मधु शंखधर स्वतंत्र

*स्वतंत्र की मधुमय कुण्डलिया*
            *कोरा*
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◆ कोरा कागज यूँ रहे , उज्ज्वल धर परिधान।
रंग भरे जब लेखनी, शब्द करे संधान।
शब्द करे संधान, वृहद् शुभ भाव निराला।
शोभित अनुपम सृजन, नृत्य जैसे सुरबाला।
कह स्वतंत्र यह बात, रंग कोरा का गोरा।
सप्त रंग के साथ,  गया रच कागज कोरा।।

◆ कोरा जब तक मन रहे, भाव नहीं चितचोर।
प्रीत रंग जब भी मिले, नाचे मन का मोर।
नाचे मन का मोर , देख कर मेघ घनेरे।
इंद्रधनुष के रंग, बसे तन मन में मेरे।
कह स्वतंत्र यह बात, यहाँ क्या तोरा मोरा।
विस्तृत मन के भाव, सहज होता मन कोरा।।

◆ कोरा कोरा देख के, चाहें भरना रंग।
रंग भरी दुनिया यहाँ, दिखी अनेको ढंग।
दिखी अनेको ढंग, सतत् परिवर्तन होता।
जो होता बेरंग, खुशी मन की वह खोता।
कह स्वतंत्र यह बात, वजन तन जैसे बोरा,
हल्का तन मन साथ, रंग मधुमय यह कोरा।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*✒️
*30.06.2021*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत
         *गीत*(16/16)
मेरे जीवन के उपवन के,
सूखे पुष्प शीघ्र खिल जाते।
पूनम की संध्या-वेला में-
सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

उमस-ताप से व्याकुल धरती,
को भी अद्भुत सुख अति मिलता।
उछल-उछल कर नदियाँ बहतीं,
लखकर प्रेमी हृदय मचलता।
पावस बिना गगन में घिर-घिर-
अमृत जल बादल बरसाते।
       सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

तेरे गीत सुहाने सुनकर,
पशु-पंछी अति हर्षित होते।
सुनकर तेरे मधुर बोल को,
जगते जो भी दिल हैं सोते।
फँसे कष्ट में व्यथित-थकित मन-
औषधि मीठी पा मुस्काते।
       सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

मस्त हवा भी लोरी गाती,
सन-सन बहती जो गलियों में।
लाती गज़ब निखार चमन में,
भरकर गंध मृदुल कलियों में।
भन-भन भ्रमर-गीत मन-भावन-
को सुन प्रेमी-मन लहराते।
      सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

प्रकृति नाचने लगती सुनकर,
तेरा गान विमल अति पावन।
बिना सुने ज्यों कहीं दूर से,
स्वर ढोलक का लगे सुहावन।
बिना सुने अनुभूति गीत से-
विरही-हृदय परम सुख पाते।
      सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।

हे,मेरे मनमीत सुरीले,
सुनो ज़रा इस दिल की पुकार।
देव-तुल्य यदि स्वर है तेरा,
मधुर मेरी वीणा-झनकार।
वीणा का मधुरिम स्वर सुनकर-
व्यथित-विकल मन अति हर्षाते।
   पूनम की संध्या-वेला में,सप्त सुरों में यदि तुम गाते।।
             ©डॉ हरि नाथ मिश्र
                 9919446372

निशा अतुल्य,

प्रेम और स्पर्श

किसने जाना
जीवन समर्पण
अंधे है सभी।

वो लालसाएं
मुखरित भटके
जीवन खत्म ।

समझा कौन
प्रेम और स्पर्श हो
स्वार्थ रहित ।

माँ समर्पित
निस्वार्थ करे कर्म
संतुष्ट रहे ।

अंत समय
कठिन है जीवन 
बुरा बुढापा ।

पाला सबको
अशक्त जन्मदाता
घर बाहर ।

सम्मान करो
सदा जन्मदाता का
मन के भाव ।

आशीष मिलें
सफल हो जीवन
विश्वास रख ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

अतुल पाठक धैर्य

शीर्षके-रिश्तों की बुनियाद
विधा-कविता
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रिश्तों की बुनियाद होती विश्वास है,
जो रिश्ते जुड़ते विश्वास के सहारे वो होते ख़ास हैं।

भरोसे के बिन हर रिश्ता टूट जाता है,
बड़े अनमोल होते हैं वो रिश्ते जिनमें आपसी समझ और भावनाओं का समंदर बहता है।

