सुषमा दिक्षित शुक्ला

वह मेरी आँखों  के तारे।
 जो  मेरे दो लाल दुलारे ।
वह गुरूर हैं अपनी मां के।
 पापा के  वह राज दुलारे ।
एक अगर है सूरज जैसा।
 दूजा भी तो चंदा जैसा ।
इतना प्यार मुझे वह करते ।
नील गगन में जितने तारे ।
वह मेरी आँखों के तारे  ।
जो मेरे दो लाल दुलारे ।
 रामलला सा इक का मुखड़ा।
 सिर पर है  गेसू  घुंघराले ।
एक परी है आसमान की ।
जिसके नयना काले काले ।
 बिन देखे मैं चैन न पाऊं ।
जरा दूर  हों राज दुलारे ।
वह मेरी आँखों  के तारे ।
जो मेरे दो लाल दुलारे।
 है गुलाब सा इक मतवाला ।
दूजा मानो कमल निराला।
 मेरे घर की बगिया में है ।
स्वयं प्रभू ने  डेरा डाला ।
कृष्ण सुभद्रा की सी जोड़ी ।
 उनके मुखड़े प्यारे-प्यारे ।
वह मेरी आँखों  के तारे ।
जो मेरे दो लाल दुलारे ।
 माँ हूँ ख्याल  रखूँ मैं उनका ।
वह भी बन जाते हैं रखवारे ।
प्रभु की करूणा उनपर बरसे ।
सदा दुआ यह निकले दिल से ।
उनकी नजर उतारूं हर दिन।
 मुझको लगते इतने प्यारे ।
 वह  मेरी आँखों के तारे   ।
जो  मेरे  दो  लाल  दुलारे ।

सुषमा दिक्षित शुक्ला

नंदिनी लहेजा

विषय-बचपन

जीवन सफर का प्रथम  चरण  है बचपन
   पवित्रता व् सादगी  का दर्पण  है बचपन
अल्हड़ता  और चंचलता  से भरा हुआ
    ईश्वर  का एक रूप होता है बचपन
पीछे मुड़  जब बचपन को हम निहारते अपने
    लगता क्यों जल्दी से छूटा अपना बचपन
      अनगिनत  यादों को समेटे हुए,
आज फिर याद आ  रहा अपना  बचपन
     घंटो खेलते रहना सखियों  संग अपने
वो लंगडी  वो फुगड़ी वो लुकाछुपाई
    वो माँ का बुलाना ,कहना अब तो कर लो पढ़ाई
पापा के पहले घर पहुँच जाना अपने
  डर  मन में रहना की कही हो न पिटाई
वो दादी से नित नई कहानी सुन कर सोना
   नये खिलोनो के लिए जिद करना और रोना
     उन प्यारी यादों में खोकर,आज फिर जी उठा
इन अखियों  में बचपन

नंदिनी  लहेजा
रायपुर (छत्तीसगढ )
स्वरचित मौलिक

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम

रानी लक्ष्मीबाई

जलहरण घनाक्षरी 

मणिकर्णिका था नाम,मोरोपंत की संतान,
असीम शौर्य की खान,काशी में जनम लिया।
घुड़सवारी का शौक,रखती पुरुष वेश,
कटार चलायी खूब, निपुण स्वयं को किया।

कानपुर के नाना की,थी मुँहबोली बहन,
राजा गंगाधर से था, विवाह उसने किया।
 विवाह हुआ फिर भी,मनमौजी वह रही,
रानी बनने के बाद,झाँसी रक्षा प्रण लिया।

जब हुआ पुत्र शोक ,झाँसी अथाह दुःख छाया,
गंगाधर को भी फिर,मृत्यु ने जकड़ लिया।
रानी हुई असहाय, विकट समय आया,
रानी ने हिम्मत कर,राजकाज हाथ लिया।

सुन के रानी की गूंज, फिरंगी थे घबराए,
झाँसी की हड़प नीति ,सपना कठिन किया।
पराक्रमी रानी तब,वीरांगना बन गयी,
टूट पड़ी बन ज्वाला,दुष्टों का संहार किया।

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम
तिलसहरी, कानपुर नगर
9935117487

