अमरनाथ सोनी अमर

गीत- मन! 
2122,2122,

क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन! 
यार सुन लो, जान कर मन!! 

ना  भरोषा,  कर  किसी  का! 
सत्य   कहता   हूँ,   सलीका! 
देत धोखा,   हर  समय  मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 

झूँठ  का   तुम,   ले   सहारा! 
सत्य का  तुम,  कर  किनारा! 
मान लो अब आज, तुम मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 

है   जमाना,  झूँठ  का  यह! 
है   दिखाना,  दंभ  का  यह! 
दे  भरोषा,  आज  तुम  मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 

याद कर  लो, यार  अब तुम! 
भूलना अब, कुछ  नहीं  तुम! 
ना  भरोषा, कर  किसी  मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 

फँस गये  हो,  जाल  में  तुम! 
क्यों  बुरे  से,  हाल  में   तुम! 
हो  गये,  हुशियार  अब  मन! 
क्यों दुखी हो, अब यहाँ मन!! 


अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662

डाॅ० निधि मिश्रा

*यामिनी ने करवट में काटी* 

यामिनी ने करवट में काटी, 
अम्बर तल पर निशा सगरी, 
झुरमुट तारों के बीच बैठ, 
देखती रही विरहा बदरी ।

स्निग्ध चन्द्र धुधला सा गया, 
हिय पीर समा पराई गई। 
अति कौतुक भौरा चूम गया, 
प्रसून कली शरमाई गई।

झन झन झींगुर झनकार रहे, 
तट तरनी किरनें नाच रहीं। 
इठलाय चली धारा नद की, 
मिलन की आस पिय राह वहीं।

शशि भाल सुशोभित हैं नभ के, 
तारागण बिखरे स्वागत में। 
पिय योग वियोग,सुयोग नहीं, 
यामिनी जलती चाँदनी में।

यामिनी सजी शशि किरनों से, 
दिन सज्जित हुआ रवि रश्मि से,
दिन-रैन मिलन बस पल भर है,
हिय टीस मिटे न दोउ मन से।

स्वरचित- 
डाॅ०निधि मिश्रा ,
अकबरपुर ,अम्बेडकरनगर ।

एस के कपूर श्री हंस

*।।यूँ ही नहीं किस्मत मेहरबान*
*बनती है जिंदगी में।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
यूँ ही नहीं    कोई  कहानी 
बनती जिन्दगी में।
यूँ ही नहीं कामयाब रवानी
बनती    ज़िंदगी में।।
तराशना पड़ता     है    खुद
हाथ की लकीरों को।
यूँ ही नहीं किस्मत   दीवानी
बनती जिन्दगी में।।
2
यूँ ही नहीं नाम होता है   जा
कर दुनिया         में।
यूँ ही नहीं हर गली में सलाम
होता       दुनिया में।।
जुबान दिल  दिमाग हाथों से
जीतना   होता   है।
यूँ ही नहीं हर लफ़्ज़   पैगाम
होता    दुनिया    में।।
3
हर जख्म के लिए शफ़ा नहीं
नमक होना    चाहिये।
तेरे चेहरे पर इक़ अलग तेज़
दमक होना    चाहिये।।
यह दुनिया यूँ ही नहीं  मुरीद
बनती है    किसी की।
तेरी निगाहों में कुछ    अलग
नूरोचमक होना चाहिये।।


*।।विषय     आषाढ़ के बादल।।*

*।।शीर्षक    आषाढ़ की    प्रथम*
*वर्षा, धरती और अन्नदाता दोनों*
*का मन हर्षा।।*

देख कर    बादल    आषाढ़  के
धरती में आ जाती है नई चमक।
कतरे कतरे में उत्पन्न    हो जाती
है एक      नव    नवीन    दमक।।
धरती का पालन पोषण होता है
केवल    मूसलाधार   वर्षा से ही।
इस पवित्र पावन धरती माता से
ही प्राप्त होता है फलअन्न नमक।।

