एस के कपूर श्री हंस


*।।काफ़िया।।आने।।*
*।।रदीफ़।। नहीं होते।।*
1
उजालों में चराग के   माने  नहीं होते।
डूबे नशे में उनको मयखाने नहीं होते।।
2
जब तक न उतरे कोई  रूह के अंदर।
यूँ ही कोई काम के दीवाने  नहीं होते।।
3
जब बाल न पके हक़ीक़त को देख कर।
यूँ ही सब      जाकर सयाने  नहीं होते।।
4
जब तक चाहते रहो किसी को दिल से।
तब तक लोग चाहत में पुराने नहीं होते।।
5
जो कुछ न कर गुज़रते बढ़कर दो कदम।
सुनाने को उनके  पास  फसाने नहीं होते।।
6
गर दिल के अच्छे   सच्चे  लोग सब होते।
तो दुनिया में फिर इतने दवाखाने नहीं होते।।
7
गर लोग एक दूजे के दिल से   फिक्रमंद होते।
तो फिर आपस में इतने राज़ छुपाने नहीं होते।।
8
गर जर्रे जर्रे में दर्दे एहसास    होता हमनें।
तो हुस्ने सियासत छलकते पैमाने नहीं होते।।
9
*हंस* रखते हुनर लफ़्ज़ से दिल खरीदने का।
यूँ ही   जाकर आपके  जमाने   नहीं होते।।


*।।बस चार दिन का ही पड़ाव*
*है जिन्दगी।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
कभी उतार तो कभी चढ़ाव
है यह जिन्दगी।
कभी प्यार तो कभी    घाव
है यह  जिन्दगी।।
बहुत अनोखा       अनमोल
उपहार   है  यह।
कभी भाव तो कभी  दुर्भाव
है यह  जिन्दगी।।
2
कभी मिलन कभी  टकराव
है यह जिन्दगी।
कभीआत्मीयता का अभाव
है यह जिन्दगी।।
अपने अंतर्मन की  सदा  ही
सुनते        रहो।
नहीं तो अपनों  से  खिंचाव
है यह जिन्दगी।।
3
गर प्यार नहीं  तो बैर   भाव
है  यह  जिन्दगी।
कभी प्रेम कभी    नाराज़गी 
बहाव है जिंदगी।।
गम और खुशी   दोनों     ही
पहलू जिंदगी के।
दोनों तरह का ही हाव  भाव
है यह जिन्दगी।।
4
जान लो कर्म  पथ  की नाव
है यह   जिन्दगी।
बढ़ते रहना ही         स्वभाव
है  यह  जिन्दगी।।
ये दुनिया तेरा घर  नहीं छोड़
कर जायो प्रभाव।
बस चार दिन का  ही  पड़ाव
है  यह   जिन्दगी।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।      9897071046
                    8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-3
क्रमशः.....*पहला अध्याय*
संख युधिष्ठिर बिजय अनंता।
नकुल सुघोषय घोष दिगंता।।
    संखइ मणिपुष्पक सहदेवा।
     संख-नाद कीन्ह कर लेवा।।
दोहा-कासिराज-धृष्टद्युम्न अरु, सात्यकि औरु बिराट।
        द्रुपद-सिखण्डि-अभिमन्यु अपि,औरु सभें सम्राट।।
        कीन्ह भयंकर संख-ध्वनि,द्रोपदि पाँचवु पुत्र।
         संख-नाद, रन-भेरि तें, ध्वनित सकल दिसि तत्र।।
भय बड़ कम्पित मही-अकासा।
सुनतहि कुरु-दल भवा उदासा।।
     कर गहि निज धनु कह तब अर्जुन।
     हे हृषिकेश बचन मम तुम्ह सुन।।
लावव रथ दोउ सेन मंझारे।
हे अच्युत,श्री नंददुलारे।।
     चाहहुँ मैं देखन तिन्ह लोंगा।
      जे अहँ करन जुद्ध के जोगा।।
जे जन जुद्ध करन यहँ आये।
दुर्जोधन के होय सहाये।।
    तब रथ लाइ कृष्न किन्ह ठाढ़ा।
    मध्य सेन दोउ प्रेम प्रगाढ़ा।।
भिष्म-द्रोण सब नृपन्ह समच्छा।
सेनापति जे कुरु-दल दच्छा।।
     लखहु सभें कह किसुन कन्हाई।
     हे अर्जुन निज लोचन बाई।।
पृथापुत्र अर्जुन लखि सबहीं।
भ्रात-पितामह-मामा तहँहीं।।
     औरु ससुर-सुत-पौत्रहिं-मीता।
      सुहृद जनहिं लखि भे बिसमीता।।
लखि तहँ सकल बंधु अरु बांधव।
कुन्तीसुत कह सुनु हे माधव।।
दोहा-जुद्ध करन लखि अपुन जन,सिथिल होय मम गात।
      कम्पित बपु मुख सूखि गे, निकसत नहिं कछु बात।।
गाण्डिव धनु कर तें गिरै, त्वचा जरै जनु मोर।
सक न ठाढ़ि मम मन भ्रमित,सुनहु हे नंदकिसोर।।
               डॉ0हरि नाथ मिश्र
               9919446372 क्रमशः.......

