डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत(16/14)
जीवन के अनमोल पलों में,
आओ प्रेम सजाएँ हम।
सबको गले लगाकर हर पल-
मधुर गीत  नित गाएँ हम।।

जीवन तो क्षणभंगुर प्यारे,
आज रहे कल ज्ञात नहीं।
पल में तोला,पल में माशा,
जान सके औक़ात नहीं।
सुख-दुख दोनों एक मानकर-
खुशियाँ रोज मनाएँ हम।।
       मधुर गीत नित गाएँ हम।।

जब तक जीना रहे झमेला,
इच्छाएँ तो मरें नहीं।
कभी नहीं ये पूरी होतीं,
उदर अन्न से भरें नहीं।
बैठ-बैठ कर आपस में नित-
निज की व्यथा सुनाएँ हम।।
  मधुर गीत नित गाएँ हम।।

प्रेम-भाव की भाषा बोलें,
प्रेम मधुर रस-पान करें।
प्रेम-भाव को समझें सब जन,
प्रेम-तत्त्व-सम्मान करें।
बड़े भाग्य से जन्म मिला है-
इसमें खुशियाँ पाएँ हम।।
      मधुर गीत नित गाएँ हम।।

रंग-विरंगे सपने बुनते,
पर न लालसा पूरी हो।
उलट-फेर हम करते रहते,
इच्छा नहीं अधूरी हो।
नहीं अंत कुछ रह जाता है-
खुले हाथ ही जाएँ हम।।
     मधुर गीत नित गाएँ हम।।
                ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र
                    9919446372

ममता रानी सिन्हा

विद्या:- छंदमुक्त कविता
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❤️   "गाँव की पगडंडी"   ❤️

मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।

कभी फैलती कभी सिकुड़ती,
कभी सीधी तो कभी है मुड़ती,
कहीं गीली तो कहीं सूखापन,
रहन बसन के लिए सबुरी मन,
सही समय पर ढलना सबको,
जीवन डगर चलना बतलाती,

मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।

कहीं किनारे हैं घने बाग बगीचे,
कहीं खड़ी हैं गेंहू धान बलियाँ,
कहीं अकड़े अड़े महलों दरीचे,
कहीं हँसती हैं गरीब झोपड़ियाँ,
मगर बीच मे बहती सरिता सी,
जीवन सुख दुःख बहाव बताती,

मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।

घोड़ा चढ़ जमीन्दार चले तो
है चलता चरवाहा हलधर भी,
कोई मोटर तो कोई बैलगाड़ी,
कोई चरण पादुका भूतल भी,
बढ़ना है सब साथ मे चलना,
सज्जन हित में कथा सुनाती,

मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।

संगत पंगत हैं चलतें मिलकर,
जैसे पानी संग में रंग अबीर,
चले है मौलवी चलें पंडित जी,
चले इस पर कवि दास कबीर,
हो पंथ अलग पर राह एक है,
रोज मानवता का पाठ पढ़ाती,

मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।

कभी जा खड़ी स्टेशन पर तो,
है कभी बजाती घण्टा देवालय,
वो कभी पढ़ाती विद्यालय तो,
कभी पहुँचा देती है मदिरालय,
मार्ग निमित हुँ चलना तुमको,
है गितासार हरपल समझाती,

मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।

कभी डोली विदा बिटिया रुलाती,
कभी वधु आगमन ढोल बजाती,
कभी नव कोंपल को घर ले आती,
कभी रामयात्रा अंतघाट पहुँचाती,
है यहां जीवन तो मरन भी यहीं है,
जीव जीवन जतरा चक्र समझाती,

मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
🙏🙏
ममता रानी सिन्हा
तोपा, रामगढ़ (झारखण्ड)
(स्वरचित मौलिक रचना)

डॉ० रामबली मिश्र

हरिहरपुरी के रोले

संस्कारों का मेल,बनाता उत्तम मानव।
मन का दूषित भाव,बनाता राक्षस दानव।।

भर उत्तम संस्कार, बने मानव सर्वोत्तम।
संस्कारों का सिंधु, सतत गढ़ता पुरुषोत्तम।।

संस्कारों  का भाव,सदा ऊँचा होता है।
संस्कार अनमोल,बीज अमृत बोता है।।

खोजो पावन मूल्य, करो सुंदर मन रचना।
दिव्य भाव आधार,गढ़त सुंदर संरचना।।

मिट जाता अपराध, अगर मन निर्मल-पावन।
बनता पाक समाज, अगर मन शुद्ध सुहावन।।

संस्कारो का योग, चाहिये बस मानव को।
भौतिकता की भीड़, रचा करती दानव को।।

मानव का निर्माण, किया करता जो डट कर।
रचता सुघर समाज, अपराधों से मुक्त कर।।

बलात्कार का अंत ,जगत में निश्चित होगा।
मानव हो यदि विज्ञ,सदा मनसा आरोगा।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

आज की रचना में माता जी हेतु एक अरजी लिखी है, अवलोकन करें....     

