दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर हाइकू 

योग साकार
    देता है जीवन को
          नया आकार।

रोग निकट 
   आता है मानव के
            मार देता है।

मेरा दावा है 
   योग हो नियम तो 
          भाग लेता है।

जग में मौत
  ताण्डव करे रोग
         उपाय योग।

दिवस एक
   मनायें हैं उत्सव 
       चले ये रोज।

योग देती है 
    हमें उर्जा क्षमता
        औ खुशियाली।

हो देह रूग्ण
    तो मन में चैतन्य
        भर देती योग।

- दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

सुधीर श्रीवास्तव

हाइकु 
*******
ग्रीष्म ऋतु
*********
तपती धूपच
जान ले लेगी जैसे
दम निकला।
*****
हाय रे गर्मी
चैन न पल भर
दम घुटता।
------
ऐसा लगता
आग बरसे जैसे
जला डालेगी।
*****
बर्दाश्त नहीं
इस बार की गर्मी
भारी पड़ेगी।
*****
सहना होगा
हमेशा तो लगता
अबकी बार।
*****
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
© मौलिक, स्वरचित

राजवीर सिंह तरंग

नमन् मित्रों, 
विश्व अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के अवसर पर 
                       कुछ दोहे
                           (1)
मानव - मानव  भज  रहा, योग  नाम  का गान।
विश्व  धरातल  बढ़  रही, भारत  माँ   की  शान।। 
     
                           (2)
लाभ  योग  के जान कर, कर लो तनिक विचार।
जब तक तन का  सुख  नहीं, हीन  लगे  संसार।। 

                           (3)
आओ  नियमित   योग  से,   काया  करें    निरोग। 
स्वस्थ  तन   और   मन  रहे,  खूब  बने  संजोग।। 

                           (4)
योग  ही  योग  सब  करें,  योग  के   हित  हजार।
स्वस्थ  तन  और  मन  मिले, मिलें  नेक  आचार।। 

                           (5)
संतों   के   इस   देश   में,   भरा   ज्ञान   भंडार। 
योग - जोग - संजोग   से,  बढ़ता   सद् व्यवहार।। 

राजवीर सिंह 'तरंग'
बदायूँ।।

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*योग-दिवस*
दिवस साधना का यही,योग-दिवस सुन भ्रात।
प्रथम कार्य बस योग ही,करना नित्य प्रभात।।

स्वस्थ रखे तन को यही,दे मन-शुद्ध विचार।
धन्य पतंजलि ऋषि रहे,किए जो आविष्कार।।

प्राणायाम व भष्तिका,सँग अनुलोम-विलोम।
भ्रमर-भ्रामरी साथ में,अतुल शक्ति रवि-सोम।।

सफल योग उद्गीत है,रखे कुशल मन-गात।
इसको करने से मिले,तत्क्षण रोग-निजात।।

ऋषि-मुनि-ज्ञानी-देव सब,सदा किए हैं योग।
कलि-युग औषधि बस यही,समझें इसे सुभोग।।

मूल-मंत्र बस योग है,यही है कष्ट-निदान।
करे योग को रोज जो,उसका हो कल्याण।।

आओ मिलकर सब करें,नित्य योग-अभ्यास।
भर देगा यह योग ही,जीवन में उल्लास।।
             ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

एस के कपूर श्री हंस

।योग।।दिवस।।*
*(21        06             2021)*
*शीर्षक।।।।योग भगाये रोग।।*
*।।।।विधा।।।।।।।।।मुक्तक।।।*
1
योग से   बनता    है   मानव
शरीर      स्वस्थ      आकार।
योग एक  है   जीवन      की
पद्धति स्वास्थ्य का   आधार।।
योग से निर्मित होता तन मन
और  मस्तिष्क  भी      सुदृढ़।
तभी तो   हम कर   सकते  हैं
हर   जीवन    स्वप्न    साकार।।
2
भोग नहीं योग आज  की बन
गया     एक      जरूरत     है।   
रोग प्रतिरोधक क्षमता  से  ही
जीवन बचने   की    सूरत   है।।
छह  वर्ष  सम्पूर्ण विश्व को ही
भारत ने   दिखाया  था रास्ता।
आज तो पूरी दुनिया में भारत
बन गया योग की एक मूरत है।।
3
नित प्रति  दिन व्यायाम ही तो
योग     का    एक   रूप     है।
व्यावस्तिथ हो  जाती आपकी
दिनचर्या बदलता  स्वरूप   है।।
निरोगी काया आर्थिक  स्थिति
भी होती  है   योग  से   सुदृढ़।
योग तो सारांश में तन मन की
सुंदरता का   ही   प्रतिरूप  है।।


*।।  प्रातःकाल   वंदन।।*
🎂🎂🎂🎂🎂🎂🎂
सुख शान्ति  स्वास्थ्य  का 
प्रेम भरा   पैगाम आपको।
जीवन में     मिले  प्रत्येक
व्याधि का निदान आपको।।
यश  कीर्ति   मान  सम्मान
सब कुछ   मिले जीवन में।
*सुबह सवेरे का ह्र्दयतल*
*से       प्रणाम    आपको*
👌👌👌👌👌👌👌👌