नूतन लाल साहू

मैं बीमार हूं

मेरा व्याकुल मन बहलाने वाले
अब वे मेरे मन की गान कहां है
कोई शारीरिक रूप से तो
कोई मानसिक रूप से
कहता फिरता है,मैं बीमार हूं
मैने ही खेल किया जीवन से
पर मैं उसको देख न पाया
मिलता था,जिससे बेमोल सुख
मैंने ही उससे फेरा मुख
मैं खुद खरीद बैठा पीड़ा को
और कह रहा हूं, मैं बीमार हूं
बात करते हुए, सो गया इंसान
स्वप्न में खो गया है इंसान
पूर्ण कर लें,वह कहानी
जो शुरू की थी सुनानी
था वह अवसर, एक दिन
जब बुढ़ापे में भी करते थे मेहनत
मैने ही खेल किया जीवन से
और कह रहा हूं, मैं बीमार हूं
हो जाय न पथ में रात कही
बीत चली संध्या की बेला
कभी इधर उड़,कभी उधर उड़
ऐसी आपाधापी न कर
इंसान चला जा रहा है
अज्ञात दिशा की ओर
और कहता फिरता है, मैं बीमार हूं
इंसान के भाग्य निर्णायक
है तेरे अंदर ही
प्रकृति से उलझने की कोशिश न कर
क्योंकि तू इस जग का
मालिक नहीं किरायेदार है
तूने ही खेल किया जीवन से
और कहता फिरता है, मैं बीमार हूं

नूतन लाल साहू

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

खेल क़िस्मत के तो दिन रात बदल देते हैं
आदमी बदले न हालात बदल देते हैं

जब भी करता हूँ मैं इज़हारे-मुहब्बत उनसे
मुस्कुरा कर वो सदा बात बदल देते हैं

सोचिये दिल पे गुज़रती है मेरे क्या उस दम
जिस घड़ी आप  मुलाकात बदल देते हैं

आज के दौर में क़ासिद पे भरोसा ही नहीं
बीच रस्ते में जवाबात  बदल देते हैं

मशविरा करना किसी से तो रहे ध्यान यही
लोग शातिर हैं ख़यालात बदल देते हैं

किस तरह कोई ग़ज़ल छेड़े मुहब्बत वाली
सारा माहौल फ़सादात बदल देते

अपनी नाकामी पे रोने से भला क्या *साग़र*
हर नतीजे को  तज्रिबात बदल देते हैं

🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली
25/6/2021

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
-----------------------------
*मोती*

◆ मोती सागर में मिले,  सीपी में अनमोल।
चमक बसाए आप में,  उज्ज्वल बिल्कुल गोल।
उज्ज्वल बिलकुल गोल , सदा यह मान बढ़ाती।
कभी अँगूठी बीच, कभी माला सज जाती।
कह स्वतंत्र यह बात, नार वह ही तो रोती।
रखती नहीं सम्हाल, ध्यान से लज्जा मोती।।

◆ मोती होता कीमती, जब सच्चा विश्वास।
सदा लुटाते हो खुशी , हुई प्रतिष्ठा खास।
हुई प्रतिष्ठा खास, दास को शान दिखाते।
बनते स्वयं महान, सोच वह भाव जताते ।
कह स्वतंत्र यह बात , मैल मन का सब धोती।
धरती धैर्य अपार , प्रेम सागर सम मोती।।

