अमरनाथ सोनी अमर

मुक्तक- हास्य! 
                                          प्यार  के  मौसम  दिवाने आ गये! 
अब  हमारे आप खुद तो आ गये! 
रातको चूडी़ न खनकी यह सनम! 
अभी खनके आपअबतोआ गये!! 

मैं बहुत उपवास करती थी बलम! 
देवता  को  पूजती  थी  मैं  सनम! 
आपके  ही   याद  में   खोई  रही! 
ठीक अच्छा आ गये प्यारे बलम!!

अमरनाथ सोनी "अमर " 
9302340662

डॉ० रामबली मिश्र

काशी (चौपाई)

काशी की अति न्यारी महिमा।
अतिशय दिव्य परम प्रिय गरिमा।।
काशी देवलोक की नगरी।
इसे जानती दुनिया सगरी।।

महादेव की है यह काशी।
रहते यहाँ ब्रह्म अविनाशी।।
हरते शंकर त्रय तापों को।
सहज काटते सब पापों को।।

भोलेशंकर मोक्षप्रदाता।
इन्हें समझना महा विधाता।।
मानववादी संस्कृति रचना।
काशी की मोहक संरचना।।

परम प्रसिद्ध जगत कल्याणी।
काशी की है मधुरी वाणी।।
पावन सरिता गंगा-वरुणा।
प्रेमरूपिणी माता करुणा।।

यदि सच्चा आनंद चाहिये।
शिव जी का वरदान चाहिये।।
काशी में ही अलख जगाओ।
खुशियों का त्योहार मनाओ।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.
            महारानी लक्ष्मीबाई 
            *बलिदान दिवस*
                   ~~~~
                   कविता
        आन-बान-शान मतवाली,
        बचपन से बडी होशियार।
        स्वतंत्रता की अलख जगा,
        लड़ने को रहती तैयार।।

        नाना की मुहबोली बहन,
        लक्ष्मी नाम,संतान अकेली।
        खेल-खेल में ही सीखकर,
        कृपाणों की बनी सहेली।।

        वीर शिवाजी की गाथाएं,
        देश भक्ति का रंग भर जाती।
        उस वीर सिंहनी के आगे,
        दुश्मन चाल चल नहीं पाती।।

        आँखों की देख लालिमा,
        अंग्रेजी सेना घबराती।
        चलती जब भी महारानी,
        दुश्मन की छाती फट जाती।।

       अठारह जून बलिदान दिवस,
       महिमा उसकी घर-घर छाई।
       कर जोड़ नमन  है हमारा,
       जय हो तेरी लक्ष्मीबाई।।

       ©®
         रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

अमरनाथ सोनी अमर

मुक्तक-चित्र आधारित! 

माँ  इंतजार  करे पती  का! 
बेटी  देखे   राह  पिता  का!
कितने  समय में वहआयगें! 
भरें पेट सब सोय रात का!! 

करें  बसेरा  हरे  पेंड  तर! 
वहाँ नही कोई उनकों डर! 
सुख के नींद सभी हैं सोते! 
होय सबेरा करें कर्म वह!! 

अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662

प्रकाश कुमार मधुबनी चंदन

जीवन एक संघर्ष है।
जो हारेगा नही कठिन पल में
उसी का एक दिन उत्कर्ष है।

 पग पग पर है काँटे बिछाए।
किसके द्वारा कौन समझाए।
सब चाहे केवल केवल गिराना।
यही तो वास्तविक उत्कर्ष है। 

मौत से खेलने से लेकर।
अपनी इच्छा का आहुति देकर।
जो चढ़ता फर्स से अर्स है।
जीवन एक संघर्ष है।

कठिनाइयों से गुजरता है जो।
फूल सा ही प्रेम काँटों से करता है जो।
जो डरता नही भय कभी खाता नही
उसके ही भाग्य में अंतिम हर्ष है।

आसान नही जहाँ दो गज जमीन पाना।
होता है क्या आसान आशियाना बनाना।
घबराना नहीं क्योकि यह उपाय ही नही।
अरे यही कर्म और भाग्य के बीच का तर्ज है।

एक ही सत्य है एक दिन अंत होने का।
फिरभी अर्थ अलग है कंजूस व संत होने का।
लगे रहना भी जीत है आँखरी वक्त तक।
किसी और से नही अपितु स्वयं से संघर्ष है।

प्रकाश कुमार मधुबनी'चंदन'

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-2
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-2
ग्वालन मध्य किसुन अस सोहैं।
कमल-कली जस दल बिच मोहैं।।
    पुष्पइ-पत्ता,पल्लव-छाला।
    छींका-अंकुर-फलहिं निराला।।
पाथर-पात्र बनाइ क सबहीं।
निज-निज रुचि कै भोजन करहीं।।
    केहू हँसै हँसावै कोऊ।
    लोट-पोट कोउ हँसि-हँसि होऊ।।
सिंगी बगल कमर रह बँसुरी।
कृष्न-छटा बहु सुंदर-सुघरी।।
   दधि-घृत-सना भात कर बाँये।
   निम्बु-अचारहि अँगुरि दबाये।।
ग्वाल-बाल बिच किसुनहिं सोहैं।
उडुगन मध्य जथा ससि मोहैं।।
   एकहि प्रभू सकल जगि भोक्ता।
   ग्वालन सँग करि भोजन सोता।।
लखि अस छटा देव हरषाहीं।
नभ तें सबहिं सुमन बरसाहीं।।
   भए गोप सभ भाव-बिभोरा।
   बछरू चरत गए बन घोरा।।
करउ न चिंता भोजन करऊ।
अस कहि किसुन घोर बन गयऊ।।
     करैं अभीत भगत जे भीता।
     बिपति भगावैं प्रभु बनि मीता।।
दधि-घृत-सना कौर लइ भाता।
बछरू हेरन चले बिधाता।।
    तरु-कुंजन अरु गुहा-पहारा।
     मिलहिं न बछरू सभें निहारा।
सुनहु परिच्छित ब्रह्मा-मन मा।
अस बिचार उपजा वहि छन मा।।
    देखन औरउ लीला चाहहिं।
    बादइ मोच्छ अघासुर पावहिं।।
सोरठा-ब्रह्मा माया कीन्ह,भेजा किसुनहिं बनहिं महँ।
           तुरत भेजि पुनि दीन्ह,सभ ग्वालन निरजन जगहँ।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372