*।।करो योग रहो निरोग।।*
*।।विधा।।हाइकु।।*
1
योग से   काया
मनुष्य हो     निरोगी
स्वास्थ्य ये लाया
2
योग करता
दृढ़ता    है     बढ़ती
रोग हटता
3
योग आहार
शुद्ध   होते विचार
स्वस्थ आकार
4
अक्षय ऊर्जा
योग     भगाये रोग
बचता खर्चा
5
योग का मार्ग
स्वास्थ्य और संयम
ये रोग भाग
6
योग से बल
योग से आत्मबल
शरीर    चल
7
निरोगी काया
भोग   विलास दूर
योग की माया
8
योग सम्बन्ध
योग व्याधि का वध
हो    गद गद
9
पयार्प्त   योग
दूर हो        हर   रोग
स्वास्थ्य का जोग
10
योग ही श्रेष्ठ
निरोगी होती काया
है सर्वश्रेष्ठ

*रचयिता।।  एस के कपूर*
*"श्री हंस"।।*
*बरेली ।।*
मोब।।।  9897071046
             8218685464

डॉ० रामबली मिश्र

प्रणम्य मातृ शारदे

वंदनीय शारदे प्रणम्य मातृ शारदे।
सुधन्य मातृ शारदे नमामि विश्व शारदे।।
भजामि मातृ शारदे पूजनीय शारदे।
विनम्र मातृ शारदे रहस्य दिव्य शारदे।।

सुरक्ष मातृ शारदे सुशिक्ष ज्ञान शारदे।
सुविज्ञ वेद ध्यानश्री सुसज्ज भव्य शारदे।।
विश्व के विधान की सुजान शान शारदे।
दया करो कृपा करो महानुभाव शारदे।।

अलभ्य शिव प्रभाव हो सहस्र बाहु शारदे।
अनंत आनना सदा सुशील सौम्य शारदे।।
कला निधान ज्ञानमय सुपंथ धाम शारदे।
विनीत दिव्य भव्य हो सुशांत मातृ शारदे।।

अगम्य हो सुगम्य हो अनंत मातृ शारदे।
दिव्य भाव प्रेम हो सुगन्ध पुष्प शारदे।।
भक्तिरूपिणी सतत स्वतंत्र मंत्र शारदे।
मोक्षदायिनी सहज सु-तंत्र मातृ शारदे।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

मधु शंखधर स्वतंत्र

मधु के मधुमय मुक्तक

🌹🌹 *योग* 🌹🌹
------------------------------------
◆ योग निहित मन स्वस्थ हो , दैनिक हो यह काज।
नित्य नियम पालन करे, समयाधारित राज।
ऋषि पतंजलि दिव्यतम् , दिए योग का ज्ञान,
सतत् सभ्यता गति मिले , योगी करता नाज।।

◆ विश्व गुरू भारत सदा, योग बनी पहचान।
ऋषि मुनि करते योग ही, ध्यान साधना जान।
ध्येय यही संकल्प यह, काया रहे निरोग,
स्वयं मनन चिंतन करे, ईश्वर का कर ध्यान।।

◆ योग राम ने जब किया, मर्यादित तब भूप।
योग किया श्री कृष्ण ने, योगी राज स्वरूप।
योग ज्ञान अति श्रेष्ठ है, इसका नहीं विकल्प,
योग सगर अनुपम किए, गंग धरे अवधूत।।

◆ योग दिवस कहता यही, नित्य नियम स्वीकार।
प्रबल सुखद अनुभूति हो , मन से दूर विकार।    
विश्व इसे स्वीकारता, भारत की यह शान,
सकल विश्व में योग का, अद्भुत हुआ प्रचार।।


**********************

*गीत*
*योग*
--------------------
सुंदर आभा युक्त कांति यह , योग साधना लाती है ।
एक नवल अहसास ह्रदय दे, जीवन सुखद बनाती है।।

महर्षि पतंजलि ईश रूपी, योग धरा पर लाए थे।
स्वस्थ रहें सब रहें सुरक्षित, ऐसा मंत्र बताए थे।
बहे सतत् यह निर्मल धारा, भाव ह्रदय अपनाती है।
सुंदर आभा युक्त कांति.......।।

वर्तमान गर अपनाता है, तब भविष्य सुख पाता है।
नित्य नियम से प्रातः बेला, योगा कर्म निभाता है।
शुद्ध मिले गर श्वास मनुज को, आयु बढ़ती जाती है।
सुंदर आभा युक्त कांति.......।।

प्राणायाम करे जब कोई , ध्यान ईश का भाता है।
यह भक्ति का मार्ग दिखाता, कर्म   विदित शुभ ज्ञाता है।
यह अध्यात्म स्वयं अपनाए, परम गति सुख धाती है।
सुंदर आभा युक्त कांति.........।।