रिश्तों में अपनेपन की मिठास दिल से जोड़े रखती है,
बिना समझ के हो कड़वाहट जो रिश्ते उधेड़ने लगती है।

रिश्तों में अपनेपन का क़ुरबत एहसास  होना चाहिए,
कभी डिग न पाए रिश्तों की बुनियाद दिल के तार इतने मज़बूत होने चाहिए।

रचनाकार-अतुल पाठक "धैर्य"
पता-जनपद हाथरस(उत्तर प्रदेश)
मौलिक/स्वरचित रचना

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

2-शीर्षक -मर्यादाओं के राम----

चलो आज हम राम बताएं
राम मर्यादा  अपनाएँ राम रिश्ता मानवता की अलख जगाएं।।

प्रभु राम का समाज बनाएं
मात पिता की आज्ञा सेवा 
स्वयं सिद्ध को राम बनाएं।।

भाई भाई के अंतर मन का
मैल मिटाए ,भाई भाई में बैर नहीं भाई
भाई को भारत का भरत बनाएं।।

लोभ ,क्रोध का त्याग करे समरस
सम्मत समाज बनाएं,सम्मत सनमत बैभव राम नियत का दीप जलाए।।

कर्म धर्म श्रम शक्ति निष्ठां ,धन चरित पाएं ,पावन सरयू की धाराएं कलरव करती ,जन्म जीवन का अर्थ सुनाएँ।।

भव सागर का स्वर्ग नर्क,केवट खेवनहार बनाये भेद भाव रहित राम भव सागर पार कराएं।।          

निर्विकार निराकार राम सबमें साकार राम बोध प्राणी प्राण का दर्शन पाएं।।

राम सिर्फ नाम नहीं ,राम मौलिक
मानवता सिद्धान्त, राम रहित जीवन बेकार सांसो धड़कन पल प्रहर में
राम बसाएं।।

राम बन वास का रहस्य जल ,वन जीवन का राम दैत्य ,दानव से भयमुक्त धर्म ,दया ,दान ऋषिकुल बैराग्य विज्ञान का राम।।

सेवक राम यत्र तंत्र सर्वत्र राम
राम से बिमुख ना जाए चलो आज हम राम बताएं राम मर्यादा का युग अपनाएं।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

शीर्षक -माँ


माँ मुझे चरणों में  जगह दे ,ममता का तू आँचल ओढ़ा दे, और मुझे क्या चाहीये।।

माँ  दूध तेरा अमृत  
आशीष प्यार तेरा ,ढाल
और मुझे क्या चाहिये।।

माँ मैँ तेरी सेवा करूँ
मूरत भगवान की तुझमे
देखा करूँ मुझे और क्या चाहिये।।

पल प्रहर तेरे ही अरमानो को जिया करूँ तेरे ही पलों की जिंदगी
पला बढ़ा कोई गिला ना शिकवा
करूँ और मुझे क्या चाहिये।।

नौ माह तेरी कोख ने पाला
हर दुःख पीड़ा का पिया विष हाला
माँ कर्ज़ तेरा कैसे मैँ उतार दू,तेरे कर्ज का फ़र्ज़ को दूँनिया पे वार दूं  और मुझे क्या चाहिये।।

माँ  मैं तेरा सूरज चाँद 
तू ही कहती है ,बापू का नाज
मरे लिये तू ही धरती आसमान
जन्नत जहाँ और मुझे क्या चाहिये।।


माँ तू मेरी शरारत को कहती सही
मैं किसी भी हद से गुजर जाऊं सहती
माँ मेरी हस्ती तू, मेरी मस्ती तू, मेरे जज्बे की ज्योति तू और मुझे क्या चाहिए।।

माँ तू शक्ति है, माँ तू मेरी भक्ति है,
मेरे समर्थ की ज्वाला दूँनिया में मेरे
रिश्तों की धुरी है ।।                   

माँ मेरा तू आसरा,माँ मैँ तेरा ही आश विश्वाश मुस्कान,और मुझे क्या चाहिये।।

माँ जब भी लूँ जनम मैँ ,तेरा ही बेटी या बेटा रहूं ,तेरी ममता के आंचल पे जन्नत भी शरमाये मुझे और क्या चाहिये।।

