सोनू कुमार मिश्रा

अरे रे सुनो चौहान रुको
इंसानियत  में मत झुको
एक दो नही  सत्रह  बार
देश लूटने  आया  गद्दार
माफ ना ही गुस्ताखी हो
लुटेरो को  ना  माफी हो
चूक गए  तो  राज लेगा
देश  को  कंगाल करेगा
सांप को मत छोड़ो तुम
गर्दन  तो   मरोड़ो  तुम
किसे दिखाते दया धर्म
क्यो जख्मों पर मरहम
याद  रखना  गद्दारो को
जन-गण के हत्यारों को
अरि को  रहम दिखाना
शौर्य को वहम दिखाना
छोड़ दो हा छोड़ भी दो
वैरी से मोह छोड़ ही दो
उठा लो खड्ग तलवार
शत्रु समझ  करो प्रहार
एक वार में  वध ना हो
बारम्बार में शर्म ना हो
सर्प को घायल छोड़ना
शत्रु मौत से मुंह मोड़ना
उचित नही  है व्यवहार
अति घातक होगा वार
हुआ वही जो होना था
वैरी  कृत्य  घिनौना था
करता रहा वह प्रयास
छोड़ा नही निज आस
सत्रहवीं वार,सत्ता पाया
मदमस्त शत्रु इतराया
यही हुआ है सदियों से
लहु से रंजीत नदियों से
दया धर्म महंगा पड़ा है
शत्रु सीना तान अड़ा है
भारत भूमि करे पुकार
अराति को दे ललकार
माफ ना हो  गुस्ताखी
शत्रु मृत्यु का हो भागी
उठो चौहान घात करो
आसन पर आघात करो
गजनी का संहार करो
लहु से धरा श्रृंगार करो।

सोनू कुमार मिश्रा

अरुणा अग्रवाल

नमन साहित्यिक मंच,माता शारदे
शीर्षक "योग एवं आध्यात्म"


भारतीय सभ्यता,संस्कृति पुरातन,
अरू नित्य नूतन लिऐ,वैभवता,
योगका रहा समुचित योगदान,
जिससे मिलता निरोगी काया।।

प्राचीन काल से ऋषि,मुनियों ने,
अपनाया योग को योग्य-विधा,
ब्रह्म मुहूर्त में जागरण से दीर्घायू,
योग,आध्यात्म का समावेश-सहर्ष ।।

नैतिकता,आध्यात्म,पूजा,अर्चना,
सुबह,शाम का हवा,बिन पैसे-दवा
जिससे रहे मनुज स्वस्थ,प्रसन्न,
आधि,व्याधि,उपाधि रहित,मन।।

जब तन-मन रहे खुशहाल,सदैव,
जरा,विकार,क्लेश से रहे दूर,
एक सर्वगुणसंपन्न-व्यक्तित्व,
स्वतः होता निर्माण,नामचीन।।

इन्द्रियां रहते काम,मद से दूर,
लोभ,ईर्ष्या,अहंकार का नाश,
सोपान चढ़ता,बन जाता सुजान,
और उसका बढ़ता प्रभाव-मृणाल।।

सत्य से कलि हर युग में प्रथम,
योग,आध्यात्म के लिऐ,भारत,
समग्र विश्व में रहा,सर्वोच्च,देश,
आज के परिप्रेक्ष्य में भी,अग्रणी।।

अरुणा अग्रवाल।
लोरमी,छःगः,
🙏🙏

डॉ. कवि कुमार निर्मल

काव्य रंगोली परिवार को नमन्
शीर्षक: "योग और अध्यात्म"
वार: वृहस्पतिवार

धारण करना है धर्म- शास्त्र बतलाता है।
भगवत् धर्म हीं  योग मार्ग  कहलाता है।

विस्तार- रस- सेवा- तद्स्थिति हीं 'भगवत् धर्म' है।
धर्म का पालन अनुशीलन हीं अध्यात्मिक पथ  है।

तद्स्थिति प्रतिसंचर धारा भवसागर तक जाना है।
जीवात्मा का ईश्वर में मिलन- मुक्ति मोक्ष पाना है।

यही मिलन योगाभ्यासी नियमित साधना से करते हैं।
साधना से दीर्धायु, कुशाग्र आत्मीय विकास करते हैं।

साधना सें तन मन आत्मा का 'एकिकरण' हो जाता है।
अणुमन भूमामन में विलीन हो कर शिव तक जाता है।

सदाशिव समाज को 'तांत्रिक योग' का पथ दिखलाये।
कृष्ण ने गीता में योग की गुणवत्ता महातम्य समझाये।

ऋषिश्रेष्ठ पतंजली अष्टांग योग विद्यामाया की विधि  बतलाये।
यम-नियम प्राणायाम-प्रत्याहार धारणा-ध्यान से समाधी पायें।

विद्यामाया तंत्र अष्टांग योग से मिल कर मानव को पूर्णत्व देता  है।
देहिक मानसिक अध्यात्मिक विकास से साधक मुक्त हो जाता है।

असाध्य रोगों का निवारण योगासनों  से संभव है।
सत्व, रजस और तमस गुणों से कुण्ठित मानव है।

तन में चेतनता और ओज योग समाविष्ट  करता है।
ओज साधक को परक्ष लक्ष्य शिव तक पहुँचाता है।

योग  प्रचार सर्वहित- शुभफलाफलकारी है।
गुहा का तप और सिद्धि मार्ग स्वार्थपरता है।

समाजिक सेवा और जनकल्यण कर मानव महान बनता है।
नवचक्र जागृत कर अमृत क्षरण का परमानंद-मोक्ष पाता है।

डॉ. कवि कुमार निर्मल
बेतिया, पश्चिम चंपारण
बिहार
9708055684

अमरनाथ सोनी अमर

कविता -यह शरीर जीवन साथी! 