              नदिया कछारे ऊँचो पर्वत निवास माई,जाको लालेलाल ध्वज नीको फहरा रही।।                                                   घंटाघड़ियाल शंख मधुरमधु ध्वनि बाजे,झाँझ करताल ढोल मनवा मा भा रही।।            
                                          वेदमंन्त्र वाँचत नीको लागत बटुक जन ,कहूँ ध्यानी ध्यानु देतु शोभा लरजा रही।।            
                                       भाखैं कवि चंचल मनावौं कर दुइनौ जोरि,माई मोरी नजरौ ना मोहे अरूझा रही।।1।।                                           द्वारे पै पुकारौं माई मधुरध्वनि बजाय बाजौ,माई मोरी अरजी मनवा काहै को ना भा रही।।                                          भक्तन उद्धार खातिन भूमि जो निवास कैलू,पण्डन दुःख खण्डन  मा  बेरी नाही भा रही।।                                            चंचल भक्त माई अजहूँ कबौ ना कृपा मिली,रस्ता भुलानिऊ माई याकि कछू खता रही।।                                         जाऊँगा ना दर तेरो याकि ये ठिकानो छाँडि़, आया प्रण ठानि माई जब लौं कृपा सही।।2।।        

      आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी,उ.प्र.। मोबाइल.8853521398,9125519009।।

डाॅ० निधि मिश्रा

घडी़ विपति की है घहराई

घडी़ विपति की है घहराई, 
जन मानस अब हुआ उदास, 
पीडा़ हिय कब समझे दाता, 
हर आँखों को इसकी आस।

दुख में डूबे है सब प्राणी, 
काम काज ठप हुआ है आज ,
बेकारी और महामारी, 
यह तो कोढ़ में जैसे खाज।

राग रंग सब भूल गये है, 
रोग रहा है पाँव पसार, 
ओर छोर ना इसका कोई, 
टूट रहे आशा के तार।

समझ न आता क्या मिजाज है? 
बूढे़ ,ना ही बचे जवान,
आयी अब बच्चों की बारी, 
मुह में आये सबके प्राण।

बडी़ क्रूर यह चाल जटिल है, 
करे प्रहार जैसे हो बाज , 
अर्थ, भावना मनःस्थिति अरु, 
ललकारे साहस को आज ।

दया करो अब हे करुणानिधि, 
तुझको नयना रहे निहार ,
दीनबन्धु हे जग के स्वामी , 
रक्षक सबके तुम करतार।

स्वरचित- 
डाॅ०निधि मिश्रा

सुधीर श्रीवास्तव

संतकबीर
********
कबीर अब कबीर नहीं 
विचारधारा बन गई है,
कबीर के विचारों में
असीम निश्छल नमी है।
बालपन में ही बने कबीर
निर्गुणी ब्रह्मज्ञानी हो गए,
रामानंद जी शिष्य बन
संत कबीर बन गये।
जुलाहा दंपति ने पाला पोसा
उनकी ही संतान कहाए,
असली माता पिता कौन थे
अब तक कोई जान न पाये।
निर्गुण निराकार फक्कड़ कबीरा
परमब्रह्म ही उनकी शक्ति बनी
लगती थी बातें जिनको बेढंगी
उनसे रहती सदा उनकी ठनी।
अंधविश्वास, जाति पाँत, भेदभाव 
छुआछूत के रहे सदा वो विरोधी,
मस्ती में कहते थे वे सच्ची बातें
हिंदू या मुस्लिम सब निशाने पर रहते।
नहीं डरना सीखा न की कभी परवाह
हर किसी को ईश्वर की संतान बताते
कभी भी किसी से न वो कुछ छुपाते
खुली किताब जैसे सभी उन्हें पाते।
संत शिरोमणि कबीर कहलाये
हृदय में निर्मल सी गंगा बहाये
निराकार को थे हृदय में बसाये
राम रहीम का भेद नहीं कर वो पाये।
सार तत्व को रहे सदा वो बताये
भटकते लोगों को संमार्ग दिखाये
काशी में रहे मगर मस्त कबीर
मगहर में आकर मुक्ति धाम पाये।
हिंदू ने उन्हें सदा माना हिंदू
मुस्लिम भी उन्हें मन में बसाये,
मगहर में देखो लीला निराली
हिंदू ने मंदिर मुस्लिम ने मजार बनाए।
ये कैसी थी लीला निराकार की
नहीं अलग होती वहाँ पर जाति किसी की,
जाता वहाँ जो बस होता वो मानव
टिकाता शीष जाकर चौखट पर उसकी।
● सुधीर श्रीवास्तव
     गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