सुधीर श्रीवास्तव

आँसू
*****
आँसुओं की भी
अजब कहानी है,
कहने को तो पानी है
पर गम और खुशी
दोनों ही इसकी कहानी है।
आँसू दु:खों का बोझ
कम कर देते हैं
खुशी में भी आँसू
निकल ही आते हैं।
कभी तो ये अनायास ही
बहने लगते है,
आपके अपने मन के भाव
दुनियां को बता देते हैं।
आँसुओं को पीना भी
बड़ा कठिन होता है,
आँसुओं को बहनें से रोकना 
सबसे मुश्किल होता है।
आंसुओं की कोई जाति ,धर्म
ईमान नहीं है
अमीर गरीब की उसे
पहचान नहीं है।
सबके आँसुओं का
बस एक रंग है,
किसी भी आँख से बहे आँसू
पर रंग देख लो
कभी बदरंग नहीं है।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
     गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

एस के कपूर श्री हंस

। कोई एक बेमिसाल कहानी*
*होनी चाहिये जीवन में।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
छूने को      ऊपर       ऊँचा
आसमान       है।
जीवन संघर्ष  का   अनुभव
महान           है।।
कोई एक हार नहीं  है  अंत
जीवन          का।
आगे भी कर्म है, पहचान है,
सम्मान         है।।
2
आचार,  विचार,    सदाचार,
जरूरी है जीवन में।
संस्कार,    व्यवहार,   सुधार,
जरूरी है जीवन में।।
हार कर    बिखर   जाना  तो
अच्छी बात नहीं है।
हर हाल लेकर आना निखार  
जरूरी है जीवन में।।
3
सोच और रास्ता अच्छा होना
चाहिये जीवन में।
किताबेंओ दोस्त  सच्चा होना
चाहिये जीवन में।।
ग़लत राहऔर सोच से बिखर
जाती  है  जिन्दगी।
एक बात दिल में  बच्चा  होना
चाहिये जीवन में।।
4
काम के लिए    दीवानगी होनी
चाहिये जीवन में।
रुकी रुकी  नहीं  रवानगी होनी
चाहिये जीवन में।।
तेरी जिन्दगी की    बानगी   की
मिसालें  दें   लोग।
कोई इक़ बेमिसाल कहानी होनी
चाहिये जीवन में।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।।    9897071046
                    8218685464
 ।एस के कपूर "श्री हंस", 06,*
*पुष्कर एनक्लेव, स्टेडियम रोड,*
*बरेली,243005(ऊ प)*
*।।कविता शीर्षक।।।जीवन अर्थ मर्म का विनाश है अहंकार।।*
*।।विविध मुक्तक ।।*
1,,,,
*मनुष्य में  ईश्वर का वास होता है।।*

जिस दिन इंसान  को इंसान में
इंसान  नज़र               आयेगा।
दूसरे  के  मान   में   ही  अपना
सम्मान नज़र              आयेगा।।
जब त्याग देगा अहंकार कि सब 
हैं एक ईश्वर              की संतानें।
आदमी   को आदमी  में  ही तब
भगवान              नज़र आयेगा।।
2,,,,,,,
 *जो याद रहे वह कहानी बनो।।*

बस   अपना  ही   अपना  नहीं
किसी और पर मेहरबानी बनो।
चले जो   साथ हर    किसी  के 
तुम ऐसी  कोई   रवानी   बनो।।
जीवन अहंकार का नहीं है कुछ
नया  कर  दिखाने    का   नाम।
कोई भूल बिसरा   किस्सा  नहीं
जो याद रहे  वो  कहानी   बनो।।
3,,,,,,,,
 *जीवन की आखिरी शाम।।*

न जाने     कब    जीवन   की
आखरी शाम          आ  जाये।
वह  अंतिम    दिन     बुलावा
जाने का पैगाम आ       जाये।।
सबसे  बना  कर    रखें    हम
छोड़   कर   अहंकार      को।
जाने  किसी   की दुआ    कब
जिंदगी के काम आ       जाये।।
4,,,,,,,,,,
 *बस प्रेम का नाम मिले तुमको।।*

