अरुणा अग्रवाल

नमन साहित्यिक मंच,माता शारदे
शीर्षक-"पिता एक उम्मीद"
20।06।2021।

पिता है पहला उम्मीद-किरण,
जिससे रोशन लाल-बाल,जीवन,
निस्वार्थ-भाव से करें,अपना कर्म,
सुत,सुता के हितैषी,सर्वोच्च-उम्मीद।।

पिता हैं विशाल वट-वृक्ष सम,
फल,फूल,ईन्धन,औषधि,छाया,
पिता का कार्यक्षेत्र आय-व्यय,
जिसके बुते होता परिवार,गुजारण।।

शिक्षा,ज्ञान,विज्ञान,अनुसंधान,
पिता है वो मजबूत संम्भ,लौह,
बाहर से भले कठोर नारिकेल,
परन्तु अंन्दर लचीलेपन,स्वादिष्ट।।

पिता चाहे,सुत बढ़े उससे आगे,
न रखते वह कोई जलन,द्वेष,
माता त्याग की देवी,पिता,छाया,
जिनसे महफूस रहते संतान,आजीवन।।

पिता है एक उम्मीद का पिण्ड,
सूरज भांति जलता खुद,देता,
उजाला,घर-संसार,सुत,सुता,
पिता है उद्गम,उद्गार,उम्मीद।।

ख़ुशनसीब हैं जिसे मिले,पिता,
चूंकि पिता है सर्वाधिक,कर्मठ,
सर्वथा प्रगतिशील,उम्मीद-किरण,
"पितृ-दिवस"पे उन्हें एक सलाम।।

अरुणा अग्रवाल।
लोरमी,छःगः।
🙏🌹🙏

गौरव शुक्ल

अपना एक प्रिय गीत आप सभी के समक्ष सादर-

यदि अपनी पीड़ा कह देना ,एक निशानी दुर्बल मन की,
तो इस दुनिया में निस्संशय , सबसे दुर्बल मन मेरा है।
(1)
 घुट-घुट कर अपनी पीड़ा को सहना मुझसे नहीं हो सका।
तिल-तिल पर मर-मर कर जीवित रहना मुझसे नहीं हो सका।

मैंने छोड़ हीनता सारी ,
अपनी ही वेदना पुकारी।
         जब-जब धोखा मन ने खाया ,
         तब मैं धीरज रोक न पाया।

 मैंने चीख-चीख कर सारी व्यथा उगल डाली पृष्ठों पर,
यह अपराध अगर है तो फिर अपराधी जीवन मेरा है।

यदि अपनी पीड़ा कह देना......... 
(2)
मेरी हँसी जहाँ पर बिखरी, वह धरती मैं भूल न पाया;
याद मुझे है जहाँ हृदय ने, थके हुए, विश्राम मनाया। 

ह्रदय जहाँ पर टूटा मेरा, 
मीत जहाँ पर रूठा मेरा। 
         मेरे आँसू गिरे जहाँ पर, 
        याद मुझे वह जगह बराबर। 

मेरा गुण है यही, इसे तुम, दोष समझते हो तो समझो;
सुधियों के आँगन में प्रतिदिन,होता अभिनंदन मेरा है।

यदि अपनी पीड़ा कह देना......... 
(3)
 अपने अब तक के जीवन में, केवल मोह कमाया मैंने; 
जहाँ प्रेम के बोल सुने दो, सिर को वहीं झुकाया मैंने। 

अपनापन मिल गया जहाँ पर, 
मैं हो गया वहीं न्योछावर। 
        जिसने मुझसे हाथ मिलाया, 
         मैंने बढ़कर गले लगाया। 

असफल जीवन जीने का अभियोग लगेगा मुझ पर लेकिन, 
गौरवपूर्ण सिद्धि है मेरी, वंदनीय अर्जन मेरा है।

यदि अपनी पीड़ा कह देना......... 
               ------------
-गौरव शुक्ल 
मन्योरा 
लखीमपुर खीरी 
मोबाइल - 7398925402

नंदिनी लहेजा

नमन माँ शारदे
मन मंच
विषय-पिता
विधा -हाइकु

मेरे आधार
जीवन दाता पिता
शत  नमन

आप सारथी
जीवन के रथ के
पार लगते

वंदन पिता
ह्रदय से करता
मांगूं आशीष

आपसे मैंने
पाया यह जीवन
क़र्ज़ आपका

करूँगा सेवा
मन से मैं आपकी
हैं फ़र्ज़ मेरा

सदा बचाते
हर कष्ट से हमें
बनके ढाल

हमने पायी
हर ख़ुशी आज़ादी
हैं  खुशहाल

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)