स्नेहलता नीर

गीत
***
16/16

नमामि गंगे! नमामि गंगे,
मोक्षदायिनी तुम शुभकारी
पावन कर दो तन- मन मैया,
करें रात -दिन विनय तुम्हारी।।
1
पावन  स्थल  गोमुख उद्गम।
पावन है प्रयाग का संगम।
लगते  कुंभ   तुम्हारे  तट पर।
मिले  बंग में  तुमसे   सागर।।

सभी जलों की तुम हो जननी,
हम सबकी तुम हो महतारी।।
2
पावन निर्मल तव जल  धारा।
कल -कल का स्वर लगता प्यारा।
नीर -पान कर सब सुख पाते।
सकल पाप जल से धुल जाते।।

प्रतिपल रहना साथ हमारे,
तुम दुखहारी, तुम गुणकारी।।
3
तुम हो गहन तपस्या का फल ।
तुमसे भाग्य हिंद का उज्ज्वल।
पावन सुफल तुम्हारी गाथा।
तुम्हें  नवाते  हैं  सब   माथा।।

स्वर्ग  लोक  से तुम आई हो,
कोटि नमन हे !माँ  अवतारी।।
4
वेद -पुराण नित्य गुण गाएँ।
 सुर -नर- मुनि सब तुमको ध्याएँ।
सदियों से तुम बहती आईं।
जन- जन के मन को अति भाईं।।

विष्णुपदी  सुरसरिता तुम हो,
तुमको शीश स्वयं शिव -धारी।।
5
हिंद भूमि तुम करतीं सिंचित।
हरियाली से  धरा सुसज्जित।
सुख -समृद्धि  तुम्हीं  से माता।
 जनम -जनम का  तुमसे नाता।।

 कृपादृष्टि समदृष्टि जननी तव!
झोली  भरते रहें  हमारी।।

-स्नेहलता 'नीर'
रुड़की,उत्तराखण्ड
मौलिक,स्वरचित रचना

डॉ० रामबली मिश्र

गरीबी    (सजल)

मत गरीब को अपमानित कर।
हर मानव को सम्मानित कर।।

नहीं गरीबी बुरी बात है।
जीना सीखो इसको सहकर।।

जो गरीब की सेवा करता।
क्या कोई है उससे बढ़कर??

जो गरीब को गले लगाता।
स्नेहयुक्त वह अति प्रिय सुंदर।।

जिसे गरीबी में भी सुख है।
उसको जानो साधु-संतवर।।

अर्थपीर जो सह लेता है।
सहनशील वह मानव प्रियवर।।

है गरीब की बस्ती   पावन ।
जहाँ खड़े सबरी के रघुवर।।

भले दरिंदे प्रश्न चिह्न हों।
बनी गरीबी उनका उत्तर।।

नहीं पसन्द महल मानव को।
मानवता हरदम गरीबघर।।

ज्ञान सिखाती सदा गरीबी।
समझ गरीबी को प्रिय गुरुवर।।

जान गरीबी नहिं दुखदायी।
कढ़ता मानव बनत उच्चतर।।

आर्थिक संकट नहीं गरीबी।
है गरीब जिसका दिल बदतर।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

सुधीर श्रीवास्तव

बाल कबिता
बचपन
******
जब हम छोटे थे
बाबा के पास सोने के लिये
आपस में खूब लड़ते थे,
बड़े होने का दंभ भी था
तभी तो छोटों को धमका लेते थे।
तब दादी को बीच में 
आना ही पड़ता था,
हमें कभी प्यार से कभी धमकी से
उनका फैसला होता था।
उनका निर्णय अटल होता
किसी का कोई न बस चलता था।
मन मारकर हम रह जाते,
दिन के हिसाब से ही 
बाबा के पास सो पाते।
सुबह उठते ही फिर
आज मेरा नंबर है
की रट लगाने लग जाते।
✈सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.,
     8115285921
@मौलिक, स्वरचित, अप्रकाशित

अमरनाथ सोनी अमर

गीत- बिरह बेदना! 