जीवन साथी यह शरीर है, 
इसको हमे बचाना है! 
खान- पान हितकर है लेना, 
ठेस नहीं पहुँचाना है!! 

दुखी कहीं यदि वह हो जाये, 
सारा कष्ट उठाना होगा! 
कोई साथ नहीं दे सकता, 
केवल वही सहारा होगा!! 

इसे स्वस्थ रखना है तो जब, 
अल्प भोग करना होगा! 
तेल, मशालें, स्वाद नही हो, 
पानी भार बढा़ना होगा!! 

पानी ज्यादा से ज्यादा भी, 
अपने पेट में भरना होगा! 
बडे़ भोर में खाट छोंडकर, 
राम भजन गाना होगा!! 

थोडा़ योग करो तुम निशिदिन, 
थोडा़  सा टहलना होगा! 
कहीं हुये तकलीफ देंह में, 
आयुर -औषधि लेना होगा!! 

अंग्रेजी की दवा भगाओ, 
आयुर दवा बचायेगा! 
रहें स्वस्थ तन- मन हो सुन्दर, 
पूरे उम्र तक जीना होगा!! 

मृत्यु काल जब निकट आ जाये, 
उसको गले लगाना होगा!         राम नाम के गुण गाते ही, 
यम पुरी को जाना होगा!! 

अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662

डॉ० रामबली मिश्र

मिसिर की कुण्डलिया

मानव बन अतिशय सहज, भावुक सरल सुजान।
बैठाओ उर में सदा, रामेश्वर श्रीमान।।
रामेश्वर श्रीमान, बनें सबका उद्धारक।
पापी को भी मोक्ष, दिलाकर हों नित तारक।।
कहें मिसिर कविराय, नहीं बनना तुम दानव।
पढ़ मानव का पाठ,बनो मनमोहक मानव।।

       हरिहरपुरी की कुण्डलिया

अतुलित बनने की करो, इच्छा मन में यार।
स्वाभिमान के मंत्र से,करना जीर्णोद्धार।।
करना जीर्णोद्धार, स्वयं को सुंदर रचना।
कर खुद का उद्धार, बनो उत्तम संरचना।।
कहें मिसिर कविराय, साधना करना परहित।
लगे जगत से नेह, धरा पर दिखना अतुलित।।

      मिसिर हरिहरपुरी की 
            कुण्डलिया

गौतम बुद्ध महान में,लोग खोजते दोष।
अच्छाई दिखती नहीं, सिर्फ दोष-संतोष।।
सिर्फ दोष-संतोष, मनुज है कायर माया।
सुंदरता का अर्थ, नहीं जानत मन-काया।।
कहें मिसिर कविराय,गढ़त जो पथ सर्वोत्तम।
सकल राज सुत नारि,  त्याग बनता वह गौतम।।

      मिसिर की कुण्डलिया

मस्तक का श्रृंगार है, निर्मल मन का भाव।
पावन उज्ज्वल मन कमल, में औषधि की छाँव।।
में औषधि की छाँव, करत है कंचन काया।
हरती मन-उर रोग, बहाती सब पर दाया।।
कहें मिसिर कविराय, रखो मन में शिव पुस्तक।
चमके सदा ललाट, खिले चंदन से मस्तक।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

कुमार@विशु

सांस्कृतिक यात्रा

वेद की ऋचाएँ जहाँ गुंजती थी चारो ओर ,
                       आज चहुँदिश वहाँ वेद का विरोध है।
संस्कार का ही जहाँ रक्त का प्रवाह था जी,
                      आज दुष्टता ही पथ में बना अवरोध है।
मंत्र - तंत्र - यंत्र  यज्ञध्वनि जहाँ गुंजती थी,
                       वहाँ जग अश्लीलता का चंकाचौध है।
बहती थी सरिता हृदय में जहाँ प्रेम का जी,
                        हृदयहीन मानव में भरा काम क्रोध है।।

भारती की आरती उतारते थे देव जहाँ,
                       वहाँ लोग भारती के खींच रहे चीर हैं।
आन मान शान में कटाते वीर शीश जहाँ,
                     वहाँ  देश  बेचके भी  आत्मविभोर  हैं।
शांति सद्भावना का फैलाया संदेश वहाँ,
                  जातिवादी ज्वाला अब जलाती चहुँओर है।
राम की धरा पे जहाँ धर्म का था बोलबाला,
                   आज  वहाँ  गुँजता  विधर्मियों का शोर है।।2।।