◆ मोती की आभा कहे, चमको यूँ दिन रात।
आलोकित कर दो धरा, दे अनुपम सौगात।
दे अनुपम सौगात , सभी को मीत बनाओ।
धारा स्रोत स्वभाव, मिलो खुद और मिलाओ।
कह स्वतंत्र यह बात, समय है नहीं बपौती।
उल्टी गंगा धार, काग खाए अब मोती।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*
*26.06.2021*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दोहे
बनें बर्फ से ग्लेशियर,करें सरित-निर्माण।
सरिता जल का दान कर,करे विश्व-कल्याण।।

सड़क प्रगति का स्रोत है,जिससे हो उत्थान।
करे सुलभ आवागमन,विकसित राष्ट्र-निशान।।

ढोलक और मृदंग से,बने मधुर संगीत।
गीत और संगीत सुन,हर्षित हो मन मीत।।

सैनिक रक्षक देश के,हो जाते कुर्बान।
प्राणों की बाजी लगा,रौंदें अरि का मान।।

होती है स्वादिष्ट अति,सब्ज़ी मटर-पनीर।
इसका ही मिष्ठान तो,हरे सकल भव-पीर।।
          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
              9919446372

डॉ० रामबली मिश्र

हरिहरपुरी का छप्पय छंद

जग को माया जान, फँसो मत इस वंधन में।
ढूढ़ मुक्ति की राह, कामना शुभतर मन में।।
डरो नहीं संसार से, हो निश्चिंत चला करो।
सहो फजीहत मत कभी,पाप कर्म से नित डरो।।
माया को पहचान कर, छोड़ो इसके संग को।
भ्रमजालों को तोड़ कर, चलो ज्ञान के गंग को।।

माया सच या झूठ, समझ माया की दुनिया।
यह क्षणभंगुर रूप, हर समय फेरत मनिया।।
लेत जन्म मरती सतत, माया दृश्य-अदृश्य है।
गावत-रोवत चक्रवत, लीला करती नृत्य है।।
जन्म-मरण सुख-दुख सहत, तन-मन का संसार यह।
लाभ-हानि के फाँस को, करता अंगीकार यह।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

निशा अतुल्य

आईना
ताँका 
5,7,5,7,7

निश्छल प्रेम
आज क्यों भटकता
यहॉं से वहाँ
सतत जो साधना
जीवन का आधार ।

तृष्णा बढ़ती
राह है भटकाती 
अधीर मन
मूंद नैन भागता
न जाने कहाँ कहाँ।

बंधन प्यारा
जीवन है अधूरा
बिन प्रेम के
है भले जग मिथ्या 
शाश्वत प्रेम सत्य ।

मन आइना
है तेरे ही कर्मो को
भागता है क्यों
स्वयं ही स्वयं से तू
कर मनन जरा ।

निर्मूल शंका
नहीं कोई समस्या
विचार तेरा
निर्भर समाधान
सोच पर ही सदा ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

डॉ रश्मि शुक्ला

विषय--  मित्र 

 मित्र वर्षा ऋतु हम मिले

हम बगीया में झुला डालें।

पेंग बढ़ाकरआसमान छुलें।

कजरी मल्हार प्रेम रस गालें।

 अपनी मन की तुम से कहलें।

आओ हम तुम गले मिल झुम ले।

भुली बिसरी बाते अब कर ले।

वर्षा जल से तन मन भीगोले।

कागज की एक नाव बनाले।

नाव देखकर बचपन याद कर लें।

आओ मित्र हम झुला मन झीलें

डॉक्टर रश्मि शुक्ला 
प्रयागराज

कुमकुम सिंह

खालीपन, एकाकीपन

कुछ खालीपन सा है इन वादियों में 
इन हवाओं में इन फिजाओं में।

 कुछ दम घुटने की अहसास से है इन रवानी में
 दिल के जज्बात उधेर दो।

इन रिश्तो में जैसे कुछ घुटन सी है
 दिल का हर कोने से एक आह निकलती है ।

 पलकों में सारे सपने बंद हो गए 
मानो कुछ खालीपन सी है।

मन की तरंगों में कई नगमे टूट कर रह गए
 अब तो बस दम घुटने सा लगा है ।

रंजिशे निगाहें नींद भी कहीं दूर ,
किसी और के पलकों में समाए हैं ।

शायद इसे ही खालीपन कहते हैं 
हर जगह एक कमी से महसूस होती है ।

दिल की तमन्ना में एक टीस सी उठती है 
क्या ये वही पीर है जिस पीर से पूरी दुनिया ही
 मिलती है।

