नूतन लाल साहू

मैं राही हूं

मैं राही हूं
मुझे जाना है,भवसागर पार
कितना सुग्घर कितना प्यारा
मानुष देह मिला है
मुझे लड़ना है
वो भी स्वयं से
मैं राही हूं
मुझे जाना है, भवसागर पार
जो होता है डरपोक
वो कहता फिरता है
यहां हर मोड़ पर
दुश्मन खड़ा है
वो दुश्मन क्या
स्वयं का ही अहम है
मैं राही हूं
मुझे जाना है, भवसागर पार
आवेश में, न आना कभी
योग्यता,अपने ही लहू में है
अपनी योग्यता का
टेस्ट हमें लेना है
जब तक है जीवन
तब तक लड़ना है
मैं राही हूं
मुझे जाना है, भवसागर पार
स्वयं से जो लड़ा है
अभी तक,वही जीता है
जो दैव दैव आलसी पुकारे
उसे कही का नही छोड़ा है
मैं राही हूं
मुझे जाना है, भवसागर पार
कितना सुग्घर कितना प्यारा
मानुष देह मिला है
मुझे लड़ना है
वो भी स्वयं से
मैं राही हूं
मुझे जाना है, भवसागर पार

नूतन लाल साहू

डॉ0 निर्मला शर्मा

"  मनडे रो मीत  "

सात जनम रो साथी म्हारो, बाईसा रो वीर।
फेरा सात लिया जिन संग वा, बस्यो काळजै बीच।
जीवन रो आधार बण्यो जद, बंध्यो आपणो चीर।
मैं मरवण थे ढोला म्हारा, लिख दी संग तकदीर।
निरख-निरख इठलाऊँ देखूँ, थाने दर्पण बीच।
हिवड़े माय बसी थारी सूरत, नीको लागे मीत।

जीवन रो हर रंग सुहानो, लगे भँवर सा।
सब नाता सूं प्यारो लागे, छैल भँवर सा।
सब सूं प्यारी सब सूं न्यारी जोड़ी भँवर सा।
बादळ में ज्यों चमके चंदा चाँद कँवर सा।

डॉ0निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान

एस के कपूर श्री हंस

।तेरे मीठे बोल ही संबको याद*
*आयेंगें।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
चार दिन की    जिन्दगी   फिर 
अंधेरा     पाख    है।
फिर खत्म     कहानी      और 
बचेगा धुंआ राख है।।
अच्छे कर्मों से   ही    यादों  में
रहता    है   आदमी।
तेरे अच्छे   बोल   व्यवहार  से
ही बनती   साख है।।
2
कब किससे कैसे बोलना  यह
मानना बहुत   जरूरी है।
इस बुद्धि कौशल   कला    को
जानना बहुत  जरूरी है।।
शब्द तीर हैं कमान हैं    देते  हैं
घाव    गहरा        बहुत।
हर स्तिथी   को   सही      सही
पहचानना बहुत जरूरी है।।
3
साथ समय     समर्पण   दीजिए 
आप बदले में  यही पायेंगे।
जैसा बीज डालेंगें धरती में फल
वैसा उगा कर लायेंगे।।
सम्मान पाने को   सम्मान   देना
उतना ही   है    जरूरी।
बस तेरे   मीठे    बोल    ही सदा 
संबको    याद आयेंगें।।


*।।कॅरोना।दो ग़ज़ दूर रहे हर इंसान ।यह है दवा भी।है यह भी एक निदान।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
खुल  गया   लॉक   डाउन  पर
दो ग़ज़ दूर हो हर इंसान।
जान लीजिए   कि   यह      है
दवा भी ,यह है   निदान।।
बचें आप   बहुत   भीड  भाड़ 
कहीं भी धक्कामुक्की से।
इनका रास्ता   जाता  शमशान
कोऔर बचती नहीं जान।।
2
जान लीजिये जान भी  बचानी
और जहान भी  बनाना है।
बरतनी तो अभी भी  सावधानी
और कॅरोना भी  भगाना है।।
बस सरकार   ने   तो   इजाजत 
दे  दी पर   कॅरोना  ने नहीं।
हर समय हाथ धोना और मास्क
तो   जरूर  ही  लगाना है।।
3
प्रगति और  बचाव    चलेंगें  अब
तो दोंनों   ही    साथ साथ।
कॅरोना और   देश      बढ़ेगें  अब
दोंनों  ही  हाथों    में हाथ।।
कॅरोना से घबराना  नहीं   बल्कि
वैक्सीन से करना बचाव है।
बस याद रखें हम  को   बचायेगा
आंतरिक   शक्ति   प्रसाद।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।      9897071046
                    8218685474