नंदलाल  मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

डॉ० रामबली मिश्र

हरिहरपुरी के सोरठे

जब आता संतोष, कामना मिटती जाती।
सदा आत्म को पोष,आशुतोष का भाव यह।।

अपना जीवन पाल, सदा रहो सत्कर्म रत।
सत्कर्मों का हाल, सहज शुभप्रद सुखदायी।।

मन से कभी न हार, रहे मनोबल अति प्रबल।
मन तन का श्रृंगार, यदि यह पावन शिवमुखी।।

इन्द्रिय को ललकार, शुद्ध बुद्धि से काम कर।
ईर्ष्या को धिक्कार,दुश्मन है यह प्रेम का।।

करता जो स्वीकार,गलत राह को हॄदय से।
बन जाता आधार, वह अपराधी जगत का।।

मन में अतिशय लोभ, कारण बनता नाश का।
होता जब है क्षोभ,सिर धुन-धुन कर पटकता।।

तन-मन-उर अरु बुद्धि,करो जरूरी संतुलन।
जहाँ ध्यान में शुद्धि,वहाँ व्यवस्था स्वस्थ प्रिय।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुर
9838453801

अमरनाथ सोनी अमर

कुण्डलिया- आनंद! 

आये जब मेरे गृहे, अतिथि अरू दिलदार! 
अति मिलता आनंद है, मन खुश होयअपार!! 
मन खुश होय अपार,अतिथि मेरे घर आये!
हम करते व्यवहार,खुशी मन अति हो जाये!! 
अमर कहत कविराय, मनुज का हम तन पाये! 
स्वागत मेरा  धर्म, हमारे जो गृह आये!! 

अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662/

डाॅ० निधि मिश्रा

*यामिनी ने करवट में काटी* 

यामिनी ने करवट में काटी, 
अम्बर तल पर निशा सगरी, 
झुरमुट तारों के बीच बैठ, 
देखती रही विरहा बदरी ।

स्निग्ध चन्द्र धुधला सा गया, 
हिय पीर समा पराई गई। 
अति कौतुक भौरा चूम गया, 
प्रसून कली शरमाई गई।

झन झन झींगुर झनकार रहे, 
तट तरनी किरनें नाच रहीं। 
इठलाय चली धारा नद की, 
मिलन की आस पिय राह वहीं।

शशि भाल सुशोभित हैं नभ के, 
तारागण बिखरे स्वागत में। 
पिय योग वियोग,सुयोग नहीं, 
यामिनी जलती चाँदनी में।

यामिनी सजी शशि किरनों से, 
दिन सज्जित हुआ रवि रश्मि से,
दिन-रैन मिलन बस पल भर है,
हिय टीस मिटे न दोउ मन से।

स्वरचित- 
डाॅ०निधि मिश्रा ,
अकबरपुर ,अम्बेडकरनगर ।

रामकेश एम यादव

झमाझम बारिश !

नीलांबर  में  बादल  छाने  लगे हैं,
कण-कण में खुशियाँ बोने लगे हैं।
मानसून  ने   ली   ऐसी  अंगड़ाई,
जड़- चेतन  दोनों  झूमने  लगे हैं।
प्यासी थी  धरती इतने  दिनों से,
अंग-अंग उसके  खिलने लगे हैं।
झमाझम  बारिश  में  छोटे बच्चे,
कागज की कश्ती चलाने लगे हैं।
दादुर,  मोर,  पपीहा  झींगुर के,
मधुर स्वर कान में गूंजने लगे हैं।
नदियों  ने ली  है ऐसी  अंगड़ाई,
समंदर- सा खेत दिखने लगे हैं।
हल-बैल लेकर निकले किसान,
खेत -खेत बीज वो बोने लगे हैं।
सज गई फसल से सारी सिवान,
फिजा  के पांव थिरकने लगे हैं।
पड़ गए गाँव-गाँव सावन के झूले,
पेंग  बढ़ाकर  नभ  छूने  लगे  हैं।
कुदरत  बचेगी,  तो ही हम बचेंगे,
वृक्षारोपण   भी   करने  लगे   हैं।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

नंदिनी लहेजा

विषय-संदेह

संदेह तुझे तेरे अपनों से दे बिछड़ा
छीन लेता तेरे ह्रदय का चैन
छोड़ जाती निंदिया नयनो को
हर क्षण करता तुझे बेचैन
केवल एक भावना सन्देह की जब
तेरे मन घर कर जाती है
दूर कर देती तेरे अंतर्मन की प्रसन्नता को
तुझे क्रूर कर देती है
माना साधारण मानव है हम
मन के भावों पर ज़ोर नहीं
गर इसमें प्रेम समाता है
ईर्ष्या और संदेह भी पनपता यहीं
जिससे सर्वाधिक करते प्रेम
गर ना पूरी कर पाया उम्मीदों को
संदेह से भर जाता ह्रदय
चाहता मन उसे चोट पहुँचाने को
संदेह ना केवल दूजे को
स्वयं हमें भी नुक्सान पहुँचता है
तन मन को कर देता बोझिल सा
इक अगन से हमें जलाता है
ना पनपने दे भाव सन्देह का तू अंतर्मन में
क्योंकि वह तो ईश्वर का घर है
प्रेम और अपनत्व के भावों से कर पावन मन को
गर जीवन को सफल बनाना है