इक्कीस जून यह योग दिवस , सभी एक संकल्प करो।
नित्य नियम से योग साधना , करके नवल प्रयोग करो।
एक अलौकिक शक्ति स्वयं में, योग स्वयं *मधु* लाती है।
सुंदर आभा युक्त कांति......।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*21.06.2021*

प्रवीण शर्मा ताल

मनहरण घनाक्षरी


रश्मियाँ झांकी गगन ,
धरा पर है   मगन ।
 देखो धरती माता की ,
 ये कितनी शान है।

ओस भरी बुलबुले,
मन द्वार खुलखुले।
लुढ़ककर आई है,
किसकी ये आन है।

हलधर सोचे आज,
फसलों की होती लाज।
खेतों में बिछती यह,
हरी -हरी जान है।

भोर उठे राम राम,
 लचकी रश्मियों  में ही,
करे योग  हम सब,
 तन मन  शान है।

प्रवीण शर्मा ताल

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-5
*तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-5
जब रह रात पाँच-छः सेषा।
कालहिं बरस एक अवसेषा।।
    बन मा लइ बछरू तब गयऊ।
    किसुन भ्रात बलदाऊ संघऊ।।
सिखर गोबरधन पै सभ गाई।
हरी घास चरि रहीं अघाई।।
     लखीं चरत निज बछरुन नीचे।
     उछरत-कूदत भरत कुलीचे।।
बछरुन-नेह बिबस भइ धाईं।
रोके रुक न कुमारग आईं।।
    चाटि-चाटि निज बछरुन-देहा।
    लगीं पियावन दूध सनेहा।।
नहिं जब रोकि सके सभ गाईं।
गोप कुपित भइ मनहिं लगाईं।।
    पर जब निज-निज बालक देखा।
    बढ़ा हृदय अनुराग बिसेखा।।
तजि के कोप लगाए उरहीं।
निज-निज लइकन तुरतै सबहीं।।
    पुनि सभ गए छाँड़ि निज धामा।
     भरि-भरि नैन अश्रु अभिरामा।।
भयो भ्रमित भ्राता बलदाऊ।
अस कस भयो कि जान न पाऊ।।
     कारन कवन कि सभ भे वैसै।
     मम अरु कृष्न प्रेम रह जैसै।।
जनु ई अहहि देव कै माया।
अथवा असुर-मनुज-भरमाया।।
    अस बिचार बलदाऊ कीन्हा।
    पर पुनि दिब्य दृष्टि प्रभु चीन्हा।।
माया ई सभ केहु कै नाहीं।
सभ महँ केवल कृष्न लखाहीं।।
दोहा-बता मोंहि अब तुम्ह किसुन, अस काहें तुम्ह कीन्ह।
        तब बलरामहिं किसुन सभ,ब्रह्म-भेद कहि दीन्ह।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र।
                         9919446372

प्रवीण शर्मा ताल

*वीर रस*
*रोला छंद में*

चाहे लू या शीत, ढाल भारत की बनते।
चाहे हो बलिदान,कभी भी वीर न हटते।।
धरती माता मान,सदा आगे ही बढ़ते।
लिये हथेली जान,सदा दुश्मन से लड़ते।1

ऊंचा मस्तक भाल,हुआ जब सैना लौटी।
दुश्मन कांपे हाथ,पैर जब की थी बोटी ।।
भरते है चिंघाड़,यही रिपु छाती चीरे।
पावन है यह धरा,देश के यह है हीरे।।2

 माँ धरती के शेर, सदा ध्वज ऊंचा होगा।
यह वीरों का खेल,कभी रणभूमि पर होगा।
होगा यह इतिहास, रुग्ण गतिमान लिखेगा।
रिपुओं का वक्ष चीर,यही आतंक टूटेगा।।3

रिपु दल के ही शीश,चढ़ाओ तलवारों से।
भारत  माँ को भेंट,मुंड काटो धारो से।।
रक्त पिपासा  पाप ,यही पर ही पिघलेगा।
भारत माँ के लाल,कर्ज तेरा उतरेगा।।4

राजा तेजा वीर,सुरक्षा गो की करते।
तेजा का ही भाल,देख मीणा जो डरते।
डाकू मीणा चोर,युद्ध  तेजा से मारे।
उनको काटा साँप, वचन पक्के जग प्यारे।।5

माटी चंदन रोल,उठा के लगा सुवीरों।
चमके तभी ललाट,धरा के हो रणवीरों।
उड़ा रहा तूफान,मातु दिल से ही बोली।
बोला वीर पहाड़,बांध मेरे कर मोली।6

रचा गया था कुचक्र ,वीर जीते जी मारा।
माँ सुभद्रा का लाल,कर्ज जो मातु उतारा।
गूँजी थी  आवाज, तभी धरती ही डोली।
गर्भ धन्य जो हुआ, बहाते आसूँ बोली।।7


करता जाता बात,हवा में अश्व उठा था।
रिपु दल पर ही टूट,नुकीले खुर पंजा था।
दावानल पर घात,पीठ पीछे न हटा था।
ऐसा राणा अश्व,साहसी युद्ध लड़ा था।8