दिनेश चन्द्र प्रसाद दीनेश

विधा-गीत
शीर्षक-  "गंगा गीत"
स्वर्ग से आई है एक खबर,
पछता रहे हैं भगीरथ 
गंगा को धरा पर लाकर ।

ब्रह्म लोक से आई है यह खबर,
पछता  रहे हैं ब्रह्मा 
अपनी कमण्डल से गंगा छोड़कर।

कैलाश पर्वत से आई है ये खबर,
पछता रहे हैं शंकर 
अपनी जटा को खोलकर ।

हिमालय से आई है यह खबर,
पछता रही है गंगोत्री 
गंगा को अपने घर से निकाल कर।

पर्वत मालाओं से आई है यह खबर, 
पछता रहे हैं पर्वत 
गंगा को आगे जाने का रास्ता देकर।

गंगासागर से आई है यह खबर, 
पछता रही है स्वयं गंगा 
पतित पावनी होकर ।

गंगासागर से आई है यह खबर,
पछ ता रहे हैं मुनिवर 
सागर पुत्रों को श्राप देकर।
 
धरती पर खबर कब आएगी,
मानव को पछतायेगा 
"दिनेश" अपनी गलती मान कर।

दिनेश चन्द्र प्रसाद "दीनेश" कलकत्ता

जय जिनेन्द्र देव

*पिता दिवस*
विधा : कविता

अंदर ही अंदर घुटता है,
पर ख्यासे पूरा करता है।
दिखता ऊपर से कठोर।
पर अंदर नरम दिल होता है।
ऐसा एक पिता हो सकता है।।

कितना वो संघर्ष है करता
पर उफ किसी से नही करता।
लड़ता है खुद जंग हमेशा।
पर शामिल किसी को नही करता।
जीत पर खुश सबको करता है।
पर हार किसी से  शेयर न करता।
ऐसा ही इंसान हमारा पिता होता है।।

खुद रहे दुखी पर, 
घरवालों को खुश रखता है।
छोटी बड़ी हर ख्यासे, 
घरवालों की पूरी करता है।
फिर भी वो बीबी बच्चो की, 
सदैव बाते सुनता है।
कभी रुठ जाते मां बाप, 
कभी रुठ जाती है पत्नी।
दोनों के बीच मे बिना,
वजह वो पिसता है।
इतना सहन शील, 
 पिता ही हो सकते है।।

जय जिनेन्द्र देव 
संजय जैन "बीना" मुम्बई
20/06/2021

प्रतिभा पाण्डेय

विषय - पितृदिवस
#विधा -मुक्त(पद्य)
**************

मैं हर बार जब मायके से विदा होती  थी
पिता रखते थे मेरी मुट्ठी में कुछ रुपए
चुपचाप...….
मैं देर तक उन्हें भींचे रहती थी
मुझे पता था
ये सिर्फ कुछ रुपए नहीं थे
ये पिता के हृदय की अकुलाहट थी
कि उनकी बेटी उपेक्षित न रहे...
ये पिता की मासूम संतुष्टि थी
कि उनकी बेटी को कुछ कमी न हो...
ये पिता की निरीह सी परवाह थी
कि नज़रों से दूर बेटी सुरक्षित रहे...

मैं मुट्ठी में भिंचे वो भीगे रुपए
रखती थी पर्स में
बगैर गिने....
मैं उन्हें यथासंभव खर्च नहीं करती
मुझे पता था
वे मेरे लिए सिर्फ कुछ रुपए नहीं
बल्कि मेरी आश्वस्ति थे.....
मेरे पिता के मजबूत साये की आश्वस्ति.....!!

                   " प्रतिभा पाण्डेय"
               प्रयागराज उत्तर प्रदेश

अमरनाथ सोनी अमर

कविता- रक्त- दान महादान! 

सभी दान से बढ़कर मेरा, 
रक्तदान कहलाता है!
कितने लोग के जान बचेगें, 
यह महादान कहलाता है!! 

पुण्य प्रताप कभी कम ना हो, 
सब जीवन खुशहाली भर दे! 
राष्ट्र भक्त वही कहलाता, 
देश लिये वह रक्त दान दे!! 

असहायों का प्राण बचे जब, 
कितनों में खुशहाली आयेगी! 
स्वस्थ्य सुखी सब रोग मुक्त हों, 
रक्त दान खुशियाँ भर देगी!! 

रक्तदान से रक्त घटे ना, 
कभी ना खाली तन होवे! 
अति तेजी से रक्त बढेगा, 
चंद दिनों भरपाई होगा!! 

नित- नित -नये रक्त बनेगा, 
स्वस्थ -सुखी तन होवेगा!
बल -पौरुष की कमी ना होगी, 
भगवन दुआ तो बरसेगा!! 