नंदिनी लहेजा
रायपुर(छत्तीसगढ़)
स्वरचित मौलिक

मन्शा शुक्ला

परम पावन मंच का सादर नमन
  ..........सुप्रभात
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

महादेव हे औघड़दानी।
विनय करूँ आदर सनमानी।।
जटा विराजे पावन गंगा।
पट बाघम्बर सोहे अंगा।।

कानन कुण्डल पहिरे व्याला।
आसन.है पावन मृगछाला।।
कर में त्रिशूल डमरू राजे।
डमडम नाद पाप सब नाशे।।

सावन मास चढ़े जलधारा।
भोलेनाथ जगत आधारा।।
राम नाम पावन अघहारी।
सुमिरन करत सदा त्रिपुरारी।।

रोग आपदा जग पर छायी।
हरो ताप भव के सुखदायी।।
करूँ वन्दना हे शिवशंकर।
करुणा सागर हे महेश्वर।।

मन्शा शुक्ला
अम्बिकापुर

निशा अतुल्य

कशमकश 

जिंदगी की कशमकश 
जूझते है यहाँ सभी 
कोई पार करता व्यथा से
कोई हँस के झेले है पीर ।

कुछ टूटता कुछ दरकता
साथ कुछ रहता यहाँ
सुख की अनुभूति बने कोई
कोई कशमकश देता रहा ।

समय चक्र चलता ही रहता 
ले सुख दुख साथ में 
है सफल जीवन उसी का 
जो जीवन को साध ले ।

खत्म तो होगी कभी
कशमकश ये जिंदगी की
मन की इच्छा पूरी होगी
सीधी सरल सी जिंदगी में ।

लोग मिलते और बिछड़ते
रीत ये जग की रही 
मन न हो अधीर अब तू
सार है ये जिंदगी के ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"



पर्यावरण संरक्षण
28.6.2021

सूखी धरा तप्त रहे
संताप अपने कहे 
मिलें नहीं कहीं छाँव 
वृक्ष तो लगाइए ।

पर्यावरण रूठा है
हर तरफ सूखा है
त्राहि त्राहि कर रही
धरा को बचाइए ।

संरक्षण है जरूरी
वृक्षो से है कैसी दूरी
भूल अब करो नहीं
हरी भू बनाइए ।

वृक्ष जीवन आधार
करें ये जल संचार
हरे भरे वृक्ष झूमे
बादल बुलाइए ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

डॉ० रामबली मिश्र

माहिया

साया बनकर आना
नहीं भूलना तुम
तन-मन पर छा जाना।

प्रियतम को पाना है
चूक नहीं होगी
प्रिय के घर जाना है।

मधुघट का प्याला हो
चाह रहा पीना
तुम मेरी हाला हो।

 तुम पास सदा रहना
वायु बने  बहना
मन को शीतल करना।

तेरी ही आशा है
छोड़ नहीं देना
तेरी प्रत्याशा है।

भावुक होकर  बहना
साथ चलो मेरे
प्रिय शब्द सदा कहना।

दिल को बहलाना है
देख जख्म दिल के
इसको सहलाना है।

पाँवों में छाले हैं
 बहुत दुखी काया
पीड़ा के प्याले हैं।

तुम प्रीति पिला देना
है निराश यह मन
मृतप्राय जिला देना।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

*नैन*(सजल)
समांत-आरे
पदांत--लगते हैं
मात्रा-भार--26
नैन तुम्हारे सजनी प्यारे-प्यारे लगते हैं,
जो देखे लुट जाए कितने न्यारे लगते हैं।।

बिना वाण के प्रेमी-हृद का छेदन करते हैं,
शमशीरों की तेज धार को धारे लगते हैं।।

रति-अनंग का तेज लिए,विरह-वेदना देते,
मिलन अयोग्य ये सरिता के किनारे लगते हैं।।

चंचल-छलिया इतने हैं,नहीं किसी पे टिकते,
रवि-किरणों के जैसे सबपे वारे लगते हैं।।

 अद्भुत गुण से पोषित ये, दोनों नैन तुम्हारे,
प्रकृति-न्यायप्रिय-भावों से सवाँरे लगते हैं।।