बारिश से ही कृषक का घर और
आशा  जीवित    रहती          है।
किसान की फसल   सदैव  जल
की ही  पुकार    कहती          है।।
बादल भी बरसें केवल     अपनी
सीमा में तो रहता   है       अच्छा।
वरनाअन्नदाता किसान अन्नपूर्णा
धरती दोनों की आशा   बहती है।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस*"
*बरेली।।।।*
मोब।।।।।        9897071046
                      8218685464
दिनाँक।।      28      06       2021
*प्रमाणित किया जाता है कि रचना मेरी*
*स्वरचित।मौलिक।अप्रकाशित।स्वाधिकृत है।*

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-2
क्रमशः.........*दूसरा अध्याय*
धरम-जुद्ध अह छत्री-कर्मा।
नहिं हे पार्थ औरु कछु धर्मा।।
     अवसर धरम-जुद्ध नहिं खोवै।
     सो छत्री बड़ भागी होवै।।
जदि नहिं करउ धरम-संग्रामा।
होय जनम तव नहिं कछु कामा।।
      कीरति-सीरति खोइ क सगरी।
      ढोइबो पाप क निज सिर गठरी।।
अपकीरति अरु पाप-कलंका।
मरन समान होय,नहिं संका।।
      तुम्ह सम पुरुष होय महनीया।
      बीर धनुर्धर  अरु  पुजनीया।।
निंदा-पात्र न होवहु पारथ।
धर्म-जुद्ध कुरु तुम्ह निःस्वारथ।।
     समर-मृत्यु सुनु,स्वर्ग समाना।।
     महि-सुख-भोग,बिजय-सम्माना।।
दृढ़-प्रतिग्य हो करउ लराई।
करउ सुफल निज जनम कमाई।।
      सुख-दुख औरु लाभ अरु हानी।
       बिजय-पराजय एक समानी।।
समुझि उठहु तुम्ह हे कौन्तेया।
लउ न पाप कै निज सिर श्रेया।।
       जनम-मरन-बंधन जन मुक्ता।
       करहिं कर्म निष्काम प्रयुक्ता।।
कर्म सकाम करहिं अग्यानी।
इन्हकर बुधि बहु भेद बखानी।।
        निस्चय बुधि, निष्कामहि कर्मी।
        अस ग्यानी जन होवहिं धर्मी।।
दोहा-निस्चय कारक एक बुधि,करै जगत-कल्यान।
        सुनहु पार्थ,निष्काम जन,होवहिं परम महान।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372       क्रमशः..........

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल ----

देख लेता हूँ तुम्हें ख़्वाब में सोते-सोते
चैन मिलता है शब-ए-हिज्र में रोते-रोते

इक ज़रा भीड़ में चेहरा तो दिखा था उसका
रह गई उससे मुलाकात यूँ होते -होते

इक तिरे ग़म के सिवा और बचा ही क्या है
बच गई आज ये सौगात भी खोते-खोते


प्यार फलने ही नहीं देते बबूलों के शजर
थक गये हम तो यहाँ प्यार को बोते-बोते

बेवफ़ा कह के चिढ़ाता है ज़माना उसको
 मर ही जाये न वो इस बोझ को ढोते-ढोते

इतना दीवाना बनाया है किसी ने मुझको
प्यार की झील में खाता रहा गोते-गोते

ऐसा इल्ज़ामे-तबाही ये लगाया उसने
मुद्दतें हो गईं इस दाग़ को धोते-धोते

आ गया फिर कोई गुलशन में  शिकारी शायद
हर तरफ़ दिख रहे आकाश में तोते-तोते

तेरे जैसा ही कोई शख़्स मिला था *साग़र*
बच गये हम तो किसी और के होते-होते

🖊विनय साग़र जायसवाल
फायलातुन-फयलातुन -फयलातुन -फेलुन

नूतन लाल साहू

स्वेच्छाचारिता

सब अपने में मगन
बस एक ही चस्का
ढेर सारे पैसे पाने का
और आगे बढ़ने की होड़
कभी न खत्म होने वाली मरीचिका
यही तो है स्वेच्छाचारिता
यह कैसी आजादी है
कोई किसी की
नही सुनता है
अच्छा क्यों नही लगता है
संयुक्त परिवार में रहना
अकेलापन में
गिली मिट्टी सा उपजते है
अनेक अभिलाषाएं
आकांक्षाएं
क्यों पसंद नही है
लोगों के बीच रहना
यही तो है स्वेच्छाचारिता
रिश्ता कोई भी हो
इतना फीका नहीं होता
आजकल के लोग
जितना समझते है
स्वार्थरत निजोन्मुख
अनजाने मॉद में
गिरगिट सा रंग बदलते है
यही तो है स्वेच्छाचारिता
सब अपने में मगन
बस एक ही चस्का
ढेर सारे पैसे पाने का
और आगे बढ़ने की होड़
कभी न खत्म होने वाली मरीचिका
यही तो है स्वेच्छाचारिता