घूँघट की ओट से जो चाँद झाँकता था कभी,
                    जाने कैसे बादलों के बीच चाँद खो गया।
शर्म का जो गहना था नारियों का साड़ी बीच,
                     जाने कैसे नग्नता का भेष भूषा हो गया।
तात मात भ्राता जैसी बोली शब्दकोष से ही,
                    जाने कैसे डैड माॅम वाली भाषा हो गया।
चौखट की शान वाली संस्कृति महान थी जो,
                     वहाँ  पर  नशेड़ी ये संतान कैसे हो गया।।3।।

वचन का मोल जहाँ प्राण से चुकाये गये,
                      वहाँ  पे  वचन  बिनमोल  बिक जाते हैं
मित्रता में जहाँ कृष्ण राजपाट तक दिए,
                      वहाँ  स्वार्थपरता  में गले  कट जाते हैं।
नारी के सम्मान हित जहाँ कुरूक्षेत्र सजा,
                      वहीं नित नारियों के शील लूट जाते हैं।
भाई हित भाई जहाँ त्यागे राजपाट सब,
                   भाई  वहाँ भाई के अब शीश काट लेते हैं।।4।।

कैसा है विकास और कैसी ये प्रगति हुई,
                    आज चहुँओर कैसी छायी ये उदासी है?
कहाँ पे खड़े थे हम कहाँ आ गये हैं हम,
                    जहाँ दानवी प्रवृत्ति  नर रक्त प्यासी है ?
सांस्कृतिक यात्रा में संस्कृति छोड़ दिए,
                  इसीलिए सत्य आज झूठ की ही दासी है।
छलछद्म द्वेष औ पाखण्ड का है राज यहाँ,
                  धर्म और ईमान यहाँ रोज बिक जाती है।।5।।
✍️कुमार@विशु
✍️स्वरचित मौलिक रचना

निशा अतुल्य

मुक्त काव्य प्रस्तुति
बदलती पीढ़ी

हर पीढ़ी का अंतराल
कुछ कहता,कुछ सुनता है
हर पीढ़ी का भी एक 
अपना गौरव होता है ।

समय बदलता,रूप बदलता
और बदलती परिभाषा है 
जीवन मरण के चक्कर से
कोई नहीं बस छूटता है ।

कल तक तो माँ जवान थी
आज तुम पर आश्रित है
जब तुम आये इस दुनियां में
तुम भी उस पर आश्रित थे ।

तब पाला था उसने स्नेह से
नहीं कोई तिरस्कार किया
अब तुम पर क्यों बोझ बनी माँ
क्यों तुमने मन से बाहर किया ।

बैठी किसकी राह निहारे 
मूक बधिर सी लगती है 
कहना चाहे बात किसी से
पर घर की बात न कहती है ।

सोचो और विचार करो तुम
क्या अगली पीढ़ी को दोगे
फल वैसा ही पाओगे फिर
जैसा कर के जाओगे ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

सावन आने वाला है - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

शीर्षक - सावन आने वाला है।
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इन्द्र धनुष  के  सतरंगों  से,
वृष्टि   धरा   पर  आयी  है।
धुंधली   सी  तस्वीरें   सारी,
निखर-निखर कर छायी हैं।
देख धरा तूं नभ शरारत करने वाला है।
                सावन  आने  वाला  है-2।।

बारिश के बूंदों के सुखदायक संगीतों से,
छेड़  रहे  विरही चातक  नव  गीत यही।
सुख - दु:ख   के   इस   मधुर   स्वप्न  में,
शरद,   शिशिर    सब    ऋतुएं     सही।
उठ रहा जलप्रपात अब आसमान मिलने वाला है।
                               सावन  आने  वाला  है-2।।

जिंदा  लाशों  के  इस  जग में,
इच्छाएं   हर   ओर   पड़ी  हैं।
आशाओं  से  प्रमुदित  मन  में,
सुमधुर    संगीत     छिड़ी   हैं।
पहन हरित परिधान धरा प्रियतम आने वाला है।
                            सावन  आने  वाला  है-2।।

कानन के सब जीव-जन्तु अब,
नव    उमंग    से    भरे    पड़े।
रिमझिम सी  बारिश  की  बूंदें।
गात   धरा    पर    लोट    पड़े।
रोम रोम हैं सिहर उठे मेघ गगन में जाने वाला है।
                             सावन  आने  वाला  है-2।।

तन  शीतल है  मन  निर्मल है,
व्याकुल आश लगाए बैठी है।
निर्झर  बहती  अंश्रुधार  अब,
जीवन की डगमग  कश्ती है।
मिल जाए तिनके का सहारा किनारा आने वाला है।
                                सावन  आने  वाला  है-2।।
         - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

हरिहरपुरी के दोहे

 जागत-सोवत हर समय, रख दुनिया का ख्याल।
आँखों में पानी रहे, जानो सबका हाल।।

रोना दुखियों के लिये, बन सहयोगी नित्य।
भरसक सेवा भाव से, बनो दीप्त आदित्य।।

चमको सूरज की तरह, अक्ष स्वयं पर घूम।
सारी ऊर्जा सौंप कर,जग के दिल को चूम।।

मानवता के मंत्र का, करते रहना जाप।
मन से घूमो विश्व में, एक निमिष में माप।।

स्थापित करना जगत को, अपने मन में आप।
मन में हो शुभ कामना, जग को ग्रसे न ताप।।

उत्तम इच्छायें बसें, हरें शोक-संताप।
मन-गृह में आये नहीं, कभी पाप का बाप।।

मृदुल स्वभावों से करो, मानव का अभिषेक।
सारी जड़ता त्याग कर, जागृत करो विवेक।।

रहो शून्य में सूक्ष्म सा, सकल लोक में नाच।
पोथी पढ़ कर प्रेम की, सकल धरा पर वाच।।