देवों जैसे विमल नेत्र द्वय,छवि निर्मल धारे,
बादल रहित गगन के चाँद-सितारे लगते हैं।।

सायक कुसुम चला अनंग जब घायल करता है,
घायल मन के नैना,नेक सहारे लगते हैं।।
              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

     
        
              *तिरंगा अमर रहे* 
                   ~~~~~
           आन-बान-शान निराली,
           संस्कृतियों का सम्मान रहे।
           खुशियों की बरखा बरसे,
           अपना तिरंगा अमर रहे।।
            🌾🌾🌾🌾🌾
           वीरों की शोभा न्यारी,
           हर मौसम में डटे रहे।
           मन में एक ही अभिलाषा,
           अपना तिरंगा अमर रहे।।
            🌾🌾🌾🌾🌾
           घर-घर में खुशियाँ महके,
           सत्कर्मों का भी साथ रहे।
           अब तो बस यही कामना,
           अपना तिरंगा अमर रहे।।
            🌾🌾🌾🌾🌾
           भारत मां अन्न खिलाती,
           धरा पुत्र का सम्मान रहे।
           सब मिलकर करें आरती,
           अपना तिरंगा अमर रहे।।
             🌾🌾🌾🌾🌾
           ©®
             रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)

आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी चंचल

।नारी तू नारायणी।। अवलोकन करें...            
                                    कमला विमला सुषमा इन्दिरा का यहहिन्दुस्तान है।।                                   यहाँ अपाला गार्गी घोषा मैत्रेयी जो महान हैं ।।                                       कौशल्या अरू मातु कैकेयी  उर्मिल त्याग महान है।।                                    भाखत चंचल लक्ष्मी पन्ना गूँज रहा बलिदान है।।1।।                                   हिन्द चावला जैसी बेटियाँ माया रमा गुनखान हैं ।।                                       प्रतिभा पाटिल रमण निर्मला ईरानी स्मृति शान हैं।।                                      शासन दक्ष अवध की माया शानी कँह अनजान हैं ।।                                       भाखत चंचल दुर्गा राधा  सुभद्रा मीरा जान है।।2।।                                      नारी ते ही जाये शिवाजी नारी दौलत खान है।।                                            जहाँ नही है इज्जत उनकी मानो महल मसाध है।।                                              सभी क्षेत्र मा घुसी नारियाँ क्षेत्र नही अनजान है।।                                        नारी बिना अधूरा चंचल जोधा अकबर जान है।।3।।                                           बिक्टोरिया की राजनिपुणता बेनजीर बे  नजीर हैं।।                                         विजयलक्ष्मी मीराबाई  महादेवी काव्य तुणीर है।।                                          करमवती की राखी निशानी  रत्ना तुलसी कबीर हैं।।                                  भाखत चंचल आधी अबादी  आधा रंग अबीर है।।4।।                                      




।आशा।। 

                                              वदवक्त कय मीत बयारि बहय धरि धीरू ना साहस खोवहू तू।।                       यै संगी औ साथी समाजु कुटुम्ब हैं दोलतु मीत ई जोवहु तू।।                          निज बाहुन पै विश्वास धरहु अरू अंत समय मत जोवहु तू।।                              भाखत चंचल या जियरा सबु संगी है नीकु जुहारहू तू।।1।।                              दौलतु पास है जौ मनुआ सबु संगी समाजु कुटुम्ब खरा।।                                परू गाढ़ दिना जौ देखाइ परा तबु होतु विमुक्ख प्रभाऊ परा।।                           ई नात औ बाँत कुटुंब समाजु  ना होतु केऊ यहू जानि परा।।                             भाखत चंचल नीकु दिनानु तौ अक्खा इहय स़ंसारु भरा।।2।।                            गाढ़ परै तौ भजौ करुनानिधि दीनदयाल हितैषिऊ वही हैं।।                     ई सुक्ख औ दुक्ख हू देत वयी  अरू टारन हेतु बहार वही है।।                       यहौ दुक्ख समय है जुरूरी सखे सबु संगी औ साथी जनात सही हैं।।                   भाखत चंचल या जियरा वयी दीनन नाथ कै संगी सही हैं ।।3।।                        जौ जनम भवा तौ आये अकेले औ जानौ इहय वही जाना भी है।।                   ई स्वारथु कै संसारू समाजु  ई स्वारथु मा ही कुटुम्बनु भी है ।।                           भजु केवलु तू परमेश्वर का सखे  दुक्ख मुसीबतु टारतु भी हैं ।।                             भाखत चंचल सारी उमिरि कै लेखनहारी किताब भी हैं।।4।।                   आशुकवि रमेश कुमार द्विवेदी, चंचल। ओमनगर,सुलतानपुर, उलरा,चन्दौकी, अमेठी ,उ.प्र.।। मोबाइल.. 8853521398,9125519009।।

