अमरनाथ सोनी अमर

लोकगीत- हिंडुली! 

बरसत पनिया असढबा महीनबा, 
चला हो चली ना, 
सखियाँ अपने हो खेतबा,       चला हो चली ना! 

धनिया का बिजहा ,                  ले चलीअपने खेतबा, 
बोबाँ हों संँइया ना, 
जब ता जामइ हो धनिया, 
नीका हो लागइ ना! 
बरसत पनिया असढबा महिनबा........ 

धनिया निराबइ ता ,            चलबइ हो सखियाँ, 
नीका हो लागइ ना, 
फुरफुर परइ हो, 
फुहरबा नीका हो लागइ ना! 
बरसत पनिया असढबा महिनबा......... 

धनिया ता उपजइ,              फसल बहु कटबइ, 
कुठिला भरी ना, 
अब ता माला माल होबइ, 
कुठिला भरी ना! 

बरसत पनिया असढबा महिनबा, चला हो चली ना, 
सखियाँ अपने हो खेतबा, 
चला हो चली ना!!! 


अमरनाथ सोनी "अमर "
9302340662

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम

विधा-कविता
विषय-जीवनयात्रा

जीवन यात्रा बड़ी अजब होती 
सुख अरु दुख का यह संगम होती।

यात्रा में मानव  बढ़ता जाता,
कभी हँसता कभी रोता जाता।
पर सच है साथी मेरे प्यारे,
हर पल यात्रा से सीखता जाता।
यात्रा एक शिक्षक होती है,
सुख अरु दुख का यह संगम होती।


कोई भी ग्रंथ उठा कर देखो,
वेद पुराणों में भी पाओगे। 
यात्रा एक हमसफर होती,
आदि से अंत तक इसे पाओगे।
यह मृत्यु के साथ बंद होती है,
सुख अरु दुख का यह संगम होती।

जीवन यात्रा बड़ी अजब होती 
सुख अरु दुख का यह संगम होती।

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम
तिलसहरी, कानपुर नगर

रामकेश एम यादव

मोहब्बत !    ( नज़्म )

बादलों को मोहब्बत है धरा से,
और धरा को मोहब्बत है बादल से।
दोनों को मोहब्बत है इस जहां से,
औ जहां को मोहब्बत है हरेक कण से।
मोहब्बत के बूते चल रही ये दुनिया,
प्रेम के धागे से बँधी है ये दुनिया।
बिना बादल के संसार रहेगा कैसे,
मोहब्बत बिना यह संसार चलेगा कैसे।
समर्पण है देखो! दोनों के अंदर,
इश्क भी तो है दोनों के अंदर।
जहां में जिस्म किसका टिका है,
जवानी का ज्वार कहाँ रुका है।
धरा के गर्भ से नवांकुर है फुटता,
फूल -फल से ही जग महकता।
छूता जब कोई रोम-रोम सिहरता,
अंग -अंग न वो बस में तब रहता।
मोहब्बत अगर परवान न चढ़ती,
इतनी हसीन ये दुनिया न रहती।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

अमरनाथ सोनी अमर

!! 
चौपाई- नया जमाना! 

नये जमाने अब तो आये! 
बेटी बाला  बहु  हरषाये!! 
घर  बैठे  शादी  हो  जाये! 
बिन श्रम बेटी दूल्हा पाये!! 

बेटी   पिता  अहं  में  छाये! 
बिन मन से उनकों बैठाये!! 
पूँछें   हाल  कहाँ  से  आये! 
फिरअभिवादन सादरपाये!! 

चाय, नाश्ता अतिथि करायें! 
असली खबरें अब तो पायें!! 
सुतविवाह हित हम तोआये! 
बेटी   हाथ   माँगने   आये!! 

मुझ दहेज लेना  नहिं भाये! 
केवल कन्या को हम पायें!! 
जो कुछ खर्चा आप बतायें! 
हम लेकर हाजिर हो जायें!! 
 