नूतन लाल साहू

चेतावनी

तूने जीवन की अब तक
आधी सुनी है कहानी
अंतिम सत्य इसे जानकर
ना कर नादानी
नही तो,स्वर्ग लोक की आशाओं पर
फिर जाएगा पानी
तू उपेक्षा सह चूका है
तू घृणा में दह चूका है
पहाड़ सा टूटकर,गिरा था संकट
अतीत याद है तुझे
कपट के कटु पाश में फंसकर
एक दिन तू लूटा था
तेरे हृदय के अंदर है विधाता
हर क्षण याद कर
आत्मविश्वास और आत्मसंयम से
कर सकता है नव निर्माण
इस कलयुग में
रात सा दिन हो गया था
फिर भी कोरोणा संकट ने
रात लाई और काली
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सबेरा
आत्मविश्वास कभी न खोना
क्योंकि नाश के दुःख से कभी
दबता नही,निर्माण का सुख
जिंदगी जीना आसान नहीं होता
बिना संघर्ष कोई महान नहीं होता
जब तक न लगे हथौड़े की चोंट
पत्थर भी भगवान नही बनता
तूने जीवन की अब तक
आधी सुनी है कहानी
अंतिम सत्य इसे जानकर
ना कर नादानी

नूतन लाल साहू

डॉ० रामबली मिश्र

हरिहरपुरी का सवैया

भरना हर पेट यही करना, मन से दिल से शुभ चिंतन हो।
प्रभु से कहना सबको कुछ दें, हर मानव का अभिनंदन हो।
बदले सबकी नित सोच सदा, प्रिय भाव बहे परिवर्तन हो।
हिय में उपजे शिव वृत्ति सदा, सब शोक हरें सुख नर्तन हो।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

विनय साग़र जायसवाल

🌹
1212-1122-1212-112
उधर भी इश्क़ के अब फूल मुस्कुराने लगे
मेरी ग़ज़ल वो अकेले में गुनगुनाने लगे

नज़र के तीर चलाये जो उसने छुप छुप कर 
बला के तेज़ कलेजे पे वो निशाने लगे

चले भी आओ कि दिल बेक़रार होने लगा 
फ़लक से चाँद सितारे भी अब तो जाने लगे

करीब इतना मेरे पास वो जो बैठ गये 
हज़ारों दीप अँधेरे में जगमगाने लगे 

उठा लिए थे तकल्लुफ़ को छोड़ पैमाने
क़सम दिला के हमें अपनी जब पिलाने लगे

बना दिया हमें आदी शराब का फिर वो
अँगूठा दूर से हँस हँस के अब दिखाने लगे

 इसी लिहाज़ से कर ली शराब से तौबा
हमारे बच्चे भी अब आइना दिखाने लगे

ली जिनके वास्ते दुनिया से दुश्मनी *साग़र*
वो आज मेरी मुहब्बत को आज़माने लगे
🍷🍷🍷🍷🍷🍷🍷🍷
🖋️विनय साग़र जायसवाल
17/6/2021

मधु शंखधर स्वतंत्र

*झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि पर सादर समर्पित यह रचना........🙏🙏🇮🇳🇮🇳*
*गीत*
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झाँसी वाली रानी की अनुपम गाथा बतलानी है।
नारी जिसका दिव्य शौर्य था उसकी झलक दिखानी है।।

जन्म हुआ ब्राम्हण कुल उनका ,  मोरोपंत पितृ छाया से।
भागीरथी माँ धर्मनिष्ठ थी, सुसंस्कृत सभ्य माया से।
मणिकर्णिका नाम धरा था, मात पिता ने प्यारा सा।
मनु  सबकी ही प्यारी बेटी  , लाड बहुत ही न्यारा सा।
माँ  की मृत्यु बाद फर्ज सब, पिता पक्ष धर बानी है ।
झाँसी वाली रानी........।।

बाजीराव द्वितीय सभा में, जाते  जब भी वहाँ पिता।
साथ सदा ही ले जाते थे, मनु भावों की बात बता।
मनु की शिक्षा शस्त्र ज्ञान भी, वहीं मिला था सार सभी।
नाना साहेब बने सखा थे, ढाल कृपाण की धार सखी।
दरबारी सब प्यार से कहते, नाम छबीली सानी है।
झाँसी वाली रानी............।।

बनी दुल्हन जब हुई सयानी, झाँसी उसको धाम मिला।
गंगाधर की नार नवेली, लक्ष्मीबाई  नाम मिला।
एक पुत्र जो उनका जन्मा , तीन महीने बाद मरा।
रोग तभी से गंगाधर को, अन्तर्मन से आन धरा।
मृत्यु हुई राजा की जैसे, बेरंग राजधानी है।
झाँसी वाली रानी.............।।