*✍️प्रवीण शर्मा ताल*

डॉ० रामबली मिश्र

देखो मेरे पूज्य पिता को

देखो मेरे पूज्य पिता को।
अति भावुक पावन ममता को।।
न्यायनिष्ठ सुंदर समता को।
परम विनम्र महा प्रियता को।।

निर्छल परमेश्वर सहयोगी ।
साधु-संत परमारथ योगी।।
सहज गृहस्थ सत्य कल्याणी।
कढ़े गढ़े योधा मृदु वाणी।।

पारस जैसा गुणी रत्नमय।
रूप अलौकिक शिव कंचनमय।।
कृषक सुजान बुद्धि के सागर।
सभ्य सुसंस्कृति के मधु आखर।।

संस्कारसम्पन्न दयालू।
दिव्य मनीषी नित्य कृपालू।।
लक्ष्मीनारायण हरिहरपुर।
ब्रह्म जनार्दन शिव अंतःपुर।।

पंच बने प्रिय न्याय दिलाते।
उत्तम पावन बात बताते।।
सबका प्रिय बन विचरण करते।
हर मानव के दिल में रहते।।

ब्रह्मा-विष्णू-शिव जिमि सुंदर।
अनुभवशील प्रसन्न निरन्तर।।
ज्ञानवंत अति शांत महोदय।
सत्व प्रधान रम्य सूर्योदय।।

मिश्र कुलीन नम्र नित नामी।
सकल क्षेत्र के लगते स्वामी।।
आध्यात्मिक संवाद बोलते।
सबके मन को सहज मोहते।।

नहीं जगत में कोई दूजा।
करो पिता की केवल पूजा।।
मेरे पिता नित्य मुझ में हैं।
वही बोल-बोल लिखते हैं।।

वही बुद्धि के परम प्रदाता।
सन्तति के हैं वे सुखदाता।
शिक्षा-अन्न-ज्ञान देते हैं।
कष्ट-क्लेश को हर लेते हैं।।

धन्य-धन्य हे पूज्य पिताश्री।
सदा आप ही नारायणश्री।।
वंदनीय पित का अभिनंदन।
मुझ में पितागंध का चंदन।।

करो पिता का नियमित वंदन।
निश्चित वंदन प्रिय सुखनंदन।।
सदा पिता  गुणगायन कर।
आदर्शों का नित पालन कर।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम

विधा-कविता
*विषय-बिखरता परिवार, सिमटता प्यार*

बिखरता परिवार सिमटता प्यार
इस पर चिंतन होना चाहिए।
खो रहे संस्कार क्यों आधुनिकता में,
इस पर भी मनन होना चाहिए।

आज शिक्षा केवल जीविका हेतु हो गयी,
समग्र विकास की धारा कहीं खो गयी।
शिक्षा में खो रही समग्रता लानी ही चाहिए।
बिखरता परिवार सिमटता प्यार
इस पर चिंतन होना चाहिए।

आज हम तकनीकी के कितने अधीन इतने हो गए,
माँ बाप बच्चे सामने बैठे हम एक डिबिया में खो गए,
तकनीकी के इस माया जाल से बाहर आना चाहिए,
बिखरता परिवार सिमटता प्यार
इस पर चिंतन होना चाहिए।

आज परिवार का मतलब माता पिता और संतान हो गए,
बाबा दादी चाचा चाची आधुनिकता जैसे रिश्ते खो गए,
हरपल घरघर इन मिटते रिश्तों का सबको ध्यान होना चाहिए,
बिखरता परिवार सिमटता प्यार
इस पर चिंतन होना चाहिए।
अभी भी समय है नवपीढ़ी को संस्कार दिखाओ,
केवल कहो नहीं खुद भी बड़ो का सम्मान कर के दिखाओ,
नवपीढ़ी को परिवार और रिश्तों का ज्ञान देना चाहिए।
बिखरता परिवार सिमटता प्यार
इस पर चिंतन होना चाहिए।
खो रहे संस्कार क्यों आधुनिकता में,
इस पर भी मनन होना चाहिए।

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम
तिलसहरी, कानपुर नगर
9935117487