14,12 मात्रा भार!

आ गया सावन सुहाना, मीत ना हैं क्या करूँ! 
दिल हमारा भंग होता, प्रीत किससे क्या करूँ!! 

अंग मेरा टूटता है, दर्द उठता है बदन! 
होय कैसे यह  दवाई, ना बलम अब क्या करूँ!! 

दिन गुजारा हो हि जाता, रात ना गुजरे सनम! 
रात बहु हमको सताती, अब न गुजरे क्या करूँ!! 

आय सावन काल मेरा, जान जोखिम में जुलुम! 
पड़ गयें हैं प्राण संकट, ना उबर अब क्या करूँ!! 

आय दुश्मन काल मेरा, जाय कैसे बेहया! 
कुछ सकुन यदि मुझ मिले तो, जाय कैसे क्या करूँ!! 

अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को सादर प्रणाम, आज कबीर जी के जन्म के सुपावन अवसर पर मेरी लेखनी के कुछ उद्गारों का अवलोकन करें...                                    चौदहीं मा दुई शेष रहाजबु जेठ कै पूनम दाखिल भा।।                              आतप हाल बेहाल सबै मुल शीत कै आगम जाहिर भा।।                            लाज कुलाज कै बाति हिया तबु जाय तडा़गु समागम भा।।                                भाखत चंचल काव कहीजबु दम्पति कै शुभ आगम भा।।1।।                              करूण पुकारु जौ कान सुनी तौ इत उत पंथु निहारबु भा।।                          याहि अवाजु परी जबु नीमा तौ नीरू कै आँखि विलोकबु भा।।                            अंकु भरैं निज बालकु वै अरू लालन पाल दुलारबु भा।।                               भाखत चंचल बातु लिखी घर मा किलकारी कै आउब भा।।2।।                  खुशियाली हिया ना समात रही नित दम्पति लाड़ दुलार मिला।।                     घर सून रहा वहि दम्पति कै घुटननु चलैं बाल सुचाल खिला।।                             निरखैं परखैं हरखैं वै जना सुकुमार गुरू फिरू नाहि मिला।।                         भाखत चंचल काव कही शिव धाम वहीं जबु राम मिला ।।3।।                         आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल।  ओमनगर, सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी,उ.प्र.।।मोबाइल..8853521398,9125519009।।

सुधीर श्रीवास्तव

संदेह
*****
संदेह के बादल
एक बार घिर आये,
तो सच मानिए कि
फिर कभी न छंट पाये, 
मान लिया छंट भी गये तो भी
उसके अंश अपनी जगह
कभी अपनी जगह से 
न हिल पाये।
संदेह ऐसा नासूर है
जो लाइलाज है यारों
जो भी इसका शिकार 
हो गया एक बार
मरने के बाद ही
वह इससे मुक्त हो पाये।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

निशा अतुल्य

संत कबीर जयंती पर अर्पित भाव
दोहा 


रामानुज के शिष्य थे, मंत्र मिला शुभ 'राम'।
राम नाम सुमिरन किया,भज निर्गुण अविराम।

अनपढ़ हुए कबीर पर, बाँटे अद्भुत ज्ञान।
साखी ज्ञानामृत पिला, जग को दी पहचान।।

आडंबर पर था किया, कवि ने खूब प्रहार।
निर्मल जीवन से सदा, बनें सरल व्यवहार।

श्रुतियाँ लिखते शिष्य थे, गाते रहे कबीर।
रमें जुलाहा कर्म में, मन से हुए अमीर।।

ताना बाना बुन दिया,मनुज न धरता ध्यान।
जात-पाँत में बट गया,निज हित रखता ज्ञान ।

स्वरचित 
निशा"अतुल्य"

नंदिनी लहेजा

नमन माँ शारदे 
नमन मं
विषय-ढलती शाम 

 ऐ ढलती हुई शाम ,तेरे संग आज जीवन का मेरे 
इक और दिन ढल गया 
तू जा रही आगोश में निशा के अब,
तेरे संग में भी थका सा अपने घर को चला 
तू हमराही सी मेरी है,तभी तो मुझको भांति है 
रवि के तेज में मैं जला मुझे तू सुकून दे जाती है 
कुछ क्षण का साथ जब मुझे मिलता जो तेरा ढलती शाम 
अपने नित्यकर्म से लेता बिदा,चाहता संग तेरे कुछ पल का विश्राम 
माना कुछ देर में तू भी चाँद तारों  में कहीं खो जाएगी 
मैं भी पहुँच जाऊंगा मंजिल पर अपनी,निंदिया मुझे भी आएगी 