दत्तक पुत्र लिया रानी ने, दामोदर  था लाल वही।
डलहौजी की हड़प नीति थी, चाल ब्रिटिश की नहीं सही।
चला मुकदमा बात बढ़ी थी, कुछ समझे कुछ मान गए।
डलहौजी चाहे झाँसी को, किला बसाए शान नए।
नीति नियम सब धरे ताख पर, करते फिर मनमानी है।
झाँसी वाली रानी............।।

सन् सत्तावन क्रांति सजग का, केन्द्र बिन्दु कुछ खासी था।
सदा सुरक्षा भाव बसाए, सुदृढ़ करना  झाँसी था।
स्वयं सेवक सेना का तभी, रानी ने निर्माण किया।
झलकारी जो रानी जैसी, प्रमुख सैन्य का मान दिया।
दतिया ओरछ राजाओं ने, शक्ति नई पहचानी है।
झाँसी वाली रानी............।।

अट्ठावन में ब्रिटिश सैन्य ने, झाँसी बढ़ना शुरु किया।
दो हफ्तों तक युद्ध चला जो, शहर सकल वह घेर लिया।
रानी निकली तभी किले से, दामोदर रक्षक बनकर।
पहुँच कालपी स्वयं लक्ष्य धर, तात्या टोपे से मिलकर।
दोनों की संयुक्त शक्ति की, ग्वालियर जीत सयानी है।
झाँसी वाली रानी..........।।

राखी भेजी थी रानी ने, अलीबहादुर (द्वितीय) साथ दिया ।
झाँसी की रक्षा की खातिर , सबने अपना हाथ दिया।
शक्ति समर्थित रानी बनकर, अंग्रेजों से द्वंद रहा।
बादल उनका प्रिय घोड़ा था,
मृत्यु समय तक साथ रहा।
रानी आयी युद्ध क्षेत्र में, साहस में मर्दानी है।
झाँसी वाली रानी..........।।

बादल घोड़े के मरते ही, पवन अश्व की बारी थी।
ले तलवार पीठ पे सुत को, लगती तेज कटारी थी।
लड़ी युद्ध जब अंग्रेजों के, खट्टे उसने दाँत किया।
अनुपम शक्ति दिखाई तब वह, अग्रेंजों को मात दिया।
नदी स्वर्ण रेखा के तट पर, अंतिम साँसे पानी है।
झाँसी वाली रानी..........।।

नया अश्व था पवन यहाँ पर , भागा सका न डटा वहीं।
ऐसा वार किया दुष्टों ने, रानी का सिर कटा वहीं।
गिरी धरा पर लक्ष्मीबाई , आभा वही दिखानी है।
झाँसी वाली रानी............।।

अंग्रेजी जनरल ह्यूरोज ने, कहा धरा पर देख उसे।
सब पुरुषों में मर्द यही बस, देखेगा इतिहास जिसे।
सुंदरता, चालाकी, दृढ़ता, सब उसकी पहचान थी।
खतरनाक थी विद्रोही पर, झाँसी की वह जान थी।
अमर कहानी देशभक्त की, जन जन तक पहुँचानी है।
झाँसी वाली रानी...............।।

जन्म हुआ सन् अट्ठाइस में, मृत्यु अट्ठावन में जानो।
तीस वर्ष की अमर कहानी, शक्ति निहित थी यह मानो।
वो शहीद हो गई मगर वह झुकी नहीं दुश्मन आगे।
उनके चेहरे की आभा से, दुश्मन खुद पीछे भागे।
लिखी स्वयं जो अमर कहानी, सबको याद दिलानी है।
झाँसी वाली रानी.......।।

ऐसी दुर्गा माँ अवतारी, धरती को भी तार गईं।
जीते जी बस देश की रक्षा, मरते मरते सार भईं।
वीरांगना शक्ति की देवी, जीवन अपना त्याग चलीं।
शीश नहीं वह कभी झुकाई, नीति बसाए शाम ढली।
सतत नमन है रानी जी को, मधुमय शीश  झुकानी है।
झाँसी वाली रानी...........।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*18.06.2021*

कौस्तुभ सक्सेना

पिता 
*****
कौस्तुभ सक्सेना कानपुर
          (कक्षा 9)
               *****
जब जन्मे हम दोनों तब हमें दिल से लगाया था, 
माथा चूम कर अपना प्यार जताया था,
खुशी के मारे ढोल-ताशा बजवाया था।
हाथ थाम के हमको चलना सिखलाया था, 
जमीन पर गिरे हम तो सम्हलना सिखाया था।
उंगली पकड़ कर पढ़ना-लिखना सिखाया  था,
अच्छे संस्कारों का ज्ञान दिलवाया था।
हर छोटी-बड़ी ज़िद को पूरी कर जाते हैं,
और अपने सपनों का बलिदान कर आते हैं।
सपने पूरे करने का ख़्वाब  दिखाते  हैं,
छोटे बड़े कदमों पर अपना सहयोग जताते हैं।
अगर होती तबियत खराब तो रात भर जाग कर अपनी गोद में सुलाते है,
यदि हम पर आंच आई तो वो हमेंशा हमारी ढाल बन जाते हैं।
हमारी जिंदगी की कीमती डोर हैं,
वो पिता कहलाते  हैं। -2
और आज भी हमे अपने  दिल  से लगा कर जो प्यार जताते हैं,
वो ही पिता कहलाते  हैं। 
वो ही पिता कहलाते  हैं।
*************************
कौस्तुभ सक्सेना
जनरल गंज कानपुर नगर।
9838015019.

