डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-1
                *गीता-सार*  -डॉ0हरि नाथ मिश्र
                (पहला अध्याय)
मोहिं बतावउ संजय तुमहीं।
कुरुक्षेत्र मा का भय अबहीं।।
   कीन्हेंयु का सुत सकल हमारे।
   पांडु-सुतन्ह सँग जुद्ध मँझारे।।
अस धृतराष्ट्र प्रस्न जब कीन्हा।
तासु उतर संजय तब दीन्हा।।
   संजय कह सुन हे महराजा।
   पांडव-सैन्य ब्यूह जस साजा।
लखतय जाहि कहेउ दुर्जोधन।
सुनहु द्रोण गुरु मम संबोधन।
   द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न तुम्हारो।
   बृहदइ सैन्य ब्यूह रचि डारो।
पांडव जन कै सेना भारी।
लखहु हे गुरुवर नैन उघारी।।
   सात्यकि अरु बिराट महबीरा।
   अर्जुन-भीम धनुर्धर धीरा।।
धृष्टकेतु-पुरुजित-कसिराजा।
चेकितान-सैब्य जहँ छाजा।।
     परम निपुन जुधि मा उत्तमोजा।
     रन-भुइँ अहहिं कुसल कुंतिभोजा।।
संग सुभद्रा-सुत अभिमन्यू।
पाँचवु पुत्र द्रोपदी धन्यू।।
   ये सब अहहिं परम बलवाना।
   जुधि-बिद्या अरु कला-निधाना।।
निरखहु इनहिं औ निरखहु मोरी।
बरनन जासु करहुँ कर जोरी।।
   दोहा-हे द्विज उत्तम गुरु सुनहु,जे कछु कहहुँ मैं अब।
          मम सेनापति,सेन-गति,जे कछु तिन्ह करतब।।
स्वयं आपु औ भीष्मपितामह।
कृपाचार गुरु बिजयी जुधि रह।।
     कर्ण-बिकर्णय-अस्वत्थामा।
     भूरिश्रवा बीर बलधामा।।
बहु-बहु सूर-बीर बलसाली।
अस्त्र-सस्त्र सजि सेन निराली।।
    अहहि मोर सेना अति कुसला।
    जुद्ध-कला बड़ निपुनइ सकला।।
भीष्मपितामह रच्छित सेना।
भीमसेन जेहि जीत सके ना।।
    अस्तु,सभें जन रहि निज स्थल।
    भीष्मपितामह रच्छहु हर-पल।।
सुनि दुर्जोधन कै अस बचना।
भीष्म कीन्ह निज संख गर्जना।।
     ढोल-मृदंगय-संख-नगारा।
     कीन्ह नृसिंगा जुधि-ललकारा।।
धवल अस्व-रथ चढ़ि ध्वनि कीन्हा
अर्जुन-कृष्न संख कर लीन्हा।।
    पांचजन्य रह संख किसुन कै।
    देवयिदत्त संख अर्जुन कै।।
संख पौंड्र भिमसेन बजायो।
रन-भुइँ संख-नाद गम्भीरायो।।
            डॉ0हरि नाथ मिश्र
             9919446372       क्रमशः.......