 हो तुम आसपास लगते हो कुछ खास
 मगर यह तो है बस एक दिल की अहसास।
 बाकी है ।

सब खाली है
 दिल का हर कोना खाली है।

          कुमकुम सिंह

डा. नीलम

*बस्ती-बस्ती बात*

नैनों की नैनों से जबसे बात हुई 
बस्ती-बस्ती बात सारी फैल गई

दो चार बातें ही तो अभी प्यार की हुईं
ना जाने कैसे अफसाना बन फैल गई

मिले थे हम तो निर्जन एकांत
में कहीं
जाने कैसे भनक लोगों को लग गई

पानी पे नाम उसका लिख -लिख मिटाया किये
फिर भी उसके नाम की खबर सबको हो गई

दो-चार कदम अभी साथ भी न चल सके
दुनिया वालों की काली नज़र
लग गई।



      डा. नीलम

रामकेश एम.श यादव

आईना दिखाना है!

समय  की धारा में बह  जाना है,
पल दो पल का यहाँ ठिकाना है।
जो समय  दिया है  ऊपरवाले ने,
उसे  मील का पत्थर  बनाना  है।
जरुरत क्या है कहीं और झाँको,
मंगल - चाँद पर बस्ती बसाना है।
बहते  समय  को  कौन है पकड़ा,
उसी  के  साथ  सबको जाना है।
मत क़ैद कर  खूब सूरत जिंदगी,
दुष्टों   को  आईना   दिखाना   है।
सुर्ख  होंठों से बह रहा जो झरना,
उससे मरुस्थल में बहार लाना है।
ये कुर्सी की धौंस न काम आएगी,
एक दिन खाली हाथ ही जाना है।
कोयल को ठीक  करने  कौवे जुटे,
उन कौओं का मुखौटा  उतारना है।
सोते  यहाँ  जो  सरकार  ओढ़कर,
नींद  से  उन्हें  भी  तो  जगाना है।
कौन छिपायेगा  कपड़े  से नग्नता,
बेशकीमती  समय  न  गंवाना  है।
क्यों  करेगा  समय  तेरा  इंतजार,
देखो!  रोने  से  ज्यादा हँसाना है।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

नंदिनी लहेजा

विषय- आखिरी सहारा

अंत समय अब लगता है आ  रहा
दल दाल में फंसता ही जा रहा
डूब रही जीवन की नैया
पार लगा दो बन के खेवैया
अखियन  में छाए अँधियारा
तू है मेरा आखिरी सहारा
जीवन भर था रिश्ते नातों में खोया
काम क्रोध लोभ अहंकार में स्वयं को डुबोया
याद किया न तुझ परमपिता को
विकारों की गठरी को  जीवनभर ढोया
ऐसे ठोकर खाकर में आज गिरा हूँ
तेरी रहमत बिन उठ नहीं पाऊं
अब तो रहमत कर मेरे दाता
तू है मेरा आखिरी सहारा
आज यह बात समझ आ रही है
पुण्य में सब मांगे भागीदारी
पाप स्वयं पर पड़ते भारी
उगते हुए के होते संग सब कोई
गिरे हुए को कुचले  हर कोई
सब कुछ खोकर  शरण तेरी आया
रोम रोम में अब पछतावा
तू है मेरा आखिरी सहारा

नंदिनी लहेजा
रायपुर छत्तीसगढ़
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर

शीर्षक--इश्क की बीमारी

जिंदगी में बीमारी कम नहीँ, औकात बता देती है,अच्छे खासे इंसान को जिंदा लाश बना देती है।।

कहूँ कैसे मैं बीमार हूँ  खासा नौजवान हूँ ,फिर भी हुश्न के इश्क का शिकार हूँ
लगता नही मन कहीं भी भूख प्यास अंजान हूँ।।
 
माँ बाप को फिक्र ये बीमारी क्या वैद्य कहता है मैँ बीमार नही इसका कोई इलाज नही शर्म आती है बताऊँ कैसे
मुझे क्या हुआ मैं बीमार हूँ।।

इश्क ने खोखला कर दिया ,सिर्फ चाहत का दीदार ही इलाज है,नज़र इबादत इश्क की आती ही नही शायद वह भी बीमार बेजार है।।

अब तो जिंदगी की सांसे धड़कन
चाहत के इश्क का जुनून जिंदगी
का इंतज़ार है।।

गर न मिली मेरी बेबाक चाहत कि मुहब्बत उसके ही दुपट्टे ओढे कफन जनाजे बे चढ़ने को बेकार हूँ।।

