्ह कै रच्छा हेतू।
    करिहैं जतनहिं कृपा-निकेतू।।
                डॉ0हरि नाथ मिश्र
                  9919446372

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

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