एस के कपूर श्री हंस

*।।ग़ज़ल।।संख्या 115 ।।*
*।।काफ़िया, आन।।रदीफ़, में।।*
*।।पूरी ग़ज़ल मतलों में।।*
1   *मतला*
मत ढूंढ तू खुशी दूर   आसमान में।
बसी तेरे अंदर झाँक   गिरेबान  में।।
2    *मतला*
फैली हर कोने कोने तेरे  मकान में।
बात तो कर   सबसे    खानदान में।।
3   *मतला*
मिलती नहीं   खुशी सौ  सामान  में।
मिल बांटकर खाओ हर पकवान में।।
4    *मतला*
हर जर्रे जर्रे में छिपी  इसी जहान   में।
जरूरी नहीं मिले बस ऐशो आराम में।।
5    *मतला*
छिपी है   खुशी तेरी   ही   दास्तान  में।
बस जरा मिठास घोलअपनी जुबान में।।
6   *मतला*
मिलती है खुशी हर चढ़ती पायदान में।
मत ग़मज़दा हो तू   हर    नुकसान में।।
7    *मतला*
कोई बात   अच्छी रहती हर पैगाम में।
नाराज़गी जरूरी नहीं हर हुक्मरान में।।
8    *मतला*
कभी कभी हवा  खोरी खुले मैदान में।
मिलेगी तुझको खुशी ऐसे भी वीरान में।।
9    *मतला*
कभी मिलेगी न खुशी गलत अरमान में।
सच्चे मन से मांगो मिलेगी भगवान में।।
10    *मतला*
नफरतों को  थूक दो तुम पीक दान  में।
खुशी देगी दिखाई तुम्हें हर मेहरबान  में।।
11    *मतला* 
महसूस करो खुशी मिलती देकर दान में।
देखो नज़र से मिलेगी  हर   मेहमान में।।
12     *मतला*
सोच से आती खुशी हो कश्ती तूफान में।
जरूरी नहीं कि जाना पड़े दूर जापान में।।
13      *मतला*
बात है टिकती कैसे रिश्ते दरमियान में।
खूब खुशी मिलेगी बन कर मेजबान में।।
14     *मतला*
जरा बन कर तो  देखो तुम कद्रदान में।
मिलेगी खुशी   तुमको   हर   इंसान में।।
15       *मक़्ता*
*हंस* बात आकर रुकती जीने के हुनर पर।
जान लो खुशी गम रह सकते एक म्यान में।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस'।।बरेली।।*
मो 9897071046/8218685464

नूतन लाल साहू

आशा की किरणें

मंजिल मिलें या ना मिलें
मुश्किलें हिलें या ना हिलें
मगर कदम थमें नही
तभी आ सकती है
जीवन में नया सवेरा
दुःख से जीवन बीता फिर भी
शेष रहती है कुछ आशाएं
जीवन की अंतिम घड़ियों में भी
यदि प्रभु श्री राम जी का नाम आ जावे
यही विश्वास मनुष्य को
सफल राही,बना सकता है
सुंदर और असुंदर जग में
उम्मीद छोड़कर किसने जिया है
अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहकर
भूल तुम सुधार लों
एक ना एक दिन
फूलों सा खिलेगा,तेरा संसार
ये तुम मान लो
कौन तुम हो 
ये पहले पहचान लें
आज भी सीमा रहित आकाश
आकर्षण नियंत्रण से भरा है
माया मोह के चक्कर में
किसने भवसागर पार किया है
ईश्वर का अंश हो तुम
ये जान लें
मंजिल मिलें या ना मिलें
मुश्किलें हिलें या ना हिलें
मगर कदम थमें नही
तभी आ सकती है
जीवन में नया सवेरा

नूतन लाल साहू

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलियां*
*वीणापाणी*
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◆ वीणापाणी हंस पर, आती जीवन द्वार।
भक्ति निहित मन साधना, करती जन उद्धार।
करती जन उद्धार, ह्रदय में वास मनोहर।
सतत् साधना मूल, ज्ञान हिय श्रेष्ठ धरोहर।
कह स्वतंत्र यह बात, पूजनीय हैं ब्रह्माणी।
ह्रदय नमन शत बार, ज्ञान दो वीणापाणी।।

◆ मातु शारदा कर कृपा, बुद्धि करो विस्तार।
ज्ञान चक्षु शोभा सहित, प्राप्ति सुखद आधार।
प्राप्ति सुखद आधार, नहीं भव बंधन अपना।
झंकृत वीणा तार, मंत्र शुभ वाणी जपना।
कह स्वतंत्र यह बात, ज्ञान रूपी कल्याणी।
अक्षर बसती मूल, जहाँ बस वीणापाणी।

◆ मातु शारदा ज्ञान से, आम व्यक्ति हो खास।
मूर्ख ज्ञान की प्राप्ति से, बनता कालीदास।
बनता कालीदास , अलख नव ज्योति जलाता।
जागृत सुप्त सुजान, गंग नद धार बहाता।
कह स्वतंत्र यह बात, धैर्य संयम निर्वाणी।
शोभा सुखद  विचार, मूल हिय वीणापाणी।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*