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

शीर्षक ----पिता हमारे

रचना--

जीवन की पल प्रहार हमारे
पिता एक उम्मीद सवांरे।।
जीवन की राहों में होता कभी
निराश पिता एक उम्मीद नई राह
दिखाते।।
बचपन  से सपनों का संसार 
प्यार दिया पहचान दिया जीवन
अरमान दिखाते।।
उम्मीदों का आसमान में उम्मीद
पिता की जीवन के हर मोड़ पर
राह बताते।।
कंधों के झूले पर उनके बैठा
मुझे जन जन को बतलाते 
इतराते कुल का गौरव मान बताते।।
बचपन मे हाथ पकड़ कर चलना
सिखलाया जीवन के आंधेरों में पिता
एक उम्मीद के दीपक जैसे।।
कोई मुश्किल आ जाये जैसे
प्रत्यक्ष आ जाते जीवन की दुविधा
मुश्किल कस्ती को हस्ती हद ले जाते।।
सपनोँ क़ि चाहत अरमानो कि मैं दुनियां मेरे भाग्य भगवान् पिता भगवान हमारे मैं उनकी संतान।।
रखा  पहला कदम जब  धरती पर बजे ढोल मृदंग थाल उनके जीवन की खुशियो क़ी मैं मूल्यवान् सौगात।।     
बड़े शान से दुनियां को बतलाया मेरे कुल का दीपक चिराग कुल  मर्यादा महिमा का भविष्य वर्तमान।।                
मेरे सद कर्मो का परिणाम लाडला मेरी संतान मेरी उम्मीदों की दुनियां का प्रज्वालित मशाल मेरी संतान ।।    
शक्ति क्षमता  प्यार  परिवारिस  शिक्षा संस्कृत सांस्कार लाल पालन का शाश्वत संसार।।                          
संकल्पों का यज्ञ हमारा अपने खून पसीने की दूंगा आहुति मेरे मकसद मंज़िल का अभिमान मेरी संतान मैं पिता बगवान ।।
जीवन मे पिता एक उम्मीद अभिमान
जीवन यथार्थ उड़ान आसमान।। 

परमेश्वर सा परम् प्रताप पिता हमारे
मैं उनकी संतान।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

सुधीर श्रीवास्तव

ऐसा ही होगा
*************
ऐसा भी होगा
शायद किसी ने 
सोचा भी न होगा,
परिवार बिखर ही नहीं रहे
मोह,ममता भी जैसे मर रहे
संवेदनाएं जैसे 
दम तोड़ रही हैं
परिवारों में भी किसी को 
किसी की फिक्र ही नहीं है।
हर रिश्ता स्वार्थ पर 
जाकर ठहर रहा है,
माँ, बाप, बेटा ,बेटी, 
भाई, बहन में भी
स्वार्थ का रंग चढ़ रहा है।
किसी को किसी की जैसे
फिक्र ही नहीं रही,
स्वार्थ की हाँड़ी देखिए
सबके सिर पर है चढ़ी।
प्यार, दुलार, लगाव,ममता की
बात करना क्या सोचना भी
बेईमानी सा लगता है,
किसी की फिक्र, चिंता, भलाई
अब किसे किसकी पड़ी है।
अपने ही अपनों के लिए
दुश्मन बन रहे हैं,
रिश्ते नाते भी अब
औपचारिक हो रहे हैं।
बिखर रहे परिवार तो
प्यार तो बिखरेगा ही,
जब परिवार परिवार ही नहीं रहा
तो प्यार कहाँ होगा जी।
● सुधीर श्रीवास्तव
     गोण्डा, उ.प्र.
  8115285921
©मौलिक, स्वरचित

एस के कपूर श्री हंस

। पिता का हाथ,अंधकार*
*में उजाले   का    साथ है।।*
1
माँ स्नेह का    स्पर्श     तो
पिता धूप में      छाया  है।
माँ घर करती    देखभाल
तो पिता  लाता माया   है।।
माँ बाप  के      आजीवन
ऋणी हैं    हम  सब     ही।
इनसे ही   प्राप्त   हुई  हम
सब को           काया    है।।
2
माँ ममता    की मूरत    तो
जैसे पिता        साया    है।
माँ से सबने     ही    बहुत
प्यार दुलार        पाया  है।।
जीवन में      आती      है
जब   भी          कठिनाई।
पिता ने   साथी बन   कर
हाथ     बढ़ाया            है।।
3
माँ बाप    ऊँगली  पकड़
चलना        सिखाया   है।
बड़ा कर के       लिखना
पढ़ना         बताया    है।।
पिता से ही     जाना   है
कैसे   बनना     मजबूत।
बाजार से खिलौने    तो
पिता     ही  लाया     है।।
4
माँ खुला   अहाता     तो
पिता     जैसे    छत    है।
जमाने से     बचने    की
हर सीख    का खत   है।।
हम हैं संसार में      बस
माँ बाप की      बदौलत।
माता पिता से    मिलती
संस्कारों की    लत     है।।
5
माता पिता ही   समझाते
अपने पराये का     अंतर।
हमें बड़ा करने को करते
वह दोनों ही     हर जंतर।।
पिता का हाथ लगता  यूँ
जैसे अंधेरे   में   उजाला।
माता पिता की  सेवा  ही
जैसे   हर पूजन मंतर  है।।
*रचयिता।। एस के  कपूर*
*"श्री हंस"।।*
*।।बरेली।।*
मो ।।     9897071046
             8218685464

*विधा।।।।हाइकु।।*
1
पिता हमारे
संकट में रक्षक
ऐसे सहारे
2
पिताजी सख्त
घर    पालनहार
ऊँचा है  तख्त
3
पिता का साया
ये बाजार  अपना
मिले   ये  छाया
4
पिता    गरम
धूप में   छाँव जैसे
है भी   नरम
5
घर की धुरी
परिवार  मुखिया
हलवा पूरी
6
पिता जी माता
हमारे जन्मदाता
सब हो जाता
7
पिता साहसी
उत्साह का संचार
मिटे उदासी
8
पिता से धन
हो जीवन यापन
ऋणी ये तन
9
पिता कठोर
भीतर से कोमल
न ओर छोर
10
शिक्षा संस्कार
होते जब विमुख
खाते हैं मार
11
पिता का मान
न  करो अनादर
ये चारों धाम