नंदिनी लहेजा 
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक

डॉ० रामबली मिश्र

हरिहरपुरी के सोरठे

अनुशासन को रक्ष, सदा संयम से रहना।
बातें हों सब स्वच्छ, रहे न दिल में कुछ कपट।।

मत करना स्वीकार, कभी दूषित जन -मन को।
दो उनको धिक्कार, जिन्हें शिष्टों से नफरत।।

करो सदा इंसाफ, न्याय का डंका पीटो।
कर दो उनको माफ, अगर इरादा ग़लत नहिं।।

रखना उनको पास, जो सच्चा पावन मनुज।
करो उन्हीं से आस, मददगार इंसान जो।।

नहीं बनाओ मीत, जिनकी घटिया सोच है।
बनो सुखद संगीत, गीत की झड़ी लगाओ।।


जिनका मृदुल स्वभाव, वही हैं सुंदर मानव।
रहता नहीं अभाव, भाव में यदि है शुचिता।।

तोड़ झूठ संवाद, अगर निरर्थक है सदा।
करना नहीं विवाद,मूर्ख से बच कर रहना।।

जो करता है त्याग, वही सुख का अधिकारी।
जहाँ भोग अनुराग,वहीं दुख सरिता बहती।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

अजनबी थे किन्तु तेरी ओर मैं खिंचता गया,तेरे आने से मेरा जीवन निखरता गया। - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

अजनबी थे किन्तु तेरी ओर मैं खिंचता गया,
तेरे  आने  से  मेरा   जीवन  निखरता  गया।
**********************************
बंध गये परिणय में हम चांदनी सी रात में,
है  दमकती   तूं  सदा  सोलहो  श्रृंगार  में।
तूं हमारी हम तुम्हारी  बात को सुनने लगे,
तेरे मेरे सुनें चितवन से  दीप  जलने  लगे।
आसमां दिल की सजी है पथ सभी दिखता गया।
तेरे   आने   से    मेरा   जीवन   निखरता   गया।।

मेरे दु:ख-सुख तेरे हैं तेरे दु:ख-सुख मेरे हुए,
मेरे   सपने   तेरे  सपने  सब  तेरे - मेरे  हुए।
मेरे - तेरे,  तेरे - मेरे  प्रतिपल   हमारे   लिए,
मेरी  सुधि  है  तूं  प्रिये  तेरी  सुधि  मेरे  हुए।
तेरे पांवों की खनक से दिन सभी महकता गया।
तेरे  आने   से   मेरा   जीवन   निखरता   गया।।

बादलों सी तेरी आंखें पुष्प सा तेरा अधर है,
चांद सा मुखड़ा तुम्हारा मंजिलें तूं है हमारी।
पर्व  सारा  है  तुम्हीं  से  तूं  मेरी  पतवार  है,
लहलहाते खेत  दिल की  श्वांस तूं है हमारी।
आज के दिन मिल  गये  हम  दिल मचलता गया।
तेरे   आने   से    मेरा   जीवन   निखरता   गया।।

मेरे  खारे  अंश्रू   को  तूं  अधरों  से  पी  गयी,
मेरे जीवन के हलाहल पलछिनों में कट गयीं।
तेरे  पलकों  के  शब्द   मुझको   रिझाने  लगे,
तेरे आलिंगन से  खुशियां  अभिसार हो गयीं।
मेरे  नीरस  मन  में   मधुमास   सा   भरता  गया।
तेरे   आने   से    मेरा   जीवन   निखरता   गया।।

     - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

अरुणा अग्रवाल

नमन सम्मानित मंच,माता शारदे,
24।06।2021
विषय-गीत,शीर्षक"सुहाना पल"


सुहाना पल था बाल्यावस्था,
न था आपाधापी की व्यथा,
माता,पिता,भाई,बहन संग,
सुहाना ,यादगारी वो लम्हा।।


कितना रोचक,खुशहाल था दिन,
ईष्ट,मित्र मंड़ल में गुजरता फूरसत
का समय,कोई चर्चा लिए,मोहन,
जैसे की मामाजी के घर की याद।।