बनते क्यों नहिं राम हो, कर सच्चे से स्नेह।
सेबरी के घर को समझ, अपना असली गेह।।

जीना सीखो मित्रवत, मित्र सहज अनमोल।
सबके उर में बैठकर, मधुर रसायन घोल।।

स्वर्ग बने जीवन सकल, छोड़ दंभ-अभिमान।
अवधपुरी का राम बन, मार असुर-शैतान।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

संजय जैन बीना

*कोई देख न ले*
विधा : गीत

इस बात का डर है,
वो कहीं रूठ न जायेंI
नाजुक से है अरमान मेरे, 
कही टूट न जायें।।

फूलों से भी नाजुक है, 
उनके होठों की नरमी I
सूरज झुलस जाये, 
ऐसी सांसों की गरमी I
इस हुस्न की मस्ती को,  
कोई लूट न जायें I
इस बात का डर है,
वो कहीँ रूठ न जायें I।

चलते है तो नदियों की, 
अदा साथ लेके वो।
घर मेरा बहा देते है,
बस मुस्कारा के वो I
लहरों में कही साथ,
मेरा छूट न जायें I
इस बात का डर है,
वो कहीं रूठ न जायें I।

छतपे गये थे सुबह , 
तो दीदार कर लिया I
मिलने को कहा शामको, 
तो इनकार कर दिया I
ये सिलसिला भी फिरसे, 
कहीं टूट न जायें।
इस बात का डर है,
वो कहीं रूठ न जायें I।

क्या गारंटी है की फिरसे, 
कही वो रूठ न जाएं।
मिलने का बोल कर 
कही भूल न जाये।
हम बैठे रहे बाग़ में,
उनका इंतजार करके।
वो आये तो मिलने पर 
देखकर हमें चले गये।। 
उन्हें डर था इस बात का,
की कोई हमें देख न लेI।

जय जिनेन्द्र देव 
संजय जैन "बीना" मुंबई 
16/06/2021

जया मोहन

कविता
रावण उवाच
मैं रावण हूँ, दंभी हूँ, अभिमानी हूँ
पर तुम सबसे प्रचंड ज्ञानी हूँ
तुम मूर्ख की तरह मुझे हर वर्ष जलाते हो
खुशियां मनाते हो
क्यों किया राम से युद्ध नही जानते हो
मैं तुम्हारी तरह स्वार्थी नही
तुम अपने परिवार को नही बचाते हो
अपने सुख में लिप्त रहते हो
इस जन्म के सुख को ही अन्तिम मानते हो
ऋषि पुलत्स्य दानवों से छले गए थे
बेकसूर होने पर भी राक्षस होने का श्राप पाये थे
विद्वान होकर भी मैं राक्षस कहलाया
मैं नादान नही था जो पुत्र पौत्रों को मरवाया
मैं जानता था राम ही उद्धारक है
इसीलिए उन्हें लड़वाया था
उनके हाथों मारे जाने पर उन्हें श्राप मुक्त हो मोक्ष दिलाया था
उनका अगला जन्म सफल बनाया था
राम सत्य निष्ठा परोपकार की खान थे
मैं निवेदन भी करता तो वो हमें अकारण न मारते
इसीलिए माँ सीता का मैंने  किया हरण था
रार करने पर संहार  निश्चित था
यही हमारे लिए मुक्ति का मार्ग था
अरे तुम्हे जलाना है तो जलाओ
अपने अंहकार, नफरत,द्वेष को
परिवार की उन्नति की राह खोजो
मत डरो चुनने से उस राह को जो अंत करता है
अंत के बाद ही तो प्रारंभ का सूर्य उदय होता है