मन्शा शुक्ला

परम पावन मंच का सादर नमन


प्रेम नेह जिनके मन माही।
उपजे तह विश्वास सदा ही।।

करो काज धर  मन विश्वासा
पूरण करे प्रभु सब आशा।।

गुरु चरणन सेवहुँ चितलायी।
धर विश्वास  हृदयमें  भाई।

है पुनीत  कर्म  सेवकाई।
अरज  सुनेगें  श्री  रघुराई।।
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
मन्शा शुक्ला

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत(16/14)

जब विवेक से दूर रहे मन-
ज्ञान कहाँ से पाओगे??
प्रभु-गुण को पहचानो पहले-
तब जग को समझाओगे।।

जो हैं धीर-वीर इस जग में,
सबमें सदा विवेक रहे।
भले कष्ट वे पाते पल-पल,
वे विवेक से सदा सहे।
सहन-शक्ति का जब अभाव है-
मान कहाँ से लाओगे??
       ज्ञान कहाँ से पाओगे??

जी लो जब तक जीना जग में,
बिना तजे इस धीरज को।
जब तक सर में नीर टिका है,
देख सकोगे नीरज को।
नहीं अगर जल-सर का संगम-
कैसे कमल खिलाओगे??
     ज्ञान कहाँ से पाओगे??

है विवेक रक्षक जीवन का,
यही करे पहरेदारी।
धीरज और विवेक उभय की,
रहे यही जिम्मेदारी।
हुआ अलग जब एक किसी से-
कैसे जान बचाओगे??
     ज्ञान कहाँ से पाओगे??

जीवन में जब विकट परिस्थिति,
बन बादल छा जाती है।
पूनम की उजली रातों में,
पूर्ण अमावस आती है।
निज विवेक से कर संरक्षण-
सुख-प्रकाश फैलाओगे।।
      ज्ञान कहाँ से पाओगे??

              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                  9919446372

सुधीर श्रीवास्तव

कसम
*****
अब तो कसम भी 
औपचारिक हो गये हैं,
अपनी जरूरतों के हिसाब से
कसम भी ढल रहे हैं।
लोगों का क्या
लोग तो सौ सौ कसमें खा रहे हैं,
जो कसमों का मान नहीं रख सकते
वे आगे बढ़कर मात्र औपचारिकता में
कसमों की भी कसम खा रहे हैं।
कसमों का महत्व भी
अब मिट रहा है,
गिरगिट से भी तेज
कसम का रंग बदल रहा है।
किसी की कसम पर भरोसा 
रहा नहीं अब तो,
कसम की देखिये आप भी जरा
आदमी उसे भी 
अपने साँचे में ढाले दे रहा है।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

रामकेश एम यादव

दुनिया ये कहती!

सागर बनाकर तब बादल उड़ाया,
हरे - हरे वृक्षों से धरा सजाया।
कण-कण में व्याप्त है उसकी परछाई,
बात-बात में देते उसकी दुहाई।
गाते परिन्दे  जिसका गुणगान हैं,
दुनिया ये कहती वही भगवान है।

घुमावदार पहाड़ों को किसने बनाया,
ग्लेशियर से उसको किसने सजाया।
जड़ी-बूटियों से भरा क्यों खजाना,
आसमान इतना बड़ा क्यों वो ताना।
सुबह-शाम होती आरती-अजान है,
दुनिया ये कहती वही भगवान है।

क्यों लोग आपस में खून हैं बहाते,
बम,एटम-बम का दंभ भी दिखाते।
खिलती है जुही तो खिलने दे उसे,
गमकती है दुनिया गमकने दे उसे।
उसके करम से ये जिन्दा जहान है,
दुनिया ये कहती वही भगवान है।

रंग -रूप, आकर वैसा नहीं है,
जो कोई सोचता है,वैसा नहीं है।
सूरज -चंदा है उसका खिलौना,
ज्ञान उसके आगे हमारा है बौना।
पूरी क़ायनात का आलाकमान है,
दुनिया ये कहती वही भगवान है।

जल,जंगल,जमीन अब हम बचाएँ,
खुद अपने हाथों से वसुंधरा सजाएँ।
दूषित करे न कोई आबो-हवा को,
खाना पड़े न उस महंगी दवा को।
पर्यावरण उसी का वरदान है,
दुनिया ये कहती वही भगवान है।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