रामकेश एम यादव

योग!

रहेगी बहुत दूर प्राणायाम से बीमारी,
फूल के सरीखे महकेगी दुनिया सारी।
जीने के लिए साँस तो है अत्यावश्यक,
हरी-भरी सदा रखना योग की क्यारी।
दवाइयों के बोझ से मिलेगा छूटकारा,
मजे में खूब रहेंगे जहां के नर -नारी।
सेहतमंद होने से बनेगा विश्व मजबूत,
सींचनी होगी ही ये योग की फूलवारी।
धमनियों में दौड़ेगा रोज ताज़ा खून,
हिन्द की इस देन की दुनिया आभारी।
योग दिवस की सदा जलती रहे ज्योति,
अनुलोम -विलोम तो हरेक पे है भारी।
आत्मा,परमात्मा से जोड़ता है योग,
मानों तो योगाभ्यास बहुत है जरुरी।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

कुमकुम सिंह

लहरें

समंदर की लहरों के तरह उठती है मन में तरंगे,
दिल के अंदर तक झकझोरती है यह तरंगे।

कभी यह सोच मुरझा जाती है,
 कभी यह सोच खुश हो जाती है।

और कभी विचलित कर जाती है दोनों ही तरंगे।

लहरों की तरंगे हो या मन की तरंगे ,
  समानता दोनों में होती है।

समुद्र की लहर तेज हो तो सारी वस्तुएं,
 उस समय उस लहरों में भी लिप्त हो जाती है।

मन की लहर तेज हो तो अनहोनी हो जाती है।

दोनों ही लहरों को शांत होना अति अनिवार्य है ,
परंतु लहरों को शांत करना इतना आसान भी नहीं है।

जब लहरें आती हैं खुशियों की आभाष भी कराती हैं,
तभी तो मन को एक ठंडक से सुकून पहुंचाती है।

जैसे अंदर तक डूब जाने का मन करता है,
 उस शीतल जल में खो जाने का दिल करता है।

कुदरत ने भी खूब बनाया है,
 हर जगह इंसान को प्रकृति के रूप में समझाया है।

हम मनुष्य ही नादान है अपनी भावना में बह जाते हैं, कुदरत ने तो  एक एक रूप को दर्शाया है।

लहरों का गति हो या मन के गति हो दोनों का सामान्य होना बहुत जरूरी है,
     
                 कुमकुम सिंह

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.
        *चित्राधारित लेखन*
           *विधा- कविता*
        
         देख चित्र मातृशक्ति का,
        अभिनंदन करता हूं।
        उसकी पालन शक्ति को,
        वंदन मैं करता हूं।।

        अनपढ़ सी हैं पर वो,
        शिक्षा का रूप जानती।
        इसलिए तो इसे वो,
        अपना धर्म मानती।।

        बेटी को तैयार कर,
        विश्वास जगाना है।
        मन में कुंठा न आये,
        उसे बतलाना है।

       सड़क पार रखा फर्मा,
       घर सा नजर आया।
       ताजमहल सा बनकर,
       मन ही मन शर्माया।।

       गोल गोल बहुत सुंदर,
       सर्दी गर्मी न बरसात।
       रस्सी पर सजी जैसे, 
       कपड़ों की बारात।।

       पास और एक घेरा,
       जिसमें झूले लाल।
       हे देवी तुमने तो,
       कर दिया है कमाल।।

     रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-1
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-1
बड़ भागी तुम्ह अहउ परिच्छित।
अस कह मुनि सुकदेव सुसिक्षित।।
      जदपि कि तुम्ह जानउ प्रभु-लीला।
      पुनि-पुनि पुछि यहिं करउ रसीला।।
रसिक संत-रसना अरु काना।
कथन-श्रवन प्रभु-चरित सुहाना।।
     अहइँ जगत मा सुनहु परिच्छित।
     प्रभु-बखान जग रखै सुरच्छित।।
नारि-बखानइ लंपट भावै।
सुनि प्रभु-चरित संत सुख पावै।।
     रहसि भरी लीला भगवाना।
     संत-मुनी-ऋषिजन जे जाना।।
कहहिं सबहिं मिलि कथा सुहाई।
सुनहिं रसिक जन मन-चित लाई।।
     मारि क अघासुरहिं भगवाना।
      रच्छा कीन्ह गोप-बछ-प्राना।।
लाइ सभें जमुना के तीरे।
कहहिं किसुन मुसकाइ क धीरे।।
    सकल समग्री अहहीं इहवाँ।
    खेलन हेतु हमहिं जे चहवाँ।।
स्वच्छ-नरम सिकता ई बालू।
जमुन-तीर सभ रहहु निहालू।।
     भौंरा-गुंजन अति मन-भावन।
     खिले कमल सभ लगहिं सुहावन।।
पंछी-कलरव मधुर-सुहाना।
तरु-सिख बैठि सुनावहिं गाना।।
    करउ सबहिं मिलि भोजन अबहीं।
     भूखि-पियासिहिं तड़पैं सबहीं।।
चरहिं घास सभ बछरू धाई।
जल पीवहिं सभ इहवाँ आई।।
दोहा-सुनत बचन अस किसुन कै, ग्वाल-बाल सभ धाहिं।
        बछरुन्ह जलहिं पियाइ के,बैठि किसुन सँग खाहिं।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372