जिस  गली से  भी  गुज़रो बस
 मुस्कराता  सलाम हो  तुमको।
अहंकार को  तुम  छोड़  सको
बस  यही  पैगाम  हो   तुमको।।
दुआयों का लेन देन हो तुम्हारा
बस  दिल  की   गहराइयों  से।
प्रभु से करो   ये   गुज़ारिश कि
बस  यही  काम   हो    तुमको।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री*
*हंस"।।बरेली।।*
मोब  9897071046।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-3
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
बछरू मिले न ग्वालहिं पावा।
किसुनहिं मन बिचार अस आवा।।
   अवसि खेल अस ब्रह्मा कीन्हा।
    बछरू-गोप छिपाई लीन्हा।।
सकल ग्यान अरु सक्ति-स्वरूपा।
तेज-प्रतापय-अमित-अनूपा।।
   प्रभु रह इहाँ-उहाँ सभ जगहीं।
   नहिं कछु अलख,लखहिं प्रभु सबहीं।।
ब्रह्मा-मोह मिटावन हेतू।
कीन्हा माया कृपा-निकेतू।।
     जितने बछरू,जितने गोपा।
     वहि सुभाव रँग-रूप अनूपा।।
बात-चीत अरु हँसी-ठिठोली।
जैसहिं चलैं-फिरैं निज टोली।।
     नाम-गुनहिं अरु भूषन-बसना।
     जैसहिं बोलैं निज-निज रसना।।
खावन-पिवन, उठन अरु बैठन।
छड़ी-बाँसुरी,सिंगी-छींकन।।
   हाथ-पाँव अरु छोट सरीरा।
   प्रगटै किसुन भए बनबीरा।
मूर्तिमती भइ बेद क बानी।
बिष्नुमयी ई जगत-कहानी।।
     बछरू-बालक भइ भगवाना।
     बछरू गोपहिं माँ सुख पाना।।
ग्वालहिं बाल होइ बहु बछरू।
खेलत-कूदत लेइ क सगरू।।
           डॉ0हरि नाथ मिश्र
            9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

तलाश  (सजल)

मौन में जवाब की तलाश कीजिये।
फालतू हर बात को हताश कीजिये।।

मौन को परमाणु जान मौन को स्वीकार कर।
बकवास को शैतान जान नाश कीजिये।।

बात को बढ़ा-चढ़ाकर बोलते हैं जो।
क्लिष्ट इन नामर्द को निराश कीजिये।।

झूठ-मूठ की किताब गढ़ रहे हैं जो।
ऐसे कलमकार का विनाश कीजिये।।

शब्दजाल रच रहेजो भ्रम प्रचार में।
इन कुटिल-कुचक्र का उपहास कीजिये।।

मूर्खता की बात करते बन रहे सुजान वे।
ऐसे अहंकार का परिहास कीजिए ।।

सत्यता की राह जिन्हें लग रही गलत।
इन पर कुठाराघात का अभ्यास कीजिये।।

इंसान को जो अर्थ के पलड़े पर तौलता।
ऐसे घृणित शैतान का आभास कीजिये।।

तलाश हो इंसानियत के बाजुओं की अब।
इंसान में इंसान का विकास कीजिये।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

नूतन लाल साहू

बादल और बारिश

उठता है तूफान जब सागर में
और हिल उठे जिससे समुंदर
हिल उठे दिशी और अंबर
करता है मानों इशारे
उच्चतम नभ के सितारे
छा जावेगी आकाश में बादल
और होने वाली है बारिश
बरसात की आती हवा
जब खेलती है
आकाश से पाताल से
अति क्रुद्ध मेघों की कड़क
अति क्षुब्ध विद्युत की तड़क
करता है मानों इशारे
होने वाली है घनघोर बारिश
काले घनो के बीच में
काले क्षणों के बीच में
भू के हृदय की हलचली
नभ के हृदय की खलबली
ले सप्त रागों में चली
करता है मानों इशारे
छा जावेगी आकाश में बादल
और होने वाली है बारिश
बनता है सागर में जब
कम दबाव का क्षेत्र
करता है मानों इशारे
मौसम चाहें जो भी हो
गर्मी का ढंड का या बारिश का
छा जावेगी आकाश में बादल
और होने वाली है बारिश

नूतन लाल साहू

मधु शंखधर स्वतंत्र

मधुशाला

मधुशाला विक्षिप्त कर , करता बुद्धि  विकार।
हानि करे सर्वस्व यह , जो आ जाए द्वार।
आदत इसकी है बुरी , जिसको लगती जान,
वह  पीने मधुरस सदा , आए बारम्बार।।

मधुशाला जो भी गया,  भूले वह सब फर्ज।
तन धन सारी क्षति करे, डूबे गहरे कर्ज।
लक्ष्मी रूठे व्यक्ति से, हो जब मदिरा पान,
सुख वैभव अरु स्वस्थता, भागे आए मर्ज।।

मधुशाला के द्वार को, नरक जान लोे आप।
काया की यह हानि कर,  उन्हें दिलाए शाप।
घूँट- घूँट पीते रहे, यही औषधि रूप।
जब यह पीता है मनुज , खोए सब परिमाप।।