चढ़ गया है इश्क का शुरुर इस कदर कहती दुनियां इश्क का बुखार है।।

ना संक्रमण है कोई ,ना बीमारी कोई
खतनक है ,कोरोना भी पास नही आता  जमाने की दहसत से इश्क़ के
कोरेनटाइन मास्क है ।।

क्या कहूँ की बीमारी क्या कोई 
सुनने को तैयार नही कहते है सभी
प्यार मुहब्बत की तेरी उम्र नही तू
तो नादान है।।

कहती है दुनियां लिखने पड़ने में लगता ही नही मन आवारा भौरा जिन्दगी का जिंदगी की सच्चाई से अनजान है।।

क्या करूँ ,दिल तो दिल है, बच्चा बूढ़ा
जिस्म नही चाहत की ना कोई उम्र 
मुकर्रर दिल तो सच्चे मुहब्बत का ईमान है।।

इश्क का भूत नजर नहीं आता दिखता
नही वर्तमान है भविष्य का पता किसको जिंदगी तो खुदा की खुदा ही
जिंदगी का राज है।।
 
इश्क की बीमारी अच्छी या बुरी पता
ही नहीँ मैं बीमार हूँ इश्क से इश्क का
मिल जाना ही इलाज है।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

डॉ० रामबली मिश्र

कृष्ण   (सजल)

कृष्ण बनना बहुत ही कठिन काम है।
कृष्ण में राधिका का सहज धाम है।।

कृष्ण निःस्पृह सदा एक रस प्रेम के।
गोपिकाओं-लताओं के प्रिय नाम हैं।।

कृष्ण लीलाधरण प्रेम में आशिकी।
राधिका के लिये वे निरा काम हैं।।

राधिका नाचतीं कृष्ण को देखकर।
भक्ति की उच्चता की स्वयं वाम हैं।।

कृष्ण कहते सदा राधिके राधिके।
कृष्ण में राधिका का मधुर ग्राम है।।

दोनों दो हैं नहीं एक ही मूर्ति हैं।
दोनों प्रेमी युगल एक ही नाम है।।

प्रेम राधा में है कृष्ण में भी वही।
प्रेम के नाम पर होते सब काम हैं।।

प्रेम द्वापर में पनपा व फूला-फला।
प्रेम की जिंदगी में सदा श्याम हैं।।

प्रेम सच्चा जहाँ कृष्ण रहते वहाँ।
वृंदावन का वहीं  राधिका धाम है।।

रात-दिन प्रीति करते सदा कृष्ण हैं।
प्रीति में दिखता राधा का शुभ नाम है।।

हो नहीं राधे-कान्हा की संगीति यदा।
प्रेम का नाम धरती पर बदनाम है।।

प्रेम करते बहुत पर निभाते नहीं।
छोड़ जाते बहुत करके गुमनाम हैं।।

प्रेम को जो निभाता वही कृष्ण है।
बादलों सा बरसता वह घनश्याम है।।

निभाये जो रिश्ता वही  दिल से प्रियवर।
वंशी की धुन पर मचलते श्री श्याम हैं।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

वर्ण पिरामिड

जो
सेवा
सम्मान
सहज में 
रहता लगा
समझ उसको
है अति प्रिय प्राणी।

ना
कह
हाँ कर
क्या कहने?
ऐसा भावुक
परम दिव्य सा
मनुज मनोहर।

मन
बस जा
रहो सदा
मधु मानव
बनकर नित
कर प्रिय लीला ही।

जो
हर
तरह
सदा रत
सेवक जैसा
समझो उसको
परम सुहावन।

जो
नीचे
रहा है
उसे अब
कृपा करके
ऊपर जाने का
सुनहरा मौका दो।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