पूरे उम्र भर आप रहेंगें, 
शान से यम घर जायेंगें! 
सीना तान बयान भी देंगें, 
पुण्य -प्रताप बतायेंगें!! 


अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662

डॉ. अर्चना दुबे रीत

*गंगा दशहरा*
नमामि गंगे🙏

गंगा पतित पावनी
पापों को करें दूर
भागीरथी की कठिन तपस्या
धरती पर आया गंगा का निर्मल नीर ।

युगों युगों से बहने वाली
गंगा भागीरथ की अमर कहानी
सबको जीवन दान है देती
पापों को सबके हर लेती ।

ब्रह्मकमण्डल ली अवतार
शिव के जटा से निर्मल धार
मनवांछित फल देती सारा
गंगा का जल अमृत धारा ।

मोक्षदायिनी, पाप नाशिनी
पावन सलिल की माँ तू स्वामिनी
मानवमन की पीड़ा हारिणी
जगततारिणी, मुक्ति दायिनी त्रिपथगा, गंगोत्री, जाह्नवी ।

*डॉ. अर्चना दुबे 'रीत'*✍️
    मुंबई

डॉ रश्मि शुक्ला

पिता जी


पिता का आशीर्वाद मिला और प्यार भी
मिली जिंदगी फुल सब मुस्कराने लगी।
मन के धरातल पर अनुभव हुआ, भावना गीत बन गुनगुनाने लगी।

ज्ञान-अनुदान, वरदान पिता ने दिया,साधना के समर वे जताते रहे,
स्नेह, संबल दिया सुक्ष्म व कारण से,भावना को परिष्कृत बनाते रहे।

आप ने सद्बुद्धि जगाकर, दिव्य मार्ग पर हमें बढ़ाया, 

आपने निर्मल भाव उभारे,सब शुभ पथ को सरस बनाया।

प्रज्ञा प्रखर रूप आप हैं,पिता ने पालन-पोषण कर बड़ा बनाया,

अग्निरूप तेजस्वी, जीवन यज्ञ हमें समझाया। 

कुछ न अपने हित सँजोते, दान में है हर्ष, 
रक्त, मज्जा भी लुटाती, सतत वर्ष। 

मनुज का निर्माण, करते,मनुज का निर्माण, 

कर रहे परित्राण, सबका कर रही परित्राण। 

दुःख सहन, आतिथ्य, सेवा,त्याग आप  के धर्म, 
प्यार, करूणा और दया से भर रहा है मर्म। 

सुधा की धार को आज,  परिवार में आपस में आप ने भर दी,

चले सौहार्दपूर्ण से प्लावित हृदय, हम सब मे भर दी।

डॉक्टर रश्मि शुक्ला (समाज सेविका)
 प्रयागराज

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल---

है अदा यह भी रूठ जाने की 
कोई कोशिश करे मनाने की 
हुस्ने-मतला---
इन अदाओं को हम समझते हैं
बात छोड़ो भी आने-जाने की