नूतन लाल साहू

डॉ० रामबली मिश्र

माहिया

जरा हाथ मिला लेना
छोड़ चलो नफरत 
रस प्रीति पिला देना।

करवद्ध यही कहता
बात सदा मानो
राह जोहता रहता।

करुणा हो सीने में
सुनो करुण क्रंदन
भाव बहे जीने में।

कुछ प्यार  जता देना
यार बने आओ
कर खड़ी स्नेह सेना।

दिल खोल मिलो सजना
सहज प्रेम वंदन
मन से दिल में बहना।

रोता मन शांत करो
संग रहा करना
निज शीतल हाथ धरो।

मुस्कान भरा नर्तन
लगे मीठ वाणी
सजा-धजा परिवर्तन।

आँगन में नाच करो
स्वयं गगन देखे
मानव में साँच भरो ।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

देवानंद साहा आनंद अमरपुरी

शीर्षक................मैं बीमार हूँ...................

हाय रे मेरी किस्मत , जीवन मेरा जकड़ गया ।
मैं बीमार हूँ,इससे पूरा बदन मेरा अकड़ गया।।

ज़ंजीरें ही  बन गए हैं , मेरी जिंदगी का गहना ;
शरीर का अंग-अंग , ज़ंजीरों  में जकड़  गया।।

गुनाह मेरा क्या है,सज़ा देनेवाले इतना बता दे;
नही बता पाते तो  बता,मुझे क्यों पकड़ गया।।

जिंदगी के सफ़र में चला, खैरमकदम के लिए;
सब मिलकर ऐसे हालात,पैदा क्यों कर गया।।

मेरी हसरतों का ज़नाज़ा तो इस कदर निकला;
दोस्तों , दुश्मनों की आँखों  में आँसू भर गया।।

अब नही होता है , किसी बीमारी का एहसास;
बीमारी केभरमार से ,पूरी जिंदगी पसर गया।।

"आनंद"के उम्मीद की किरण,नज़र नहीआती;
दुश्वारियों से  ही पूरा जीवन  मेरा  सँवर गया।।

-----------------देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी"

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

अर्ज है..
              
              आसमान से,
              मोती बरसे..
              खुशी मनाओ।
              दादी बोली,
              सारे भैया..
              पेड़ लगाओ।।

              दादा बोला,
              सुन रे मुन्ना..
              यह अच्छी बात..
              नेक काम में,
              मत देर लगा..
              करो शुरुआत।।

              पेड़ हमारे,
              जीवन साथी..
              समझे जन-जन।
              हरियाली से,
              बरखा आती..
              भीगे तन मन।।

           ©®
             रामबाबू शर्मा,राजस्थानी,दौसा(राज.)

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

गीत-16/16
अच्छा,तुम ही जीतीं  मुझसे,
मैं मान रहा हूँ हार प्रिये।
हार-जीत का अर्थ न कोई-
दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।

प्रेम हार से कभी न थमता,
वह निज पथ पर चलता-रहता।
मधुर मिलन की आस सँजोए,
बाधाओं से लड़ता रहता।
साहस रूपी नौका लेकर-
करता दरिया वह पार प्रिये।।
     दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।

आज मिलन तो कल वियोग है,
प्रेम-रीति की नीति यही है।
साजन-सजनी बिछड़ मिलें यदि,
सच्ची समझो प्रीति वही है।
रूठा एक मनाए दूजा-
इसको कहते हैं प्यार प्रिये।।
    दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।

लगे प्रेम में दिल की बाजी,
प्रेमी कहता मैं दिल हारा।
लुटा हृदय वह अपना सजनी,
हो जाता है प्रेमी प्यारा।
हार-जीत की अनुपम लीला-
ही होती प्रेमाधार प्रिये।।
    दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।