अमरनाथ सोनी" अमर "

9302340662

प्रवीण शर्मा ताल

*भक्ति रस रोला छन्द*

कृष्णा माखनचोर,सुदामा से यह बोला।
आज चले हम मित्र,माँगने लेकर झोला।।
आटा -चावल- दाल,मिले मैया को देते।
भोजन का आनंद,मस्त होकर हम लेते।।1

मीरा का गोपाल,चराते जंगल गैया।
मीरा की ही भक्ति,सुनो मेरी ही मैया।
वीणा - सुर में ताल,भजन में कृष्णा गावे।
रहकर भूखी-तृषा ,मुझे ही दही खिलावें।।2

मेरे  प्रभु गोपाल,धरा पर फिर से आओ।
 भूखी प्यासी गाय,हरा तुम चारा लाओ।
गो है आज अनाथ ,चराने फिर से  आओ।
एक बार  प्रभु रूप,  ग्वाल फिर से दिखलाओ।।3


मीरा कहती नाथ,मलाई माखन खाओ।
काठी मथनी डोर, खींचने तो घर आओ।
मैं देखूं गोपाल,तुझे ही माखन खाते।
छुपके- छुपके द्वार,गाय को घास खिलाते।।4

जग में सूरज चाँद, धरा जगदीश बनाए।
धरती पर ही जीव,यही प्रभु गिरधर  लाए।।
कण -कण में ही ईश,बसे रचते है माया।
नैया है मझधार ,उबारो दुख में  काया।।5

कहता है यह कौन,नहीं प्रभु कृष्णा आते।
मीरा जैसा गान,जरा सुर मय तो गाते।
कहता है यह कौन,नहीं प्रभु तो कुछ खाते।
शबरी के ही बेर,प्रेम से मनन खिलाते।।6

सुनकर आए कृष्ण, द्रोपदी दिल से बोली।
भरी सभा के बीच ,आज फैलाई झोली।
प्रभु साड़ी को खींच, रहा है चीर बढ़ाओ।
हे प्रभु !दीना नाथ, आज मम लाज बचाओ।।7

आओ मेरे नाथ,द्वारकाधीश को पुकारी
सुबह -शाम यह  कृष्ण,बाल बलराम दुलारी।
करती मीरा भजन,हर्ष से माखन देती।
 वो माखन का भोग, प्रसाद स्वयं भी लेती।।8

*✍️प्रवीण शर्मा ताल*
*@स्वरचित मौलिक रचना*

सुधीर श्रीवास्तव

************
आइए ! बीती बातों को बिसारें
अपना आज सँवारें।
जो बीत गया उसे 
सुधार तो नहीं सकते
फिर उसी चिंता में क्यों घुलते?
अब तो बस आज की ही सोचिए
कल की कमियों को 
अब से दूर कीजिए,
कल फिर न पछताना पड़े
ऐसा कुछ कीजिए।
जीवन चलने का नाम है
सदा आप भी चलते रहिए,
रात गई बात गई आगे बढ़िए
बेकार की चिंता में डूबे रहने से
कुछ हासिल तो होगा नहीं।
माना कि बीता कल अच्छा नहीं था
उसे सपना समझ भूल जाइए
उठिये, बुलंद हौसले के साथ
हँसते मुस्कुराते हुए
आज को सँवारिए।
● सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
© मौलिक, स्वरचित

रवि रश्मि अनुभूति

         एक प्रयास 
*********
बह्र ----
2122    1212    22

हिंद की यह धरा सुहानी है .....
प्यार की ये सदा कहानी है .....

खुशनुमा आज तो हैं सब राहें .....
हर डगर प्यार की निशानी है .....

रोक दें राह दुश्मनी की हम .....
राह प्यारी अभी दिखानी है .....

रूप मलिका यहाँ रही देखो .....
वाह हर ओर शादमानी है .....

रंजिशें छोड़ कर बढ़ो आगे .....
प्यार से हर अदा सजानी है .....

कोकिला कंठ से ज़माने में .....
कूक न्यारी अभी लगानी है .....

देश के गीत हम सुनो गायें .....
एकता की नज़्म सुनानी है .....