डॉ रश्मि शुक्ला

संवेदनाएँ

आओ! सुषुप्त देवत्व को,हम सब जगाएँ
संवेदनाएँ ,चितन,देवो सा अपना हम बनाएँ।

सब प्राणियों में मानव ही श्रेष्ठतम किस लिए है,
क्योंकि संवेदन की भी वह संपदा लिए है।

क्योंकि संवेदनाएँ ही तो हमारे विचार जनक हैं,
बातें वही मनुज में व्यवहार की चमक हैं।

संवेदनाएँ-चरित्र-पहीए दोनों ही संतुलित हों,
जीवन का रथ न बहके,पथ भ्रष्ट न पतित हो।

ऐसे ही 'लोकसेवी' व्यक्तित्व निखरता है,
दुर्लभ मनुष्य हीजीवन, यूँ ही सँवरता है।

इस हेतु श्रेष्ठ संवेदनाएँ करते रहें सदा ही,
'सर्वे भवन्तु सुखिनः ' का मंत्र सर्वदा ही।

संवेदनशील का अभाव मानवता होता है,
विद्रूपता, विषमता का खेद वहाँ सदैव होता है।

डॉक्टर रश्मि शुक्ला 
प्रयागराज

डॉ०रामबली मिश्र

शिवदर्शन (उल्लाला छंद)

शिवदर्शन को नित्य कर,शिव व्यवहार पढ़ो-लिखो।
शिव संकल्प करो सदा,शिव के सदृश ही दिखो।।

सबके हित में मन लगे,सबका नित उपकार कर।
करो सभी से बात प्रिय, चल मधुराकृति रूप धर।।

दूषित भावों से बचो, उर पावन करते रहो।
विकृतियाँ मरती रहें, शुद्ध वायु में नित बहो।।

सबका दुख अपना समझ, संवेदना सदा रहे।
नेक बने चलते रहो,सात्विक भाव सतत बहे।।

सबके प्रति कल्याण का, जहाँ दिखता कीर्तन है।
हर्षण संघर्षण बिना,मधुर रहता    दर्शन है।।

आदि देव शिव को जपो, शिव ही परम विराट नित।
सकल सृष्टि के ईश शिव,चिंतन करते जगत हित।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

अमरनाथ सोनी अमर

दोहा- बचपन! 
                                           जब तक बचपन में रहे, खाते थे बहुबार! 
जिद्द बहुत करते रहे, मांग बहुत थी यार!! 1!! 

पूरा करते मातु- पितु, बचपन खुशी अपार! 
मातु- पिता के गले मिल, बहुत खेलते यार!!2!! 

जो देखे मन भा गया, बचपन था दिलदार! 
 पिता  परिस्थिति नहिं पता, उन पर कितना भार!!3!! 

बचपन, युवा चला गया, आया पचपन मार! 
बचपन जैसी आदतें, मन में भरी हजार!! 4!! 

जीभ नहीं मानें मेरी, जो देखे मन भाय!                              बचपन जैसी आदतें, मन मेरे अकुलाय!! 5!! 

जिद करते परिवार से,मन  बचपन  अवधूत! 
खान- पान अरु वस्त्र भी, करे ब्यवस्था पूत!! 6!! 

अमरनाथ सोनी "अमर "
9302340662

कुमकुम सिंह

जमाने से इतना मिले दर्द गहरा ,
छुपाना है मुश्किल 
लगे  उस पर पहरा।
 कहाँ से मैं ‌ लाऊँ बता इश्क का इल्म,
 यहाँ जख्म ही जख्म है बस भरा।
 सोचा सुकूनों की हो जिंदगी कुछ ,
यहाँ मोड़ पर दर्द दिखता  घनेरा।
               बस्ती है खाली सुकूनों का संकट,
              नहीं  इश्क वालों का दिखता बसेरा।
                यहाँ प्रेमियों की कमी है  धरा पर ,
                यहाँ नफरतों का बस है उगता सबेरा।
कहाँ से मैं लाऊँ श्री राधा की प्रतिमा ,
कहाँ से मैं कान्हा की वंशी का फेरा।
कहाँ से मैं लाऊँ श्री मीरा सी त्यागी,
जहाँ काम दोषों का है ना जखीरा।
                   कभी प्रेम के थे पुजारी यहाँ पर,
                    कभी प्रेमियों के था मस्तक पर शेहरा ।
                   नहीं प्रेम की मूर्तियाँ अब हैं दिखतीं,
 उदासीन दिखता है प्रेमी का चेहरा।।
प्रेम का अर्थ निस्वार्थ होता है  समझो,
जहाँ स्वार्थ होता वहाँ प्रेम बहरा।
करते सभी प्रेम की बात केवल,
चलते बहुत दाव भीतर से गहरा।