पावनमंच को  प्रणाम, तरु,पेड़ का महत्व मेरी रचना में अवलोकन करें...     जौ पेड़ रहैंगे रहेगी खुशाली छाया तथा हरियाली मिलैगी।।                             फल अरू फूल खिलैंगे सदा अरू बाग बसन्त बहारैं खिलैंगी।।                            प्राणवायु बहार रहेगी सदा अरू याही कमी कबहूँ ना खलैगी।।                         भाखत चंचल  जौ तरू नाही तौ या  प्राणवायु ना खोजे मिलैगी।।1।।                  यै पेड़ मधूप ई जामुन आम  जो खाइ रहे हम आप सभी।।                          दादा औ बाबा  लगाये जिन्हँय  वै तौ नाम लिखाये कतौ ना कभी।।                  उपकार करो परूपकारकरौ  मनमा अभिमान ना लाओ कभी।।                      भाखत चंचल नीरद औ नदी नाम गुमान करैं ना कभी।।2।।                         जो पेड़ लगाइ के चित्र खिंचावतु नाम करैं अपना अपना।।                                व्याप्त प्रदूषण है कतना संरक्षण भार अहय  कतना।।                                   पेड़ रिपू जग मा कतने यहौ भाव सुभाव धरौ मनमा।।                             भाखत चंचल पाले बिना यय पेड़ भये जौ निरा सपना ।।3।।                            आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल। ओमनगर, सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी l U. P. Mobile__8853521398, 9125519009ll

सुषमा दिक्षित शुक्ला

मानव धर्म 

मानव धर्म समान जगत में ,
कोई  धर्म नहीं  है ।

मानव सेवा से बढ़कर ,
तो कोई कर्म नहीं है ।

मानवता का मर्म समझ लो ,
यही धर्म की परिभाषा ।

करो सार्थक इस जीवन को,
 यही प्रभु की अभिलाषा ।

बड़े भाग्य मनुजत्व मिला है,
 इसको व्यर्थ गंवाना ना ।

पावन कर्म करो हे! मितवा,
 जीवन को भटकाना ना ।

यही कर्म है यही धर्म  है ,
यह ही कर्तव्य तुम्हारा है ।

मानवता के पावन पथ पर ,
ही  गंतव्य  तुम्हारा  है  ।

मानवता का सेवक ही तो,
 प्रभु सेवा का भागी है ।

यही मर्म जो समझ सका है ,
वह प्रभु का अनुरागी है ।

सुषमा दिक्षित शुक्ला

अमरनाथ सोनी अमर

मुक्तक-अंतर्राष्ट्रीय  नशा दिवस! 

नशा -नाश का जड़ है प्यारे! 
कभी नशा मत करो  दुलारे! 
नशा किये सब होता चौपट! 
मेरी  बात  समझ लो प्यारे!! 

नशा उसी का  नाश करे  वह! 
बीबी -बच्चा   को   बेचे  वह! 
इज्जत, धन  की ना  परवाहें! 
भीख माँगता गली- गली वह!! 

तन - मन उसका भ्रष्ट हुआ है! 
इज्जत ,पर्दा   नहीं    पता   है! 
अपना  नहीं    पराया   समझे! 
मर्यादा    सबका    लेता    है!! 

अमरनाथ सोनी "अमर "
9302340662

एस के कपूर श्री हंस

*शिष्टता हो जीवन में।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
अहम समाप्त  तो     अहमियत
बढ़         जाती      है।
सरलता विवेक तो   इंसानियत
गढ़      जाती         है।।
संपत्ति तभी सार्थक  जीवन  में
जब हो स्वास्थ्य अच्छा।
शिष्टता कर्म लुप्त तो हैवानियत
चढ़        जाती     है।।
2
आदमी तो   आदमियत    से ही
आदमी    बनता   है।
मानव तो     मानवता    से    ही
मानव     बनता    है।।
प्रसिद्धि तभी ही    सार्थक  जब
निरअहंकारिता हो।
इंसान तो   इंसानियत   से     ही
इंसान   बनता    है।।
3
कर्म विहीन  सफलता   अन्याय
दूसरों     के     साथ।
अच्छा हो व्यवहार  यही   न्याय
दूसरों     के     साथ।।
अच्छा होना महत्वपूर्ण  होने  से
ज्यादा    अच्छा    है।
ज्ञान बाद ही   अच्छा  स्वाध्याय
दूसरों    के       साथ।।
4
विशिष्टता   तभी   सार्थक   जब
शिष्टता हो जीवन में।
प्रयास  तभी  सार्थक जब लक्ष्य
अभिष्टा हो जीवन में।।
बिन पुरुषार्थ    कामयाबी    का
कोई मोल नहीं होता।
आत्मविश्वास तभी सार्थक  जब
निष्ठा  हो जीवन में।।
5
बुद्धिमत्ता के साथ विवेकशीलता
जरूरी है जीवन   में।
सुंदरता के साथ  ही    शालीनता
जरूरी है जीवन   में।।
सीरत के बिना सूरत कोई मायने
नहीं     रखती      है।
अनुशासन  साथ संवेदनशीलता
जरूरी  है  जीवन में।।
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।।*