आज भारत विजय करें हम तो ..... 
चीन की चीज़ हर जलानी है । 
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(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '
मुंबई   ( महाराष्ट्र ) ।
######################
●●
C.
🙏🙏समीक्षार्थ व संशोधनार्थ ।🌹🌹

डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी

*राम बाण🏹अपनों से ही द्वंद कराये*

        अपनों से ही द्वंद करायें।
     बिना युद्ध के जंग करायें।।
 घऱ-घर ज्वाला धधक रही है।
    आग लगी है कौन बुझाये।।

 गली सड़क में भीड़ लगी है।
      चौपालो में होड़ लगी है।।
          महारोग फैला है ऐसे।
        मँहगाई बढ़ती है जैसे।।
         मौतें कैसी बढ़ते जाये। 
 काल खड़ा है मुँह को बाये।।

        कोई टीका लगा रहे हैं।
       सोये को वे जगा रहे हैं।।
    कहीं दोगली भाषा चलती।
    मौतों में भी आशा पलती।।
      आशाओं के बादल छाये।
    बहती लाशे उन्हें दिखाये।।

       समझौते में दल थे आगे।
     छिपते हैं अब भागे-भागे।।
          मौके पर वे बात करेंगे।
      कथा कहानी और गढ़ेंगे।।
   भ्रम के सेवक भूख दिखाये।
        दर्द दवा के रोग लगाये।।

    कहीं वैक्सीन की है चोरी।
     कोई करता सीना जोरी।।
    पैसों ने क्या खेल किये हैं।
    हवा बेचकर बेल लिये हैं।।
  हक माँगों की आश जगाये।
   कौम खड़ी है घात लगाये।।

        राम कहेंगे देश सँवारो।
  भ्रमजीवी को दूर निकारो।।
  सही राह के पथिक नहीं है।
जो है पर वे व्यथित नहीं हैं।।
    श्रम सेवा के भाव जगाये।
   सोच बदलने द्वार सजाये।। 
*डॉ.रामकुमार चतुर्वेदी*

मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
      *माली*
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◆ माली सीचें बाग को, कुसुमित होते फूल।
शोभित सुंदर वाटिका,धन्य धरा शुभ मूल।
धन्य धरा शुभ मूल, हरित तरुवर  बहु भाए।
फल आच्छादित वृक्ष,  देख मन बहु हर्षाए।
कह स्वतंत्र यह बात, धरा हो कहीं न खाली।
एक मंत्र ही याद , सतत् रखता है माली।।

◆ माली अभिभावक बना, पालन शुभ कर्तव्य।
संकल्पित नव भाव से, रूप बनाए भव्य।
रूप बनाए भव्य, ईश की कृपा समाए।
जीवन दाता धर्म, कर्म ही मन को भाए।
कह स्वतंत्र यह बात, पवन से झूमे डाली।
थिरके कुसुमित पुष्प, देख हर्षित  है माली।।

◆ माली कोमल भाव से, सदा लगाए बाग।
प्रेम, धैर्य  अरु साधना, अति शोभित अनुराग।
अति शोभित अनुराग, सतत् जीवन सुख पाता।
बीज लगाए पौध, पौध से वृक्ष बनाता।
कह स्वतंत्र यह बात, सभी यह प्रण लो खाली।
एक लगाओ वृक्ष, सीख देता यह माली।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज✒️*
*27.06.2021*

डॉ० रामबली मिश्र

कामना (सजल)