*।।आजकल स्कूल की छुट्टी है।।*

आज   कल स्कूल की     छुट्टी   है।
बाहर जाने से     जैसे     कुट्टी   है।।
घर में ही खेलना कूदना उधम धमाल।
बहुत दिन से पतंग भी नहीं लूटी है।।

*आजकल  स्कूल  की  छुट्टी    है।।*

माँ कहती बार  बार   हाथ  धोने   को।
अब मना नहीं करती ज्यादा सोने को।।
दादा दादी नाना नानी साथ खेलता हूँ।
अब कोई झगड़ाओ समय नहीं रोने को।।

*आजकल  स्कूल   की    छुट्टी   है।।*

स्कूल की  पढ़ाई आनलाइन चल रही है।
गृह कार्य   की बात भी नहीं टल रही है।।
मम्मी पापा के काम में भी हाथ बटाता हूँ।
बाहर नहीं खेलने की  बात  खल रही है।।

*आजकल     स्कूल    की  छुट्टी है।।*

घर में रह कर खूब ड्राइंग पोस्टर बनायें हैं।
कैसे बचें कॅरोना से ये तरीके दिखायें हैं।।
परिणाम  भी आया और पास भी हो गये।
कॉमिक,कहानी,टीवी में सारेदिन बितायें हैं।।

*आजकल   स्कूल की  छुट्टी   है।।*

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।*
मो।।             9897071046
                    8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-4
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-4
कीन्ह प्रबेस कृष्न ब्रज-धामा।
बछरू-गोप सबहिं निज नामा।।
     सभ बछरू गे निज-निज साला।
     गए गोप निज गृहहिं निहाला।।
बँसुरी-तान सुनत सभ माई।
बिधिवत किसुनहिं गरे लगाईं।।
     लगीं करावन स्तन-पाना।
     अमरित दूधहिं जे चुचुवाना।।
प्रति-दिन क्रिया चलै यहिं भाँती।
किसुन कै लीला दिन अरु राती।।
    संध्या-काल लवटि घर आई।
    सभ मातुन्ह सुख देहिं कन्हाई।।
उपटन मीजि औरु नहलाई।
चंदन-लेप लगाइ-लगाई।।
     भूषन-बसन स्वच्छ पहिराई।
      होंहिं अनंदित ग्वालहिं माई।।
भौंहनि बीच लगाइ डिठौना।
लाड़-प्यार करि देइ खिलौना।।
     भोजन देइ सुतावहिं माता।
     लीला अद्भुत तोर बिधाता।।
ठीक अइसहीं ब्रज कै गइया।
दूध पियावहिं बच्छ-कन्हैया।।
    साँझ-सकारे पहिरे घुघुरू।
    दौरत आवैं किसुनहिं बछरू।।
चाटि जीभ तें नेह जतावैं।
दूध पियाइ परम सुख पावैं।।
     जदपि तिनहिं रह परम सनेहा।
     निज-निज सुतहिं बिनू कछु भेहा।।
पर नहिं किसुन जतावैं प्रेमा।
चाहिअ जस सुत-मातु सनेमा।।
    यावत बरस एक अस रहहीं।
    ब्रज महँ प्रेम-लता रह बढ़हीं।।
बालक-बछरू,माता-गाई।
बच्छ-सुतहिं बनि रहे कन्हाई।।
दोहा-एक बरस तक किसुन तहँ, रहे बच्छ बनि गोप।
         लीला सभें दिखावहीं, नेह-भाव चहुँ छोप।।
                    डॉ0हरि नाथ मिश्र।
                     9919446372

नूतन लाल साहू

पिता एक उम्मीद

एक ऐसा गीत जिसको
सृष्टि सारी गा रही है
जब था मेरा बचपन
चिंता मेरे पास नहीं आई
क्या खूबसूरत थी वो घड़ी
कालिमा तो दूर
चिंता की लकीर भी
पलक पर थी न छाई
क्योंकि पिता एक उम्मीद था
आंख से मस्ती झपकती
बात से मस्ती टपकती
थी हंसी ऐसी,जिसे सुन
बादलों ने भी शर्म खाई
दिन कट रहा था,ऐसे कि कोई
पिता की गोद से बढ़कर
स्वर्ग तो कुछ भी नही है
क्योंकि पिता एक उम्मीद था
सब कुछ प्यारा प्यारा लगता
साथ थी प्रकृति हमारी
सूरज चांद सितारे नभ के
महक रही थी,सभी दिशाएं
धन दौलत से भी बढ़कर
पिता का प्यार था
अनमोल खजाना
शब्दों से जड़े मोती
पिता का था दुलार
भूल नही पाया अभी तक
हंसी के वो पल
जब था मेरा बचपन
चिंता मेरे पास नहीं आई
क्योंकि पिता एक उम्मीद था