*कॅरोना संकट।।लौट कर फिर वही दिन आयेंगे।।*
*।।विधा।। मुक्तक।।*
1
बचो और बचाओ   यही   आज 
वक़्त की  जरूरत है।
बच्चे बड़े घर पर ही   रहें सुरक्षा
की    एक   सूरत  है।।
कभी दिखें    लक्षण  कॅरोना  के
तुरंत     करवायें  टेस्ट।
यह महा दैत्य.   कॅरोना   यमराज
ही की   एक   मूरत  है।।
2
दूर जरूर रहें पर संवेदनाये कभी
हमारी    शून्य     न   हों।
जरूर है संकट पर दिल  से  दिल
में भावनायें  शून्य न हों।।
वैक्सीन लें आप अति शीघ्र  और
आंतरिक शक्ति को बढ़ायें।
दिमाग में हमारे  यह   संभावनाएँ
कभी यूँ ही   शून्य न हों।।
3
न हों खुद शिकार  कॅरोना के  और
न ही    बांटें   आप  कॅरोना।
स्वयं भी पड़ेंगे  बीमार   और    घर
परिवार को भी पड़ेगा रोना।।
स्वास्थ्य ही धन दौलत चांदी   सोना
है    आज     के   जमाने में।
इस क्रूर कॅरोना काल में  लापरवाही
मतलब जान से हाथ धोना।।
4
फिर वही उजाला होगा बादल अंधेरे
के    छट       से    जायेंगें।
वही खिलखिलाते फूल   होंगें   और
चमन  फिर    मुस्करायेंगे।।
फिर वही महफ़िलों की रौनकें  और
होंगें त्योहारों के उल्लाहस।
बन विश्व गुरु भारत   दुनिया भर  में
परचम    अपना लहरायेंगे।।
*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।*
मोब।।           9897071046
                    8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-2
क्रमशः......*पहला अध्याय*
लच्छन सबहिं लगहिं बिपरीता।
सुनहु हे केसव मन भयभीता।।
      निज बंधुन्ह कहँ जुधि मा मारी।
      होवे कबहुँ न कुल-हितकारी।।
बिजय न चाहहुँ, नहिं सुख-भोगा।
अपुनन्ह बधि का राज-प्रयोगा।।
      हे गोबिंद मीत सुनु मोरा।
      निज कुल नास करन अघ घोरा।।
गुरुजन-ताऊ-चाचा-दादा।
बध निज सुतन्ह नास मरजादा।।
      सुनु मधुसूदन कबहुँ न मारूँ।
      तीनिउ लोक भोग तजि डारूँ।।
निज कुल-बध बस महि-सुख-भोगा।
होवै हे हृषिकेस कुभोगा ।।
       कुरु पुत्रन्ह बध सुनहु जनर्दन।
        मिलइ पाप पून्य नहिं बर्धन।।
बध करि अपुन्ह बन्धवहिं माधव।
बिजय होय बरु होय पराभव।।
       जदपि भ्रष्टचित, लोभ के मोहा।
       कुल बिनास करि लखहिं न द्रोहा।।
कुल बिनास मैं मानूँ पापा।
सुनहु जनर्दन,जुधि अभिसापा।।
      कुल-बिनास कुल-धर्म बिनासा।
       धर्म -नास कुल पाप-निवासा।।
सोरठा-जब बाढ़ै बहु पाप,दूषित हों कुल-नारि सब।
           सुनहु हे माधव आप,बर्ण संकरहिं जन्महीं।।
                          डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372          क्रमशः.....

नूतन लाल साहू

शराबी के चार दिन

शहर हो या गांव हो
बन गया है अमर कहानी
शराबी के चार दिन का
होता है जिंदगी
अच्छा भला चंगा
जाता है भट्ठी
क्षमता से अधिक,शराब पीकर
लड़खड़ाते गिरते
कुत्ता जैसा भौंकता
आता है घर
कभी कभी तो रास्ते में ही
टकरा जाता है गाड़ी
तोड़ देता है दम
शहर हो या गांव हो
बन गया है अमर कहानी
शराबी के चार दिन का
होता है जिंदगी
कभी कभी तो,अनेक शराबी
सुर दुर्लभ मानव तन पाकर भी
करता है चोरी डकैती
पकड़े जाने पर
खाता है मार
पर,घर में दिखाता है अपनी शान
और हर दिन करता है मांग
मुर्गा मटन और
न जाने क्या क्या
जैसे बन गया है चंडाल
और करता है ऐसी ऐसी हरकत
जैसे नही देखना है
अपना और किसी के कल को
शहर हो या गांव हो
बन गया है अमर कहानी
शराबी के चार दिन का
होता है जिंदगी