करे न गणना लाभ-हानि की,
प्यार त्याग परिचायक होता।
त्याग-भाव की गंगा बहती,
प्रेमी कभी न श्रद्धा खोता।
लुट जाने की इच्छा रहती-
प्यार नहीं है व्यापार प्रिये।।
       हार-जीत का अर्थ न कोई-
        दिल का अद्भुत संसार प्रिये।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                   9919446372

कुमकुम सिंह

घर अपना ऐसा हो-

घर वो नहीं जो एक पत्थर से हो 
घर वो हो जिस की दीवार दिमाग के तरह इस स्थिर। दिल की तरह भावनात्मक ,
 जिस्म की तरह स्वस्थ और सजल ,
 रिश्तो की तरह सजा हो 
जिसमें परिंदों का बसेरा हो।
अतिथियों का आना जाना हो,
जहाॅ मान और सम्मान हो।
प्रेम का खजाना हो,
अपने धर्म के प्रति विश्वास हो।
सभी व्यक्ति निष्ठावान और एक दूसरे के प्रति समर्पित हो,
जिसमें दया और प्रेम का भाव हो।
ऐसे घर को घर एक मंदिर कहते हैं ,
तभी तो सभी को अपना घर अपना लगता हैं।
            कुमकुम सिंह

विजय मेहंदी

" माँ गंगा की यात्रा "    
                                                                                                                                       मुख    गोमुख    का   अंतस्तल 
माँ    गंगा    का   उदगम  स्थल
कल-कल  छल-छ्ल  आगे चल 
जा पहुंचीं  हरिद्वार पावन स्थल

गिरि के चट्टानों  से लड़-लड़ कर
होता पावन अमृत  गंगा का जल 
पहुँच  औद्योगिक  कानपुर  नगर
दूषण समेट भी अविरल गंगाजल

पहुँच प्रयागराज के  पावन भूतल 
मिल  यमुना  जी   से   गंगा  जल 
बनता   वृहद   कुंभ  संगम  स्थल
कुंभ-राज ये प्रयाग का कुंभस्थल 

 बढता जाता कर  नादि छल-छल
गंगा यमुना  का  ये  मिश्रित  जल
दो  रंगों   का  यह   अविरल जल
कितना   पावन   कितना  निर्मल

दो-दो   सरिता   का   दोहरा  बल
जा पहुँचा  विंध्य  के  विन्ध्याचल
धोता माँ का  आँचल  पावन जल
कितना  पावन  गंगा-यमुना  जल

आगे  जिला बनारस  काशी अँचल
विश्वविख्यात   पावन   तीर्थ  स्थल
पग-पग शोभित घाटों से  गंगाजल
दशाश्वमेध घाट है गंगा पूजन स्थल

============================
रचयिता - विजय मेहंदी ( कविहृदय शिक्षक)
कन्या कम्पोजिट इंग्लिश मीडियम स्कूल शुदनीपुर,मड़ियाहूँ,जौनपुर (उoप्रo)


मेरे सम्मानित साथियों आज प्रस्तुत है एक  समाजिक कुप्रथा "दहेज़-प्रथा"पर आधारित मेरी एक  रचना-- 👇------------

      "एक सामाजिक व्यथा-दहेज प्रथा" 
(धुन- झिलमिल सितारों का आँगन होगा! 
          रिमझिम बरसता सावन होगा)
       
दहेज़ मुक्त समाज अपना जब पावन होगा
कन्या-भ्रूण हत्या मुक्त हर घर आँगन होगा
ऐसा सुन्दर सपना जब जन -जन का होगा 
कन्या-जन्म तब हर घर में मन भावन होगा 
कांटे बनी कन्याए,कल एक छोटा सा  बसाएगीं।
कांटो से नहीं वे  बगिया,ममतामयी फूलो से सजायेगी।

माँ कोंख-धरा से अलग-थलग कर,
जब कूड़े में   ना फेंकी जायेंगी,
हरित पल्लवित पुष्पलता बनके,
तेरी बगिया को महकायेगीं।
हँसता खिलखिलाता मा का दामन होगा,
दहेज़-प्रथा का जब समाज से अंतगमन- होगा।