नूतन लाल साहू

मधु शंखधर स्वतंत्र

मधु के मधुमय मुक्तक

🌹🌹 *गंगा*🌹🌹

◆ हेमवती मंदाकिनी, गंगा जी का नाम।
गंगोत्री उद्गम हुआ, पुण्य सुसंस्कृति धाम।
ज्येष्ठ शुक्ल दशमी हुआ , माँ गंगा अवतार ,
तृप्ति मुक्ति शुभदायिनी , शरणागत निष्काम ।।

◆ पार्श्व शिखर नारायणी, पहुँची ये हरिद्वार  ।
देवधरा पर आ बसीं  , भक्ति मुक्ति का सार।
शिव नगरी वाराणसी, गंग विराजें मूल।
हर हर गंगे शुभ सदा , मातृ शक्ति विस्तार।।

◆ गंगा माँ शुभदायिनी, धर्म- कर्म की ज्योत।
पौराणिक गाथा कहे , रहे साधना प्रोत।
ब्रह्मपुत्र अरु सिन्धु शुभ , गोदावरी स्वरूप,
सुखद नदी संगम करीं, बनी भव्य नद स्रोत।।

◆ गंग दशहरा शुचि सतत् , निर्मल शुभ संदेश।
भवसागर से तारती, हरती मानव क्लेश।
जटा सदा शिव धारते, पूजनीय अवतार,
पावन गंगा वास से, शोभित भारत देश।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*20.06.2021*

मन्शा शुक्ला

जय माँ गंगे

पतित पावनी गंगा धारा।
जीवनदाती जग आधारा।।
जयति जयति हे गंगा मैया।
पार करो  माँ भव से  नैया।।

तप भगीरथ  किये अपारा।
ब्रह्म दियों तव सुरसरि धारा।।
  तीव्र  प्रवाह  चली   हरषाई।
शिव शंकर की जटा समाई।।

पुनि तप कियें भगीरथ भारी।
शिव प्रसन्न  होई सुख मानी।।
उतरी   धरा धाम   तव    गंगा।
संग भगीरथ   प्रमुदित अंगा।।

 मास वैषाख शुक्ल  सप्तमी।
दिवस अवतरण कहतें धर्मी।।
साठ लाख सागर सुत  तारा।
पाप विमोचनि हे  अघ हारा ।।

हर हर   गंगे जो नर  कहता।
पाप मोह तम कभी न फँसता।।
सुमिरत नाम होय अघ  नाशा।
उपजें हिय में  ज्ञान   प्रकाशा।।

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

सुधीर श्रीवास्तव

पिता
        ●●●●●●
अपनी खुशियाँ त्याग कर
अपना भाव खो दे
औलाद की खुशियों पर
खुद को वार दे
वो पिता है।
कभी हाथी कभी घोड़ा
कभी बच्चा बनकर
अपने आंसू पीता जो
वो पिता है।
दुःखी बच्चे न हों
इसलिए जो
अपनी हर व्यथा हर पीडा़ 
छुपा सहते हुए जीता
वो पिता है।
हर दर्द सहते हुए भी
औलाद संग खिलखिलाये
वो पिता है।
कभी न घबराने
अपने साथ होने का
वटवृक्ष की तरह साये का
जो अहसास कराये
वो पिता है।
                          :::::सुधीर श्रीवास्तव
                                   गोण्डा(उ.प्र.)
                             ©मौलिक, स्वरचित

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*पितृ-दिवस*
जीवन-दाता जनक है,जैसे ब्रह्मा सृष्टि।
करे पिता-सम्मान जो,उसकी अनुपम दृष्टि।।

पिता देव के तुल्य है,इसका हो सम्मान।
इसका ही अपमान तो,कुल का है अपमान।।

चाल-चलन,शिक्षा-हुनर,सब सुख जो संसार।
चाहे देना हर पिता,सह कर कष्ट अपार ।।

पिता रहे चाहे जहाँ, रखे बराबर ध्यान।
सुख-सुविधा परिवार की,करे सदा कल्याण।।

पिता-पुत्र,पुत्री-पिता,जग संबंध अनूप।
राजा दशरथ राम का,जनक-जानकी भूप।।

कभी तिरस्कृत मत करें,वृद्ध पिता को लोग।
बड़े भाग्य जग पितु मिले,बने सुखद संयोग।।

यही सनातन रीति है,पितु है देव समान।
पिता के कंधे पर रहे,कुल-उन्नति-उत्थान।।

पितृ-दिवस का है यही,बस उद्देश्य महान।
हर जन के हिय में बसे,पिता-भाव-सम्मान।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                  9919446372

साधना मिश्रा विंध्य

विषय  *पिताजी*

पिता हमारे जब से छूटे
बस मायका ही छूट गया।
होली दिवाली दूज राखी
 सब कुछ पीछे छूट गया।

बुढ़ापे की लाचारी में,
 चली चला की बेला है
बोल पिता ने संग छोड़ा 
मानो ईश्वर ने मुंह मोड़ा।