आज छाई हुई है काली घटा
याद आती है आशियाने की 

एक दूजे को यह लड़ाते हैं 
नब्ज़ पहचान लो ज़माने की 

आजकल हर बशर के होंठों पर 
सुर्खियां हैं मेरे फ़साने की 

उड़ रहे हैं परिंद जो हर सू
जुस्तजू है इन्हें भी दाने की 

कौन कब तक किसी के साथ चले
किसमें ताक़त है ग़म उठाने की 

प्यास इतनी शदीद है *साग़र*
कौन जुर्रत करे बुझाने की 

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
एक संशोधन के बाद 🙏

रवि रश्मि अनुभूति

   पितृ - छाया में 
***************
पिता , पिता ही नहीं , पिता बनकर  पिता - रूप में 
पिता एक बहुत ही महान आत्मा होती है 
कर्मठता यदि उसकी कुछ कर नहीं पाती है , तो 
अन्तरात्मा उसकी सिसक - सिसककर रोती है ।
पिता परिवार का मुखिया , पालनकर्ता है 
इसलिए पिता भरसक यह कोशिश करता है कि 
पेट अपना चाहे भरे , न भरे , पर यह सत्य है , 
वह अपने बच्चों के जैसे भी हो , पूरे पेट भरता है ।
पिता चाहे मज़दूर हो किसी फ़ैक्टरी का 
दफ़्तर चाहे घर से कितना भी दूर हो 
भरसक समय - पालन का वह ध्यान रखता है ,
सोचता हे , कोई पिता न कभी भी , मजबूर हो ।
कठिन परिश्रम करता है , जीवन में पिता 
परिवार की ज़रूरतें समझता है , एक पिता 
साहब का हुक्म बजाने में , कोई कसर नहीं छोड़ता ,
ऊँचे सपने सदा ही पालता है , एक पिता ।
पिता छत्रछाया है , अपने पूरे परिवार की 
परवाह नहीं करता वह , किसी भी दीवार की 
नियम भंग लेकिन , वह  कभी होने नहीं देता , 
उसे परवाह होती है सदा , पिता के किरदार की ।
पिता बनकर उसे , पिता के कर्तव्य याद आते हैं 
तब अपने पिता के नियम , उसे बहुत सुहाते हैं 
तब बच्चों पर लगाये , सख्ती के बंधन वह  तोड़ देता है , 
बच्चे पिता के साथ तब , निश्चिंत मौज़ मनाते हैं ।
पिता थोड़े कठोर , थोड़े नरम - दिल भी होते हैं 
पिता , पिता होने का तब , दम भी तो भरते हैं 
पिता बच्चों से , अनुशासन का पालन करवाता है ,
बच्चे भोले मासूम , पितृ - छाया में राज करते हैं ।
पितृ - छाया , घने वट वृक्ष की भी छाया है 
फ़रमाते हैं जो बच्चे , पिता ने वही हुक्म बजाया है 
' गलती कोई करना नहीं ' , के आधार पर ही तो , 
बच्चों ने पितृ - छाया में , स्वतंत्र जीवन पाया है ।
                &&&&&&&

रवि रश्मि 'अनुभूति ' 
              

वंशिका अल्पना दुबे

पापा

मैं पापा की लाडली हूं,
मैं उनकी राजदुलारी हूं l

है मुझ में कुछ खास नहीं,
फिर भी उनकी प्यारी हूं l

है मुझ में कोई महक नहीं,
फिर भी उनके आंगन की कली हूं l

मैं इतनी सुंदर भी नहीं,
फिर भी पापा की परी हूं l

मैं पढ़ने में इतनी तेज भी नहीं,
फिर भी पापा की होशियार बेटी हूं l

है मुझ में कोई खासियत नहीं,
फिर भी पापा की शान हूं, अभिमान हूं l

कमाया आज तक एक रुपया भी नहीं,
फिर भी अपने पापा की लक्ष्मी हूं l

आता नहीं ठीक से खाना पकाना,
फिर भी पापा को भाये मेरे हाथ का ही खाना l

आ जाए जो मुझे किसी बात पर रोना,
मुझे रोते देख पापा का उदास हो जाना l

मेरे ना होने पर मेरी चिंता करना,
मुझे देखते ही पापा का आ गई मेरी शेरनी कहना l

जब मेरे पापा मेरे साथ होते हैं,
तब मुझ में एक अजीब सा विश्वास होता है l

कुछ भी कर गुजरने का जज्बा होता है,
हर हाल में जीत जाऊंगी यह विश्वास होता है l

मैं हूं बहुत ही खास इस बात का एहसास होता है,
मैं किसी से कम नहीं इस बात का यकीन होता है l

पर ना जाने क्यों पल भर में ही पापा,
आपने सौंप दिया अपनी नन्ही परी को, किसी और को l

कर दिया विदा अपने घर से,
कह दिया कि बेटी यह तो रिवाज है l

ना जाने यह कैसी रीत होती है,
ना चाहते हुए भी बेटी अपने पापा से जुदा होती है l

वंशिका अल्पना दुबे 
(बेंगलुरु)

डाॅ० निधि त्रिपाठी मिश्रा

*क्या पापा तेरी बिटिया दुलारी हम नहीं?* 

कैसी ये जग की रीत है कैसा ये विधान,
क्या परम्परा पर नित प्रति बलिहारी हम नहीं?  
होते ही जनम कहा क्यों? तुम्हारी हम नही ,
 *क्या पापा तेरी बिटिया दुलारी हम नहीं?*

कहाँ गयी वो चिन्ता, वो मेरी सब परवाह?
क्या तुमको रह गयी नही तनिक हमारी चाह?
दिल में ,यादों में आती तुम्हारी हम नही?
जिसका थे नाज उठाते वो प्यारी हम नहीं?

 *क्या पापा तेरी बिटिया दुलारी हम नहीं?* 

चेहरा तेरा खिल उठता था हमें देख कर, 
कहते कि  मेरी बिटिया है भारी बेटों पर, 
क्या अब वो अभिमान-मान तुम्हारी हम नहीं? 
होठों पर जो सजती थी किलकारी हम नहीं?