नहीं बनेंगी वे  बोझ किसी पर,
तन-मन से मेहनत करती जायेगीं।
सूखा, धूप, छाँव सहकर वे,
चोटी पर लहरायेगीं।
ऐसा सुन्दर वैश्विक भारत दर्शन होगा,
भारतीय नारी जीवन विश्व का आकर्षण- होगा।
=========================                                              मौलिक रचना- विजय मेहंदी                       (कविहृदय शिक्षक) जौनपर

नंदिनी लहेजा

विषय:-आँसू 

मन के अनेक भाव मानव के,
जो मुख से कहे न जाए
छलके बनकर नीर अखियन से
आँसू यही कहलाये
जब प्रथम बार माँ अपने शिशु को गोद में अपनी उठाए
या फिर कोई अपना हमसे बिछड़ इस जग से चला जाए
चाहे मिलन हो या हो विछोड़ा  ये आँसू  छलक ही जाएं
भक्ति में लीन कोई प्रभु का प्यारा अपने ईश का ध्यान करे
या बिछड़े अपने प्रीतम को बन राधिका कोई याद करे
प्रेम में डूबा  अंतरमन  जब यादों में खो जाए
ये आँसू  छलक ही जाएं
जब आगे बढ़ते देख  पुत्र को अपने माँ का मन हर्षित हो जाए
या विदा करते बिटिया रानी हिर्दय पिता का भर सा जाए
चाहे सुख हो या कोई दुख ये आँसू  छलक ही जाएं

नंदिनी लहेजा
रायपुर छत्तीसगढ़
स्वरचित मौलिक

रामकेश एम यादव

पर्यावरण!

पर्यावरण का कलेवर फिर सजाने दीजिए,
खाली पड़ी जमीं पर पेड़ लगाने  दीजिए।
हरी- भरी  धरती हो  औ झूमें  खुशहाली,
अब प्रदूषण को ठिकाने  लगाने दीजिए।
कुदरत की  गोंद में वो जीवन था नीरोगी,
वो बयार फिर मिले, कदम उठाने दीजिए।
नहीं   रहेंगे   पेड़,    बादल   होंगे  नाराज,
घट रहे जल स्तर को फिर  बढ़ाने दीजिए।
विनाश करते जा रहे किस सफलता के लिए,
कुदरत से लिपटकर अब खूब रोने दीजिए।
वन, नदी, पर्वत, हवा, हैं धरा के आभूषण,
गाँव-गाँव,शहर-शहर अलख जगाने दीजिए।
घट  रही है  साँस,  बढ़  रही  जहरीली हवा,
जो काटते  जंगल, उन्हें  समझाने  दीजिए।
सुबह-शाम  परिन्दे उन  डालों पे चहचहाएँ,
लकड़हारे को  कुल्हाड़ी  न चलाने दीजिए।
बँधी  है  पर्यावरण से  हर  किसी  की साँस,
न किसी को नदी में कचरा बहाने दीजिए।

रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई

डॉ० रामबली मिश्र

मेरी पावन शिवकाशी

दशाश्वमेध घाट अति पावन, विश्वनाथ इसके वासी;
सब घाटों से यह बढ़ -चढ़ कर, दिव्य पुरातन सुखराशी;
गंगा मैया का निर्मल जल, इसी घाट की शोभा है;
स्वच्छ-धवल-रमणीक तीर्थ है,मेरी पावन शिवकाशी।

सदा जागरण होता रहता, कभी नहीं सोती काशी;
जन-जन में चेतना प्रस्फुरण,हर हर कहता हर वासी;
चिंतन होता शिव भोले का,महादेव का नारा भी;
सबके उर में नाचा करती,मेरी पावन शिवकाशी।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

निशा अतुल्य

माहिया
पंजाब का प्रचलित लोकगीत (टप्पे)
*प्रेमिका व प्रेमी के बीच की बातें*

साजन तुम आते हो
मिलने की चाहत 
तुम और बढाते हो ।

ये प्रेम निराला है 
बिन देखे तुमको
दिल चैन न पाता है ।

साजन तुम झूठे हो 
बात बनाते हो
डोली ना लाते हो ।

प्रिय घर मैं आऊंगा
बात करूंगा जब
सिंदूर सजाऊंगा ।

मन को भरमाते हो
मीठी बातों से 
क्यों दिल तड़फ़ाते हो ।

मीठी बातें प्यारी
बन यादें मेरी
तुझ में बस जाती है ।

अब घर मैं जाती हूँ 
जा कर घर सबको 
ये बात बताती हूँ ।

प्रिय धीर धरो थोड़ी
संग रहेंगे हम
सुन्दर अपनी जोड़ी ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

अमरनाथ सोनी अमर

गीत - बुजुर्ग! 