          कुमकुम सिंह

निशा अतुल्य

शख़्सियत

शानदार शख़्सियत बन जाते हो
जब करते अच्छे काम
नाम जग में होता रोशन
पाते हो सम्मान ।

डरना नहीं मुश्किलों से
बढ़ते ही जाना मन
मंजिल स्वयं पा जाओगे
नहीं रहेगा द्वंद।

रहना सदा बेबाक तू
लिखना नई तकदीर
परवाज़ भरना खोल पँख
बनाना एक तदबीर ।

बन कर नदी बहते रहो
करना पर उपकार
नाम सदा जग में रहे 
जीवन अपरम्पार ।

शानदार शख़्सियत रहो
कर जग हित के काम 
बुरा न देखो, बुरा न बोलो,
बुरा करो न काम ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

डॉ० रामबली मिश्र

 हरिहरपुरी की कुण्डलिया

त्यागो भय को हृदय से, बैठ कुंडली मार।
राम नाम के जाप से, कोरोना को जार।।
कोरोना को जार, दूर हो कर के रहना।
हो सुंदर संवाद, निडर हो कर नित चलना।।
कहें मिसिर कविराय, दूर से रक्षा माँगो।
कर काढ़ा का पान,भोग सारे अब त्यागो।।

 जीवन (चौपाई)

जीवन बीत रहा है प्रति पल।
फिर भी शांत नहीं मन चंचल।।
भाग रहा मन जग के पीछे।
गिरता पड़ता ऊँचे-नीचे।।

मन संतोषी नहीं बनेगा।
सुख का अनुभव नहीं करेगा।।
सदा हाँफता भाग रहा है।
माया में ही जाग रहा है।।

पड़ा हुआ झूठे चक्कर में।
हरि वियोग भोग टक्कर में । 
क्षण भर के सुख का है चक्कर।
हतप्रभ रोगी बहुत भयंकर।।

सहज पंथ से नहिं है नाता।
ऊँचे-खाले गिरता जाता।।
मन को केवल भोग चाहिये।
कामवासना रोग चाहिये।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

आज की रचना सामयिक मगर केवल एक पद ,पावनमंच को मेरा सप्रेम एवम् सादर प्रणाम, अवलोकन करें...         लौ लू हटी बादरी छाई।।                            श्रमसीकरि अबु हटी तन वदन  मस्त पवन चौपाई।।                                            इत उत घूमत मन नहि निधरकु ध्याननु पंथ पराई।।                                               पानी घुसा घरौंदा जाके बाहेर घूमत जीव देखाई।।                                           सबु दिशि निरखहू यहू बादरी झुंडनु  दौड़ सुहाई।।                                            छत याकी अवनी सूखै ना सुखवन टरतै दिवसु सिराई।।                                कबौ कबो मिलिहँय ना रोटी घरनी बहानै सुझाई।।                                          लरिकय घुमिहँय बागु बगैचनु जामुन आम चबाई।।                                        ढुरिहँय तनिक पवन जबु रैननि लरिकनु बागन धाई।।                                 चंचल सखियनु करैं बतकही बागन झुण्ड रचाई।।1।।                                        आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी, उ.प्र.।। मोबाइल....8853521398,9125519009।।