कुमकुम सिंह

जोकर

जोकर का गम कौन जानता,
   औरों को वह अपने ऊपर ही हंसाता।

सदा मुस्कुराना काम है उसका,
मुस्कान के पीछे कितना दर्द यह कोई नहीं पहचानता।

कहना ब़ड़ा सरल है,
तु तो जोकर है बस जोकर ही रह जाएगा।

जोकर बन जाने दर्द उसका 
कभी तो पहचानो शक्ल उसका

बेगैरत से जिंदगी होती है ,
खूबसूरत शक्ल पर नकली हंसी होती है

अफसाने किस्से बन  के रह जाते हैं,
 अपने नाम होते हुए भी जोकर ही कहलाते हैं।

       कुमकुम सिंह

सुधीर श्रीवास्तव

वो जमाना 
***************
आज जब अपने 
पिताजी की उस जमाने की
बातें याद आती हैं,
तो सिर शर्म से झुक जाता है।
माँ बाप और अपने बड़ों से
आँख मिलाने में भी
डर लगता था,
उनकी किसी बात को
नकारने की बात सोचना भी
सपना लगता था।
घर में भी अपने बड़ों के 
बराबर बैठना सिर्फ़
सोचना भर था,
अपने लिए कुछ कहना भी
कहाँ हो पाता था।
बस चुपके से धीरे से
अपनी बात दादी, बड़ी माँ या माँ से
कहकर भी खिसकना पड़ता था।
रिश्तों के अनुरूप ही
सबका सम्मान था,
परंतु हर किसी के लिए
 हर किसी के मन
खुद से ज्यादा प्यार था।
उस समय दूश्वारियां भी
आज से बहुत ज्यादा थीं,
परंतु प्यार, लगाव, सबकी चिंता
हर किसी के ही मन में
हजार गुना ज्यादा थीं।
आज भी मुझे इसका अहसास है
क्योंकि मैंने भी ऐसा ही
काफी कुछ देखा है,
अपने बाप को बड़े बाप के सामने
सदा खड़े ही जो देखा है।
बच्चे जवान हो गये
मगर बड़े बाप से नजरें मिलाने 
बराबर बैठकर बात करने में भी
काँप जाता हाँड है,
बड़ी माँ ही अभी भी
हमारी सूत्रधार हैं।
हमारे बाप हमारे साथ नहीं हैं
पर हमने उनकी सीख को 
जिंदा कर रखा है,
परंतु सोचता हूँ आज को देखकर
तो ये सब मात्र किस्सा लगता है।
👉 सुधीर श्रीवास्तव
         गोण्डा, उ.प्र.
      8115285921
©मौलिक, स्वरचित

डॉ. कवि कुमार निर्मल

मन की गाँठ

योग गुरुओं का मेला है
योगी यह हुआ अकेला है
मंत्राधात् का अनवरत् रेला है
चक्र साधना बड़ा झमेला है
मयपन से छुटकारा कठीन,
योगमाया का यह सबेरा है

लिखता चिट्ठी प्रभुवर को
भवसागर तारणहार को
तेरा हीं करा धरा यह सब
आशा है तब गहा नेह को

घर में रहना पर प्यार कहाँ!
होटल सा लगता संसार यहाँ!
मोबाइल से चिपक सभी बैठे,
अपनों में है व्यापार कहाँ?

मन की गाँठ सुलझाना कठिन
पढ़ता कुछ और हो पाता प्रवीण
नूतन पृथ्वी बनाने की बात सही,
खोज रहे सब मिल कर यहाँ जमीन

डॉ. कवि कुमार निर्मल

चन्द्र मोहन पोद्दार

जनक नन्दिनी

"सीता कहती है जाना 
जहां स्वामी वही ठिकाना !
बिन पति मैं कैसे रहूंगी?
 एक पल भी जी ना सकूंगी !"

माता का मन घबराता
 बिन पुत्र नहीं रह पाता।
" मैं महल में नहीं रहूंगी
 तेरे संग ही वन को चलूंगी"

 दुविधा में राम पड़े थे 
क्या कहे ये सोच रहे थे 
दोनों जिद करती जाती
 राम को थी उलझाती।

 तब राम ने डर दिखलाया
 फिर वन के कष्ट बताया 
कुछ नीति नियम समझाया 
कुछ कटु वचन भी सुनाया।

" मेरा जाना कठिन करो ना
 असमंजस में रखो ना 
आदेश पिता का मिला है 
जल्दी पूरा करना है "

फिर माता को समझाया 
उसे पत्नी धर्म बताया-
"जहां पति रहे वहीं रहना 
पति को ही स्वामी समझना

 मां यदि तुम्हें है चलना
 आदेश पिता का लेना
 वरना धीरज रख लेना 
जिद और नहीं अब करना।"

 "हे सीते तुम भी मानो 
मेरी दुविधा को तो जानो 
वनवास सहज नहीं होता 
कंटक कभी जलज ना होता

 बड़े कष्ट मिलेंगे वन में 
नहीं सुख कोई जीवन में 
कभी हिंसक पशु मिलेंगे 
दानव पिशाच घेरेंगे !
 
फलहार ही करना होगा 
भूखे भी रहना होगा
 कांटों पर चलना होगा 
धरती पर सोना होगा ।

मौसम प्रतिकूल मिलेगा 
सेवा में कोई ना होगा 
हर काम स्वयं करना है 
बड़े संयम से रहना है ।"

सीता ने राम को टोका
"अब और न दें मुझे धोखा !
 अर्धांगिनी आपकी हूँ मैं
 वनवासिनी बनूंगी अब मैं।

 वनवास का कैसा डर है 
साधु संतों का घर है 
वन में भी सुख से रहेंगे 
जो आप साथ में होंगे।

 मछली बिन पानी कैसे ?
 बिन प्राण शरीर हो जैसे !
बस आपका प्यार है सच्चा
 सब नाता रिश्ता कच्चा।

 महलों में आग लगाऊं
 जो आपका साथ न पाऊं 
मुझे संग ले चलो स्वामी 
वन गमन की भर दो हामी।"