एस के कपूर श्री हंस

सौहार्द्र।स्नेह।प्रेम।।*
*।।रचना शीर्षक।।*
*।।अंहकार नही,सौहार्द्र, स्नेह,प्रेम,सहयोग ही जीवन*
*सफलता मन्त्र है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
अहंकार का     नशा  बहुत 
मतवाला   होता है।
मनुष्य नहीं    स्वयं   का ही
रखवाला   होता है।।
सौहार्द, स्नेह,  प्रेम,सहयोग
ही है सफल मन्त्र।
अहम क्रोध    केवल   बुद्धि
का दिवाला होता है।।
2
वो कहलाता  सभ्य   सुशील
जो सरल होता है।
वो कहलाता विनम्र  शालीन
जो तरल होता है।।
इसी में   है  बुद्धिमानी    कि
व्यक्ति प्रेम से रहे।
वही    बनता    सर्वप्रिय  जो
नहीं गरल  होता है।।
3
अहंकार जीवन के लिए  एक
विषैले सर्प समान है।
कभी करे   न त्रुटि    स्वीकार 
उस   दर्प    समान है।।
यह ईश्वरीय   विधान    है कि
घमंड सदा रहता नहीं।
वह कभी नया सीख न   पाये
मादक गर्व समान है।।
4
साधन शक्ति संपत्ति सदा एक
से कभी रहते नहीं हैं।
अभिमानी को   लोग   सफल
कभी कहते नहीं हैं।।
वाणी का   कुप्रभाव  सदा ही
पड़ता    है  भोगना।
जान लीजिए सदैव यह जहर
लोग सहते    नहीं हैं।।

___________________________

*।।मत हारो जिन्दगी से हार कर भी।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
मत हारो जिन्दगी  से  कि ये
प्रभु का वरदान होती है।
पूरे करने  को   कुछ    सपने
वह   अरमान  होती  है।।
मत छोड़ना मैदान तुम  कभी
बीच      मझधार      में।
हार गये गर  तुम   मन  से तो
फिर ये गुमनाम होती है।।
2
माना गम बहुत    इस  जमाने
में पर  तुम  बिखरो  नहीं।
गिरो उठो  संभलो  चलो  और
फिर भी तुम निखरों  यहीं।।
पूरे करने को देखो   सपने  पर
जुड़े भी रहो हकीकत से।
पर भाग   कर  तुम  इस   दौड़  
से  मत   निकलो  कहीं।।
3
हर रंजोगम  जिन्दगी  से कभी
ऊपर       नहीं        है।
हार जायो तुम तो भी   जिन्दगी
जीना   दूभर    नहीं है।।
मत रुखसत हो दुनिया से कभी
बेनाम निराश   होकर।
जान लो   दुनिया  में  कभी  भी 
अवसर कम  नहीं   है।।
4
तनाव में भी खुद  जान  ले लेना
कहलाती बस नादानी है।
सुख दुःख चलते साथ साथ बस
यही जीवन की रवानी है।।
यही जिंदगी की मांगऔर हमारी
है        जिम्मेदारी      भी।
गर सितारें हों गर्दिश में  तो  फिर
लिखो कोई नई कहानी है।।
5
चल कर धारा के   विपरीत   भी
तुम सच  में  ख्वाब  बनो।
जिसकी रौनक खुद    छा  जाये
तुम वह   शबाब    बनो।।
असंभव शब्द में खुद ही छिपा है
सम्भव       शब्द     भी।
ठान लो  मन   में  कि    तुम  बस
एक हीरा   नायाब  बनो ।।
*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।*
मोब।।           9897071046
                    8218685464
(अवसाद।।तनाव।।आत्महत्या जैसे
कदमों को रोकती एक रचना)

मन्शा शुक्ला

सुप्रभात
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

माखन चोर कन्हैया मेरो
.............................
विधा छन्दमुक्त गीत
..........................

माखन चोर  कन्हैया मेरों
चित्त चुराय के ले गयो मेरों
फोड़ मटुकिया माखन खायें
ग्वाल बाल संग धूम मचायें
चित्र लिखित सी रही मैं थाड़ी
अधर मौन मुख आवे न वाणी.......2
माखन चोर...............................।

वेणू   मधुर  बजावें   मनहर
सुध बुध मेरी   लीन्ही  है हर
साँवली  सूरत  मोहनी मूरत
बलि बलि जाँऊ तुम पर गिरधर
भक्तन हित  प्रभु लीला  करते
प्रेम बशीभूत ओखल से बँधते.....2
माखन चोर.......................।

गेंद खेलन का करके बहाना
नागनाथ  बिष मन  का हरतें
 लीला चीर हरण की करके
नीति ज्ञान का  सन्देशा  देते
प्रबलप्रेम  के  पाले पड़कर
छाँछ हेतु नृत्य गिरधर करते.....2
माखनचोर........................।।

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

डॉ० रामबली मिश्र

मेरी पावन शिव काशी

शिव काशी वैकुंठ धाम है, हरिहरपुर प्रिय अविनाशी;
शंकर-विष्णु यहाँ रहते हैं, बनकर सच्चा अधिशाषी;
बड़े प्रेम से गीत सुमंगल,गाते सारे देव-मनुज;
अद्भुत अतिशय रम्य सुरम्या, मेरी पावन शिव काशी।

जिसे प्रेम है शिव भोले से, वह बनने आता वासी;
जो संवेदनशील परम है, और सरल अंतेवासी;
वही थिरकता और मचलता, इस मनहर मधु नगरी पर;
अतिशय प्यारी मधुर प्रीतिमय, मेरी पावन शिव काशी।