जीवन के पथ पर मैं चलकर, सच्चा राह दिखाऊँ! 
कभी नहीं मन असमंजस हो, सच्चा राय बताऊँ!! 

मेरा तुम्ही भरोसा मानों, सच हो पूरा सपना! 
अंतरमन से बात करूँ मैं, कैसे तुम्हें दिखाऊँ!! 

बृद्धों के सलाह को मानो, कभी न होगें निष्फल! 
चाहे जहाँ कहीं जाओ तुम, होगें सफल बताऊँ!! 

पूराना इतिहास बताता,  करते थे सब आदर! 
सही समय- सलाह भी लेतें, होतें सफल बताऊँ!! 

इसीलिए प्यारे भाई तुम, मानों इनका कहना! 
भोजन, औषधि, वस्त्र सुलभ कर, सेवा करो बताऊँ!! 

अमरनाथ सोनी" अमर "
9302340662

अरुणा अग्रवाल

नमन मंच,माता शारदे,सुधिजन
शीर्षक "प्रेम और स्पर्श"

"प्रेम शब्द है अपरिमित,
जिसको बयाँ करना,मुश्किल,
है यह छोटा,पर जहाँ है समाया,
प्रेम से बड़ा काम होता सरल।।

मीरा,श्रीराधा,रुक्मिणी,मिसाल,
प्रेम से कर दिखाया बड़ा कमाल,
जो काम नहीं हो सकता अस्त्रों से
वह आसान औ मुमकीन,प्रेम से।।

मुमताज का अमिट प्रेम-कहानी,
शाहजहां ने बनाया ताज़महल,
संगमरमरी,कलाकारों ने करिश्मा,
जो की सप्ताश्चर्ज में सुमार-उत्तम।।

प्रेम और स्पर्श का तालमेल,
कोई मन से करता मेहसूस,
कोई स्पर्श-सुख खोजे,तन,
पर मन और मनन है काफी।।

प्रेम है चिर पूरातन,नितय नूतन,
सत्य से कलि हर युग और काल,
प्रेम चाहे प्रेमिक,प्रेमिका,संसारी,
सुदामा-कृष्ण हो या त्रिपुरारी,
प्रेम का महिमा है अति पावन।।

अरुणा अग्रवाल।
लोरमी,छःगः,
🙏🌹🙏

प्रवीण शर्मा ताल

*कुंडलियाँ*

सागर को पार करने,चले वीर हनुमान,
लंका में  है जानकी,खोज रहे बलवान।।
खोज रहे बलवान,विभीषण के घर जाते।
जाते फिर हनुमान,सिया वाटिका आते।
सीता के संदेश,भरे अंगूठी गागर।
जाओ मेरे  वत्स, पार जाना  तुम सागर।

             
*✍️प्रवीण शर्मा ताल*

सुधीर श्रीवास्तव

संरक्षण करो
***********
जल,जंगल, जमीन
ये सिर्फ़ प्रकृति का 
उपहार भर नहीं है,
हमारा जीवन भी है
हमारे जीवन की डोर
इन्हीं पर टिकी है,
धरती न रहेगी तो
आखिर कैसे रहोगे?
जब जल ही नहीं होगा 
तो प्यास कैसे बुझाओगे
पेड़ पौधे ही जब नहीं होंगे
तो भला साँस कैसे ले पाओगे?
अब ये हम सबको 
सोचने की जरूरत है,
हर एक की हम सबको जरूरत है,
जब इनमें से किसी एक के बिना 
दूजा निपट अधूरा है,
फिर विचार कीजिए
हमारा अस्तित्व भला
कैसे भला पूरा है?
उदंडता और मनमानी बंद करो
जीना और अपना अस्तित्व 
बचाना चाहते हो तो
सब मिलकर जल, जंगल, 
जमीन का संरक्षण करो,
ईश्वरीय व्यवस्था में बाधक
बनने के तनिक न उपक्रम करो।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
        गोण्डा, उ.प्र.
      8115285921
©मौलिक, स्वरचित