आप आये नहीं कामना के लिये।
क्यों न हिम्मत हुई सामना के लिये।।

कामना एक अंकुर धराधाम पर।
सींच इसको सदा भावना के लिये।।

मार देना नहीं मूल विकसित करो।
जीव बनना स्वयं साधना के लिये।।

पावनी चिंतना का यशोगान हो।
जाग जी भर मनुज वंदना के लिये।।

कामना को कुचलता नहीं है मनुज।
दनुज जीता सतत यातना के लिये।।

प्रिय जहाँ भाव में प्रेम का सिंधु है।
वह न जीता कभी वासना के लिये।।

कामना को समझ मत कभी वासना।
कामना जी रही शिवमना के लिये।।

शिवमना है जहाँ सत्य जीवित वहाँ।
सत्य जीता सहज सज्जना के लिये।।

कामना है बुलाती सकल विश्व को।
आप आओ रहो जन-धना के लिये।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*वर्षा*(चौपाइयाँ)
उमड़-घुमड़ नभ बदली छायी।
झूम-झूम  कर  वर्षा  आयी।।
सोंधी-सोंधी खुशबू आती।
हर कोना महि का महकाती।।

बूढ़ी नदी बहे इठलाती।
जल-जीवों को गले लगाती।।
धरा ओढ़कर धानी चुनरी।
लगे नवोढा सुंदर-सँवरी।।

दामिनि-दमक-चमक-नभ शोभित।
घन-मंडित-आभा मन मोहित।।
विरहन-विरही-हिय हुलसाता।
मधुर मिलन-भाव मन भाता।।

वन - उपवन - पर्वत  हर्षाते।
वर्षा-जल  में  मुदित नहाते।।
धरा  तृप्त  हो  पाकर  पानी।
सब ऋतुओं  की  वर्षा  रानी।।

पंक्ति-बद्ध दादुर की वाणी।
लगती वेद-ऋचा कल्याणी।।
धन्य-धन्य  हे  वर्षा  रानी।
बिना  दाम  ही  देती पानी।।
        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
           9919446372

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--
221-2122-221-2122
क़िस्मत जहां में होती ऐसी किसी किसी की 
ख़्वाहिश हरेक पूरी हो जाये आदमी की 

जिससे शुरू हुई थी बस बात दिल्लगी की
वो बन गयी है मूरत अब मेरी बंदगी की 

उसको चटक भटक की होगी भी क्या तमन्ना
महबूब कर रहा हो तारीफ़ सादगी की 

 वो चाँद आ रहा है बरसाता चाँदनी को 
आफ़त में जान आई अब देखो तीरगी की

हर शेर मेरा उसकी लिख्खा है डायरी में
दीवानी हो गयी है वो मेरी शायरी की 

साक़ी तेरी नज़र से पी पी के रोज़ साग़र
आदत सी हो गयी है अब हमको मयकशी की 

बस ख़्वाब ही दिखाता जाता हो जो बराबर
हमको नहीं ज़रूरत है ऐसी रहबरी की 

करते हैं लोग मेरी तारीफ़ पीठ पीछे 
सारी कमाई  *साग़र* बस यह है ज़िन्दगी की 

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
26/6/2021

मन्शा शुक्ला

परम पावन मंच का सादर नमन
       सुप्रभात
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
............................


माखन चोर  कन्हैया मेरों
चित्त चुराय के ले गयों मेरों
फोंड़ मटुकिया माखन खायें
ग्वाल बाल संग धूम मचायें
चित्र लिखित सी रही मैं थाड़ी
अधर मौन मुख आवें न वाणी.......2
माखन चोर...............................।

वेणू   मधुर  बजावें   मनहर
सुध बुध मेरी   लीन्ही  है हर
साँवली  सूरत  मोहनी मूरत
बलि बलि जाँऊ तुम पर गिरधर
भक्तन हित  प्रभु लीला  करते
प्रेम बशीभूत ओखल से बँधते.....2
माखन चोर.......................।

गेंद खेलन का करके बहाना
नागनाथ  बिष मन  का हरते
 लीला चीर हरण की करके
निति ज्ञान का  सन्देशा  देते
प्रबलप्रेम  के  पाले पड़कर
छाँछ हेतु नृत्य गिरधर करतें.....2
माखनचोर........................।।