आमोद,मनोरंजन का था जलवा,
न जरा,व्याधि का रोना,समस्या,
प्यार,हर्ष,उल्लास से तन-मन,
दामोरदम,गीत-सावन का सरगम।।



वो बीता पल,समय याद आता,
काश की फिर से लौटकर आता,
माता का हाँथ का पकवान,रसाल
वो सुहाना बचपन का पल दिल को भाता।



अरुणा अग्रवाल।
लोरमी,छःगः,
🙏🌹🙏

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को सादर प्रणाम, आज की रचना का विषय।। समय व लक्ष्य।। है, अवलोकन करें......                                  महत्तव समय का अजीब बडो़ इहय हौं तुहँय समुझाई रहा।।                             बिनु काज किये ना महान भवा केऊ बाति इहय बतियाई रहा।।                        खाया औ सोया लडा़या तू गप्प इहय कैइके  गडबड़ाई रहा।।                          भाखत चंचल बाति कही निरा पशु जीवन जाई रहा।।1।।                                अहार औ नींदु समान कहँयप्रजननु क्षमता समधारी कही।।                          बुद्धि विवेकु बड़ो तुम्हरा  यहिका सबु जीव जुझारी मही।।                                  लक्ष्य मना ना धर्या कबहूँ  मनुआ ई तना तौ अकारथु ही।।                             भाखत चंचल या तनुधारी जाने ना गाँव गिराँव सही।।2।।                                     निरधारण लक्ष्य करा मनमा औ ध्यानु लगाय के काजु करा।।                          आलसि दम्भु ना आवै मना बतिया तनिका इ ख्यालु करा।।                            अहंकार विनाशक मानो सदा सब मानव नाहि समानु धरा।।                       भाखत चंचल याहि कहौं नहि नीचु केऊ नहि ऊँच धरा।।3।।                            नेटवर्क बिसात बिछी जग मा जेहिपै महिला बहु ध्यानु धरैं।।                          सीखैं जौउनु गुनवन्त धरा वहि आँचरू माहि समेटि धरैं ।।                                 तर्क वितर्क सुझाय नहीं वहू अमल मँहँय तनधारि धरैं।।                               भाखत चंचल काव कही पुरूषाननु श्रेष्ठ समाजु वरैं ।।4।।                            आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल। ओमनगर, सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी,उ.प्र.।। मोबाइल नंबर.. 8853521398,9125519009।।

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

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          *जल अमृत*
          ~~~~~~~
            
            मात पिता,
            भारत  मां..
            धरा नमन।
             हितकारी,
          जन-जन का..
            करें वंदन।।
           🙏🙏🙏
           जल अमृत,
           जानत सब..
            पहल करें ।
            दुरुपयोग,
             करने से..
           संकट बढ़े।।
         💦💦💦
          जल महिमा,
           चरणामृत.
          समझाकर।
          सब समझें,
          ऐसा जतन..
          अपनाकर।।
         💧💧💧
         बारिश जल,
          जाये अब..
          ना बहकर।
           घर-घर में,
           पुनर्भरण..
            बनाकर।।
          🌧️🌧️🌧️
       रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)

रामकेश एम यादव

चंचल बादल !

उमड़-घुमड़कर छानेवाले,
वो चंचल बादल आ।
सूखी-सूखी नदिया पुकारें,
ताल-तलैया भर जा।

प्यासी है कब से ये धरती,
प्यासे इसके परिन्दे।
तपिश बढ़ी इस गर्मी की,
व्याकुल हैं तेरे बन्दे।
चढ़ी हुई है तेरी जवानी,
कुछ अच्छा कर जा।
सूखी-सूखी नदिया पुकारें,
ताल-तलैया भर जा।
उमड़-घुमड़कर छानेवाले,
वो चंचल बादल आ।

टिप-टिप बूंदें गिरते ही तेरी,
धरती महक उठेगी।
बड़ी शान से बहेंगी नदियाँ,
चिड़िया चहक उठेगी।
जीवन की फिर बगिया महके,
वो फूल खिलाने आ जा।
सूखी-सूखी नदिया पुकारें,
ताल-तलैया भर जा।
उमड़-घुमड़कर छानेवाले,
वो चंचल बादल आ।

कहीं रहे न धरती बंजर,
उखड़ा-उखड़ा दिखे न मंजर।
बिछ जाओ तू मोती बनकर,
बिछ जाओ तू हीरा बनकर।
दाने जब फसलों में झूमें,
तब लौट के यहाँ से जा।
सूखी-सूखी नदिया पुकारें,
ताल-तलैया भर जा।
उमड़-घुमड़कर छानेवाले,
वो चंचल बादल आ।

रामकेश एम. यादव(कवि, साहित्यकार(, मुंबई

अशोक छाबरा

*💞यादे....बहती है*
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  बन जाती झरमुटे
फूलों के गुंचो
की तरह!