मधुशाला हरिवंश की , रचना एक महान।
भावों की अभिव्यक्ति में, वही दिलाए ध्यान।
पीने वाले को लगे, यही अलौकिक रूप,
और पिलाकर वह सदा , मधु बनता अनजान।।
*मधु शंखधर 'स्वतंत्र'*
*प्रयागराज*

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.
                    अराधना
                🙏 पिता 🙏
                        ~~
घर परिवार अपनत्व की,आन-बान-शान है पिता।
हिम से ऊंचा,जीवनरूपी रथ का पहिया,है पिता।।
क्षमा करआगे बढ़ने का हर अवसर देता है पिता।
इच्छा रूपी स्वाद को,चखने का जरिया है पिता।।

भाईचारा,प्यार की एक सच्चीपाठशाला है पिता।
बचपन रुपी खेलों की सुगम कार्यशाला है पिता।।
कितना भी हो,घोर अंधेरा दीपक सी लो है पिता।
नजर-टोटकों-करतूतों, की औषध डोरी है पिता।।

थका- हारा भी, कमजोरी नहीं दिखाता है पिता।
धन्य हो जाते है हम ,जब खुशी लुटाता है पिता।।
कुछ नहीं खाया, कहकर खुद खिलाता है पिता।
सचमानें तो ईश्वर का दूसरा ही अवतार है पिता।।

कितनीही डगर कठिन हो,सुलभ रास्ता है पिता।
जीवनकी नैया मेंअसली तश्वीर सजाता है पिता।।
कितनी भी हो सर्दी,गर्मी,रक्षाका कवच है पिता।
कर्मपथ के भूमण्डल में कुदरत का रुप है पिता।।

भला कर भला होगा, संस्कार सिखाता है पिता।
हो कितनी भी मजबूरी,मान की चौखट है पिता।।
मुसीबत से छुटकारा, खुशी की सौगात है पिता।
इस तपस्या का सही में, सच्चा हकदार हैं पिता।।

   ©®
      रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दोहे
दिनकर-लाली भोर लख,व्यग्र चित्त हो शांत।
अद्भुत महिमा भोर की,करे मुदित हिय क्लांत।।

साँझ-सवेरे,रात-दिन,नित श्रम करे किसान।
क्षुधा-तृप्ति सबकी करे, है जो कर्म महान।।

हों हर्षित पत्ते सभी,जब होती बरसात।
अवनि पहन धानी चुनर,दिखती है बलखात।

जहाँ एकता-प्रेम है,और अतिथि-सत्कार।
सुख-निवास बस है वही,घर-आँगन-परिवार।।

जलता नहीं अलाव अब,नहीं लगे चौपाल।
बदल गए हैं गाँव सब,सबकी उल्टी चाल।।
            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

मिसिर की कुण्डलिया

मानव बनने की ललक, जिसमें है भरपूर।
वह दुष्कृत्यों से सदा ,रहता है अति दूर।।
रहता है अति दूर, सदा अपना मुँह फेरत।
सत्कर्मों के संग,स्वयं की नैया खेवत।।
कहें मिसिर कविराय, घृणा से देखत दानव।
चाहत केवल एक, बने वह सुंदर मानव।।

नोचो उसके पंख को, जो करता व्यभिचार।।
कदाचार के शब्द को,कहता शिष्टाचार।।
कहता शिष्टाचार,बुद्धि का वह मारा है।
अतिशय भोगी दृष्टि,पतित कामी न्यारा है।।
कहें मिसिर कविराय, जरा नीचों पर सोचो।
तोड़ो उसके दाँत,बाल -पंखे सब नोचो।। 

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

रामकेश एम यादव

मैं सोच रहा हूँ कब से! ( नज़्म )

ये सागर की हलचल है,
या तेरे बदन को छूकर निकली हवा।
ये जमीं पे सितारे हैं,
या तेरे लिबास की चमक।
ये तेरे गेसुओं की साया है,
या मंजिल से भटका,
कोई आवारा बादल।
ये रातरानी से आ रही गमक है,
या ये तेरे बदन की खुशबू।
ये बिजली की चमक है,
या तेरे माथे की बिंदिया।
मैं कब से सोच रहा हूँ बैठे-बैठे,
पर यहाँ तो कोई नहीं है,
तब भी तू एहसास करा रही है,
कि तू यही है, तू यहीं कहीं है।

ऐ! मेरे हमदम, ऐ! मेरे चितचोर,
ये कुंवारा दिल तेरे साथ है।
मुझे भी तो तेरी प्यास है।
जन्मों-जन्मों की मेरी प्यास बुझा दे।
अपने रंगों से मुझे रंग दे।
मैं किसी और की मोहताज़ न रहूँ।