स्वारचित
जया मोहन
प्रयागराज

सोनू कुमार मिश्रा

लहु के तस्कर

घायल पड़ा फुटपाथ पर
मौत की वह घाट पर
पहले तो एम्बुलेंस ना आई
किसी तरह मौत घबराई
अरे कोई इसे उठा तो लो
किसी गाड़ी में बैठा तो लो
ले जाया गया अस्पताल
जो खुद ही था बीमार
डॉक्टर वह क्या होता है
दवा-दारू किसने देखा है
जमीन पर मरीजो का उपचार
बिस्तरों पर सुगर अपार
तभी कही से एक दीदी आती
पट्टी बांधकर चली जाती
तड़प रहा था वह निरन्तर
जीवन लग रहा प्रलयंकर
आते है कुछ डॉक्टर भी
अस्पताल के इंस्पेक्टर भी
लेकिन होता है यह क्या 
तड़प या किसी की जय
अभी तो खेला शुरू हुआ
झमेला सभी शुरू हुआ
पहले हो इसकी जांच
लेकिन कहा यह तो बताओ
करता कौन है यही समझाओ
अस्पताल में मशीने नही है
जो है वह जंग से रंगी है
ऊपर से जांच करेगा कौन
कक्ष के बाहर ताला मौन
जाओ बाहर में दुकान सजी है
एक दो नही हजार खुली है
वही जांच करवाकर आया
पूंजी सारी लुटाकर आया
देखकर डॉक्टर घबराए
मथा उनका जोरो चकराए
लाल रक्त बहुत कम है
जाओ जाकर व्यवस्था करो
ब्लड बैंक से लेकर आओ
लेकिन वहां कैसे मिले
कोई तो राह कहे
अब शुरू होता तमाशा
आधुनिक भारत पर तमाचा
ब्लड बैंक कंगाल बना है
खाली वहां पोस्टर टँगा है
लहु आज नही कल आना
चलता रहता सदा बहाना
करे क्या कोई जुगाड़ नही है
बताओ कोई रास्ता और नही है
है पास में विकल्प शेष
लेकिन करना होगा कार्य विशेष
यम से बचना लक्ष्मी लाओ
नोटो के कुछ छींटे उड़ाओ
बड़ा नही छोटा बाजार
एक अंक का दस हजार
दस हजार कुछ तो कम हो
हम गरीब हम पर रहम हो
नही नही सब दाम तय है
हमे भी तो सबका भय है
जल्दी करो जल्दी लाओ
वरना तुम कल फिर आओ
करता क्या भला वह बेचारा
तड़प रहा किस्मत का मारा
गरीब होना श्राप भयंकर
फलता फूलता लहु का तस्कर।

सोनू कुमार मिश्रा

सुधीर श्रीवास्तव

शहर छोड़ चले
*************
तुम्हारे प्यार का
सुरूर ऐसा था कि हम
तुम्हारे शहर आ गये,
तुमसे मिलने की 
ख्वाहिश तो बहुत थी मगर
दूर दूर ही रहे।
तुम्हें देखने भर की ख्वाहिशें लिए
यहां वहां, जहां तहां
पागलपन में भटकते रहे।
वर्षों बाद भी 
कभी तुम्हारा दीदार न हुआ,
या फिर शायद तुम्हारा ही
मेरे सामने आना का
कभी दिल ही नहीं हुआ
या फिर तुम्हें 
कभी न ये ख्याल आया
कि कुछ कदम ही सही
हम साथ साथ चलें,
आखिरकार थकहार कर
हम तुम्हारा शहर ही छोड़ चले।
■ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

एस के कपूर श्री हंस

।।आपके शब्द ही जाकर आपकी*
*पहचान बनते हैं।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
आपका शब्द   नहीं   आपका
संस्कार बोलता है।
आपकी वाणी  नहीं  व्यक्तित्व
आकार बोलता है।।
योग साधना    आराधना  सब
व्यर्थ बिना भाव के।
आपका   लहज़ा   खुद ही हर
प्रकार     बोलता है।।
2
आपकी छाप हमेशा दूसरों  पर
असर       करती   है।
आपकी शालीनता  दुनिया  को
खबर     करती     है।।
ज्ञान सेअधिक  व्यवहार  बनता
है सफलता की निशानी।
विषम परिस्थिति  आपकी सोच
कैसा सबर करती है।।
3
जो भी बोलोअच्छा बोलो बोलो
सोच    समझ   कर।
कुशब्द  प्रयोग बजाय  निःशब्द
ही        गुज़र   कर।।
शब्दों के दाँत नहीं पर काटते हैं
बहुत    गहरे   तक।
बोलो हमेशा   ही       ऊपरवाले
से    जरा डर कर।।
4
जो भी बोलो कि    सीधा    दिल
में  उतर        पायो।
यूँ न बोलो कि   किसी    के दिल
से   उतर       जायो।।
तेरे शब्द तेरा आईना तेरी   बनते
इक़    पहचान     हैं।
हमेशा इस    कसौटी पर खरे  ही
उतर      कर  आयो।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।।      


। प्रातःकाल   वंदन।।

प्रातःकाल स्नेहिलअभिवादन
संप्रेषित है आपको।
नेह   स्नेह   सप्रेम    संबोधन
निवेदित है आपको।।
दुआओं मेंआप रहते हैं हमारे
हर रोज़ हर तरह से।
*श्रीयुत सादर  प्रणाम  वंदन*
*अग्रेषित हैआपको।।*
👌👌👌👌👌👌👌👌
*शुभ प्रभात।।।।।।।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।।।।  एस के कपूर*
👍👍👍👍👍👍👍👍
*दिनाँक 16.  06. 2021*
🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️🕉️

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-6
  *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
आत्मानंदहिं प्रकट स्वरूपा।
कहैं बेद अस प्रभू अनूपा।।
     निकट न आवै कबहूँ माया।
     जल-थल-नभ सभ प्रभुहिं समाया।।
अघासुरै तन नाथ समावा।
यहितें पापी सद्गति पावा।
     यहि मा कछु नहिं अब संदेहा।
     सभ मा प्रभू रहहिं बिनु देहा।।
सौनक ऋषिहीं कहे सूत जी।
जीवन-दानय दिए किसुन जी।।
     सभ जन रच्छक किसुनहिं जानउ।
     जदुकुल-भूषन किसुनहिं मानउ।।
जानि बिचित्र चरित भगवाना।
नृपइ परिच्छित बनि अनजाना।।
     जानन चाहे प्रभु कै लीला।
     प्रश्न पूछि सुकदेवहिं सीला।।
पचवें बरस कै जे रह लीला।
कस भइ छठें बरस अनुसीला।।
     अस अचरज मैं जानि न पावउँ।
      हमहिं क गुरुवर अबहिं बतावउँ।।
दोहा-सुनहु परम प्रेमी भगत,सौनक जी महाराज।
         कहे सूत सुकदेव तब,नृपहिं कहा प्रभुराज।।
                     डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372