 *क्या पापा तेरी बिटिया दुलारी हम नहीं?* 

क्यूँ बाँटा तुमने हमको ,दो देहरी के बीच, 
हृदय नहीं समझा हमको क्या हम थे कोई चीज ,
विदा किया ऐसे जैसे ,तुम्हारी हम नहीं ,
नैहर हो या पीहर,किस पर वारी हम नहीं, 

 *क्या पापा तेरी बिटिया दुलारी हम नहीं...* 

कुछ ब्याह और थोडी़ सी पढा़ई की खातिर,
तैयारियाँ करते थे सुन्दर जीवन खातिर,
क्या होली-दिवाली खुशी त्यौहारी हम नहीं?
दो पाटों बिच पिस गयीं, क्या हारी हम नहीं?

 *क्या पापा तेरी बिटिया दुलारी हम नहीं?* 

किससे कहूँ वो बातें, जो कहती थी रूठ कर, 
रख लेती हूँ सारी बातें अब मन में मसोस कर, 
राज दिल आँखों से अब  बोल पाती हम नहीं,
रह गयी अब  खुशी औ गम तुम्हारी हम नहीं

 *क्या पापा तेरी बिटिया दुलारी हम नहीं?*
 
कब माँगा हमने हिस्सा ,माँगा कब सामान,
बेटों के जैसा दे दो हमको थोडा़ सा स्थान,
तेरे दिल का टुकडा़ है पराई हम नहीं,
नादान हैं, समझती दुनियादारी हम नहीं।

 *क्या पापा तेरी बिटिया दुलारी हम नहीं.....* 

ओ पापा! तेरी चिन्ता हमको सताती हैं ,
याद तुम्हारी आती आँखें भर आती हैं
पर बिन बुलाये मायके आ पाती हम नहीं,
दुखता है दिल न कहो कि तुम्हारी हम नहीं।

 *क्या पापा तेरी बिटिया दुलारी हम नहीं?* 

स्वरचित
डाॅ०निधि त्रिपाठी मिश्रा ,
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर ।

विजय मेहंदी

रचना  का शीर्षक-" पिता " 
विधा - कविता
कलमकार - विजय मेहंदी 
जनपद- जौनपुर 
प्रदेश - उत्तर प्रदेश 

      "   पिता  तो  अतुल्य  हैं  "

         परिवार   की    आन   हैं,
         एक कुल की पहचान  हैं।
         बड़े         कदरदान     हैं,
         कुल    की     कमान   हैं।
         संरक्षक    अमुल्य       हैं,
         पिता    तो    अतुल्य   हैं।
    
         संकट   की     ढ़ाल     हैं,
         एक  कुल  का खयाल  हैं।
         कुल- रक्षक  हर  हाल  हैं,
         सारथी     कमाल        हैं।
         कृष्ण    के   समतुल्य   हैं,
         पिता  जी    अतुल्य     हैं।

         माँ  के  सिर  की   ताज हैं,
         एक  माँ  की   आवाज  हैं।
         पिताजी  माँ की दुनिया  हैं,
         माँ के जीवन के हमराज हैं।
         एक  माँ-निधी   अमुल्य  हैं,
         श्री  पिता  जी   अतुल्य  हैं।

          पिता बच्चों के  सूत्रधार हैं,
          कुल-नयिया  खेवनहार  हैं।
          पिता जीवन के  आधार हैं,
          एक  कुल   की   बहार  हैं।
          पिताजी  कुल की शक्ति हैं,
          पूर्ण  नहीं  आभिव्यक्ति  है।
          

===========👨‍👧‍👦============

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम

सम्मानित पटल को नमन

गंगा को स्वच्छ बनाएं

चलो सब मिल गंगा को स्वच्छ बनाएं,
 इस दशहरा यह शुभ संकल्प उठाएं।

हिमालय से निकली गंगा निर्मल रहती है,
चीर पहाड़ों का सीना धरा में यात्रा करती है,
भागीरथ महिमा का गुणगान हम गाएं,
चलो सब मिल गंगा को स्वच्छ बनाएं।

गंगोत्री से खाड़ी के सफर बहुत कष्ट है सहती,
कितना भी अत्याचार करें परकुछ नहीं कहती,
मां के आंचल को मैला होने  से हम बचाएं,
चलो सब मिल गंगा को स्वच्छ बनाएं।

कल कारखानों के अपशिष्ट से गंदगी बहती है,
जानवरों को नहलाने से जलधारा 
दूषित होती है,
निर्मल पावन गंगा धारा को दूषित होने से बचाएं,
चलो सब मिल गंगा को स्वच्छ बनाएं।

रीति रिवाज दाह संस्कार में भी गलती ना करें,
पापनाशिनी गंगा का यथोचित हम सम्मान करें,
गंगा को निर्मल रखने के वैकल्पिक साधन अपनाएं,
चलो सब मिल गंगा को स्वच्छ बनाएं।
इस दशहरा यह शुभ संकल्प उठाएं।