 सीता ने जिद ठाना है 
अब व्यर्थ ही समझाना है ।

चन्द्र मोहन पोद्दार
सचिव
रा क सं
दरभंगा जिला ईकाई
8228090556

नंदिनी लहेजा

फैशन

माना भारत देश हमारा बढ़ा रहा,
विकास की तरफ अपने कदम
हर क्षेत्र में स्वतः को पहचान दिलाता,
कह रहा 'हम न किसी से कम'
विकासशील से विकसित देश कहलाने,
 हम कर रहे अथक परिश्रम
परन्तु प्राचीन सभ्यता व् संस्कृति,
अपने भारत की शायद भूलते जा रहे हम
पाश्चात्य का प्रभाव पड़ा कुछ ऐसा मानव,
मद विलास के अंध में खोता जा रहा
भूल अपनी सभ्यता संस्कृति,
फैशन के लिए मतवाला सा हो रहा
हम यह ना कहते कि,
 फैशन के खिलाफ हम सारे हो जाये
पर तय करें अपने गरिमा की सीमा रेखा,
ताकि अश्लीलता से हम बच जाएँ

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक एवं  अप्रकाशित

डॉ० रामबली मिश्र

आल्हा छंद

आया बादल झूम रहा है,
     रिमझिम-रिमझिम की बौछार।
बादल बना प्रकृति का प्रेमी,
     मार रहा है खूब फ़ूहार।
बादल में उत्साह बहुत है,
     मानव के प्रति शिष्टाचार।
पवन देव से हाथ मिलाता,
      करता जीवों का सत्कार।
मचल रहे खुशियों से प्राणी,
     सबके शीतल सुखद विचार।
मौसम लगता बहुत सुहाना,
     मन में उठता प्रेम गुबार।
धराधाम का जल से स्वागत,
     करती बूँदें प्रीति प्रहार।
औषधीय पौधे उग आये,
बादल को करते स्वीकार।
धान रोपना अब संभव है,
     बादल का मानो उपकार।
रोम-रोम पुलकित अति हर्षित,
      मन अरु वदन बहुत मनहार।
ठंडी-ठंडी हवा बह रही,
     परम प्रसन्न हृदय का द्वार।
तरुवर की घन शाखाओं से,
     टपक रहा है नीर अपार।
मानसून प्रिय मधुर मनोरम,
     आह्लादक अति प्रिया बहार।
खिलखिलाय कर हँसते चेहरे,
     यह निसर्ग स्वर्णिम उपहार।
है उपकारी सदा वारिदल,
      यही सुमन का है आधार।
रिमझिम का आनंद उठाओ,
      मस्त जिंदगी रहे सवार।
कजली गा-गा खुश रहना है।
     भवसागर को करना पार।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुर
9838453801

सुधीर श्रीवास्तव

हाइकु
*****
आग
*****
बरसे आग
ऐसा लगता जैसे
जला ही देगी।
*****
कब बुझेगी
भूखे पेट की आग
राम ही जानें।
*****
अग्नि देवता
काम आते चूल्हे के
रोटी पकती।
*****
बिना विचारे
उपयोग करना
हाथ मलना।
*****
मृगतृष्णा सी
धधक रही ज्वाला
झुलसे तन।
*****
◆ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

मधु शंखधर स्वतंत्र

*गीत*
*उर्मिला की व्यथा*
------------------------------
मौसम देख बहुत अकुलाई , आज उर्मिला रानी।
कैसे बीते पिय बिन रैना , खुशियाँ आनी जानी।

मौसम बदला बरखा आई , झूमे तरुवर डाली।
पुष्प खिले बागों में देखे , खुश होता है माली।
भँवरे चूमें अधर पुष्प के, करें सदा मनमानी।
मौसम देख बहुत अकुलाई....।।

भाई का यह प्रेम तुम्हारा, मुझ पर पड़ता भारी।
सब बंधन तुम छोड़ गए हो , मैं  हूँ अति लाचारी।
नैना तुम बिन भीग रहे हैं, नीरस बरखा पानी।
मौसम देख बहुत अकुलाई.....।।

मुझे ब्याह कर गठबंधन कर, जनकपुरी से लाए।
राम गए तो सीता भी संग, तुम क्यों हो बिसराए।
भौतिक सुख ही खुशी नहीं है, यह कहते हैं ज्ञानी।
मौसम देख बहुत अकुलाई.....।।

चौदह वर्ष बितायूँ कैसे, कैसे रहूँ अकेली।
तुम बिन सूना- सूना आँगन, सूनी सकल हवेली।
चार बार यह मौसम बदले, स्थिर मेरी कहानी।
मौसम देख बहुत अकुलाई.....।।

जनकपुरी से अवध ले आए, उर में मुझे बसाए।
तुम कर्तव्य भ्रात का अपने, हिय से सदा निभाए।
पति रूपी दायित्व भूलकर, हमें करे बेगानी।
मौसम देख बहुत अकुलाई.....।।

राम सिया तो साथ चले थे, भरत मांडवी साया।
शत्रुघ्न श्रुतकीर्ति सतत ही, सुंदर साथ निभाया।
मैं उर्मिला वियोग बसाए, बीती सकल जवानी।
मौसम देख बहुत अकुलाई.....।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रतागराज*✒️
*22.06.2021*