नूतन लाल साहू

मन्शा शुक्ला

परमपावन मंच का सादर नमन
  ..........सुप्रभात.................
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


शतत् प्रवाह मान
सदा रहे गतिमान
रहो सदा कर्मरत
का देती सन्देश है।

कठिन जीवन  पथ
बैठ  चलों  धैर्य रथ
छोड़ो मत साहस को
देती उपदेश है।

अडिग  हो बढ़ें चलों
खार बीच तुम खिलों
साधों तीर लक्ष्य पर
का देती  निर्देश है।

जीवन का सार कर्म
समझों  इसका  मर्म
 मानव  दुर्लभ  तन
मिलता विशेष है।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

डॉ० रामबली मिश्र

वर्ण पिरामिड

जाओ
घर में
जाना मत
बने रहना
लोग तरसते
तुम अनमोल हो
कभी बाहर न रह
दीदार तेरा हो सतत।

छू
लेना
बहुत
मनहर
छाँव शीतल
शील बनकर
मधुर तरुवर
के तले योगी सदा हो
 अटल सा होना सतत।

क्या
मिला
सुन ले
अगर तू
आ सका नहिं
काम जनहित
कर भला सबका 
सहज में चाह यदि
कल्याण की हो कामना।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--
221-2122-1221-212
 वो मुझको चाहता है मुझे यह गुमान था
मतलब परस्त दौर में जो मेहरबान था

जब उसने मेरे फूल को मसला ज़मीन पर 
उस वक़्त उस के सामने मैं बेज़ुबान था

होती भी कैसे उनसे मुलाकात बारबार
मेरी पहुँच से दूर जो उनका मकान था

दो पल में मेरे दिल की हवेली ही जीत ली
इतना ख़ुलूसमंद मेरा मेज़बान था

महबूब के जो साथ निकलते थे  सैर को 
सहरा भी उन पलों में हमें गुलसितान था 

उस बेवफ़ा का नाम न बदनाम हो कहीं
यह मेरी ज़िन्दगी का बड़ा इम्तिहान था 

अपनी सफाई पेश मैं करता भी किस तरह
उसका हिमायती जो मेरा खानदान था 

मसरूफ़ हर बशर  है यहाँ ख़ुदनुमाई में
इससे तो पहले ऐसा नहीं यह  जहान था 

*साग़र* वो आज मुझसे मिला ग़ैर की तरह
कल तक जो कहता रहता मुझे मेरी जान था

🖋️विनय साग़र जायसवाल, बरेली
24/6/2021

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
🌸🌸🌸🌸🌸🌸
          *सावन*

◆ सावन लाए झूम के ,  बूंँदों की बौछार।
इन्द्रदेव हर्षित हुए , गाए शुभ मल्हार।
गाए शुभ मल्हार , ढोल  मृदंग बजाए।
नाचे छम छम बूंँद, कहकहा खूब लगाए।
कह स्वतंत्र यह बात ,  धरा अनुपम मनभावन।
ऋतुओं में ऋतुराज, कहाता है यह सावन।।

◆ सावन हरियाली लिए, धरा बनाए खास।
हरित पर्ण शोभित सजे, पुष्प सुविकसित आस।
पुष्प सुविकसित आस , धरा नव जीवन पाए।
इंद्रधनुष आकाश, सप्त रंग भाव सजाए।
कह स्वतंत्र यह बात, वास शिव का अति पावन,
निर्मल हो जलधार, ऋतु आए जब सावन।।

◆ सावन की शोभा अलग , व्रत पूजा त्यौहार।
नाग पंचमी को करो, नाग देव सत्कार।
नाग देव सत्कार, बाद हो रक्षाबंधन।
रक्षा का संकल्प, माथ भाई के चंदन।
कह स्वतंत्र यह बात, वरुण का नाम लुभावन।
पूजन अर्चन भाव, देव ऋतु पावन सावन।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*25.06.2021*

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