सुधीर श्रीवास्तव

वर्ण पिरामिड 
÷÷÷÷÷÷÷÷÷
लज्जा
*****
ये
बड़े 
बेशर्म
हैं,लज्जा तो
छूकर कभी
नहीं गुजरती
लज्जा विहीन हैं ये।
*****
यारों
कुछ तो
शर्म करो
कब तक ये
बेशर्मी दिखाते
बेहयाई करोगे।
*****
हैं
हम
सब ही
बेरहम
जो भी करना 
हो आकर करो
लज्जित हो जाओगे।
*****
ये 
कैसे 
सुधरें
भला,जब
खानदान ही
इसी रंग ढंग
में रचा बसा है।
■ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921

नंदिनी लहेजा

विषय: रौशनाई


कलम की आत्मा हूँ में ,जिससे चलती उसकी लिखाई
कोई कहे रोशनाई मुझको,कोई कहता है स्याही
दिया-बाती सा नाता हमारा,इक दूजे बिन अधूरे
कलम में जब भर जाती हूँ, करती काम मैं पूरे
बिन कलम मेरा अस्तित्व अर्थहीन सा
,बिन मेरे कलम ना काम की
पर जब मिल जाते हम दोनों
,माँ शारदे इनमें समाती
लाल,नीली,काली विवध रंगो से मैं रंगाई
कोरे कागज पर कलम लिखती सुंदर लिखाई
हम दोनों का संग कवि,लेखक को लगता बड़ा ही प्यारा
हमको समझे सदा मित्र अपना,
भावों को मन के प्रकट कोरे कागज़ पर करता
जो कुछ भी मन उसके रहता

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
मौलिक स्वरचित

सुषमा दिक्षित शुक्ला

माता 

माता से बढ़कर दुनिया में ,
कोई पूज्य नहीं है ।
माता की पावन ममता का ,
कोई मूल्य नहीं है ।
साक्षात वह लक्ष्मी ,दुर्गा ,
वही पार्वति  माता ।
माता की जो  सेवा करता ,
वह तारण हो  जाता ।
नौ महीने धारण करती है ,
धात्री तभी  कहाती है।
 दुग्ध पान दे पोषण करती,
 अप्रतिम प्यार लुटाती है।
 रात दिवस वह मेहनत करती
 संतानों के पालन में ।
जाग जाग खुद उन्हें सुलाती 
कभी न थकती लालन में ।
मां के हाथों के खाने सा,
 इस दुनिया में स्वाद नहीं ।
सच्चा प्यार मिलाकर परसे ,
शायद इसका राज यही।
 सारी दुनिया अगर छोड़ दे,
 कभी न छोड़े प्यारी मां 
बच्चों हित न्यौछावर रहती ,
सबसे  होती  न्यारी मां ।
माता की सेवा से बढ़कर 
कोई  कर्म  नहीं  है। 
कर्ज़ दूध का चुका सको ,
बस सच्चा धर्म यही है।

 सुषमा दिक्षित शुक्ला

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

विकल मन
           *गीत*(तुम्हारे बिना)
रौशनी लगती फ़ीकी तुम्हारे बिना,
चाँदनी लगती तीखी तुम्हारे बिना।
चलातीं लगे छूरियाँ दिल पे अब तो-
सभी बातें सीधी तुम्हारे बिना।।

नहीं भाए मौसम सुहाना भी अब तो,
पिया-पी पपीहा का गाना मधुर तो।
लगे सूनी-सूनी सुनो हे प्रिये अब-
मेरे मन की वीथी तुम्हारे बिना।।

रंग में कोई रंगत नहीं दीखती,
संग के संग संगत नहीं सूझती।
फूल भी चुभ रहे खार की ही तरह-
लगे मधु न मीठी तुम्हारे बिना।।

लगे जैसे क़ुदरत गई रूठ अब तो,
लगे प्रेम-सरिता गई सूख अब तो।
वो तेरा रूठना फिर मनाना मेरा-
लगे बात बीती तुम्हारे बिना।।

आके फिर से बसा दे ये उजड़ा चमन,
ताकि खुशियाँ मनाएँ ये धरती-गगन।
अमर प्रेम-रस को मेरी रूह यह-
बता कैसे पीती तुम्हारे बिना??