ऐ! मेरी धड़कन, मुझे ये बता कि 
ये पक्षियों का कलरव है,
या तेरे पायल की रुनझुन।
ये सावन की रुत है,
या तेरी चढ़ती जवानी।
ये कोई मदिरा से भरी बोतल है,
या तेरी आँखों से छलकता जाम।
ये प्रणय के घनेरे बादल हैं,
या तेरी अदाओं की फुहार।
ये गगन की मंद -मंद मुस्कान है,
या तेरे सुरीले सुर्ख होंठों पे
सोता मेरा दिल।
तू कोई कल्पना नहीं!
तू हक़ीक़त हो, हक़ीक़त हो, हक़ीक़त हो।
दुनिया की इस रस्मी
दीवार को आज गिरा दो,
और इन दो बेताब दिलों को 
अब मिला दो।

ऐ! मेरे हमराही!
छोड़ दो अपनी फिक्र, मै तेरे साथ हूँ।
मेरी साँसें तेरी साँसों अब घुलने लगी हैं।
तेरे ख्वाबों में निशिदिन ये जगने लगी हैं।
ये मयकशी बदन तेरा है,
ये सारा जलवा तेरा है।
शीशे जैसी चमकती ये जवानी तेरी है।
मेरी जीवन-बगिया अब तेरी है।
हम दो जिस्म एक जां हो रहे हैं।
मुझे भी तुमसे मोहब्बत है, 
मोहब्बत है। मोहब्बत है।

ऐ! मेरी दिलरुबा!
मालिक, सौ बार बनाकर तुम्हें ,
सौ बार मिटाया होगा।
तब जाकर तुम्हें इतना
हसीन बनाया होगा।
तू अपना नाजुक हाथ
मेरे हाथों में थमा दे।
नहीं तो किसी दीवार में चुनवा दे।
तोड़ दे मेरे मन अब ये भ्रम कि -
ये कलियों की पंखुड़ियाँ हैं,
या तेरे अधखिले अंग।
आसमान से ये उतरे सितारे हैं,
या तेरे बदन की आभा।
ये लहरों की रवानी है,
या तेरे क़दमों की आहट।
ये बहता कोई झरना है,
या तेरे सांसों की सरगम।
ये कोयल की कुहुक है,
या तूने चुपके से कुछ कहा है।
ये कोई खिला कंवल है,
या तेरे लबों की हँसी।
ये मचल रही हैं हवाएँ,
या तेरे बदन की अंगड़ाई।
ये महुवे से टपकता रस है,
या तेरे यौवन की महक।
मैं सोच रहा हूँ कब से,
तू यहीं जुहू बीच पे हो,
इसी साहिल पे हो।
मेरी डूबती कश्ती बचा लो,
मेरा बुझता चराग़ जला दो,
ऐ! नाज़नीन, ऐ! गुलबदन,
इस नांदा दिल पर तरस खाओ,
बिना देर किए इस दिल के
घरौंदे में बस जाओ।
क्योंकि मुझे तुमसे मोहब्बत है,
मोहब्बत है, मोहब्बत है।।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

निशा अतुल्य

दोहे
कंगन,काजल,गजरा,बिंदी 
19.6.2021

हाथों में कंगन सजा,चली रूपसी नार 
नैनो में है मस्तियाँ,यौवन का है भार।

काजल रूप सजा लिया,तीखे नैन कटार 
काला तिल मुख पर सजा,संग रहे भरतार ।

महका गजरा मोगरा,साथ पिया का प्यार
सधवा वो ही नार है,सजे रूप शृंगार ।

बिंदी चमके चाँद सी,नैनन पी का प्यार
सजधज कर गोरी चली,हुई सुहागन नार।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

संजय जैन बीना

*क्या भूला का याद*
विधि: कविता

हम जिन्हें चाहते है वो 
अक्सर हमसे दूर होते है। 
जिंदगी याद करें उन्हें जब
वो हकीकत में करीब होते है।। 

मोहब्बत कितनी रंगीन है 
अपनी आँखो से  देखिये। 
मोहब्बत कितनी संगीन है 
खुद साथ रहकर के देखिये।। 

 है कोई अपना इस जमाने में 
जिसे अपना कह सके हम। 
और दर्द जो छुपा है दिलमें
उसे किसी से व्यां कर सके।।