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

सुधीर श्रीवास्तव

पथिक
******
पथ कैसा भी हो
कठिन हो या सरल हो
चलना आसान नहीं होता है,
फिर भी चलना ही होता है
आगे बढ़ना ही होता है,
सावधान भी रहना ही पड़ता है।
आसान पथ समझ
लापरवाह नहीं हो सकते,
मुश्किलों भरा पथ हो तो भी
डरकर रुक नहीं सकते।
जीवनपथ हो या यात्रा पथ
हरहाल में चलना ही पड़ता है,
पथिक हैं हम सब 
पथिक को पथ तो निरंतर
तय करना ही पड़ता है
आगे बढ़ना ही पड़ता है।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
    8115285921
©मौलिक, स्वरचित

रामबाबू शर्म राजस्थानी

हाइकु..
        🌾 नारी की महिमा🌾
     
                नारी से ही है
               पहचान जग में
                महिमा जानें ।
           🤷‍♀🤷‍♀🤷‍♀🤷‍♀🤷‍♀
                कभी न टूटे
             सरल कोमलता
               लक्ष्मी महिमा ।
           🕉🕉🕉🕉🕉
               तीर्थ समान
             समझे सब बात
              सेवा क्यों नहीं ।
           🙏🙏🙏🙏🙏
               जीवन लीला
             टूटे नही विश्वास
                यही संस्कार ।
          👫👫👫👫👫
                सर्व गुणों की
              यह मात स्वरूपा
                महिमा न्यारी ।
          👏👏👏👏👏👏
                पूजा की थाली
              यह बात निराली
                 मन को भाती ।
          🐚🐚🐚🐚🐚🐚
       ©®
          रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-4
क्रमशः......*पहला अध्याय*
संकरबर्ण होंय कुलघाती।
नरकहिं जाँय सकल संघाती।।
       पिण्डदान-जलक्रिया अभावहिं।
       केहु बिधि पितर मुक्ति नहिं पावहिं।।
अनंत काल रह नरक-निवासा।
होवहि जब कुल-धर्महि-नासा।।
      सुनहु जनर्दन हे बर्षनेया।
      कुल-बिनास नहिं लेबउँ श्रेया।।
मिलै न सुख निज कुल करि नासा।
सुनहु हे माधव,मम बिस्वासा ।।
      करिअ न जानि-बूझि बिषपाना।
       जे अस करै न नरक ठेकाना।।
राज-भोग,सुख-भोग न मोहा।
हम बुधि जनहिं न कछु सम्मोहा।।
       अस्तु,सुनहु हे मीत कन्हाई।
       अघ करि,जदि सुख, मोहिं न भाई।।
दोहा-रन-भुइँ जदि धृतराष्ट्र-सुत,सस्त्रहीन मोहिं जान।
        घालहिं,मों नहिं रोष कछु,तदपि चाहुँ कल्यान।।
        अस कहि के अर्जुन तुरत,जुद्ध मानि दुर्भाग।
        बान औरु धनु त्यागि के,बैठे रथ-पछि-भाग।।
                         डॉ0हरि नाथ मिश्र
                          9919446372
                     पहला अध्याय समाप्त।

कुमकुम सिंह

तितली

मेरे सपने में आई रंगीन तितलियां ,
 तितलीयां  कहने लगी मुझसे चल हवा में उड़ ।
अपनी पंखों को फैला थोड़ी सी मुस्कुरा ,
तुम भी थोड़ा सा हंस लिया करो ।
अपने लिए भी जी लिया कर ,
खुद को इतना मत तड़पा ।
मेरी तरह हवा में लहरा,
 कुछ तो गुनगुना।
 बहुत खूबसूरत थी वह हसीन सपने,
 मानो जैसे मैं वादियों में उड़ने लगी।
 हवाओं में खुशबू बिखेरने लगीं,
 तितलियों की तरह इठलाती और बलखाती रही।
 कभी इस डाल दो कभी उस डाल को चुमती रही, मदमस्त होकर इधर से उधर घूमती रही ।
ना जाने कब आंख खुली,
 और सारे सपने टूट कर बिखर गए ।
मैं फिर से वापस वही अपने आप से मिली,
 कितने हसीन थे वो पल ।
 काश हम भी तितली होते,
 तो अपने पंखों को हवा में खूब लहराते।
 ऊंची ऊंची उड़ान भरते,
 कभी जमीन तो कहीं आसमान की ख्वाब देखते। लिखने को तो पूरी कायनात कम पड़ जाते हैं, 
परंतु आज सपने को यहीं छोड़कर कल कुछ और लिखते।
            कुमकुम सिंह