डॉ० रामबली मिश्र

उल्लाला छंद

स्वाभिमान पहचान लो, यही सुखद अहसास है।
अपने में जीते रहो,अंतस ही आवास है।।

मन कारक को जान लो, मन संयम में ही लगे।
रहे शुभद मन भावना, सुंदर भाव सहज जगे।।

सबका नित सहयोग हो, कंधे से कंधा मिले।
विकृत मन के भाव की, चूल सतत हरदम हिले।।

उपकृत हो जीते रहो, सदा उपकारी बनना।
आओ सबके काम में, सुरभित बनकर गमकना।।

अपने मन को जीत कर, इंद्रजीत बनकर रहो।
बुद्धि-विवेकिनि शक्ति अरु, आत्म भाव बन सच कहो।।

सात समंदर पार हो, या अपना ही देश हो।
अतिशय शुभ संवाद का, मधु प्रियतम सन्देश हो।।

सुंदर भावों में बहा, जो भी बना सुजान वह।
सतत नियम अभ्यास से, मोहक बनकर नित्य बह।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

ममता रानी सिन्हा

🌹"हिन्द चरित्र निर्माण"🌹

हे भारत की पुत्रियों अब तुम जागो,
जय हिन्द का चरित्र निर्माण करो।
स्वंय की आत्मशक्ति को जागृत करो,
और तुम लक्ष्मीबाई का आह्वान करो,
हे भारत की पुत्रियों अब तुम जागो,
जय हिन्द का चरित्र निर्माण करो।

इस जीवन युद्ध के चक्रव्यूह में,
यदि सुयशमार्ग तुम्हे न मिल पाए,
गर खड़ा दुस्सासन चीरहरण को,
और श्रीकृष्ण न उपस्थिति दर्शाएं,
तो अंत करो वध करो निष्प्राण करो,
स्वंय की आत्मशक्ति को जागृत करो,
और तुम लक्ष्मीबाई का आह्वान करो,

हे भारत की पुत्रियों अब तुम जागो,
जय हिन्द का चरित्र निर्माण करो।

छैल छबीली मनु से बदल अब तुम,
स्वनिर्णीता मणिकर्णिका बन जाओ,
हे सुलक्ष्मी जया उठो स्वंय के भीतर,
अब तुम झाँसी की रानी को जगाओ,
राष्ट्रध्वज लेकर महादेव जयगाण करो,
स्वंय की आत्मशक्ति को जागृत करो,
और तुम लक्ष्मीबाई का आह्वान करो,

हे भारत की पुत्रियों अब तुम जागो,
जय हिन्द का चरित्र निर्माण करो।

विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्राचीन सभ्यता,
सम्पूर्ण वसुंधरा की ज्ञान प्रणेता,
सनातन संस्कृति का तुम ध्यान धरो,
अदम्य शौर्य प्रतिमूर्ति वीरबाला का,
हे रणविजया तुम अब प्रमाण करो,
स्वंय की आत्मशक्ति को जागृत करो,
और तुम लक्ष्मीबाई का आह्वान करो,

हे भारत की पुत्रियों अब तुम जागो,
जय हिन्द का चरित्र निर्माण करो।

तुम डरो नहीं अधर्मियों से अब,
तुम हारो नहीं दुष्कर्मियों से अब,
उठो और तलवारों से संहार करो,
तुम साक्षात कालिका कालरात्रि हो,
शत्रु भृकुटि पर घातक प्रहार करो,
स्वंय की आत्मशक्ति को जागृत करो,
और तुम लक्ष्मीबाई का आह्वान करो,

हे भारत की पुत्रियों अब तुम जागो,
जय हिन्द का चरित्र निर्माण करो।

तुम अबला नहीं तुम दुर्बला नहीं,
अब प्रत्यक्ष रणचण्डिनी बन जाओ,
अग्नि ज्वाला बन के गगन से बरसो,
शत्रु दुस्साहस खण्डिनी बन जाओ,
हो सौराष्ट्र हिन्दबाला अभिमान करो,
स्वंय की आत्मशक्ति को जागृत करो,
और तुम लक्ष्मीबाई का आह्वान करो,

हे भारत की पुत्रियों अब तुम जागो,
जय हिन्द का चरित्र निर्माण करो।

समाज के घाती ह्यूरोज डलहौजी,
नीच सिंधियाओं की पहचान करो,
सभ्यता संस्कृति के दीमक पकड़,
आस्तीन में छुपे सांपों को कुचल,
अंतगति को आश्रय शमशान करो,
स्वंय की आत्मशक्ति को जागृत करो,
और तुम लक्ष्मीबाई का आह्वान करो,

हे भारत की पुत्रियों अब तुम जागो,
जय हिन्द का चरित्र निर्माण करो।
🙏🙏
ममता रानी सिन्हा
तोपा, रामगढ़ (झारखण्ड, भारत)
(स्वरचित मौलिक रचना)

रामकेश एम यादव

बरखा रानी!

आयी फिर से बरखा रानी,
ये तो है ऋतुओं की रानी।
बाँटेगी सुख-दुःख फिर ये,
लिखेगी कोई नई कहानी।

भींग रहे हैं महल-झोपड़ी,
भींग रहे हैं जड़ -चेतन।
भींग रहे हैं पंख -पखेरू,
भीग रहा है अंतर्मन।

बुझा रहे हैं प्यास परिन्दे,
औ देख रहे हैं सपना।
जग में नहीं पराया कोई,
हर कोई है अपना।

बादल लेता सागर से पानी,
नदी -सरोवर भरता।
फूल -फूल औ कली -कली की,
सबकी पीड़ा हरता।

खेतों में फसलें सजती हैं,
देख कृषक मुस्काते।
घर -घर अन्न भरेंगे एक दिन,
सपनों से लद जाते।

परिश्रम से हर काम है संभव,
बादल ऐसा कहता।
जो करता कुदरत की सेवा,
वर अमरत्व का पाता।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

अमरनाथ सोनी अमर

बिषय- चिंता, दुख आत्म ग्लानि का कारण और निवारण! 