अतुल पाठक धैर्य

शीर्षक-मदहोश धड़कन जिया बेक़रार
विधा-कविता
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मदहोश धड़कन जिया बेक़रार,
प्यार की बरसात की पहली है फुहार।

भीगना चाहते हैं तन और मन,
छाया है प्यार का मौसम आई बहार।

प्रेमी हुए बावरे गाए गीत और मल्हार,
देखो आँखों में छलका है बेशुमार ख़ुमार।

आंखों ही आंखों में खोने लगे हम,
एक दूजे के दिल में रहने लगे हम।

मादक नैन मेहबूबा से लड़ने लगे जब,
मेहबूबा का दिल भी बहकने लगे तब।

दीदार से रूह को चैन मिलने लगे तब,
बन्दगी जिनकी ज़िन्दगी बनने लगे जब।

भावनाएं मन की क़ुरबत आने लगे जब,
एहसास दिल को दिलाने लगे तब।

रचनाकार-अतुल पाठक " धैर्य "
पता-जनपद हाथरस(उत्तर प्रदेश)
मौलिक/स्वरचित

नूतन लाल साहू

सच्चा मित्र

क्या है गलत और क्या है सही
क्या करें और क्या नही
इसे जानना होगा
सच्चा मित्र है आत्मज्ञान
इसे पहचानना होगा
बेवजह फंस जाओगे
अगर ज्ञान न होगा
अंधेरे से निकल अब
उजाले के जमाने में
जमाना बेरहम बन
लग जाता है दबानें में
किरण की ओर,सारे पथ
आत्मज्ञान और आत्मविश्वास से
तुझें मोड़ना होगा
सच्चा मित्र है आत्मज्ञान
इसे पहचानना होगा
अगर हो मजबूत इरादा
तो रहे न कोई बाधा
बस हिम्मत ही है, एक सहारा
सगे भाई बंधू भी
अब रहा न कोई प्यारा
झांक कर तो देख अपने अंदर
तेरे अंदर भी है इक विधाता
सच्चा मित्र है आत्मज्ञान
इसे पहचानना होगा
परिस्थितियों से क्यों घबराता है
तू विधाता को कोसता क्यों है
आत्मज्ञान की तो सुन
वही है ज्ञान का उजाला
इसी में है सारी समझदारी
वक्त पे फूल खिल ही जाएंगे
सच्चा मित्र है आत्मज्ञान
इसे पहचानना होगा

नूतन लाल साहू

मधु शंखधर स्वतंत्र

मधु के मधुमय मुक्तक
संगीत
----------------------------
जीवन भी संगीत सा, बजता मधुर सितार।
कभी तार जब टूटता, सुर छूटे उस पार।
सा रे गा मा पा बना, झंकृत मन अविराम,
सतत कल्पना में उड़े, प्राप्ति ह्रदय व्यवहार।।

प्यार बसा संगीत में, सुर सरिता ही मूल।
प्रकृति सुभग संगीत है, रंग बिरंगे फूल।
ढोल बाँसुरी साथ ही,शहनाई आवाज,
कर्ण सदा अति प्रिय लगे, सुध बुध जाते भूल।।

तार जुड़े जब भावना , निर्मित शुभ संगीत।
सत्य निहित छवि प्रेम की, विस्तृत सच्चा मीत।
गीत छंद साहित्य में, बसा शुभग संसार,
गीतकार की कल्पना, सतत ईश की प्रीत।।

बूँदों में संगीत है , लाती है बरसात।
ध्वनि जो भी होती मधुर, होती है सौगात।
जिस मन बसता है सदा, शुभग सरस संगीत,
मानव मन अति श्रेष्ठ है, मधुमय शोभित बात।।

*मधु शंखधर 'स्वतंत्र'*
*प्रयागराज*✒️

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

नसीब का ही है खेल सारा किसी की कोई ख़ता नहीं है
तमाम हस्ती लुटाई जिस पर मिली उसी से वफ़ा नहीं है
हुस्ने-मतला-----
हमारे ग़म की क्या ऐ तबीबों जहान भर में दवा नहीं है 
हज़़ार कोशिश के बाद भी जो मिली अभी तक शिफ़ा नहीं है 

है लाख माना वो दूर हमसे मिले भी मुद्दत हुई है उससे
मगर वो दिल की नज़र से मेरी किसी भी लम्हा जुदा नहीं है

हमारे क़िस्से हैं लब पे उसके सुनाता रहता है हर किसी को 
बशर बताते हैं फोन करके किसी तरह बेवफ़ा नहीं है 

करम की नज़रें ख़ुदाया रखना रहे सलामत वो हर तरह से 
हमारी नज़रों में उससे बढ़कर कोई हमारा सगा नहीं है 