तड़प तड़प कर गुजरे वो दिन
जिम्मेदारियों ने घेरा था।
लाख चाहने पर भी मायके 
की दहलीज़ से नाता तोड़ा था।

नेह भरे दो हाथों को जब 
सिर पर रख देते थे।
जन्मों की सारी पीड़ा
बस पल भर में हर लेते थे।

गुरु मित्र बावर्ची बनकर
खुशियां बांटा करते थे।
खेल खेल में जीवन पथ का 
धर्म सिखाया करते थे।

सदा खुश रहो प्यारी बिटिया 
कहकर कटता फोन था।
ईश्वर तुल्य पिता छूट गए 
सारा जग अब मौन था।


साधना मिश्रा विंध्य
 लखनऊ उत्तर प्रदेश

रामकेश एम यादव

पिता!
उँगुली पकड़के चलना सिखाता है पिता,
छोटे से परिन्दे का गगन होता है पिता।
संघर्ष की आंधियों से वह लड़ -लड़कर,
अनुशासन में रहना सिखाता है पिता।
जब आता है वो मौसम मेले -ठेले का,
मनचाहा खिलौना भी देता है पिता। पढ़ाता-लिखाता वो सुलाता पेट पर,
हौसला औलाद का बढ़ाता है पिता।
हँसी और खुशी का तो है वो पिटारा,
सोने के जैसे आग में तपाता है पिता।
सूरज, चाँद, सितारों से भरा है गगन,
पर असली पहचान दिलाता है पिता।
बदलती हैं सारी ऋतुयें,मगर वो नहीं,
धूप-छाँव के दांव-पेंच से बचाता है पिता।
मधुव्रत, मधुरस से भरता तो है ही वो,
निःसर्ग को बचाना सिखाता है पिता।
सूखने नहीं देता उम्मीदों की नदी,
रोटी-कपड़ा-मकान बन जाता है पिता।
पितृ ऋण से उऋण पुत्र हो नहीं सकता,
रक्षा-कवच बनके खड़ा रहता है पिता।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

अतुल पाठक धैर्य

शीर्षक :- पापा

संघर्ष की आँधियों से कभी डरे नहीं 
हौंसलों की उड़ान हैं पापा

बच्चों की हर ख़्वाहिश हर ख़्वाब वो पूरा करते
हम बच्चों की शान हैं पापा

खून पसीना एक करके अपने बच्चों का भविष्य बनाते हैं
हम बच्चों को रहेगा सदा आप पर गुमान है पापा 

हम बच्चे आप बिन महज़ कतरा ही तो हैं 
महान तो वो शख्स हैं जिसकी हम संतान हैं पापा 

खुद का सुख-चैन सब त्याग कर 
हम बच्चों को जीवन में पारंगत बनाते
 ऐसे हमारे महान हैं पापा

@अतुल पाठक "धैर्य"



'रक्तदान है महादान'
_________________

रक्तदान से बढ़कर नहीं 
दूजा और कोई दान
रक्तदान है महादान.....

मरते इंसान में डालो जान
स्वार्थ को त्याग इंसानियत को दो मान 
रक्तदान है महादान.....

W.H.O का है अभियान
जागरूक बने हर इंसान
रक्तदान है महादान.....

रक्त को शुद्ध करता रक्तदान
जीवन को नवप्रभात दिखाता ज्ञान 
रक्तदान है महादान.....

ज़रूरतमंद के लिए बनो वरदान
मानवता की बनो पहचान 
रक्तदान है महादान.....

इंसान जब बचाए इंसान की जान
ज़िन्दादिली को मिलता सदा सम्मान
रक्तदान है महादान.....

नर सेवा नारायण सेवा
निभाएं अपना कर्तव्य महान
रक्तदान है महादान.....

नर को दो नव जीवनदान
समाज को दो अपना योगदान 
रक्तदान है महादान......
मौलिक/स्वरचित रचना 

~अतुल पाठक "धैर्य"
जनपद हाथरस
(उत्तर प्रदेश)
मोब-7253099710

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

.
                *पिता दिवस*
       
                    कविता
            *पिता एक उम्मीद*
                    ~~~~
         पिता एक उम्मीद भरी मिठास,
         हर समय जरूरत पड़ती है।
         अनुशासन की अखंड ज्योति वो,
         जीवन जीना सिखलाती है।।

         पिता एक उम्मीद से भरा रथ,
         संस्कार की अनुपम माला है।
         जीवन यापन भाग्य विधाता,
         इसलिए ईश्वर रखवाला है।।

         पिता एक उम्मीद का खजाना,
         कुबेर भंडार बन जाता है।
         अपनत्व की आन-बान-शान,
         जीवन भर प्यार लुटाता है।।

         पिता एक उम्मीद संस्कृतियों की,
         वट वृक्ष जैसी पावन छाया।
         मनभावन मजबूत हौसला,
         वो ही जाने उसकी माया।।

         समझदारी की पाठशाला,
         सरलतम राह दिखलाती है।
         पिता उम्मीद अपनेपन की,
         सत्यता का पाठ पढ़ाती है।।
         
       ©®
         रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...