एस के कपूर श्री हंस

प्रेम।।*
*।।शीर्षक।।प्रेम से परिवार*
*बनता स्वर्ग समान है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
परिवार छोटी सी   दुनिया
प्यार का  इक   संसार  है।
एक अदृश्य स्नेह प्रेम का
अद्धभुत सा   आधार   है।।
है बसा प्रेम  तो  स्वर्ग  सा
घर   अपना   बन    जाता।
कभी बन्धन रिश्तों का तो
कभी मीठी     तकरार   है।।
2
सुख  दुख  आँसू   मुस्कान
बाँटने का परिवार है  नाम।
मात पिता   के   आदर  से
परिवार बने है  चारों  धाम।।
आशीर्वाद,स्नेह,प्रेम ,त्याग
की डोरी से बंधे होते  सब।
प्रेम  गृह की छत  तले  तो
परिवार  है   स्वर्ग   समान।।
3
तेरा मेरा नहीं हम  सब का
होता    है     परिवार     में।
परस्पर  सदभावना बसती
है  यहाँ हर      किरदार  में।।
नफरत ईर्ष्या का  कोई भी
स्थान नहीं  घर  के  भीतर।
प्रभु स्वयं ही आ बसते बन
प्रेम की मूरत घर  संसार में।।


*।।जीवन ,,,,सहयोग व संघर्ष*
*का दूसरा नाम।।*
*।।विधा।।हाइकु।।*
1
सवाल भी है
यात्रा ऊपर नीचे
जवाब भी है
2
जीवन भाषा
बिना रुके चलना
ये  परिभाषा
3
रूठो मनाना
कभी खुशी या गम
जोश जगाना
4
भागती दौड़
यहाँ अनेक मोड़
मची है होड़
5
जिंदगी जंग
बहुत निराली है
होते हैं दंग
6
घृणा ओ प्यार
हर  रंग  इसमें
हो      एतबार
7
रूप अजब
अद्धभुत है यह
है ये गज़ब
8
दोस्ती संबंध
चले यकीन से ही
ये अनुबंध
9
ये हो दस्तूर
दुनिया में जीने को
प्रेम जरूर
10
ये इकरार
निभाना जरूरी है
नहीं इंकार
11
नहीं बिखरो
संघर्ष से संवरो
तुम निखरो
12
एक  दस्तूर
प्रेम हो भरपूर
ये हो जरूर
13
कीमती शय
यकीन की दौलत
टूटे  न   यह
*रचयिता।एस के कपूर*
*"श्री हंस"।बरेली।*
मो    9897071046
       8218685464

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

                                नृप होता यदि सारे जग का,                       क्षीर सिन्धु मा रहता।।                             मगरमच्छ सेनापति होता,                           ह्वैल को मन्त्री चुनता।।                         बाकी जीव का पहरा होता,                      पोत ना कतौ गुजरता।।                          सूर्य चाँद रखवाली नभ की,                   नित ध्रुव निशा चमकता।।                         आतंक कलह थल पर नहि होता,              रामराज्य डग भरता।।                                दैहिक दैविक ताप ना होते,                     भौतिक ना कहूँ जमता।।                       यमदूतों को कैद कराता,                        रावन कहीं ना जमता।।                         देवी देव मौज नभ करते,                        भैरव पहरा भरता।।                             खानपान की कमी ना होती,                      वयरस कतौ ना जमता।।                        जलनिधि सबु अगवानी करते,                   पर्वत  हामी भरता ।।                              चंचल राजकाज जग होता,                     मायाजाल ना रमता।।                           आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल। ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी ,अमेठी,उ.प्र.। मोबाइल.8853521398,9125519009।।