बिखरती है
छिटक कर पेड़ों से
सूखी पत्तियों की तरह!

 मिल जाती है किताबों में
धीमी सी महक लिए
सूखे गुलाबों की तरह!

तैर जाती है ख्वाब में
ताल में गिरे
पके पात की तरह!

उड़ने लगती है
गुजरते हुए
रेगिस्ता की
गरम हवाओं में
पल्लू की तरह!

ठहर जाती है 
यादें कभी
झील के ठंडे जल पर
बर्फ की परत सी!

कभी बुढापे के
मेहंदी रंगे बालों की
जमी हुई महक सी!

चलती है साथ
कभी अंगुली पकड़कर
नन्हे मासूम बच्चे सी!

उमड़ आती है भांवरो में,
सीख में,बाबुल से गले
लगते हुए चिड़कली सी!

यादें चलती साथ ही
पीया के घर
माँ की सीखड़ली सी!

 उमड़-उमड़ आती यादे
अपने किसी प्रिय को 
जाते महाप्रयाण पर
 बनकर आँसूओ की लड़ी सी!

यादें..प्यारी यादे
खट्टी मीठी कड़वी कसैली सी
कभी झगड़ती 
कभी उंडेलते
स्नेह की सहेली सी!

यादें चलती उम्रभर
 हमराज हमराह सी
*इस उम्र से उस उम्र तक!*
*यादें और सिर्फ यादें!!*

डॉ० रामबली मिश्र

मेरी पावन शिवकाशी

मन में सुंदर भाव यही हो, बनना है काशीवासी;
शिवशंकर भोलेबाबा को, जपने का बन अभ्यासी;
गली-गली में विश्वनाथ का, डमरू खूब बजाना है;
धूम मचाओ भंग जमाओ, रंग जमाओ शिवकाशी।

मत बनना चाण्डालचौकड़ी,रहना मन से सन्यासी;
बिना स्पृहा के रच-बस जाना, बनकर दास और दासी;
सदा घूमना एक चाल से, गंगा जी में स्नान करो;
बाबा विश्वनाथ के दर्शन,हेतु घूम बस शिवकाशी।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

सौरभ प्रभात

*कुण्डलियाँ*
मोहन माधव सो रहें, चिपक यशोदा अंग।
मुख मुखरित मुस्कान है, स्वप्न सुखद है संग।
स्वप्न सुखद है संग, मिलेगी माखन मिश्री।
बाल विहार निहार, हँसे बैकुंठ खड़ीं श्री।
सौरभ देखे दृश्य, लगे जो पावन सोहन।
माया के अनुकूल, दिखायें लीला मोहन।।