चिंता, दुख आवेग ह्रदय में, आत्म ग्लानि का मारा! 
चिडचिडा़ पन हरदम हमको,देता है अँधियारा!! 

इसी पशोपेश हूँ मैं, दुनिया दिखे खटाला! 
लगता है यह जग झूँठा है, पीलूँ अब हम प्याला!! 

इसका कारण है एक केवल, मन- मेधा कमजोरी! 
इस मन जब दवा मिले तो, मेधा मिले तिजोरी!! 

मै तो कहता हूँ मेरे प्यारे , है तरकीब बहुत सी! 
तन मन सुन्दर स्वच्छ करो तुम कर आराध्य प्रभू की!! 

महाकाव्य, साहित्य रसायन, उपन्यास है मंजन!                  इन सबका चिन्तन तुम करलो, होगें दुख का भंजन!! 

यह अनमोल दिया तन सुन्दर, रब ने तुझे बनाया! 
अच्छा कर्म करो इस जग में, जग हितार्थ को आया!! 

अमरनाथ सोनी "अमर "
9302340662

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत
*संदेश*
मोहब्बत का मतलब बताने चले हैं,
बुझे दीप को फिर जलाने चले हैं।
अँधेरा कहीं रह न जाए ज़मीं पे-
पुनः रश्मि रवि की उगाने चले हैं।।
      न जाने कहाँ खो गयी है मनुजता,
      सितम आज ढाती नज़र आती पशुता।
      समझ भ्रांतियों से हुई है प्रदूषित-
      उन्हीं भ्रांतियों को भगाने चले हैं।।
आज खिलने से पहले कली सोचती है,
कि दुनिया मुझे बेवजह नोचती  है।
खिलूँ ना खिलूँ डर ये रहता  हमेशा-
इसी डर को मन से मिटाने चले हैं।।
      माता-पिता,पुत्र-पुत्री के रिश्ते,
      इतने नहीं थे कभी पहले सस्ते।
      बढ़ी बेवजह जो हैं रिश्तों में दूरी-
       उन्हीं दूरियों को घटाने चले हैं।।
बगल देश से रोज मिलती है धमकी,
कुछ अपने भी हैं जिनसे बनती है उसकी।
नहीं  अच्छा  लगता  है  वर्ताव  ऐसा-
इसी भाव को हम  जताने चले  हैं।।
     राष्ट्र की शक्ति रहती निहित एकता में,
     निखरता चमन पुष्प की भिन्नता  में।
     यही दास्ताँ अपने चमने वतन की-
     तुम्हें,दुनिया वालों, सुनाने चले हैं।।
नहीं डालना अपनी गंदी नज़र तुम,
नहीं तो तुम्हें भेज देंगे  जहन्नुम।
हमारी है फितरत गले से  लगाना-
हसीं इस  अदा को लुटाने चले हैं।।
    मिले जल सभी को सदा स्वच्छ निर्मल,
    सदा  सर-तड़ागों  में  खिलता  कमल।
    प्रकृति-प्रेम से रहे  धरती  अघाई-
    गरीबों की बस्ती  बसाने  चले  हैं।।
बुझे दीप को फिर जलाने चले हैं।
पुनः रश्मि रवि की उगाने चले हैं।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

छप्पय छंद

ताना कभी न मार, काम यह अति घटिया है।
देना सबको स्नेह, सोच यह अति बढ़िया है।।
व्यंग्य वाण जो छोड़ता, करता वह व्यभिचार है।
सबके प्रति सम्मान ही, सुंदर शिष्टाचार है।।
आहत करना पाप है, मत अधर्म की नाव चढ़।
सबके सुख का ख्याल रख, प्राणि मात्र की ओर बढ़।।

विनिमय का सिद्धांत, अनोखा बहुत निराला।
जिसका जैसा कृत्य, उसे वैसा ही प्याला।।
प्याला में मधु रस रहे, काम ऐसा ही करना।
जी भर कर पीना सदा, मस्त बनकर नित चलना।।
मानवता की नींव पर, दिखे यह सारी धरती।
उत्तम पावन भाव से, दुखद -दरिद्रता मरती।।

हो सबका उत्थान, मनोकामना हो यही।
शिष्ट-सुजन का मेल,  है अनमोल रतन सही।।
सबके मन की भावना, का उत्तम सत्कार कर।
सबको पढ़ना सीख लो,मन में अपने भाव भर।।
सबका नित कल्याण कर, सुंदर सोच-विचार हो।
हरियाली हो सब जगह,सदा दिव्य व्यवहार हो।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

अनिल गर्ग

लघु दृष्टांत,,,

एक बार की बात है एक बहुत ही पुण्य व्यक्ति अपने परिवार सहित तीर्थ के लिए निकला .. कई कोस दूर जाने के बाद पूरे परिवार को प्यास लगने लगी , ज्येष्ठ का महीना था , आस पास कहीं पानी नहीं दिखाई पड़ रहा था ..  उसके बच्चे प्यास से ब्याकुल होने लगे .. समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे ... अपने साथ लेकर चलने वाला पानी भी समाप्त हो चुका था!!