एस के कपूर श्री हंस

*।।क्रोध और अहंकार।।रिश्ते*
*और दोस्ती दरकिनार।।*
*।।विधा।।हाइकु।।*
1
क्रोध अंधा है
अहम  का  धंधा  है
बचो गंदा है
2
अहम क्रोध
कई   हैं  रिश्तेदार
न आत्मबोध
3
लम्हों की खता
मत  क्रोध  करना
सदियों सजा
4
ये भाई चारा
ये क्रोध है हत्यारा
प्रेम दुत्कारा
5
ये क्रोधी व्यक्ति
स्वास्थ्य सदा खराब
न बने हस्ती
6
क्रोध का धब्बा
बचके     रहना   है
ए   मेरे अब्बा
7
ये अहंकार 
जाते हैं यश धन
ओ एतबार
8
जब शराब
लत लगती यह
काम खराब
9
नज़र फेर
वक्त वक्त की बात
ये रिश्ते ढेर
10
दिल हो साफ
रिश्ते टिकते तभी
गलती माफ
11
दोस्त का घर
कभी  दूर  नहीं ये
मिलन कर
12
मदद करें
जुबानी जमा खर्च
ये रिश्ते हरें
13
मिलते रहें
रिश्तों बात जरूरी
निभते रहें
14
मित्र से आस
दोस्ती का खाद पानी
यह विश्वास
15
मन ईमान
गर साफ है तेरा
रिश्ते तमाम
16
मेरा तुम्हारा
रिश्ता चलेगा तभी
बने सहारा
17
दूर या पास
फर्क नहीं रिश्तों में
बात ये खास
18
जरा तिनका
आलपिन सा चुभे
मन  इनका
19
कोई बात हो
टोका टाकी मुख्य है
दिन रात हो
20
कोई न आँच
खुद पाक साफ हैं
दूजे को जाँच
21
खुद बचाव
बहुत  खूब  करें
यह दबाव
22
दोषारोपण
दक्ष इस काम में
होते निपुण
23
तर्क वितर्क
काटते उसको हैं
तर्क कुतर्क
24
कोई न भला
गलती  ढूंढते  हैं
शिकवा गिला
25
बुद्धि विवेक
और सब अपूर्ण
यही हैं नेक
26
जल्द आहत
तुरंत  आग  लगे
लो फजीहत


*(विधा।।मनहरण छंद 8  8   8  7)*

माँ कहे नहीं  जाना है।
खेलने  नहीं  आना  है।
कॅरोना का   जमाना है।
*बच्चे    रहें   घर    में।।*

बस     पढ़ना    पढ़ाना।
घर का ही खाना खाना।
दस     बार    धुलवाना।
*अच्छे    रहें   घर   में।।*

बस     ड्राइंग      बनायो।
घर में खेलो     खिलाओ।
तुम सीखो ओ सिखाओ।
*बचें     रहें     घर      में।।*

समय   ठीक    नहीं    है।
बीमारी थमी    नहीं     है।
कॅरोना  कमी   नहीं     है।
*सच्चे      रहें    घर      में।।*

कैरम  ओ   लूडो     खेलो।
खराब वक़्त  को     झेलो।
जो कुछ मिलता     ले लो।
*पर     रहें    घर         में।।*

माँ  पिता    हाथ  बटाओ।
घर      समय      बिताओ।
बीमारी को न     बुलाओ।
*बच्चें    रहें     घर       में।*