संस्कृति-दर्शन-कला-ज्ञान, विज्ञान -गणित -साहित्य शशी;
आचार्यों का यह जमघट है, विज्ञ बाहरी प्रत्याशी;
बड़े-बड़े विद्वान धुरंधर, दिव्य देवगण रहते हैं;
परम अलौकिक धर्मपरायण, मेरी पावन शिव काशी।

बोझिल मन को शांति तभी जब, बनता है काशी वासी;
काशी सच में सदा सत्यमय, यहॉं नहीं कुछ भी आभासी;
रोग निवारक सहज सच्चिदा, आनंदक हर हर रज कण;
विघ्नहरण संकटमोचन है, मेरी पावन शिव काशी।

जो विपत्ति से घिर जाता है,आता सेवन को काशी;
बड़े-बड़े पापों से होता, मुक्त यहाँ का हर वासी;
प्रज्वल मन अरु निर्मल काया, का होता जो आतुर है;
उसे सहज अपना लेती है,मेरी पावन शिव काशी।

_______________________________________

मेरी पावन शिव काशी

मेरी पावन शिव काशी का, हर वासी है संन्यासी;
कण-कण में इसके रहते हैं, अति मनमोहक अविनाशी;
परम मनोहर भोले बाबा, घूमा करते नगरी में;
दिव्य भावमय निर्मल धारा, रोज बहाती शिव काशी।

सकल लोक ब्रह्माण्ड अखिल से, बनी हुई है प्रिय काशी;
प्रीति नाद करते हैं हरदम, बम बम बम बम हर वासी;
सबके दिल में सरस मनोहर, अति निर्मल भावुकता है;
विश्वनाथ का स्वागत करती, मेरी पावन शिव काशी।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

नूतन लाल साहू

एकता का संदेश

अपनी धरा अपना गगण
अपनी हवां अपना चमन
पर दरवाजों से ना दीवालो से
घर बनता है घर वालों से
आपस में ना हो भाईचारा तो
घर भीतर ही भीतर रोता है
सबकी मधुर कल्पनाएं
धरा का धरा रह जाता है
आपस में हो एकता तो
घर बचा रहेगा, बवालो से
सच कहता हूं प्यारे
घर हंसता है बाल गुपालो से
दरवाजों से ना दीवालो से
घर बनता है घर वालों से
अगर प्रेम का ईंट और गारा हो
हर नींव में भाई चारा हो तो
कल जो नईं भोर होगी
खुशी से सराबोर होगी
घर की एकता को देखकर
दुनिया कहेंगी,मुबारक मुबारक
एकता में ही वो शक्ति है
ना मन में उदासी होगी और
ना ही कमी होगी,धन की
उमंगों से भरी होगी,सबका मन
दरवाजों से ना दीवालो से
घर बनता है घर वालों से
एकता से ही,नफरत थमेंगी
सफलता की यही है कहानी
बस इंसान,इंसान का मित्र हो
रिश्ता दिलों का सुपवित्र हो
दरवाजों से ना दीवालो से
घर बनता है घर वालों से

नूतन लाल साहू

सुधीर श्रीवास्तव

हाइकु 35
*****
शिक्षा
●●●●
आज की शिक्षा
औपचारिक बनी
संस्कार नहीं।
*****
आधुनिकता
हावी होती जा रही 
ये कैसी शिक्षा।
*****
संस्कार बिन
व्यर्थ हो रही शिक्षा
खतरनाक।
*****
शिक्षा समृद्धि
 तभी बात बनेगी
जरूरत है।
*****
रोजगार भी
जब दे सके शिक्षा
तभी औचित्य।
*****
शिक्षा संयम
संस्कार, रोजगार
तब सफल।
*****
नैतिक शिक्षा
आज की जरूरत
सबको मिले।
*****
ये कैसी शिक्षा
कभी काम न आये
बेमतलब ।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
      8115285921
©मौलिक, स्वरचित

डॉ० रामबली मिश्र

माँ प्रदत्त हिंदी अति प्यारी
                 (चौपाई)

हिंदी अत्युत्तम भाषा है।
जननी की यह अभिलाषा है।।
बहुत लोचपूर्ण मर्यादित।
सकल विश्व पर यह आच्छादित।।

बहुत मधुर यह रम्य सुरीली।
कान्हा की यह प्रीति छवीली।।
सीता माता का उर-आँगन।
परम विनीत पुनीत सुहावन।।

रामचन्द्र की यह बोली है।
मधु भाषाओं की टोली है।।
अमृत वचन छिपे इसमें हैं।
महनीयों के हृदय रमे हैं।।

देवलोक की यह भाषा है।
जननी की प्रिय परिभाषा है।।
भाग्यवती सम्मोहक शीला।
सभी रसों से पूर्ण सुशीला।।

छंदवद्ध निर्बन्ध रसायन।
सदा अलंकृत  शिव रूपायन।।
हिंदी नाम सुलोचन शुभदा।
सहज भावमय स्नेह संपदा।।

वीर-करुण रस की अभिलाषी।
शांत रसिक पावन आकाशी।।
जय हो जय हो जय हो हिंदी।
सकल विश्व-मस्तक की बिंदी।।

अमर अनंत शिरोमणि श्रीधर।
हिंदी सहज काव्य मधु कविवर।।
हिंदी मेँ कर जीवन यापन।
हिंदी से पाओ उच्चासन।।

हिंदी करती शंखनाद है।
हिंदी में ही हंसनाद है।।
हिंदी भाषा सिंहनाद है।
इस भाषा में विश्वनाद है।।