दिलका दर्द छुपाये नहीं छुपता है
आज नहीं तो ये कल दिखता है।
इसलिए आजकल मोहब्बत का भी
जमाने के बाजार में दाम लगता है।।

अब तक यही करता आ रहा था 
पर अब उन्होंने साथ छोड़ दिया।
चारो तरफ अंधेरा सा छा गया
जहाँ मैं हूँ वहाँ थोड़ा उजाला है।। 

तरस है जब काली घटाये 
चारो ओर छा जाती है। 
तब अंधेरे में अपनी प्यारी
मेहबूबा चाँद सी दिखती है।।

जब तक चाहत थी उन्हें
तब तक दिल जबा था। 
उम्र के डालाव पर आके
वो न जाने क्यों कतराते है।। 

दिल तो जबा रहता नहीं
आँख कान और जुबान।
सब बेवफा हो जाते है 
और एक दूसरे से भागते है।। 

तब वो और उनकी मोहब्बत
हमें एक नई राह दिखती है।
और बीती हुई यादों को 
बहती नदी की राह दिखती है।। 

जब से इश्क का बुखार चढ़ा है। 
तब से किनारे पर जाने का 
बिल्कुल मन नहीं करता है। 
बस प्यार के सागर में डूबे 
रहने का ही दिल करता है।।

न दिल लगता है 
न मन लगता है।  
बस हर दम तू ही 
तू  हमें दिखता है।।

जय जिनें देव 
संजय जैन "बीना" मुंबई
19/06/2021

अभय सक्सेना एडवोकेट

कोरोना का कहर
******************
अभय सक्सेना एडवोकेट
--------------------------------
चीन से भारत वो आया
वुहान लैब में जन्म पाया।
विदेशी होने का दंभ दिखाया
नाम कोरोना वायरस पाया।

देश विदेश मौत का साया
सभी तरफ था कहर बरपाया।
सबके मन में डर समाया
चारों तरफ सन्नाटा पाया।

नियम कोई समझ ना आया
आखिर वह भी बचना पाया।
 दम उसका घुटने को आया
आक्सीजन लेबल कम था पाया।

तब फिर उसने टेस्ट कराया
जिसमें कोरोना पाज़िटिव पाया।
कई अस्पतालों का चक्कर लगाया
कहीं नहीं बेड खाली पाया।

मौत सामने देख घबराया
घरवालों को नर्वस पाया।
छोड़ दी सबही मोह माया
तब भी अभयदान ना पाया।
*************************
अभय सक्सेना एडवोकेट
48/268,सराय लाठी मोहाल
जनरल गंज, कानपुर नगर।
9838015019,8840184088
saxenaabhayad@gmail.com

सुधीर श्रीवास्तव

परिधान
*******
हमारे व्यक्तित्व
हमारी संस्कृति सभ्यता की
पहचान है परिधान।
आधुनिकता की आड़़ में
उल जूलूल और बदन उघाड़ू
परिधान उजागर कर रहे
हमारी मानसिकता का निशान।
कार्टून बनने और उधारी संस्कृति से
हम क्या सिद्ध कर रहे हैं,
लगता है जैसे हम अपनी ही
हंसी का पात्र बन रहे हैं।
कुछ हमारे बुजुर्ग भी अब 
पाश्चात्य संस्कृति का जैसे
शिकार बन रहे हैं,
अपनी बहन,बेटियों, बहुओं को
जैसे नाटक मंडली का 
पात्र बना रहे हैं
अधनंगे बदन देख
कितना खुश हो रहे हैं।

अरे ! कम से कम 
अपनी परंपरा को तो
संभाल कर रखो,
शालीन परिधान पहनो, पहनाओ
अपनी संस्कृति, सभ्यता को
न नंगा नाच नचाओ।
सिर्फ कहने भर से ही 
सभ्य, सुसंस्कृति नहीं कहलाओगे
कम से कम परिधानों में ही सही
भारतीय संस्कृति, सभ्यता का
आभास तो कराओ।
माना की आपको आजादी है
पर ऐसी आजादी का फायदा
भला क्या है?
जो आपके परिधानों के कारण
आपको, समाज को और राष्ट्र को
बेशर्मी और असभ्यता का
मुफ्त में तमगा दिलाए।

◆ सुधीर श्रीवास्तव
     गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
© मौलिक, स्वरचित