*।।अहंकार नहीं,  इरादा , है*
*जीवन सफल की परिभाषा।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
सबसे बड़ी पूंजी  अच्छे
विचार और आशा है।
एक यही नियम कि मन
में आये न निराशा है।।
जो भाये न स्वयं  को  न
करें दूसरों के   साथ।
एक सफल   जीवन  की
सरल  परिभाषा है।।
2
विचारऔर व्यवहार यह
दोनों हमारे श्रृंगार हैं।
दुनिया को केवल  इनसे
ही    सरोकार    है।।
धन और बल  का केवल
सदुपयोग ही    हो।
कर्तव्य पूर्ण हो तभी  तो
आता अधिकार है।।
3
इरादे तक़दीर बदलने का
राज़      होते    हैं।
कर्मशील लकीरों के नहीं
मोहताज होते  हैं।।
जो सीखते हैं असफलता
के   अनुभव   से।
आगे चल   कर उन्हीं   के
सर ताज होते हैं।।
4
अहम अच्छी   बात  नहीं
यह  टूट   जाता है।
गिरकर आसमां से   जमीं
पर फूट   जाता है।।
कुछ जाता नहीं   है  साथ
सिवाअच्छे कर्मों के।
धागा सांसों का  इक़ दिन 
जब छूट जाता है।।
*रचयिता।।एस  के  कपूर*
*"श्री हंस"।।बरेली।।*
मोब         9897071046
               8218685464

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-1
क्रमशः..…..*दूसरा अध्याय*
करब न जुधि मैं अर्जुन कहऊ।
अस कहि मौन तुरत तहँ भयऊ।।
      सुनि अर्जुन अस बचनइ राजन।
       कह संजय तब किसुन महाजन।।
बिहँसि कहेउ दोउ सेन मंझारी।
तजु हे अर्जुन संसय भारी।।
      कुरु न सोक जे सोक न जोगू।
       सोक न मन,मृत जीवित लोगू।।
कबहुँ न जे रह पंडित-ग्यानी।
साँच कहहुँ सुनु मम अस बानी।।
      आत्मा नित्य,सोक केहि कामा।
       अस्तु,सोक तव ब्यर्थ सुनामा।।
कल अरु आजु औरु कल आगे।
रहे हमहिं सब,रहहुँ सुभागे।।
       जे जन अहहिं तत्त्व-बिद-ग्यानी।
       नहिं अस धीर पुरुष अग्यानी।।
जानैं सूक्ष्म-थूल बिच अंतर।
नित्य-अनित्यहिं समुझहिं मंतर।।
       सरद-गरम, सुख-दुख संजोगा।
       छण-भंगुर ए इंद्रिय-भोगा।।
सहहु इनहिं अति मानि अनित्या।
हे कुंती-सुत ए नहिं सत्या।।
      इंद्रिय-बिषय न ब्यापै जोई।
       मोक्ष-जोग्य धीर नर सोई।।
नहिं अस्तित्व असत कै कोऊ।
रहहि सतत सत जानउ सोऊ।।
       अर्जुन, सुनु,अबिनासी नित्या।
        नित्य नास नहिं मानहु सत्या।।
दोहा-मानि सत्य अस मम बचन,जुद्ध करन हो ठाढ़।
        हे कुंती-सुत धीर धरु,रोकउ भ्रम कै बाढ़ ।।
                           डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372 क्रमशः.......

नूतन लाल साहू

आ गया आषाढ़

सागर की उत्ताल तरंगे
व्याकुल हो कुछ मचल रही है
उठ पूरब से काला बादल
कड़क रहा है चमक रहा है
मानों यह संकेत है
आ गया आषाढ़
भू की प्यास मिटाने को वो
आतुर सी व्याकुल सी बदरी
आ नीचे चंचल बूंदे संग
भू से मिलना चाह रही है
मानों यह संकेत है
आ गया आषाढ़
कभी झर झर झर झर
कभी छल छल छल छल
तो कभी जोरों से बरसी
तन भी भींगा,मन भी भींगा
शीतल जल से सहला रही है
मानों यह संकेत है
आ गया आषाढ़
दौड़ पड़े है खेतों की ओर
ट्रैक्टर लिए किसान
मन प्रफुल्लित तन प्रफुल्लित
गूंज उठी है,खेत खलिहान
रिमझिम रिमझिम बरसते पानी में
कुछ अंधेरा कुछ उजाला
वाह, क्या समा है
उठ पूरब से काला बादल
कड़क रहा है चमक रहा है
मानों यह संकेत है
आ गया आषाढ़

नूतन लाल साहू

डॉ० रामबली मिश्र

साया (कुण्डलिया)

साया सबको चाहिये, साया का है अर्थ।
जो पाता साया नहीं, उसका जीवन व्यर्थ।।
उसका जीवन व्यर्थ, बिना आश्रय के जीता।
किंकर्तव्यविमूढ़, गमों की मदिरा पीता।।
कहें मिसिर कविराय, रहे चेतन मन-काया।
जिसके ऊपर होय, सदा ईश्वर का साया।।