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम
तिलसहरी कानपुर नगर

डॉ०रामबली मिश्र

सजल

तहेदिल से सजन को मनाया करो।
गुनगुनाया करो गीत गाया करो।।

सजन ही कलेजा है यह जान लो।
कलेजे को हरदम लुभाया करो।।

हो प्रसन्नानना मस्त सा बन चलो।
दिल की गंगा में गोते लगाया करो।।

मन के मालिन्य की नित सफाई करो।
स्वच्छ मन से सजन को सजाया करो।।

मन में आये अगर पाप रुकने न दो।
पुण्य का वेद नियमित पढ़ाया करो।।

नित्य रहना सजन संग सीखा करो।
सुख की संपत्ति निश्चित कमाया करो।।

प्रेम संगीत धारा परम निर्मला।
पावनी देव धारा बहाया करो।।

है सजन का मिलन दिव्य मन का फलक।
हर्ष से गीत साजन का गाया करो।।

छोड़ दो सारी जगती सजन के लिये।
साजना को हृदय से बुलाया करो।।

खुश रहो दुनियावालों स्वयं के लिये।
मित्रता में मधुर भाव लाया करो।।

खुश रहे मित्रता मित्रता के लिये।
विश्व की मित्रता को जिलाया करो।।

तार देकर बुलाओ सजन को सदा।
मन के मंदिर में प्रति क्षण बसाया करो।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

डॉ. अर्चना दुबे रीत

*दोहा - पिता*

प्रथम पाठशाला बनी, माँ को करो प्रणाम ।
पिता हमारे पूज्य हैं, पहले उनका नाम ।

पिता हाथ सिर पर रहे, दुनिया में सब मीत ।
पिता सिखाते हैं सदा, काम करन की रीत ।।

मात पिता जब साथ हो, खुशियों का संसार ।
दोंनो के अनुभव सदा, हमको मिले अपार ।

मात पिता सन्तान के, होते हैं भगवान ।
सिखलादे सन्तान को, बन जाये गुणवान ।

मात पिता रक्षक बने, खुले नसीब हमार ।
जिनके पास मात पिता, सुखमय हो परिवार ।।

*डॉ. अर्चना दुबे 'रीत'*

रुपेश कुमार

पिता क्या है ?
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जीवन की अभिकल्पना है पिता ,
जीवन की सम्बल , शक्ति है पिता ,
जीवन की सृष्टि मे निर्माण की अभिव्यक्ति है पिता ,
जीवन के हर पलों की यादाश्त है पिता !

जीवन मे अँगुली पकड़े बच्चे का सहारा है पिता ,
जीवन मे कभी कुछ खट्टा कभी खारा है पिता ,
जीवन की पालना , सहारा है पिता ,
जीवन की पोषण , रक्षा है पिता !

जीवन मे रोटी है, कपड़ा है, मकान है पिता ,
जीवन मे परिवार का अनुशासन है पिता ,
जीवन मे धौंस से चलना वाला प्रेम का प्रशासन है पिता ,
जीवन मे छोटे से परिंदे का बड़ा आसमान है पिता !

जीवन मे अप्रदर्शित - अनंत प्यार है पिता ,
जीवन मे बच्चों का इंतज़ार है पिता ,
जीवन मे बच्चों के ढेर सारे सपने है पिता ,
जीवन मे बाज़ार के सब खिलौने अपने हैं पिता !

जीवन मे परिवार में राग-अनुराग है पिता ,
जीवन मे माँ की बिंदी और सुहाग है पिता ,
जीवन मे परमात्मा है पिता ,
जीवन मे गृहस्थ आश्रम में उच्च स्थिति की भक्ति है पिता !

जीवन मे एक जीवन को जीवन का दान है पिता ,
जीवन मे दुनिया दिखाने का एहसान है पिता ,
जीवन मे सभी कठिनाइयों को निकालने का सहारा है पिता ,
जीवन मे गले का हार है पिता !

जीवन मे सभी दुखों को हरने वाले है पिता ,
जीवन के दर्दों की दवा है पिता ,
जीवन मे दिन की सूर्य और रात की रोशनी है पिता ,
जीवन मे पिता नहीं तो बचपन अनाथ है !

जीवन मे जीवन की ज्योति है पिता ,
जीवन मे पिता से बड़ा कोई अपना नही ,
पिता है तो जीवन कृतार्थ है ,
पिता एक पेड़ की छावं होते है !

पिता जीवन की नाव होते है ,
पिता जीवन की मतझार होते है ,
पिता बिन जीवन है अधूरा ,
खाली - खाली , सुना - सुना !

✍🏻रुपेश कुमार©️
चैनपुर, सीवान, बिहार
मो0 - 9934963293
ईमेल - rupeshkumar01991@gmail.com

निशा अतुल्य

समीक्षार्थ 
हाइकु

विक्षिप्त धरा
उजड़ा है शृंगार 
दोषी है कौन ?