निशा अतुल्य

बलिदान दिवस 
महारानी लक्ष्मी बाई 

नहीं दूँगी मैं 
सिंहनी दहाडी थी
अपनी झांसी ।

लड़ी मर्दानी
बच्चे को बांध पीछे 
अमर हुई ।

धोखे बाज थे
दुश्मन थे अंग्रेज 
गद्दार सारे ।

बनाई सैना
महिला लड़ाका की
नहीं मानी हार ।

दौड़ता अश्व
बिजली तलवार 
चलाती रानी।

निःशब्द रहे
अंगुली दांतो तले
दबा अंग्रेज ।

अंतिम युद्ध
ग्वालियर में लड़ा
अमर हुई ।

नमन तुम्हें
हे वीरांगना रानी
है श्रद्धांजलि ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

सुधीर श्रीवास्तव

पिता:पहले और बाद
******************
हम नादानियों के चलते
पिता के रहते
उनके जज्बात नहीं समझते,
जब तक समझते हैं
तब तक उन्हें खो चुके होते हैं।
उनके रहते हम खुद को
स्वच्छंद पाते हैं,
उनके जाने के बाद
जब जिम्मेदारियों का बोझ
फैसले लेने की दुविधा में
जब उलझकर परेशान होते हैं,
तब पिता बहुत याद आते हैं।
पिता के रहते जो मुश्किलें
आसान सी दिखती हैं
उनके जाने के बाद
वही पहाड़ नजर आते हैं।
पिता को खोने का अहसास
तब समझ में आता है
जब वास्तव में हम
पिता बनकर 
खुद परेशान होकर भी
लाचार नजर आते हैं।
जीते जी उनके जज्बात से
खिलवाड़ करते रहे,
आज जब उनकी जगह 
पर हम आये हैं,
तब पिता की अहमियत का
अहसास करते 
बहुत पछताते हैं।
● सुधीर श्रीवास्तव
    गोण्डा (उ.प्र.)
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

.................. कोरोना और योग......................

भारत की  पौराणिक  परम्पराओं में  एक  है योग।
इससे  सदियों से भारतीय  रहे और रहेंगे निरोग।।

भारतीयों   की  आग्रह  को  मानकर  राष्ट्रसंघ  ने ;
21 जून घोषित  किया दिवस अंतरराष्ट्रीय  योग।।

प्रधानमंत्री  ने  लोहा  मनवाया है , पूरे  विश्व  को ;
इसका महत्व  समझाकर , बनाया इसे महायोग।।

नियमित रूप  से करने से , परिणाम  होते अच्छे ;
रह सकते स्वस्थ , कर प्राकृतिक साधन उपयोग।।

श्वसन प्रक्रिया,फेफड़ोंऔर विभिन्न योगाभ्यास से;
हम बना  सकते हैं  कोरोना  से खुद  को निरोग।।

विश्वगुरु  की  परम्परा  को ,  बढ़ाते  रहिये  आगे ;
"आनंद"अनुभव से अपनायें,जीवन-सिद्धि-योग।।

--------------------देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"

डॉ० रामबली मिश्र

 हरिहरपुरी की कुण्डलिया

रखना खुश हर जीव को, जो कुछ बने सो देहु।
देने के बदले सुनो, कभी न कुछ भी लेहु।।
कभी न कुछ भी लेहु, दान का अर्थ समझना।
दान यज्ञ का मान, जगत में स्थापित करना।।
कहें मिसिर कविराय, हृदय में सबके रहना।
मानव के प्रति सोच, सुखद पावन नित रखना।।

       मिसिर की कुण्डलिया

प्यारा भारतवर्ष है, संस्कृति दिव्य महान।
इसको केवल जानते, जगती के विद्वान।।
जगती के विद्वान, जानते इसकी विद्या।
दिया विश्व को ज्ञान, मात शारदे आद्या।।
कहें मिसिर कविराय, कला-संस्कृति में न्यारा।
सहनशील शुभ इच्छु,जगत में सबसे प्यारा।।


____________________________

 मेरी पावन शिव काशी

काशी वासी भोलेभाले, दिखते जैसे संन्यासी;
सबमें जल्दी रच बस जाते,कभी न होते आभासी;
एक निमिष के लिए नहीं वे , प्रियवर को छोड़ा करते;
इसीलिए तो सदा गमकते,बनकर पावन शिव काशी।

रचनाकार;डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

संजय जैन बीना

*भारत देश महान*
विधा : कविता

मिलोगें तुम अगर देशके लोगों से 
तो उनकी भावनाओं को समझोगे। 
और देशके प्रति उनके भावों को
तुम निश्चित ही समझ पाओगें। 
फिर देशप्रेम की ज्योत जलाओगें
और भारत को महान देश बनाओगें। 
और इस कार्य में हम सभी अपनी
भूमिकाओं को निष्ठा से निभायेंगे।। 