साया उत्तम का करो, आजीवन यशगान।
मात-पिता-गुरु-ईश ही, जीवन के वरदान।।
जीवन के वरदान,भाग्य से मिलते उनको।
 जो सत्कर्मी वेश, किये धारण शुभ मन को।।
कहें मिसिर कविराय, जगत यह केवल माया।
जीवन है वरदान, मिले यदि दैवी साया।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

अभय सक्सेना एडवोकेट

कुंडलियां छंद
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आषाढ़ की बारिश
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अभय सक्सेना एडवोकेट
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आषाढ़ की बारिश तपती धरा को शांत करती
धरा प्रफुल्लित मन से फिर सोलह श्रृंगार करती
सोलह श्रृंगार करती सभी को लुभाने लगी
पशु पक्षियों के संग गीत वो गाने लगी
अभय के अल्फाजों से होती बारिश फूलों की   
सभी को शीतलता देती बारिश आषाढ़ की।
************************
अभय सक्सेना एडवोकेट
48/268, सराय लाठी मोहाल
जनरल गंज,कानपुर नगर।
9838015019,8840184088
saxenaabhayad@gmail.com
स्व-रचित/मौलिक/ अप्रकाशित/सर्वाधिकार सुरक्षित

अमरनाथ सोनी अमर

लोकगीत- हिंडुली! 

बरसत पनिया असढबा महीनबा, 
चला हो चली ना, 
सखियाँ अपने हो खेतबा,       चला हो चली ना! 

धनिया का बिजहा ,                  ले चलीअपने खेतबा, 
बोबाँ हों संँइया ना, 
जब ता जामइ हो धनिया, 
नीका हो लागइ ना! 
बरसत पनिया असढबा महिनबा........ 

धनिया निराबइ ता ,            चलबइ हो सखियाँ, 
नीका हो लागइ ना, 
फुरफुर परइ हो, 
फुहरबा नीका हो लागइ ना! 
बरसत पनिया असढबा महिनबा......... 

धनिया ता उपजइ,              फसल बहु कटबइ, 
कुठिला भरी ना, 
अब ता माला माल होबइ, 
कुठिला भरी ना! 

बरसत पनिया असढबा महिनबा, चला हो चली ना, 
सखियाँ अपने हो खेतबा, 
चला हो चली ना!!! 


अमरनाथ सोनी "अमर "
9302340662

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम

विधा-कविता
विषय-जीवनयात्रा

जीवन यात्रा बड़ी अजब होती 
सुख अरु दुख का यह संगम होती।

यात्रा में मानव  बढ़ता जाता,
कभी हँसता कभी रोता जाता।
पर सच है साथी मेरे प्यारे,
हर पल यात्रा से सीखता जाता।
यात्रा एक शिक्षक होती है,
सुख अरु दुख का यह संगम होती।


कोई भी ग्रंथ उठा कर देखो,
वेद पुराणों में भी पाओगे। 
यात्रा एक हमसफर होती,
आदि से अंत तक इसे पाओगे।
यह मृत्यु के साथ बंद होती है,
सुख अरु दुख का यह संगम होती।

जीवन यात्रा बड़ी अजब होती 
सुख अरु दुख का यह संगम होती।

ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम
तिलसहरी, कानपुर नगर

रामकेश एम यादव

मोहब्बत !    ( नज़्म )

बादलों को मोहब्बत है धरा से,
और धरा को मोहब्बत है बादल से।
दोनों को मोहब्बत है इस जहां से,
औ जहां को मोहब्बत है हरेक कण से।
मोहब्बत के बूते चल रही ये दुनिया,
प्रेम के धागे से बँधी है ये दुनिया।
बिना बादल के संसार रहेगा कैसे,
मोहब्बत बिना यह संसार चलेगा कैसे।
समर्पण है देखो! दोनों के अंदर,
इश्क भी तो है दोनों के अंदर।
जहां में जिस्म किसका टिका है,
जवानी का ज्वार कहाँ रुका है।
धरा के गर्भ से नवांकुर है फुटता,
फूल -फल से ही जग महकता।
छूता जब कोई रोम-रोम सिहरता,
अंग -अंग न वो बस में तब रहता।
मोहब्बत अगर परवान न चढ़ती,
इतनी हसीन ये दुनिया न रहती।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...