______________________

नमो नमो हे माँ सरस्वती
              (चौपाई)

सरस्वती माँ प्रिय नमनीया ।
अति मृदु भाषी शुभ महनीया।।
मधुर भावमय महादेवमय।
ज्ञान महान सुजान सत्यमय।।

सात्विक तेजपुंज विद्याधर ।
सदा सुहागिनि मधु शोभाघर।।
ज्ञानवती युवती प्रिय नारी।
ब्रह्माण्डीय व्यवस्था प्यारी।।

विदुषी परम अनंत ज्ञानश्री।
दिव्य विलक्षण प्रेम मातृश्री।।
सर्व व्यापिनी  महा व्योममय।
अति कल्याणी योगक्षेममय ।।

माताश्री को नमस्कार कर।
मातृ शक्ति से सहज प्यार कर।।
हंसवाहिनी सत्य विवेकी।
करती सब भक्तों पर नेकी।।

माँ श्री को उर में धारण कर।
जपो नाम को उच्चारण कर।।
विनयशीलता का वर माँगो।
पठनशीलता में नित जागो।।

________________________

 बहो प्रेम तुम सज्जन बनकर
                 (चौपाई)

दिखो अनवरत पावन रुचिकर।
बहो प्रेम तुम सुंदर बनकर।।
बैठ हृदय में नीति बनाओ।
सब के मन में प्रीति जगाओ।।

सब का मन शीतल करते रह।
स्नेहसलिल बनकर तुम नित बह।।
करो तपस्या बनो तपस्वी।
रक्षारत हो बनो यशवी।।

करो हृदय पर राज सर्वदा।
बनो विश्व की सकल संपदा।।
मन को मंदिर सहज बनाना।
उस में खुद स्थापित हो जाना।।

चढ़ कर बोलो सकल लोक पर।
थिरको शिव के दिव्य श्लोक पर।।
छू दो जिस को प्रेम बने वह।
पारस पावन पवन सरिस बह।।

रोमांचित कर दो जगती को।
सींच नीर बन कुल धरती को।।
बहो बहाओ सारे जग को।
प्रेम! धरा पर रख अपना पग।।

_________________________

 धर्म मनुज का नाम हो
                 (दोहे)

धर्म स्वयं ही मनुज बन, करे विश्व में काम।
दिखलाये शिव पंथ को, दे सब को विश्राम।।

धर्म ध्वजा फहरे सतत, हो सब का कल्याण।।
धर्म वायु में नित बसे, हर मानव का प्राण।।

धर्म पंथ केवल दिखे, चलें पथिक कर जोड़।
रहे हृदय में धर्म बस, लगे राह बेजोड़।।

धर्म पाठ होता रहे,सब में हो मृदु भाव।
धर्म युधिष्ठिर बन चले,डाले सत्य प्रभाव।।

धर्म वायु बनकर बहे, महके धर्म -सुगंध।
धर्म पवन की दमक से, मिटे सकल दुर्गन्ध।।

सदा आत्म की नींव पर, खड़ा रहे इंसान ।
काया साधन सिर्फ है, साध्य इसे मत जान।।

सकल विश्व में धर्म का, केवल करो प्रचार।
  पावन स्वच्छ विचार से, रच स्वर्गिक संसार।।

______________________________

 सुंदर संबोधन बन जाओ
                 (सजल)

भाव समंदर घन बन जाओ।
सुंदर संबोधन बन जाओ।।

सदा मित्र को ईश्वर जानो।
प्रेम गंग में नित्य नहाओ।।

सब को बड़ा समझ कर चलना।
मन को सहज मनाते जाओ।।

अच्छे उपदेशों को सुनना।
गुनते चल कर शीश नवाओ।।

पहचानो अग्रज की भाषा।
हृदयंगम कर बढ़ते जाओ।।

माया-मोहमुक्त बन जीना।
धर्म बीज मन में उपजाओ।।

धर्म युद्ध के लिये सजग रह।
अति मोहक अर्जुन बन जाओ।।

विजय पताका लिये हाथ में।
पाण्डव संस्कृति को अपनाओ।।

कभी उलझनों में मत फँसना।
हर उलझन को नित सुलझाओ।।

दीक्षित हो कर सदा कृष्ण से।
प्रभु का संबोधन बन जाओ।।

बनो यशस्वी इस धरती पर।
शुभभागी बन कर दिख जाओ।।

__________________________

 खुला प्रेम-पत्र   (चौपाई)

यह साधारण पत्र नहीं है।
दिव्य लोक का वस्त्र यही है।।
परम ब्रह्म का यह प्रसाद है।
इस का मीठा मधुर स्वाद है।।

घूम रहा सर्वत्र यही है।
अति प्रिय पावन अस्त्र यही है।।
प्रेम ध्वजा बन  यह लहराता ।
सब को अपने पास बुलाता।।

सकल लोक का यह सुवास है।
गमक रहा यह सहज वास है।।
निर्विकार साकार आत्ममय।
विष-विकार से मुक्त अमीमय।।

इस को ले कर गले लगाओ।
अपना भाग्य स्वयं अजमाओ।।
इसको मत सामान्य समझना।
अपने दिल में लिये थिरकना।।

खुला मंच यह प्रेम पत्र है।
मानव प्रेमी महा शस्त्र है।।
है मज़बून बहुत अलबेला।
अति मनमोहक भाव सहेला।।