करना है देश के लिए कुछ तो
सबसे पहले खुदको जगाओं। 
और अपना राष्ट्रप्रेम तुम दिखाओं
और देशवासीयों में राष्ट्रप्रेम जगाओ। 
तभी भारत को विश्व में स्थापित 
हमसब मिलकर कर पाएंगे। 
और इसे महान देश पूरे विश्व से 
हम लोग कहलवायेंगे।। 

हमारा भारतदेश भावना प्रधान
कृषि प्रधान कर्म प्रधान हैं और। 
न जाने कितने देवी देवताओं की
भारत जन्मभूमि और कर्मभूमि हैं। 
तभी तो यहाँ के कण कण में 
बसते है भक्त और भगवान। 
जो स्वयं बना देते है भारत को
अपने आप में ही बहुत महान। 
तभी तो पूरा विश्व अब कहता है की
भारत देश महान भारत देश महान।। 

जय हिंद जय भारत 
जय जिनेंद्र देव
संजय जैन "बीना" मुंबई
18/06/2021

सुषमा दीक्षित शुक्ला

लक्ष्मीबाई 

मणिकर्णिका बन लक्ष्मिबाई
पग धरणि पर धर दिया ।

 मानो स्वयं ही दुर्गमा ने ,
जन्म धरती पर लिया ।

सुघड़ता मे लक्ष्मि जैसा,
रूप प्रभु ने था दिया ।

शौर्य ,साहस शक्ति से ,
माँ शक्ति ने सजा दिया ।

 मां भारती की भक्ति हित ,
थे प्राण अर्पण कर दिया ।

 ये वीरता की अमिट गाथा ,
को नया दर्पण दिया ।

 नारी शक्ति अटल योद्धा ,
 की अमर मिसाल वह ।

 क्रांति देवी रूप में थीं ,
 शत्रुओं का काल वह ।

 निर्बल नहीं नारी कभी ,
 संदेश दुनिया को दिया ।

गौरव बढ़ाकर देश का ,
यह विश्व में साबित किया ।

सुषमा दीक्षित शुक्ला

निशा अतुल्य

मत काटो वृक्ष

नहीं बचेगा धरा पर कुछ भी
अगर वृक्ष काटोगे तुम ही
सांसे होंगी दुर्लभ सबकी
चिमनी विष उगलेगी ही ।

हरित धरा सब शोषित करती
मानव विष जो हर पल भरती ।
सोच विचार कर कदम उठाओ
चलो मानव अब वृक्ष लगाओ।

प्राणवायु तब ही शुद्ध होगी
हरी भरी धरा को रखो 
स्वास्थ्य सभी का इस पर निर्भर
विचार नहीं अब कदम बढ़ाओ।

जल वाष्प बन उड़ जाता 
कारे बदरा बन छा जाता
झूम झूम कर वृक्ष ये प्यारे
वर्षा को सदा रहे बुलाते ।

नन्ही नन्ही बूंदे बरखा की
तपन धरा की सदा बुझाती
एक दूजे के पूरक है सब
धरा,वृक्ष,वायु,जल सारे ।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"

डॉ० रामबली मिश्र

गुम न होइये  (सजल)

गुम न होइये कभी अहसास चाहिये।
आपका आभास आसपास चाहिये।।

तोड़कर वादा-कसम मत और कहीं जा।
सम्बन्ध के निर्वाह की बस प्यास चाहिये।।

विश्वास धराधाम पर ईश्वर का भाव है।
विश्वास में शिव विंदु का अभ्यास चाहिये।।

मानव वही है लोक में जो नेक मना है।
मन में शुभ संकल्प का हरिदास चाहिये।।

सम्बन्ध को नकारना आसान बहुत है।
सम्बन्ध में विश्वास का सहवास चाहिये।।

सम्बन्ध तो बनते विगड़ते हैं जहान में।
सम्बन्ध के निर्वाह में हर श्वांस चाहिये।।

आशा किया है जिसने उसको न तोड़ दो।
दिल की कली को आपका आकाश चाहिये।।

उलझन नहीं स्वीकार है झेला इसे बहुत।
सुलझे हुए हर प्रश्न का इतिहास चाहिये।।

विश्व के मनचित्र पर भूगोल बहुत हैं।
एक मानचित्र मधुर न्यास चाहिये।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

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