वृक्ष तो लगा
धरा को जरा सजा
आये बादल ।

ऋतु बसंत
मुस्काई न कलियाँ
क्यों सोच जरा ?

सैयाद कोई
नोच गया कलियाँ
यौवन खत्म ।

संभालो जरा
अपनी ही बेटियाँ 
समय बुरा।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

आज दिवस है भले पिता का, हर दिन हर पल शान दिया - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

क्रूर काल के बिषम व्याधि ने, तुमको हमसे छीन लिया।
आज दिवस है भले पिता का, हर दिन हर पल शान दिया।।
**************************************
खड़े बबूरे पेड़ के नीचे,
तेरी हमको याद है आयी।
कैसी! तेरी माया प्रभु है,
चिंड़िया और चिड़ा बैठायी।

शूल सभी हैं जीवन में भारी,
बिना तुम्हारे संघर्ष किया।
सभी स्वप्न के फूल खिलाके,
मेरे हीत में आशीष दिया।
सभी दिवस पल रैन अंश्रू को, बोझिल नयन को मान दिया।
आज दिवस है भले पिता का, हर दिन हर पल शान दिया।।

स्वेद कणों से अभिसिंचित कर,
मेरे ख़ातिर महल बनाये।
मृदुल  फूल  से  पथ  सारे,
कल्पनाओं को साकार कराये।

तेरे हाथों की छाया से,
कंट सभी हैं दूर हुए।
मन मेरा जब डगमग होता,
तुंग समान सा खड़े हुए।
हमें बना हे! विश्व विधाता, भव - सागर में तान किया।
आज दिवस है भले पिता का, हर दिन हर पल शान दिया।।

सदा रही हो ठिठुरन भले रात दिन वृष्टि पड़े,
कड़ी धूप में तेरी छाया मुझको ही मिल जाती है।
अर्थ सभी हैं आज निकलते शब्दों के,
भाव पिता की आज पिता बन निकल ही जाती है।

छोड़ अकेला चिरनिंद्रा में चले गये,
पर तेरे  आशीष  सदा हैं मेरे लिए।
भीड़-भरी इस दुनिया में तेरी यादों से,
व्याकुल अकेला रो पड़ा हूं मैं खड़ा तेरे लिए।
निष्कलंक हो जीवन सारा, श्रम से सुरभित मान दिया।
आज दिवस है भले पिता का, हर दिन हर पल शान दिया।।

 दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल
   गोरखपुर, उत्तर प्रदेश ।

श़ान - ठाठ बाट
तान - विस्तार
स्वेदकण - पसीने की बूंद
तुंग - पर्वत
निष्कलंक - बेदाग
सुरभित - सुगंधित

अरुणा अग्रवाल

शीर्षक"बादल और वर्षा"


मानसून की हुई दस्तक,
बादल,वर्षा दोनों आऐ,
चोली,दामन साथ जैसा,
कैसा प्रीत यें हैं सुनाऐं।


ग्रीष्म के तपिश का थमना,
और बरसात का हुआ आना,
मोहन,मनभावन,नजारा भाऐ,
पर्व-पर्वाणि का आहट,मनको लुभाऐ।।


बादल गरजे कभी घोर,धीमे,
गरजता मेघ बरसता नहीं,मित,
पर दोनों का है अमिट रिश्ता,
जो युगों से है प्रसिद्ध,चित्ताकर्षक।।


आषाढ़ माह का हुआ आगमन,
द्वितीया को जगन्नाथ-रथयात्रा,
समग्र विश्व में कीर्ति-डंका,बजाऐ,
पावन,मनभावन झांकी ,लगे सुहानी।।


बादल कभी ढाऐ कयामत,
किसान का हितैषी बन जाऐ,मित,
बारिश कभी तेज तो धीमी,गति,
गर्जन, ईन्द्रधनुषी छटा मन पपीहा,गाऐ,।।