स्नेहलता नीर

माहिया छंद
*********
1
लगता सबसे न्यारा
दिल में  बसता  वो
साजन  मेरा प्यारा
2
तुम दूर नहीं  जाना
तुमको अब  मैंने 
अपना सब कुछ माना
3
जग बैरी सारा है
कैसे समझाएँ
ये पहरा कारा है
4
मदिरा की प्याली है
चंचल सी चितवन
अधरों पर लाली है
5
आया कोरोना है
भय कंपित सारा
जन -मन का कोना है।
6
विरहा की मारी हूँ
आ  जाओ साजन
मैं अति दुखियारी हूँ
7
तू जब मुस्काती है
जादूगरनी सी
ये चित्त चुराती है
8
कोयल की सी बोली है
चाल हिरनिया सी
सजनी तू भोली है
9
मिलने आया बादल
शोर मचाती क्यों
क्या पागल है पायल 
10
दुख की बदरी बरसी
दर्शन को उनके
उम्मीद बड़ी  तरसी

-स्नेहलता'नीर'
प्रीत विहार रुड़की,उत्तराखण्ड

सुधीर श्रीवास्तव

भूला इंसान
**************
बड़ा अजीब सा लगता है
कि हम विकास के पथ पर
आगे बढ़ रहे हैं,
आधुनिकता को विकास का
पैमाना मान रहे हैं,
पर हम अपनी ही संस्कृति
सभ्यता और परम्पराओं से भी
दूर हुए जा रहे हैं,
मगर अफसोस तक भी
नहीं कर रहे हैं।
अफसोस करें भी तो कैसे करें?
जब हम इंसानियत और
संवेदनाओं से बहुत दूर जा रहे हैं।
शिक्षा का स्तर बढ़ा
रहन सहन का स्तर भी,
परंतु बहुत शर्मनाक है कि 
हमारी संवेनशीलता का स्तर
लगातार गिर रहा है,
गैरों के लिए तो किसी को
जैसे दर्द ही नहीं हो रहा है,
अपनों के लिए भी अब इंसान
लगता जैसे गैर हो रहा है।
इंसान इंसानियत भूल रहा
सच कहूँ तो ऐसा
बिल्कुल नहीं है,
बल्कि सच तो ये है कि
इंसान शायद भूल रहा है कि
वो भी एक अदद इंसान है।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
       गोण्डा, उ.प्र.
      8115285921
©मौलिक, स्वरचित

डाॅ० निधि त्रिपाठी मिश्रा

*मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय* 

मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय,
गठरिया सम्भले ना सम्भराय।

पाप- पुण्य की बँधी गठरिया,
धरी शीश पर झुकी कमरिया ,
ओढी-ढाँकी सगरी करनिया,
मटमैली हुई उजली कमरिया,
ओढी़ नहि पुनि जाय,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय।

कोख में प्रभु ने भेजा जब था,
नाम उसी का रटता तब था ,
आँख खुली जब देखी दुनियाँ,
सब भूली पिजरे की चुनियाँ,
मोह विवश होइ जाय,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय।

माया ने क्या खेल रचाया,
जग व्यवहार समझ नहि आया,
मोह पाश अतिशय है भाया,
और घेरती जाती माया,
माया हिय भरमाय,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय।

भव बन्धन में जकड़ गया जब,
तृष्णा अगन में झुलस गया तब,
ये माया कब पीछा छोडे़,
विपदाओं से नाता जोडे़,
ठगा ,लखत रहि जाय ,
मुसाफिर खडा़ खडा़ लुट जाय।


हिरनी जैसा मन अति व्याकुल,
भटकत निसदिन होकर आकुल,
मन सन्तोष परम धन नाही,
धीरज धरत नाहि मन माही
हाथ मलत रहि जाय,
मुसाफिर खडा़-खडा़ लुट जाय।

प्रियतम का घर पीछे छूटा,
प्रेम का बन्धन लगता झूठा,
कौन है ?अपना कौन पराया,
जग व्यवहार समझ नहि आया ,
संग में कुछ ना जाय ,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय...