मेरी आत्मा, मेरी जाने ज़िगर,
तुम्हीं हो ख़ुदा का ज़मीं पे हुनर।
तुम्हें देख कर ही तो गज़लें बनीं-
शायरी लगती रीती तुम्हारे बिना।।

ज़ुबाँ शायरी की तुम्हीं हो प्रिये,
कहकशाँ सब सितारों की तुम ही प्रिये।
वस्त्र कविता का मानस-पटल पे भला-
कल्पना कैसे सीती तुम्हारे बिना??
            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                9919446372

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल---

हमारे दिल में जो चाहत है हम ही  जाने हैं
कि तुमसे जितनी मुहब्बत है हम ही जाने हैं

तेरे बग़ैर जो आलम था वो बतायें क्या
हमें जो तेरी ज़रूरत है हम ही जाने हैं 

बिना तुम्हारे हमारा वजूद क्या होता
तुम्हारी जितनी इनायत है हम ही जाने हैं

किसी भी और का खाना हमें नहीं भाता
तेरे पके में जो लज़्ज़त है हम ही जाने हैं 

हरेक रिश्ता निभाती है तू सलीक़े से 
जो तेरे होने से इज़्ज़त है हम ही जाने हैं

गुरूर टूट के बिखरा है उनके जाते ही 
जो दिल में आज मलामत है हम ही जाने हैं 

वो घर को रखते थे *साग़र* बड़े करीने से
बग़ैर उनके जो दिक्क़त है हम ही जाने हैं

🖋️विनय साग़र जायसवाल, बरेली
22/6/2021

अतुल पाठक धैर्य

शीर्षक-बरखा रानी
विधा-कविता
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बरखा रानी बड़ी सुहानी,
बहुत समय बाद आई हो।

धरती के मुरझे अधरों पर,
सावन का अमृत लाई हो।

जन मानुष पशु पक्षी के, 
तपते जलते व्याकुल मन।

बिन बरसात के सूखे थे,
खेत खलिहान और जंगल वन।

आओ मिलकर झूला झूलें,
पेंग बढ़ाकर नभ को छूलें।

बरखा रानी लाई है,
मीठी मीठी मधुर फुहारें।

दादुर मोर पपीहा सब,
मिलकर गाते गीत मल्हारें।

बाग बगीचों को महकाने,
बरखा रानी आई है।

प्रकृति के सुंदर कुसुम खिलाने,
इस धरती पर आई है।
मौलिक/स्वरचित

रचनाकार-अतुल पाठक " धैर्य "
हाथरस(उत्तर प्रदेश)

डॉ०रामबली मिश्र

धर्मपत्नी  (सजल)

नाम इन्द्रवासा अति पावन।
सहज धर्मपत्नी मनभावन।।

परम कृपालु भाव की गंगा।
सहज धर्ममय सभ्य सुहावन।।

भावुक बहुत सुधीर दयालू।
दिव्य मनोहर रूप लुभावन।।

जल्दी बहुत पिघल जाती है।
द्रव्य तरल सुरभित नित पावन।।

शिवकारी अतिशय अनुरागी।
श्रेष्ठमती शुभ क्रिया विछावन।।

सत्यवादिनी प्रेममूर्तिवत।
उत्तम बोध सुशील सिखावन।।

नहीं प्रपंचों से कुछ रिश्ता।
साफ-पाक निर्मल शुभभावन।।

लक्ष्मी संयमशील गुणागर।
स्वयं संपदा प्रिय धन आवन।।

शांतचित्त प्रिय मधुर सनेही।
प्रीति सलिल नित अवनि बुझावन।।

परोपकारी करुणासागर।
है नयनों में जल का सावन।।

सह लेती सब बिना प्रतिक्रिया।
कोमल उर पर कमल चढ़ावन।।

नहीं किसी के प्रति कुछ अनुचित।
प्रेमोचित राधा वृंदावन।।

इंद्रपरी दामिनी सी दमकत।
चमकत महकत गमकत भावन।।

चतुर बुद्ध अनुभव की रानी।
ज्ञानसयानी नित्य स्वभावन।।

पूजनीय महनीय कर्मश्री।
नाम इन्द्रवासा मृदु सावन।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

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                       कविता

                    *किसान*
                    ~~~~
            मात-पिता परमेश्वर,
            धरा पुत्र पर अभिमान।
            आओ मिलकर बोले,
            जय जवान,जय किसान।।