अरुणा अग्रवाल।
लोरमी,छःगः
🙏🌹🙏

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर

शीर्षक--सावन भादों की बदरिया
रचना--

सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
सावन भादों की बदरिया 
मनभावन लागे ।।
ढंक जाए सूरज, बादल
और बारिस जीवन की
खुशियां जैसे भावे।।
सावन भादों की बदरिया 
मनभावन लागे।।
बादल और बारिश जैसे
चाहत वइसन आवे फुहार
छम छम पायल की झंकार
मन प्रीत प्यार जगावे।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
उमड़ घुमड़ ,बादल और
बारिश प्रेम प्रीति की रीति
राग बताये।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
जब आवे बादल और वारिश
प्यार प्रेम की मस्ती याद आवे।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
रिमझिम बारिश की फुहार 
भीगा बदन गोरी का आँगर
प्यार के बादल और बरसात
मौसम लाये।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
बाहारों की बादल और बारिश
दिल की गली में मोहब्बत के
अरमां जगाए।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
सावन भादों की बदरिया 
मनभावन लागे ।।
ढंक जाए सूरज, बादल
और बारिस जीवन की
खुशियां जैसे भावे।।
सावन भादों की बदरिया 
मनभावन लागे।।
बादल और बारिश जैसे
चाहत वइसन आवे फुहार
छम छम पायल की झंकार
मन प्रीत प्यार जगावे।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
उमड़ घुमड़ ,बादल और
बारिश प्रेम प्रीति की रीति
राग बताये।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
जब आवे बादल और वारिश
प्यार प्रेम की मस्ती याद आवे।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
रिमझिम बारिश की फुहार 
भीगा बदन गोरी का आँगर
प्यार के बादल और बरसात
मौसम लाये।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
बाहारों की बादल और बारिश
दिल की गली में मोहब्बत के
अरमां जगाए।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।
चाँद बादल की आगोश में
मल्लिका मोहब्बत की पायल
की छम छम जिंदगी मोहब्बत
का सरगम सुनाए।।
सावन भादों की बदरिया
मनभावन लागे।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

अमरनाथ सोनी अमर

गीत-                                 आज हमारी भारत माँ, अवसाद में डूबी है! 
चिन्ता उनके परिवारों के, प्यार में डूबी है!! 

कैसे भारत बचे काल से, नापाक जरूरी है! 
शुद्ध होय  यह हवा तो कैसे, जीत जरूरी हो!! 

सेना के जवान हमारे, माँ रक्षा करतें हैं! 
ए गद्दार सभी ने मिलकर, माखौल उडा़तें हैं!! 

सरकारें जो बैठी कुर्सी, गीत तो गाती है! 
जनता का  धन लूट के खाते ,  बीन बजातें है!! 

बेचारी जनता रोती है, कोइ ना सुनतें है! 
जनता अपने मतों को देकर, कुर्सी सौपी है!! 

सुने नहीं कोई सरकारें, मस्त तो रहती है! 
सांप नाथ जब चले गये तो, काल आ जातें हैं!! 

मजबूर हो गयें  जनों मन, आटा सम पिसतें है!
कोई नहीं तो बनें सहारा, दुख ना सुनतें है! ! 

अमरनाथ सोनी "अमर "
9302340662

डॉ० रामबली मिश्र

सजल

तरसो न भटको सजन के लिये।
मोहब्बत करो नित वतन के लिये।।

बूँद बनकर बहो बहते जाना सतत।
सिंधु बन जाओगे शुभ्र जन के लिये।।

करते रह चिंतना सबके प्रति वेदना।
मन के भावों को गढ़ना सृजन के लिये।।

कोर रखना नहीं दिल से निर्मल बनो।
स्थान देना हृदय में सुजन के लिये।।

प्यार के पुष्प की नित्य वर्षा करो।
मोह लो सारे मन को चमन के लिये।।

श्रेष्ठ बनना सदा सोच पावन रखो।
जीते रहना सहज प्रेमपन के लिये।।

व्यर्थ में मत गवाना कभी जिंदगी।
जीना सीखो सदा 'शिव मिशन' के लिये।।

स्नेह रस को पिलाओ पिलाते रहो।
बाँट दो अपना सारा मगन के लिये।।

कुछ भी संचित न कर तेरा कुछ भी नहीं।
छोड़ दो पाण्डु बनकर कथन के लिये।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

चंचल हरेंद्र वशिष्ट

'प्रेम की प्रतिमूर्ति'

धन दौलत और रुतबे
की नहीं दरकार मुझको।

बस अपनों से केवल
है सच्चा प्यार मुझको।

सहन करने की भी होती है
एक सीमा न,ध्यान रहे!

यूँ ही तुम्हारी हर बात
नहीं स्वीकार मुझको।

मेरे प्यार का रखना 
तुम मान हमेशा ही,

सम्मान सदा करूँगी
मिले हैं संस्कार मुझको।

एक इंसान हूँ प्रयोग की
कोई वस्तु नहीं हूँ मैं 

कि इस्तेमाल करके तुम
समझो बेकार मुझको।

करना आता है मुझे प्रेम
और प्रेम का प्रतिकार भी

नहीं ये कहने में झिझक 
और ज़रा इन्कार मुझको।

'चंचल' कह रही है जो
हल्के में यूँ लेना न तुम

न कहना कि कहा नही
पहले एक बार मुझको।

स्वरचित,मौलिक एवं अप्रकाशित रचना:
चंचल हरेंद्र वशिष्ट,नई दिल्ली

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