हजारों सदमे लिपट गये हैं रह-ऐ-वफ़ा में क़दम ही रखते
फ़रेबी दिल ने कहा बराबर ये सौदा फिर भी बुरा नहीं है

उलझती जाती है दिन ब दिन ही हयात अपनी बताओ *साग़र*
हमारी मुश्किल के रास्तों में कोई भी मुश्किलकुशा नहीं है 

🖋️विनय साग़र जायसवाल, बरेली

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीत*(कोरोना 16/14)
नहीं विश्व का कोई कोना,
जहाँ न पहुँचा कोरोना।
मनुज-प्राण का शत्रु भयंकर-
मचा दिया रोना-धोना।।

धरती काँपे थर-थर,थर-थर,
कहर बहुत यह बरपाता।
जिसपे करे आक्रमण शातिर,
उसे बहुत ही तड़पाता।
कर  प्रवेश  सीधे  सीने  में-
कहे  चलो  अब है सोना।।
     मचा दिया रोना-धोना।।

पति-पत्नी का साथ छूटता,
पिता-पुत्र बिलगाव करे।
भ्रात-बहन-संबंध अलग कर,
माँ-सुत मध्य दुराव करे।
नहीं पड़ोसी भी सह पाता-
शीघ्र पड़ोसी का खोना।।
      मचा दिया रोना-धोना।।

जगह नहीं है श्मशान में,
क्रिया-कर्म होना दूभर।
अस्पताल भी भरे पड़े हैं,
है अभाव औषधि ऊपर।
जन से जन संपर्क नहीं है-
लुटा दिखे कोना-कोना।।
    मचा दिया रोना-धोना।।

करें यत्न इससे बचने की,
छद्म रूप यह धारे है।
सेंध लगाकर कब घुस जाए?
घातक पाँव पसारे है।
स्वयं-नियंत्रण-नियमन से ही-
अंत रोग का  है होना।।
     मचा दिया रोना-धोना।।

प्रेम-भाव को मन में रखकर,
बच-बच कर ही रहना है।
जब भी बाहर निकले कोई,
दो  गज  दूरी  रखना  है।
रखकर साहस मन में मित्रों-
बुरे  हाल  को  है  ढोना।।
      मनुज-प्राण का शत्रु भयंकर-
      मचा  दिया  रोना-धोना।।
                ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                    9919446372

डा. नीलम

आरज़ू अब तलक कॅंवारी है

इश्क का बाजार नरम गरम है
दिलों की जहॉं चोरबाजारी है

पॉंव में छाले और पेट खाली है
गुरबत सेजंगअभी भी जारी है

कुंद ज़हन पर अंधविश्वास हावी है
टीका लगाना मौत की तैयारी है

दिशाएं गुमसुम हवाएं भारी हैं
लगे मौसम का मिजाज़ भारी है

चीख ओ'पुकार सड़कों पे जारी है
मौत का ताण्डव हवा में तारी है।

       डा. नीलम

सुधीर श्रीवास्तव

संस्कार
********
माना कि आधुनिकता का 
मुलम्मा हम पर चढ़ गया है,
हमनें सम्मान करना जैसे
भुला सा दिया है।
पर ऐसा भी नहीं हैं कि
दुनियां एक ही रंग में रंगी है,
सम्मान पाने लायक जो है
उसे सम्मान की कमी नहीं है।
हम लाख आधुनिक हो जायें
पर हम सबके ही संस्कार भी
मर जायेंगे, 
ऐसी वजह भी नहीं है।
हमारी परंपराएं कल भी जिंदा थीं 
आज भी हैं और कल भी रहेंगी,
कुछ सिरफिरे भटक गये होंगे
यह मान सकता हूँ मगर,
विद्धानों की पूजा कल की ही तरह
आज भी हो रही है।
विद्धान पूजित था,है और रहेगा
विद्धानों की पूजा करने वालों की कमी
न कभी पहले ही थी और न ही आज है,
डंके की चोट पर ऐलान मेरा है
न ही कभी कमी होगी।
विद्वान पहले की तरह पूजा जाता है
आगे भी सर्वत्र पुजता ही रहेगा,
विद्धानों का मान,सम्मान, 
स्वाभिमान कभी कम नहीं हुआ है
और आगे भी नहीं होगा।
◆ संस्कार
********
माना कि आधुनिकता का 
मुलम्मा हम पर चढ़ गया है,
हमनें सम्मान करना जैसे
भुला सा दिया है।
पर ऐसा भी नहीं हैं कि
दुनियां एक ही रंग में रंगी है,
सम्मान पाने लायक जो है
उसे सम्मान की कमी नहीं है।
हम लाख आधुनिक हो जायें
पर हम सबके ही संस्कार भी
मर जायेंगे, 
ऐसी वजह भी नहीं है।
हमारी परंपराएं कल भी जिंदा थीं 
आज भी हैं और कल भी रहेंगी,
कुछ सिरफिरे भटक गये होंगे
यह मान सकता हूँ मगर,
विद्धानों की पूजा कल की ही तरह
आज भी हो रही है।
विद्धान पूजित था,है और रहेगा
विद्धानों की पूजा करने वालों की कमी
न कभी पहले ही थी और न ही आज है,
डंके की चोट पर ऐलान मेरा है
न ही कभी कमी होगी।
विद्वान पहले की तरह पूजा जाता है
आगे भी सर्वत्र पुजता ही रहेगा,
विद्धानों का मान,सम्मान, 
स्वाभिमान कभी कम नहीं हुआ है
और आगे भी नहीं होगा।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
     8115285921