            भूमि पुत्र सच्चा साथी,
            मनभावन मतवाला।
            फसल उगाता मन से,
            हम सब का रखवाला।।

            दिन-रात मेहनत कर,
            अपना धर्म निभाता।
            ओले-वृषा-तूफान,
            देखो उसे डराता।।

            फसल लहलहाती जब,
            मंद-मंद वो मुस्कुराता।
            परिश्रम का फल मीठा,
            परिवार संग हर्षाता।।

            खेत-खलिहान उसकी,
            सबसे बड़ी पहचान।
            अतिथि सेवा मनुहार,
            करता सबका सम्मान।।

           ©®
              रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
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*बाधा*

बाधा सारी मिट गई , प्रभु दर्शन के साथ।
अन्तर्मन विश्वास है , शीश धरे प्रभु हाथ।
शीश धरे प्रभु हाथ , साथ है प्रभु की माया।
यही अलौकिक रूप, भक्ति रस साधन भाया।
कह स्वतंत्र यह बात , चित्त मत रखना आधा।
पूर्ण भावना लीन , शक्ति से मिटती बाधा ।।

बाधा कैसी पास हो, धरो अडिग विश्वास।
गीता में कान्हा कहे , कर्म सतत् ही खास।
कर्म सतत् ही खास , श्रेष्ठ यह भाव जगाता।
निष्ठा, साहस, धैर्य, सफल व्यक्तित्व बनाता।
कह स्वतंत्र यह बात, प्रेम की मूरत राधा।
कान्हा कर्म प्रधान, प्रेम हिय काटे बाधा।।

बाधा से डरना नहीं, सद्गुरु देते मंत्र।
ज्ञान मोक्ष का मार्ग है, ध्यान बना शुभ तंत्र।
ज्ञान बना शुभ तंत्र, इसे ही माने ज्ञाता।
सच्चा जीवन मान, श्वास यह रचे विधाता।
कह स्वतंत्र यह बात, लक्ष्य ही अर्जुन साधा।
मिला द्रोण शुभ ज्ञान, मिटाने को हर बाधा।।
*मधु शंखधर 'स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*23.06.2021*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

तेरहवाँ-7
  *तेरहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-7
नहिं कोउ सत्ता प्रभू समाना।
महिमा प्रभुहिं न जाइ बखाना।।
    परे त्रिकालहिं नाथ प्रभावा।
    भूत-भविष्य न आज सतावा।।
लगहिं प्रकासित स्वयं प्रकासा।
जीव न अवनिहिं,जीव अकासा।।
     नहिं जड़ता,नहिं चेतन भावा।
     एकरसहिं रह तिनहिं सुभावा।।
सकल उपनिषद तत्वहिं ग्याना।
तिनहिं अनंत सार नहिं जाना।।
   सबके सब पर ब्रह्महिं रूपा।
   परम आत्मा कृष्न अनूपा।
रहै चराचर जासु प्रकासा।
सतत प्रकासित अवनि-अकासा।।
    अस लखि ब्रह्मा भए अचंभित।
    परम छुब्ध-स्तब्ध-ससंकित।।
जस कठपुतरी रह निस्प्राना।
ब्रह्मा भे समच्छ भगवाना।।
    तासु प्रभाव-तेज सभ बुझिगे।
    किसुनहिं लीला तुरत समुझिगे।।
सुनहु परिच्छित प्रभु भगवाना।
परे सकल तर्क जग माना।।
    स्वयं प्रकासानंदइ रूपा।।
    मायातीतइ नाथ अनूपा।।
कृष्न हटाए जब सभ माया।
बाह्य ग्यान तब ब्रह्मा आया।।
    मानउ ब्रह्मा जीवन पाए।
    भे सचेत सभ परा लखाए।।
निज सरीर अरु जगतहि देखा।
बृंदाबन सभ दिसा निरेखा।।
दोहा-बृंदाबन कै भूइँ पै, रहै प्रकृति कै बास।
        पात-पुष्प-फल-तरु बिबिध,बिबिधइ जीव-निवास।।
                    डॉ0हरि नाथ मिश्र
                     9919446372

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