एस के कपूर श्री हंस


*।।कामयाबी का अपना एक*
*अलग गणित होता है।।*
*।।विधा।।मुक्तक।।*
1
गिर कर    चट्टानों   से   पानी 
और तेज     होता है।
वही जीतता  जो       उम्मीदों
से लबरेज   होता है।।
गुजर कर    संघर्षों से  व्यक्ति
और है मजबूत बनता।
भागता और तेज   जब   नीचे
कांटों का सेज होता है।।
2
दीपक के तले  सदा     अंधेरा   
ही     रहता        है।
पर खुद जलकर  उससे रोशन
सबेरा      बहता  है।।
मुश्किलों में ही    आदमी  को
अपनी होती पहचान।
सफलता का हर  चेहरा   यही
बात  कहता       है।।
3
मुसीबतों में ही    उलझ    कर
शख्सियत निखरती है।
गलत हो सोच  तो       जिंदगी
फिर     बिखरती    है।।
जैसी नज़र   रखते    नज़रिया
वैसा जाता   है   बन।
आशा और विश्वास   से ही हर
तकलीफ    गिरती है।।
4
जीवन का   सफल    आचरण
अलग    होता      है।
तकलीफ़ का ऊपरी   आवरण
अलग    होता     है।।
संघर्ष की भट्टी में तपकर सोना
बनता   है      कुंदन।
कामयाबी का अपना व्याकरण   
अलग   होता      है।।


*1 ।।।।*
सीखो     और   सिखायो  तुम
यही     उचित   है ज्ञान बढ़ाना।
सदा   बड़ों का    सम्मान करो
यही   उचित है    मान जताना।।
यदि आ   गया     अहंकार तो
पतन      फिर     निश्चित    है।
त्यागअहम का   बहुत  जरूरी
*नहींउचितअभिमान दिखाना।।*
💥☘️💥☘️💥☘️💥
*2।।।।।*
भाषा  मर्यादा बहुत  आवश्यक
हर सफल व्यक्ति ने यही जाना।
वाणी की मधुरता है आवश्यक
सदा मीठे बोल ही है    सुनाना।।
कलम अच्छा सच्चा   लिखती
क्योंकि झुक      कर चलती है।
सरल सहज होना   आवश्यक
*नहींउचितअभिमान दिखाना।।*
💥☘️💥☘️💥☘️💥☘️
*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*
*बरेली।।।*
मोब।।।।         9897071046
                     8218685464

रामबाबू शर्मा राजस्थानी

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                     कविता
                *जल संग्रहण*
                    ~~~~
            जल बिन कुछ नहीं भाई, 
            समय बहुत ही दुखदाई।  
            दीखे नहीं परछाई,
            संकट घड़ी जो आई।।

            गलती नहीं बतलाना,
            पाठ यह पढ़ ही लेना।
            करना है जल संग्रहण,
            सबकों यही समझाना।।

            कुआं बावड़ी सब अपने,
            तो फिर हमें क्यों डरना।
            वृषा पानी का रुख बस,
            इनकी तरफ ही करना।।

            ताल-तैलिया गहरे कर,
            जाये उसमें भी पानी।
            बिन काम ही रोको मत,
            बात यह भी समझानी।।

            घर-घर में बने पुनर्भरण
            पानी बह के न जाये।
            बहुत उपयोगी  विधी,
            सभी मन से अपनाये।।

            खेत-खेत डोली पास,
            बने अब छोटे बांध।
            पशु-पक्षी कलरव तान,
            फिर से बजे देखो नांद।।
      