एक समय ऐसा आया कि उसे भगवान से प्रार्थना करनी पड़ी कि हे प्रभु अब आप ही कुछ करो मालिक ... इतने में उसे कुछ दूर पर एक साधू तप करता हुआ नजर आया..  व्यक्ति ने उस साधू से जाकर अपनी समस्या बताई ... साधू बोले की यहाँ से एक कोस दूर उत्तर की दिशा में एक छोटी दरिया बहती है जाओ जाकर वहां से पानी की प्यास बुझा लो ...

साधू की बात सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुयी और उसने साधू को धन्यवाद बोला .. पत्नी एवं बच्चो की स्थिति नाजुक होने के कारण वहीं रुकने के लिया बोला और खुद पानी लेने चला गया.. 

जब वो दरिया से पानी लेकर लौट रहा था तो उसे रास्ते में पांच व्यक्ति मिले जो अत्यंत प्यासे थे .. पुण्य आत्मा को उन पांचो व्यक्तियों की प्यास देखि नहीं गयी और अपना सारा पानी उन प्यासों को पिला दिया .. जब वो दोबारा पानी लेकर आ रहा था तो पांच अन्य व्यक्ति मिले जो उसी तरह प्यासे थे ... पुण्य आत्मा ने फिर अपना सारा पानी उनको पिला दिया ...

यही घटना बार बार हो रही थी ... और काफी समय बीत जाने के बाद जब वो नहीं आया तो साधू उसकी तरफ चल पड़ा .... बार बार उसके इस पुण्य कार्य को देखकर साधू बोला - " हे पुण्य आत्मा तुम बार बार अपना बाल्टी भरकर दरिया से लाते हो और किसी प्यासे के लिए ख़ाली कर देते हो ... इससे तुम्हे क्या लाभ मिला ...? पुण्य आत्मा ने बोला मुझे क्या मिला ? या क्या नहीं मिला इसके बारें में मैंने कभी नहीं सोचा .. पर मैंने अपना स्वार्थ छोड़कर अपना धर्म निभाया ..

साधू बोला - " ऐसे धर्म निभाने से क्या फ़ायदा जब तुम्हारे  अपने बच्चे और परिवार ही जीवित ना बचे ? तुम अपना धर्म ऐसे भी निभा सकते थे जैसे मैंने निभाया ..

पुण्य आत्मा ने पूछा - " कैसे महाराज ? 
साधू बोला - " मैंने तुम्हे दरिया से पानी लाकर देने के बजाय दरिया का रास्ता ही बता दिया ... तुम्हे भी उन सभी प्यासों को दरिया का रास्ता बता देना चाहिए था ... ताकि तुम्हारी भी प्यास मिट जाये और अन्य प्यासे लोगो की भी ... फिर किसी को अपनी बाल्टी ख़ाली करने की जरुरत ही नहीं ..."  इतना कहकर साधू अंतर्ध्यान हो गया ...

पुण्य आत्मा को सब कुछ समझ आ गया की अपना पुण्य ख़ाली कर दुसरो को देने के बजाय , दुसरो को भी पुण्य अर्जित करने का रास्ता या*आज का प्रेरक प्रसंग*

*एक बहुत ज्ञानवर्धक सीख देने वाला शिक्षाप्रद लघु दृष्टांत,,,,,,*

एक बार की बात है एक बहुत ही पुण्य व्यक्ति अपने परिवार सहित तीर्थ के लिए निकला .. कई कोस दूर जाने के बाद पूरे परिवार को प्यास लगने लगी , ज्येष्ठ का महीना था , आस पास कहीं पानी नहीं दिखाई पड़ रहा था ..  उसके बच्चे प्यास से ब्याकुल होने लगे .. समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे ... अपने साथ लेकर चलने वाला पानी भी समाप्त हो चुका था!!

एक समय ऐसा आया कि उसे भगवान से प्रार्थना करनी पड़ी कि हे प्रभु अब आप ही कुछ करो मालिक ... इतने में उसे कुछ दूर पर एक साधू तप करता हुआ नजर आया..  व्यक्ति ने उस साधू से जाकर अपनी समस्या बताई ... साधू बोले की यहाँ से एक कोस दूर उत्तर की दिशा में एक छोटी दरिया बहती है जाओ जाकर वहां से पानी की प्यास बुझा लो ...

साधू की बात सुनकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुयी और उसने साधू को धन्यवाद बोला .. पत्नी एवं बच्चो की स्थिति नाजुक होने के कारण वहीं रुकने के लिया बोला और खुद पानी लेने चला गया.. 

जब वो दरिया से पानी लेकर लौट रहा था तो उसे रास्ते में पांच व्यक्ति मिले जो अत्यंत प्यासे थे .. पुण्य आत्मा को उन पांचो व्यक्तियों की प्यास देखि नहीं गयी और अपना सारा पानी उन प्यासों को पिला दिया .. जब वो दोबारा पानी लेकर आ रहा था तो पांच अन्य व्यक्ति मिले जो उसी तरह प्यासे थे ... पुण्य आत्मा ने फिर अपना सारा पानी उनको पिला दिया ...