बहुत विचारा ,सोचा समझा,
उलझन मन की सका न सुलझा,
अन्त समय जब निकट है आया ,
हरि सुमिरन ही अधिक सुहाया,
अँखियन नीर बहाय,
मुसाफिर खडा़ खडा़ लुट जाय।
गठरिया सम्भले ना सम्भराय।


.स्वरचित-
डाॅ०निधि त्रिपाठी मिश्रा,
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर ।

अरुणा अग्रवाल


शीर्षक "श्रीकृष्णजी की बांसुरी"

श्रीकृष्ण की बाँसुरी सुरीला,
आवाज मात्र से तन-मन,मचले,
चाहे राधा हो या मीरा या गोपी,
दौड़ा चला आऐ,कृष्ण ने बुलाऐ।


किसन की बांसुरी मोहन,
मधुर,सरगम,तान है सुनाऐ,
गोप,गोपा का मन चंचल-भाऐ,
न रह सकें धावन बिना,सुनके,रास।।



चाहे यमुना का तट हो या गंगा,
हर छोर से माधुर्यभरा सूर सुनाऐ,
अहोभाग्य है जो बेणु रहके बजाऐ
माखनचोर,नंदकिशोर बेणुधर कहलाऐ।।



श्रीकृष्ण हैं चपल,चंचल भाव से,
रह रह के मुरलीगंज,आप्लावित,
सुन गोपागंना,मटका छोड़,धं।ऐ,
कवि देखके सुन्दर नजारा,कलम,उठाऐ।।



श्रीकृष्ण लीला-माधव लीला रचे,
श्रीराधा,मीरा,रुक्मणी दौड़ लगाऐ
ऐसा पावन नजारा मनको है भाऐ
कृष्णचन्द्र हैं प्रेमानंद,लीलाचोर,कहलाऐ।।


अरुणा अग्रवाल।
लोरमी,छःगः,
🙏🌹🙏

सुधीर श्रीवास्तव

अपने
++=++
कौन अपना कौन पराया
सोचना है सोचते रहिए
ये बेकार की बातें।
न कोई अपना न ही पराया
जो हमें अपना समझे ही नहीं
सुख दु:ख भी मिलकर बाँटे,
अच्छा बुरा समझाये
हमारे गलत कामों की राहों में
दीवार बन जाये,
अच्छे कामों में 
समय के अनुकूल
साथ निभाये, हौसला बढ़ाये
वो ही अपना कहलाये।
अपना होने का दँभ भरे
स्वार्थ का लबादा ओढ़े
अपना अपना रटता हो
विश्वास दिलाता रहे
नुकसान भी पहुँचाता रहे
गलत राहों पर भी ले जाये
ऊपर से हौसला भी बढ़ाये,
अच्छे कामों और मेरी उन्नति में
रोड़ा अटकाए वो नहीं अपने।
अपने सिर्फ़ अपने होते हैं
आजकल तो अपने भी सपने होते हैं,
अरे अपने तो वो होते हैं
जो रिश्ते नातों में नहीं होते
फिर भी अपनों से भी अपने होते हैं,
अपना बनकर चालें नहीं चलते
दूर हो जायें तो सपना बन जाते हैं
आँखों में आंसू बन
हमेशा याद आते हैं,
सदा दिलों में बसे रहते हैं
बस ! वो ही अपने हैं।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
      गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921
©मौलिक, स्वरचित

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम

नमन मंच

एक कविता

कितना अच्छा होता 
जो मानवता भी झरना सा बहती।
 करने को सबको खुशहाल
सारी पृथ्वी पर जल सा बहती।

आज देखो समाज में
मानवता बंजर सा बन के ठहरी।
चालाकी और धूर्तता,
बनी आज देखो कैसी प्रहरी।

अब कुछ परिवर्तन
समाज में लाना ही होगा।
मानवता हित
इंसानियत का दीप जलाना होगा।

फैला दो भाव
मानवता का  इस जगत में सभी,
सच मानो साथी
जग में नहीं रुकेगा कोई संकट   कभी।

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम

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