✍🏻©️
सौरभ प्रभात 
मुजफ्फरपुर, बिहार

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-1
                *गीता-सार*  -डॉ0हरि नाथ मिश्र
                (पहला अध्याय)
मोहिं बतावउ संजय तुमहीं।
कुरुक्षेत्र मा का भय अबहीं।।
   कीन्हेंयु का सुत सकल हमारे।
   पांडु-सुतन्ह सँग जुद्ध मँझारे।।
अस धृतराष्ट्र प्रस्न जब कीन्हा।
तासु उतर संजय तब दीन्हा।।
   संजय कह सुन हे महराजा।
   पांडव-सैन्य ब्यूह जस साजा।
लखतय जाहि कहेउ दुर्जोधन।
सुनहु द्रोण गुरु मम संबोधन।
   द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न तुम्हारो।
   बृहदइ सैन्य ब्यूह रचि डारो।
पांडव जन कै सेना भारी।
लखहु हे गुरुवर नैन उघारी।।
   सात्यकि अरु बिराट महबीरा।
   अर्जुन-भीम धनुर्धर धीरा।।
धृष्टकेतु-पुरुजित-कसिराजा।
चेकितान-सैब्य जहँ छाजा।।
     परम निपुन जुधि मा उत्तमोजा।
     रन-भुइँ अहहिं कुसल कुंतिभोजा।।
संग सुभद्रा-सुत अभिमन्यू।
पाँचवु पुत्र द्रोपदी धन्यू।।
   ये सब अहहिं परम बलवाना।
   जुधि-बिद्या अरु कला-निधाना।।
निरखहु इनहिं औ निरखहु मोरी।
बरनन जासु करहुँ कर जोरी।।
   दोहा-हे द्विज उत्तम गुरु सुनहु,जे कछु कहहुँ मैं अब।
          मम सेनापति,सेन-गति,जे कछु तिन्ह करतब।।
स्वयं आपु औ भीष्मपितामह।
कृपाचार गुरु बिजयी जुधि रह।।
     कर्ण-बिकर्णय-अस्वत्थामा।
     भूरिश्रवा बीर बलधामा।।
बहु-बहु सूर-बीर बलसाली।
अस्त्र-सस्त्र सजि सेन निराली।।
    अहहि मोर सेना अति कुसला।
    जुद्ध-कला बड़ निपुनइ सकला।।
भीष्मपितामह रच्छित सेना।
भीमसेन जेहि जीत सके ना।।
    अस्तु,सभें जन रहि निज स्थल।
    भीष्मपितामह रच्छहु हर-पल।।
सुनि दुर्जोधन कै अस बचना।
भीष्म कीन्ह निज संख गर्जना।।
     ढोल-मृदंगय-संख-नगारा।
     कीन्ह नृसिंगा जुधि-ललकारा।।
धवल अस्व-रथ चढ़ि ध्वनि कीन्हा
अर्जुन-कृष्न संख कर लीन्हा।।
    पांचजन्य रह संख किसुन कै।
    देवयिदत्त संख अर्जुन कै।।
संख पौंड्र भिमसेन बजायो।
रन-भुइँ संख-नाद गम्भीरायो।।
            डॉ0हरि नाथ मिश्र
             9919446372       क्रमशः.......

एस के कपूर श्री हंस

*।।ग़ज़ल।।संख्या 115 ।।*
*।।काफ़िया, आन।।रदीफ़, में।।*
*।।पूरी ग़ज़ल मतलों में।।*
1   *मतला*
मत ढूंढ तू खुशी दूर   आसमान में।
बसी तेरे अंदर झाँक   गिरेबान  में।।
2    *मतला*
फैली हर कोने कोने तेरे  मकान में।
बात तो कर   सबसे    खानदान में।।
3   *मतला*
मिलती नहीं   खुशी सौ  सामान  में।
मिल बांटकर खाओ हर पकवान में।।
4    *मतला*
हर जर्रे जर्रे में छिपी  इसी जहान   में।
जरूरी नहीं मिले बस ऐशो आराम में।।
5    *मतला*
छिपी है   खुशी तेरी   ही   दास्तान  में।
बस जरा मिठास घोलअपनी जुबान में।।
6   *मतला*
मिलती है खुशी हर चढ़ती पायदान में।
मत ग़मज़दा हो तू   हर    नुकसान में।।
7    *मतला*
कोई बात   अच्छी रहती हर पैगाम में।
नाराज़गी जरूरी नहीं हर हुक्मरान में।।
8    *मतला*
कभी कभी हवा  खोरी खुले मैदान में।
मिलेगी तुझको खुशी ऐसे भी वीरान में।।
9    *मतला*
कभी मिलेगी न खुशी गलत अरमान में।
सच्चे मन से मांगो मिलेगी भगवान में।।
10    *मतला*
नफरतों को  थूक दो तुम पीक दान  में।
खुशी देगी दिखाई तुम्हें हर मेहरबान  में।।
11    *मतला* 
महसूस करो खुशी मिलती देकर दान में।
देखो नज़र से मिलेगी  हर   मेहमान में।।
12     *मतला*
सोच से आती खुशी हो कश्ती तूफान में।
जरूरी नहीं कि जाना पड़े दूर जापान में।।
13      *मतला*
बात है टिकती कैसे रिश्ते दरमियान में।
खूब खुशी मिलेगी बन कर मेजबान में।।
14     *मतला*
जरा बन कर तो  देखो तुम कद्रदान में।
मिलेगी खुशी   तुमको   हर   इंसान में।।
15       *मक़्ता*
*हंस* बात आकर रुकती जीने के हुनर पर।
जान लो खुशी गम रह सकते एक म्यान में।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस'।।बरेली।।*
मो 9897071046/8218685464

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...