विजय मेहंदी

14 जून  " रक्तदान दिवस " के पुनीत अवसर पर प्रस्तुत मेरी यह मौलिक रचना--------
                 " रक्तदान महादान "

ऐ मेरे वतन के लोगों   लगा लो रक्तदान का नारा,
ये शुभदिन होगा हम सब का कर जीवन दान ये न्यारा।
जब घायल होवे कोई   खतरे  में  पड़े जिन्दगानी,
बूंद-बूंद लहू को तड़पे या बह जाये लहू बन पानी।।

कभी राह सड़क हादसा  कभी बेबस नारि प्रसूती,
कभी शरहद पर लड़ने वालों की होती है आहूती।
कभी डेंगू रक्त-कैन्सर  कभी पीलिया खून की प्यासी,
इनसे ग्रसित हो मरने वाले  हर लोग हैं देश के वासी।।

कितने दान-वीरों ने अपने खून की बाजी लगा दी,
खुद रह इस दुनिया में  गैरों की भी जान बचा दी।
हैं धन्य जवान वतन के  है धन्य ये उनकी जवानी,
कर रक्तदान जीवन का  बन गये महा वे दानी।।

ये विनम्र गुहार आपसे   करता है अटेवा आगवानी,
कर रक्तदान जीवन का  बन जाओ महा तुम दानी।
पर मत भूलो लहू की कमी से कितनों ने हैं प्राण गवाये,
कुछ याद उन्हें भी कर लो जो लौट के घर ना आये।।

" ये आज की करुँण कल्पना कल की हो सकती आपबीती,
इसे लिखती कलम विजय की, करती है विनय सभी की।।"

==============================
मौलिक रचना- विजय मेहंदी (कविहृदय शिक्षक)
उत्कृष्ट कन्या कम्पोजिट इंग्लिश मीडियम स्कूल शुदनीपुर,मड़ियाहूं,जौनपुर(उoप्रo)
9198852298

जया मोहन

तकदीर
मत करो मन के करने की तदबीर
होगा वही जो विधाता ने लिख दिया तकदीर
इससे कोई जीत न पाया
राजा ,रंक फकीर
होगा।। ।।।।।
तदबीर किये राजा दशरथ
सौपेंगे राज्य रघुबर को
तकदीर के आगे हार गए
केकैई को दिये वर को
पुत्र वियोग में तड़प कर
छूट गया नश्वर शरीर
होगा।।।।।
सीता ने पति धर्म निभाने को
ठाना पति संग वन जाने को
तकदीर ने उनको दूर किया
रावण घर पहुँचा दिया
असहनीय वेदना की सीता
पल पल सहती पीर
होगा।।।।
हरिश्चन्द्र ये माने थे सत्य को अपनाए थे
नही जानते थे की तकदीर में उनकी लिखा डोम घर भरना नीर
होगा ।।।।।
अच्छे बुरे कर्मो का फल देती तकदीर हमारी
नही जीत सका कोई इसको दुनियां इसके आगे हारी
सुख दुख तुमको वही मिलेगा
जो विधाता ने लिखा तकदीर तुम्हारी
होगा ।।।।।।।

जया मोहन
प्रयागराज

निशा अतुल्य

सुशांत को श्रद्धांजलि स्वरूप


ये समुंदर बड़ा गहरा है 
छोटी मछली की बिसात क्या
कब कौन बड़ा भी ठहरा है 
लगता था तुम जैसा ही मैं 
पर समझ कहाँ कोई पाया
देखा होता समझा होता 
मैं भी तुमसे अलग नहीं था ।

कुछ घबराए,कुछ रहे छुपाए 
तुम फिल्मी दुनिया के अफसाने
मैनें देखा, कुछ मैंने परखा 
वो मेरी समझ नहीं आए ।

जब प्रश्न किया मैनें तुमसे
तुम मुझसे ही थे घबराए 
राह  मिली न कोई तुम्हें
तुम थे ख़ुद से ही भरमाए।

ईश्वर की ये मर्जी थी
तुम्हारी भी खुदगर्जी थी
बच नहीं पाओगे तुम 
जैसी करनी वैसी भरनी थी ।

कुछ मुझसे हुआ गलत होगा
जिसका मैंने ये दुख भोगा 
ये बात समझ जाओगे अगर
मन का संवाद देगा धोखा ।

वो शिवशंभु वो अभ्यंकर
मेरा ईश वो मेरा प्रभु 
निमित किया कोई काम बड़ा 
बुला लिया मुझको जल्दी ।

मैं लौट के फिर से आऊंगा
और सारे कर्ज चुकाऊंगा
तुम मुझ बिन मर न पाओगे
मैं तुमको सबक सिखाऊंगा।

प्रतिशोध की एक परिभाषा है 
हर काम यहां है सबके निमित 
समय जरूर करवट लेगा 
मैं कर दूंगा फिर तुम्हें सीमित ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

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