यही घटना बार बार हो रही थी ... और काफी समय बीत जाने के बाद जब वो नहीं आया तो साधू उसकी तरफ चल पड़ा .... बार बार उसके इस पुण्य कार्य को देखकर साधू बोला - " हे पुण्य आत्मा तुम बार बार अपना बाल्टी भरकर दरिया से लाते हो और किसी प्यासे के लिए ख़ाली कर देते हो ... इससे तुम्हे क्या लाभ मिला ...? पुण्य आत्मा ने बोला मुझे क्या मिला ? या क्या नहीं मिला इसके बारें में मैंने कभी नहीं सोचा .. पर मैंने अपना स्वार्थ छोड़कर अपना धर्म निभाया ..

साधू बोला - " ऐसे धर्म निभाने से क्या फ़ायदा जब तुम्हारे  अपने बच्चे और परिवार ही जीवित ना बचे ? तुम अपना धर्म ऐसे भी निभा सकते थे जैसे मैंने निभाया ..

पुण्य आत्मा ने पूछा - " कैसे महाराज ? 
साधू बोला - " मैंने तुम्हे दरिया से पानी लाकर देने के बजाय दरिया का रास्ता ही बता दिया ... तुम्हे भी उन सभी प्यासों को दरिया का रास्ता बता देना चाहिए था ... ताकि तुम्हारी भी प्यास मिट जाये और अन्य प्यासे लोगो की भी ... फिर किसी को अपनी बाल्टी ख़ाली करने की जरुरत ही नहीं ..."  इतना कहकर साधू अंतर्ध्यान हो गया ...

पुण्य आत्मा को सब कुछ समझ आ गया की अपना पुण्य ख़ाली कर दुसरो को देने के बजाय , दुसरो को भी पुण्य अर्जित करने का रास्ता या विधि बताये ..

मित्रो - ये तत्व ज्ञान है ... अगर किसी के बारे में अच्छा सोचना है तो उसे उस परमात्मा से जोड़ दो ताकि उसे हमेशा के लिए लाभ मिले, उसे हमेशा के लिए लाभ मिले।
अनिल गर्ग, कानपुर

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-6
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
बरस-काल एक जब बीता।
ब्रह्मा आए ब्रजहिं अभीता।।
 लखतै सभ गोपिन्ह अरु बछरू।
खात-पियत रह उछरू-उछरू।।
    भए अचम्भित भरमि अपारा।
     लखहिं सबहिं वै बरम्बारा।।
किसुन कै माया समुझि न पावैं।
पुनि-पुनि निज माया सुधि लावैं।।
     असली-नकली-भेद न समुझहिं।
      निज करनी सुधि कइ-कइ सकुचहिं।।
जदपि अजन्मा ब्रह्मा आहीं।
किसुनहिं माया महँ भरमाहीं।।
     भरी निसा-तम कुहरा नाईं।
     जोति जुगुनु नहिं दिवा लखाईं।।
वैसै छुद्र पुरुष कै माया।
कबहुँ न महापुरुष भरमाया।।
    तेहि अवसर तब ब्रह्मा लखऊ।
बछरू-गोप कृष्न-छबि धरऊ।।
   सबहिं के सबहिं पितम्बरधारी।
   सजलइ जलद स्याम बनवारी।।
चक्रइ-संख,गदा अरु पद्मा।
होइ चतुर्भुज बिधिहिं सुधर्मा।।
    सिर पै मुकुट,कान महँ कुंडल।
    पहिनि हार बनमाला भल-भल।।
बछस्थल पै रेखा सुबरन।
बाजूबंद बाहँ अरु कंगन।।
   चरन कड़ा,नूपुर बड़ सोहै।
    कमर-करधनी मुनरी मोहै।।
नख-सिख कोमल अंगहिं सबहीं।
तुलसी माला धारन रहहीं।।
     चितवन तिनहिं नैन रतनारे।
     मधु मुस्कान अधर दुइ धारे।।
दोहा-लखि के ब्रह्मा दूसरइ,अचरज ब्रह्मा होय।
        नाचत-गावत अपर जे,पूजहिं देवहिं सोय।।
       अणिमा-महिमा तें घिरे,बिद्या-माया-सिद्ध।
        महा तत्व चौबीस लइ, ब्रह्मा दूजा बिद्ध।
                     डॉ0हरि नाथ मिश्र
                      9919446372

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

1222-1222-1222-1222
हुई है जब से हासिल आपकी यह रहबरी हमको
अँधेरी राह में मिलने लगी है रौशनी हमको

हुआ इकरार जिस दिन से यहाँ अपनी मुहब्बत का 
निगाहों में तुम्हारी दिख रही है अब ख़ुशी हमको

न होते इस तरह मजबूर तो हम और क्या करते
बड़ी क़ातिल नज़र से देखता वो रोज़ ही हमको

हमें इक दूसरे के बिन नहीं है चैन अब हासिल 
कहाँ ले आई है दो पल की देखो दिल्लगी हमको

सितारे चाँद लाने की ये ज़िद छोड़ो भी बच्चों सी 
तुम्हारी बात पर आने लगी है अब हँसी हमको

रवायत तोड़ कर हमने नई क़ायम मिसालें कीं
रखेगी ज़हन में अपने हमेशा यह सदी हमको

थकन महसूस होती ही नहीं हमको कभी *साग़र*
तुम्हारे लम्स से मिलती है जो यह ताज़गी हमको

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
21/6/2021
रहबरी-मार्गदर्शन
रवायत-परम्परा ,रीति-रिवाज़