           ©®
              रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)
     ‌

डॉ0हरि नाथ मिश्र

दूसरा-3
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
सुभ अरु असुभयइ फल कै भेदा।
निष्कामी नहिं रखहिं बिभेदा।।
      जे जन मन रह भोगासक्ती।
      अस जन बुधि नहिं निस्चय-सक्ती।।
अस्तु,होहु निष्कामी अर्जुन।
सुख-दुख-द्वंद्व तजहु अस दुर्गुन।।
      आत्मपरायन होवहु पारथ।
       लरहु धरम-जुधि बिनु कछु स्वारथ।।
पाइ जलासय भारी जग नर।
तजहिं सरोवर लघु तें लघुतर।।
       ब्रह्मानंद क पाइ अनंदा।
       बेद कहहिं नहिं नंदइ नंदा।
तव अधिकार कर्म बस होवै।
इच्छु-कर्म-फल नर जग खोवै।।
      तजि आसक्ती सुनहु धनंजय।
      करहु कर्म बिनु मन रखि संसय।।
भाव-समत्वयि,सिद्धि-असिद्धी।
करहु जुद्ध तुम्ह निस्चय बुद्धी।।
      ग्यानी जन जुड़ि बल-बुधि-जोगा।
      जन्म-बन्धनहिं तजि फल-भोगा।।
भइ निर्दोष सकल जग माहीं।
अमृत निहित परम पद पाहीं।।
       मिलइ बिराग तुमहिं हे अर्जुन।
       मोह- दलदलइ तिर तव बुधि सुन।।
दोहा-परमातम मा जबहिं सुन,स्थिर हो बुधि तोर।
        जोग-समत्वइ लभहु तुम्ह,नहिं संसय अह थोर।।
        किसुन-बचन अस सुनि कहेउ,अर्जुन परम बिनीत।
        स्थिर-बुधि जन कस अहहिं,हे केसव मम मीत ??
                        डॉ0हरि नाथ मिश्र
                        9919446372      क्रमशः.........

नूतन लाल साहू

प्रेम और स्पर्श

जिसने भी किया ध्यान
सच्चे मन से ईश्वर का
बडभागी है वह इंसान
उसे कोई क्लेश
स्पर्श न किया
प्रेम और क्या है
जीवन का ही गायन है
सिर्फ सांसे ही जरूरी नहीं है
जो हमको रखे जिंदा
बहुत जरूरी है
जीवन की धमनियों में
प्रेम रसायन
पोथी पढ़ी पढ़ी जुग गया
पंडित बना न कोय
ढाई आखर प्रेम का
पढ़य सो पंडित होय
ऐसी कौन सी समस्याएं है
जो प्रेम से न सुलझा हो
जो चाहता है
हो बात मधुरता की
और जीवन स्वर्ग बनें
वह कुछ ऐसी कोशिश करें
जिससे मजबूत हो
सबसे मैत्री संबंध
सफलता का सफर
टेढ़ा बड़ा है
यहां हर मोड़ पर
दुश्मन खड़ा है
पर जिसने भी किया ध्यान
सच्चे मन से ईश्वर का
बडभागी है वह इंसान
उसे कोई क्लेश
स्पर्श न किया

नूतन लाल साहू

विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल---
2122-1122-1122-22
अपने जलवों से वो हर शाम सजाते रहते
उनके हम नाज़ यूँ हँस हँस के  उठाते रहते 

कितनी रौनक़ है मेरी रात की तन्हाई में
उनकी यादों के मुसाफ़िर यहाँ आते रहते

इसलिए नूर बरसता है मेरे कमरे में
रात भर ख़्वाब में जलवा वो दिखाते रहते

भूल जाते वो किसी रोज़ तकल्लुफ़ ख़ुद ही
गाहे गाहे ही सही हाथ मिलाते रहते

छू नहीं सकती कभी आँच ग़मों की तुझको
तू रहे ख़ुश ये दुआ रोज़ मनाते रहते

तीरगी ज़हनो-ख़िरद से है यूँ घबराई हुई
सब्र के दीप जो हम रोज़ जलाते रहते 

फिर कोई आपसे शिकवा न शिकायत होती
जाम पर जाम निगाहों से पिलाते रहते

पास रक्खा न कभी उसने वफ़ा का *साग़र* 
दौलत-ए-इश्क़ हमीं कैसे लुटाते रहते 

🖋️विनय साग़र जायसवाल 
13/6/2021

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