सखा मित्र प्रेमी सा जानो।
इस को अपना सब कुछ मानो।।
आत्मशक्ति से बना हुआ है।
प्रेमशक्ति में सना हुआ है।।

यही पीरपैगंबर  सा है।
प्रीति रीति के अंबर सा है।।
घूम रहा है दिग्दिगन्त तक।
सभी चराचर साधु-सन्त तक।।

पढ़कर इसको जो समझेगा।
सकल लोक का मित्र बनेगा।।
प्रेम -पत्र मानव को रचता।
मानवता में सहज विचरता।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*गीतिका*(आँखें)
देखें सदा सुंदर मंज़र,ये आँखें,
नहीं देख पातीं भयंकर,ये आँखें।।

विमल व्योम में बिखरी आभा से मंडित,
प्यारा सा देखें सुधाकर,ये आँखें।।

पर्वत से झर-झर उतरते जो झरने,
निहारें बना उन्हें दिलवर,ये आँखें।।

गोरी को देखें बिना रोके-टोके,
सदा दिव्य देवी बनाकर,ये आँखें।।

दीवानगी इनकी समझ में न आती,
 उठातीं कभी तो गिराकर, ये आँखें।।

धोती सदा दागे-नफ़रत को रहतीं,
सहज प्रेम-आँसू बहाकर, ये आँखें।।
           ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                9919446372

मधु शंखधर स्वतंत्र

*मधु के मधुमय मुक्तक*
🌹🌹 *संस्कार*🌹🌹
-------------------------------------
◆ यही कहे संस्कार सब , होता कर्म कृतार्थ।
सत्य सनातन धर्म में, षोडस  हैं धर्मार्थ।
सदा सहेजे नीति को, नैतिक रहे विधान।
धर्म कर्म के ज्ञान को, माने जीवन पार्थ।।

◆ जीवों पर होती दया, संस्कारी के द्वार।
लालच ईर्ष्या द्वेष से , क्षति होती है प्यार।
पाना चाहे गर मनुज, नैतिक जीवन मूल।
धरे सतत् जब धैर्य को ,  प्राप्ति जगत आधार।।

◆ यह संस्कार मिला जिसे , वह पाता सम्मान।
सदा बड़ों को मान दे, नैसर्गिक हो ज्ञान।
अडिग रहे विश्वास से, उच्च विचारों साथ,
कर्म बने पहचान जब, मानव वही महान।।

◆ नव पीढ़ी जाने नहीं, यह अपना संस्कार।
देती महता स्वयं को, निज का ही विस्तार।
प्राप्ति बनाएँ लक्ष्य है, दया दान को भूल,
शिक्षा ऐसी हो अभी, सीखें मधु उपकार।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर

योग-----

योग से निरोग
योग से शक्ति भोग
योग मार्ग बैराग्य मोक्ष
योग अनुशासन आसान
योग कर्म धर्म मर्म।।
योग संयम जीवन संकल्प
योग काया निरोग 
योग आत्म बल
योग अन्तर्मन बैभव
योग नित्य निरंतर 
योग व्यधि का वध
कोरोना उन्नीस संक्रमण
योग योग्य साथ हथियार
योग से स्वस्थ प्रसन्न मन
ना बीमारी ना बीमार।।
योग आहार प्रत्याहार
आचार विचार व्यवहार
अक्षुण अक्षय जीवन प्रवाह।।
कोविड उन्नीस में महत्वपूर्ण
संक्रमण से लड़ने का सत्य सनातन
सार्थक प्रहार योग से बढ़ती शक्ति रोग विषाणु जाते हार।।
कोरोना उन्नीस का काल
योग प्रभाव से रोगों से लड़ने
बढ़ती शक्ति कोरोना आता नही
पास।।
योग कोरोना उन्नीस का
उपचार नही मूल समाधान
ज्यादा नही तो कम से कम
मिनट बीस तीस ही प्रतिदिन
पर्याप्त योग से जीवन मे
कहावत आम के आम गुठलीयो
के दाम चरितार्थ जीवन यौवन दामन की क्षमता शक्ति अपरम्पार।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

संजय जैन "बीना

*दिलको कहना है*
विधा : कविता

मोहब्बत भी क्या बला होती है। 
जब किसी से होती है तो 
दिल का चैंन छीन लेती है। 
और आँखों ओठो से पिलाती है।। 

दिलमें एक कंपन होती है
जो सारी रात जगाती है। 
न खुद सोती है और न सोने देती। 
और अपनी सांसो को 
मेरे दिलसे मिलती है। 
और लेकर अपनी बाहो में 
जन्नत की सेर कराती हो।।

गुलाब के फूल की तरह हो तुम। 
कमल की तरह खिलती हो तुम। 
पास रहते हो तो महकते हो। 
हंसती हो तो कयामत लाती हो। 
मोहब्बत की ज्योत जलाती हो।। 

अब आँखों की जगह 
कुछ जुवा से बोलो 
हाल ए दिल का राज 
अब तो खोलो तुम।। 

दिल ही तो लिखवा रहा है। 
हाल ए दिलका बता रहा है। 
अब तो तुमको ही कहना है। 
और बात दिलसे कहना है।। 

दिलकी बातो पर कुछ तो 
तुम अपना इजहार करो। 
अंदर यदि तुम्हारे प्यार है तो
कहने का साहस करो।।

कितना प्यार किया मैंने तुमसे 
तब से लेकर आज तक। 
पर क्या ये इतिहास के 
पन्नो में ही जीवित रहेंगी..।। 

जय जिनेंद्र देव  
 संजय जैन "बीना" मुंबई

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...