नूतन लाल साहू

सब कुछ बदल रहा है

धन, पद और वैभव
सब कुछ जल्दी से
पा लेने को इंसान
कितने अधीर रहता है
समय आता है समय पर
मनुष्य के मन में संतोष कहां है
आत्मा जो कभी
भीतर बसती थी,हमारे
लुप्त हो चली है
अपनी निजता से,स्वार्थ से
पास बैठे, दीन दुखी का दर्द
कचोटता नहीं है
उसे अनदेखा कर
अपना रास्ता नाप लेता है
ये कैसी विडंबना है
समय आता है समय पर
मनुष्य के मन में संतोष कहां है
दूर से आती एक आवाज
दे रही है दस्तक,मेरे कानों में
कह रही है वह मुझसे
क्या ये वही इंसान हैं
जो सुर दुर्लभ मानव तन पाया है
जो प्यार करता है,सिर्फ और सिर्फ
अपनी निजता से, स्वार्थ से
दफन कर दिया है,इंसानियत
स्वार्थ की कुदाल से
समय आता है समय पर
मनुष्य के मन में संतोष कहां है
संवेदना,सहृदयता
सब कुछ खो रहें है
जन्मदाता अपने माता पिता को ही
अब भूल रहें है
प्रश्न उठ रहा है
मानवता का लहू
कब बहेगा, हममें
समय आता है समय पर
मनुष्य के मन में संतोष कहां है

नूतन लाल साहू

प्रज्ञा जैमिनी स्वर्णिमा

योग

संयम,संकल्प,सहनशक्ति का नाम है योग
नियमित योग से काया रहती है निरोग

है यह प्राचीन भारतीय संस्कृति व कला का प्रतीक
ऋषि-मुनियों ने दी प्रकृति-योग के सामंजस्य की सीख

योग शरीर को बलिष्ठ बनाने में है मददगार
क्षय कर देता तन-मन का अनचीन्हा क्षार

यह बनाता है शरीर को स्वस्थ व लचीला
नियमित योग से शरीर बनता है बांका व सजीला

  जानते हैं न,  योग करने में दमड़ी नहीं है लगता
तो फिर योग  कीजिए व बढ़ाइएअपनी प्रतिरोधक क्षमता

----प्रज्ञा जैमिनी 'स्वर्णिमा',दिल्ली

डॉ०रामबली मिश्र

योग दिवस
          (छप्पय छंद)

करते रहना योग, जिस्म तब स्वस्थ रहेगा।
रख शरीर पर ध्यान, स्वस्थ तन काम करेगा।।
लो शरीर से काम, कभी मत आलस करना।
बहे पसीना नित्य, रोग काबू में रखना।।
चित्तवृत्ति को रोक कर,प्राणायाम सदा करो ।
है कपालभाँती सुखद,इसे ध्यान में नित धरो।।

होये योगाभ्यास, योग से सबकुछ सधता।
होता मन में हर्ष, स्वस्थ मन दुख को हरता।।
रहे योग ही ध्येय,योग ही मंगलकारी।
बहे योग की धार, चले बनने हितकारी।।
योगी  का जीवन सुखद, योग को करते रहना।
मालामाल बनो सतत, स्वस्थ जीवन को रखना।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

जयप्रकाश अग्रवाल काठमांडू नेपाल

योग और योग दिवस

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस है आज,
संकल्प लें, करें सब नियमित योग ।
हो चुका प्रमाणित, वैज्ञानिक है यह,
मिटते इससे तन-मन के रोग ।

उपचार मात्र नहीं रोगों का,
योग मिटाये रोगों का कारण ।
फिर भी यदि हो भी जाये तो,
है करता योग उनका निवारण ।

पाँच मिनट कपाल भाती,
पाँच मिनट अनुलोम-विलोम ।
करो भस्त्रिका -उज्जयी भी,
उद्गीत तो बस ओम-ओम ।

प्राणायाम के साथ साथ ही,
करो तन पसंद आसन ।
होगा विकसित इससे,
तन में-मन में अनुशासन ।

पतंजलि ने सिखलाये,
हैं कई सूक्ष्म व्यायाम ।
इनको नित करोगे तो,
ना डाक्टर का कोई काम ।

हज़ारों वर्षों की परंपरा,
ऋषि-मुनियों से मिला योग 
प्राणायाम-योग का लाभ लें,
हम दुनिया के सारे लोग ।

यही संदेश देता यह दिन,
नीरोगी रहें - नीरोगी काया ।
आनन्द- स्फूर्ति-समृद्धि रहेगी,
भोग सकेंगे खुलकर माया ।

संकल्प लें, करें नियमित योग,
मिटते इससे तन-मन के सारे रोग ।


जयप्रकाश अग्रवाल काठमांडू नेपाल

रवि रश्मि अनुभूति

   मुकुंद / हरिलाल छंद 
 *********************
परिचय ----  चतुर्दशाक्षरावृत्ति
गण संयोजन  ---   तभजजगल 
यति --  8 , 6 
221    211    12 , 1    121    21 

आते नहीं किशन ही , लो विचार ।
साँसों बसे तुम सुनो , अब उबार ।।
मीरा बनी फिर रही , कर पुकार ।
रिश्ता अभी बन गया , मत विसार ।।

ये ही कहूँ किशन मैं , बात मान ।
चरणों पड़ी अब प्रभो , रखो ध्यान ।।
आयी अभी शरण मैं , हृदय जान ।
सेवा करूँ अब सदा , दे न दान ।।

(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...